कफ़न
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प्रेमचंद जन्मशती वर्ष (1980) से ‘कफ़न’ कहानी के पाठ, सुपाठ और कुपाठ का जो सिलसिला रूक-रूक कर ही सही, चल रहा है, उसके अब भी थमने के आसार कम ही हैं.
भीष्म साहनी (8.8.1915-11.7.2003) को 1940 में यह कहानी अच्छी नहीं लगी थी. वे इसे तब प्रेमचंद की प्रतिनिधि कहानियों में शामिल नहीं करते थे. प्रेमचंद ने भी अपनी इस कहानी का जिक्र नहीं किया था. वे अपनी सर्वप्रिय बारह कहानियों में इसे नहीं रखते थे.
चालीस वर्ष बाद प्रेमचंद जन्मशती वर्ष में ‘कफ़न’ कहानी के बारे में भीष्म जी की धारणा बदली-
‘‘सन् 40 में पढ़ी रचना पर हम सन् 80 में बड़े जोश-खरोश के साथ बहस करते हैं.’’
हंसराज रहबर (9.3.1913-23.7.1994) से 80 के दशक के आरंभिक वर्षों में ‘कफ़न’ कहानी को लेकर इन पंक्तियों के लेखक की भी उनसे काफी तीखी बहसें हुईं थीं. रहबर की मुख्य शिकायत घीसू-माधव की निष्क्रियता को लेकर थी. बाद में उन्होंने अक्टूबर 1986 की ‘सारिका’ में यह लिखा-
‘‘प्रेमचंद अपने अंतिम समय में सठिया गये थे, जो उन्होंने ऐसी गलिच्छ कहानी लिखी. वह उनकी अत्यन्त निकृष्ट कहानी है, और मैं इस निष्कर्ष पर बहुत बाद में अपने मार्क्सवादी अध्ययन द्वारा पहुंचा हूँ”.
पचास के दशक के आरंभ में रहबर ने प्रेमचंद पर एक अच्छी किताब लिखी थी. तीस वर्ष बाद ‘कफ़न’ उन्हे ‘गलिच्छ’ और ‘अत्यन्त निकृष्ट कहानी’ लगी. मार्क्सवाद का अध्ययन हो या किसी रचना-विशेष, कृति-विशेष का अध्ययन, वह पाठकों से गंभीर पाठ की माँग करता है. ‘कफ़न’ कहानी को लेकर इधर जो कुछ चर्चाएँ हो रही हैं, क्या उन सब में कहानी का गंभीर पाठ शामिल है?
उपेन्द्रनाथ अश्क (14.12.1910-19.1.1996), देवीशंकर अवस्थी (5.4.1930-13.1.1966) और दूधनाथ सिंह (17.10.1936-12.1.2018) ने कहानी के पाठकों की चार-पाँच श्रेणियाँ निर्धारित की है. हमारे बीच रचना का सुपाठ और कुपाठ करने वाले दोनों मौजूद हैं. कहानी समझना बाद की बात है. आवश्यक नहीं है कि सभी कहानी पढ़ने वालों को कहानी की समझ भी हो.
नामवर सिंह (28.7.1926-19.2.2019) ने कहीं सार्त्र (21.6.1905-15.4.1980) के इस कथन को उद्धृत किया है कि कहानी पढ़ना शीशे में कूदने की तरह है. ठीक से नहीं पढ़े जाने पर शीशा भी टूटेगा और पढ़ने वाला भी घायल होगा.
‘कफ़न’ कहानी पर इतना अधिक लिखा और कहा गया है कि किसी को भी यह लग सकता है कि अब नया कुछ कहने को नहीं है. आधुनिक, उत्तर आधुनिक, मार्क्सवादी, प्रगतिशील, कलावादी, दलित आदि दृष्टियों से, दृष्टि सम्पन्नता और दृष्टि हीनता से भी एक साथ इस कहानी पर कम विचार नहीं हुआ है.
इन्द्रनाथ मदान (1910-1985) ने इसे ‘पहली आधुनिक कहानी’ कहा और पाण्डेय शशिभूशण ‘शीतांशु’ ने इसे ‘हिन्दी की पहली ‘उत्तर-आधुनिक कहानी’ माना.
प्रगतिशील और मार्क्सवादी आलोचकों के विचार भी एक समान नहीं रहे. हंसराज रहबर और नामवर सिंह के विचार एक दूसरे से एकदम भिन्न हैं. कहानी की वाह्य-संरचना से लेकर आन्तरिक संरचना पर भी आलोचकों का ध्यान गया है. प्रोफेसर ‘शीतांशु’ ने इस कहानी में एक साथ ‘दो कथ्य-संरचनाएँ- वाह्य और आन्तरिक’ देखीं और यह लिखा कि कहानी की आन्तरिक संरचना पर कम ध्यान दिया गया है.
लगभग दस वर्ष पहले 2014 में पल्लव ने एक पुस्तक सम्पादित की- ‘कफ़न: एक पुनःपाठ’ (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद). ऐसा लगता है कि ‘कफ़न’ कहानी पर एक स्वतंत्र पुस्तक भी लिखी जानी चाहिए क्योंकि यह हिन्दी की सर्वाधिक प्रसिद्ध और विवादास्पद कहानी है और इसकी सभी खिड़कियां नहीं खोली गईं हैं.
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने ‘कफ़न’ के मूल पाठ का केवल लिप्यन्तरण ही नहीं किया, ‘उर्दू और हिन्दी पाठ का फर्क’ पर विस्तार से विचार भी किया है. उनके अनुसार उर्दू ‘कफ़न’ और हिन्दी ‘कफ़न’ का अंतर ‘हिमालय ब्लण्डर’ की कोटि का है. ‘असंगत’ और ‘अनावश्यक’ अनुवाद के उन्होंने कई उदाहरण दिये हैं. हिन्दी रूपान्तरण में वे ‘अर्थ का अनर्थ’ देखते हैं और ‘हिन्दी पाठ में अतिरेक’ को चिन्हित् भी करते हैं. उनके अनुसार
‘‘प्रेमचंद की प्रत्येक रचना का अध्ययन पाठालोचन के सिद्धान्त’ पर होना ‘आवश्यक’ है.
विचार इस पर भी होना चाहिए कि हिन्दी के कतिपय प्रसिद्ध कहानीकारों की राय इस कहानी पर भिन्न क्यों है?
क्यों अमरकान्त (1.7.1925-17.2.2014), भीष्म साहनी (8.8.1915-11.7.2003), निर्मल वर्मा (3.4.1929-25.10.2005), राजेन्द्र यादव (28.8.1929-28.10.2013), रमेश उपाध्याय (1.3.1942-24.3.2001), और रवीन्द्र वर्मा के विचार भिन्न हैं?
बेहतर है, आलोचकों के पास जाने के पहले कहानीकारों के पास जाया-जाये.
अमरकान्त ने ‘इतिहास-बोध’ एवं ‘भाव-बोध’ को महत्व देते हुए उसमें ‘परिवर्तन के लिए संघर्ष की चेतना’ उत्पन्न करने का श्रेय इस कहानी को दिया है-
‘‘प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ के द्वारा हमारे साहित्य को चेतना के उस स्तर पर पहुंचा दिया है, जहाँ से पीछे देखना तो संभव है ही नहीं, उलटे साहित्य-संबंधी सम्पूर्ण धारणाओं, मान्यताओं एवं दृष्टिकोण में बदलाव आ गया है.’’
जो कहानी साहित्य-संबंधी सभी धारणाओं को बदल दे उससे असहमति केवल उनको ही हो सकती है, जो किसी भी अर्थ में, बदलाव के पक्ष में नहीं हैं. कहानी की यह आलोचना आलोचकों को भी बहुत कुछ सीखने की दृष्टि प्रदान करती है.
अमरकान्त ‘कफ़न’ को केवल एक स्तर पर नहीं देखते. अगर वह
‘‘एक स्तर पर क्रूर सामंती शोषण का प्रतीक है, तो दूसरे स्तर पर वह उसके अन्तर्विरोध को भी प्रकट करता है.’’
कहानी में विचार प्रकट रूप से कहीं अधिक अप्रकट और प्रच्छन्न रूप में व्यक्त होता है. कथा-सौन्दर्य इसी में है. वैषम्य के चित्रण के लिए अनेक कहानीकार सपाट एवं स्थूल रूप को ही सबकुछ मान लेते हैं. ‘कफ़न’ कहानी में वैषम्य का जिस प्रकार से ‘सवेदनात्मक चित्रण’ है, अमरकान्त वैसा चित्रण पहले और बाद के किसी भी कहानीकार में नहीं देखते.
कहानी में कहानीकार का अभिप्रेत व्यक्त से कहीं अधिक अव्यक्त होता है और आलोचक का कार्य, उस अव्यक्त को व्यक्त करना है, जो कहानी के मर्म को समझे बिना संभव नहीं है. रचनाकार ने रचना की सृष्टि जिस संवेदना से की है, उसे समझने के लिए भी वैसी ही गहन मानवीय संवेदना की जरूरत है. तभी हमें घीसू-माधव और होरी पराये नहीं लगेंगे.
‘कफ़न’ कहानी की चर्चा में अमरकान्त को हम कम याद करते हैं, जो ‘कफ़न’ को ‘शोषण के विरूद्ध संघर्ष की चेतना की कहानी’ कहते हैं और ऐसी कहानी लिखने के लिए ‘‘व्यापक मानव-प्रेम व मानवीय भाईचारे के प्रति आस्था’’ जरूरी मानते हैं.
‘कफ़न’ कहानी क्या सचमुच एक रात में ही लिखी गयी कहानी है या प्रेमचंद दशकों से जिस सामाजिक वर्ग-भेद, अर्थ-वैषम्य आदि को संवेदना के स्तर पर महसूस कर रहे थे, वह एक रात में कहानी की शक्ल में सामने आ गया. प्रेमचंद 1935 में वर्धा से दिल्ली आने पर ‘‘जामिआ मिल्लिआ इस्लामिया में ठहरे थे.’’ इस संस्था की उर्दू मासिक पत्रिका ‘जामिआ’ के एक सम्पादक प्रो. मो. आकिल ने ‘‘प्रेमचंद से… आग्रह किया था कि वे ‘जामिआ’ पत्रिका के लिए अपनी एक कहानी देकर ही बनारस के लिए प्रस्थान करें. प्रेमचंद ने उसी रात यह कहानी लिखी और प्रो. आकिल को इसे सौंप कर बनारस चले गये.’’
अब्दुल बिस्मिल्लाह ने प्रो. आकिल से प्राप्त सूचना के आधार पर ‘कफ़न’ कहानी की रचना के संबंध में उर्दू-हिन्दी पाठकों को यह जानकारी दी. ‘जामिआ’ पत्रिका के दिसम्बर 1935 के अंक में यह कहानी सबसे पहले उर्दू में प्रकाशित हुई थी और अगले वर्ष 1936 के अप्रैल महीने की हिन्दी पत्रिका ‘चाँद’ में यह प्रकाशित हुई. छह महीने बाद प्रेमचंद का निधन हो गया.
‘कफ़न’ कहानी का महत्व सतही, इकहरे और एकायामी पाठ से स्पष्ट नहीं होगा. अमरकान्त इस कहानी में प्रेमचंद को ‘आर्थिक आजादी का पूरा खाका’ खींचते देखते हैं और भीष्म साहनी इसमें ‘आर्थिक चेतना के जटिल आयाम’ देखते हैं. कहानी में तीन वर्गों का उल्लेख है- किसानों-मजदूरों का वर्ग, किसानों की दुर्बलताओं का लाभ उठाने वाला, जमींदार वर्ग और तीसरा घीसू-माधव जैसा अछूत या दलित वर्ग, जो सामाजिक-आर्थिक दोनों ही रूपों में शोषित है.
कहानी के दलित-पाठ में सामाजिक दशा, भेद-भाव आदि पर जितना बल है, उतना आर्थिक पक्ष पर नहीं, जबकि आर्थिक दृष्टि से घीसू-माधव समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं.
“विचित्र जीवन था इनका. घर में मिट्टी के दो-चार बर्तनों के सिवा कोई सम्पत्ति नहीं. फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जिये जाते थे. संसार की चिंताओं से मुक्त. कर्ज से लदे हुए. गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी गम नहीं.”
प्रेमचंद ने अपने समय में जो भयावह सामाजिक यथार्थ देखा था और उसे जिस प्रकार अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया था वैसी संवेदनशील-विचारवान दृष्टि हिन्दी के अन्य किसी कथाकार में नहीं मिलती. प्रेमचंद ने कहानी के आरंभ में ही घीसू-माधव की सामाजिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया है- ‘‘चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम.”
दलित लेखकों को ‘चमारों का कुनबा’ लिखे-कहे जाने पर आपत्ति है. प्रेमचंद ने अपने कथा-साहित्य में जिस एक जाति-विशेष का सर्वाधिक उल्लेख किया है, वह यही जाति है. हिन्दू समाज में यह जाति निचली जातियों’ में भी सबसे अधिक निम्न कोटि की मानी जाती रही है. प्रेमचंद ने इस जाति-विशेष की जितनी चर्चा की है उतनी किसी अन्य जाति की नहीं.
‘सद्गति’ कहानी अक्टूबर 1931 के ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित हुई थी. कहानी के आरंभ में दुखी चमार द्वारा ब्राह्मण के दरवाजे पर झाड़ू लगाने का उल्लेख है. ‘सद्गति’ कहानी में 15 बार ‘चमार’, 2-2 बार ‘चमारिनें’ और ‘चमरौने’, और एक बार ‘चमारवा’ का उल्लेख है- कुल 20 बार…. ‘सद्गति’ में ठकुराने वाले ‘कैथाने’ का भी जिक्र है, वहाँ गोंड़ भी है. ब्राह्मण अपने को सबसे ऊँची जाति का समझता है, जिसकी दृष्टि में ‘चमार’ जाति का कोई महत्व नहीं है. ‘सद्गति’ कहानी में पं. घासीराम की खेती ‘ईशोपासन’ है. पंडित दुखी को ‘ससुरा दुखिया चमार’ कहता है, पण्डिताइन ‘चमार का रोना मनहूस’ मानती है. प्रेमचंद की कई रचनाओं में एक साथ ‘ब्राह्मण’ और ‘चमार’ जाति का उल्लेख है, उन दोनों की उपस्थिति है. इन दोनों जातियों के अलावा अन्य किसी भी जाति का न तो इतना उल्लेख है, न उनके पात्रों की उपस्थिति है.
हिन्दू समाज के ऊँचे पायदान पर विराजमान ब्राह्मण को प्रेमचंद वहाँ से नीचे उतारते हैं और समाज के निचले पायदान पर रखे गये ‘चमार’ के साथ उसके पक्ष में खड़े होते हैं. ‘गोदान’ में दातादीन कहता है-
“राय साहब की हिम्मत है कि मुझे जेल ले जायँ? ब्रह्म बन कर घर का घर मिटा दूँगा. अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा.’’
दातादीन जजमानी को जमींदारी समझता है-
“जमींदारी मिट जाये, बंक घर टूट जाये, लेकिन जजमानी अंत तक बनी रहेगी. जब तक हिन्दू जाति रहेगी, तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी.’’
क्या प्रेमचंद हिन्दू जाति-व्यवस्था, ब्राह्मण और जजमानी के समर्थक हैं? दातादीन के लिए जजमानी जैसा चैन ‘‘न जमींदारी में है, न साहूकारी में.’’
प्रेमचंद जैसा ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद का विरोधी हिन्दी का कोई कथाकार नहीं है. ‘गोदान’ में सिलिया के बाप हरखू ने झिंगुरी सिंह को कहा-
‘‘हम आज या तो मातादीन को चमार बना कर छोड़ेंगे या उनका और अपना रकत एक कर देंगे… तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं. हमें ब्राह्मण बना दो, हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है. जब यह समरथ नहीं है तो तुम भी चमार बनो, हमारे साथ खाओ-पिओ, हमारे साथ उठो-बैठो. हमारी इज्जत लेते हो, तो अपना धरम हमें दो.’’
‘‘कफ़न’’ कहानी में जिन दलित लेखकों को घीसू-माधव के कुनबे को ‘चमारों का कुनबा’ कहे जाने पर आपत्ति है, वे तत्कालीन यथार्थ को देखें-समझें. आज का गाँव कल का गाँव नहीं है. जिस समय हिन्दी समाज में दलित-चेतना का जन्म भी नहीं हुआ था, उस समय प्रेमचंद उनके पक्ष में डटकर खड़े रहे. ‘गोदान’ में सिलिया की माँ का पंडित दातादीन को खरी-खोटी सुनाना, हरखू का अपने साथियों को ललकारना, दो चमार द्वारा लपक कर मातादीन का हाथ पकड़ना, तीसरे का उसका जनेऊ तोड़ना और दो चमारों द्वारा ‘मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा’ डालना वास्तविक यथार्थ नहीं, आकांक्षित यथार्थ है.
प्रेमचंद के क्रोध और आक्रोश को, ब्राह्मणों के प्रति घृणा को न समझकर उन्हें दलित विरोधी कहने-समझने से ‘कफ़न’, ‘सद्गति’ और ‘गोदान’ को समझना संभव नहीं है. आज हिन्दी पट्टी में जिस प्रकार का दलित जागरण और दलित लेखन है, वैसा प्रेमचंद के समय में नहीं था. भारत में चमार समुदाय की अनुमानित जन संख्या लगभग पाँच-छह करोड़ है. सैन्य पादरी एवं शिक्षक जॉर्ज वेस्टन ब्रिग्स, (21.9.1874-18.4.1966) ने, जो ब्रिटिश सैनिकों में 1907-08 और 1916-17 में शामिल थे, 1920 में चमारों पर 270 पृष्ठों की एक पुस्तक लिखी थी, जो ऑक्सफोर्ड से प्रकाशित हुई थी. इस पुस्तक का अब हिन्दी में अनुवाद हो चुका है.
द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने एक पैदल सेना ‘चमार रेजिमेंट’ की स्थापना मार्च 1943 में की थी, जो केवल तीन साल तक बनी रही और इसे 1946 में भंग कर दिया गया. अंग्रेजों की ओर से इस फौजी टुकड़ी ने 1944 में लड़ाई लड़ी थी, जापान की शक्तिशाली सेना के खिलाफ. कोहिमा के मोर्चे पर साहस और बहादुरी के साथ लड़ने वाले इस रेजिमेंट को ‘बैटल ऑफ कोहिमा अवार्ड’ से सम्मानित किया गया था.
‘चमार रेजिमेंट’ और ‘चमार जाति का गौरवशाली इतिहास’ पर सतनाम सिंह ने पुस्तकें लिखी हैं. इस जाति के इतिहास और संस्कृति पर एस. एस. गौतम ने किताब लिखी.
हिन्दी समाज में प्रेमचंद के समय इस जाति को केवल ‘अस्पृश्य’ ही नहीं माना जाता था, इसके प्रति किसी प्रकार का मानवीय भाव भी नहीं था. आज जिस प्रकार का जागरण इस जाति में है, वैसा प्रेमचंद के समय में नहीं था. इस जाति के द्वारा ब्राह्मण के मुँह में हड्डी ठूँसना सामान्य बात नहीं थी. प्रेमचंद एक प्रकार का संदेश दे रहे थे. आज भी बहुत कम लोग इस जाति के गौरवशाली इतिहास से परिचित हैं.
‘आईन-ए-अकबरी’ में उत्पल वंश का शासक चमार समुदाय का है. निराला ब्राह्मण थे और उन्होंने ‘चतुरी चमार’ लिखा. प्रेमचंद ने इस अछूत हिन्दू जाति के पक्ष में अपने लेखन के जरिये एक बड़ी लड़ाई लड़ी. ‘कफ़न’ कहानी का दलित दृष्टि से पाठ इकहरा और एकायामी पाठ है. कहानी में किसी ब्राह्मण की उपस्थिति नहीं है, पर ब्राह्मणवादी रीति-रिवाज, व्यवस्थादि का उल्लेख है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था, रीति-रिवाज, धार्मिक संस्कार जो समाज में कई हजार वर्ष से मौजूद है, प्रेमचंद उसे ‘बुरा रिवाज’ कहते हैं-
‘‘कैसा बुरा रिवाज है, जिसे जीते जी, तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए.’’
यह महज एक पंक्ति है या वह चाबुक, जो इस बुरे और घिनौने रिवाज’ पर प्रहार कर रहा है. ‘कफ़न’ कहानी में पुनर्जन्म की ब्राह्मणवादी धारणा पर भी सवाल है. कहानी में घीसू-माधव की जाति का उल्लेख यह बताने के लिए है कि इस जाति का हिन्दू समाज में कैसा स्थान है.
प्रेमचंद इस कहानी के द्वारा ‘समाज के आधारभूत ढाँचे’ को बदलने का संदेश देते हैं. घीसू और माधव सामाजिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से समाज में सबसे निम्न स्थान पर है. प्रेमचंद का समस्त लेखन समाज के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को बदलने के लिए है और इसी कारण वह प्रगतिशील और क्रान्तिकारी लेखन है.
राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में इन दोनों ढाँचों को बदलने वाले राजनेता कौन थे? जो प्रेमचंद को ठीक से पढ़ते भी नहीं. समझने की बात तो दूर रही, वे चैनलों पर और अन्यत्र यह कहते हैं कि वे प्रेमचंद से सहमत नहीं.
जिस तड़प, बेचैनी, मानवीय-नैतिक संवेदना और भाव-विचार से ‘कफ़न’ कहानी लिखी गयी है, उसके सुसंगत विवेचन-विश्लेषण के लिए पूरी सामाजिक-धार्मिक एवं सामंती व्यवस्था को समझना आवश्यक है, तीस के दशक से होने वाले उन परिवर्तनों को भी समझना आवश्यक है, जिसे नया यथार्थवाद’ कहा गया है.
1930 से प्रेमचंद के लेखन का तीसरा दौर आरंभ होता है. इसी दौर में उन्होंने ‘हंस’ मासिक पत्रिका और ‘जागरण’ साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया. 1930 में ही ‘गबन’ के देवीदीन और ‘आहुति’ की रूपमणि ने जो बातें कही थीं, चिंताएं प्रकट की थी, उन्हें याद किया जाना चाहिए. देवीदीन स्वराज्य-प्राप्ति के बाद कांग्रेसी नेताओं के ठाठ-बाट और भोग-विलास में लिप्त हो जाने की आशंका प्रकट कर रहे थे और रूपमणि उस आजादी को ‘रिजेक्ट’ कर रही थी, जिसमें सत्ता-व्यवस्था न बदले और अंग्रेजों के स्थान पर काले अंग्रेज आ जाएँ. प्रेमचंद की स्वराज्य-संबंधी अवधारणा उस समय कांग्रेस और उसके नेताओं की स्वराज्य-संबंधी अवधारणा से भिन्न थी. प्रेमचंद के लिए ‘आर्थिक स्वराज्य’ महत्वपूर्ण था, न कि राजनीतिक स्वराज्य. उनके लिए उस स्वाधीनता का महत्व था, जिसमें घीसू-माधव की केवल आर्थिक दशा ही नहीं, सामाजिक दशा भी बदलती. वे अपने लेखन से एक साथ सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक-आर्थिक आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे.
अमरकान्त ने लिखा है कि
‘‘कफ़न’ देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक आजादी तथा मानवीय मूल्यों, मानवीय प्रतिष्ठा, मानवीय गरिमा तथा धर्म आदि को देखने की एक सर्वथा नयी दृष्टि और नयी परिभाषा देती है.’’
प्रेमचंद की लड़ाई एक साथ ब्रिटिश शासन और भारतीय सामन्ती व्यवस्था के साथ उस वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद से भी थी, जिससे कांग्रेस का दूर-दूर से कोई संबंध नहीं था. प्रेमचंद और भगत सिंह (27.9.1907-23.3.1931) 1930 में ही यह समझ चुके थे कि कांग्रेस अंग्रेजों से समझौते करेगी.
बिहार में जुलाई 1931 में जयप्रकाश नारायण, फूलन प्रसाद वर्मा आदि ने कुछ लोगों के साथ मिलकर समाजवादी पार्टी का गठन किया था. पंजाब में 1933 में इस पार्टी का गठन हुआ था और 1934 में जयप्रकाश नारायण (11.10.1902-8.10.1979), राम मनोहर लोहिया (23.3.1910-12.10.1967) और आचार्य नरेन्द्र देव (31.10.1889-19.2.1956) ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की. उस समय कांग्रेस के भीतर नेहरू (14.11.1889-27.5.1964) और सुभाष चन्द्र बोस (23.1.1897) की एक भिन्न-समाजवादी छवि थी.
1936 में नेहरू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे और कांग्रेस का 1936 का अधिवेशन एवं प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन भी लखनऊ में ही हुआ था, जिसकी सदारत प्रेमचंद ने की थी.
दो) |
‘कफ़न’ कहीं से भी एक बंद कहानी नहीं है. इसी कारण केवल यथार्थवादी-जनवादी, प्रगतिशील-मार्क्सवादी ही नहीं, आधुनिकतावादी और कलावादी ही नहीं, दलित-चेतना और स्त्री-चेतना से जुड़े लेखक-आलोचक भी अपने-अपने ढंग से इस कहानी की व्याख्या करते हैं. ‘कफ़न’ में प्रेमचंद अपने रचनात्मक उत्कर्ष पर हैं. एक आँख से- दलित विमर्श हो या स्त्री-विमर्श यह कहानी समझी नहीं जा सकती. अस्मितावादी लेखन का अपना महत्व है, पर अस्मितावादी आलोचना एकांगी आलोचना है जो रचना को समग्रता में न देख कर उसे खंडित रूप में देखती है. खण्डित आलोचना की कोई श्रेणी कभी बन नहीं सकती. प्रेमचंद के लिए ‘स्वराज्य’ का अर्थ और महत्व समग्रता में था. केवल राजनीतिक आजादी, बिना सत्ता-व्यवस्था को बदले हमें जिस मुकाम पर पहुंचाती है, उसे हम आजादी के अमृत महोत्सव में देख सकते हैं.
प्रेमचंद और भगत सिंह ने ही नहीं, अशफाकउल्ला खाँ (22.10.1900-19.12.1927) और गणेश शंकर विद्यार्थी (26.10.1891-25.3.1931) की भी स्वराज्य-दृष्टि भिन्न थी. अशफाकउल्ला खाँ फाँसी पर चढ़े और गणेश शंकर विद्यार्थी साम्प्रदायिक दंगे में मारे गये.
‘कफ़न’ कहानी में जमींदार है, पर ब्राह्मण नहीं, ब्राह्मण पात्र के रूप में कहानी में उपस्थित नहीं है, संस्कार, रीति-रिवाज और कर्मकाण्ड के रूप में वह उपस्थित है. यह अनुपस्थित उपस्थिति है. शरीर से अनुपस्थित पर अपनी व्यवस्था में उपस्थित. घीसू-माधव के पास तन ढकने को कपड़ा नहीं है, पर मृत बुधिया के लिए नया कफ़न चाहिए. प्रेमचंद ऐसे ‘रीति-रिवाज’ पर सवाल करते हैं, जो किसी व्यक्ति विशेष से नहीं, उस ब्राह्मणवाद से है, जो हजारों वर्ष से कायम है.
‘‘जिसे जीते जी तन ढाँकने को कपड़ा न मिले उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए.’’
यह एक वाक्य नहीं, पूरा इतिहास है. ‘कफ़न’ के कलात्मक उत्कर्ष पर विस्तार से विचार की जरूरत है. कफ़न के पैसे से शराब का कुल्हड़ मुँह से लगाना बहुत अंशों में मातादीन के मुँह में हड्डी ठूँस देने की तरह है.
निर्मल वर्मा (3.4.1929-25.10.2005) इसे अपने ढंग से देखते हैं –
‘‘जिस क्षण बाप-बेटे ने घर की औरत के कफ़न के पैसे से शराब का कुल्हड़ मुँह से लगाया था, उस क्षण पहली बार हिन्दी साहित्य में व्यक्ति ने अपनी स्वतंत्रता का स्वाद भी चखा था. यह क्षण वह था, जब प्रेमचंद के समाज में व्यक्ति का जन्म हुआ था. यह जन्म मृत्यु और ‘श्मशान’ की छाया में हुआ था- दो पियक्कड़, हिन्दुस्तानियों का मुक्ति-समारोह’’.
क्या घीसू और माधव ‘पियक्कड़’ हैं? निर्मल वर्मा जैसे कहानीकार ने जो शब्दों का सचेत रूप से प्रयोग करते हैं, ‘पियक्कड़’ शब्द का गलत प्रयोग किया है. कहानी में घीसू और माधव का केवल एक बार पीने का जिक्र है और वह भी कफ़न के पैसे से. जो हमेशा पीता है उसे ही ‘पियक्कड़’ कहा जाता है. निर्मल हमेशा पीते थे, पर उन्हें कोई भी ‘पियक्कड़’ कहने की जुर्रत नहीं करेगा क्योंकि जो शब्द और विशेषण एक वर्ग-विशेष के पात्रों के लिए प्रयुक्त होते हैं, वे दूसरे वर्ग-विशेष के पात्रों के लिए नहीं. ‘रस-रंजन’ करने वालों को कौन पियक्कड़ कहेगा?
व्यक्ति-स्वातन्त्र्य की अवधारणा अस्तित्ववादी अवधारणा है. ‘कफ़न’ कहानी की अस्तित्ववादी व्याख्या और आलोचना ब्राह्मणवाद एवं सामंतवाद के पक्ष में है. वह इन दोनों पर पर्दा डालती है. आलोचकों ने कहानी में प्रयुक्त ‘मधुशाला’ शब्द पर विशेष ध्यान नहीं दिया है. ‘कफ़न’ कहानी लिखने के पहले, उसी वर्ष 1935 में बच्चन की ‘मधुशाला’ प्रकाशित हो चुकी थी. ‘मधुशाला’ शब्द का प्रयोग करते समय निश्चित रूप से प्रेमचंद के सामने बच्चन की ‘मधुशाला’ रही होगी. मधुशाला सम्भ्रान्त लोगों के लिए है. प्रेमचंद का शब्द-प्रयोग सामान्य नहीं है. इस ‘समारोह-स्थल’ में जाने में प्रेमचंद जो देखते हैं, उसे भी आलोचकों को देखना चाहिए.
“जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं, और कुछ देर के लिए वे यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं. या न जीते हैं न मरते हैं.’’
यहाँ जाने के पहले घीसू-माधव ‘बजाज की दुकान पर’ जाते हैं. कहानी में पहली बार बाप-बेटे ने दुकान का मुँह देखा है. कहानी का सपाट अर्थ करने वाले यह प्रश्न कर सकते हैं कि जब ये दोनों कभी न बाजार में गये, न दुकान पर, तो फिर कहानी में एक दुकान से दूसरी दुकान पर जाना कैसे संभव है? यह ‘गूदा’ छोड़कर ‘छिलका’ पकड़ना है. घीसू-माधव ने
‘‘तरह-रह के कपड़े रेशमी और सूती देखे. मगर कुछ जँचा नहीं. यहाँ तक कि शाम हो गयी. तब दोनों जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने आ पहुँचे और जैसे किसी पूर्व-निश्चित योजना से अन्दर चले गये. बाप-बेटे के लिए बाजार और दुकान गौण है. प्रेमचंद ‘दैवी प्रेरणा’ के जरिये एक प्रकार से इस प्रेरणा पर कटाक्ष भी करते हैं. ‘कफ़न’ कहानी के कुछ शब्द-प्रयोगों पर भी अलग से विचार की जरूरत है क्योंकि उन शब्दों के पीछे एक दृष्टि है और कहानी में दृष्टिवान शब्द कम नहीं है.
घीसू और माधव के जीवन में पेट की भूख ही सब कुछ है. कहानी के आरंभ में ‘बुझा हुआ अलाव’ है, पर पेट के भीतर भूख की जो आग जल रही है जो अलाव जल रहा है, उधर कम ध्यान दिया गया है. यह भूख की आग शराबखाने में ही बुझती है. घीसू बेटे के सामने बीस वर्ष पहले के उस ‘भोज’ की याद करता है, जब उसने छक कर खाया था.
‘‘वह भोज नहीं भूलता. लड़की वालों ने सबको भरपेट पूरियाँ खिलायी थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूरियाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई. अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला. कोई रोक-टोक नहीं थी. जो चीज चाहो माँगो और जितना चाहो खाओ. लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, किसी से पानी न पिया गया.’’
बीस साल पहले ठाकुर की बारात को घीसू नहीं भूलता क्योंकि जीवन में फिर उसने ऐसा खाना नहीं खाया. ‘कफ़न’ कहानी में घीसू द्वारा इसे याद करना और कहानी के अन्त में बाप-बेटे का शान से बैठकर इस तरह पूरियाँ खाना
‘‘जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो’’ सामान्य घटना नहीं है. ठाकुर की बारात का वर्णन सुन कर माधव पिता के उस अनुभव-संसार की केवल कल्पना करता है, काल्पनिक सुख का सहारा लेता है. घीसू से पूछता है-
‘‘तुमने बीस एक पूरियाँ खायी होंगी’ और ‘‘मैं पचास खा जाता’’.
यथार्थ में, वास्तविक जीवन में दोनों भूखे हैं. पिता बीस वर्ष पहले बारात में छक कर किये गये भोजन की याद करता है और बेटा उस सुख का अनुभव कल्पना में करता है. बीस वर्ष तक घीसू को वैसा सुस्वादु भरपेट भोजन नसीब नहीं हुआ.
कहानी में घीसू-माधव कफ़न के पैसे से छक कर भरपेट भोजन करते हैं, तली हुई मछली का स्वाद लेते हैं और एक बोतल पीते हैं. यह ब्राह्मणवादी रीति-रिवाज का खा-पीकर किया जाने वाला विरोध है. उनके लिए कफ़न से कहीं अधिक महत्व पेट की भूख का है. पेट की भूख के समक्ष किसी प्रकार के ‘रीति-रिवाज’ का कोई अर्थ नहीं है. एक प्रकार से ये दोनों कर्मकाण्ड और उस रीति-रिवाज का भी भक्षण करते हैं और ब्राह्मणवादी संस्कार और कर्मकाण्ड की ऐसी-तैसी कर डालते हैं.
प्रेमचंद अपने ‘आदर्श’ पर ही नहीं ब्राह्मणवादी संस्कार पर भी कफ़न डाल देते हैं. बच्चन सिंह (2.7.1919-5.4.2008) का प्रश्न है.
‘‘यह किसका कफ़न है? स्वयं प्रेमचंद का? इसी वर्ष उनकी मृत्यु हो जाती है- कि उनके पूर्व आदर्शों, मान्यताओं, विश्वासों, आस्थाओं का? कि बुधिया और शोषक-व्यवस्था का?’’
नहीं, यह कफ़न प्रमुख रूप से उस रीति-रिवाज का है, जिसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने बनाया और कायम रखा. प्रेमचंद ने जो क्रांतिकारी कार्य कफ़न के रुपये से घीसू-माधव के शराब पीने और भरपेट भोजन कर भूखे को भोजन कराने से किया है, वह अभूतपूर्व है. प्रेमचंद ‘कफ़न’ कहानी के जरिये उस ‘बुरा रिवाज’ को घीसू-माधव द्वारा समाप्त कराते हैं, उस पर प्रश्न करते हैं कि
‘‘जिसे जीते जी तन ढँकने को चीथड़ा भ न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न’’
क्यों चाहिए? घीसू का तर्क है –
‘‘कफ़न लगाने से क्या मिलता. आखिर जल ही तो जाता. कुछ बहू के साथ तो न जाता.’’
कफ़न के पैसे का यह उपयोग क्रान्तिकारी है. कहानी के अंत में …. बेटे के बीच के संवाद में ‘दुनिया का दस्तूर’, ‘बामनों को हजारों रुपये देना-’ ‘परलोक’, ‘आत्मा’, ‘भगवान’, ‘बैकुण्ठ’ का उल्लेख सामान्य नहीं है.
घीसू और माधव के लिए इन सब का कोई अर्थ नहीं है. माधव के लिए बुधिया ‘अच्छी’ इसलिए है कि ‘‘मरी तो खूब खिला-पिला कर.’’ कहानी के अंतिम दृश्य में बुधिया की प्रशंसा इसलिए है कि उसने जीवन की सबसे बड़ी लालसा की पूर्ति की. जिस समाज में घीसू-माधव जैसे पात्रों की सबसे बड़ी लालसा भर पेट भोजन करने की हो, वह समाज सड़ चुका है. यह दूसरी बात है कि हम उस सड़ांध को देख नहीं पाते, सूंघ नहीं पाते.
‘कफ़न’ केवल प्रेमचंद की ही नहीं, हिन्दी की भी और संभवतः भारतीय कहानियों में भी सर्वोत्कृष्ट है. इसकी सर्वोत्कृष्टता केवल विचार-पक्ष के कारण ही नहीं, कलात्मक पक्ष के कारण भी है. कहानी के आरंभ में घीसू-माधव का जिस प्रकार से आलू खाने का वर्णन है, उसके सर्वथा विपरीत कहानी के अंत में ‘मधुशाला’ में खाने का वर्णन है.
आरंभ में बाप-बेटे का एक दूसरे पर विश्वास नहीं है. इस अविश्वास का संबंध भूख से है. हिन्दी के प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल (1.4.1911-22.6.2000) की प्रसिद्ध कविता है –
‘‘बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर
धर्म, धीरज, प्राण खोकर
हो रही है रीति बर्बर
राष्ट्र सारा देखता है.’’
घीसू और माधव की इंसानियत भूख के कारण मरती है. इस भूख ने पिता-पुत्र, पति-पत्नी, श्वसुर-बहू सभी संबंधों को खा लिया है. पेट भर जाने पर दोनों की इंसानियत जाग उठती है. भिखारी को पूरियाँ और बची-खुची मछली देने के बाद घीसू-माधव ‘आनन्द और उल्लास’ का अनुभव करते हैं. कफ़न के पैसे ‘गाढ़ी कमाई’ के नहीं हैं. इन पैसों को बुधिया की ‘कमाई’ का पैसा कहा गया है –
‘‘ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे, जिसकी कमाई है वह तो मर गयी, मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा. रोएँ-रोएँ से आशीर्वाद दी. बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं.’’
कहानी में ‘बैकुण्ठ’ में जाने वाले वे नहीं हैं, जो दूसरों को सताते हैं, स्वर्ग और नरक के संबंध में यहाँ प्रेमचंद की दृष्टि अब तक की बनी दृष्टि से एकदम अलग हैं. बुधिया ने ‘किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं.’ इसलिए बैकुण्ठ में वही जायेगी, जबकि दान-पुण्य से बैकुण्ठ में जाने की बात कही जाती है. नशे में घीसू-माधव सच बोलते हैं.
एक नशा धर्म का है, जिसे दारू या शराब का नशा मिटा देता है. कहानी में ‘अकथित’ (‘अनटोल्ड’) संकेत-स्थल दो-चार नहीं, कई हैं. घीसू-माधव-संवाद कहानी के आरंभ और अंत में एक समान नहीं है. बैकुण्ठ में बुधिया के जाने और नरक में औरों को सताने-दबाने वाले लोगों की बात कही गयी है. कहानी में ‘गरीबों को दोनों हाथों से लूटने वालों, ‘पाप’ को धोने के लिए गंगा में नहाने वालों’ और ‘मन्दिरों’ में जल चढ़ाने वालों’ का जिक्र अकारण नहीं है. गरीबों को लूटने वाले सामंत और जमींदार है. गंगा में नहाने वालों और मन्दिरों में जल चढ़ाने वालों का संबंध धर्म, पाखण्ड और ब्राह्मण से है.
हिन्दी समाज इसी में धँसा-फँसा है. दलित पात्रों की उपस्थिति से ‘कफ़न’ कहानी दलित कहानी नहीं बनती. यह सामंती और धार्मिक सत्ता के विरोध की कहानी है. उसी के कारण दलितों की ऐसी स्थिति बनी है. प्रेमचंद मूल स्रोतों को निशाने पर लेते हैं.
‘कफ़न’ कहानी के आरंभ में अजगर और अंत में शेर मात्र उपमा नहीं हैं. कहानी के अंत में घीसू और माधव
‘‘दोनों इस वक्त शान से बैठे हुए पूरियाँ खा रहे थे, जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो.’’
क्या हम यहाँ घीसू और माधव को ब्राह्मणवादी-मनुवादी व्यवस्था का शिकार करते हुए नहीं देख सकते क्योंकि ये दोनों कफ़न के पैसे से भोजन करते हैं. कफ़न की जरूरत इनके लिए नहीं है. कफ़न से अधिक महत्व भोजन का है. पेट की भूख को लेकर लिखी गयी कहानियों में ‘कफ़न’ अन्यतम है. घीसू और माधव कफ़न के पैसों से खा-पीकर केवल पेट की भूख ही शान्त नहीं करते, उस ‘रिवाज’ के खिलाफ भी होते हैं, जिसमें जीवन से अधिक मृत्यु का, कर्मकाण्ड का महत्व है.
घीसू और माधव के इस प्रतिशोध को कम आलोचकों ने समझा है. कहानी में सामाजिक व्यवस्था को चुनौती दी गयी है. रमेश उपाध्याय ने इस कहानी की रचना-पद्धति में जिस ‘चूक’ की बात कही है, वह सही नहीं है. उनकी चिंता यह है कि
‘‘कहानी किसानों की मुक्ति की समस्या तो उठाती है, उसका कोई समाधान नहीं सुझाती.’’
घीसू और माधव किसान नहीं हैं. वे खेतिहर मजदूर हैं. शहरों के मजदूरों से गाँव के मजदूरों में अंतर है. घीसू-माधव का गाँव किसानों का गाँव है, पर वे किसान नहीं हैं, इसलिए ‘कफ़न’ कहानी में ‘किसानों की मुक्ति की समस्या’ खोजना गलत है. फिर इसके समाधान की बात करना एक के बाद दूसरी गलती करनी है. कहानी के आरंभ में ही प्रेमचंद लिखते हैं-
‘‘किसानों का गाँव था. मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे.’’
गाँव में दी जाने वाली मजदूरी शहरों में दी जाने वाली मजदूरी से उस समय बहुत कम होती थी. ‘कफ़न’ में मजदूरी का सवाल भी प्रमुख है. प्रेमचंद के यहाँ मजदूरों की दो श्रेणियाँ हैं- ग्रामीण मजदूर और शहरी मजदूर. गाँव में सामंत और जमींदार हैं. शहर में सामंत और जमींदार नहीं होते, भले वहाँ के लोगों का आचरण और व्यवहार सामंतों और जमींदारों की तरह थोड़ा-बहुत होता हो. सामंत और जमींदार का मुख्य संबंध कृषि से है.
‘कफ़न’ किसानों पर लिखी गयी कहानी नहीं है. जमींदार कहानी में उपस्थित है, पर घीसू-माधव किसान नहीं, मजदूर हैं. प्रेमचंद ने घीसू को ‘किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान’ कहा है. कहानी में किसानों की चर्चा इसलिए है कि ये दोनों गाँव में हैं. गाँवों में ही जाति के आधार पर टोले होते हैं. ‘मैला आँचल’ में रेणु ने इन टोलों का जिक्र किया है.
‘कफ़न’ श्रम के शोषण पर लिखी गयी कहानी है.
‘‘जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत कुछ अच्छी नहीं थी और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी. हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मंडली में जा मिला था.’’
वह अपनी ‘सरलता और निरीहता’ से दूसरे लोगों को ‘बेजा फायदा उठाने नहीं देता.’ आलोचकों ने ‘किसानों के विचार-शून्य समूह’ और ‘बैठकबाजों की कुत्सित मंडली’ पर अधिक ध्यान नहीं दिया है. प्रेमचंद ‘विचार-शून्य समूह’ की तुलना में– ‘बैठक बाजों की कुत्सित मंडली’ को अधिक महत्व देते हैं, स्पष्ट है कि उनके लिए विचार महत्वपूर्ण है.
समाज में श्रम का महत्व नहीं है. समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों का एक वर्ग है और दूसरा वर्ग किसानों का है. मेहनत करने वालों का वर्ग अलग है. इस प्रकार ‘कफ़न’ कहानी में एक जमींदार वर्ग, दूसरा मेहनत करने वालों का वर्ग और तीसरा किसानों का वर्ग है. घीसू और माधव किसान नहीं हैं. मुख्य सवाल यह है कि ‘कफ़न’ कहानी में घीसू-माधव ‘निठल्ला’ और ‘अकर्मण्य’ क्यों हैं?
प्रेमचंद इस कहानी में मनोवृत्ति के पैदा होने के सामाजिक कारणों को सामने रखते हैं. कहानी में सामाजिक वास्तविकता के साथ मनोवैज्ञानिक चित्रण भी है.
तीन) |
घीसू-माधव की मनोवृत्ति का एक सामाजिक आधार है. मनुष्य की मनोवृत्ति और जीवन दशा के निर्धारण में सामाजिक-आर्थिक कारणों का महत्व है. जब तक सामाजिक-आर्थिक दशा नहीं बदलती, तब तक न जीवन-दशा बदलेगी और न वह ‘मनोवृत्ति’, जो मनुष्य को बेहया और अकर्मण्य बना डालती है. घीसू ‘एक दिन काम’ और ‘तीन दिन आराम’ करता है. वह जानता है कि काम करते रहने से उसकी माली हालत नहीं सुधरेगी. उसके व्यावहारिक अनुभव ने, ‘साठ साल के लंबे तजुर्बे ने’ यह समझा दिया है कि प्रतिदिन मजदूरी करने के बाद भी उसकी जीवन-दशा नहीं सुधरेगी. घीसू और माधव की संवेदनशून्यता और संज्ञाहीनता का वास्तविक कारण सामाजिक स्थिति है, भूख है. अगर ये दोनों पूरी तरह संवेदन शून्य और संज्ञाहीन होते तो भिखारी को भोजन नहीं कराते. कहानी के आरंभ में घीसू-माधव की भूख ने उन्हें संवेदनशून्य बना डाला है. भूख के मिटते ही वे संज्ञावान हो जाते हैं. आरंभ में दोनों जलते आलू खाते हैं.
“इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें. कई बार दोनों की जबानें जल गयीं. छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा तो बहुत ज्यादा गरम न मालूम होता, लेकिन दाँतों के तले पड़ते ही अंदर का हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था.”
बुधिया की कराह का इन दोनों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. बुधिया कर्मठ है और घीसू-माधव आलसी हैं. बुधिया ने
“खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी. पिसाई करके या घास छील कर वह सेर-भर आटे का इन्तजाम कर लेती थी और इन दोनों बेगैरतों का दोजख भरती रहती. जब से वह आयी, यह दोनों और भी आलसी और आराम तलब हो गये थे बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे… वही औरत आज प्रसव वेदना से मर रही थी और यह दोनों शायद इसी इन्तज़ार में थे कि वह मर जाय तो आराम से सोयें.”
बुधिया की कराह न पति सुनता है, न श्वसुर. कहानी में पति-पत्नी, श्वसुर-बहू, जमींदार-मजदूर के बीच के संबंध से कहीं ऊपर मनुष्य-मनुष्य के बीच का वह संबंध है, जो नष्ट हो चुका है. पेट की भूख सर्वोपरि है. जमींदार-मजदूर संबंध के बीच धन, सामाजिक रुतबा और जाति-व्यवस्था की प्रमुखता है.
‘कफ़न’ कहानी में घीसू-माधव को अमानवीय बनाने में पेट की आग और व्यवस्था प्रमुख है. कहानी के आरंभ में पेट की आग और भूख है जो केवल कहानी के अंत में मिटती है. कहानी में जिस ‘दिल दरियाव ठाकुर’ का जिक्र है, उसमें और ‘गाँव के जमींदार’ में अंतर है. गाँव के जमींदार की जाति स्पष्ट नहीं है, पर यह निश्चित रूप से तथाकथित उच्च जाति का है. ‘ब्राह्मण देवता’ की सशरीर उपस्थिति न होकर उस व्यवस्था के कर्मकाण्ड के रूप में उपस्थिति है, जो कहानी में ‘परलोक’, ‘बैकुण्ठ’ आदि के साथ मृत व्यक्ति को कफ़न ओढ़ाने से है. गाँव के जमींदार का घीसू-माधव से नफरत के मुरख्यतः दो कारण हैं- जाति और कामचोरी. जमींदार
“इन दोनों की सूरत से नफरत करते थे. कई बार इन्हें अपने हाथों पीट चुके थे. चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए”.
घीसू-माधव की चोरी, मामूली चोरी है, जो केवल भूख मिटाने के लिए है. इस चोरी का संबंध भूख से, आर्थिक अभाव से है. दूसरी ओर ‘गरीबों का माल बटोर-बटोर कर’ रखने वालों का जिक्र है, ‘कफ़न’ कहानी में वर्ग-भेद, जाति-भेद दोनों है. एक का संबद्ध आर्थिक स्थिति और वर्गीय विषमता से है, दूसरे का सामाजिक और जातिगत स्थिति से. इसी कारण, जमींदार ‘घीसू’ को ‘घिसुआ’ कहता है. जमींदार को ‘जमींदरवा’ कहानी में नहीं कहा गया है.
घीसू-माधव का गाँव में रहना जमींदार पर निर्भर करता है. बुधिया की मृत्यु के बाद गाँव के जमींदार के यहाँ बाप-बेटे जब रोते हुए पहुंचते हैं. जमींदार कहता है–
“मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता.”
गाँव जमींदार के हवाले है. उसके अधीन रैयत हैं, किसान हैं, और मजदूर हैं. जमींदार घीसू के लिए ‘सरकार’ है-
“सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी. आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ?”
घीसू ने अपने को ‘जमींदार का गुलाम’ कहा है. अंग्रेजों से आज़ादी की लड़ाई जमीदारों से भी आजादी की लड़ाई थी, जिसे अंग्रेजों ने अपने हित में पैदा किया था. यह जमींदार वर्ग साम्राज्यवाद की छाया में ही फला-फूला. यह सामन्ती समाज का शासक वर्ग है.
‘कफ़न’ शताब्दियों से जारी ब्राह्मणों के ‘रीति-रिवाज’ के साथ-साथ अंग्रेजों द्वारा उत्पन्न जमींदार-वर्ग के विरोध में भी लिखी गयी कहानी है. यह विरोध कहीं से भी मुखर नहीं है, प्रच्छन्न है. यह प्रच्छन्नता कई रूपों में कई स्थलों पर है. इसी से यह व्यवस्था घृणास्पद नहीं लगती. घीसू-माधव का व्यवहार घृणास्पद लगता है, क्योंकि वह सबकी समझ में है.
प्रेमचंद ने जिस भाव-दशा और मनोदशा में यह कहानी लगभग ‘एक साँस में लिखी’ थी. वह न तो दो-चार दिन में बनी थी, न दो-चार वर्षों में. दशकों में इस भाव दशा और मनोदशा का निर्माण हुआ था, जो अपने सघनतम रूप में ‘कफ़न’ में उपस्थित हुई. घीसू की ‘मनोवृत्ति’ एक दिन में नहीं बनी है. ‘कफ़न’ कहानी में सबकुछ निचोड़ रूप में मौजूद है. एक-एक शब्द का ऐसा सटीक समुचित प्रयोग अन्यत्र दुर्लभ है. कहानी-कला की दृष्टि से ‘कफ़न’ जिस शीर्ष पर है, वहाँ हिन्दी की कोई कहानी अब तक नहीं पहुंच सकी है.
‘कफ़न’ कहानी को लेकर सर्वाधिक आपत्तियाँ अब तक दलित लेखकों की रही हैं. डॉ. धर्मवीर और ओमप्रकाश वाल्मीकि से अब तक जितने भी दलित लेखकों ने जो सवाल किये हैं, वे अलग से एक स्वतंत्र लेख की माँग करते हैं. सामंतों और सामंतवाद के विरोधी प्रेमचंद को धर्मवीर ने ‘सामन्त का मुंशी’ कहा है. उनकी पुस्तक ‘प्रेमचंद: सामन्त का मुंशी’ में सर्वाधिक जिक्र ‘कफ़न’ कहानी का है. धर्मवीर की नाराजगी दो शब्दों के प्रयोग पर है – ‘चमार’ शब्द के प्रयोग के साथ जमींदार को ‘दयालु’ कहे जाने पर, जिसे बाद के अन्य दलित लेखकों ने भी दोहराया है.
शब्द का केवल सामान्य अर्थ या अभिधेयार्थ महत्वपूर्ण नहीं होता. जमींदार को ‘दयालु’ कहे जाने में व्यंग्य है और गाँवों में अलग से ‘चमारों का कुनबा’ होना यथार्थ है. ‘चमार’ मात्र एक शब्द नहीं है. यह उत्तर भारत की एक प्रमुख दलित जाति है, जो हिन्दू जाति-व्यवस्था में ही नहीं, दलित अन्तर्जातीय पदानुक्रम में भी सबसे निचले स्थान पर है. यह जाति अनेक उपजातियों में विभाजित है. प्रेमचंद ‘चमार’ शब्द का प्रयोग उस रूप में नहीं करते, जिस रूप में समाज में इसका प्रयोग किया जाता रहा है, अपमानित करने के अर्थ में.
यह सामान्य रूप से समाज में अब तक एक अपमानजनक और अपशब्द के रूप में देखा जाता रहा है. शब्द-प्रयोग के पीछे प्रयोक्ता का अपना सोच-विचार, भाव-मनोभाव भी मौजूद होता है. प्रेमचंद के यहाँ इस शब्द का प्रयोग न तो अपमान जनक है, न सम्मानजनक. वह सामान्यतः जाति-विशेष से जुड़ा है. यह जाति अन्य सभी जातियों से कहीं अधिक शोषित और अपमानित है. शब्द अपने प्रयोक्ता के यहाँ से चल कर श्रोता और पाठक के यहाँ उसी रूप में नहीं पहुँचते, जिस रूप में वे प्रयोक्ता के यहाँ थे. यह अर्थ-ग्रहण अधिकतर सामान्य रूप में ही होता रहा है, पर रचना में शब्द-विशेष की उपस्थिति भिन्न होती है.
‘कफ़न’ कहानी में ‘चमार’ और ‘दयालु’ शब्द पर आपत्ति धर्मवीर की अपनी समझ से संबंधित है. उनके अनुसार ‘कफ़न’ चमारों के बारे में लिखी गयी कहानी है.
‘‘चमारों के बारे में लिखी गयी प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘कफ़न’ में सच का एक बटा नौ भाग ही कहा गया है. ‘कफ़न’ का आठ बटा नौ भाग अनकहा रह गया है, जो प्रेमचंद के पेट में है. केवल साहित्य की दलित समीक्षा उस पूरे आइसबर्ग को बाहर लायेगी.’’
‘कफ़न’ की दलित समीक्षा इकहरी, एकांगी और बेढंगी समीक्षा है. अस्सी के दशक से हिन्दी में जो अस्मिता-विमर्श जारी है, वह रचनात्मक लेखन में सही है, पर इस अस्मितावादी दृष्टि से रचना की सर्वांगीण आलोचना नहीं हो सकती.
आलोचना-कर्म एक रचनात्मक सांस्कृतिक आलोचना-कर्म है. सुरेन्द्र चौधरी ‘कफ़न’ कहानी के मर्म को ‘सम्पूर्ण संस्कृति के स्तर पर’ खुलते देखते हैं –
‘‘वस्तुतः कथा के स्तर पर इस कहानी का मर्म नहीं खुलता, वह खुलता है भावना के स्तर पर और उसमें भी गहराई में सम्पूर्ण संस्कृति के स्तर पर’’ ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी.’
धर्मवीर कहानी का मर्म नहीं पकड़ते. क्या ‘कफ़न’ कहानी का कुपाठ करने वाले अपने लेखन में वर्तमान भारतीय समाज-व्यवस्था, धर्म-व्यवस्था, राज्य-सत्ता, सामंतवाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद सबके आपसी संबंधों पर प्रकाश डालते हैं? धर्मवीर अनुमान करते हैं कि बुधिया के पेट में बच्चा माधव का नहीं, ‘गांव के जमींदार के लौंडे’ का था-
‘‘सारी कहानी नये सिरे से स्पष्ट हो जाती, यदि प्रेमचंद इस कहानी की आखिरी लाइन में दलित जीवन का यह सच लिख देते कि बुधिया गाँव के जमींदार के लौंडे से गर्भवती थी. उसने बुधिया से खेत में बलात्कार किया था. तब शब्द दीपक की तरह जल उठते और सब-कुछ समझ में आ जाता.’’
सब-कुछ समझ में आये या नहीं पर इतना समझ में अवश्य आ जाता है कि यह कहानी के साथ किया गया बलात्कार है. प्रेमचंद जमींदार की दयालुता के संबंध में लिखते हैं.
‘‘जमींदार साहब दयालु थे. वे अवसर देख कर क्रोध नहीं करते. जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकाल कर फेंक दिये मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला.’’
इसके बाद कोई सामान्य पाठक भी समझ सकता है कि प्रेमचंद ने जमींदार के लिए ‘दयालु’ शब्द का प्रयोग क्यों किया? धर्मवीर ने जो राह दिखाई, उस राह पर चलने वाले आज के कई दलित युवा लेखक भी हैं. इनकी आपत्ति कहानी में ‘चमारों का कुनबा’ और उसके ‘गाँव भर में बदनाम’ कहे जाने पर है.
वे सलाह देते हैं कि ‘चमारों के कुनबा’ पर अपनी जाति को रख कर लोग देखें. इसी प्रकार ‘प्रेमचंद की स्त्रियाँ’, पर लेख लिख देने का यह अर्थ नहीं है कि लेखक या लेखकों ने प्रेमचंद की स्त्रियों को अच्छी तरह समझ भी लिया है. दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श में आज भी कई ऐसे लेखक और ‘विमर्शकार’ शामिल हैं, जो रचना का सम्यक मूल्यांकन नहीं करते. पुनर्मूल्यांकन में भी बहुत कुछ छूट जाता है.
जिन कुछ लेखकों-आलोचकों ने ‘कफ़न’ की ‘संरचनागत त्रुटि’ का जिक्र किया है, क्या वह सचमुच ‘संरचनागत त्रुटि’ है? ‘कफ़न’ कहानी में कई स्थलों पर प्रेमचंद ने अपनी ओर से जो कहा है, क्या उसकी आवश्यकता नहीं थी? प्रेमचंद का लेखन सोद्देश्य है.
कहानी के आरंभ में विस्तार से वे अपनी ओर से स्थितियों का वर्णन करते हैं, जो कहानी को, घीसू-माधव को ही नहीं, पूरी व्यवस्था को समझने में सहायक है. कथाकार का अपनी ओर से कहना आवश्यक था. इस कहानी के सुसंगत पाठ के लिए प्रत्येक शब्द और वाक्य पर ठहरना आवश्यक है. सजग और सावधान पाठकों के साथ आलोचकों से भी यह अपेक्षा की जाती है.
घीसू-माधव के शराब पीने के बाद इंसान बनने की बात सबसे पहले भीष्म साहनी ने कही थी और यह ध्यान दिलाया था कि जब तक घीसू-माधव भूखा पेट है, बुधिया उपेक्षित है, पर पेट भरते ही वह ‘बैकुण्ठ की रानी’ बन जाती है. भूखे पेट दोनों जानवर हैं, जो शराब पीने के बाद इंसान बन जाते हैं. घीसू-माधव जिस सामाजिक परिवेश की उपज हैं, उस सामाजिक परिवेश को बदले बिना घीसू-माधव की ही नहीं, दलितों की भी जीवन दशा नहीं बदलेगी.
कई आलोचकों का एतराज यह है कि घीसू-माधव वास्तविक अथवा यथार्थ चरित्र नहीं हैं. रचना का यथार्थ वास्तविक यथार्थ की नकल नहीं है और न रचना का सत्य हू-ब-हू जीवन-सत्य की तरह होता है.
इन्द्रनाथ मदान कहानी के सत्य को जीवन के यथार्थ से मेल खाते नहीं देखते. कहानी के आरंभ में ‘बुझे हुए अलाव’ को सब ने देखा है, पर घीसू-माधव के भीतर भूख के जलते अलाव को देखने वाले कम हैं. इसी प्रकार ‘सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था’ का सामान्य अर्थ समझने में किसी को दिक्कत नहीं है, पर यहाँ ‘अंधकार’ के वृहत अर्थ को सब नहीं समझ पाते.
सुरेन्द्र चौधरी ने ‘कफ़न’ के जिस ‘मैक्रोकॉस्मिक’ ढाँचे की बात कही है, कहानी के निर्माण को ‘वृत्तात्मक’ माना है और उसे जो ‘बोधात्मक’ कहा है, वह कहानी के मर्म को समझने से ही संभव हुआ है. ‘बोधात्मक निर्माण’ के कारण ही वे ‘कथावाचक के स्वर की अधिकृति (authority) को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं करते. कहानी का एकायामी एवं सतही पाठ कहानी समझने में बाधक है.
‘कफ़न’ कहानी के संबंध में अनुकूल-प्रतिकूल दोनों प्रकार के विचारों का एक पुराना सिलसिला है.
“बलराज साहनी ने 1965 में इसे ‘प्रेमचंद की एक गौण कहानी’ माना था और कहानीकार द्वारा घीसू-माधव को जिस ढंग से प्रस्तुत किया गया है, उसमें उन्होंने “भारत-निन्दक मिस् मेयो के नक्शे कदम पर चलने वाले साम्राज्य-समर्थक अंग्रेज, अमरीका और पश्चिमी लेखकों के बयानों का समर्थन” देखा था.
बच्चन सिंह ने इस कहानी को ‘प्रगतिवादी’ सिद्ध करने वालों पर ‘गुमराह’ करने का आरोप लगाया था. कफ़न कहानी में ‘दलितों का नकारात्मक चित्र’ केवल दलितों ने ही नहीं, गैर दलितों ने भी देखा. जमींदार की तरह घीसू को भी निकम्मा मानने वाले भी कम नहीं है.
प्रोफेसर शीतांशु केवल ‘जमींदार के यहाँ सामंती व्यवस्था सक्रिय’ नहीं देखते, वे ‘घीसू और माधव के आचरण में भी प्रायः संस्कारगत समांतवादी अनुकरण’ देखते हैं. नेहरू ने जिस ‘रांग इंडिया’ की बात कही थी उसका सूत्रपात उन्होंने ‘ग्रामीण परिदृश्य में रहने और जीने वाले घीसू और माधव के द्वारा’ दिखाया है, जो संगत नहीं है.
रमेश उपाध्याय (1.3.1942-24.3.2021) ने घीसू-माधव को नकारात्मक चरित्र मान कर प्रेमचंद के ‘चूक’ जाने की बात कही है-
“कफ़न के साथ दिक्कत यह है कि वह किसानों की मुक्ति की समस्या तो उठाती है, उसका कोई समाधान नहीं सूझाती. …कफ़न के ताने-बाने भ्रम जाल बुनते हैं.”
ओम प्रकाश वाल्मीकि (30.6.1950-17.11.2013) इस कहानी को ‘हिन्दू समाज में मौजूद पूर्वाग्रहों को और ज्यादा सुदृढ़’ करते देखते हैं.
“पूरी कहानी में ऐसा कोई संकेत नहीं है, जो वर्ण-व्यवस्था पर किसी टिप्पणी के रूप में रेखांकित किया जा सके”.
बुधिया के प्रसव के समय कुनबे की स्त्रियाँ क्यों नहीं हैं, यह आरोप भी कुछ लोगों ने लगाया है. ओम प्रकाश वाल्मीकि ने इस कहानी को ‘एक अस्वाभाविक घटना पर आधारित’ कहा है, “जिसे चित्रित करने में प्रेमचंद ने सनसनी पैदा करने की तकनीक का इस्तेमाल किया”.
सभी आलोचकों की अपनी-अपनी दृष्टि है. दृष्टि सम्पन्न एवं विचार-सम्पन्न आलोचना भी है, जो ‘कफ़न’ का समुचित पाठ प्रस्तुत करती है, पर जितना ध्यान घीसू-माधव की, संवेदनहीनता पर दिया गया है, उतना उस व्यवस्था पर नहीं, जिसने ऐसे हालात उत्पन्न किये हैं.
‘कफ़न’ के घीसू और माधव जिस परिवेश में रहते हैं, उसका विस्तार से प्रेमचंद वर्णन नहीं करते, पर उस वर्णन में सब कुछ समाहित है. प्रेमचंद ने हृदय-परिवर्तन का आदर्श अपने लेखन के अंतिम समय में छोड़ दिया था. ‘गोदान’ उनके आदर्शों का भी गोदान है और कफ़न उनके आदर्शों पर भी डाला हुआ है.
‘कफ़न’ कहानी में राजेन्द्र यादव, प्रेमचंद को ‘हृदय-स्तब्धता या विजड़ित संवेदना के बिन्दु पर साँस तोड़ते’ दिखाई देते हैं, जिसे उन्होंने ‘डिक्लासिफिकेशन’ (अवर्गीय) की प्रक्रिया में डिह्यूमनाइज (अमानवीकरण) होना कहा है. प्रश्न यह है कि मनुष्य के संवेदनहीन होने के क्या कारण हैं? ‘कफ़न’ के मूल्यांकन-पूर्णयमूल्यांकन में सामाजिक परिवेश और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों की अनदेखी करना उन स्थितियों का पक्षधर होना है. उसके समर्थन में रहना है. प्रेमचंद जिस सामंती भूमि-व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक शोषण के विरूद्ध सदैव सृजनरत रहे, वह कांग्रेस के एजेंडे पर नहीं थी.
चार) |
बच्चन सिंह ने ‘कफ़न’ कहानी के साथ ‘महाजनी सभ्यता’ को पढ़ना आवश्यक माना है, पर अभी तक तीस के दशक को और प्रेमचंद के समय को (1930 से 1936 तक का समय) विस्तारपूर्वक कम देखा- समझा गया है. ‘कफ़न’ कहानी अपने से अलग उस समय के अध्ययन की भी माँग करती है. जिस वर्ष प्रेमचंद का निधन (8 अक्टूबर 1936) हुआ था, उसी वर्ष 1936 में एक साथ ‘राम की शक्ति-पूजा’, ‘गोदान’, ‘कामायनी’, जवाहर लाल नेहरू की ‘ऑटोबायग्राफी’, जयप्रकाश नारायण की ‘व्हाई सोशलिज़्म’, अंबेडकर की पुस्तक – ‘ऐनहिलेशन ऑफ कास्ट’ भी प्रकाशित हुई थी.
उसी वर्ष 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन लखनऊ में हुआ था, जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी और कांग्रेस का अधिवेशन भी लखनऊ में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था.
निराला ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ पर बल दे रहे थे और ‘गोदान’ में होरी की मृत्यु के समय धमिया ‘पछाड़ खाकर’ गिर पड़ी थी. कफ़न में भी बुधिया पछाड़ खाती है, क्या यह ‘पछाड़ खाना’ दो स्त्रियों की सामान्य क्रियाएँ हैं या यह पूरे भारत का पछाड़ खाकर गिरना है- भारत माता का भी?
प्रेमचंद ने जिस स्वराज्य की कल्पना की थी, जीवन के अंत में उन्हें यह अहसास हो रहा था कि भारत को उनकी आकांक्षा के अनुसार सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था वाले भारत में तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है, जबकि होरी किसान से मजदूर हुआ था. स्वाधीन भारत के अमृत महोत्सव वर्ष का हाल यह है कि केन्द्र और मणिपुर में एक ही दल विशेष की सरकार है, पर एक छोटा खूबसूरत राज्य जल रहा है और सत्ता-व्यवस्था, राज्य सरकार लगभग खामोश है. बड़ी बात यह है कि हम, किसी भी कृति का अपने समय में कैसा पाठ करते हैं?
‘कफ़न’ कहानी का यथार्थ वास्तविक नहीं, काल्पनिक ही है, पर प्रत्येक कल्पना का एक आधार होता है. श्रम और मिहनत का जिस समाज में सम्मान न हो, जिस समाज में दलित समुदाय को निहायत अमानवीय ढंग से देखा जाता हो, उस समाज के संबंध में, वहाँ के पात्रों को संवेदनहीन प्रस्तुत करने में कथाकार की वह बेचैन सृजनात्मक दृष्टि है, जो हमें भावी समय के लिए आगाह करती है.
‘कफ़न’ कहानी की संश्लिष्टता कहानी की वह विशेषता है, जिससे क्या आधुनिकतावादी, उत्तर-आधुनिकतावादी, कलावादी, जनवादी, यथार्थवादी, मार्क्सवादी सब अपने-अपने नजरिये से आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हैं. प्रश्न उस सार्थक आलोचना का है, जो कहानी को समझने के लिए हमें एक दृष्टि प्रदान करती है. यह मानकर चलना बहुत मुनासिब नहीं है कि कफ़न का मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन हो चुका है और अब कहानी में कुछ ऐसा नहीं है, जिससे कुछ नयी खिड़कियां खुले.
साहित्यिक कृति की आलोचना केवल साहित्यिक नहीं हो सकती. वह अपने व्यापक अर्थ में सांस्कृतिक आलोचना होकर ही सार्थक होती है.
आवश्यक नहीं है कि आलोचक उस पर अपनी विचारधारा का आरोपण करे क्योंकि रचना में ही ऐसे अनेक सूत्र, संकेत और स्थल मौजूद होते हैं, जहाँ आलोचक के लिए रुकना और ठहरना अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना न तो रचनाकार के वास्तविक आशय से हम परिचित होंगे और न रचनात्मक सौन्दर्य का उद्घाटन होगा.
‘कफ़न’ कहानी को घीसू-माधव के सामाजिक परिवेश से अलग होकर नहीं समझा जा सकता. कहानी का सामाजिक यथार्थ केवल वास्तविक यथार्थ नहीं होता, वह अनुमानित यथार्थ भी होता है. इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में जब समाज का शिक्षित-सुशिक्षित वर्ग भी संवेदनहीन हो चुका है, तो हम घीसू-माधव की संवेदनशून्यता को कैसे देखें-समझें? कहानी में न तो शोषण स्पष्ट है, न शोषण के प्रति विद्रोह. वह संकेत में अधिक है. घीसू को ‘घिसुआ’ कहना केवल एक शब्द, एक नाम को विकृत करना है या एक जाति विशेष के प्रति विकृत-दृष्टि का सूचक भी है?
घीसू-माधव अपने श्रम का शोषण नहीं होने देते, जो शोषकों के प्रति एक प्रकार का विरोध और विद्रोह भी है. जो शोषक है- जमींदार, बनिया और महाजन, वे इलाज के लिए पैसे न देकर कफ़न के लिए पैसे देते हैं. उन्हें परलोक और सामाजिक मर्यादा की चिन्ता है. प्रेमचंद कहानी में सामाजिक मर्यादा को तार-तार कर देते हैं. ‘कफ़न’ के पैसे से शराब पीना, कर्मकाण्ड से, ब्राह्मणवादी रीति-रिवाज से विद्रोह है. यह सामान्य विद्रोह नहीं है. इसे देखने के लिए उस आँख की, दृष्टि की आवश्यकता है, जो अब हिन्दी कथालोचना से बहुत अंशों में गायब है. कहानी के अंत में
कबीर के नाम से प्रचलित जो गीत-पंक्ति- ‘ठगिनी क्यों नैना झुमकावै’ है, वह प्रेमचंद की कहानी ‘अग्नि समाधि’ में भी है. ‘कफ़न’ में गीत की एक पंक्ति है, और ‘अग्नि समाधि’ में पूरा गीत.
‘प्रेमचंद और कबीर’ पर विचार करने की जरूरत है. ‘कफ़न’ में घीसू-माधव पर, उसकी मनोवृत्ति, पर उसके आलस्य, संवेदनहीनता पर ‘एलिएनेशन’ पर जितना विचार हुआ है, उतना न तो बुधिया पर और न उसके गर्भस्थ शिशु पर. जमींदार पर भी कम विचार हुआ है, जमींदार के जिस लौंडे को डॉ. धर्मवीर अपनी दृष्टि से देखते हैं, उसमें उनके सामने उसका बलात्कारी रूप है.
वे समाज की उन शक्तियों को पहचानने की कोशिश नहीं करते जो एक भिन्न अर्थ में, बृहत अर्थ में बलात्कार करता है. इन पंक्तियों के लेखक को बुधिया और उसका गर्भस्थ शिशु दशकों से परेशान किये हुए है– ‘बुधिया का गर्भस्थ शिशु’ शीर्षक से एक स्तंभ-लेख लिखने के बाद भी. कौन है बुधिया? कौन है वह गर्भस्थ शिशु? क्या माँ और उसके गर्भस्थ शिशु की मौत एक सामान्य मौत है?
बुधिया के प्रसव की कराह क्या केवल एक माँ की कराह है या देश की भी कराह है? आज जो देश की कराह नहीं सुन पा रहे वे बुधिया की कराह क्या सुनेंगे और समझेंगे? बुधिया और गर्भस्थ शिशु की मृत्यु सामान्य मृत्यु नहीं है. क्या यह प्रेमचंद के समय के भारत, और भावी भारत की मृत्यु नहीं है- उस स्वप्न की मृत्यु, जो स्वप्न प्रेमचंद देख रहे थे?
प्रेमचंद ने ‘कफ़न’ में यथार्थ की केवल रचना ही नहीं की है, वास्तविक यथार्थ में पलीता भी लगा दिया है. अर्थ (रुपया पैसा) सब कुछ खा जाता है, बुधिया की कराह न पति सुनता है न श्वसुर. देश की कराह आज कौन सुन रहा है? बुधिया की कराह एक नये भारत के प्रसव की कराह है.
घीसू-माधव का परिवार बढ़ता नहीं, गर्भस्थ शिशु की मृत्यु के बाद रुक जाता है. गर्भस्थ शिशु जन्म लेता तो क्या होता? वह भी घीसू-माधव ही बनता. गर्भस्थ शिशु का जन्म न लेना भी एक प्रकार का प्रतिरोध है जो ‘प्रतिरोध’ के सामान्य अर्थ से अलग है. कहानी में कफ़न महज एक वस्त्र नहीं है. बुधिया की मृत्यु को प्रोफेसर ‘शीतांशु’ ने “वर्तमान और आसन्न भविष्यत कर्म-संस्कृति की मृत्यु’ कहा है. वे गर्भस्थ भावी शिशु को ‘कर्म-संस्कृति का शिशु’ कहते हैं, जो जन्म नहीं ले पाता. भविष्य के भारत का क्या रूप होगा, इसे प्रेमचंद बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक से अच्छी तरह समझने लगे थे.
प्रेमचंद कौंसिलों का चुनाव देख-समझ चुके थे. ‘गोदान’ में कौंसिलों का चुनाव लड़ने वालों की असलियत उन्होंने सामने रखी है. वे 1921, 1926 और 1930 के चुनाव देख चुके थे. ‘संग्राम’ (1922) नाटक के सबल सिंह को यूरोप का जनतंत्र धनवान व्यक्तियों के लोगों का खिलवाड़ लगता है. प्रेमचंद पूंजीवादी जनतंत्र के वास्तविक रूप को समझते थे. आज भारत में संसदीय लोकतंत्र है और संसद में और उसके बाहर भी सरकार से तीखे सवाल नहीं किये जा सकते.
12 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार प्रेस कांफ्रेंस कर लोकतंत्र के संबंध में अपनी चिंताएं प्रकट की थीं. प्रेमचंद के समय में कौंसिलों में चुनाव होते थे. उन्होंने इन चुनावों पर विचार किया. ‘चुनाव चुथौअल’ शीर्षक से टिप्पणी भी लिखी. 20 मार्च 1933 के ‘जागरण’ में उन्होंने एसेम्बली तथा कौंसिलों में ‘स्वार्थी, कमजोर, अकर्मण्य मेम्बरों को भेजने की जरूरत’ नहीं बताई थी.
‘हंस’ के प्रवेशांक (मार्च 1930) में ही उन्होंने चुनाव के लिए चली जाने वाली अनेक प्रकार के ‘चालों’ का जिक्र किया था, चुनाव में ‘चालबाज’ लोगों के विजयी होने की बात कही थी. ‘संग्राम’ (1922) से लेकर ‘गोदान’ (1936) तक उन्होंने कई बार चुनावों पर लिखा. 1937 के 1588 सीटों पर लड़े जाने वाले प्रांतीय चुनाव को देखने के लिए जीवित नहीं रहे. आजादी का उनका स्वप्न अधूरा रहा. क्या घीसू-माधव की जीवन दशा बदलती?
कफ़न प्रेमचंद के स्वप्न के खण्डित होने की कहानी है. बुधिया और उसके गर्भस्थ शिशु की मृत्यु इस स्थिति में अस्वाभाविक नहीं है. आज का यथार्थ कहीं अधिक भयावह है. ‘कफ़न’ में कहानीकार का प्रतिरोध कलात्मक रूप से प्रकट है. वह एक महान रचना है, जो केवल कहानी पर ही नहीं, भारत की दशा-दिशा पर भी सोचने को विवश करती है. आज भी जमींदार की संताने और घीसू-माधव की संतानें नए रूपों में जीवित हैं. घीसू-माधव की संतानें आज के कथाकारों को कहीं अधिक ध्यान से देख रही हैं.
17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन. ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’, ‘कहाँ आ गये हम ओट देते-देते’ और ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ पुस्तकें प्रकाशित.
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भाई रविभूषण जी विद्वान हैं और इन्हे पढ़ना मेरे लिए हमेशा सुखद रहा है. नई जानकारियां मिलती हैं. ‘ कफ़न ‘ पर ही इतनी सामग्री है कि अलग से उस पर कुछ पढ़ने की जरुरत नहीं रह जाती. लेकिन उनके इस निष्कर्ष कि कफ़न स्वप्नभंग की कहानी है,मैं सहमत नहीं हूँ. प्रेमचंद के पास 1935 तक स्वप्नभंग की कोई समस्या नहीं थी. उनका स्वप्नभंग हो चुका था. दरअसल कफ़न मनुष्य के अमानवीकरण की बेजोग कथा है. मैंने इसे इसी रूप में देखा है और इसलिए इसे काफ्का की कहानी मेटामॉर्फोसिस से जोड़ कर देखता हूँ. उसी तरह यह कहानी हमें बेचैन करती है. इसे पढ़ते हुए चेखब के प्रसिद्ध कहानी वार्ड नंबर छह का भी स्मरण होता है.
यह सुदीर्घ आलेख कफ़न कहानी पर एक विश्वकोश जैसा है। शायद ही किसी नामचीन आलोचक और रचनाकार को इस आलेख की तैयारी में न पढ़ा गया हो।
सवा सेर गेहूँ कहानी का प्रेमचंद ने जैसा अर्थपूर्ण समापन किया था कुछ उसी तरह रविभूषण जी ने भी आपने आलेख का समाहार किया है।
इस दिशादर्शक समृद्धकारी आलेख के लिए रविभूषण जी को धन्यवाद।
आदरणीय प्रोफेसर रविभूषण जी का यह आलेख अपने आप में मुकम्मल है क्योंकि यह कफ़न कहानी पर रचनाकारों एवं उल्लेखनीय आलोचकों की छोटी -बड़ी टिप्पणियों तथा निबंधों से संवाद करते हुए ऐतिहासिक -समाजशास्त्रीय पद्धति के साथ ही सौन्दर्यशास्त्रीय पद्धति के विनियोग का सर्जनात्मक सुफल है.
बावजूद इसके भीष्म साहनी द्वारा उल्लिखित ‘घीसू-माधव के शराब पीने के बाद इंसान बनने’ की बात और उससे रविभूषण जी की सहमति क़ाबिल-ए-क़बूल नहीं है.
इसी प्रकार इस महत्वपूर्ण आलेख में वर्तमान मणिपुर हिंसा का ज़िक्र भी बेज़रूरी प्रतीत होता है, क्योंकि उसका संबंध भारत के खिलाफ़ चीन की विस्तारवादी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के तहत म्यांमार की कुकी जनजाति को हथियाबंद करके भारतीय सीमा में अनधिकृत घुसपैठ करवाकर आशान्ति पैदा करने की साजिश से है.
कहना न होगा कि कफ़न कहानी समेत किसी भी उल्लेखनीय रचना-कर्म की तरह ही यह विश्लेषण भी इकहरे के बजाय गंभीर पाठ की मांग करता है.
रविभूषण जी को इस सार्थक सभ्यता-समीक्षा के लिए साधुवाद.
रविभूषण जी ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ को लेकर अब तक हुई बहसों और अधिकतम विमर्श-अध्ययनों का बेहतर आकलन और तदनुरूप अपना स्पष्ट दृष्टिकोण व्यक्त किया है.
सार्थक विमर्श के लिए उन्हें और प्रस्तुति के लिए ‘समालोचन’ काआभार !
क़फ़न पर रविभूषण जी का लेख प्रेमचंद्र की रचना दृष्टि को समझने का धैर्यवान् और सूझ भरा अध्ययन है। एक छोटी सी कहानी ने पूरे भारतीय समाज को शर्मसार कर रखा है जबकि शब्दाधिक्य से लदी फंदी समकालीन हिंदी कहानियाँ वस्तुविहीन संजाल होती जा रही हैं।।अज्ञेय ने शेखर एक जीवनी के बारे में कहा था कि यह एक रात में देखे गये विजन को शब्दबद्ध करने का प्रयत्न है। एक रात में लिखी कहानी कफ़न भारतीय हिंसा और दारिद्र्य का इतिहास है जो आज तक अपने को दोहरा रहा है। लगभग नब्बे साल पुरानी कहानी की क्रूरतम स्थितियाँ कमोबेश बनी हुई हैं । दलित प्रश्न यदि वर्गीय प्रश्न हो सकता तो वह मायावती जैसे विघातक अवसरवादी नेताओं के अस्मितावादी अवशोषण का सामान न बनकर जाति मुक्त और समानधर्मी समाज निर्माण की अगुआई कर रहा होता। कफ़न भारतीय सामाजिक संरचना में अगतिकता और उससे पैदा अंधकार का क्रांतिद्रष्टा पूर्वानुमान है।
इन दिनों ‘कफ़न’ कहानी को लेकर जो बहसें साहित्य जगत में तैर रही थी, उसमें ज्यादातर ‘प्रतिक्रिवादी’ और कुछ गंभीर चिंतन प्रक्रिया के परिणाम स्वरुप भी रही हैं। वास्तव में रविभूषण जी ने अपनी सम्यक दृष्टि के तहत कहानी के ऐसे पक्षों को उद्घाटित किया है जो न महज उनकी आलोचना पद्धति के विशाल कैनवास से हमें रूबरू कराती है, बल्कि कहानी पढ़ने की एक सूक्ष्म दृष्टि भी प्रदान करती है। मेरे मन में ‘कफ़न’ कहानी से सम्बन्धित अब तक जो भी सवाल रहे हैं उनका उत्तर इस आलेख के माध्यम से पा चूका हूँ। किन्तु एक बात की उलझन अभी भी बनी हुई है कि प्रसव-पीड़ा के दौरान बुधिया की मदद को कोई क्यूँ नहीं आता है? जिस पीड़ा को विश्लेषत करते हुए रविभूषण जी ने ‘भारत माता’ की पीड़ा से जोड़ के देखा, वह बात पुनरावलोकन में एक हद तक ही न्याय संगत लगती है क्यूंकि उसमें निराला की तरह ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ जैसी कोई उम्मीद की किरण नजर नहीं आती। आखिर क्या कारण रहा होगा कि ‘भारत माता’ की पीड़ा के साथ गाँव के उस जाति विशेष की भारतीय माताओं की भी संवेदना नहीं जुड़ पाती?
रविभूषण जी ने कहानी के हर पक्ष की संतुलित और तार्किक मीमांसा की है। यह सही है कि प्रश्नों से परे कोई नहीं है, प्रेमचंद भी नहीं लेकिन कोई भी पूर्वग्रही पाठ भी प्रश्नों से परे नहीं। यह समीक्षा कहानी पर उठाए गए प्रश्न पर प्रतिप्रश्न है, कहीं न कहीं एक सावधान-संवेदित पाठ का महत्व और ज़रूरत उजागर करती।
प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी पर गुरुवर रविभूषण जी के अद्भुत विश्लेषण ने दशकों
पहले टीनएबी कॉलेज, भागलपुर में प्रेमचंद की ही एक और कहानी ‘शतरंज के
खिलाड़ी’ पर उनके विश्लेषण की याद दिला दी। अपने ज्ञान, तर्कबुद्धि,
विश्लेषण क्षमता और अनुशासन से रविभूषण जी हम छात्रों के बीच सबसे सम्मानीय
प्राध्यापक थे और आज भी वे उतने ही प्रभावित करते हैं। ‘कफन’ कहानी के बारे
में हिंदी के लेखकों-आलोचकों के इतने उद्धरण, वाक्यों और प्रतीकों की ऐसी
व्याख्या तथा बारीक से बारीक ब्योरों तक जाना उनके अध्यवसाय के बारे में ही बताता है।
रविभूषण की आलोचना की विशेषता है कि वे पहले विषय को ‘छानते’ हैं। जिस तरह पुराने जमाने में घर बनता था, तो चोरों ओर से उसकी पकड़ मजबूत की जाती थी, जिसे छानना कहते थे। कफ़न -आलोचना के लगभग सारे आयोमों की ओर उन्होंने संकेत कर दिया है और ‘मोहभंग’ (प्रेमचंद के स्वप्न के खंडित होने की कहानी) के रूप में अपनी स्थापना भी दी है। उससे सहमति-असहमति हो सकती है। दरअसल सभी के अपने-अपने कफ़न हैं, अपने-अपने ‘पाठ’ हैं। कफ़न की ताकत ही बहुपठनीयता है। जितने तरह के पाठक उतने ही ‘पाठ’।
हम किसी भी पाठ को ग़लत करार नहीं दे सकते। कफ़न का यदि एक पाठ यह है कि ब्राह्मणवाद और सामंतवाद आदि पर मारक प्रहार करती है, वैसी (कु) व्यवस्था की तीखी आलोचना करती है, जहाँ दिन-रात कड़ी मेहनत के बावजूद पेट नहीं भरता, तो ऐसी गलीज व्यवस्था में मेहनत ही क्यों की जाए? तो दूसरा पाठ यह भी हो सकता है कि कोई दलित भी आलसी, अकर्मण्य हो सकता है, जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि हो सकते हैं। दोनों के अकर्मण्य होने के कारण और पृष्ठभूमि अलग-अलग हो सकते हैं। प्रेमचंद की सजग लेखनी ने इस ओर संकेत कर दिया है। दलितों में भी पितृसत्ता है। कई दलित लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथाओं में घोर पितृसत्ता को रेखांकित भी किया है। बुधिया इसी पितृसत्ता की मारी हुई हो सकती है। अकर्मण्यता या पितृसत्ता पर सवर्णों का ही एकाधिकार नहीं है, वह दलितों में भी है। ब्राह्मणों की आलोचना करने से न तो प्रेमचंद ब्राह्मण विरोधी हो जाते हैं न दलितों की आलोचना से दलित विरोधी। प्रेमचंद उस कबीरी परंपरा के लेखक हैं जो ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होने की फिक्र नहीं करते। जहाँ, जिसमें कमी देखी, उसे निर्भीकता से व्यक्त किया। यही प्रेमचंद होने का मतलब भी है।
गहन विमर्श और बहुत से बिन्दुओं पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है यह लेख ,जिसे एक बार नहीं कई बार पढ़ा जाना चाहिए .सम्माननीय रविभूषण जी को बहुत बधाई .वे ऐसे ही लिखते रहें .