प्रेमचंद की परंपरा के मायने |
प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई के इर्दगिर्द हर वर्ष उनकी परंपरा पर कुछ-न-कुछ बहस जरूर हो जाती है. लेकिन इसमें गरिमा और गहराई कम ही होती है. सब अपने-अपने कुनबे के लेखकों को उस परंपरा में कोंचने लगते हैं. बाज़ दफा तो स्थिति हास्यास्पद हो जाती है.
हिंदी आलोचना की स्थिति यूँ भी बहुत समृद्ध नहीं है. बनी-बनाई लीक से हट कर चलने और कुछ नये ढंग से सोचने-विमर्श करने की कोशिश कम ही दिखाई देती है.
आलोचक पढ़ते चाहे जितना हों, सोचते-विचारते तो बहुत ही कम हैं. यही कारण है उन्हें अपने लिखे पर भरोसा दिलाने के लिए अपने से पूर्व के लेखकों के उद्धरण पंक्ति दर पंक्ति देने पड़ते हैं. नतीजतन इन आलोचकों के लेख उद्धरणों से पटे रहते हैं. सुना है विश्वविद्यालयों ने इसे हतोत्साहित करने की कोशिश की है. लेकिन मैं जानता हूँ आलोचक मानेंगे नहीं, क्योंकि इनके पास कहने के लिए अपना कुछ होता नहीं है.
प्रेमचंद मेरे भी प्रिय लेखक हैं. और इसलिए हैं कि वह अपने समय में बहुत जागरूक थे. उनका समय हमेशा याद किया जाना चाहिए. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध (1880) में जन्मे और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (1936) में इस दुनिया से विदा हो गए. उनके जन्म के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ और जब वह खूब सयाने हो चुके थे, तब जाकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन एक स्वरूप ले सका. राष्ट्रीय आंदोलन की निर्णायक लड़ाई का आरम्भ यदि 1920 से माना जाये, तो उस समय प्रेमचंद चालीस की उम्र के थे. उनकी पहली किताब सोजे वतन जो कहानियों का एक संकलन है, राष्ट्र की भावनात्मक चेतना से लबरेज है. उस पर उर्दू गल्प साहित्य का पूरा असर तो है ही, बंग-भंग आंदोलन के बाद बंगाल और उसके इर्दगिर्द के इलाकों में जो राष्ट्रीय चेतना आई थी, उसकी परछाई भी है.
‘संसार का सबसे अनमोल रतन’ कहानी के साथ उन्हीं की एक परवर्ती कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का पाठ कीजिए, तब पता चलता है कि प्रेमचंद किस तरह बदल रहे थे.
जो इस बदलाव को समझने की कोशिश नहीं करते वह प्रेमचंद को कभी नहीं समझ सकते. संसार का सबसे अनमोल रतन का नायक मानो पलासी युद्ध का भावुक हिंदुस्तानी योद्धा है, जो यह नहीं जानता कि वह किस सामंतवादी राजसत्ता के लिए संघर्ष क र रहा है. उसका देश किसी देवता की तरह ‘पवित्र’ है.
उस दौर का लेखक प्रेमचंद भी उस गुत्थी को नहीं समझ रहा कि यह देश है क्या. लेकिन शतरंज के खिलाड़ी का परिदृश्य ही अलग है. लेखक की समझ इतनी विकसित हो चुकी है कि वह गुलामी के कारणों को रेखांकित कर सकता है. जहाँ विवेचित सामंतवादी समाज और राजनीति इतनी पतित हो चुकी है कि वास्तविक राजा पकड़ कर ले जाया जा रहा है और उसके सामंत शतरंज की मोहरों के लिए आपस में ही लड़ते हुए मारे जाते हैं.
अय्याशी, अहदीपन और काहिली की जिस हद को प्रेमचंद देख रहे थे, उसे उस दौर के कितने लेखक देख रहे थे. प्रेमचंद सामान्य अर्थों में ग्रामकथा लेखक नहीं थे, इसी तरह वह चलताऊ ढंग से किसानों, मजदूरों, अछूतों, स्त्रियों के लेखक भी नहीं थे.
वह अपने समय के अंतर्विरोधों और पाखण्ड को देख रहे थे. एक लेखक अपने समय और उसके मिथ्याचार का समीक्षक होता है. वह किसी खास समूह का प्रवक्ता भर नहीं होता. इसी रूप में वह सभ्यता-समीक्षक हो जाता है.
लेखक का काम किसान, कुली, क्लर्क, विधवा और परित्यक्त का विवरण-ब्यौरा देना नहीं है. उनकी गलदश्रुता और आंसुओं की नाप-तौल के लिए राजनीति होती है, क्योंकि उनकी सहानुभूति से उनके वोट हासिल होंगे. प्रेमचंद को वोट हासिल करने नहीं थे. उन्हें अपने समाज को, अपने समय को दिशा देनी थी. उन्होंने अपने आखिरी दिनों में जब कहा कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है, तब उसका आशय यही था.
प्रेमचंद देख रहे थे कि समाज का उत्पादक- मिहनतक़श तबका उदास है. इस उदासी ने उसकी काम करने की इच्छा शक्ति को विनष्ट कर दिया है. जब काम करके भी भूखों ही मरना है, तब काम क्यों किया जाये. सामंतों के चारण जब चापलूसी कर के आराम से जी रहे हैं, तब ‘कफ़न’ कहानी का घीसू भी वही क्यों न करे.
समाज के बड़े लोग जो करते हैं,वही आदर्श बनने लगता है. ‘महाजनो येन गतः सः पन्था’. बड़े जिस रास्ते जाएँ वही रास्ता है. यही प्रवृति एक दलित घीसू-माधव में भी उभर आती है और उनके पूरे जीवन को अराजक बना जाती है. ‘कफ़न’ यथार्थ’ नहीं, एक फैंटेसी है. वह काफ्का की कहानी ‘मेटामॉर्फोसिस’ की तरह हमें चौंकाती है.
मनुष्य यह भी हो सकता है. जो लोग समझते हैं, यह दलित जीवन की कहानी है उन्हें इसका पुनर्पाठ करना चाहिए. क्या सचमुच मेटामॉर्फोसिस एक भुनगे की कहानी है? यदि नहीं, तो कफ़न को दलित जीवन की कहानी मानना एक अपराध है. लोग कहानियों का पाठ करना तक नहीं जानते. घीसू-माधव पर उस जीवन की परछाई है, जो बिना मिहनत किये खाने को आदर्श मानता है. इसलिए चेतना के स्तर पर यह सामंतवादी-पुरोहितवादी चेतना को ध्वस्त करने वाली कहानी है.
उनके उपन्यास ‘गोदान’ को ही लीजिए. लोग इसे गाँव और होरी की कथा कहते हैं. सामान्य तौर पर उनका कहना गलत भी नहीं है. लेकिन एक आलोचक का सत्य यह नहीं होना चाहिए. उनके लिए यह उत्तर-भारत के ग्रामीण जीवन की ऐसी दास्तान होनी चाहिए, जो अवध के पूरे इलाके में उभर रही थी. राजनीति सभा और वकीलों की बहस से छिटक कर आम किसानों के बीच आ गई थी और उसे अपने तरीके से प्रभावित कर रही थी. यह सही है कि प्रेमचंद ने रेणु की तरह राजनीतिक दृष्टि का इस्तेमाल अपने लेखन में नहीं किया और यह गोदान की न्यूनता है, जिस पर शायद ही किसी आलोचक ने ध्यान दिया हो. जिस उत्तर प्रदेश में चौराचौरी की घटना हो, किसान आंदोलन कई रूपों में चल रहा हो, कांग्रेस में समाजवादी ताकतें घनीभूत हो रही हों, उनके बीच का एक लेखक इन राजनीतिक गतिविधियों को किसी भी रूप में अपनी इस विशाल कथा-योजना का हिस्सा नहीं बनाता.
इसी कमी को रेणु अपने ‘मैला-आँचल’ में पूरा करते हैं और इसी आधार पर मैं रेणु को प्रेमचंद से आगे का समृद्ध लेखक मानता हूँ. हमें स्वीकार करना चाहिए कि प्रेमचंद ने एक परंपरा स्थापित की जिसे रेणु ने समृद्ध किया. प्रेमचंद और रेणु के अन्तर-सम्बन्धों को समझने में रामविलास जी जैसे आलोचक संभवतः अपने कट्टर मार्क्सवादी सोच के कारण विफल हुए. मेरे हिसाब से रेणु को सामने रखे बिना समग्र रूप से प्रेमचंद को समझना मुश्किल है.
आज हमें गोदान और मैला आँचल को समझने के लिए, उनकी व्याख्या के लिए एक नई परिदृष्टि की जरूरत है. हमें पुराने तय प्रतिमानों को एक किनारे रखना होगा. गोदान का होरी भारतीय किसान का एक पुराना चेहरा है. परिवार की मर्यादा और पुरोहिती-सामंती संस्कारों से घिरा वह लगभग हताश है. उसकी पत्नी धनिया थोड़ी भिन्न है और उसका बेटा गोबर अब किसी भी तरह उस गाँव में नहीं रहना चाहता, जिसे जमींदार-महाजन-पुरोहित और उनके कारिंदों ने अपनी मुट्ठी में किया हुआ है. गाँव अपनी गझिन बुनावट में ही इतना क्रूर हो चुका है कि होरी की असमय ‘हत्या’ हो जाती है. चालीस से भी कम उम्र में उसकी मौत सामाजिक हत्या ही तो है. मरते समय भी उसकी बीवी धनिया से गौदान के लिए कहा जाता है.
ओह! कैसी त्रासदी है कि होरी के बुने सुतली के मिले दस आने (कोई साठ पैसे) उसके गौदान के निमित्त बनते हैं. और गौदान लेता कौन है, वह धूर्त पुरोहित जिसके मुँह में गाँव के दलितों ने एक दफा गाय की सूखी हड्डी ठूँसी थी. किस तरह बजबजा रहा है गाँव.
कार्ल मार्क्स ने भारत सम्बन्धी अपने एक लेख में इन काव्यमयी ग्रामीण बस्तियों की यूँ ही नहीं लानत-मनामत की है और अंग्रेजी राज को इनके आधार तत्वों को विनष्ट करने के लिए सराहा है. इन गाँवों ने जो स्वावलम्बन और कूपमण्डूकता विकसित की है, उसका विनष्ट होना ही श्रेयस्कर है.
प्रेमचंद का गोदान न होरी के पक्ष में है, न उनके गाँव के पक्ष में. वह उस करवट को रेखांकित कर रहा है, जो 1930 के दशक में उत्तर-भारतीय गाँव अनुभव कर रहे थे. गोदान भी यथार्थ से अधिक एक फैंटेसी ही है. यह उस फैंटेसी का ही हिस्सा है कि होरी का बेटा गोबर गाँव छोड़ देता है. उसकी मुक्ति शहर में ही सम्भव होती है. शहर से लौट कर वह गाँव के महाजनों की जिस अंदाज में तौहीन करता है, वह देखने लायक है. गाँव होरी का नहीं है, किसानों के गाँव नहीं हैं, गाँव तो जमींदार, तहसीलदार, पुरोहित और सूदखोर महाजनों के हैं.
होरी अब इस उम्र में गाँव क्या छोड़ेगा, लेकिन उसका बेटा तो छोड़ ही सकता है. और प्रेमचंद बहुत होशियारी से बता जाते हैं कि किसान किस तरह सबकुछ छोड़ कर मजदूर बनने के लिए विवश हो रहा है.
जब प्रेमचंद की परंपरा की बात आती है, तब बार-बार गाँवों की चर्चा होती है. यही बात रेणु को लेकर होती है. अफसोसजनक तो यह है कि जिन लोगों में प्रेमचंद के पाठ का भी शऊर नहीं, उन्हें प्रेमचंद और रेणु की परंपरा का वाहक बताया जा रहा है. यह काम मार्क्सवादियों ने भी किया और गैर मार्क्सवादियों ने भी. आज किसी की टिप्पणी देखी कि भुवनेश्वर मिश्र के ‘बलवंत भूमिहार’ और शिवपूजन सहाय के ‘देहाती दुनिया’ को यथार्थवादी उपन्यास घोषित कर प्रेमचंद को उनकी परंपरा में सजाने की कोशिश हो रही है. क्या प्रेमचंद और रेणु का लेखन भुवनेश्वर मिश्र और शिवपूजन सहाय की परंपरा का लेखन है?
दरअसल यह हिंदी साहित्य का बौद्धिक दारिद्र्य है कि ऐसी बहसें होती हैं. कुल मिलाकर ये अ-साहित्यिक बहसें हैं, जिनका कोई अर्थ नहीं है. इसी प्रकार जिन लोगों को प्रेमचंद की परंपरा में रखा जा रहा है उस पर भी ध्यान देने की जरूरत है. क्या विवेकी राय और मिथिलेश्वर जैसे लेखकों को इसलिए प्रेमचंद की परंपरा में रखा जाये कि उनका वर्ण्य गाँव है.
या फिर सौ से अधिक कहानियों के सभी लिक्खाड़ लेखकों को उनकी परंपरा में रख दिया जाये कि इन लोगों ने भी प्रेमचंद की तरह टोकरी भर-भर कर लिखा. और ज्ञानरंजन जैसे लेखक को इस परंपरा से इसलिए ख़ारिज कर दिया जाये कि उन्होंने तो न गाँव पर लिखा और न विशाल मात्रा में लिखा. वे कैसे प्रेमचंद की परंपरा में आ सकते हैं.
मेरे दिवंगत मित्र और मूर्धन्य आलोचक डॉ. सुरेंद्र चौधरी कहते थे कि परंपरा एक चीज है; परिपाटी दूसरी. अधिकतर लोग परंपरा और परिपाटी का घालमेल कर देते हैं. परिपाटी तौर-तरीकों और रिवाजों की होती है, लेकिन परंपरा चेतना के स्तर पर होती है. जो लोग परंपरा और परिपाटी के विभेद को नहीं समझते वही नेहरू को गांधी की परंपरा से विलग और पटेल-राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों को उनसे जुड़ा स्वीकारते हैं.
गांधीवाद अपनी चेतना में एक वैश्विक सार्वकालिक स्वतंत्रता की प्रस्तावना करता है, जो जितना व्यक्ति के स्तर पर है, उतना ही विश्व के स्तर पर. गांधी सभ्यता की समीक्षा करते हैं. लगातार परिवर्तनशील होने में यकीन करते हैं. उनकी इस चेतना को जवाहरलाल अधिक समझते थे. पटेल, विनोबा, राजेंद्रप्रसाद जैसे लोगों के लिए गांधी का अर्थ खादी, ग्रामोद्योग और गीता जैसे वाह्य ढांचे थे. इसीलिए स्वयं गांधी ने अपना उत्तराधिकारी अपने गहरे आलोचक जवाहरलाल को माना था, न कि पटेल, राजेंद्र प्रसाद और राजाजी जैसे लोगों को, जो गांधीवादी लकीर के फ़कीर थे.
परंपरा की व्याख्या करना कठिन होता है. उपनिषदें वेदों को ख़ारिज करती हैं. उन्हें वेदांत कहा गया है. वेदों का अंत करने वाला. लेकिन उपनिषदें ही उनका विकास भी हैं, उनकी परंपरा वही है. पुत्र या पुत्री पिता का विकास है उसकी परंपरा है, लेकिन कोई कपूत ही होगा जो अपने पिता का विस्तार नहीं करता. पुत्र से पराजित होने वाले पिता और शिष्य से पराजित होने वाले गुरु को भाग्यवान माना गया है.
प्रेमचंद की परंपरा यदि कोई है तो उनमें है, जिन्होंने प्रेमचंद को आत्मसात करते हुए उन्हें खारिज किया है. यह एक विरल प्रक्रिया है और प्रेमचंद की परम्परा के प्रसंग में उसे जैनेन्द्र, अज्ञेय, रेणु और उषा प्रियंवदा जैसे लेखकों में देखा जाना चाहिए, न कि विवेकी राय, मिथिलेश्वर और संजीव जैसे लेखकों में.
प्रेमचंद अपनी चेतना में विश्व स्तर के दिखते हैं. भारत में उनके समकालीन लेखकों में रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ उनकी तुलना हो सकती है. टैगोर और प्रेमचंद की वैचारिकता के बीच समानता के अनेक सूत्र दिखते हैं. दोनों के यहाँ मनुष्य धर्म, जाति और राष्ट्र से मुक्त है.
मनुष्य की धड़कन को उनकी रचनाओं में हम महसूस कर सकते हैं. दोनों की दृष्टि मनुष्य जाति के भविष्य पर है. रवीन्द्रनाथ की चेतना में सांस्कृतिक तत्व यदि प्रचुरता से हैं तो इसलिए कि वह एक समृद्ध जमींदार पृष्ठभूमि से आते थे, जबकि प्रेमचंद लगभग सर्वहारा पृष्ठभूमि से. इन दोनों के इस रूप की तुलना रूसी लेखकों टॉलस्टॉय और चेखब से हो सकती है.
टॉलस्टॉय और चेखब विपरीत सामाजिक पृष्ठभूमि से थे. एक जमींदार के बेटे थे, तो दूसरे दिहाड़ी मजदूर के. लेकिन दोनों में मानव-मुक्ति की चेतना लगभग समान थी. टॉलस्टॉय के उपन्यास ‘रेसरेक्शन’ और चेखब की कहानी ‘बेट’ में मनुष्य की आकांक्षा लगभग एक है. ठीक उसी तरह रवीन्द्रनाथ और प्रेमचंद की मानवीय चिंता एक है. जैसा कि मैंने बताया उनकी इस चिंता का विस्तार हम जैनेन्द्र, अज्ञेय और रेणु में देखते हैं.
आज भी अनेक लेखक जाने-अनजाने इस परंपरा का विस्तार कर रहे हैं. दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे रेखांकित करने वाले आलोचक नदारद हैं. मैं पाठकों से निवेदन करूँगा कि वह स्वयं इस परंपरा को ढूंढें, आलोचकों के भरोसे न रहें.
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तर्कपूर्ण आलेख
Bahut shandar aur vicharottejak!
Premchand kee jagah tay karna bahut ekangi dhang se hota aya hai.
Pathak ko apni zimmedari lene ka agrah sameecheen hai.
Manijee aur samalochan ko badhai.
शुरू-शुरू में तो अच्छा था लेकिन बाद में आप भी नाम गिनाने लगे। प्रेमचंद पर कोई नया विचार अथवा हस्तक्षेप नहीं है।
यह एक बढ़िया लेख है।
पठनीय। हालांकि इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता कि ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ का लेखक यह नहीं जानता कि देश क्या है।वह बखूबी जानता है। यह मानने का भी ठोस आधार नहीं कि उस दौर में नायक की प्रेमचंद की तलाश बेमानी और असफल है। वह सीमाओं से परे नहीं हैं किन्तु परवर्ती और पूर्ववर्ती प्रेमचंद में फांक भी नहीं है। वहां विकास है किंतु गुणात्मक परिवर्तन नहीं।
आदरणीय मणि जी के इस विचारोत्तेजक संक्षिप्त आलेख में हिंदी के जिन ‘आलोचकों’ के उद्धरण -बहुल लेखन पर तीखी टिप्पणी की गई है उनमें से ज़्यादातर अकादमिक क्षेत्र में सक्रिय हैं जहां प्रमाणिकता के लिए कई बार उद्धरण देना एक बाध्यता है. शिवकुमार मिश्र की प्रेमचंद पर केंद्रित पुस्तक एक अनोखा उदाहरण है जिसमें उद्धारणों के साथ आलोचकीय विवेक भी मौजूद है.
आम अकादमिकों के लेखन में जो पाठनीय है वह थोड़ा -बहुत स्नातकोत्तर के विद्यार्थियों के काम आता है.
मेरी जानकारी में प्रेमचंद के साहित्य पर केंद्रित आलोचनात्मक लेखन को आगे बढ़ाने में वीरेंद्र यादव की बड़ी भूमिका है जिसमें प्रेमचंद पर हिंदी के साथ ही अंग्रेज़ी में रामविलास शर्मा, नामवर सिंह,राजेंद्र यादव,शिवकुमार मिश्र,वसुधा डालमिया,गीतांजलि पाण्डेय आदि द्वारा लिखित आलोचना एवं शोध से टकराते हुए कुछ नया कहा गया है.
पूरनचंद जोशी की पुस्तक ‘परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम’ में भी प्रेमचंद पर केंद्रित दो लम्बे निबंध बार-बार पठनीय हैं.
मणि जी ने जब भी और जितनी भी आलोचना लिखी है उसमें नवोन्मेष है और उसमें किसी लेखक को समझने का कोई न कोई सूत्र अवश्य मिल जाता है.
इस सारगर्भित आलेख के लिए उन्हें साधुवाद.
मणि जी सदा मौलिक सुचिंतित आलेख लिखते हैं। उनकी स्थापनायें उनकी अपनी होती हैं।इस लेख में भी यह स्पष्ट है। यह नये आस्वाद का विचार है जिसे इन्होंने प्रकट किया है। पठनीय सहज और अधिकांश ग्राह्य है इनका कथन। मणि जी को साधुवाद
प्रेमचंद की परंपरा विषयक मणि जी का यह आलेख कुछ ज़रूरी सवाल उठाते लगा पर उन्हें उरूज़ तक ले नहीं जा सका. हां, परंपरा और परिपाटी का विभेद करते समय आपकी व्याख्या संतुलित और काफी सटीक लगी.
मेरा प्रश्न यह है कि प्रेमचंद ने अपनी कथाओं में यदि राजनीतिक दृष्टिकोण का इस्तेमाल प्रकट रूप से किया होता तो क्या वे रेणु के लेखन से आगे आंके जाते ? प्रेमचंद का अवसान वर्ष 1936 है और रेणु का जन्म वर्ष ही 1921, रचनाकाल में इतने बड़े अंतर को देखते हुए इसे लेखन दृष्टि के मूल्यांकन का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए.
दूसरी बात, हिंदी साहित्य में अकादमिक और शास्त्रीय आलोचना का बाकायदा एक फ्रेम, नामवर सिंह ( 1926 – 2019 ) के दौर में ही कहा जा सकता है, विमर्श में और चर्चा में आया. तब तक कथानक से गांव निकल चुके थे और संबंध, मन, स्थिति और विचार के विषय का विवरण – चित्रण होने लगा. प्रेमचंदोत्तर लेखकों ( रेणु, विवेकी राय, मिथिलेश्वर, श्रीलाल शुक्ल और संजीव ) के गांव में भी इसकी छाया देखी जा सकती है.
एतदर्थ बात प्रेमचंद की परंपरा के आगे बढ़ने की नहीं है, अपितु प्रेमचंद की तरह के सामाजिक, मानवीय, यथार्थपरक और कालजयी लेखन और सृजन की है !
भारत के इस बदहाली के लिए मुख्य रूप से अंग्रेजी शासन जिम्मेदार थे। बंदोबस्ती व्यवस्था के कारण किसानों की यह दुर्दशा हुई। रणजीत गुहा को भी पढ़ा जाना चाहिए।
यहां मार्क्स सही नहीं हैं।वे सिर्फ अपने सिद्धांतों को सरलीकृत करते दूर बैठे इसे समझ रहे हैं। उनकी नीयत सही थी लेकिन यूरोप केन्द्रित मानसिकता से वे मुक्त नहीं हैं।
कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो इसका ज्वलंत उदाहरण है।
मणि जी ने परम्परा और परिपाटी का सुंदर उल्लेख किया है। इस आलेख की महत्ता भी यही है कि ये दोनों से परे है। प्रेमचंद पर लिखे मैं इतना दोहराव होता ही कि ऊब होने लगती है। ये आलेख एक अलग तरह की बयार का झोंका है। मणि जि और समालोचन को बधाई और हमारा शुकराना।