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समालोचन

Home » शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है: रामलखन कुमार

शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है: रामलखन कुमार

कविता विघटनकारी राजनीति को ललकार सकती है, उसका प्रतिपक्ष रच सकती है. ऐसे ही शायर थे राहत इंदौरी जो मुशायरों में असहमति की मज़बूत आवाज़ थे. उनके कवि-कर्म पर विस्तार से यह आलेख लिखा है अध्येता रामलखन कुमार ने. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 19, 2023
in आलेख
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शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है: रामलखन कुमार
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राहत इंदौरी
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
रामलखन कुमार

सन् 1975, आपातकाल का भयावह दौर! सूरज को भी ‘सहम कर उगने’ का दौर! देखते-ही-देखते एक झटके में जनता अपने जनतांत्रिक मूल्यों को खो बैठती है. देशभर का कैदखाना सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, लेखकों और कवियों से लबरेज. संवैधानिक मूल्यों को रौंदने वाली व्यवस्था बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकी. आपातकाल की काली साया इक्कीस महीने के भीतर उतर गयी. ठीक दस साल बाद यानी 1985 ई. में पाकिस्तान के जिया उल हक़ की सरकार ने मार्शल लॉ और राजनीतिक पार्टियों पर लगा प्रतिबंध हटा लिया. दमघोंटू व्यवस्था ने जनता को पूरी तरह से तोड़ डाला था. जिया उल हक़ की तानाशाही जगजाहिर है, वे अपनी ही जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीनकर लोकतंत्र की हत्या करने को आमादा थे. लिखने-पढ़ने और बोलने वाले लोगों के लिए यह काफी मुश्किल वक्त था. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ उस दौर की जनविरोधी व्यवस्था से न सिर्फ आँखें मिला रही थी बल्कि सरकार से जवाब तलब भी कर रही थी. जब-जब सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों का खात्मा कर तानाशाही रूप अख्तियार करने लगती है तभी कोई न कोई उठ खड़ा होता है और अपने हक़-हुकूक का गीत गाने लगता है. आज देश भर में आज़ादी का अमृत महोत्सव धूम-धाम से मनाया जा रहा है. ऐसे वक्त में हिन्दुस्तानी ज़बान के अज़ीज़ शायर राहत इंदौरी को याद कर इस महत्त्वपूर्ण समय को और भी यादगार बनाया जा सकता है.

राहत साहब न तो ग़ालिब हैं न ही फ़ैज़. वे मजाज़ भी नहीं थे, ‘पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है’ कहने वाले मीर भी नहीं थे, लेकिन इन्हीं फ़नकारों के इल्म से पैदा एक ऐसे फक्कर शायर थे, जिन्हें जीते जी शौहरत हासिल हो पायी? मुशायरे की दुनिया में राहत इंदौरी का जितना बड़ा नाम है कट्टर मज़हबी लोगों की दुनिया में उतने ही बदनाम. राहत इंदौरी से पहले भी कई शायर हुए जिन्हें कट्टरपंथियों का सामना करना पड़ा. वे उन्हें बदनाम कहते थे, जबाव में वे भी कह देते थे ‘शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर, या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं’. लेखन में अश्लीलता को लेकर कई बार मुकदमे झेल चुके मंटो, इश्क मोहब्बत वाले जॉन इलिया, ‘आँचल को परचम’ बना लेने का आह्वान करने वाले मजाज़ और न जाने ऐसे और कितने कलमकार हुए जो अपनी जिंदादिली को लेकर सराहे भी गए और उसी अनुपात में बदनामी भी झेलनी पड़ी. राहत इंदौरी बीच की कड़ी हैं. कदाचित अपने दौर का इकलौता शायर, जिनके मरने के बाद समाज के तथाकथित राष्ट्रवादी ध्वजावाहकों ने जी भर कर गालियाँ दी, उनके गीतों, ग़ज़लों को गाली-गलौज में तब्दील किया गया. लोगों का वीभत्स चेहरा सबके सामने आया, जिसकी कल्पना शायद उन्होंने कभी नहीं की होगी. एक तरफ जनाजा उठाया जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ राहत साहब की कौमी एकता को मजबूत बनाए रखने वाली ग़ज़लें दम तोड़ रहीं थीं. नफरत की यह आँच सप्ताह भर चलकर अपने आप बुझती चली गयी.

‘मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिन्दुस्तान कहते हैं’ कहने वाले राहत साहब को शायद यह सब पहले से मालूम था कि नफ़रत और मुहब्बत के ताप पर तपकर ही कोई ग़ज़ल अमर हो पाती है. इसीलिए तमाम तरह की आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने लिखना बोलना बंद नहीं किया. मरते दम तक बेअदबी झेलने वाला शायर हमेशा ही अदब की बात करता रहा.

‘जितने अपने ये पराऐ थे
 हम हवा को गले लगाए थे
है तेरा कर्ज मेरी आँखों पर
तूने सपने बोहोत दिखाए थे’.

राहत साहब को गुजरे हुए लगभग ढाई साल बीत चुके हैं. महफ़िल आज भी सजती है, लोगों का मजमा आज भी लगता है. शेरो-शायरी को पसंद करने वाले लोग आज भी अच्छे लिखने-पढ़ने वालों की हौसला अफजाई करते हैं. लेकिन महफ़िलों के सूनापन को वही महसूस कर सकता है जो ‘इश्क-ऐ-हिंदुस्तान’ में यकीन रखता है. राहत साहब उन्हें बरबस याद आते होंगे. सबसे अंत में खड़े होकर महफिल लूट लेने वाले इंदौरी की कमी को महसूस कर रहे होंगे. सवाल है सैकड़ों शायरों के बीच राहत साहब की यादें क्यों सालती है? वे ऐसा क्या लिखते-गाते थे, जिनसे हजारों की भीड़ में बिजली दौड़ जाती थी? राहत इन्दौरी अपनी ग़ज़लों में किन लोगों की बातें करते हैं? इसका आसान सा जवाब यह है कि वे समय के सच को बड़ी साफ़गोई से लोगों के सामने रखते थे. ऐसा सच जो समाज के भीतर पनप रहे नफरत और पहचान के संकट से सीधे मुठभेड़ करता हैं. जन-सामान्य की तकलीफों को वे न केवल जानते-समझने थे बल्कि उनमें वे शामिल जान पड़ते हैं. इन्दौरी का यही मानवतावादी नजरिया उन्हें एक श्रेष्ठ शायर बनाता है.

उन्होंने ताउम्र कौमी एकता के लिए नज़्में लिखी, विभाजनकारी शक्तियों की मुखालफत की, राम-रहीम के बीच खिंचती जा रही लकीरों पर बैठकर रोया, हर दौर में बेलगाम होती सत्ता से आँखों में आँखें डालकर बातें की. धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा किस कदर मानवीय संवेदनाओं और सभ्यताओं को बर्बाद कर रही है उस पर भी चिंताएँ व्यक्त कीं. उनकी ग़ज़लें हमेशा नफ़रत के विरुद्ध इंसानियत की बात करती है.

 

तुम्हें सियासत ने हक दिया है, हरी जमीनों को लाल कर दो

राहत साहब हर दौर के सत्तासीन लोगों के लिए असहज रहे. उनकी ग़ज़लों में मनुष्य विरोधी ताकतों का मुखालफत किया गया है, जनता पर इसका असर साफ-साफ देखने को मिलता है. वे लिखते हैं कि

“अपील भी तुम, दलील भी तुम, गवाह भी तुम, वकील भी तुम, जिसे भी चाहो हराम लिख दो, जिसे भी चाहो हलाल कर दो” (रुत, पृष्ठ-19)

चंद शब्दों में कही गयी बातों के भीतर तकलीफों का समंदर उमड़ पड़ता है. आज़ादी के बाद देश के भीतर कई तरह की समस्याएँ थी, समय के साथ समस्याओं से कुछ हद तक निज़ात मिलने लगी. लोगों के जीवन स्तर में धीरे-धीरे सुधार होने लगा. तरक्की करने वाले लोगों की संख्या दुनियाभर में बढ़ने लगी. लेकिन देश के भीतर एक वर्ग ऐसा भी रहा है जिनके लिए तरक्की महज़ यूटोपिया है जबकि आत्महत्या जीवन का यथार्थ. किसान-मजदूर आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी खुदकुशी करने को मजबूर हैं. तमिलनाडु के किसान आंदोलन, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र (विदर्भ), पंजाब, हरियाणा, राजस्थान आदि राज्यों के भीतर खेती-किसानी को लेकर असंतोष बढ़ता जा रहा है. शायद ही देश का कोई कोना बचा हो जहाँ आत्महत्या न होती हों! आज़ाद भारत जब अपना 75 वाँ वर्षगाँठ मना रहा है तब लाखों गाँवों में रहने वाले लोगों की बदहाली पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. साल भर पहले लाखों किसानों की जत्थेबंदी ने राजधानी को एक साल तक घेरे रखा. किसानों को भरोसा था कि सरकारें हमारी बातें मान लेंगी. वर्षों से किए जा रहे वादों पर अमल किया जाएगा, पर क्या हुआ? पूँजीवाद के पोषक लोगों ने उसे साज़िश का हिस्सा बताया. धरती को माँ कहने वाले को गद्दार कहा गया. देखते ही देखते अन्नदाता नक्सल हो गए और देश के लिए खतरनाक बाताए जाने लगे. यह मुश्किल दौर है जहाँ अपील और दलील के बगैर हलाल करने की परंपरा सर उठा रही है. वैज्ञानिक चेतना की जगह धार्मिक आडंबरों को सह दिया जा रहा है. रोटी की जगह मुगलों का भय दिखाया जा रहा है. कुपोषित बच्चों के भीतर नफरत के इंसुलिन डाले जा रहे हैं. खतरे में पड़े कौम और मुल्क दोनों को बचा लेने के लिए युवाओं को ललकारा जा रहा है और यह सब प्रायोजित तरीके से हो रहा है. राहत इंदौरी इस जालसाजी को समझते हैं-

“जब भी चाहे मौत बिछा दो बस्ती में
लेकिन बातें प्यारी-प्यारी किया करो”
(धूप बहुत है- पृष्ठ-52)

जम्हूरियत की बात करने वालों ने दो कौम के बीच नफरत का बबूल बो दिया है. इसके बावत भी ‘बातें प्यारी-प्यारी’ हो रही हैं.

इंदौरी की ग़ज़लों की खूबसूरती है कि वे कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं. 2019 के दिसंबर माह से पूरे देश में ‘नागरिकता कानून’ के ख़िलाफ़ आंदोलन प्रारंभ हुआ. जिन लोगों ने सरकारें बनाई उन्हीं को सरकार ने यह फ़रमान दिया कि वे अपनी नागरिकता सिद्ध करें. देशभर में यह आंदोलन महीनों तक चला. हिंसक झड़पों के लिए सत्ता संरक्षित मीडिया ने हमेशा की तरह अपना किरदार बखूबी निभाया, लोग मारे गए. कौमी ग़द्दारी की बात कही गयी. नए राष्ट्रवाद की परिभाषा गढ़ने वाले लोगों ने एक खास कौम को आतंकवाद तक कहा. दंगे की दहशत आज तक लोगों के भीतर से खत्म नहीं हो पायी. नफ़रत बाँटकर नकली मुहब्बत की बात करने वाले लोगों को राहत साहब खूब जानते हैं-

जो आज साहिबे मसनद है कल नहीं होंगे
किराएदार है ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है

यह बात बहुतों को चुभ गयी. आभासी दुनिया में उन्हें गालियाँ दी जाने लगीं. मुगलों से जोड़कर उनकी वफादारी तक की बात की जाने लगी. लेकिन राहत इंदौरी अपने किस्म के फक्कड़ शायर थे, वे सुनकर भी अनसुना करते चले गए. डॉ. कुँवर बेचैन ने लिखा है कि

“किसी भी शायर को बड़ा शायर तब कहा जाता है जब उसके शेर जिंदगी के अनेक मोड़ों पर याद आएँ और जिंदगी को कोई नया अनुभव या नई दिशा भी दें. ये वे शेर होते हैं जो समय-समय पर उपयुक्त स्थान और वक्त पर उद्धृत करने योग्य होते हैं”.
(मेरे बाद, पृष्ठ-10)

राहत इंदौरी राजनीतिक घटनाओं को दरकिनार कर प्रेम और रति के गीत लिखने वाले शायर, गीतकार नहीं थे. वे मिज़ाज के शायर थे. उनकी कुछ आदतें थी कि वे हर वर्ग और हर उम्र के लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते थे कि ये आपके लिए है और ये आपके लिए नहीं है, मंत्री साहब बुरा न माने, पुलिस के लोग भी दिल पे न लें आदि-आदि. वे अलग-अलग राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सामने जनता की समस्याओं को लेकर तीखा व्यंग्य करते थे.

कय्यूम नाशाद का शेर है कि ‘अदब के नाम पर महफ़िल में चर्बी बेचने वालों, अभी वे लोग जिंदा है जो घी पहचान लेते हैं’ यह बात राहत साहब पर सटीक बैठती है. वह शेर जो हर मंच से पढ़े और सराहे गए, राजनीतिक और नैतिकताओं को ताक पर रखकर जिन लोगों ने दो क़ौमों के बीच नफ़रत को बोया, भय दिखाया, उनके लिए राहत इंदौरी का यह शेर सटीक बैठता है

“सरहदों पर बहुत तनाव है क्या
कुछ पता तो करो चुनाव है क्या’’
(कलंदर, पृष्ठ-133)

वर्तमान राजनीति जनसरोकार से जुड़े मुद्दों से अलगाकर कभी देश तो कभी धर्म को खतरे में पड़ जाने की बात करती रहती है. युवाओं के खून में उबाल बना रहे इसके उपाय किए जाते हैं. इंदौरी इस कायरता को समझते थे. कौमी एकता को बनाए रखने के लिए वे हमेशा कहा करते थे ‘चलो इश्क करें’. राहत साहब हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई हर धर्म के युवा-युवतियों को इश्क करने की बात करते हैं. जाति धर्म से अलग राहत इंदौरी की अपनी दुनिया है. यह दुनिया बेहद खूबसूरत है. नफरतों से दूर और एकांत. डॉ. बशीर बद्र लिखते हैं

“विचार का नयापन और अभिव्यक्ति की दुर्लभता का मेल उनके बेशुमार शेरों में पाया जाता है. वो अपने अहसासात को जिन समसामयिक दृश्यों में पेश करते हैं वो कभी अपने आसपास की नई जिंदगी का नमूना होते हैं और कभी हमारे अतीत की सांस्कृतिक यादों के ख़ज़ानों से बरामद होते हैं. मगर बेहतरीन शायरी की खूबी है कि उसमें दृश्य पृष्टभूमि बन जाते हैं. और हर दृश्य में इंसान अपने दुःख-सुख के साथ ज़्यादा आलोकित हो जाता है. राहत इंदौरी ऐसे कामयाब और खुशनसीब शायर हैं कि उनके मशहूर शेर हमारी श्रेष्ठ ग़ज़लगोई के आलोचनात्मक मयार पर भी पूरे उतरते हैं”.
(मौजूद, पृष्ठ-5-6)

राहत इन्दौरी कश्मीर की समस्याओं को लेकर हमेशा चिंतित रहे. वे इस बात से अत्यधिक दुःखी रहते थे कि वहाँ के युवा बहकावे में आकर देश विरोधी गतिविधियों में शामिल हो रहे हैं. स्वर्ग जैसी दिखने वाली वादियाँ हमेशा खून से सनी रहती है. सियासतदानों के लिए यह रणक्षेत्र बनकर रह गया है. यहाँ लोग रोज ही मरते हैं. कभी काफ़िर तो कभी आम जनता. जाँबाज सिपाही भी इस ज़द में आते रहते हैं. चौतरफा पसरी धुआँ और बेकाबू हो रही लपटों से खूबसूरत वादियाँ अपना सौंदर्य खो रही है. वे लिखते हैं-

“ये किसने आग डाल दी है, नर्म नर्म घास पर,
लिखा हुआ है जिंदगी यहाँ हर एक लाश पर
ये तख़्त की लड़ाई है, ये कुर्सियों की जंग है
ये बेगुनाह ख़ून भी सियासतों का रंग है
लकीर खेंच दी गयी दिलों के दरमियाँ
धुआँ-धुआँ, धुआँ ही धुआँ”.
(रुत, पृष्ठ-87)

किसी बेगुनाह की मौत महज़ किसी व्यक्ति की मौत नहीं होती, बल्कि सभ्यता और मानवता की मौत होती है. एक ऐसी सभ्यता जो बर्फ़ीली चट्टानों के बीच फैली-ऊँची पहाड़ियों, खूबसूरत फूलों, वादियों आदि से मिलकर बनती है. आज भी हर रोज वहीं बम बारूद फटने की आवाज़ें और लपटों से उठती धुआँ को महसूस किया जा सकता है. मौत की संख्या को लेकर जनमानस के हृदय का साधारणीकरण हो गया है. बकौल इंदौरी लिखते है

“पहले दीप जलें तो चर्चे होते थे
और अब शहर जलें तो हैरत नहीं होती
तारीखों की पेशानी पर मुहर लगा
ज़िंदा रहना कोई करामत नहीं होती”
(बहुत धूप है, पृष्ठ-126)

इंदौरी तेजी से बदल रही दुनिया को सूक्ष्म तरीके से महसूस करते हैं. यह बताना मुश्किल है कि उपयुक्त ग़ज़ल कोरोना काल की है या उससे पूर्व की. कोरोना-कालीन दुनिया ने उस भयावह सच से दो-दो हाथ किया जिसकी कल्पना कर आज भी सिहरन पैदा हो जाती है. रोग से ग्रसित हजारों लोगों को गर अपने ही परिजनों का साथ मिल गया होता तो बहुत संभव था कि वे आज हमारे बीच होते! समाज ने देखा है कि जनाजे और अर्थी को कंधा देने के लिए लोग कम पड़ रहे थे. शव-वाहन न मिलने पर एक पति अपनी पत्नी की लाश को साइकिल के बीचोबीच फंसाकर घर तक लाया. मरे हुए बेटे को गोद में लेकर एक पिता घण्टों पैदल चलता रहा, सहयात्री पत्नी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी. दुनिया चलती भागती रही, कटती मरती रही, भूख और व्याधि ने पहले ही लोगों को अधमरा कर दिया था. बची खुची कसर व्यवस्था की नाकामी ने पूरी कर दी. आँकड़े के खेल में मृतकों की आत्मा ने खुदबखुद शांति पा ली होगी.

नदियों में बहकर आती हुई लाश न्यू इंडिया की है जिसे क्षेत्रवाद के नाम पर फजीहत झेलनी पड़ी. अंत में सामूहिक रूप से जलकर खुदबखुद मोक्ष की प्राप्ति कर ली होगी. बिहार दिल्ली के लिए प्रवासी हो गया और मुस्लिम कोरोना ज़िहादी. शायद राहत इंदौरी का मन यह सब बर्दाश्त कर पाने की स्थिति में नहीं रहा होगा! वे भी अपने मुल्क के लोगों के साथ हो लिए. राहत साहब की ग़ज़लें हर दौर के क्रूरतापूर्ण रवैये को देखकर रोती रहेगी. वे सब चुप, ‘साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक’ जैसे दौर में भी बोलने का साहस रखते थे. समाज के बड़े हिस्से की चुप्पी बदलते भारत का नया मानवतावादी पाठ है.

 

बनके एक हादसा बाज़ार में आ जाएगा

आज दुनियाभर के लोकतांत्रिक मुल्कों में तेजी से पूँजीवादी ताकतों का उभार हो रहा है. साथ ही इन देशों में तानाशाही चाल-चलन में भारी इजाफा हुआ है. ‘गणराज्य, जनता द्वारा, जनता के लिए’ जैसे शब्द कुछ क्षणों के लिए जनता होने का बोध करा दे लेकिन असलियत इन सब से परे है. साधारण जनता की चीख न्यायपालिकाओं के चौखट तक पहुँचने से पहले दम तोड़ रही है. जनता की समस्याओं से रूबरू कराने वाली मीडिया जनता से नज़र छुपाती फिरती है. पूँजीवादी ताकतों ने उसे एक साथ गूँगा-बहरा बना दिया है. हर रोज ज़िहादी और तरह-तरह के ज़िहाद पर डीएनए करके दो संप्रदायों को एक दूसरे का जानीदुश्मन बना दिया है. प्रेम भाईचारा कहन सुनन की बातें होकर रह गई हैं. राहत साहब प्रेम की ताकत से बाखबर थे. उन्हें इस बात में पूरा यकीन था कि एक दूसरे से प्यार करने वाला समाज हमेशा तरक़्क़ी करेगा. नफरत से मनुष्य अपनी सामाजिकता को क्षीण कर रहा है, जिससे आने वाली पीढ़ी भी प्रभावित होगी. सत्ताधीशों के आगे नतमस्तक अखबारों के मालिकों को देखकर ख़ासा नाराज थे. रोज-रोज हो रही खबरों की हत्या महज़ सूचना और न्याय की हत्या भर नहीं होती है बल्कि उस खंभे का ढहना भी है जिसकी संकल्पना में तलवार की ताकत कुछ भी नहीं थी. ‘रेडियो रवांडा’ में तब्दील हो रहे अख़बार नफरतों, मारो-मारो, काटो-काटो की हुँकार आदि वर्तमान दौर का सबसे घिनौना सच है और यह सब लोकतांत्रिक होने के नाम पर हो रहा है.

एक शायर के लिए तथाकथित ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ कैसा होना चाहिए? यह आज के दौर का जरूरी सवाल है. राहत साहब प्रेम के गीतकर हैं. वे उन्हें प्रेम-मोहब्बत के गीत कैसे सुनाए जो नफ़रत से जल रहा है, जिस मुल्क की जवानी को जलाने के लिए सांप्रदायिक नफरतें घासलेट का काम करती हो, श्रेष्ठताबोध के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर अपना धैर्य खो देने वाले समाज के बीच खड़े होकर अगर कोई शायर यह कहे कि

‘आप हिन्दू मैं मुस्लमा, ये ईसाई वो सिख
इसमें नुकसान का खतरा ही नहीं रहता
यार छोड़ों ये सियासत है, चलो इश्क करें’

जैसे गीत गाने वाले फक्कड़ शायर को अपने मुल्क से मोहब्बत और तरक्कीपसंद लोगों पर कितना यकीन रहा होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है. बुद्ध के इस देश में करुणा गिरवी रखी जा रही है. महात्मा महावीर के नाम पर हिंसा की जा रही है. गाँधी को सौ बार मारकर उनकी वैचारिकी का खात्मा हो जाने का उद्घोष किया जा रहा है. हर रोज ‘जय श्रीराम’ के नाम पर दंगे हो रहे हैं. राहत साहब की थर्राती जुबान पर फिर वहीं गीत चढ़ आता है कि ‘हम जान के दुश्मन को भी अपनी जान कहते, मोहब्बत के इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं’ यह ग़ज़ल बहुत बार अपनी सफाई में भी पढ़ी जाने लगी थी. सियासत का बाज़ार नफ़रत बाँट रहे थे, राहत साहब मरकर भी अमन चाहते थे. दुविधा और दुचित्तापन के अंतर्द्वंद्व में कोई फनकार कहाँ तक और कब तक जिंदा रह सकता है! राहत साहब के मुशायरे बहुत हद तक ऐसे ही अंतर्द्वंद्व और विरोधाभासों से भरा हुआ है. वे कहते हैं “हो लाख ज़ुल्म मगर बद्दुआ नहीं देंगे. ज़मीन माँ है ज़मीं को दगा नहीं देंगे” (मेरे बाद, पृष्ठ-28)

यह विचारणीय है कि नब्बे के बाद की कविताओं में जीवन के विविध पहलुओं का उल्लेख होने लगा था. कविता नवगीत की शक्ल में मंचों और सम्मेलनों की शोभा बढ़ा रही थी. ग़ज़लों की दुनिया भी बड़ी होती जा रही है. देश के अलावे दुनियाभर में मुशायरे का चलन बढ़ने लगा था. गोपालदास नीरज, कुँवर बेचैन, जॉन इलिया, बशीर बद्र, कुमार विश्वास आदि ग़ज़लकारों के गीत काफी पसंद किए जाने लगे थे. इन सब के बीच जिनकी अलग पहचान बन रही थी वह थे राहत इन्दौरी. नफ़रत के बरक्स मोहब्बत, वादाखिलाफी, सांप्रदायिकता, मूल्यहीन राजनीति आदि को वे अलग तरह से रेखांकित कर रहे थे. वे क्रूर यथार्थ को हजारों की भीड़ के बीच और सफेदपोश के सामने खड़े होकर लाखों मजलूमों के दुःख दर्द बयाँ करने वाले ग़ज़लकार थे. डॉ. कुँवर बेचैन लिखते हैं

“जिसने भी उन्हें मंच पर कविता सुनाते हुए देखा है, वह अच्छी तरह जानता है कि राहत भाई लफ़्ज़ को केवल बोलते ही नहीं हैं, उसको चित्रित भी कर देते हैं. कई बार ऐसा लगता है कि ये अज़ीम शायर लफ़्ज़ों के ज़रिये पेंटिंग कर रहा है. उनमें अपने भावों और विचारों के रंग भरकर सामने ला रहा है“ (मेरे बाद, ब्लर्ब पृष्ठ)

राहत इंदौरी मुफलिसी के दिनों में पेंटिंग किया करते थे. ट्रकों के पीछे शायरी लिखते-लिखते उनके भीतर का शायर मन बड़ा होता चला गया. चित्रकला महज रंगों को ठीक-ठीक बरतने का नाम नहीं है, बल्कि बहुरंगी दुनिया को जानने-समझने का इल्म भी है. आज जब रंगों का सहारा लेकर कत्लेआम किया जा रहा है तब उन रंगों का क्या जो भाईचारे को बचाने के लिए कागजों पर उभरकर आता था!

दीपक रूहानी अपनी किताब ‘मुझे सुनाते रहे लोग वाक़िया मेरा’ में राहत साहब के जीवन-संघर्ष से रूबरू कराते हुए लिखते हैं

“उन्होंने हमें खरा-खरा कहना सिखाया. उन्होंने शायरी की उस मशाल को जलाये रखने के लिए अपने खून को ईंधन बनाया… जिसे जोश, साहिर, फ़ैज़, फ़राज़ और हबीब जालिब ने जलाया था. हमें फख्र है कि राहत साब की सचबयानी ने शायरों की लाज बचाए रखा. हमें प्यार सिखानेवाले शायरों की भी जरूरत थी और आइंदा भी रहेगी, लेकिन हमें इस सियासी दौर में जिंदा रहने की भी जरूरत है. राहत साहब ने हमें दमदारी के साथ प्यार करना सिखाया और सियासत से दो-दो हाथ करना भी सिखाया”.
(राहत साहब : मुझे सुनाते रहे लोग वाक़िया मेरा, पृष्ठ-7-8)

कोई भी जिंदा शायर अपनी सामाजिकता को दरकिनार कर बड़ा नहीं बन सकता है. सामाजिक चेतना ही राजनीतिक विद्रूपताओं के खिलाफ बग़ावती शेर या नगमें लिखने को प्रेरित करती है. धूमिल, दुष्यंत, गोरखपाण्डे, वेणुगोपाल, मज़ाज, लुधियानवी की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए राहत साहब ने सिर्फ प्रेम के गीत ही नहीं लिखें बल्कि समाज में रोग की तरह फैलती जा रही वैमनस्यता के खिलाफ भी मुखरता से लिखा और गाया.

राहत इंदौरी की शायरी में एक अलग हिंदुस्तान दिखायी देता है, जहाँ लाखों गाँव अपनी बदहाली और मुफलिसी से दो-दो हाथ करते हुए दिखाई देते हैं. गाँव के जमींदार, मुखिया-सरपंच इत्यादि दिखाई देते हैं. दलित-मज़लूम की बेटियाँ दिखाई देती हैं जो अपनी आबरू बचाने के लिए चीख़ती चिल्लाती हैं. आज जब हर झूठ को पचा लेने तथा अपराधी को नायक बनाने में अखबार जमकर अपना योगदान दे रहा हो ऐसे में राहत साहब द्वारा अखबारों पर की गयी टिप्पणी एक शायर की चिंता और उनकी बेचैनी को रेखांकित करती है. यह कितना हास्यास्पद है कि आज के नेता ही अखबारों के मालिक हैं. इंदौरी की आँखें ऐसे लोगों को पहचानती है. झूठ छापकर संपादक सीनाजोरी कर रहा है. नैतिकता की बात करते हुए व्यवस्था कितनी अनैतिक हो गयी है इसकी बानगी देखिए-

दरबार जो थे वह दीवारों के मालिक हो गये
मेरे सब दरबान, दरबारों के मालिक हो गये
लफ्ज़ गूंगे हो चुके तहरीर अंधी हो चुकी
जितने मुख़बिर थे वे अख़बारों के मालिक हो गये
(दो कदम और सही, पृष्ठ- 66)

पत्रकारिता मुश्किल दौर से गुजर रही है. सांप्रदायिक हिंसाओं में साधारण लोग मारे जा रहे हैं. नश्ले और कौम का बँटवारा संपादकों द्वारा पूरी ढिठाई के साथ किया जा रहा है. धर्मिक प्रतीकों और उनके प्रदर्शनों को लेकर लोग उग्र होते जा रहे हैं. ताजिया और रामनवमी जैसे पवित्र त्योहारों को भी रणक्षेत्र में तब्दील कर दिया गया है. क्या बंगाल क्या बिहार और क्या दिल्ली सबकी सामाजिकता एक सी होती जा रही है. धू-धूकर जलता हुआ शहर और जलती हुई गरीबों की झोपड़ियाँ किन्हें रोमांचित करता है यह बात किसी से छिपी-ढकी नहीं है. भीतर से शून्य होती जा रही मानवता को लक्ष्य करके राहत इंदौरी ने जो लिखा है वह मानवीय सभ्यता से बुद्ध की करूणा के विलोपन, राम के मर्यादाबोध, खुदा की ईमान-निष्ठा को मटियामेट कर देने के अवसाद को बयां करता है-

यक़ी कैसे करूँ मैं मर चुका हूँ
मगर सुर्ख़ी यहीं अख़बार की है
सड़क पर वर्दियाँ ही वर्दियाँ हैं
कि आमद फिर किसी त्यौहार का है
(धूप बहुत है, पृष्ठ-121)

राहत साहब जिन दृश्यों को देखकर चिंतित थे वे आज और भी क्रूर होते जा रहे हैं. धार्मिक आयोजनों से पूर्व शहरों से लेकर गाँवों तक में मार्च करती पुलिस की टुकड़ियाँ अपने आप में बहुत कुछ बयां करती है. भोली-भाली जनता को जनतांत्रिक मूल्यों से अवगत कराने की बजाय सरकारें इतिहास में हुई भूल-चूक को दुरुस्त करने में लगी है –

तूफ़ां तो इस शहर में अक्सर आता है
देखें अबके किसका नम्बर आता है
सूखे बादल होटों पर कुछ लिखते हैं
आँखों में सैलाव का मंजर आता है
(चाँद पागल है, पृष्ठ- 63)

राहत साहब ईमान-धर्म को बहुत अहमियत देने वाले शायर थे. बाबरी विध्वंस से लेकर कैराना का पलायन, भागलपुर का जेनोसाइड और न जाने कितने ही खौफनाक यादें उनकी जेहन में गहरी पैठी हुई थीं. एक जिंदादिल शायर हमेशा ऐसी सांप्रदायिक घटनाओं से आहत होता है. उत्तर प्रदेश समेत देश के अलग-अलग सूबे में होने वाली जातीय हिंसा को बढ़ावा देने वाली राजनीति हर तरह से मानवता का दुश्मन है. बाहुबली राजनीति में सक्रिय होकर देश से बाहुबली का खात्मा कर देने की बात करते हैं. गंभीर अपराधी होने के  बावजूद गांधी के आगे मत्था टेककर सब ठीक कर देने का वायदा करते हैं. राहत इंदौरी ऐसी व्यवस्था से अपमानित महसूस करते हैं साथ ही अपना प्रतिरोध दर्ज करते हैं-

बनके एक हादसा बाज़ार में आ जायेगा
जो नहीं होगा वो अख़बार में आ जायेगा
चोर उचक्कों की करो कद्र के मालूम नहीं
कौन कब कौन सी सरकार में आ जाएगा
(रुत,  पृष्ठ-98)

राहत इंदौरी द्वारा कही उपर्युक्त बातें  ऐसी नहीं कि हंसी ठहाकों के बीच आयी और चली गई, बल्कि उस परंपरा का दृढ़ता से निर्वहन है जिसमें वे हर वक्त कहते हैं ‘हमसे पूछो ग़ज़ल मांगती है कितना लहू’ वर्तमान का सच भयावह है. मौन रहकर अपराध और आपराधिक गतिविधियों को ढकने का उपक्रम किया जा रहा है. जनतांत्रिक मुल्क में जनता अपनी अस्मिताओं को बचाए रखने में असफल होती जा रही है. राहत इंदौरी बेबसी को गले लगाए घूमने वाली जनता की आँखों से छलकते दुःख-दर्द को जानते हैं.

 

गरीबी जब कान छिदवाती है तो तिनका डाल देती है

राहत इंदौरी की मुफलिसी के किस्से उनके करीबियों के बीच आम है. यह अलग बात है कि शौहरत के दिनों में  भी वे अपनी फाकाकशी को नहीं भूल पाए, ‘मैं आज अपने घर से निकलने न पाउँगा/ बस एक कमीज थी जो भाई ले गया’ यह भावुक उद्घोष महज़ एक भाई का नहीं है जो अपने भाई के लिए अच्छी से अच्छी पोशाक को जुगाकर रखते थे ताकि वे इसे पहनकर मुशायरे में जा पाए बल्कि भाईचारे की मिशाल है. आदिल कुरैशी की यह पंक्ति राहत साहब के जीवन को समझने का सूत्र वाक्य है. शायर बनकर जीवन जीने के सामाजिक खतरे भी कम नहीं है, जितने मुँह उतने ही व्यक्तिगत सवाल. ‘शायर की बीबी हो गुजारा हो जाता है’ यह कुठाराघात उस स्त्री के मन पर है जिसने शायर को अपना जीवन साथी बनाया. एक शायर के साथ-साथ उनकी पत्नी, बच्चे, माता-पिता आदि की कुर्बानी को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. सीमा कुरैशी भले ही मंचों पर दिखाई न देती हों लेकिन उनके संघर्षों से तैयार ग़ज़ल को पढ़ते हुए राहत के स्वरों से वे बार बार अपना स्वर मिलाती जान पड़ती है. हिदायतउल्लाह खान की किताब ‘कलंदर’ में राहत के संघर्षों और उपलब्धियों का उल्लेख हुआ है. आज जब एक भाई दूसरे का जानी दुश्मन बन बैठा है, ऐसे प्रतिकूल दौर में राहत की यह बात कितनी सुकुनदायक है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. दीवार चाहे मुल्कों के बीच का हो या आँगन के बीच का बंटवारा ही उनकी नियति है. बँटवारा ज़मीन का नहीं बल्कि दो मन का भी हो जाता है-

मेरी ख्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे
मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मी तू रख ले
(कलंदर, पृष्ठ- 41)

अपना हिस्सा देकर दिलों से दिलों को टूटने न देने वाला यह नुस्खा अद्भुत है. राहत साहब इंदौर में रहते थे, (बाद में इसी शहर से उनकी ख़ास पहचान भी बनी) उनके पुरखे गाँव से आए थे. शहर में रहते हुए भी वे गाँव को नहीं भूल पाए. सामंत और ज़मीदारी रौब के किस्से आज भी ज़िंदा है. ‘ठाकुर’ शब्द न तब मिथक था न आज है. सरपंचों और खाप की कहानी राजस्थान, हरियाणा तक सीमित नहीं है, हाथरस, उन्नाव और अदम गोंडवी (चमारों की गली) के गाँव के साथ-साथ अररिया, खगरिया लोहरदग्गा इत्यादि की भी कहानी है. मुखिया-सरपंचों की परमेश्वरवादी अवधारणाओं को चुनौती देते हुए राहत इंदौरी ने जो लिखा है वह रोज-रोज की पुलिसिया इन्वेस्टीगेशन से अलग नहीं है-

गाँव की बेटी की इज़्ज़त तो बचा लूँ लेकिन
मुझे मुखिया न कहीं गाँव के बाहर कर दे
(मेरे बाद, पृष्ठ-64)

नॉस्टैल्जिक  मन जो कहे मगर गुनहगार और उनके गुनाह के अंश आज भी मौजूद हैं. इस बात से शायद ही कोई इनकार करे.

शहरों की ओर कूच करते ग्रामीण मज़दूरों को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि खेती किसानी का संकट कितना गहरा होता जा रहा है. खेतिहर मज़दूर खेती और गाँव छोड़कर शहरों में मजदूरी करने के लिए आ रहे हैं. कोरोना महामारी ने एक साथ लाखों मज़दूरों को भूखे-प्यासे, मरते-जीते पैदल चलने को मजबूर कर दिया था. उनकी गिनती से अधिक पीड़ादायक उनके बुझे-बुझे से चेहरे को देखना था. देखते-देखते ईट-पत्थर जोड़कर शहरों को बनाने वाले मज़दूर प्रवासी हो गए. इस दौर की विडंबना ऐसी रही कि भारत को गाँवों का देश कहने से बेहतर मज़दूरों का देश कहना अधिक संगत लगने लगा. महामारी से संबंधित सैकड़ों महत्त्वपूर्ण कविताएँ लिखी गयीं. राहत साहब समय से आगे चलने वाले ग़ज़लकार रहे हैं. उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल में लिखा है कि –

ज़िन्दगी भर दूर रहने की सजाएँ रह गयीं
मेरे कीसे में मिरी सारी वफाएँ रह गयीं
नौजवां बेटों को शहरों के तमाशे ले उड़े
गाँव की झोली में कुछ मज़बूर माँएँ रह गयीं
एक-इक करके हुए रुख़सत मिरे कुनबे के लोग
घर के सन्नाटे से टकराती हवाएँ रह गयीं
(चाँद पागल है, पृष्ठ-83)

ये चंद आसार नौजवानों से खाली पड़े गाँवों की कहानी कहती है. ग्राम स्वराज की अवधारणा गाँधी की मृत्यु के साथ ही खत्म होती हुई जान पड़ती है. राहत की चिंताएँ उन लाखों माओं की पीड़ा को बयां करती है जो अपनी आँखों से न देख पाने के बावत भी दूर देश गए बेटों की राह जोहती रहती है.

राहत साहब प्रेम के गीत लिखते हुए भी खेत खलिहानों की चिंताओं से विलग नहीं हुए. लाल किले से ग़ज़ल पढ़ते हुए भी उन्हें गाँव का सामाज दिखाई पड़ता है. आज का समाज जाति धर्म के स्तर पर किस कदर टूट रहा है, उनके दिलों दिमाग में किस तरह की नफरत भरी जा रही है ये सारी बातें उन्हें पीड़ा देती हैं. खुदाओं और देवताओं के नाम पर लगाई जा रही आग से अंततः मज़लूमों की बस्तियाँ ही जलती है-

देवताओं और खुदाओं की लगाई आग ने
देखते ही देखते बस्ती को जंगल कर दिया
(कलंदर, पृष्ठ-160)

धर्म के नाम पर जिनका घर जला है वे इस दर्द को महसूस कर सकते हैं. हाल के दिनों में  दिल्ली हो या कोलकाता या देश के अन्य सूबे हर जगह धार्मिक आयोजनों के नाम पर उन्मादी भीड़ के भीतर पनपते आक्रोश न जाने किस हिंदुस्तान की परिकल्पना को साकार कर रही है!

बहुत कम लोगों को मालूम है कि राहत साहब ने कई हिट्स फिल्मों में गीत भी लिखें हैं. विधु विनोद चौपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मिशन कश्मीर’ के लिए उन्होंने गाने लिखे. ‘मुन्ना भाई एम बी बी एस’ अपने दौर के हिट्स फिल्मों में शुमार रही है, इस फ़िल्म के लिए भी राहत साहब ने गाने लिखे हैं. इसी तरह ‘घातक’, ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’, ‘मर्डर’, ‘ईश्क’, ‘खुद्दार’, ‘द जेंटलमैन’, ‘नाजायज’, ‘तमन्ना’, ‘प्रेम अगन’ जैसी फिल्मों के लोकप्रिय गीत उन्होंने लिखे. मकबूल फिदा हुसैन के सानिध्य ने रंगों और उभरी रेखाओं के बीच निहित मनोभावों को बारीकी से जाना-समझा. फिल्मिस्तान का यह सफर बहुत दिनों तक नहीं चल पाया. राहत साहब मनमौजी आदमी थे. फिल्मों में मनमानी बहुत कम चलती है. उनके भीतर जो ग़ज़लें बाहर आने को बेताब थी उसकी जरूरत फिल्मों को नहीं थी. अंततः राहत साहब माया नगरी को छोड़कर अपनी ‘तंग गलियों’ में लौट आए. साधारण जनता के सामने उनकी शेरों शायरी फिर से चल पड़ी. शायद राहत साहब अपने लोगों के बीच आकर अधिक खुश हुए होंगे.

 

शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है

“एक अच्छे शायर में ख़ूबियों के साथ-साथ ख़राबियाँ भी बराबर की होनी चाहिए, वरना फिर वह शायर कहाँ रह जाएगा, वह तो फिर फ़रिश्ता होकर रह जाएगा! और फ़रिश्तों को अल्लाह ने शायरी के इनआम से महरूम रखा है. इसलिए पूरे यक़ीन से कहा जा सकता है कि राहत फ़रिश्ते नहीं हैं. वह तमाम इन्सानी कमज़ोरियों से लुफ्त लेना जानते हैं! और एक अच्छे और सच्चे शायर की तरह वह अपनी कमजोरियों का इक़रार भी करते हैं!”
(चांद पागल है भूमिका भाग से)

मुनव्वर राना ने ये बात राहत इन्दौरी के बारे में कही है. राहत साहब मंचों से कहा करते थे कि ‘अब आप कुछ मर्दाना शेर सुनिए, भला शेर तो शेर होता है मर्दाना क्या, जनाना क्या! हाँ शब्दों में बालाघात और वाचन में कर्कशता भले एक पुरुष के यहाँ अधिक मिलते हों, जिससे सुनने वाले वाह-वाह करते हों लेकिन कवयित्री को पढ़ लेने के बाद और उनकी उपस्थिति में ऐसा कहना मर्दवादी मानसिकता को दर्शाता है.

राहत साहब ने भले ही प्रेम की ग़ज़लें लिखीं हों लेकिन उनकी पहचान आक्रोश  भर देने वाली ग़ज़लों को लेकर खास है. सत्ता के ख़िलाफ़ लिखी गयी उनकी ग़ज़लों में उग्रता अधिक है. उनके समकालीन ग़ज़लकार उसी आक्रोश को अलग तरह से बयां करते रहे हैं. यह भी एक कारण रहा कि राहत साहब हर दौर के सत्ताधारियों की आंखों की किरकिरी में खटकते रहे. कुछ उदाहरणों के द्वारा इसे सुगमतापूर्वक समझा जा सकता है. मुनव्वर राना का शेर “बदन में दौड़ता सारा लहू ईमान वाला है/ मगर ज़ालिम समझता है कि पाकिस्तान वाला है” (कलंदर, पृष्ठ-159)

इसके बरक्स इन्दौरी की ग़ज़लों में चुनौती और ललकार अधिक प्रभावी है. इसके कारणों पर संक्षिप्त रूप से चर्चा हो चुकी है. कुछ और विचार करें तो ज्ञात होता है कि राहत साहब का जीवन संघर्षों से भरा रहा है. मुफलिसी को उन्होंने बाकी लोगों से अधिक भुगता है. ग़ज़लों में निहित जनपक्षधरता आंतरिक है ‘लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यूँ हैं, इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यूँ है’  डर-डर कर जीने मरने वाले लोगों के लिए इस ग़ज़ल की अहमियत तो है ही. यह अलग बात है कि लोगों का सबसे अधिक ध्यान ‘किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है’ जैसी ग़ज़लों पर ही गया, मगर किसी को भी बद्दुआ न देने वाली ग़ज़लें भी उन्होंने लिखी है ‘हो लाख जुल्म मगर बद्दुआ नहीं देंगे’ जमीन माँ है जमीं को दग़ा नहीं देंगे’ कहने वाले राहत साहब का जब इंतकाल हुआ तब लाखों कट्टरपंथियों ने जमकर सामूहिक उत्सव मनाया. उन्हें जी भरके बद्दुआएँ दी.

इस बार उन पर इलजाम था कि उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी को किसी मुशायरे में भला बुरा कहा था. कवि हृदय वाले अटलजी शायद ही कभी बुरा माने हों! अगर माने भी होंगे तो अपनी बिरादरी के इस ग़ज़लकार को जरूर दिल से माफ कर दिया होगा. लेकिन सत्तासीन समर्थकों ने राहत साहब की इस गलती के लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया. इन्दौरी की कुछ खास ग़ज़लें जो लगभग हर मंचो से पढ़ी गयी उनमें से यह भी एक थी कि ‘है उसकी आदत, डरा रहा है, उससे कह दो कि मैं डरा नहीं हूँ’ उपद्रवियों को कहने के लिए इस बार राहत साहब खुद नहीं थे. मंचों का राजकुमार मुशायरे से विदा हो रहा था, मंचों पर उदासी पसर चुकी थी. लाखों लोगों को राहत साहब की स्मृतियाँ बेचैन कर रही थीं. आभासी दुनिया उनके आसारों से पटी हुई थी. उस दिन हर एक को अपने-अपने राहत थे. गाली और ताली के बीच किसी शायर की विदाई बता रही थी कि मरने वाले को अपनी मौत पर कितना गुमान हो रहा होगा! वे हमेशा-हमेशा के लिए मुशायरे की दुनिया मे अमर हो रहे थे. बकौल इन्दौरी-

हाथ खाली हैं तेरे शहर से जाते-जाते
जान होती तो मेरी जान लुटाते जाते
(धूप बहुत है, पृष्ठ-82)

वर्षों तक मुशायरे की दुनिया पर राज करने वाले कलंदर भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी मौजूदगी हमेशा ही इन फिजाओं में कायम रहेगी. मौत से पहले अपनी मौत पर लिखने वाले यह शायर भी अद्भुत थे ‘मैं मर जाऊ तो मेरी एक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पैशानी पे हिंदुस्तान लिख देना’ सच्चे भारतीयता और देशभक्ति का नवीन उत्थान एक शायर को कितना भयभीत कर रहा होगा ये ग़ज़लें अपने आप में बहुत कुछ बयाँ करती है. बहराल दो ग़ज़ ज़मी की मालकियत सबको है उन्हें भी थी. फर्क बस इतना है कि कोई सैकड़ों एकड़ के बाद भी अपनी मालकियत कायम नहीं कर पाते, लेकिन राहत साहब ने दो ग़ज़ ज़मींन पर सोकर खुद को जमीदार मान लिया ‘दो ग़ज़ सही ये मेरी मिल्कियत तो है, ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया’ राहत साहब की पेशानी जिस मुल्क की मिट्टी में दफ्न है उस मुल्क के लोग जरूर अपने आप पर नाज़ करेंगे.

 

रामलखन कुमार
25 नवंबर 1992 मधुबनी (बिहार)
पुस्तक: ‘लोक काव्य: प्रतिरोध और मुक्ति का सौंदर्य’ प्रकाशित.
ramlakhan2rl@gmail.com

Tags: 20232023 आलेखउर्दू साहित्यरामलखन कुमारराहत इंदौरी
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Comments 12

  1. रवींद्र सिंह says:
    2 years ago

    आशा है इंदौरी सहाब के सवाल करते हुए भाव और रामलखन भैया की तनतनाती भाषा इस लेख के पाठक वर्ग के दिमाग़ को झकझोर देंगे!

    Reply
  2. Anonymous says:
    2 years ago

    युवा लेखक रामलखन कुमार अपनी तल्ख व धारदार टिप्पणी और लेखनी के लिए जाने जाते हैं। काजी अब्दुल सत्तार के बाद राहत इंदौरी पर लिखी उनकी यह समीक्षा मौजूदा सत्ता, समय और समाज को बखूबी प्रतिबिंबित करती है। राहत इंदौरी साहब की जीवटता और निर्भयता के साथ साथ उनके तल्ख शायराना अंदाज और रेंज को इस लेख के जरिए लेखक ने पूरी ईमानदारी और बेबाकी से स्पष्ट किया है। बेहद जरूरी और पठनीय लेख हेतु रचनाकार को खूब बधाई🌸🌸

    Reply
  3. Anonymous says:
    2 years ago

    जो भी पाठक वर्ग राहत इंदौर को पढ़ना व समझना चाहते हैं उनके लिए यह लेख एक अच्छा स्रोत बन सकता है. इस लेख में राहत इंदौरी गीतों शायरी आदि के प्रति आमजन क्या विचारधारा रखता है तथा राहत इन्दौरी इतने लोकप्रिय क्यों बने इस लेख को पढ़ के समझा जा सकता है।

    Reply
  4. पवन कुमार शर्मा says:
    2 years ago

    “अपील भी तुम, दलील भी तुम, गवाह भी तुम, वकील भी तुम, जिसे भी चाहो हराम लिख दो” शानदार लेख। आपको और संपादक महोदय दोनों को बधाई💐💐

    Reply
  5. Kamlnand Jha says:
    2 years ago

    राहत इंदौरी जितने ही लोकप्रिय और सरोकार सम्पन्न शायर हैं, उनपर लिखत-पढ़त उतनी ही कम हुई है। इसका एक कारण यह भी है कि वे असुविधाजनक शायर हैं, असुविधाजनक इसलिए कि वे राजनीतिक शायर हैं। एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। इस तरह के रचनाकारों पर लिखने से बचना ही ‘व्यावहारिक’ लेखक होना है। आजकल ‘व्यावहारिक’ लेखकों में जबर्दस्त उछाल आया है। ‘अव्यावहारिक’ लेखक का जोख़िम उठाते हुए रामलखन जी ने राहत इंदौरी पर सविस्तार लिखकर एक तरह से अभाव की पूर्ति की है। आलेख की खासियत यह है कि उसमें लगभग सभी पक्षों पर विचार किया गया है। लेखक और समालोचन को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  6. धनंजय वर्मा says:
    2 years ago

    राहत इंदौरी की शायरी पर राम लखन कुमार का तब सरा लगभग मुकम्मल है.सिर्फ इतना और जोड़ना है कि राहत साहब “सुनने के शायर” ज्यादा थे.पढ़ते तो वो भी तहतुल् लफ्ज ही थे लेकिन उनका ” अंदाज़े अदा ” मुतास्सिर करता था, ठीक फिराक गोरखपुरी की तरह जिनके अंदाजे अदा से शेर और भी ज्यादा मानी खेज हो जाता था.कुमार साहब का शुक्रिया कि उन्होंने राहत साहब को इतने बड़े पैमाने पर देखा- दिखाया है और उनकी अदबी, समाजी और सियासी अहमियत को रौशन किया है

    Reply
  7. Amit Kumar says:
    2 years ago

    युवा लेखक राम लखन कुमार अपनी तल्ख व धारदार टिप्पणी और लेखनी के लिए जाने जाते हैं । काजी अब्दुल सत्तार के बाद राहत इंदौरी साहब पर लिखी उनकी यह समीक्षा मौजूदा सत्ता, समय और समाज को बखूबी प्रतिबिंबित करती है। इंदौरी साहब की जीवटता और निर्भयता के साथ-साथ उनके तल्ख़ शायराना अंदाज और रेंज को इस लेख के जरिए लेखक ने पूरी ईमानदारी और बेबाकी से स्पष्ट किया है। बेहद जरूरी और पठनीय लेख हेतु रचनाकार को खूब बधाई🌸🌸

    Reply
  8. Veena says:
    2 years ago

    “मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में दीवार ना उठे
    मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीं तू रख ले। ”
    राहत साहब कौमी एकता के बड़े हिमायती शायर ,
    नफरतों के दौर में मुहब्बत की बात करने वाले शायर। लेखक ने बहुत शानदार ढंग से उनकी शायरी की समीक्षा की है । दीवार चाहे मुल्क में हो या आंगन में बंटवारा , अलगाव ही उसकी नियति है ।
    इस शानदार आलेख को पढ़कर काफी अच्छा लगा , लेखक रामलखन जी और सम्पादक महोदय को शुभकामनाएं ☘️💐

    Reply
  9. Dr Gayatri kumari says:
    2 years ago

    सामलोचन इस दौर में लिखने-पढ़ने वालों के लिए जरूरी प्लेटफार्म है, जहाँ बड़े से बड़े और नवागंतुक लेखकों को पढ़ने का अवसर प्रदान करता है। राहत इंदौरी को सुनना हमेशा ही सुखद रहा है। इन्दौरी जी पर लिखा गया व्यापक लेख कई मायने में महत्त्वपूर्ण है।

    Reply
  10. Anonymous says:
    2 years ago

    ये सहारा जो नहीं हो तो परेशान हो जाएं, मुश्किलें जान ही लेलें अगर आसान हो जाएं, ये जो कुछ लोग फरिश्तों से बने फिरते हैं, मेरे हत्थे कभी चढ़ जाएं तो इंसान हो जाएं,
    समालोचना साहित्य विचार और कलाओं की ऐसी वेब पत्रिका है जहां बड़े-बड़े लेखक समालोचक को पढ़ने का अवसर मिलता है। इंदौरी साहब का धारदार शायराना अंदाज महफिल लूट लेते थे, बहुत कुछ कह जातेथे। युवा लेखक राम लखन जी का धारदार टिप्प्णी बहुत कुछ सिखाती हैं।
    लेखकऔर संपादक महोदय को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  11. Chandan 𝓚𝓾𝓶𝓪𝓻 says:
    2 years ago

    लेखक का जोख़िमभरा साहस समाज को प्रतिबिंबित करती है. ‘बेजोड़ शायर’ पर जब कोई लिख नहीं रहा हो तो ‘युवाकुमार’ अपनी बेबाक़ शब्दों से हमसब के समक्ष ‘राहत साहब’ को बहुत करीब से जानने का अवसर दिया. ग़ज़लों से जानता तो हर शख़्स है पर जीवन से नहीं. इंदौरी जी पर लिखना आमबात नहीं है. यह अदमसाहस की बात है.
    युवा लेखक व् सम्पादक को खूब बधाई.

    Reply
  12. Neetu kumari says:
    2 years ago

    प्रेम और राजनीति दो अलग बातें हैं। राहत इंदौरी इन दोनों को लेकर चलते ही नहीं बल्कि गहराई तक पहुंचकर उसका एहसास भी कराते हैं। राहत जी के शब्दों में निहित भाव पूरी समर्थता से श्रोताओं एवं पाठकों को अपनी जद् में लेती है। तमाम विरोधों के बावजूद ये एक लोकप्रिय शायर रहे हैं और इनकी शायरी कंठ प्रिय। विशेष इन पर लिखना आसान तो नहीं है परंतु लेखक राम लखन जी ने अपनी समझ एवं लेखन कला से इनके लेखनी में निहित कई पक्षों को सामने लाया है जो कि महत्वपूर्ण है। विशेष संपादक महोदय का शुक्रिया नए विचारों को स्थान देने के लिए एवं लेखक राम लखन जी को बधाई एवं शुभकामनाएं।

    Reply

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