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Home » जयशंकर प्रसाद की कहानी पुरस्कार

जयशंकर प्रसाद की कहानी पुरस्कार

‘पुरस्कार’ को प्रेम और राष्ट्र-प्रेम के द्वंद्व की कहानी के रूप में देखा जाता रहा है. इसके प्रकाशन के शतवर्ष पूरे होने को ही हैं. वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने इसका पुर्नपाठ करते हुए इसे भूमि अधिग्रहण और उसके प्रतिरोध की कहानी कहा है. कालजयी कहानियाँ इसी तरह अपने पाठों से अपना जीवन पाती हैं. समकाल उन्हें अपनी नज़र से पढ़ता है और उनमें अपना समय देखता है. प्रसाद अतीत को देखते हुए भविष्य तक जाने वाले महान रचनाकार हैं. इस आलेख को पढ़ने से पहले 1931 के आस-पास की इस कहानी को भी दुबारा पढ़िये. ताज़गी इसमें अभी भी है. एक बनते हुए राष्ट्र के आत्मविश्वास से आपका सामना होगा. यह ख़ास अंक प्रस्तुत है.

by arun dev
June 22, 2024
in कथा
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जयशंकर प्रसाद की कहानी पुरस्कार
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पुरस्कार
जयशंकर प्रसाद

 

 

आर्द्रा नक्षत्र; आकाश के काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुन्दुभी का गम्भीर “घोष. प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण-पुरुष झाँकने लगा था. देखने लगा महाराज की सवारी. शैलमाला के अंचल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी. नगरतोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामरधारी शुंड उन्नत दिखाई पड़ा. वह हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा.

प्रभात की हेम-किरणों से अनुरंजित नन्ही-नन्ही बूंदों का एक झोंका स्वर्ण-मल्लिका के समान बरस पड़ा. मंगल सूचना से जनता ने हर्ष-ध्वनि की.

रथों, हाथियों और अश्वरोहियों की पंक्ति जम गई. दर्शकों की भीड़ भी कम न थी. गजराज बैठ गया, सीढ़ियों से महाराज उतरे. सौभाग्यवती और कुमारी सुन्दरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल-कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बड़े.

महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान थी. पुरोहित-वर्ग ने स्वस्त्ययन किया. स्वर्ण-रंजित हल मूठ पकड़कर महाराज ने जुते हुए सुन्दर पुष्ट बैलों को चलने का संकेत किया. बाजे बजने लगे. किशोरी कुमारियों ने खीलों और फूलों की वर्षा की.

कौशल का यह उत्सव प्रसिद्ध था. एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ता-उस दिन इन्द्र-पूजन की धूमधाम होती; गोठ होती. नगर-निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनन्द मनाते. प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से सम्पन्न होता; दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योग देते.

मगध का एक राजकुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था.

बीजों का एक थाल लिए कुमारी मधूलिका महाराज के साथ थी. बीज बोते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधूलिका उनके सामने थाल कर देती. यह खेत मधूलिका का था, जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान मधूलिका को ही मिला. वह कुमारी थी. सुन्दरी थी. कौशेयवसन उसके शरीर पर इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था. वह कभी उसे सम्हालती और कभी अपनी रूखी अलकों को. कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न थी, वे सब बरौनियों में गूंथे जा रहे थे. सम्मान और लज्जा उसके अधरों पर मन्द मुस्कराहट के साथ सिहर उठते; किन्तु महाराज को बीज देने में उसने शिथिलता नहीं की. सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे-विस्मय से, कुतूहल से और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधूलिका को. आह, कितना भोला सौन्दर्य! कितनी सरल चितवन!

उत्सव का प्रधान कृत्य समाप्त हो गया. महाराज ने मधूलिका के खेत का पुरस्कार दिया, थाल में कुछ स्वर्ण मुद्राएँ. वह राजकीय अनुग्रह था. मधूलिका ने थाली सिर से लगा ली; किन्तु साथ उसमें की स्वर्ण मुद्राओं को महाराज पर न्योछावर करके बिखेर दिया. मधूलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे! महाराज की भृकुटि भी जरा चढ़ी ही थी कि मधूलिका ने सविनय कहा-

देव! यह मेरे पितृ-पितामहों की भूमि है. इसे बेचना अपराध है; इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है.

महाराज के बोलने के पहले ही वृद्ध मन्त्री ने तीखे स्वर से कहा-

अबोध! क्या बक रही है? राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कौशल का तो यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है. तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारिणी हुई, इस धन से अपने को सुखी बना.

राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है, मन्त्रिवर!…महाराज को भूमिसमर्पण करने में मेरा कोई विरोध न था और न है; किन्तु मूल्य स्वीकार करना असम्भव है.

मधूलिका उत्तेजित हो उठी थी. महाराज के संकेत करने पर मन्त्री ने कहा

देव! वाराणसी-युद्ध के अन्यतम वीर सिंहमित्र की यह एकमात्र कन्या है.

महाराज चौंक उठे

सिंहमित्र की कन्या! जिसने मगध के सामने कौशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधूलिका कन्या है.

हाँ, देव!

सविनय मन्त्री ने कहा.

इस उत्सव के परम्परागत नियम क्या हैं, मन्त्रिवर?

महाराज ने पूछा.

देव, नियम तो बहुत साधारण हैं. किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार-स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है. वह भी अत्यन्त अनुग्रहपूर्वक अर्थात् भू-सम्पत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है. उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष-भर देखता है. वह राजा का खेत कहा जाता है.

महाराज को विचार-संघर्ष से विश्राम की अत्यन्त आवश्यकता थी. महाराज चुप रहे. जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई. सब अपने-अपने शिविरों में चले गए, किन्तु मधूलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा. वह अपने खेत की सीमा पर विशाल मधूक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही.

रात्रि का उत्सव अब विश्राम ले रहा था. राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं हुआ. अपने विश्राम-भवन में जागरण कर रहा था. आँखों में नींद न थी. प्राची में जैसी गुलाबी खिल रही थी, वह रंग उसकी आँखों में था. सामने देखा तो मुण्डेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाये अंगड़ाई ले रही थी. अरुण उठ खड़ा हुआ. द्वार पर सुसज्जित अश्व था, वह देखते-देखते नगर-तोरण पर जा पहुँचा. रक्षक-गण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे.

युवक-कुमार तीर-सा निकल गया. सिंधु देश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था. घूमता-घूमता अरुण उसी मधूक-वृक्ष के नीचे पहुंचा, जहाँ मधूलिका अपने हाथ पर सिर धरे हुए खिन्न-निद्रा का सुख ले रही थी.

अरुण ने देखा, एक छिन्न माधवीलता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है. सुमन मुकुलित, भ्रमर निस्पन्द थे.

अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को देखने के लिए, परन्तु कोकिल बोल उठा. जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया- छि:, कुमारी के सोए हुए सौन्दर्य पर दृष्टिपात करने वाले धृष्ट, तुम कौन?

मधूलिका की आँखें खुल पड़ीं. उसने देखा, एक अपरिचित युवक.

वह संकोच से उठ बैठी.

भद्रे! तुम्हीं न कल के उत्सव की संचालिका रही हो?

उत्सव! हाँ, उत्सव ही तो था.

कल उस सम्मान…

क्यों, आपको कल का स्वप्न सता रहा है? भद्र! आप क्या मुझे इस अवस्था में सन्तुष्ट न रहने देंगे?

मेरा हृदय तुम्हारी उस छवि का भक्त बन गया है, देवि!

मेरे उस अभिनय का, मेरी विडम्बना का. आह! मनुष्य कितना निर्दयी है, अपरिचित! क्षमा करो, जाओ अपने मार्ग.

सरलता की देवि! मैं मगध का राजकुमार तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ मेरे हृदय की भावना अवगुण्ठन में रहना नहीं जानती. उसे अपनी….

राजकुमार! मैं कृषक-बालिका हूँ. आप नन्दबिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीने वाली. आज मेरी स्नेह की भूमि पर से मेरा अधिकार छीन लिया गया. मैं दुःख से विकल हूँ; मेरा उपहास न करो.

मैं कौशल-नरेश से तुम्हारी भूमि तुम्हें दिलवा दूंगा.

नहीं, वह कौशल का राष्ट्रीय नियम है. मैं उसे बदलना नहीं चाहती, चाहे उससे मुझे कितना ही दुःख हो.

तब तुम्हारा रहस्य क्या है?

यह रहस्य मानव-हृदय का है, मेरा नहीं. राजकुमार, नियमों से यदि मानव-हृदय बाध्य होता, तो आज मगध के राजकुमार का हृदय किसी राजकुमारी की ओर न खिंचकर एक कृषक-बालिका का अपमान करने न आता.

मधूलिका उठ खड़ी हुई.

चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा. किशोर किरणों में उसका रत्नकिरीट चमक उठा. अश्व वेग से चला जा रहा था और मधूलिका निष्ठुर प्रहार करके क्या स्वयं आहत न हुई? उसके हृदय में टीस-सी होने लगी. वह सजल नेत्रों से उड़ती हुई धूल देखने लगी.

मधूलिका ने राजा का प्रतिपादन, अनुग्रह नहीं लिया. वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखी खाकर पड़ रहती. मधूक-वृक्ष के नीचे छोटी-सी पर्णकुटीर थी. सूखे डंठलों से उसकी दीवार बनी थी. मधूलिका का वही आश्रय था. कठोर परिश्रम से रूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था.

दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कान्ति थी. आसपास के कृषक उसका आदर करते. वह एक आदर्श बालिका थी. दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे.

शीतकाल की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड-घूप. मधूलिका का छाजन टपक रहा था! ओढ़ने की कमी थी. वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी. मधूलिका अपने अभाव को आज बढ़ाकर सोच रही थी. जीवन से सामंजस्य बनाए रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं; परन्तु उनकी आवश्यकता कल्पना के साथ बढ़ती-घटती रहती है. आज बहुत दिनों पर उसे बीती हुई बात स्मरण हुई. दो, नहीं नहीं, तीन वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक के नीचे प्रभात में- तरुण राजकुमार ने क्या कहा था.

वह अपने हृदय से पूछने लगी- उन चाटुकारी के शब्दों को सुनने के लिए उत्सुक-सी वह पूछने लगी-क्या कहा था? दुःख-दग्ध हृदय उन स्वप्न-सी बातों को स्मरण कर सकता था? और स्मरण ही होता, तो भी कष्टों की इस काली निशा में वह कहने का साहस करता. हाय री विडम्बना!

आज मधूलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी. दारिद्र्य की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया है. मगध की प्रसाद-माला के वैभव का काल्पनिक चित्र-उन सूखे डंठलों के रन्ध्रों से, नभ में बिजली के आलोक में-नाचता हुआ दिखाई देने लगा. खिलवाड़ी शिशु जैसे श्रावण की संध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकाता है, वैसे ही मधूलिका मन-ही-मन कह रही थी. ‘अभी वह निकल गया.’ वर्षा ने भीषण रूप धारण किया. गड़गड़ाहट बढ़ने लगी; ओले पड़ने की सम्भावना थी. मधूलिका अपनी जर्जर झोंपड़ी के लिए काँप उठी. सहसा बाहर कुछ शब्द हुआ.

कौन है यहाँ?

पथिक को आश्रय चाहिए.

मधूलिका ने डंठलों का कपाट खोल दिया. बिजली चमक उठी. उसने देखा एक पुरुष घोड़े की डोर पकड़े खड़ा है. सहसा वह चिल्ला उठी-राजकुमार!

मधूलिका?

आश्चर्य से युवक ने कहा..

एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया. मधूलिका अपनी कल्पना को सहसा प्रत्यक्ष देखकर चकित हो गई- इतने दिनों बाद आज फिर!

अरुण ने कहा

कितना समझाया मैंने, परन्तु…

मधूलिका अपनी दयनीय अवस्था पर संकेत करने देना नहीं चाहती थी. उसने कहा

और आज उसकी यह क्या दशा है?

सिर झुकाकर अरुण ने कहा

मैं मगध का विद्रोही निर्वासित कौशल में जीविका खोजने आया हूँ.

मधुलिका उस अंधकार में हँस पड़ी

मगध के विद्रोही राजकुमार का स्वागत करें एक अनाथिनी कृषक-बालिका, यह भी एक विडम्बना है, तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूँ.

शीतकाल की निस्तब्ध रजनी, कुहरे में धुली हुई चाँदनी, हाड़ कँपा देनेवाला समीर, तो भी अरुण और मधूलिका दोनों पहाड़ी गह्वर के द्वार पर वट-वृक्ष के नीचे बैठे हुए बातें कर रहे हैं. मधूलिका की वाणी में उत्साह था, किन्तु अरुण जैसे अत्यन्त सावधान होकर बोलता.

मधूलिका ने पूछा

जब तुम इतनी विपन्न अवस्था में हो, तो फिर इतने सैनिकों के साथ रहने की क्या आवश्यकता है.

मधूलिका! बाहुबल ही तो वीरों की आजीविका है. ये मेरे जीवन-मरण के साथी हैं, भला मैं इन्हें कैसे छोड़ देता? और करता ही क्या?
क्यों? हम लोग परिश्रम से कमाते और खाते. अब तो तुम….

भूल न करो, मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ. नए राज्य की स्थापना कर सकता हूँ. निराश क्यों हो जाऊँ? –

अरुण के शब्दों में कम्पन था; वह जैसे कुछ कहना चाहता था; पर कह न सकता था.

नवीन राज्य! ओहो, तुम्हारा उत्साह तो कम नहीं. भला कैसे? कोई ढंग बताओ, तो मैं भी कल्पना का आनन्द ले लूं.

कल्पना का आनन्द नहीं मधूलिका, मैं तुम्हें राजरानी के सम्मान में सिंहासन पर बिठाऊँगा! तुम अपने छिने हुए खेत की चिन्ता करके भयभीत न हो.

एक क्षण में सरल मधूलिका के मन में प्रमाद का अन्धड़ बहने लगा- द्वन्द्व मच गया. उसने सहसा कहा-

आह, मैं सचमुच आज तक तुम्हारी प्रतीक्षा करती थी राजकुमार.

अरुण ढिठाई से उसके हाथों को दबाकर बोला-

तो मेरा भ्रम था, तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो?

युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वह हाँ भी नहीं कह सकी, ना भी नहीं. अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया. कुशल मनुष्य के समान उसने अवसर को हाथ से न जाने दिया. तुरन्त बोल उठा-

तुम्हारी इच्छा हो, तो प्राणों से पण लगा कर मैं तुम्हें इस कौशल-सिंहासन पर बिठा दूँ. मधूलिके! अरुण के खड्ग का आतंक देखोगी?

मधूलिका एक बार काँप उठी. वह कहना चाहती थी…नहीं; किन्तु उसके मुँह से निकला-

क्या?

सत्य मधूलिका, कौशल-नरेश तभी से तुम्हारे लिए चिन्तित हैं. यह मैं जानता हूँ, तुम्हारी साधारण-सी प्रार्थना वह अस्वीकार न करेंगे और मुझे यह भी विदित है कि कौशल के सेनापति अधिकांश सैनिकों के साथ पहाड़ी दस्युओं का दमन करने के लिए बहुत दूर चले गए हैं.

‘मधूलिका की आँखों के आगे बिजलियाँ हँसने लगीं. दारुण भावना से उसका मस्तक विकृत हो उठा. अरुण ने कहा-

तुम बोलती नहीं हो?

जो कहोगे, वह करूँगी

मन्त्रमुग्ध-सी मधलिका ने कहा.

स्वर्णमंच पर कौशल-नरेश अर्द्धनिद्रित अवस्था में आँखें मुकुलित किए हैं. एक चामरधारिणी युवती पीछे खड़ी अपनी कलाई बड़ी कुशलता से घुमा रही है. चामर के शुभ्र आन्दोलन उस प्रकोष्ठ में धीरे-धीरे संचालित हो रहे हैं. ताम्बूलवाहिनी प्रतिमा के समान दूर खड़ी है.

प्रतिहारी ने आकर कहा

जय हो देव! एक स्त्री कुछ प्रार्थना करने आई है.

आँख खोलते हुए महाराज ने कहा- स्त्री! प्रार्थना करने आई है? आने दो. प्रतिहारी के साथ मधूलिका आई. उसने प्रणाम किया. महाराज ने स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा

तुम्हें कहीं देखा है?

तीन बरस हुए देव. मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी.

ओह, तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताए, आज उसका मूल्य मांगने आई हो, क्यों? अच्छा-अच्छा तुम्हें मिलेगा. प्रतिहारी!

नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए.

मूर्ख! फिर क्या चाहिए? उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वहीं मैं अपनी खेती करूँगी. मुझे सहायक मिल गया. वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी बनाना होगा.

महाराज ने कहा-

कृषक-बालिके! वह बड़ी ऊबड़-खाबड़ भूमि है. तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्त्व रखती है.

तो फिर निराश लौट जाऊँ?

सिंहमित्र की कन्या! मैं क्या करूँ, तुम्हारी यह प्रार्थना…

देव! जैसी आज्ञा हो!

जाओ, तुम श्रमजीवियों को उसमें लगाओ. मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का आदेश करता हूँ.

जय हो देव!-कहकर प्रणाम करती हुई मधूलिका राजमन्दिर के बाहर आई.

दुर्ग के दक्षिण, भयावने नाले के तट पर, घना जंगल है, आज मनुष्यों के पद-संचार से शून्यता भंग हो रही थी. अरुण के छिपे वे मनुष्य स्वतन्त्रता से इधर-उधर घूमते थे. झाड़ियों को काटकर पथ बन रहा था. नगर दूर था, फिर उधर यों ही कोई नहीं आता था. फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधूलिका का अच्छा खेत बन रहा था. तब इधर की किसको चिन्ता होती?

एक घने कुंज में अरुण और मधूलिका एक-दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे. सन्ध्या हो चली थी. उसी निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे.

प्रसन्नता से अरुण की आँखें चमक उठीं. सूर्य की अंतिम किरण झुरमुट में घुसकर मधूलिका के कपोलों से खेलने लगी. अरुण ने कहा

चार प्रहर और, विश्वास करो, प्रभात में ही इस जीर्ण-कलेवर कौशल-राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतन्त्र राष्ट्र का अधिपति बनूँगा, मधूलिके!

भयानक! अरुण, तुम्हारा साहस देख मैं चकित हो रही हूँ. केवल सौ सैनिकों से तुम…

रात के तीसरे प्रहर मेरी विजय-यात्रा होगी. तो तुमको इस विजय पर विश्वास है?

अवश्य, तुम अपनी झोंपड़ी में यह रात बिताओ; प्रभात से तो राज-मन्दिर ही तुम्हारा लीला-निकेतन बनेगा.

मधूलिका प्रसन्न थी; किन्तु अरुण के लिए उसकी कल्याण-कामना सशंक थी. वह कभी-कभी उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती. अरुण उसका समाधान कर देता. सहसा कोई संकेत पाकर उसने कहा- अच्छा, अंधकार अधिक हो गया. अभी तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राण-पण से इस अभियान के प्रारम्भिक कार्यों को अर्द्ध रात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए; तब रात्रि-भर के लिए विदा! मधूलिके!

मधूलिका उठ खड़ी हुई. कँटीली झाड़ियों से उलझती हुई क्रम से, बढ़ने वाले अंधकार में वह झोंपड़ी की ओर चली. पथ अंधकारमय था और मधूलिका का हृदय भी निविड़-तम से घिरा था. उसका मन सहसा विचलित हो उठा, मधुरता नष्ट हो गई. जितनी सुख-कल्पना थी, वह जैसे अंधकार में विलीन होने लगी. वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो? फिर सहसा सोचने लगी-वह क्यों सफल हो? श्रावस्ती का दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाये? मगध का चिरशत्रु! ओह, उसकी विजय! कौशलनरेश ने क्या कहा था- ‘सिंहमित्र की कन्या.’

सिंहमित्र, कौशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है?

नहीं, ‘नहीं, मधूलिका! मधूलिका!!’ जैसे उसके पिता उस अंधकार में पुकार रहे थे. वह पगली की तरह चिल्ला उठी. रास्ता भूल गई. रात एक पहर बीत चली, पर मधूलिका अपनी झोंपड़ी तक न पहुँची. वह उधेड़-बुन में विक्षिप्त-सी चली जा रही थी. उसकी आँखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अंधकार में चित्रित होती जाती. उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा. वह बीच पथ में खड़ी हो गई. प्राय: एक सौ उल्काधारी अश्वारोही चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक था. उसके बाएँ हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड्ग. अत्यन्त धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ पर चल रही थी, परन्तु मधूलिका बीच पथ से हिली नहीं. प्रमुख सैनिक पास आ गया; पर मधूलिका अब भी नहीं हटी. सैनिक ने अश्व रोककर कहा

कौन?

कोई उत्तर नहीं मिला. तब तक दूसरे अश्वारोही ने कड़ककर कहा

तू कौन है, स्त्री? कौशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे.

रमणी जैसे विकार-ग्रस्त स्वर में चिल्ला उठी

बाँध लो, मुझे बाँध लो. मेरी हत्या करो. मैंने अपराध ही ऐसा किया है.

सेनापति हँस पड़े, बोले

पगली है.

पगली नहीं, यदि वही होती, तो इतनी विचार-वेदना क्यों होती?

सेनापति! मुझे बाँध लो. राजा के पास ले चलो.

क्या है, स्पष्ट कह!

श्रावस्ती का दुर्ग एक प्रहर में दस्युओं के हस्तगत हो जाएगा. दक्षिणी नाले के पार उनका आक्रमण होगा.

सेनापति चौंक उठे. उन्होंने आश्चर्य से पूछा-

तू क्या कह रही है? मैं सच कह रही हूँ; शीघ्रता करो.

सेनापति ने अस्सी सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं बीस अश्वारोहियों के साथ दुर्ग की ओर बढ़े. मधूलिका एक अश्वारोही के साथ बाँध दी गई. श्रावस्ती का दुर्ग, कौशल राष्ट्र का केन्द्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था. भिन्न राजवंशों ने उसके प्रान्तों पर अधिकार जमा लिया है. अब वह केवल कई गाँवों का अधिपति है. फिर भी उसके साथ कौशल के अतीत की स्वर्ण-गाथाएँ लिपटी हैं. वही लोगों की ईर्ष्या का कारण है. जब थोड़े-से अश्वारोही बड़े वेग से आते हुए दुर्ग-द्वार पर रुके, तब दुर्ग के प्रहरी चौंक उठे. उल्का के आलोक में उन्होंने सेनापति को पहचाना, द्वार खुला. सेनापति घोड़े की पीठ से उतरे. उन्होंने कहा-

अग्निसेन! दुर्ग में कितने सैनिक होंगे.

सेनापति की जय हो! दो सौ.

उन्हें शीघ्र ही एकत्र करो; परन्तु बिना किसी शब्द के. सौ को लेकर तुम शीघ्र ही चुपचाप दुर्ग के दक्षिण की ओर चलो.

आलोक और शब्द न हों. सेनापति ने मधलिका की ओर देखा. वह खोल दी गई. उसे अपने पीछे आने का संकेत कर सेनापति राजमन्दिर की ओर बढ़े. प्रतिहारी ने सेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया. वह अपनी सुख-निद्रा के लिए प्रस्तुत हो रहे थे; किन्तु सेनापति और साथ में मधूलिका को देखते ही चंचल हो उठे. सेनापति ने उन्हें कहा-

जय हो देव! इस स्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है.

महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा–

सिंहमित्र की कन्या! फिर यहाँ क्यों? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है. कोई बाधा? सेनापति! मैंने दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की भूमि इसे दी है. क्या उसी सम्बन्ध में तुम कहना चाहते हो?

देव! किसी गुप्त शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने का प्रबन्ध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ में यह सन्देश दिया है.

राजा ने मधूलिका की और देखा. वह काँप उठी. घृणा और लज्जा से वह गड़ी जा रही थी. राजा ने पूछा-

मधूलिका, यह सत्य है!

हाँ, देव!

राजा ने सेनापति से कहा-

सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो. मैं अभी आता हूँ!

सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा-

सिंहमित्र की कन्या! तुमने एक बार फिर कौशल का उपकार किया. यह सूचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है. अच्छा, तुम यहीं ठहरो. पहले उन आततायियों का प्रबन्ध कर लूँ.

अपने साहसिक अभियान में अरुण बन्दी हुआ और दुर्ग उल्का के आलोक में अतिरंजित हो गया. भीड़ ने जयघोष किया. सबके मन में उल्लास था. श्रावस्ती दुर्ग आज दस्यु के हाथ में जाने से बचा. आबाल-वृद्ध-नारी आनन्द से उन्मत्त हो उठे.

उषा के आलोक में सभा-मण्डप दर्शकों से भर गया. बन्दी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हुँकार करते हुए कहा- ‘वध करो!’ राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी

प्राण-दण्ड!

मधूलिका बुलाई गई. वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई. कौशल-नरेश ने पूछा-

मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, मांग. वह चुप रही.

राजा ने कहा-

मेरी निज की जितनी खेती है, मैं सब तुम्हें देता हूँ.

मधूलिका ने एक बार बन्दी अरुण की ओर देखा. उसने कहा-

मुझे कुछ न चाहिए.

अरुण हँस पड़ा. राजा ने कहा-

नहीं, मैं तुझे अवश्य दूंगा. माँग ले.

          तो मुझे भी प्राणदण्ड मिले.

कहती हुई वह बन्दी अरुण के पास जा खड़ी हुई.

(१९३१ ई. में प्रकाशित ‘आँधी ‘ कहानी संग्रह में संकलित)


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जयशंकर प्रसाद
30 जनवरी, 1890; वाराणसी
स्कूली शिक्षा मात्र आठवीं कक्षा तक. तत्पश्चात् घर पर ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, पालि और प्राकृत भाषाओं का अध्ययन. इसके बाद भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, साहित्य और पुराण-कथाओं का एकनिष्ठ स्वाध्याय. पिता देवीप्रसाद तम्बाकू और सुँघनी का व्यवसाय करते थे और वाराणसी में इनका परिवार ‘सुँघनी साहू’ के नाम से प्रसिद्ध था. पिता के साथ बचपन में ही अनेक ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों की यात्राएँ कीं.

छायावादी कविता के चार प्रमुख उन्नायकों में से एक. एक महान लेखक के रूप में प्रख्यात. विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन. 48 वर्षों के छोटे-से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबन्ध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ.

प्रमुख कृतियाँ : ‘झरना’, ‘आँसू’, ‘लहर’, ‘कामायनी’ (काव्य); ‘स्कन्दगुप्त’, ‘अजातशत्रु’, ‘चन्द्रगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, ‘राज्यश्री’ (नाटक); ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आँधी’, ‘इन्द्रजाल’ (कहानी-संग्रह); ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’ (उपन्यास).

14 जनवरी, 1937 को वाराणसी में निधन.

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भय: होमेन बरगोहाईं: अनुवाद : रीतामणि वैश्य

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