ईरानी स्त्रियों का संघर्ष |
समकालीन हिन्दी साहित्यिक समाज में अद्भुत, अनूठी, अच्छी किताबें, सबसे पहले नज़रअन्दाज़ की जातीं हैं. फिर ऐसे समय में जब लेखक, लेखक कम और अपनी किताबों के प्रचार स्वरूप ख़ुद के प्रति स्थापनाएँ करने में लगे रहते हों तो उदारताओं का छोटा खजाना रखने वाला व्यक्ति भी, जिसको बाज़ार की अश्लीलता और सीमा का पता है, वह ख़ुद को लगातार अकेला होता हुआ पाता है.
बीते साल में खामोशी से जिस एक ऐसी ही किताब का आना हुआ, पहले तो वह अनुवादों की किताब है, फिर यह कि उसका अनुवादक एक ऐसा व्यक्ति है, जिसने प्रचार के अति से एक सुरक्षित दूरी बनाई हुई है. अनुवाद होना और अनुवादक का ऐसा होना, सोशल मीडिया पर शायद ज़रूरी ग्लैमर पैदा नहीं करता और इसलिए इस किताब की सबसे कम चर्चा हुई है. यह भी सच है कि अनुवादक, साहित्यिक समाज के सर्वहारा होते हैं और उनका काम अधिकांश साहित्य के इतिहास में उस तरह दर्ज नहीं होता जैसे होना चाहिए. साहित्यिक समाज में बहुधा वे दोयम दर्जे के ही नागरिक रहे हैं. इसके अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं. जैसे तुषार धवल. उन्होंने दिलीप चित्रे के जादुई अनुवाद मुमकिन किए हैं जिनकी लगभग नगण्य चर्चा हुई है. अनुवाद ख़ुद से बाहर का काम है और इसलिए ऐसी शुचिता और उदारता की माँग करता है, जो सबके बस की नहीं हैं और फिर कला की गुणवत्ता का मापक सिर्फ़ उसका शिल्प और उसकी तकनीक नहीं हो सकती. कला का कौशल उसकी राजनीति के चुनाव, उसके निर्माण में उठाये गये ख़तरे और उसकी वर्तमान प्रासंगिकता (भी) तय करते हैं. अनुवाद करते हुए भी आप चुनाव करते हैं और इसलिए अनुवाद आपकी राजनीति भी स्पष्ट करता है, आपके सोचने समझने के तरीक़े को उजागर करता है. इसके ख़तरे हैं और यह एक तप भी है जो सबसे सम्हलता नहीं.
इसलिए इन क़िस्सों, कविताओं, ब्लॉग पोस्टों का अनुवाद करते हुए सबसे पहले तो आप यादवेन्द्र के चयन से हतप्रभ होते हैं और फिर रश्क करते हैं कि ऐसी किताब, ऐसा संयोजन और ऐसी पक्षधरता, हिन्दी में मुकम्मल हुई है.
यादवेन्द्र के लिये यह सरल नहीं रहा होगा. जीवाश्म जमा करने वाले वैज्ञानिक बार-बार वर्तमान के बीच इतिहास के और ऐतिहासिकता के चिन्ह खोजते, उनसे दो चार होते रहते हैं. मसलन, समंदर किनारे एक-एक पत्थर उठाना, उसको एहतियात से सहलाना, उसकी धूल साफ़ करना, उसपर निशान खोजना और फिर आगे अगले पत्थर की ओर बढ़ना. वही, इवेंट की फेटिश से ज़्यादा प्रक्रिया का आग्रह, उसमें इतिहास का प्रस्फुटन दर्ज करना, उसको मिटने से बचाना, उसको किसी भी सत्ता के बरक्स दर्ज करना. क्या यादवेन्द्र की किताब बनाने की प्रक्रिया इसी तरह से उन ईरानी स्त्रियों के प्रतिरोध का मेटा नहीं है?
प्रतिरोध की प्रासंगिकता, उसकी ऐतिहासिकता और उसकी सफलता, तीनों इसके बाद ही समझी जा सकेगी, देखी जा सकेगी. प्रतिरोध के साहित्य का काम बिल्कुल साफ़ स्पष्ट है. शोषण के विभिन्न तंत्रों से इंगेज करना, अन्याय और सामाजिक चुनौतियों पर खुल कर बोलना, लिखना और शोषित का अनुभव खरे आडंबर रहित शब्दों में दर्ज करना.
सभ्यता के इतिहास में जैसे बर्बरता के अनगिनत उदाहरण हैं, उनके विरोध में लिखे गये साहित्य की भी उतनी ही उपस्थिति है. इस तरह का साहित्य मूलतः एक प्रयोजन से लिखा जाता है– सत्ता केंद्रों का प्रतिरोध करने के लिए, शोषण-आधारित समाज की कार्यकारिणी को उजागर करने के लिए, बदलाव की वकालत करने के लिए और पढ़ने वाला बनी हुई यथास्थिति को समझे और उससे प्रश्न कर सके, इसके लिए.
क्या यादवेन्द्र के इन अनुवादों का प्रकाशित होना इस नाते प्रासंगिक नहीं हो जाता? हाशिये की आवाज़ें केंद्र में आ सकें, राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलाव आ सके, ये ख़ुद में बड़ी बातें हैं और ईरान की महिलाओं के पक्ष में और इसलिए पूरी मानव जाति के पक्ष में यह किताब एक ऐसा मंजर सामने रखती है, जिसके होने से अभी तक या तो अनभिज्ञता रही है या उदासीनता.
अरुण कमल अपनी प्रस्तावना में इस किताब को लोकतांत्रिक संघर्ष का सांस्कृतिक पक्ष सामने रखने वाली किताब बताते हैं. ईरान जो कि फ़िल्मकारों और कवियों का देश है, वहाँ तानाशाही और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ सबसे आगे मोर्चे पर स्त्रियाँ खड़ी हैं और इन स्त्रियों की कहानियाँ, इनके अनुभव विभिन्न तरीक़ों से सामने आते हैं. बेचैन करतीं जेल डायरियाँ, लेख, ब्लॉग, पत्र, टिप्पणियाँ, लेख शामिल हैं जो उस षड्यंत्र को ज़ाहिर करते हैं जो सत्ता केंद्रों द्वारा रचित तंत्र आधारित धार्मिक कट्टरता और उसके द्वारा परिभाषित नैतिकता के घालमेल से किया जा रहा है और वहाँ लगातार स्त्रियाँ दोयम दर्जे के नागरिकों की हैसियत से जीने के लिए मजबूर की जा रही हैं.
न सिर्फ़ स्त्री आंदोलन बल्कि संपूर्ण मानवजाति के इतिहास में ईरानी स्त्रियों का यह प्रतिरोध अंग्रेज़ी में तो विभिन्न रूपों में बाहर आता रहा था, हिन्दी में ये नये दरवाज़े खोलता तो है ही. इनकी प्रासंगिकता इस लिहाज़ से भी बनती है कि बक़ौल अरुण कमल, ये विद्रोह पहले के विद्रोहों की भी याद दिलाते हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि औपनिवेशिक मानसिकता या चाहे जिस वजह से भी, हमारी दृष्टि, यूरोपीय और अमेरिकी घटनाओं, युद्धों, राजनीति आदि पर अधिक रहती है और उनका स्वीकार ज़्यादा खुले मन से किया जाता है. सांस्कृतिक और भाषाई रूप से हमारे ज़्यादा नज़दीक होने के बावजूद, समानताओं के बावजूद, बहुसंख्यक विचारधाराओं की वजह से मध्य पूर्व एशिया को लेकर, ईरान की जनता को लेकर जो मत हमारे बीच बने हुए हैं, वे पूर्वाग्रह ग्रसित और अति-स्थितियों की कल्पना से बने हैं.
इनका खंडन और सत्य-निर्माण दोनों काम ज़रूरी है और ये अनुवाद उस दिशा में एक बहुत ज़रूरी कदम उठाते हैं.
किताब की संरचना, उसकी शक्ति में इजाफ़ा करती है. किताब इस तरह से बनी है कि उसका प्रथम खंड ही जेल संस्मरणों से बना है और ये प्रसंग इतने मार्मिक हैं कि वे मूल मनुष्यता पर प्रश्न उठाते हैं. जो आदमी, आदमी बना नहीं सकता, मुर्दे में जान नहीं भर सकता, जिसने चीज़ों का इस्तेमाल सीखा है, उनका निर्माण नहीं, वही कितनी आसानी से अपनी ही प्रजाति को इस तरह की यातना दे सकता है, इस प्रकार की हिंसा कर सकता है, इतने-इतने लोगों को, ऐसी जीवन जीने पर मजबूर कर देता है जो कहीं से भी मनुष्य का जीवन कहलाने योग्य नहीं है.
यादवेन्द्र के अनुवाद इतने तरल हैं और इतनी घनी संवेदना से रचे गये कि मूल और अनुवाद का फर्क मिट जाता है और हर स्त्री की लिखत जैसे हिन्दी की ही लिखत बन जाती है. इस औदात्य के साथ मानव जाति की समग्रता की ओर अगर कोई लेखक पाठक को लेकर चला जाये तो उसकी महानता तय हो जाती है, अनुवादक का क्या? जेल खंड यह भी याद दिलाता है कि ये मानव इतिहास के ऐसे काले प्रसंग हैं, यातना के ऐसे अमानवीय उदाहरण जिनसे पार पाना और जिनको भूलना असंभव है
“उसके बाद उसने बताया कि ‘देखो, सब लोग एकदम ख़ामोश हैं, कोई किसी से बात नहीं कर रहा न. कुछ बोल रहा है. इसकी वजह जानती हो? इसकी वजह यह है कि वे हेवी मशीनगन की गोलियों की बौछार के बीच-बीच में आती इकलौती गोलियों की आवाज़ को सुन रहे हैं. होता यह है कि उनके दो बार हेवी मशीनगन से फ़ायरिंग करने के बीच में जो गोली की इकलौती आवाज़ आती है वह सामने से एक-एक क़ैदी के सिर में मारी जाती है. यहाँ सभी क़ैदी साँस रोक कर बैठे हैं और वे एक-एक ऐसी इकलौती गोली की आवाज को गिन रहे हैं, मुझे इकलौती गोली की आवाज़ साफ़-साफ़ सुनाई दी. यह आवाज़ सुनते ही मेरी आँखों के सामने दोपहर में देखी दोनों सुंदर लड़कियों की शक्लें तैर गयीं”. (पृष्ठ २१)
फिर भी यह अनूठा नहीं है कि हर हिंसक दृश्य से लड़ती हुई एक स्त्री है जो नायक की तरह उभरती है, उसकी नई परिभाषाएँ गढ़ती है और फिर उन परिभाषाओं और विद्रोहों की प्रासंगिकता को पुनर्स्थापित करती है. इससे बड़ा काम मानव इतिहास में दूसरा नहीं है
“जेल में ही सही लेकिन नये कपड़े पहन कर, हमने खूब गाना गाया और उत्सव मनाया, जेल में हमने. अपने लिए पढ़ाई का सेशन रखा था हालाँकि जेल के अंदर हमें कोई किताब नहीं मिलती थी, हमने यह तय कर रखा था कि जेल के अंदर चाहे कितनी भी मुश्किलें आयें हम अपने आप को मायूसी और नाउम्मीदी के हवाले नहीं करेंगे”. (पृष्ठ ३९)
न सिर्फ़ एक अत्यंत निराशा की स्थिति में यह जीवन के प्रति एक बेमिसाल आग्रह है बल्कि अदम्य बहादुरी भी है. स्त्री और नागरिक अधिकारों को लेकर, एक नयी बहस किताब सामने रखती है. जेल के संस्मरणों की तरह जेल और अन्य जगहों से लिखीं इन स्त्रियों की चिट्ठियाँ भी हैं जो एक दुर्निवार जिजीविषा का परिचय देती हैं. विकट परिस्थितियों में भी मनुष्यता की गरिमा का ह्रास नहीं होता और करुणा और प्रेम इन सभी स्त्रियों के चरित्र के सबसे धवल गुण हैं.
फ़ारसी के प्रमुख कवियों में से एक माज़िद नफ़ीसी की पत्नी, इज़्ज़त ताबियाँ कट्टर धार्मिक हुकूमत के ख़िलाफ़ लड़ीं और १८९२ में उन्हें गिरफ़्तार कर गोलियों से उड़ा दिया गया था. उन्होंने जेल से एक चिट्ठी लिखी, उसका एक अंश क़ाबिले गौर है-
“मेरी कोई ख़ास ख्वाहिश नहीं है. बस ये कहना चाहती हूँ कि जीवन की खूबसूरती कभी विस्मृत नहीं की जा सकती. ज़िंदा रहते लोगों को अपने जीवन से ज़्यादा से ज़्यादा खूबसूरती प्राप्त करते रहने के लिए प्रयत्न करना चाहिए.”(पृष्ठ ७६)
इस किताब की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि ये हसीन ख़्वाबों से परे जाकर द्वंदात्मक उम्मीद की बात करती है. सबसे उदास घड़ी में बेहतरी का सपना देखना, सबसे कठिन हारी हुई परिस्थिति में लड़ने के लिए ख़ुद को तैयार करना, घने अंधकार में दिव्य उज्ज्वल प्रकाश और इन स्थितियों में मौजूद इन अद्भुत बहादुर स्त्रियों के मन में संशय का न होना, एक साफ़गोई और उस वैचारिकता के लिए शहीद होने से भी कोई गुरेज़ नहीं.
कोई अतिशयोक्ति नहीं कि सत्ताएँ इनसे डरती हैं. इस पुस्तक के संदर्भ में यादवेन्द्र के चयन और अनुवादों की, और उन्होंने जिस प्रकार से पुस्तक सजाई है, इसकी एक और विशेषता है. साहित्य की गुणवत्ता को मापने का एक पैमाना यह भी है कि वह हमेशा आपकी स्थानिकता और आपके समय से संवाद करता है. इसलिए किताब न सिर्फ़ पितृसत्ता की बखिया उधेड़ती हुई, उसके वर्तमान स्वरूप की आलोचना का एक दस्तावेज बनती है, बल्कि पूंजीवाद की उदारवादी चकाचौंध से अलग अब कैसे फ़ाशीवाद के ज़रिये उसकी क्रूरताएँ जग-ज़ाहिर हो रही हैं, इसको भी बतलाती है. अपना समय बतलाना यही तो है.
किताब बताती है कि कैसे ऐसी सत्ताएँ अपने नागरिकों को उनके मूलभूत अधिकारों से अलग करती हैं जिनमें सबसे ऊपर शिक्षा का अधिकार है, क्योंकि इस संदर्भ में पढ़ गयीं स्त्रियाँ अपनी ग़ुलामी को, अपने उत्पीड़न को कभी स्वीकार नहीं करेंगी. जो शिक्षित होगा, उसको शोषण का स्वीकार नहीं होगा, बहुत पुरानी बात है और बार-बार दोहराई जानी चाहिए. इस ज़रूरी किताब की प्रासंगिकता इस बात से भी स्थापित होती है कि यह मध्यवर्गीय उदासीनता और सुविधापरस्ती को बार-बार चुनौती देती है.
यादवेन्द्र की अपनी प्रगतिशील राजनीति भी यहाँ उभर कर बाहर आती है. बहुत शोर वाले समय में, जब साहित्यिक समाज में हमले होना, उन हमलों के बाद कई दिनों तक उनका दोनों पक्षों द्वारा इस्तेमाल होना इत्यादि प्रचलन में है, रोमन ग्लैडियेटरों की तरह योद्धाओं को भिड़ाया जाता है, खामोशी से अपना काम करने वाले लेखक से सीखना चाहिए. इस किताब पर और बात होनी चाहिए. बहुत बात होनी चाहिए. कियरोस्तामी की एक प्रसिद्ध फ़िल्म है, “द विंड विल कैरी अस”. ईरानी कवि फ़रूग़ फ़रोख्ज़ाद की एक कविता से उन्होंने यह शीर्षक लिया है. यादवेन्द्र ने अहमद करीमी हक्काक के अंग्रेज़ी अनुवाद को आधार बना कर उसका हिंदी में अनुवाद किया है –
ओ तुम, सिर से पाँव तक हरे-भरे
बढ़ाकर रख दो अपनी हथेलियाँ
उत्तप्त स्मृतियों की मानिंद
मेरी आसक्त हथेलियों के ऊपर
अपने रस भरे होठों को
करने दो चुंबन मेरे प्रेमासक्त होठों का
लगे तो कि हम उत्सव मना रहे हैं
अपने ज़िंदा होने का
हवा बह ले जाएगी हमें
(पृष्ठ ४३६)
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अंचित 1990 दो कविता संग्रह प्रकाशित– ‘साथ-असाथ’ और ‘शहर पढ़ते हुए’ anchitthepoet@gmail.com |
एक महत्वपूर्ण क़िताब के बारे में सारगर्भित जानकारी देने के लिए अंचित हिन्दी जी को बहुत धन्यवाद।
एक बेहतरीन किताब के बारे में पहली और महत्वपूर्ण लिखत के लिए अंचित को साधुवाद। इस आलेख की सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें वे इस किताब की सामाजिक, नैतिक व राजनीतिक सार्थकता को बहुत सफलता से प्रकाशित कर रहे हैं। साथ ही वे अनुवादकों के कठिन श्रम जो कई बार अलक्षित रह जाता है व उनकी अटूट प्रतिबद्धता पर भी ज़रूरी बात कर रहे हैं। इस समीक्षा के बहाने वे ईरान में अब भी स्त्रियों को दोयम दर्जे़ पर रखने की विडम्बना की ओर उन पाठकों का ध्यान खींचते हैं जिन्होंने अब तक यह किताब नहीं पढ़ी है।
कुल मिलाकर यह समीक्षा इस किताब के मीठे जाम से भरे पहले घूंट सी अनछुई व प्रभावी है, उसके स्वाद व सुगंध को ठीक – ठीक परिभाषित करती हुई। मुझे यह भी लगता है कि यह संचयन किन्हीं अच्छी कहानियों का रूटीन अनुवाद मात्र न होकर एक लेखक का सुदीर्घ प्रेम व मनुष्यता के प्रति उसकी अटूट प्रतिबद्धता की बानगी है। 2023 की चंद बेहतरीन किताबों में से एक यह पढ़ने वालों के लिए स्थाई महत्व की सामग्री है। इसके पाठक कभी कम न होंगे। समीक्षक व लेखक को बहुत बधाई।