कल्लोल चक्रवर्ती की कविताएँ |
1.
गणित की कक्षा में
सात बच्चे मेज पर खड़े हैं और हँस रहे हैं तेईस बच्चे
शिक्षक के चेहरे पर क्रूरता और उपहास का मिला-जुला रूप है
‘जिन्दगी में कुछ नहीं कर पायेंगे ये’
शिक्षक की दहाड़ सुन
हंसते बच्चों का भी कलेजा कांप जाता है.
मेज पर खड़े बच्चे
घर जाते हुए सोचते हैं पहाड़े में ऐसा क्या है
जिसे न जानने के लिए मार खानी पड़े?
त्रिभुज की तीसरी रेखा को समान न बना पाने के जिस अपराध में
उसकी पीठ पर टूटी छड़ी
वह जिन्दगी में आखिर कितनी अहमियत रखती है!
गणित के खौफ से दसवीं में स्कूल छोड़ चुका एक खामोश लड़का
पेड़ों, पहाड़ों, नदियों, बादलों और चिड़ियों के बीच
अपनी कविता के साथ खुश है.
सिर्फ गणित नहीं
गणित शिक्षक के आतंक से भी
स्कूल से बाहर हुए असंख्य बच्चे
जो वहाँ दोबारा नहीं आये.
गणित की कक्षा में दुरदुराया बच्चा जिन्दगी की कक्षा में भी दुरदुराया जाता है
वह कभी नहीं जान पाता सफलता का गुणा-भाग
और रिश्तों का समीकरण
सफलता का राजमार्ग छोड़ वह पकड़ता है मुश्किलों का हाशिया
और जमाने की चोट खाने को हमेशा आगे कर देता है अपनी पीठ.
2.
बिरसा मुण्डा के वंशज
वे भूमि से प्यार करते थे
इसलिए पेड़ के पहले पके फल को गिरने देते थे पृथ्वी पर
ताकि उसके बीज से पैदा हो एक और फलदार वृक्ष.
वे भूमि से प्यार करते थे
इसीलिए नुकीले लोहे से नहीं चीरते थे उसकी छाती.
इसीलिए उनके हिस्से में आया सबसे नीला आसमान
सबसे साफ हवा और पानी
उनकी स्त्रियों के आंचल में टपका
सृष्टि का सबसे सुंदर और स्वादिष्ट फल.
उपासना से हूल तक ये आदिपुरुष थे
जो खेती करते हुए भी जमीन से नहीं बंधे
और ईश्वर की आराधना में इन्होंने बिचौलियों को कम ही स्वीकार किया
औरतें इनकी अनुगामिनी नहीं, सहयात्री थीं
इसीलिए लम्बे समय तक इनकी भाषा में नहीं आयी औरतों की कोई गाली.
आसमान पर बादलों को पहली बार तैरते इन्होंने ही देखा
इनके पास तूफान की पूर्वसूचना का प्राकृतिक कम्पास था
और मिट्टी की हांडी में पानी के स्तर से सुन लेते थे
वे आने वाले अकाल की पदचाप.
इन्हीं के गीतों से कभी गूंजे थे अमूरकोट (अमरकंटक) के शाल वन
लकड़ियों के गट्ठर दूर शहर ले जाने के लिए
नरमादा (नर्मदा) के उद्दाम जलप्रपात में पहली बार
इन्होंने ही फेंके थे
चांदनी रात में पेड़ों के बीच मदहोश होकर गाये इन्होंने गीत
इनकी खूबसूरत औरतों को पत्तों के झुरमुट से देखता था दीवाना चांद.
सभ्यता के शिकारियों ने एक दिन इन्हें भी अपने गड्ढे में पटका
जैसे ये गड्ढों में गिराकर हाथियों को पालतू बनाते थे
आसमान तक ऊंचे ताड़ के पेड़ पर पलक झपकते चढ़ने वाले ये लोग
एक दिन रानीगंज और झरिया की कोयला खदानों में
खुद कोयला बन गये,
खतरनाक सुरंगों और पुलों के खंभों पर अब भी मिलेंगे इनके हाथ के छाप.
कभी सिंधु घाटी से खदेड़ दिया गया था इनके पुरखों को पहाड़ों और जंगलों में
फिर बांध, खदान, कारखानों और अभयारण्यों के नाम पर छीने गये उनके जंगल
कोरबा, सुंदरगढ़, बोकारो और राउरकेला के जंगलों से विस्थापित लोग
अब रहते हैं महानगरों की झुग्गी-बस्तियों में
नर्मदा में तीन बार अपना घर खो चुका एक आदिवासी
अब उसी में जल समाधि लेने के बारे में सोचता है
दिल्ली से मुंबई तक कामवाली बनती हैं इनकी विस्थापित लड़कियां
नक्सली ठप्पे के साथ जेलों में बंद हैं असंख्य बेजबान.
खरसावां से रूपसपुर-चंदवा तक बार-बार रचा जाता है
इन्हें घेरकर मारे जाने का षड्यंत्र.
जिन्होंने अंग्रेजों और दिकुओं से लड़ाई लड़ी
जिन्हें बाघ की आँखों में आँख डालने से डर नहीं लगा
वे अब अपने अकेलेपन से डरते हैं
दिल्ली, मुंबई, नागपुर, पुणे, बंगलोर, चेन्नई, देहरादून, पटना में
रोज थोड़ी-थोड़ी खत्म हो रही है गोंडी, भीली, संथाली, मुंडारी और टुलु
जो अब सिर्फ रोने-कलपने का माध्यम रह गयी हैं
जैसे अब सिर्फ नाम हैं याद करने को
बिरसा मुण्डा, सिनगी दई, टंटया भील, तिलका माँझी, सिद्धू कान्हूं, गुंडाधुर, जयपाल सिंह मुंडा…
शहर में टेम्पो के पीछे खींचकर मौत उनकी नियति बनकर आती है
अब इनमें नहीं रही उलगुलान (जनसंघर्ष) की ताकत.
बाकी जो बचे हुए हैं
वनों के बाहर रहने वाली वनवासी
वे भी जैसे-तैसे जिंदा बचे हैं अपनी मुर्गियों, पशुओं, पेड़ों, देवताओं
और अतीत की स्मृतियों के साथ
गांवों में उन्हें पीना पड़ता है गंदा पानी
गर्मी के मौसम में पेड़ से गिरे फल होते हैं
उनका भोजन
अभाव के दिनों के लिए वे बचाकर रखते हैं कटहल के बीज.
जैसे जमीन के नीचे लोहे के पत्थर की पहचान करने वाले अगरिया कम बचे हैं
कम बचे हैं भट्ठी में तपाकर लोहे के औजार बनाने वाले
जैसे रेत की चोरी होने से नदियों में केंकड़े कम बचे हैं
वैसे ही कम रह गये हैं जंगल में चिरौंजी और पिहरी
दुर्लभ है कोदो, कुटकी, बाजरा-समा, गोंदली चावल, वनतुलसी, गेठी और चकवड़ के बीज.
इनके लिए विकास इतना भर हुआ है कि
राशन की दुकान में मिलता है खराब चावल और गेहूं.
3.
गांधी
अपने जीवन में चाहे जितने भी प्रयोग किये हों गांधी ने
अब उससे भी अधिक प्रयोग, परीक्षण और विरोध से
गुजरना पड़ता है उन्हें बार-बार
बापू जितने अगर नहीं तो भी ‘गोड्से की जय’ बोलने वालों की
संख्या बढ़ रही है धीरे-धीरे
मूर्तियों के टूटने और स्मृतियों को मिटाने के दौर में
भीड़ द्वारा बख्श दी गई इकलौती प्रतिमा हैं गांधी
साल में सिर्फ दो दिन हैं प्रार्थना, भाषण और माल्यार्पण के लिए
जब पानी से देर तक धोयी जाती है उनकी मूर्ति
फिर भी यहाँ-वहाँ बची रह जाती है कितनी गन्दगी, कितना मैल.
गांधी गुस्सैल बच्चों द्वारा पटक दिया गया पुराना खिलौना हैं
जो हर बार थोड़ा टूटने पर धीमे-धीमे बोलता है ‘हे राम!’
और जो ‘जय श्री राम’ की गूंज के बीच अक्सर सुनाई नहीं देता
गांधी आधी रात को गुस्साए बेटे द्वारा घर से निकाल दिए गए बूढ़े बाप हैं
तरस खाकर जिन्हें कमरे में घुसा लिया जाता है तड़के
पसीना और कालिख लगा हुआ किताब का आखिरी जर्जर पृष्ठ हैं गांधी
जिसे नष्ट होना है
आँख, कान और मुंह पर हथेली रखे उनके तीन बन्दर कब के विलुप्त हुए
बचा हुआ है सिर्फ मदारी.
आज अगर होते तो बेहद परेशान होते गांधी
उनसे उन सब का कारण स्पष्ट करने को कहा जाता
जो उन्होंने कहा या किया ही नहीं था
और जो उन्होंने किया वह भी कम बड़ा अपराध नहीं था
मसलन, उनसे पूछा ही जाता वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करने के बावजूद
अपने हिंदुत्व को उन्होंने ज्यादा ठोस क्यों नहीं बनाया,
अगर वह अपने उत्तराधिकारी को लेकर ज्यादा स्पष्ट होते
तो आज देश को क्यों उलझना पड़ता नेहरू और पटेल की अतिरंजित लड़ाई में?
वे भी आज फट पड़ते गुस्से में
जो लिहाज करके चुप थे अब तक
वे गांधी से पूछते ही मौलाना मोहम्मद अली व शौकत अली से दोस्ती
और खिलाफत आंदोलन में आवाज़ बुलंद करने की वजह,
और क्या मालूम, रोज-रोज सड़क पर उतरने
और पीड़ितों के पक्ष में खड़े होने की
उनकी आदत से आजिज आकर
गिरफ्तार कर लिया जाता उन्हें?
या फिर देश के टुकड़े करने के अपराध में
उन्हें ही कथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का सरदार बता दिया जाता!
‘मार्गदर्शक मण्डल’ में शामिल कर उन्हें घर बिठा देने का विकल्प तो खैर था ही
पर मानना मुश्किल है कि इतनी आसानी से हथियार डाल देता वह जिद्दी बुड्ढा.
आज तो भीड़ में से कोई छुटभैया भी उनसे निपट लेता
और अंग्रेजों से लोहा लेने के उनके बड़बोलेपन की हवा निकाल देता,
और क्या पता,
पाकिस्तान को उसका बकाया पैसे दिलवाने के लिए
अनशन पर बैठने के जुर्म में इस उम्र में उनका पाकिस्तान का टिकट ही कटा दिया जाता!
गांधी आज होते
तो परेशान यह देश भी कम नहीं होता
क्योंकि उनके न होने से ही बचा हुआ है उनके होने का भरम
वह होते,
तो बात-बात पर उनके नाम पर अर्धसत्य बोलने की छूट नहीं मिलती
डंके की चोट पर झूठ बोलने की आदत के खिलाफ
अगर कहीं अनशन पर बैठ जाता वह अड़ियल बूढ़ा
तो बहुत कठिन होता उन्हें मना पाना.
अगर वह किसी दिन सड़क पर खड़े होकर सचमुच चिल्ला उठते,
‘मैं आज भी कमजोरों के साथ खड़ा होऊंगा’ या
‘मेरे रामराज्य का तुम लोगों ने कितना गलत अर्थ निकाल लिया’
तो बहुतों के लिए चेहरा दिखाना मुश्किल हो जाता.
तब बहुतों के लिए चुप रहने के अलावा क्या उपाय होता
जब वह कहते कि
‘अंग्रेजों के खिलाफ आक्रामकता के बावजूद
हमने किसी सोते हुए विदेशी को बच्चों समेत जला डालने की
नृशंसता के बारे में सोचा तक नहीं
और न ही एक धर्म के आस्था स्थल को ध्वस्त करने को
अपने धर्म को स्थापित करने को
आत्मगौरव के रूप में देखा.’
‘मेरे शब्दकोश से आज़ादी, आन्दोलन, भूख हड़ताल और अनशन को
हमेशा-हमेशा के लिए हटाकर
तुमने आखिर कैसे गढ़ लिए
देशभक्ति, देशद्रोह, टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल जैसे शब्द?’
तब हम क्या कहते
जब वह पूछते कि
‘तुम लोग जब जेल में बंद
स्टेन स्वामी नाम के तिरासी साल के एक वृद्ध को
पानी पीने के लिए स्ट्रॉ तक नहीं दे पाए
तब मेरे बेमतलब के चश्मे को यादगार के रूप में
सहेजकर रखे जाने का मतलब क्या है??’
न होने से अगर गांधी बच गये हैं
तो उतना ही बच गया है यह देश भी.
4.
पिता को आखिरी चिट्ठी*
पापा, यह चिट्ठी खत्म होते ही
मैं आपसे मिलने की अनंत यात्रा पर निकल पड़ूंगी
माँ और छोटी के साथ.
आपको पता होगा कि आपके बगैर
हमारी जिंदगी इस बीच कितनी सूनी हो गई
बीमार मम्मी बिस्तर से उठ नहीं पाती
छोटी तो आपके जाने के बाद से ही जैसे गूंगी हो गई है
नींद में भी बड़बड़ाती है, पापा के पास जाना है.
आपके जाने के बाद से मम्मी ने जैसे जीने की आस ही छोड़ दी थी
हमारे जीने के लिए बचा ही क्या था पापा!
गुजारा तो जैसे-तैसे हो ही जाता
पर जब दिल ही टूट जाये तो हम क्या करतीं?
घर से बाहर की दुनिया जितनी खूंखार और मतलबी है
उसमें आपके बाद हम तीन बेसहारा औरतें कैसे रह पातीं?
आपके जाने के बाद मदद के लिए जहाँ भी गयी हूँ
अपनी पीठ पर भेड़ियों की आँखों की तीखी चुभन महसूस की है
गाँव में चाचा और चचेरों भाइयों की स्मृतियों से भी मिट चुकी थीं हम तीन अबलाएं
परचून की दुकान वाला जो भैया आपको अंकल कहता था
उसने उधार में हमें नमक तक देना बंद कर दिया था
तब कई रात हमने सिर्फ आपकी स्मृतियों में गुजार दी पापा.
बीमार मम्मी के होने न होने का कोई अर्थ नहीं है
और छोटी को आपके न होने के शोक ने तोड़ दिया है
मम्मी और उसे नींद की गोलियां देते हुए मेरे हाथ कांप रहे थे
आखिरी बार…आखिरी बार मैं उन्हें कुछ दे रही थी.
अपना फ्लैट पूरी तरह से बन्द है पापा
और कहीं से हवा आने की गुंजाइश नहीं है
मैंने गैस भी ऑन कर रखी है
और माचिस मेरे हाथ में है.
छोटी के सिर के पास मैंने वह तस्वीर रख दी है,
तेरह साल पुरानी, जब नैनीताल में आप उसे गोद में लिए खड़े थे
आपके लिए रोते हुए वह अक्सर यही तस्वीर देखती थी
और कई बार रात को अचानक जागकर कुनमुनाने लगती थी
भरोसा है कि अंतिम यात्रा पर निकलते हुए आप का आशीर्वाद होगा उसके सिर पर
यह चिट्ठी खत्म कर मैं भी खा लूंगी नींद की गोलियां
ताकि हम तीनों की यह यात्रा शांति के साथ पूरी हो.
हाँ, आपके जाने के बाद ही जैसे हम तीनों ने
आपके साथ रहने की तैयारियां शुरू कर दी थीं
पौधों वाले तमाम गमले हमने पड़ोसियों को दे दिये थे
आखिरी बार बिल्ली को घर से बाहर करते हुए दुख जरूर हुआ
जो निर्जीव चीजें रह गयी हैं उन्हें हमारा कोई मोह नहीं होगा
आज सुबह ही घर की तमाम दीवारों पर काला टेप चिपका दिया था
ताकि बाहर से न आ सके हवा का एक कतरा भी.
माँ को इस घर से बहुत लगाव है
आपके साथ सुख-दुख के बीस साल उन्होंने
इसी घर में बिताए हैं
छोटी आपकी घड़ी और डायरी साथ ले जाना चाहती है
बहुत मुश्किल से उसे समझा पाई हूं कि इस यात्रा में अकेले जाना होता है
मम्मी और छोटी के शरीर में हलचल नहीं रही
ऑक्सीजन के बगैर मेरा भी शरीर अजीब हो रहा है
अब चिट्ठी खत्म करती हूं पापा.
* दिल्ली में पिता की मृत्यु के बाद आत्महत्या कर लेने वाली माँ-बेटियां.
5.
एक ‘राष्ट्रवादी’ कविता
हाँ, कोरोना के बाद से दिख नहीं रहा है एक लाचार परिवार
जो हर जाड़े में कम्बल और रजाई के लिए आवाज़ लगाता था
नुक्कड़ में पुराने कपड़े सिलने वाला दर्जी महीनों से नजर नहीं आता
लेकिन सैकड़ों वर्ष पुराने वे धर्मस्थल आज प्राचीन गौरव से दीप्त चमक रहे हैं
हजार और पांच सौ के पुराने नोटों के साथ चलन से बाहर कर दिये गये हैं
आन्दोलन, प्रेस की आजादी और धर्मनिरपेक्षता जैसे जुमले भी.
हाँ, कुछ मुट्ठी भर किसानों ने आवाज़ उठाने की जुर्रत की
क्योंकि उनको पैसा आ रहा था विदेश से
कहा गया कि उनमें से कुछ मर गये
मर तो वे तब भी जाते जब वे घरों में रहते
कहा गया कि उनके लंगर में भोजन मिल रहा था सैकड़ों लोगों को
और हम जो करोड़ों भूखों को भोजन मुहैया करा रहे हैं
उसका क्या!
काम पर लगा दिया गया है मालवीयों, गोस्वामियों, पात्रों, कश्यपों और चौधरियों को
जो कल तक किसी के भी खिलाफ़ कुछ भी लिख-बोल सकते थे
आज वे गूंगे बन चुके हैं
यह कह दिया गया है ऐलानिया कि विरोध में कुछ भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा
देश बदल रहा है, सोच बदल रही है
ऐसे में जो नहीं बदलेंगे वे देश बदल लेने के लिए आजाद हैं
कृपया सुन लें कि पहले की सरकारों की तरह
हम बदले की कार्रवाई नहीं करते.
अब भी अगर आप बुलडोजर को शक्ति का नया प्रतीक मानने से इनकार करते हैं
तो हम क्या कर सकते हैं?
लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इससे बड़ा उदाहरण
और क्या हो सकता है श्रीमान
कि प्रधानमंत्री को हर सुबह गाली देने के बाद भी आप
बिल्कुल सही-सलामत हैं!
6.
कुत्ते
गाय पर बात करते-करते
हम कुत्ते तक पहुंचते हैं
संस्कति की तलाश हमें
ले जाती है विदेशी नस्ल के
एक से एक खूंखार कुत्ते तक.
डरे हुए आदमी को कुत्ते का साथ मिले
तो उसका आत्मविश्वास ही नहीं,
दुस्साहस भी बढ़ता है
फिर ये दोनों ज्यादा से ज्यादा सड़क घेरते हुए
दूसरे डरे हुए आदमी को हाशिये पर धकेल देते हैं.
इस कुत्ता समय में
कुत्ता ही बनाता है आदमी की हैसियत.
सुबह-सुबह एक आदमी
कुत्ते के साथ भागा जा रहा है
या कुत्ता भगा ले जा रहा है उसको!
घरों में जितने कुत्ते हैं
सड़कों पर उनसे ज्यादा हैं
यहाँ से वहाँ तक चलते-फिरते, बैठे और घूरते हुए
जर्जर, कंकाल
अपनी जीभ निकाल
हवा में सम्बन्धों की ऊष्णता की
तलाश करते हुए कुत्ते.
हड्डी की ठठरी बनी एक काली कुतिया ने
एक कार के नीचे पांच बच्चे जने हैं
कपास से सुन्दर और नर्म
आज कोई इन गदबदे पिल्लों को गोद में उठा
अपने घर ले जाने को तैयार नहीं है
फिर भी रह-रहकर उसकी आशंकित माँ
कार के नीचे पहुंचती है बच्चों को दूध पिलाने
और यह देखने कि उसकी सन्ततियों पर
किसी की नजर तो नहीं है.
एक कुत्ता आंख बन्द कर पृथ्वी पर लेटा है
जैसे यहाँ उसके लिए समाप्त हो गयी हैं तमाम संभावनायें
एक कुत्ता पालतू होने के लिए
पैदा होने के बाद से पूंछ हिला रहा है
कार में एक विदेशी कुत्ते को शान से बैठा देखने के बाद से ही
आती-जाती तमाम कारों पर झपटता है
एक गुस्सैल कुत्ता.
इन निरीह, दुर्बल, अनाकर्षक, कटखने कुत्तों की ओर
किसी का ध्यान नहीं है
कोई बड़े अनमने ढंग से फेंक जाता है उनके लिए रोटियाँ
किसी-किसी शाम को एक गली में रुकती है कार
और गली के तमाम कुत्ते दौड़ते हैं दूध पीने.
उधर विदेशी कुत्तों के साथ जीवन बिताने की
कला सीखी जा रही है
सीखी जा रही है क्रूरता और नृशंसता
भौंकने, गुर्राने, झपटने और जान ले लेने के नए तरीके.
इस कुत्ता समय में
वफादारी के सिवा सब कुछ सीखना जायज है
और जरूरी भी.
7.
खुदाई
मिट्टियों की शामत आयी है
घरों और सोसाइटियों की नींव रखने से लेकर
समृद्धि की खोज करने के लिए
खोदे जा रहे हैं शहर.
खुदाई न हो
तो हम जान भी न पायें
कि कितने महान हैं हम.
राखीगढ़ी में खेतों के बहुत नीचे दबी है एक सभ्यता पुरानी
औरंगाबाद में औरंगजेब की बेगम का एक हम्मान मिला है खुदाई में
हिंसा, ईर्ष्या, षड्यंत्र और खून-खराबे की स्मृतियाँ जुड़ी हैं उन स्मृतियों से भी
मिट्टी के नीचे दबी जिन चीजों को देख उछल पड़ते हैं हम
कौन कह सकता है कि
उनका इतिहास भी हिंसा और घृणा से लिथड़ा हुआ नहीं होगा?
मिट्टी के नीचे दबे होने से वे स्वर्गीय नहीं हो जातीं
वे सभ्यताएं खत्म हुईं
तभी तो दबी हैं मिट्टी के नीचे अंधेरे में हजारों वर्षों से
मिट्टी के नीचे का अन्धेरा वरणीय नहीं हो सकता
वांछनीय तो नहीं ही.
अब इसका क्या कहें कि
पानी के लिए पाताल तक
गहरे गड्ढे खोद रखे हैं हमने यहाँ से वहाँ तक
जिनमें हर साल गिरते हैं बच्चे.
हम मिट्टी के नीचे के लोहे, तांबे और पानी निकालने के लिए अकुलाते हैं
सदियों, सहस्राब्दियों पुरानी ईंट, शिवलिंग और त्रिशूल
को अपनाने के लिए बढ़ाते हैं अपनी बाहें
मिट्टी के नीचे से सिर्फ स्वर्णिम सभ्यताओं के सबूत ही नहीं,
नुकीले हथियार भी निकलते हैं जंग लगे, मिट्टी में सने हुए
जो बताते हैं कि तब भी हम उतने ही हिंस्र थे.
8.
दिल्ली से लौटना
अभी वे बहुत कम लोग हैं जो दिल्ली से लौट रहे हैं
कम बोलते भी हैं वे अपने बारे में
अपने गांवों, कस्बों और शहरों में लौटते हुए
कहने के लिए होता भी क्या है!
प्लेटफॉर्म पर दूसरे लोगों से दूर खड़े हैं वे
अपने थैलों, पॉलिथिन, पानी की बोतल और खट्टी-मीठी स्मृतियों के साथ.
वे चुप हैं क्योंकि दिल्ली ने उन्हें नहीं अपनाया
अब लौटकर किस मुंह से जा रहे हैं वे अपने गंतव्य तक
यह सिर्फ वही जानते हैं.
वही जानते हैं कि गृहस्थी की गाड़ी अब कितनी बाधाओं से गुजरेगी
कुछ साल दिल्ली में गुजारने के बाद एकाएक निकल जाना
आसान नहीं है.
दिल्ली से लौटने वाले अभी भले बहुत कम हैं,
लेकिन एक दिन लौटने का सिलसिला जो शुरू होगा
वह बढ़ता ही जायेगा.
दिल्ली से सिर्फ वही नहीं लौटेंगे जो देश के किसी भी गांव, शहर और कस्बे से
काम की तलाश में किसी तरह ट्रेन में लटककर पहुंचे थे राजधानी
शानदार अपार्टमेंट्स की चौदहवीं-पंद्रहवीं मंजिल पर रहनेवाले लोग भी
एक दिन लौटेंगे अपनी अटैचियों, बैगपैक और स्मृतियों के साथ.
शुरू-शुरू में बताने में शर्म महसूस होगी
इसलिए बहुत लोगों से छिपायेंगे यह खबर
और गांव में बसकर नाते-रिश्तेदारों के व्यंग्य-विद्रूप का निशाना नहीं बनना चाहेंगे
जो उन्हें देखते ही हँसते हुए कहेंगे ‘दिल्ली रिटर्न’
फिर भी बहुत दुखी मन से लौटेंगे वे
जो पैंसठ लाख के अपने फ्लैट में बदबू के बीच रहने को विवश थे
बालकनी में खड़े होते ही जिन्हें दिखता था कूड़े का पहाड़
और मजबूरी में जिन्हें हमेशा खिड़की-दरवाजे बंद करके रखना पड़ता था.
हालांकि मुश्किल तो होगी ही
दिल्ली में रह जाने वाला कहीं और रहने के बारे में नहीं सोच पाता
फिर भी वे लौटेंगे जो कई साल से गर्मियों में
जी भर कर नहा नहीं पाते थे
और अब तो पीने के पानी पर भी अंकुश था.
दिल्ली से सिर्फ वही नहीं लौटेंगे
जिन्हें गांव और पेड़ और पहाड़ और नदियाँ बुलाती हैं
जो पराली के मौसम में अभी तक
नैनीताल, मसूरी और मनाली में पखवाड़ा-महीना मजबूरन बिता आते थे
एक दिन वे भी अलविदा कहेंगे दिल्ली को
जो मशीन बनने से इनकार करते हैं.
दिल्ली से लौटने वाले इन लोगों में से कुछ लोग
मन ही मन कहेंगे
दिल्ली में इतने साल आखिर मैं कैसे रह गया
जहाँ न कोई नदी है, न पहाड़, न प्रकृति
जिसका आकाश हमेशा काला दिखता है?
कैसे रह गया उस महानगर में
जहाँ पड़ोसी भी तभी दिखता है
जब वह एकाएक टकरा जाए
या उसे कुछ चाहिए,
दिल्ली भी भला कोई रहने की जगह है!
हालांकि दिल्ली से लौटने वाले इन लोगों में कुछ
मजबूरी में एक दिन वापस दिल्ली की राह नहीं पकड़ेंगे
यह कौन कह सकता है!
कल्लोल चक्रवर्ती तस्लीमा नसरीन के लेखों के हिंदी अनुवाद की दो किताबें- ‘दूसरा पक्ष’ और ‘एकला चलो’ प्रकाशित. विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के ‘आरण्यक’ का हिंदी अनुवाद. पहला कविता संग्रह-‘कतार में अंतिम’ पिछले वर्ष प्रकाशित. संप्रति ‘अमर उजाला’ में सीनियर एसोसिएट एडिटर. संपर्क |
आठों कविताएँ अद्भुत हैं.
शानदार। कल्लोल जी को बहुत बधाई। उनकी कविताएं इस कठिन समय का आईना हैं। आश्वस्त करने वाली कविताएं हैं।
‘दिल्ली से लौटना’ बहुत ज़बर्दस्त कविता। अपना गुजरा वक़्त याद आ गया। वो छह साल मैं ही जानता हूं जो मैंने दिल्ली में बिताए थे। जब लौटा था तब रोते भी नही बन रहा था। हर रात सपने में परेशान हाल बच्चे दिखाई देते थे। करोड़ों की आबादीवाले शहर में कितना अकेला हो गया था मैं। असहाय भी। इस कविता ने एक बार फिर मुझे मेरी औकात दिखा दी। दिल्ली वापसी की कल्पना डराती है मुझे। अद्भुत कविता। मेरे प्रिय कवि है कल्लोल चक्रवर्ती।
बहुत खूब कल्लो ल
कल्लोल चक्रवर्ती की कविताएं पढ़ कर विस्मित और अवाक हूँ।आपका शुक्रिया की इतनी दुर्लभ रचनाओं से मुझे समृद्ध कर रहे हैं
अभी सिर्फ़ अभी भाई कल्लोल चक्रवर्ती की तीन कविताएं ही पढ़ पाया हूं । इन्हें पढ़ते -पढ़तए नशआ-सआ चढ़ता आ रहा था कि मैंने पढ़ना बंद कर दिया…ये बहुत धैर्य से पढ़ने वाली कविताएं। गांधी पर उनकी कविताएं आधी ही पढ़ पाया। पूरी पढ़ने का साहस नहीं जुटा पा रहा। अभी बस …सोने से पहले किसी तरह इन्हें पढ़ ही लूंगा। कवि कल्लोल चक्रवर्ती को बधाई और शुभकामनाएं पहले ही दे देता हूं।
बहुत जबरदस्त कविताएं हैं कल्लोल की। भीतर तक झिंझोड़ती बेहद शक्तिशाली कविताएं, जो भीतर-भीतर एक तूफान सा खड़ा कर देती हैं। पहले भी पढ़ा हैं उन्हें। पर इस बार वे बहुत बदले हुए तेवर के साथ सामने आए हैं।
फिर एक खास बात यह कि ये हमारे, आपके, सबके अहसास, भय, सिहरन और गुस्से की कविताएं हैं। जैसे हम सबके भीतर धीरे-धीरे जनमती, बनी-अधबनी कविताएं एकाएक कल्लोल की कलम से उतर आई हैं। ऐसी कविताएं जिनमें जमाने का दर्द है, और हम सबके अंदर की टूट-फूट और भीषण उथल-पुथल भी।
ऐसी सच्ची और बेबाक कविताएं पढ़वाने के लिए भाई अरुण जी, आपका और ‘समालोचन’ का साधुवाद। और भाई कल्लोल को बधाई।
मेरा स्नेह,
प्रकाश मनु
कल्लोल की कविताएँ, सिर्फ असहमति की नहीं, प्रतिवाद और प्रतिरोध की कविताएँ भी हैं निरंतर अ मानवीय और मानव विरोधी होते जा रहे हमारे दारूण समय में वे मनुष्य और मनुष्यता की पख्शधर कविताएँ है मुझे तो इन्हें पढ़ते हुए लगातार सुकांत भट्टाचार्य, क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम और पाब्लो नेरूदा याद आते रहे.ये जितनी क्रांति धर्मी हैं उतनी ही मार्मिक भी हैं
खूब जियो और ख़ूब लिखो कल्लोल.तुम तो हिल्लोल भी हो…
वैसे तो सारी कविताएं अच्छी हैं और बहुत तेजी से चेतना पर हावी हो जाती हैं परंतु गणित की कक्षा में जो करुणा है ,मालूम नहीं कितने लोगों का ध्यान इस ओर गया होगा। जरा अंत की पंक्ति तो देखें -जमाने की चोट खाने को आगे कर देता है अपनी पीठ। इसी तरह कुत्ते कविता का अंत भी एक भयावह नग्न यथार्थ से होता है- इस कुत्ता समय में वफादारी सीखने के सिवा सब कुछ जायज है। कल्लोल जी आपकी कविताओं से प्रसन्न हूँ।बधाई जैसा शब्द बहुत औपचारिक हो गया है।धन्यवाद का भी कोई सुंदर विकल्प ढूँढ रहा हूँ ताकि अरुणदेव जी को प्रेषित कर सकूँ।