जवाहरलाल नेहरू, इतिहास और अभिलेखागार |
भारतीय इतिहास पर लिखी गई अब तक की सबसे लोकप्रिय और पठनीय पुस्तकों में जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ अनिवार्यतः शामिल होती है. और सिर्फ़ ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ ही क्यों, ‘विश्व इतिहास की झलक’ (ग्लिम्प्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री) भी उतनी ही रोचक और पठनीय है. यह रोचक है कि इतिहास की ऐसी लोकप्रिय किताबें लिखने वाले जवाहरलाल नेहरू न तो पेशेवर इतिहासकार थे और न ही उनकी तनिक भी दिलचस्पी केवल तारीख़ों और नीरस तथ्यों से भरी इतिहास की पुराने ढर्रे की किताबों में थी.
इतिहास से अपने जुड़ाव के बारे में नेहरू ने लिखा है कि
‘इतिहास से मेरा परिचय देर में हो पाया और वह भी उस सीधे रास्ते से नहीं जिसमें बहुत-सी घटनाओं और तारीख़ों की जानकारी हासिल कर उनसे ऐसे नतीजे निकाले जाते हैं, जिनका अपनी ज़िंदगी से ताल्लुक़ न हो. जब तक मैं यह करता रहा हूँ तब इतिहास का मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं रहा.’[1]
यह तो अच्छा ही हुआ कि नेहरू घटनाओं और तारीख़ों के अंबार में नहीं दबे, नहीं तो हम ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ और ‘ग्लिम्प्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ सरीखी शानदार कृतियों से वंचित ही रह जाते.
नेहरू के लिए तो इतिहास उस ‘ज़िंदा हक़ीक़त’ की तरह था, जिसमें सुख और दुःख के एहसास गुँथे होते हैं. इसलिए उन्होंने तारीख़ों की लम्बी फेहरिस्त बनाने से कहीं ज़्यादा ज़ोर इतिहास की सतत प्रवाहमान धारा और मानव-समाज की विकास-यात्रा को समझने पर दिया. मज़े की बात है कि भारतीय पाठकों को विश्व इतिहास की झलक दिखाने वाले जवाहरलाल नेहरू की निगाह से कीड़े-मकोड़ों की दुनिया भी ओझल न थी. अकारण नहीं कि उन्होंने लिखा कि
‘अगर परस्पर सहयोग और समाज के हित के लिए त्याग और बलिदान की भावना ही सभ्यता की कसौटी है, तो हम कह सकते हैं कि दीमक और चींटियाँ मनुष्यों से कहीं श्रेष्ठ हैं.’
इतिहास की अर्थवत्ता की चर्चा करते हुए नेहरू ने यह स्पष्ट किया कि इतिहास केवल महापुरुषों, राजाओं या सम्राटों के कार्यों का लेखा-जोखा नहीं है. इसी संदर्भ में, ‘ग्लिम्प्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में उन्होंने लिखा कि
‘सच्चा इतिहास चंद लोगों का इतिहास नहीं हो सकता. इसमें वे लोग शामिल होने चाहिए, जो अपनी मेहनत से जीवन के लिए ज़रूरी बुनियादी चीजें उपजाते हैं. जो हज़ार तरीक़ों से एक-दूसरे से क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं. मानव-समाज का ऐसा इतिहास किसी रोमांचक कथा से कम न होगा.’
नेहरू ने लिखा कि
‘इतिहास कोई जादू का खेल नहीं है, पर जिनके पास दृष्टि होगी, वे निश्चय ही इतिहास के जादू और उसके रोमांच को देख सकेंगे.’[2]
अपनी इन कृतियों में नेहरू इतिहासबोध से सम्पन्न बुद्धिजीवी के रूप में सामने आते हैं. एक ऐसा विचारक जिसकी गहरी दिलचस्पी मानव-समाज के अतीत को जानने-समझने में थी. इतिहासकार के अपने पूर्वाग्रह, उसकी मनोवृत्ति, उसका अपना वर्तमान भी प्रायः उसके विश्लेषणों को प्रभावित करते हैं, इसे लेकर भी नेहरू सतर्क थे. अतीत और वर्तमान के सम्बन्धों की चर्चा करते हुए वे हमें आगाह भी करते हैं कि ‘वर्तमान की कसौटियों के आधार पर अतीत के बारे में फ़ैसला नहीं सुनाना चाहिए.’
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास
आश्चर्य नहीं कि बतौर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने स्वाधीन भारत में इतिहासलेखन को लेकर गहरी दिलचस्पी दिखाई. इसमें भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास और उससे जुड़े दस्तावेज़ों के संकलन का मुद्दा भी प्रमुखता से शामिल था. उल्लेखनीय है कि फ़रवरी 1949 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का एक विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास संकलित करने और लिखने की बात उठाई थी. यहाँ इस बात का ज़िक्र कर देना भी उचित होगा कि ख़ुद डॉ. राजेंद्र प्रसाद भी इतिहास में गहरी दिलचस्पी रखते थे. यही नहीं आज़ादी से पूर्व भारत के इतिहासलेखन से जुड़ी एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना से भी वे जुड़े रहे थे और ‘भारतीय इतिहास परिषद’ के तो वे संस्थापक सदस्य ही थे. इतिहासलेखन और राष्ट्रीय इतिहास के सवाल पर इतिहासकार यदुनाथ सरकार से डॉ. राजेंद्र प्रसाद का पत्राचार भी हुआ था.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद को अपने जवाबी ख़त में नेहरू ने 26 फ़रवरी, 1949 को लिखा कि वे स्वतंत्रता आंदोलन का विस्तृत और प्रामाणिक इतिहास लिखने की बात से पूरी तरह सहमत हैं. इतिहास की इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना के लिए नेहरू ने योग्य व्यक्तियों की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए कहा कि ऐसे व्यक्तियों में दो गुण अवश्य ही होने चाहिए. एक तो वह स्वतंत्रता आंदोलन के महत्त्व को बौद्धिक और भावनात्मक रूप से समझता हो और दूसरा उसमें उच्च साहित्यिक योग्यता भी हो. ऐसे योग्य व्यक्ति पर ही इस योजना की सफलता का दारोमदार होगा, जो श्रमसाध्य होने के साथ ही लंबा समय भी लेगी.
नेहरू का सुझाव था कि ऐसे योग्य व्यक्तियों की जब तक पहचान हो, तब तक ऐतिहासिक सामग्री के संकलन का काम भी शुरू कर देना चाहिए. उनका मत था कि राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी सामग्री के संकलन का यह काम भी संतोषजनक ढंग से वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके पास इस पूरी परियोजना को सही परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की दृष्टि हो.[3]
उस दिन इसी संदर्भ में एक नोट नेहरू ने तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को भी भेजा. जिसमें नेहरू ने मौलाना आज़ाद को राजेंद्र प्रसाद द्वारा दिए गए सुझाव के बारे में बताया. नेहरू ने इस काम को ज़रूरी बताने के साथ ही यह कहा कि अगर हम ऐतिहासिक सामग्री के संकलन में देरी करेंगे तो इस बात का ख़तरा रहेगा कि कुछ महत्त्वपूर्ण सामग्री हमेशा के लिए खो जाएगी. नेहरू के अनुसार :
ऐसे इतिहास का उद्देश्य हमारे राष्ट्रीय इतिहास के एक उल्लेखनीय चरण का सही विवरण देना भर ही नहीं है बल्कि दुनिया के सामने हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई के विभिन्न चरणों और तकनीकों को रखना है, जो अपने आप में एक अद्वितीय ऐतिहासिक घटना है. इसमें कोई संदेह नहीं कि जब राष्ट्रीय आंदोलन की रणनीतियों को गहराई से समझा जाएगा तो दुनिया में इसका प्रभाव और बढ़ेगा.
नेहरू ने कहा कि यह काम योग्य विद्वानों द्वारा ही सम्पन्न हो. राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास आलोचनात्मक दृष्टि के साथ लिखने पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा कि यह दोयम दर्जे का काम नहीं होना चाहिए और न ही इसे प्रशस्ति गायन ही होना चाहिए. इसलिए ज़रूरी है कि आलोचनात्मक विवेक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए यह इतिहास लिखा जाए. नेहरू ने यह भी कहा कि इसके लिए ऐतिहासिक सामग्री के संकलन के लिए प्रांतीय सरकारों और कांग्रेस संगठनों का सहयोग आवश्यक होगा, जिसके लिए शायद एक समिति भी बनानी पड़े.[4]
जनवरी 1953 में भारत सरकार ने इतिहासकार तारा चंद की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समिति की सिफ़ारिश पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास लिखने के लिए एक सम्पादकीय बोर्ड का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष सैयद महमूद और सचिव एस.एन. घोष बनाए गए. इस बोर्ड में ग्यारह विद्वान और इतिहासकार सदस्य बनाए गए.
नेहरू ने 22 अप्रैल, 1953 को सैयद महमूद को लिखे एक ख़त में लिखा कि इतिहासलेखन की पूरी धारणा पर हमें नए सिरे-से विचार करना होगा. उन्होंने आगे लिखा कि
‘इतिहास की पुरानी पुस्तकों का अपना महत्त्व ज़रूर है, लेकिन उनमें से कोई भी नए दृष्टिकोण से नहीं लिखी गई है, न ही उनमें सामाजिक शक्तियों और सामाजिक समस्याओं पर विचार किया गया है. भारत की आज़ादी की लड़ाई का इतिहास अब नए दृष्टिकोण से लिखा जाना चाहिए, न कि उसे तथ्यों और तारीख़ों की भरमार में खो जाना चाहिए.’[5]
नेहरू ने कहा कि राष्ट्रीय आंदोलन का यह इतिहास 1857 के विद्रोह से शुरू होना चाहिए. जिन विषयों को नेहरू ने खास तौर पर रेखांकित किया, वे थे : सामाजिक-धार्मिक आंदोलन, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शुरुआत, मध्यम वर्ग का उदय और उसका राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव, राजनीतिक चेतना का प्रसार, प्रथम विश्व युद्ध का भारत पर प्रभाव, गांधी युग, पश्चिमी संस्कृति और प्रौद्योगिकी का प्रभाव और उस पर हुई प्रतिक्रियाओं का अध्ययन. साथ ही, नेहरू ने पुनः ज़ोर देकर कहा कि फ़िलहाल हमें राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ी ऐतिहासिक सामग्री के संकलन पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
जुलाई 1955 में नेहरू ने शिक्षा मंत्री आज़ाद को एक नोट भेजा, जिसमें उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास से जुड़ी परियोजना की प्रगति के बारे में उन्हें अवगत कराने का अनुरोध किया. नेहरू ने जानना चाहा कि क्या ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के संग्रह का काम पूरा कर लिया गया है. क्योंकि नेहरू के अनुसार, दस्तावेज़ों का संग्रह इस परियोजना का सबसे ज़रूरी हिस्सा था. नेहरू ने इस बात का भी ज़िक्र किया कि प्रांतीय सरकारों ने भी इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए समितियों का गठन किया था.[6]
वर्ष 1953 में ही रक्षा मंत्रालय ने आज़ाद हिंद फौज के इतिहास पर एक पुस्तक प्रकाशित करने की एक योजना बनाई. इस योजना के संदर्भ में सितम्बर 1953 में नेहरू ने एक नोट रक्षा मंत्रालय को भेजा. नेहरू का सुझाव इस पुस्तक को पठनीय और रोचक बनाने को लेकर था. नेहरू ने लिखा कि यह किताब भारी-भरकम संदर्भ ग्रंथ होने की बजाय आज़ाद हिंद फौज का रोचक और पठनीय इतिहास होनी चाहिए. नेहरू के यह भी जोड़ा कि ‘इतिहास एक साथ जमा कर दिए गए तथ्यों का संकलन नहीं है. तथ्य इतिहास का स्रोत ज़रूर होते हैं, मगर तथ्य ही इतिहास नहीं हैं. इतिहास महत्त्वपूर्ण घटनाओं के बारे में ज़रूर होता है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादे इतिहास उन शक्तियों, प्रभावों के बारे में होता है, जो एक-दूसरे से टकराते हैं और जिनका कुछ निश्चित परिणाम निकलता है.’ साथ ही, नेहरू ने यह भी कहा कि आज़ाद हिंद फ़ौज से सम्बन्धित यह किताब गोपनीय नहीं बल्कि एक सार्वजनिक दस्तावेज़ होगी.[7]
मई 1963 में साम्यवादी नेता मोहित सेन ने कॉलेज और विश्वविद्यालयों में इतिहास की पढ़ाई के बाबत नेहरू को एक पत्र लिखा. मोहित सेन ने लिखा कि
‘हमारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं से प्रायः अनभिज्ञ हैं.’
इसलिए उन्होंने छात्रों को अनिवार्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में पढ़ाने और जानकारी देने का अनुरोध किया. अपने जवाबी ख़त में नेहरू ने लिखा कि वे इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों को राष्ट्रीय आंदोलन और उसमें सक्रिय विभिन्न शक्तियों के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए. नेहरू ने यह भी कहा कि हमारे जैसे जो लोग राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदार थे, वे उससे भावनात्मक रूप से गहरे जुड़े हुए हैं. मगर नई पीढ़ी से उसी भावनात्मक जुड़ाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. इसलिए उन्हें हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में ज़रूर बताया जाना चाहिए.[8]
उपर्युक्त संदर्भ में नेहरू ने एक पत्र तत्कालीन शिक्षा मंत्री के.एल. श्रीमाली को भी लिखा और कहा कि स्कूल-कॉलेज में राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में छात्रों को अवश्य ही पढ़ाया जाना चाहिए. नेहरू ने लिखा कि
‘जहाँ तक मैं समझता हूँ, आज जो जानकारी स्कूल-कॉलेजों में दी जाती है, वह बहुत ही बेतरतीब है और वह भी कुछ महत्त्वपूर्ण शख़्सियतों तक सीमित रहती है. राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति और उसके स्वरूप, उसके कारणों और उसमें सक्रिय शक्तियों के बारे में छात्रों को आज शायद ही कुछ बताया जाता है!’[9]
नेहरू ने श्रीमाली से इस ओर ध्यान देने का अनुरोध किया.
भारतीय इतिहास कांग्रेस और नेहरू
वर्ष 1935 में स्थापित भारतीय इतिहासकारों की प्रतिनिधि संस्था भारतीय इतिहास कांग्रेस से भी जवाहरलाल नेहरू का जुड़ाव रहा और उन्होंने प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले इतिहास कांग्रेस के अधिवेशनों के लिए समय-समय पर संदेश भी भेजे. इतिहास की महत्ता को रेखांकित करते हुए नेहरू ने दिसम्बर 1953 में भारतीय इतिहास कांग्रेस को भेजे अपने एक संदेश में लिखा था कि वर्तमान की घटनाओं को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम इतिहास का अध्ययन करें और उसकी सही समझ विकसित करें क्योंकि वर्तमान की जड़ें अतीत में होती हैं.[10]
छह साल बाद जब भारतीय इतिहास कांग्रेस का अधिवेशन गुवाहाटी में आयोजित होना था, तब नेहरू ने भारतीय इतिहास कांग्रेस के महासचिव जॉर्ज मोरास को पत्र लिखकर अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित कीं. नेहरू ने इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की थी कि भारतीय इतिहास कांग्रेस के इस अधिवेशन में विशेष रूप से विभिन्न कालखंडों में विद्यमान रहे भूमि-बंदोबस्तों का अध्ययन किया जाएगा और तत्संबंधी आलेख प्रस्तुत किए जाएँगे.[11]
इतिहास के फैलते हुए क्षितिज
भारत के सीमांत इलाक़ों के इतिहास में भी नेहरू ने विशेष दिलचस्पी दिखाई. मसलन, अक्टूबर 1959 में भारत के तत्कालीन विदेश सचिव सुबिमल दत्त को लिखे एक पत्र में नेहरू ने लिखा कि वे चाहते हैं कि विदेश मंत्रालय का इतिहास विभाग भारत के सीमांत क्षेत्रों का एक संक्षिप्त और ज्ञानवर्धक इतिहास तैयार करे.[12] जिसमें मौर्य साम्राज्य से लेकर विगत दो सहस्राब्दियों में हिंदुस्तान के उत्तर से लेकर उत्तर-पूर्व तक के सीमांत क्षेत्रों के इतिहास में आई तब्दीलियाँ दर्ज़ हों. यह भी देखा जाए कि प्राचीन भारतीय साहित्य और रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्यों में इन सीमांत क्षेत्रों को कैसे प्रदर्शित किया गया है.
नेहरू ने बच्चों के लिए इतिहास की पुस्तकें लिखने पर भी ज़ोर दिया. सूचना एवं प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर को लिखे एक पत्र में नेहरू ने लिखा कि हिंदुस्तान में बच्चों के लिए इतिहास की पुस्तकों का अभाव है. हमें बच्चों के लिए सरल भाषा में लिखी इतिहास की उपयोगी पुस्तकों को प्रोत्साहन देना चाहिए.[13]
दिसम्बर 1961 में आयोजित पहली एशियाई इतिहास कांग्रेस का उद्घाटन जवाहरलाल नेहरू ने किया, जिसकी अध्यक्षता वैज्ञानिक अनुसंधान एवं संस्कृति मंत्री हुमायूँ कबीर कर रहे थे. अपने उद्घाटन भाषण में नेहरू ने कहा कि औपचारिक तौर पर उन्होंने भले ही कभी इतिहास न पढ़ा हो, मगर वर्तमान और आने वाले भविष्य के संदर्भ में अतीत को जानने-समझने में उनकी गहरी रुचि हमेशा से रही है.[14]
नेहरू ने कहा कि राजाओं की नामावली या तारीख़ों में कभी उनकी दिलचस्पी नहीं रही, बल्कि उनकी रुचि तो तो इतिहास के प्रवाह को समझने में है. हिंदुस्तान और एशिया के इतिहास के साथ-साथ नेहरू की रुचि मानव-इतिहास के विकासक्रम को समझने में रही.
अपने इस भाषण में नेहरू ने एच.जी. वेल्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘आउटलाइंस ऑफ़ हिस्ट्री’ की भी चर्चा की. नेहरू के अनुसार एच.जी. वेल्स ने न केवल मानव-इतिहास की रोमांचक यात्रा का समग्र इतिहास लिखने की कोशिश की. बल्कि उन्होंने एशिया और दूसरी जगहों के इतिहास को भी अपनी पुस्तक में जगह दी. उनके लिए प्राचीन काल का मतलब भूमध्यसागर के इर्द-गिर्द बसी हुई दुनिया ही नहीं थी, बल्कि उसमें चीन, हिंदुस्तान और मध्य-पूर्व भी शामिल थे.
एशिया की बात करते हुए नेहरू ने कहा कि विश्व इतिहास लिखते हुए इतिहासकारों द्वारा अक्सर एशियाई देशों के इतिहास की सिरे-से उपेक्षा की गई है. नेहरू की यह बात आज भी प्रासंगिक है. विश्व इतिहास की पुस्तकें आज भी यूरोप व अमेरिका के इतिहास के नज़रिए से यूरोकेंद्रिक इतिहासदृष्टि से ही लिखी जा रही हैं. नेहरू ने भारत के संदर्भ में उपनिवेशवादी और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास की सीमाओं को रेखांकित किया. नेहरू के अनुसार, जहाँ राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने राष्ट्रवादी पूर्वाग्रह के साथ इतिहास लिखा, वहीं इंग्लैंड के इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को कुछ इस तरह प्रस्तुत किया मानो पिछले कुछ हज़ार वर्ष उस प्रक्रिया की तैयारी भर थे, जिसकी परिणति भारत के इंग्लैंड के अधीन हो जाने के रूप में हुई.[15]
नेहरू और इंडियन हिस्टॉरिकल रेकार्ड्स कमीशन
इंडियन हिस्टॉरिकल रेकार्ड्स कमीशन के अधिवेशनों में भी समय-समय पर नेहरू ने शिरकत की. फ़रवरी 1960 में आयोजित हुए इंडियन हिस्टॉरिकल रेकार्ड्स कमीशन के 35वें अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘यह स्पष्ट है कि कोई देश या समाज जो अपने अतीत में रुचि नहीं दिखाता, वह अपनी जड़ों से कट जाता है.’[16]
आगे नेहरू ने यह भी कहा कि इतिहासलेखन को लेकर भारतीय समाज में उतना ध्यान नहीं दिया गया, जितना कि चीन या अरबवासियों ने दिया. परम्परागत ढंग के इतिहास को आधुनिक समय के हिसाब से अपर्याप्त मानते हुए नेहरू ने इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन पर ज़ोर दिया और इसी क्रम में ऐतिहासिक दस्तावेज़ों की ज़रूरत को भी रेखांकित किया.
नेहरू का मानना था कि शासक या व्यक्तिकेंद्रित इतिहास का दौर बीत चुका है और अब समय आ गया है कि इतिहासकार समाज के निर्माण और जनमत के निर्माण के इतिहास और प्रौद्योगिकी में आते बदलावों की ओर अपना ध्यान दे. अपना उदाहरण देते हुए नेहरू ने कहा कि मेरी दिलचस्पी उस इतिहास में नहीं है, जहाँ केवल घटनाओं का सिलसिलेवार विवरण दे दिया जाए. मुझे इतिहास के उस कालखंड में रुचि है, जिसे पढ़ते या लिखते हुए मैं ख़ुद को कमोबेश जोड़कर देख सकूँ.
इतिहासकार के बारे में नेहरू ने कहा कि
‘मेरा यह निजी मत है कि किसी कालखंड के बारे में एक इतिहासकार तभी प्रभावी ढंग से लिख सकता है, अगर वह उस कालखंड का हिस्सा बन जाए.’
इतिहासकार जब किसी कालखंड के प्रति संवेदना विकसित कर ले, उस कालखंड के आवेगों, सुख-दुःख, आपदाओं को गहराई से महसूस कर सके, तभी वह बेहतर ढंग से इतिहास लिख सकेगा. नेहरू ने कहा कि ‘अगर आप इतिहास की अपनी अवधारणा में रक्त और माँस भरना चाहते हैं तो आपको वर्तमान में उसे जीना होगा. अगर आप उससे अलग-थलग बने रहेंगे तो वह नीरस और सूखा ही रहेगा, जो संदर्भ के लिए भले ही इस्तेमाल हो पर उसका मानवीय मूल्य नहीं होगा.’ नेहरू का यह विचार प्रख्यात दार्शनिक व इतिहासकार आर.जी. कॉलिंगवुड की भी याद दिलाता है, जिन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द आइडिया ऑफ़ हिस्ट्री’ में इतिहास के बारे में कुछ ऐसे ही विचार रखे थे.
नेहरू की संकल्पना में वह व्यक्ति इतिहासकार नहीं हो सकता, जो मानवीय भावनाओं, आकांक्षाओं, अभिप्रेरणाओं को समझने में सक्षम न हो. उनका कहना था कि इतिहासकार के पास अपना दृष्टिकोण होना चाहिए, अपने विचार होने चाहिए, लेकिन उन विचारों को उसे अपनी दृष्टि को बाधित नहीं करने देना चाहिए. नेहरू के अनुसार, किसी कालखंड में विशेषज्ञता अपनी जगह है, लेकिन इतिहासकार को इतिहास पर एक व्यापक और समग्र दृष्टि ज़रूर रखनी चाहिए. अनंत सूचनाओं और विवरणों से गुजरते हुए इतिहासकार को व्यापक परिदृश्य को अपने अपने आँखों से कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए. नेहरू ने इतिहासकार के व्यक्तित्व में द्वैधता के तत्व को भी रेखांकित किया जो अंशतः वर्तमान में और अंशतः अतीत में रहता है. उन्होंने यह भी जोड़ा कि अगर इतिहासकार के अंतस में अतीत और वर्तमान एकीकृत नहीं होंगे, तो यह उसके लिए समस्या जनक हो जाएगा.[17]
अभिलेखों तक पहुँच और भारत के नए अभिलेखागार
अभिलेखागारों की परिभाषा को विस्तृत अर्थ प्रदान करते हुए नेहरू ने कहा कि आज के पुस्तकालय भविष्य के अभिलेखागार होंगे. यही नहीं नेहरू ने आगे जोड़ा कि सिर्फ़ पुस्तकालय ही नहीं आज के संस्थान भी चाहे वे प्रौद्योगिकी संस्थान हों या वैज्ञानिक संस्थान, या फिर साहित्यिक संस्थाएँ या विश्वविद्यालय – वे सभी भविष्य के अभिलेखागार हैं.[18]
अभिलेखों तक इतिहासकारों की निर्बाध पहुँच हो, इसे सुनिश्चित करने में भी नेहरू की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. उल्लेखनीय है कि जुलाई 1963 में इतिहासकार ए.के. मजूमदार ने नेहरू को एक पत्र लिखकर यह जानकारी दी थी कि गृह मंत्रालय उन्हें राष्ट्रीय अभिलेखागार में मौजूद कुछ ज़रूरी दस्तावेज़ों को देखने में अवरोध खड़े कर रहा है. ए.के. मजूमदार उस समय भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित की जा रही ‘हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ़ इंडियन पीपल’ ग्रंथमाला के अंतर्गत पुस्तक लिख रहे थे. मजूमदार ने अपने पत्र में यह बात भी उठाई थी कि ये दस्तावेज़ पूर्व में माइकल ब्रीचर ने देखे हैं, पर अब उन्हें मना किया जा रहा है और यह भी कि उन्हें केवल वर्ष 1940 तक के इंडेक्स ही दिखाए जा रहे हैं.[19]
नेहरू ने गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री को 2 जुलाई 1963 को लिखे अपने पत्र में इतिहासकार ए.के. मजूमदार की इस समस्या को रखा. नेहरू ने लिखा कि
‘मेरे लिए यह समझ से बाहर है कि इस या ऐसे किसी दूसरे मामले में गृह मंत्रालय द्वारा बनाया गया तीस साल पुराने दस्तावेज़ों वाला नियम क्यों लागू किया जा रहा है. और अगर यह सही है कि ये दस्तावेज़ माइकल ब्रीचर को दिखाए जा चुके हैं तब तो मजूमदार को इसे न दिखाना नाइंसाफ़ी होगी.’
नेहरू ने उस पत्र में यह भी लिखा कि ‘ब्रिटिश काल में बनाए गए नियम आज भी क्यों बने हुए हैं. आज जब योग्य इतिहासकार हमारे पुराने दस्तावेज़ों को देखना चाहते हैं तो हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. हाँ, सरकार की पूर्व अनुमति के बग़ैर गोपनीय दस्तावेज़ों को उद्धृत नहीं किया जाना चाहिए.’[20]
स्पष्ट है कि नेहरू ने न केवल ख़ुद ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ और ‘ग्लिम्प्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ सरीखी विश्वप्रसिद्ध कृतियाँ लिखीं, बल्कि आज़ादी के बाद बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने अभिलेखागारों के समुचित प्रबंधन, अभिलेखों तक विद्वानों की पहुँच जैसे मसलों पर भी ध्यान दिया. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास से जुड़ी परियोजना और स्वतंत्रता संग्राम से सम्बन्धित ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को भावी पीढ़ियों के लिए सहेजने-सँजोने में भी जवाहरलाल नेहरू ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई.
सन्दर्भ
[1] जवाहरलाल नेहरू, हिंदुस्तान की कहानी, हिंदी अनु. रामचंद्र टंडन (नई दिल्ली : सस्ता साहित्य मण्डल, 1947), पृ. 13-14.
[2] जवाहरलाल नेहरू, ग्लिम्प्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री (न्यूयॉर्क : जॉन डे कम्पनी, 1960), पृ. 291.
[3] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू, सेकंड सीरीज़, खंड 10, पृ. 504.
[4] फ़ाइल सं. 40(60)/49-पीएमएस, सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 10, पृ. 504-05.
[5] फ़ाइल सं. 40(60)/49-पीएमएस, सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 22, पृ. 141.
[6] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 29, पृ. 119.
[7] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 23, पृ. 106.
[8] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 82, पृ. 650.
[9] वही, पृ. 651.
[10] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 24, पृ. 181.
[11] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 54, पृ. 407.
[12] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 53, पृ. 466-67.
[13] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 62, पृ. 363.
[14] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 73, पृ. 454-55.
[15] वही, पृ. 456.
[16] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 57, पृ. 236.
[17] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 57, पृ. 240.
[18] वही, पृ. 239.
[19] फ़ाइल सं. 50/5/63-पोल-II, पृ. 6-7; सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 82, पृ. 658.
[20] सेलेक्टेड वर्क्स, सेकंड सीरीज़, खंड 82, पृ. 657-58.
शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. |
विवेकसंपन्न और पठनीय आलेख।
पढ़कर सुख मिला।
शुभनीत कौशिक लगातार इतिहास, इतिहास की समझ और दृष्टि पर लिखते रहें हैं, इनका लिखा हमेशा आश्वस्त करता रहा है। उक्त आलेख में नेहरू की इतिहास-दृष्टि के लगभग सभी पहलुओं पर इन्होंने अत्यंत संजीदगी से विचार किया है।यह आलेख किसी देश के एक प्रधानमंत्री का इतिहास के प्रति बेचैनी को व्यक्त करता है कि वह किस हद तक इतिहास में इंगेज है। बतौर प्रधानमंत्री नेहरू जी के लिए किसी भी जरूरी काम से कम जरूरी इतिहास का काम नहीं था। उनकी मानें तो किसी देश के लिए साइंस और टेक्नोलॉजी उतना ही आवश्यक है, जितना कि एक अभिलेखागार। विषयों और चीजों के प्रति इसी समावेशी दृष्टि से कोई देश निर्मित होता है और अपने पांवों पर खड़ा हो पाता है।जैसे-जैसे आप नेहरू को पढ़ेंगे, उनके बारे में जानेगें, उनका कद थोड़ा और बढ़ जाता है, साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री और उनके भक्तों द्वारा फैलाये गए झूठ में थोड़ा और पलीदा लग जाता है। दरअसल, जो प्रधानमंत्री अपने ऊपर इतिहास लिखवाने की जुगत में रहता है, वह देश के इतिहास के प्रति बेफिक्र रहता है। जो आत्म के महिमामंडन में रहता है, उसे देश की महिमा में रुचि नहीं होती।
नेहरू जी का इतिहास-बोध अत्यंत सम्पन्न था, तभी तो वे इतिहास के लिए ‘आलोचनात्मक विवेक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ दोनों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। भले वे इतिहास अनुशासन में प्रॉपर दीक्षित न हों किंतु उनकी इतिहास-समझ दुर्लभ थी। आज जब इतिहास को पुराण बनाने की कवायद जारी है, इतिहास को अपने अनुकूल बनाने की जीतोड़ कोशिश की जा रही है, शुभनीत का यह आलेख अत्यंत प्रासंगिक और अर्थवान हो जाता है। शुभनीत और समालोचना टीम को बधाई।
इस रूचिपूर्ण मार्मिक लेखन के लिए भाई शुभनित धन्यवाद 💐