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Home » मोर्चे पर विदागीत: सन्तोष अर्श

मोर्चे पर विदागीत: सन्तोष अर्श

‘चाय पर शत्रु-सैनिक’ कविता के लिए विहाग वैभव को 2018 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिल चुका है. चयनकर्ता थे वरिष्ठ कवि अरुण कमल. इसी सितम्बर (2023) में पटना में वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा द्वारा उनका पहला कविता-संग्रह ‘मोर्चे पर विदागीत’ लोकार्पित हुआ है. इसे राजकमल ने प्रकाशित किया है. इसका सुंदर आवरण शिराज़ हुसैन ने बनाया है. इस संग्रह की चर्चा कर रहें हैं युवा आलोचक संतोष अर्श जिनकी आलोचना की पहली किताब ‘पृथ्वी के लिए शब्द’ प्रकाशित ही होने वाली है. किसी भी कवि के लिए उसका पहला संग्रह ख़ास होता है. आइये देखते हैं इस संग्रह में क्या ख़ास है

by arun dev
October 26, 2023
in समीक्षा
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मोर्चे पर विदागीत: सन्तोष अर्श
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मेरी आवाज़ गर्म डामर का उबाल है
सन्तोष अर्श

प्रेम और अन्याय का प्रतिकार, ये काव्यात्मक मानवीय संवेदना के दो ध्रुव हैं. कविता इन्हीं से स्थायित्व प्राप्त करती है. यहीं से शुरू भी होती है कविता और कभी ख़त्म नहीं होती. यह ब्रह्मांड की तरह लचीली और अनन्त है. शब्द हो सकता है चुक जाएँ, अर्थ उनका हेरा जाये, किन्तु कविता बनी रहेगी. कवि होते हैं सितारों की तरह. दूर से प्रभावहीन दिखते, झिलमिलाते, निथरी हुयी धरती के आईने में कभी-कभी प्रतिबिम्बित. और दुर्धर्ष कवि वह होता है जो कविता को देशकाल की छाती पर कील की तरह ठोंक दे; दुर्दमनीय दुःख, प्रीति और सौन्दर्य से सिंचित, पल्लवित-खिले काव्य-पुष्पों को जीवन की अजस्र सापेक्ष धारा में तिरोहित कर दे.

कविता दुःख की तरलता में भीगे दामन की तरह भी होती है, जिसे तनिक निचोड़ने पर ही अव्यक्त पीड़ा रिसने लगती है. शायद तभी गंभीर कवि होने के लिए तरदामनी चाहिए. अच्छी और सरस, मुतास्सिर करने वाली कविता रचने के लिए झूठे व्यक्तित्व के खोल से बाहर आना पड़ता है. सभी बड़े कवियों ने इस खोल को उतार कर फेंका है, तब कविता अर्जित की है. आधुनिक कविता में आत्मनिर्वासन अपदस्थ व्यक्तित्व की यातनापूर्ण तटस्थता है. सत्य के नज़दीक पहुँचने की दुर्गम यात्रा में आत्मा तार-तार हो जाती है. देह की क्या बिसात है ? यह तो एक जीर्ण वस्त्र है, जो निसिदिन और जीर्ण होता जाता है.

युवा कविता का रोमान पके हुए हृदय को उसके कच्चेपन का स्मरण दिलाता है. उस प्यास की याद दिलाता है जो बुझी नहीं थी. खो गयी थी, कहीं शून्य में. अँग्रेज़ी के कई रोमांटिक कवि अत्यन्त युवावस्था में ही पकी हुयी कविता रचकर गुज़र गये थे. कवि के लिए यह भी एक त्रासदी है कि असमय उसका मन पक जाता है. वक़्त से पहले ही वह बुज़ुर्ग हो जाता है. जो कवि वक़्त से पहले परिपक्व नहीं होता, कविता उससे दूर भागती है. युवा कविता में निरीहता, आक्रोश, प्यार होता है और मोर्चे पर जाने की बेला प्यार के लिए गाया जाने वाला विदागीत भी होता है. Bella Ciao की तरह, जिसे कभी इतालवी खेतों में रोपाई करने वाले खेतिहर मज़दूर गाया करते थे और बाद में जो फ़ासिस्टों के विरुद्ध प्रतिरोध का पर्याय बन गया:

Una mattina mi son alzato.
O bella ciao, bella ciao, bella ciao ciao ciao.
Una mattina mi son alzato.
E ho trovato l′invasor.

(एक सुबह आयी
मैं उठा जाग कर, अलविदा जानेमन.
एक सुबह आयी, मैं उठा जाग कर
और मैंने देखे हमलावर! अलविदा जानेमन.)

युवा कवि विहाग वैभव की कविताएँ जिस ढंग से पढ़ी और सराही गयी हैं उससे मालूम होता है कि वे हिन्दी कविता की इक्कीसवीं सदी के विहाग भी हैं और वैभव भी. वे कविता में भाषा-प्रयोग और कहन के स्तर पर ध्यानाकर्षण करते हैं. उनके रूपक अत्यंत कलात्मक और नुकीले हैं. जैसी उर्दू कविता होती है, नोंक-पलक सँवारी हुई, वैसे ही उनकी कविताओं के शीर्षक सज-धज में नज़र आते हैं. उनकी कविताओं के कई सिरे हैं. पहली नज़र डालेंगे तो पाएंगे कि विहाग का कवि महाकाव्यात्मक पीड़ा से बना है-

दस हज़ार से मुझे याद आता है
पुश्तैनी पीड़ाओं के संग्रहालय, वहाँ मेरे गाँव में
ख़ून के रिश्ते से इतर एक चाचा थे
(यह कविताओं को खेतों में जोते जाने का समय है.)

इतनी पीड़ा से भरा बैठा था कि
ज़रा अकेले की ओट लेकर किसी ने हाल भर पूछा तो फफक पड़ा
(इतनी पीड़ा से भरा बैठा था)

माँ कहती है अपनी आँखों से अपने घाव नहीं देखने चाहिए पीड़ा बढ़ती है
(करुणा की ठिठोली से झूलता देहयात्री था प्रेम)

अर्थों वापस आओ अपने शब्दों में
पीड़ाओं मुझे अचेत करो
(कुम्हार के हाथ से)

अनंत ख़ामोश पीड़ाओं का पुल बनाता हूँ
(आबाद रहे ये मुर्दाघर)

दूसरी दृष्टि डालेंगे, तो देखेंगे कि विहाग के कवि को करुणा की उम्मीद है. करुणा कहाँ से उमगेगी ? वह कैसे बचेगी ? वह शेष है भी या नहीं ? इन प्रश्नों के उत्तर कम हैं. लेकिन करुणा की चाह है. बुद्ध की वह महाकरुणा क्या है ? ‘ऐसी कामना कि दूसरे भी दुःख से बरी हों, मैं भी दुःख से बरी रहूँ.’ और महाकरुणा का वह महासागर विहाग की कविताओं में हिलोरे मारता है, उफनता है फेनिल हो कर. तक़लीफ़ की बात ये है कि यथार्थ में करुणा कहीं नहीं है:

तुम थीं तो करुणा के कंधे भी थे
अब दु:ख ज़्यादा है, कम रोते हैं.
(तुम्हारी चाह की हूक)

फूलन ने जब धरती को चूमा, तब फूल जैसी थी
करुणा के दो फूल सी आँखें
(लगभग फूलन के लिए)

नहीं निहारी करुणा से भरी वो दो नीलम आँखें.
(रक्त कुंड में एक कमल दल)

घृणा की आग से उठते धुएँ से दम घुटने लगे तो
करुणा का गर्भ हमें कब तक जिंदा रख सकता है
(प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी-४)

इनकी प्यास मेरी करुणा का सागर सोख लेगी
(प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी-५)

करुणा के कमरे में देखो
हँसी हटाकर झाँको
सपनों की तलाशी लो
(मैं अपना प्रेम कहीं रख कर भूल गया हूँ)

फूलन देवी की करुणा के दो फूल-सी आँखें कितने लोगों ने देखी हैं ? कितने हृदयों में फूलन के लिए करुणा है ? बैंडिट क्वीन बना कर प्रस्तुत की गयी फूलन को पाठ के भीतर से कितना बाहर निकाला जा सकता है ? करुणा की यह उद्दाम चाह यही कह रही है कि विहाग के कवि को करुणा नहीं दिखती. वे करुणा चाहते भर हैं बस. ये करुणा की बेबस पुकार है. यह विचित्र संयोग है कि जब विहाग का संकलन ‘मोर्चे पर विदागीत’ छपकर आया है और पढ़ा जा रहा है तब इज़रायल और हमास का अमानुषिक युद्ध ज़ारी है. औरतों, बच्चों को मारा जा रहा है. करुणा के सुगंध वाले नन्हे फूलों को बारूद की तेज़ आग में ख़ाक-ख़ाक कर दिया जा रहा है. मनुष्यता के मलबे में करुणा का हाल इज़रायली बम धमाके में चिथड़े हो गयी किसी फ़िलिस्तीनी बच्चे की लाश की तरह है. कारुणिक चींखें हैं, पुकार है, मनाज़िर हैं; किंतु करुणा कहीं नहीं है.

पूँजी के शैतान की बनायी दुनिया केवल एक बाज़ार है. यहाँ तरह-तरह के ब्यौपार हैं. अच्छा है कि करुणा कहीं नहीं है, वरना उसे भी व्यापार में बदल दिया जाता. बाज़ार में ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए धर दिया जाता. इस प्रसंग पर स्मरण होती हुयी हिन्दी की महत्त्वपूर्ण कवि मोनिका कुमार ने किसी कविता में लिखा है :

पर इससे कहीं अधिक मुश्किल काम मैं कर चुकी थी,
जैसे मनुष्य से करुणा की उम्मीद करना.

फिर आती है प्रेम की विलोम घृणा. भारतीय समाज के भीतर जहाँ जातीय भेदभाव जैसी घृणित परम्परा का स्वीकार्य रहा है, यहाँ लोगों के उदर घृणा से (Hatred in belly) भरे रहते आये हैं और ज़रा सी अपच पर वे घृणा-वमन करने लगते हैं. कुछ लोगों के हिस्से में कम घृणा आयी. दलितों के हिस्से में अपरिमित घृणा आयी. वे प्रेम के बाड़े से बाहर कर दिये गये घृणित पशुओं के समान देखे गये. दलित बस्तियाँ अकारण घृणा का शिकार थीं. उनमें कभी भी आग लगायी जा सकती थी. वहाँ से बेगार के लिए मर्द पकड़े जाते थे और घृणित वीर्य उगलने के लिए स्त्रियाँ. पुलिस, क़ानून और राज्य के लिए भी लम्बे समय तक ये बस्तियाँ अदृश्य रही हैं :

वे वीर्य से नहीं घृणा से उपजे थे
(मानव द्रोहियों की जैविक संरचना में)

यहाँ से आगे
घृणा की आग में जली बस्तियाँ आएंगी
(इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ)

घर को कुछ नहीं बनना होता है
क्योंकि घर घृणा के विरुद्ध होता है
(सूर्य का नदी में डूबने की भाषा में विदा)

जब भी मैं उसे देखता हूँ
मुझे अपने पेशे से घृणा होने लगती है.
(चाय पर शत्रु सैनिक)

पुरातन घृणा की ज़ायी इस देश की सरकार ने
(यह कविताओं को खेतों में जोतने का समय है)

और सात समंदर घृणा के विष से जन्मीं सरकारें
बंजारा होने को देश के लिए ख़तरा बताती हैं.
(वही)

यदि आप प्रेम को नहीं चुनते
तो घृणा आपको चुन लेती है.
(सभ्यता की अदालत में तटस्थता एक अपराध है)

देरिदा कहते हैं कि ‘कवि रूपकों से बना आदमी है.’ ‘मवाद’ रूपक बताता है कि विहाग के कवि में एक भीषण जुगुप्सा गहरे धँसी है. यह एक निरीह दलित मन की जुगुप्सा है, कथित सभ्य और संस्कृति-परम्परा का राग अलापते रहने वाले समाज के प्रति. यह समाज जिसकी आत्मा अद्वैतवादी दर्शन से बनी है और वह प्रतिक्षण द्वैत का व्यवहार करता है, देवी प्रसाद मिश्र के शब्दों में ‘भेद मानता है अभेद गाता है.’ सवर्ण-सत्ता के कुसंस्कारों ने भारतीय समाज की आत्मा को अब तक निर्मल नहीं होने दिया. फूले, अम्बेडकर, पेरियार के सद्प्रयास और गाँधी का महात्म्य भी इस कलुष को पूर्णरूपेण धुल नहीं पाये. ‘मवाद’ रूपक का अनुप्रयोग कवि की इस असमर्थता का द्योतक है कि वह अपने भीतर की जुगुप्सा को इसके सहारे पूरी तरह से निकाल फेंकना चाहता था, परन्तु उसके पास कोई माक़ूल रूपक नहीं है. मवाद एक जैविक प्रक्रिया के अन्तर्गत उत्पन्न होता है जो पीड़ा, चिलकन, अस्वास्थ्य और गन्दगी की भाँति व्यंजित होता है. मानवीयता का यह मवाद विहाग ने साठोत्तरी कविता के मुहावरे की छाया से ग्रहण किया है, जहाँ धूमिल खड़े हैं:

लेकिन मुझे लगा कि एक विशाल दलदल के किनारे
बहुत बड़ा अधमरा पशु पड़ा हुआ है
उसकी नाभि में एक सड़ा हुआ घाव है
जिससे लगातार-भयानक बदबूदार मवाद
बह रहा है
(धूमिल, पटकथा)

सुदामा प्रसाद ‘पाण्डेय’ थे जिनके यहाँ मवाद कम था. विहाग कविता में दक्खिन टोले से आये हैं, इसलिए इनके यहाँ मवाद ज़्यादा है, क्योंकि वे भारतीय समाज को अधिक गन्दे-गलीज़ दिखायी देने वाले स्थान से देख रहे हैं :

मध्यकालीन मर्द के मस्तिष्क के मवाद से भरी
बच्चियाँ आएंगी
(इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ)

वे मनुष्य योनि में हुए और मनुष्यता के मवाद की तरह जीते रहे
(मानवद्रोहियों की जैविक संरचना में)

और छह पुरुषों के लिंग से बहता सभ्यता का वीर्य
मेरे मस्तिष्क में मवाद की तरह जम रहा है.
(हमारे चेहरों पर चीखों के धब्बे हैं)

पर घृणा के मवाद की खाद पाकर लहलहाती हुई तुम्हारी सभ्यता ने उन्हें भूख में डुबोकर मारा
(बहुत मामूली सी चीज़ें चाही थीं उन्होंने)

मवाद का रूपक-प्रयोग विहाग को साठोत्तरी कविता की कहन-शैली से जोड़ता है. हम उनके भाषा-प्रयोग में भी हिन्दी कविता के इस प्रभाव को देख सकते हैं. इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे कला की ओर जाना चाहते हैं, लेकिन सम्भाषण (rhetoric) उसमें बाधा है. यह भी कटु सत्य है कि उनकी कविता से यह वाग्मिता यदि अलग कर दी जाय तो इसमें बहुत कम कला शेष बचेगी. यहाँ ध्यान रखना आवश्यक है कि सम्भाषण ही विहाग की काव्य-कला में पॉलिशिंग का कार्य करता है.

‘बेहया का फूल’ रूपक है दलित-वंचित सर्वहारा का. उसके पास भी एक रंग है, मादकता है और हुस्न है, उपेक्षा की धुन में निमग्न रहने की. दलित बस्तियाँ गाँव की दक्षिण दिशा में होती हैं. जहाँ बबूल, श्मशान, ऊसर और भुतहे टीले होते हैं. दुर्गन्ध, कीचड़, नशा, बीमारियाँ, अभाव, असहायता, सामाजिक बहिष्करण और जातीय अपमान होते हैं. चाँदनी रातों में जहाँ मुर्दा पशुओं के हाँड़ चमकते हैं. वहीं आस-पास बरसाती तालाबों और नालों में उगता है बेहया. इसके फूलों पर उड़ते हैं श्याम और रक्तवर्णी ततैये. कीच में धँसे अपने लट्ठों पर पत्तों की झंडियाँ हिलाता बेहया किसी साइनबोर्ड सा दिखता है. ‘बेहया का फूल’ एक ऐसी कविता है जिसमें अपने होने (Being) की अगाध पीड़ा को गहरे दुःख में खिले बैंजनी रंग के अहं के साथ रचा गया है. यह एक बड़ी कविता है जो कहती है:

हमारे आसपास इतनी दुर्गंध थी कि
हम फूल होते हुए भी महक न सके
मगर खिलते रहे
(बेहया का फूल)

विहाग की प्रेम कविताएँ रोमांटिक कवियों की सी तरलता में रची जान पड़ती हैं. पीड़ा, घृणा और आक्रोश की कविताएँ वे प्रायः सुदीर्घ रचते हैं, लेकिन प्रेम कविताएँ उनकी छोटी हैं. यह छोटी कविताएँ प्रेमिल मन के विस्तृत, उचाट मैदान पर दूर तक पसर जाती हैं:

मेरे सपने में एक नाव थी
जिस पर सवार होकर मैं तुम्हें भगा ले जाता था
पर हर सपने की एक ही मुश्किल थी
के किनारे लगने के पहले
नींद टूट जाती थी
नाव डूब जाती थी.
(सपने की मुश्किल)

प्रेम में हम उतना ख़ुश नहीं रहे
बिछोह में झेली जितनी पीड़ा

अब बीता हुआ प्रेम
पुश्तैनी क़र्ज़ का दुःख है

समय के साथ बढ़ता ही जाता
मूल से अधिक चुकाया है सूद.
(हलफ़नामा)

प्रेम का कैसा अनूठा शपथ-पत्र है. बिछोह की पीड़ा चन्द रोज़ प्रेम के साथ प्रेम में होने की ख़ुशी पर बहुत भारी पड़ गयी है. बीते हुए प्रेम की तुलना पुश्तैनी क़र्ज़ से करके अपनी वेदना की बेहिसाबी का पता दिया गया है. पुश्तैनी क़र्ज़ ‘इनहेरिटेन्स ऑफ़ लॉस’ है. जिसे चुकाने की कोशिश दुनिया से बेज़ार कर देती है. ऐसी विरासत उम्र से पहले बड़ा कर देती है. ‘मूल से अधिक चुकाया है सूद’ के सामने तो ‘मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं’ भी कुछ कम नज़र आता है. बीते हुये प्रेम और बिछोह की पीड़ा को मूल और सूद से जोड़कर कवि सूद भरने की अवधि की उस अनिश्चितता की ओर संकेत कर रहा है, जिसका छोर नहीं. सूद पर उधार लेने वाले प्रेमी की दशा ‘गोदान’ के होरी की तरह हो जाती है. सूद अदा करते-करते एक दिन क़र्ज़दार यह मान लेता है कि मूल तो अब क्या ही चुकाया जा सकेगा ? बक़ौल शाइर :

अदा हुआ न क़र्ज़ और वजूद ख़त्म हो गया
मैं ज़िन्दगी का देते-देते सूद ख़त्म हो गया
फ़रियाद आज़र

विहाग प्रेम की अन्तहीन पीड़ा को अपने ढंग से व्यक्त करने में कमाल दिखा रहे हैं. एक छोटी सी कविता में इससे अधिक क्या ही कहा जा सकता है ? बस एक वर्गीय परिधि है, जिससे बाहर पड़ने वाले लोग इस वेदना को आत्मसात नहीं कर पाएंगे. जहाँ पुश्तैनी क़र्ज़ और सूद नहीं है. मार्क्स ने इसीलिए कलाकार को अपने वर्ग का प्रतिनिधि कहा है. प्रेम भी वर्गीय परिस्थितियों में घटता है. विहाग की अन्य प्रेम कविताएँ भी मार्मिक हैं और किशोरावस्था के प्रेम की तरह की तासीर रखती हैं. जिनमें ‘चाह का मर्सिया’ जैसी कविताओं को रखा जा सकता है. लेकिन हम जानते हैं कि न्याय की तरह प्रेम भी कहीं है नहीं या फिर ‘रेयर’ है. और यह एक ओवररेटेड विषय तो है ही. थोड़े और परिपक्व दर्शन को ओर बढ़ें तो एक दिन प्रेम की भी असलियत हम सब जान ही लेते हैं.

‘महामारी पर संग्रह में पाँच कविताएँ हैं. महामारी प्रायः महाख्यान होती है. उसे कविताओं में नहीं साधा जा सकता. विहाग ने अदृश्य लघुमानवों और उनकी पीड़ाओं को स्वर दिया है जो महामारी के दौरान राज्य की ओर से न केवल उपेक्षित हुए, बल्कि उसकी मूर्खताओं, निरंकुशताओं के टूल्स से उत्पीड़ित भी किये गये. जिसमें अमानवीयता, हृदयहीनता और निर्लज्जता की पराकाष्ठाएँ थीं; उस महामारी को आख्यान बनाकर ही प्रस्तुत किया जा सकता है. संभवतः तभी विहाग को पाँच कविताएँ लिखनी पड़ीं. ये काफ़ी नहीं हैं. फिर भी ये कोरोनाकाल का स्मृति-संघर्ष बनकर जीवित रहने वाली कविताएँ हैं. वह निःसहायता और निराशा का ऐसा रौरव-नर्क था जिसमें अनेक मानवीय मूल्य अर्थ खो चुके थे. अशोक वाजपेयी के शब्दों में ‘जीवित रहना ही एकमात्र मूल्य’ रह गया था. वहाँ भरोसे पर भरोसा ख़त्म हो चुका था:

अपने प्रेम और घृणा के लिए दलीलें देना बन्द करो
ताकि मैं अपने भरोसे पर पुनः भरोसा कर सकूँ
(प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी-१)

इस helplessness और hopelessness पर उस्ताद देरिदा फ़रमाते हैं- ‘हम निराशा की स्थिति में भले ही हों, अपेक्षा की भावना समय के साथ हमारे संबंध का एक अभिन्न अंग है. निराशा केवल इसलिए संभव है, क्योंकि हम आशा करते हैं कि कोई अच्छा, प्यार करने वाला व्यक्ति आएगा. यदि हाइडेगर का यही आशय है तो मैं उनसे सहमत हूँ.’ लिहाज़ा महामारी में भी यही मानवीय ‘अपेक्षा की भावना’ शेष रहती है, नहीं तो सारा कुछ अर्थहीन और एब्सर्ड जान पड़ता है. सब कुछ बहुत जल्दी विस्मृत कर देने और कराये जाने वाले हमारे समय के लोग करुणा के उन दृश्यों से मुँह मोड़ चुके हैं. कवि उनकी ओर मुँह किये अब तक खड़ा है.

लगभग फूलन के लिए’ कविता न केवल फूलन देवी की प्रतिशोध की भावना (Vengeance) का काव्यात्मक न्यायसंगतीकरण है, प्रत्युत वह प्रतिआख्यान का प्रस्तुतीकरण भी है. ‘स्तनों को चमार की तरह खटाया गया’ रूपक कवि के आक्रोश को तो अभिव्यक्त कर देता है, किन्तु पुरुषाकर्षण का स्थायी केन्द्र, मोहक और संवेदनशील स्त्री अंग को जाति से जोड़ने की यह काव्यचेष्टा हर तरह से अतिप्रयोग है. स्तन भी चाम ही से बने होते हैं, लेकिन कविता में उनका इस प्रकार का इस्तेमाल वर्जित होना चाहिए. ऐसे प्रयोग फ्रायडियन मनोविश्लेषण के निकट जाते हैं. ऐसा लगता है कि हैं ही.

‘मोर्चे पर विदागीत’ हिन्दी कविताओं का एक सच्चा संग्रह है. जहाँ रूपकों, अच्छे बिम्बों और सम्भाषण से चमकाई गयी ज़मीनी कविताएँ हैं. जहाँ ‘उद्विग्नता का साँप’, ‘उदासी की नदी’ और ‘मृत्यु का अनुवादक’ है. जिनमें मानवीय जीवन की यंत्रणा रची गयी है. अन्याय और घृणा का प्रतिकार किया गया है. बड़े वैचारिक श्रम से मिथकों के विरुद्ध प्रतिस्थापनाएँ खड़ी की गयी हैं. दोहरी सांस्कृतिकता और सामाजिकता का (वि)-खण्डन (Deconstruction) किया गया है. विहाग के पास अच्छी भाषा और प्रतीक हैं. उनके पास रोष और दुःख समान मात्रा में हैं. जिस दिन रोष घटेगा दुःख की मात्रा और बढ़ेगी. तब वे और अच्छे कवि बनेंगे. अच्छा कवि होने के लिए अच्छा ख़ासा दुःख उठाना पड़ता है. विहाग के पास पर्याप्त यातनाएँ (Sufferings) हैं. और कविता तो उनके पास है ही.

इस संग्रह को आप यहाँ से प्राप्त कर सकते हैं.

संतोष अर्श
कविताएँ, संपादन, आलोचना

.
रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित. आलोचना की पुस्तक ‘पृथ्वी के लिए शब्द’ शीघ्र प्रकाश्य.
poetarshbbk@gmail.com
Tags: 20232023 समीक्षामोर्चे पर विदागीतविहाग वैभवसंतोष अर्श
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Comments 3

  1. संदीप नाइक says:
    1 month ago

    बहुत बढ़िया समीक्षा लिखी है, एक सांस में पढ़ गया कई सन्दर्भ और उद्धहरणों से यह वजनी हो गई है

    विहाग का गुस्सा और व्यवस्था के प्रति सचेत नाराज़गी सभ्यता में हुए भेदभाव और उपेक्षा को लेकर है पर चीज़े बदल रही है, जागृति आ रही है और अब नए संदर्भों में राजनैतिक पक्ष – विपक्ष जरूर खोजा जा सकता है पर स्थितियाँ बदली है

    संतोष अंत में जो इशारे करते है उन पर ध्यान देने की भी ज़रूरत है

    Reply
  2. Hiralal Nagar says:
    1 month ago

    वैभव विहाग के कविता संग्रह ‘मोर्चे पर विदागीत’ की समीक्षा पढ़कर इसके समीक्षक संतोष अर्श को धन्यवाद देना निरर्थक नहीं जाएगा कि उनकी समीक्षा गहरे उत्तर कर बात करती है। कि वे इस समय के विरले आलोचक और समीक्षक हैं , जिन्हें पढ़ना निराश नहीं करता। कि वह सुलझा हुआ गद्य लिखते हैं कि कहते उनकी बात समझ में शनै: शनै: आने लगती है। कि वह किताब के प्रति जिज्ञासा पैदा कर ही देते हैं। किताब न भी पढ़ें तो भी समीक्षा भविष्य के लिए दस्तावेज बन जाती है।
    हीरालाल नागर ्

    Reply
  3. पद्मसंभव says:
    1 month ago

    संतोष जी से और ख़ुद विहाग से भी उद्धृत की गयी पंक्तियों और उनके विश्लेषणों से गहरी बातों की उम्मीद है. ज़रा जल्दी में लिखी गयी लगती है. मसलन, मूल और सूद का प्रेम कविता में रूपक, माज़रत लेकिन, घिसा हुआ है. और उसका प्रेम के संदर्भ में पढ़ा जाना कवि की सामाजिक पहचान के चलते ही थोड़ी बहुत व्यंजना रखता है.
    यदि समीक्षा ‘ इस मोड़ से जो लौटना चाहें वो लौट जाएँ ‘ जैसी कविताओं पर ठहरती तो मारक होती.

    Reply

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