जवाहरलाल नेहरू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया
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राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत के राष्ट्रवादी नेतृत्व ने आज़ादी की लड़ाई में उच्च शिक्षा के इदारों के महत्त्व को बख़ूबी समझा था. वे इस बात को भली-भाँति जानते थे कि ये विश्वविद्यालय, कॉलेज और इनमें पढ़ने वाले छात्र सिर्फ़ आज़ादी की लड़ाई ही नहीं बल्कि आज़ादी के बाद के हिंदुस्तान को गढ़ने में अहम भूमिका निभाएँगे. अकारण नहीं कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, राजाजी, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेता विश्वविद्यालयों के छात्रों से लगातार संवाद करते रहे. क्रांतिकारी भगत सिंह ने तो इसी मुद्दे ‘विद्यार्थी और राजनीति’ शीर्षक से एक विचारोत्तेजक लेख भी लिखा था.
आज़ादी के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने विश्वविद्यालयों के छात्रों-शिक्षकों से संवाद करने का यह सिलसिला अनवरत जारी रखा. एक बार छात्रों को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने मानव-समाज के लिए विश्वविद्यालयों की महत्ता बताते हुए कहा था कि ‘विश्वविद्यालय मानवतावाद के पक्ष में खड़ा होता है. विश्वविद्यालय सहिष्णुता, विवेक, विचारों के साहस और सत्य की खोज का पक्षधर होता है. विश्वविद्यालय उच्च आदर्शों की ओर मानव समाज की उत्तरोत्तर प्रगति की राह प्रशस्त करता है.’
नेहरू विश्वविद्यालयों को एक ऐसी उदात्त जगह के रूप में देखते थे, जो इंसान को उसकी तमाम संकीर्णताओं और पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है. ऐसे में इन विश्वविद्यालयों को संसाधनों का कोई अभाव न हो, उन्हें पूरी अकादमिक स्वायत्तता मिले, छात्रों और शिक्षकों को ऐसा माहौल मिले, जिसमें उनकी प्रतिभा का समुचित विकास हो सके, इसके लिए नेहरू हमेशा प्रतिबद्ध रहे. विश्वविद्यालयों के साथ नेहरू का कितना गहरा लगाव था, इसे हम आगे इस लेख में जामिया मिल्लिया इस्लामिया से नेहरू के जुड़ाव के हवाले से देखेंगे.
जामिया का आरम्भिक दौर और नेहरू
वर्ष 1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी ने सरकारी स्कूलों, कॉलेज-यूनिवर्सिटी के बहिष्कार का आह्वान किया था. उसी दौरान अक्टूबर 1920 में गांधी अलीगढ़ गए और वहाँ उन्होंने एक ऐतिहासिक भाषण दिया था. तब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कुछ राष्ट्रवादी शिक्षकों और छात्रों ने गांधी के आह्वान पर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी छोड़ दी थी. इन्हीं शिक्षकों और छात्रों के समूह ने अलीगढ़ में ही एक राष्ट्रवादी संस्थान स्थापित करने का प्रयास शुरू किया. इसी क्रम में अक्टूबर 1920 में जामिया मिल्लिया की स्थापना समिति की बैठक हुई. मुख़्तार अहमद अंसारी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुलेमान नदवी, अब्दुल बारी, मुहम्मद इक़बाल, सैफ़ुद्दीन किचलू, अब्बास तैयबजी, सैयद महमूद, अब्दुल हक़ आदि इस समिति के सदस्य थे. इस तरह 29 अक्टूबर 1920 को अलीगढ़ में मौलाना महमूद हसन की मौजूदगी में जामिया मिल्लिया की स्थापना हुई. अगले महीने यानी नवम्बर 1920 में जामिया के अकादमिक और प्रशासनिक संगठन ने समुचित रूप लिया.[1] हकीम अजमल खाँ को जामिया का पहला चांसलर (अमीर-ए-जामिया) चुना गया और मौलाना मोहम्मद अली जौहर जामिया के पहले वाइस-चांसलर (शेख़-उल-जामिया) बने. इसके साथ ही जामिया का कार्यकारिणी समिति (सिंडिकेट), बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टीज़ और अकादमिक परिषद भी स्थापित हुई. जामिया के इस पूरे अकादमिक संगठन में ख़िलाफ़त कमेटी के सदस्यों की प्रभावशाली मौजूदगी थी.
जब जामिया मिल्लिया की स्थापना हुई, तब जवाहरलाल नेहरू भी जामिया मिल्लिया को देखने के उद्देश्य से अलीगढ़ गए, जो मौलाना मोहम्मद अली जौहर के निर्देशन में संचालित हो रही थी. अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के तमाम छात्र असहयोग और ख़िलाफ़त आंदोलन के समर्थन में जामिया मिल्लिया में दाखिल हो रहे थे और मौलाना मोहम्मद अली ने अपने नेतृत्व में इस नवस्थापित विश्वविद्यालय को ऊर्जा से भर दिया था. उसी दौरान नेहरू ने जामिया मिल्लिया के बारे में एक लेख भी लिखा था, जिसमें उन्होंने जामिया को ‘असहयोग आंदोलन की संतान’ कहा था.
वर्ष 1922 में महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को वापस लिए जाने और ख़िलाफ़त आंदोलन के ख़त्म होने के बाद जामिया मिल्लिया के सामने अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संकट उठ खड़ा हुआ. तब जामिया को संकट से उबारने का काम हकीम अजमल खाँ, मुख़्तार अहमद अंसारी और अब्दुल मजीद ख़्वाजा ने किया था. वर्ष 1925 में जामिया मिल्लिया के अलीगढ़ से दिल्ली स्थानांतरित होने के बाद डॉ. एम.ए. अंसारी और अब्दुल मजीद ख़्वाजा (1885-1962) ने जामिया के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने की दृष्टि से पूरे हिंदुस्तान सहित विदेश का दौरा भी किया.
वर्ष 1926 में जामिया को डॉ. ज़ाकिर हुसैन, आबिद हुसैन और मोहम्मद मुजीब के रूप में समर्पित शिक्षकों की एक नई जमात मिली. क्रमशः अर्थशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और इतिहास में शोध करने वाले इन विद्वानों ने जामिया को एक नई ज़िंदगी दी और उसको एक मज़बूत आधार प्रदान किया. डॉ. ज़ाकिर हुसैन जामिया के कुलपति बने और वे 1926 से 1948 तक जामिया के कुलपति रहे. इस विश्वविद्यालय को गढ़ने में, उसे प्रतिष्ठा दिलाने में उन्होंने अतुलनीय योगदान दिया. जामिया को आर्थिक संकट से उबारने के लिए ज़ाकिर हुसैन के नेतृत्व में जामिया मिल्लिया के शिक्षकों ने एक सोसाइटी बनाई ‘अंजुमन-ए-जामिया मिल्लिया’ (अंजुमन तालीम-ए-मिल्ली) और उन लोगों ने यह क़सम ली कि वे अगले बीस सालों तक डेढ़ सौ रुपए मासिक से अधिक की पगार नहीं लेंगे. यह जामिया के प्रति उन शिक्षकों की प्रतिबद्धता की अद्भुत मिसाल थी.
जामिया के पहले चांसलर रहे हकीम अजमल खाँ का वर्ष 1928 में निधन हुआ. इस अवसर पर जामिया द्वारा उनकी याद में ‘अजमल जामिया फंड’ स्थापित किया गया. जिस मीटिंग में यह कोश बनाने की बात तय हुई, उसमें जवाहरलाल नेहरू और उनके पिता मोतीलाल नेहरू एकसाथ मौजूद थे. इसके साथ ही उस मीटिंग में मदन मोहन मालवीय, मौलाना मोहम्मद अली, श्रीनिवास आयंगर, मौलाना आज़ाद, डॉ. एम.ए. अंसारी, सरोजिनी नायडू, टी. प्रकाशम भी उपस्थित थे.[2]
जामिया की रजत-जयंती और नेहरू
नवम्बर 1946 में जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया की रजत-जयंती मनाई जा रही थी, तब उस मौक़े पर जवाहरलाल नेहरू ने दो शुभकामना संदेश जामिया मिल्लिया को भेजे. जिसमें एक संदेश जामिया के तत्कालीन कुलपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन के बारे में था तो दूसरा ख़ुद जामिया मिल्लिया के बारे में. उस संदेश में नेहरू ने लिखा कि ‘अपने लम्बे सार्वजनिक जीवन में वे जिन प्रख्यात और सुयोग्य लोगों के सम्पर्क में आए. उन सभी में डॉ. ज़ाकिर हुसैन एक ऐसी शख़्सियत हैं, जिन्होंने योग्यता और कार्यक्षमता की अनूठी नज़ीर पेश की है.’ नेहरू ने कहा कि हम लोग, जिन्हें वाहवाही और प्रसिद्धि मिलती है, ऐसा कौन-सा काम कर सके हैं, जो चिरस्थायी रहेगा. लेकिन डॉ. ज़ाकिर हुसैन के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता. क्योंकि उन्होंने जामिया मिल्लिया को खड़ा करने का जो काम किया है, वह चिरस्थायी और कालजयी है, इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता. जामिया मिल्लिया को भेजे अपने दूसरे संदेश में नेहरू ने कहा कि जामिया मिल्लिया से जुड़ी उनकी यादें असहयोग आंदोलन से जुड़ी हुई हैं.
अपने इस संदेश में नेहरू ने यह भी जोड़ा कि डॉ. ज़ाकिर हुसैन और उनके सहयोगियों के रूप में जामिया मिल्लिया को ऐसे शिक्षक मिले, जिन्होंने तमाम कठिनाइयाँ झेलते हुए जामिया को सकुशल संचालित करने में योगदान दिया. नेहरू ने रेखांकित किया कि इन पच्चीस बरसों में जामिया मिल्लिया ने ख़ुद को एक अनूठी संस्था के रूप में स्थापित किया है. जामिया ने छात्रों को केवल डिग्री हासिल करने के लिए तैयार नहीं किया, बल्कि उसने बड़े उद्देश्यों के लिए निःस्वार्थ भाव से काम करने वाले चरित्रवान लोग तैयार किए. नेहरू ने उम्मीद जताई कि ‘जामिया समृद्ध हो, अपने आदर्शों को सामने रखकर आगे बढ़े, और ऐसे लोगों को तैयार करे जो हिंदुस्तान के सच्चे वारिस साबित हों और जो लोगों की सेवा करते हुए समाज और देश को और ऊँचाई पर ले जाएँ.’[3] नेहरू जामिया की रजत जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में भी शरीक हुए थे. यह दिलचस्प है कि इस समारोह में मंच पर नेहरू के साथ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, आसफ़ अली, ज़ाकिर हुसैन तो थे ही साथ ही मुहम्मद अली जिन्ना और लियाक़त अली खाँ भी मंच पर मौजूद थे.
नेहरू और जामिया : एक वाक़या
हिंदुस्तान को आज़ादी मिले कुछ वक़्त ही बीता था, विभाजन से उपजा साम्प्रदायिक तनाव का माहौल दिल्ली में अभी कम नहीं हुआ था. यह उसी दौर का वाक़या है, जिसका ज़िक्र नेहरू ने सालों बाद मार्च 1960 में विजयलक्ष्मी पंडित को लिखे एक ख़त में किया था. नेहरू तब दिल्ली में यॉर्क रोड (अब मोतीलाल नेहरू मार्ग) स्थित अपने आवास में रात्रि भोजन कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ कि एक उत्तेजित भीड़ ओखला स्थित जामिया मिल्लिया पर हमला करने जा रही है. नेहरू ख़ाने की मेज़ से तुरंत जामिया के लिए रवाना हुए. जब वे जामिया पहुँचे तो उन्होंने पाया कि जामिया के शिक्षक और छात्र एक जगह पर इकट्ठा हैं और अपनी और यूनिवर्सिटी की सुरक्षा के बाबत चिंतित हैं. नेहरू ने उन लोगों के साथ कुछ वक़्त बिताया और उन्होंने पुलिस को जामिया की सुरक्षा के लिए सभी ज़रूरी प्रबंध करने के निर्देश दिए.
माहौल शांत होने के बाद नेहरू जब जामिया से रवाना हुए तो उन्होंने सड़क पर कुछ ग्रामीणों की भीड़ देखी, जिनके माथे पर चिंता की लकीरें साफ़ दिखाई पड़ रही थीं. नेहरू ने अपनी गाड़ी रुकवाई और वे उस भीड़ से मुख़ातिब हुए. उन्हें पता चला कि वे नज़दीक के गाँव के हिंदू हैं और उन्हें डर है कि आसपास के मुस्लिम उनके गाँव पर हमला करने जा रहे हैं. नेहरू ने उन चिंतित ग्रामीणों को आश्वासन दिया और कहा कि ये सब बेबुनियाद बातें हैं और हमले की बात महज़ अफ़वाह है क्योंकि मुसलमान तो ख़ुद अपने ऊपर हमले के ख़तरे से डरे हुए हैं. नेहरू ने उन ग्रामीणों से अफ़वाहों से बचने और उत्तेजित न होने का आग्रह किया और फिर वे वापस लौटे.[4]
जनवरी 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय स्मारक कोश’ बना. फ़रवरी 1948 में जब ज़ाकिर हुसैन ने हाफ़िज़ फ़ैयाज़ अहमद सरीखे जामिया के अपने सहयोगियों द्वारा गांधी स्मारक कोश के लिए दी गई राशि नेहरू को भेजी, तब नेहरू ने अपने जवाबी ख़त में उन्हें शुक्रिया अदा करते हुए लिखा कि जामिया उनके दिल के बहुत क़रीब है और जो काम जामिया ने किया है, उसकी अहमियत को वे बख़ूबी समझते हैं. नेहरू ने यह भी कहा कि कुछ ही संस्थाओं ने अपने आदर्शों को उस तरह निभाया है, जैसे कि जामिया ने. जामिया ने आदर्शों के साथ-साथ अपनी प्रेरणा और ऊर्जा को भी बरकरार रखा है. नेहरू ने उस ख़त में महात्मा गांधी को याद करते हुए लिखा कि गांधीजी के जाने के बाद हम सभी की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उन सभी कामों में ख़ास दिलचस्पी लें, जिन्हें गांधीजी पसंद करते थे और जामिया उनमें से एक है. नेहरू ने ज़ाकिर हुसैन से यह वादा भी किया कि जामिया के लिए वे हरसंभव प्रयास करेंगे.[5]
प्रौढ़ शिक्षा का सवाल
दिसम्बर 1952 में नेहरू ने जामिया में प्रौढ़ शिक्षा पर आयोजित एक राष्ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन किया. ‘इंडियन एडल्ट एजुकेशन एसोसिएशन’ द्वारा आयोजित इस तीन दिवसीय सेमिनार की अध्यक्षता शिक्षाविद डॉ. अमरनाथ झा कर रहे थे, जो ख़ुद भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के कुलपति रहे थे. ग़ौरतलब है कि ख़ुद जामिया ने अपने शुरुआती दिनों से ही प्रौढ़ शिक्षा को बढ़ावा देने में बढ़-चढ़कर योगदान दिया था. वर्ष 1938 में ही जामिया में इस उद्देश्य से ‘इदारा-ए-तालीम-ओ-तरक़्क़ी’ की स्थापना हो चुकी थी.
उस अवसर पर दिए अपने भाषण में नेहरू ने कहा कि हिंदुस्तान जैसे मुल्क में प्रौढ़ शिक्षा की अहमियत को कम करके नहीं आँका जा सकता. प्रौढ़ शिक्षा की बाबत नेहरू ने कहा कि इसका उद्देश्य सिर्फ़ लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाना भर नहीं हो, बल्कि उनके ज़ेहन में विश्वास जगाना और उन्हें सीखने के लिए प्रेरित करना भी होना चाहिए. उन्होंने आगे यह भी जोड़ा :
साक्षरता ही सब कुछ नहीं है. मैं ऐसे बहुत-से लोगों से मिला हूँ जिनके पास यूनिवर्सिटी की डिग्रियाँ तो हैं पर मैंने उन्हें अशिक्षित ही पाया है. वहीं दूसरी ओर मैं ऐसे निरक्षर किसानों से भी मिला हूँ, जो असल में शिक्षित कहे जा सकते हैं. मैंने उन्हें अधिक मानवीय पाया है, भले ही वे अपना नाम न लिख सकते हों. मेरे मन में हिंदुस्तान की निरक्षर जनता के लिए गहरा सम्मान है. मेरे लिए वे लोग तथाकथित साक्षर लोगों से कहीं अधिक बुद्धिमान और सुसंस्कृत हैं.[6]
जनवरी 1953 में जब जामिया को दिए जाने वाले अनुदान और बजट सम्बन्धी प्रावधानों को लेकर वित्त मंत्रालय ने कुछ सवाल खड़े किए, तब नेहरू ने शिक्षा मंत्रालय और तत्कालीन उप वित्त-मंत्री महावीर त्यागी को ख़त लिखकर कहा कि जामिया जैसे संस्थान को वार्षिक बजट और पंचवर्षीय योजनाओं की सीमाओं में रहते हुए हरसंभव मदद दी जानी चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि जामिया सरीखे संस्थानों की क्षमता पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए.[7]
कुलपति और प्रधानमंत्री
डॉ. ज़ाकिर हुसैन तो जवाहरलाल नेहरू के अत्यंत आत्मीय थे ही. उनके बाद जामिया के कुलपति बने इतिहासकार मोहम्मद मुजीब से भी नेहरू जामिया से जुड़े विभिन्न मसलों पर पत्राचार करते रहे. ग़ौरतलब है कि प्रो. मोहम्मद मुजीब 1948 से लेकर 1973 तक जामिया के वाइस-चांसलर रहे थे. अप्रैल 1960 में मोहम्मद मुजीब ने नेहरू को एक पत्र लिखकर कुछ सासंदों द्वारा जामिया पर आरोप लगाए जाने के प्रकरण से अवगत कराया. मुजीब यह भी जानना चाहते थे कि क्या जामिया के चांसलर अब्दुल मजीद ख़्वाजा को इस मामले के लिए कोई समिति गठित करनी चाहिए. नेहरू ने अपने जवाबी ख़त में कहा कि उन्होंने ऐसे किसी आरोप के बारे में नहीं सुना है, ना ही वे उन सांसदों के बारे में जानते हैं, जिन्होंने ये आरोप लगाए हैं. साथ ही, नेहरू ने ऐसे निराधार आरोपों के लिए समिति गठित करने के विचार से अपनी असहमति जताई. उन्होंने कहा कि उचित यही होगा कि उन सांसदों की शंकाओं और उनके द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब उन्हें निजी तौर पर दे दिया जाए. नेहरू ने कहा कि अगर कोई निराधार आरोप लगाने पर ही तुला होगा तो निश्चित ही समिति बना देने से भी वह आरोप लगाने से नहीं बाज आएगा. मोहम्मद मुजीब के उस ख़त को नेहरू ने शिक्षा मंत्रालय को भी उचित क़दम उठाने के लिए भेजा.[8]
उसी साल जामिया के स्थापना के चालीस साल पूरे हो रहे थे. अक्टूबर 1960 में जामिया के चालीसवीं वर्षगाँठ से जुड़ी तैयारियों के सिलसिले में मोहम्मद मुजीब नेहरू से मिले और उन्हें उक्त समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया. इसकी जानकारी नेहरू ने शिक्षा मंत्री कालूलाल श्रीमाली को भी एक ख़त लिखकर दी. मुजीब ने नेहरू को बताया कि जामिया को राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था का दर्जा देने के सम्बन्ध में एक प्रस्ताव शिक्षा मंत्रालय द्वारा तैयार किया जा रहा है. इस संदर्भ में मुजीब ने सुझाव दिया कि जामिया से जुड़े उस विधेयक को संसद द्वारा अगले सत्र में पारित कराना चाहिए. नेहरू ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे अगले सत्र में उस विधेयक को संसद में पारित कराने का पूरा प्रयास करेंगे. इसके साथ ही मोहम्मद मुजीब ने जामिया में निर्माण-कार्य और दूसरे कामों के लिए अनुदान की भी माँग की. साथ ही, उन्होंने सुझाया कि तीसरी पंचवर्षीय योजना में भी जामिया को अनुदान देने का प्रावधान किया जाना चाहिए. इस पर भी नेहरू ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे इस बारे में शिक्षा मंत्रालय और योजना आयोग से चर्चा करेंगे और तदनुरूप फ़ैसला लेंगे.[9]
अमली काम पर ज़ोर : जामिया के छात्रों से मुख़ातिब नेहरू
नेहरू ने न केवल जामिया में दीक्षांत समारोह और स्थापना दिवस समारोह जैसे महत्त्वपूर्ण अवसरों पर आयोजित कार्यक्रमों में शिरकत की, बल्कि इन तमाम मौक़ों पर छात्रों को उन्होंने सम्बोधित भी किया. यहाँ ऐसे ही दो अवसरों की चर्चा हम करेंगे.
नेहरू नवम्बर 1959 में जामिया मिल्लिया इस्लामिया के रुरल इंस्टीट्यूट के उपाधि वितरण समारोह में सम्मिलित हुए. जामिया के कुलपति मोहम्मद मुजीब भी तब वहाँ मौजूद थे. रुरल इंस्टीट्यूट जैसे संस्थान हिंदुस्तान के गाँवों और शहरों को जोड़ने वाली कड़ी बनेंगे, ऐसी उम्मीद नेहरू ने जताई. इस अवसर पर दिए अपने भाषण में नेहरू ने कृषि प्रधान देश में दी जाने वाली शिक्षा में खेती और किसानी से जुड़े ज्ञान को अहमियत देने के सम्बन्ध में कहा कि
‘मोटे तौर से हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में खासतौर से जहाँ की देहाती आबादी है, जहाँ का अव्वल सवाल किसान का है, जमीन का है वहाँ जो पढ़ाई दी जाये, उसका खास संबंध हो जमीन और किसान और देहाती सवालों से.’
नेहरू ने स्पष्ट किया कि उनका तात्पर्य शहर और देहात की तालीम को अलग खाँचों में बाँटने से नहीं, बल्कि खेती-किसानी से जुड़े पहलुओं को स्कूलों में दी जाने वाली तालीम में शामिल करने से है. इसी क्रम में नेहरू ने नए हिंदुस्तान के लिए ‘इल्मी तालीम’ के साथ-साथ ‘अमली काम’ पर ज़ोर दिया और दोनों को जोड़ने का सुझाव देते हुए कहा :
इल्मी तालीम जो कि बिलकुल ज़रूरी है वो जोड़ी जाय अमली काम से, और खासतौर से यह कि दिमाग से यह ख़्याल निकाला जाय लोगों के, कि अमली काम कोई नीच चीज है, खालिस इल्मी काम ऊँची चीज है, इसको मैं बहुत ही गलत और खतरनाक ख्याल समझता हूँ. मैं खालिस इल्मी काम को यह नहीं समझता कि वो गलत चीज है, कोई करे, लोग ऐसे हैं ऊँचे दर्जे के, जो करें, लेकिन यह ख़्याल गलत है, लोगों के लिए, आम लोगों के लिए. और जब तक यह ख़्याल पूरी तौर से निकलता नहीं है हमारे दिमाग से, हमारे यहाँ यह तबतक अलग-अलग कास्ट सिस्टम रहेगा. हर जगह पर मैं इस कास्ट सिस्टम को पाता हूँ बड़ी तबीयत परेशान होती है. हमारी सर्विसेस में कास्ट सिस्टम, अलग-अलग हैं, और पढ़ाई तो खैर पढ़ाई में. लेकिन पढ़ाई आखिर में उसको तोड़ेगी.[10]
हाथ के काम को हिक़ारत से देखने की सदियों से चली आ रही हिंदुस्तानी मनोवृत्ति को छोड़ने का आह्वान नेहरू ने किया. जाति-प्रथा के चलते ऐतिहासिक रूप से हिंदुस्तान में हाथ और दिमाग़ के बीच जो दूरी पनपी थी, उसे भरने का आग्रह करते हुए नेहरू ने कहा :
जोर देने की वजह तो यह हो गयी कि किसी तरह से इस गढ़े से निकाले जायें हिन्दुस्तान के लोग, जो कि हिकारत से देखते हैं कुछ हाथ-पैर के काम को, समझते हैं नीच लोगों का काम है, और यहाँ उन्होंने थोड़ा-सा पढ़ना-लिखना सीखा, वह समझते हैं… शायद ज़मीन पर बैठना नीच लोगों का काम है, कुर्सी-मेज पर बैठना चाहिए, हाथ में कलम दवात से काम करना चाहिए… लेकिन ख्याल एक नक्शा दिमाग में आ जाता है कि हम सब दूसरे तबके से, ऊँचे तबके से, पढ़े-लिखे तबके से, अंग्रेजी जानने वाले तबके में और-और लोग नीचे हैं.
नेहरू ने हाथ और दिमाग़ के रिश्ते और उनकी परस्पर निर्भरता की ओर इशारा किया. उन्होंने कहा कि हाथ और दिमाग़ के बीच रिश्ता जितना बढ़ेगा, इंसान का उतना ही समग्र विकास होगा, उसका व्यक्तित्व उतना ही ‘इंटीग्रेटिड’ होगा. नेहरू के अनुसार :
‘ऐसे हाथ के काम में फौरन एक रिश्ता होता है दिमाग और हाथ का, छोटे पैमाने पर, माना मैंने, लेकिन हो जाता है. और उससे इंसान को बहुत फायदा होता है. और जितना आप इस रिश्ते को बढ़ाते जायें उतना ही इंसान ज्यादा जिसको अंग्रेजी में इंटीग्रेटिड कहते हैं वो होता है. आखिर हमारी कोशिश होती है कि इंसान हर तरफ से बढ़े. एक इंटीग्रेटिड आदमी हो, दिमाग, हाथ-पैर, जिस्म, रुहानियत, वगैरा सब तरफ से बढ़े.’
दिलचस्प है कि जामिया में दिए इसी भाषण में नेहरू ने हिंदुस्तानी दिलो-दिमाग़ पर औपनिवेशिक शिक्षा के गहरे असर की भी बात की. औपनिवेशिक शिक्षा ने शिक्षित तबक़े और हिंदुस्तान की अवाम के बीच कैसे एक फाँक पैदा की, इसकी ओर इशारा करते हुए नेहरू ने कहा :
हम लोग, ज्यादातर लोग, कम-से-कम मेरे जमाने के लोग सब अंग्रेजी हुकूमत के पढ़े हुए हैं यहाँ या कहीं और, और उसको मैं बुरी नियत से ये नहीं कहा, लेकिन उसमें कोई शक नहीं कि उस तालीम ने हमको हिन्दुस्तान के आम आबादी से अलग कर दिया. हम फिर किसी जरिए से जोर लगा के उससे जुड़ने की कोशिश करें, और बात है और कामयाब भी हो जायें, लेकिन उसने अलग कर दिया. अंग्रेजीदाँ लोग एक अलग कास्ट हो गये, हिन्दुस्तान में हर चीज कास्ट हो जाती है. तो अंग्रेजी जानने वाले भी एक कास्ट हो गए, जो अपने को ऊपर समझते थे औरों से. अपने घर में अंग्रेजी बोलें आपस में अंग्रेजी बोलें, जो कि अजीब बात है कहीं और दुनिया के किसी मुल्क में आप नहीं पायें.
शिक्षा का विस्तार और लड़कियों की शिक्षा
स्वतंत्रता हासिल करने के बाद भारत में शिक्षा के फैलाव और अब तक अशिक्षित रहे परिवारों में ज्ञान का प्रकाश पहुँचने की परिघटना के ऐतिहासिक महत्त्व पर भी नेहरू ने ज़ोर दिया. स्कूल-कॉलेज के परिसरों में किसी वंचित समुदाय से दाखिल होने वाली पहली पीढ़ी के बच्चों पर शिक्षा का कितना व्यापक असर होता है, इसकी चर्चा करते हुए नेहरू ने कहा :
‘एक नया किस्म का लड़का हमारे स्कूल्स में कॉलेजेज़ में आ रहा है, जिसके माँ-बाप, दादा-परदादा ने कभी पढ़ा नहीं था, वो आता है. उसके ऊपर खास असर होते हैं, एक नयी दुनिया उनके सामने खुलती है और अच्छे असर होते हैं.’
यही नहीं हिंदुस्तान के शिक्षा के इदारों में लड़कियों की बढ़ती तादाद को नेहरू ने एक इंक़लाबी घटना के रूप में देखा. उन्होंने कहा :
‘लड़कियों और औरतों का पढ़ना मुल्क पर एक ज्यादा असर डालता है बनिस्बत लड़कों के. क्योंकि उनका असर घर में होता है और घर में फर्क होने लगता है. घर में हल्के-हल्के इन्कलाबी बातें आने लगती हैं, रहन-सहन में, ख्याल में, और बच्चों के, बच्चे के ऊपर माँ का असर पड़ता है. चुनांचे लड़कियों का पढ़ना बहुत जरूरी हो जाता है, अगर आप अच्छे चाहते हैं कि बच्चे ठीक हों.’
इस भाषण में वह हिंदुस्तान में पढ़ने की संस्कृति के अभाव की भी बात करते हैं. वे कहते हैं :
‘मुझे ताज्जुब होता है, और रंज होता है कि हमारे मुल्क में कितने कम लोग किताब पढ़ते हैं. यानी जिनको पढ़ना आता है, वो भी नहीं पढ़ते हैं. और नहीं आता, वो तो लाचारी है. आखिर यहाँ भी करोड़ों आदमी को पढ़ना आता है, लेकिन जितनी कम किताबें हैं यहाँ पढ़ी जाती हैं, बिकती हैं, छपती हैं, मैं नहीं जानता किसी मुल्क में इतनी कम होंगी, बहुत ही कम.’
आख़िर में, जामिया के छात्रों को समाज के प्रति उनके दायित्व की याद दिलाते हुए नेहरू कहते हैं :
आपको एक मौका मिला इल्म हासिल करने का, जो कि आजकल के हिन्दुस्तान में अक्सर लोगों को नहीं मिलता, ज्यादातर को नहीं मिलता. तो इस माने में आप खुशनसीब हैं, सोसाइटी ने आपकी ज्यादा देखभाल की, बनिस्बत बहुतों के, अब वापस देना है सोसाइटी को. उसने आपकी देखभाल की, आपसे मेरा मतलब जो हमारे यूनिवर्सिटीज वगैरह में आजकल पढ़ते हैं उनकी सोसाइटी ने ज्यादा देखभाल की, ज्यादा उन पर खर्चा तो उस कर्जे को उन्हें अदा करना है. अदा करना है सोसाइटी की खिदमत करके बाद में. और, जो कुछ उन्होंने सीखा है उसको औरों को देकर.[11]
बदलती हुई दुनिया और हिंदुस्तान के नौजवान
जामिया के छात्रों से नेहरू के रूबरू होने का एक और अवसर बना नवम्बर 1960 में, जब नेहरू ने जामिया के स्थापना की 40वीं वर्षगाँठ पर आयोजित समारोह में हिस्सा लिया. इस अवसर पर शिक्षा मंत्री के.एल. श्रीमाली, जामिया के कुलपति मोहम्मद मुजीब और जामिया के चांसलर अब्दुल मजीद ख्वाजा भी उपस्थित थे. अब्दुल मजीद ख्वाजा कैम्ब्रिज में नेहरू के समकालीन रहे थे. इस मौक़े पर जामिया के छात्रों को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने आज़ादी के बाद के एक-डेढ़ दशकों में देश में शिक्षा के अभूतपूर्व विस्तार की चर्चा करते हुए उससे लोगों के दिमाग़ों में हो रहे इंकलाब की बात की. तेज रफ़्तार से बदलती हुई दुनिया के मुताबिक़ ख़ुद को तैयार रखने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए नेहरू ने कहा :
इस दुनिया में हम रहते हैं ऐसी तेजी से बदलती हुई दुनिया, इंकलाबी दुनिया और उसमें हमें हर वक्त अपने दिमाग को ताजा रखना है, आँखें तेज रखनी हैं और जरा पंजों पर रहना है, लेटना तो दूर है, बैठना भी ठीक नहीं, खड़ा रहना भी, पंजों पर रहना है ताकि उठ सकें, दौड़ सकें, कूद सकें आगे और दिमाग भी तेज हो सही तरफ, ऐसी दुनिया में. तो असल पढ़ाई में और जो कुछ हो ये बातें पढ़ाई से पैदा होनी चाहिये दिमाग और जिस्म की, किस तरह से आदमी हो और उसके जो दिमाग के पिंजरे हैं वो जरा ढीले हो जायें, दरवाजे उनके, खिड़कियाँ खुल जायें.[12]
नेहरू ने अपने भाषण में ज़ोर देकर कहा कि हिंदुस्तान को बदलती हुई दुनिया के रफ़्तार के साथ कदम मिलाकर चलना है और हर क़िस्म की संकीर्णता से ऊपर उठना है. बक़ौल नेहरू :
तब सारी दुनिया तेजी से बदलेगी. कहना मुश्किल है कि जो उसको बदलना होगा वो सारा ही अच्छा होगा, मुमकिन है कुछ बुरा भी हो, लेकिन बहरसूरत वो एक चीज ऐसी है, उसमें हमारी और आपकी राय बहुत ज्यादा नहीं चलती यानी वो एक रफ्तार है, वो चलती जाती है, उसको आप रोक नहीं सकते, उस पर आप असर डाल सकते हैं कुछ, जरा झुका सकते हैं इधर या उधर, रोक नहीं सकते, और जो खुद रोकें वो उससे अलग हो जाते हैं और उनकी कुछ हैसियत नहीं रहती, जैसे बाज मुल्कों की हो गयी, अक्सर तारीख में हुई है. जो जमाने में बहुत बढ़े और फिर पिछड़ गये और रुक गये और दुनिया आगे बढ़ गयी. तो रोकना तो नामुमकिन है उसका, पहली बात तो यह है समझना, कि अपने दिमाग को एक पिंजरे में नहीं डाल दें और समझें कि क्या हो रहा है? और दूसरी बात यह, उस पर जो कुछ असर डाल सकते हैं डालें. जब तक काबू में आ सकते हैं यह ताकतें उनको लायें और सही तरफ उनको झुकायें.[13]
कहना न होगा कि जामिया से अपने लगभग चार दशक लंबे जुड़ाव में नेहरू ने न केवल जामिया के छात्रों-शिक्षकों से संवाद की राहें प्रशस्त कीं. बल्कि भविष्य के हिंदुस्तान के निर्माण की प्रक्रिया में भागीदार होने के लिए भी उनका पुरज़ोर आह्वान किया. बतौर प्रधानमंत्री नेहरू ने न केवल विश्वविद्यालयों के सामने एक ऊँचा आदर्श रखा, जो मानव-समाज के व्यापक हितों से उन्हें जोड़ता था. बल्कि अपनी तरफ़ से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को बरकरार रखने की भी उन्होंने लगातार कोशिशें कीं. शिक्षकों की गरिमा और सम्मान को तरजीह देने में भी नेहरू का कोई सानी नहीं. छात्रों से मुख़ातिब होते हुए नेहरू ने उन्हें न केवल बदलती हुई दुनिया की चुनौतियों से अवगत कराया बल्कि उन्हें उन चुनौतियों का डटकर सामना करने के लिए कमर कसकर खड़े होने की ताक़त भी दी.
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संदर्भ :
[1] जामिया के शुरुआती दौर के इतिहास के लिए देखें, मुशीरूल हसन व रख्शंदा जलील, पार्टनर्स इन फ़्रीडम : जामिया मिल्लिया इस्लामिया (नई दिल्ली : नियोगी बुक्स, 2006).
[2] एम. मुजीब, डॉ. ज़ाकिर हुसैन (नई दिल्ली : नैशनल बुक ट्रस्ट, 1972), पृ. 47.
[3] एस. गोपाल (संपा.), सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 1, (नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, 1984), पृ. 385-86.
[4] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 58, पृ. 362-63.
[5] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 5, पृ. 560-61.
[6] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 20, पृ. 123.
[7] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 21, पृ. 143.
[8] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 59, पृ. 304.
[9] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 58, पृ. 369-70.
[10] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 54, पृ. 414.
[11] वही, पृ. 416.
[12] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, द्वितीय सीरीज़, खंड 64, पृ. 268-69.
[13] वही, पृ. 266.
शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं. हाल ही में जवाहरलाल नेहरू और उनके अवदान पर केंद्रित पुस्तक ‘नेहरू का भारत : राज्य, संस्कृति और राष्ट्र-निर्माण’ (संवाद प्रकाशन, 2024) का सह-सम्पादन. ईमेल : kaushikshubhneet@gmail.com |
नेहरू और जामिया के बारे में जमीनी जानकारी देता ऐतिहासिक और सुचिंतित आलेख। रचनाकार को साधुवाद।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के शैक्षिक विकास का साक्षी बनता यह आलेख इस तथ्य की जिंदा नज़ीर है कि जवाहरलाल नेहरू की भारत में शिक्षा के विकास को लेकर कितनी गहरी दिलचस्पी थी।