वे नायाब औरतें
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किताब की भूमिका की पहली ही पंक्ति अगर यह कहे कि यह तमाम अफसाना खिसकी बंदियों का है, तो इसे पढ़ना, तुरंत पढ़ना लाजिम है. इसलिए भी कि इस बेहद रोचक, दस्तावेजी और संस्मरणात्मक किताब को हमारे समय से अब तक की बेहद अजीज और जानी-मानी लेखिका मदुला गर्ग ने लिखा है. इस किताब के कई हिस्से आत्मकथात्मक है, पर ये बने-बनाए फॉर्मेट से कतई अलग हैं. यादों की पिटारी में पेंडोरा बॉक्स से निकले एक से एक नायाब क़िस्से. लेखिका को इस बात की भी दाद देनी होगी कि उन्हें बचपन की बातें भी इतनी स्पष्ट तौर पर याद हैं. अंदाजे बयां और किस्सागोई का यह चुटीला अंदाज बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिला. बेबाक और बिंदास लेखन का अद्भुत संगम है यह किताब.
लीक से हट कर
वे नायाब औरतें 19 अध्यायों में लिखी गई ऐसी किताब है, जिसके हर अध्याय में लेखिका की जिंदगी में आई जिद्दी, खब्ती, हठी, दिलचस्प, महिला है. लेखिका ने भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया है कि किस्मत ने उन्हें ताजिंदगी ऐसे-ऐसे किरदारों से रूबरू करवाया, जो लीक से हट कर जिंदगी जीती थीं. और ऐसा नहीं है कि इस किताब में सिर्फ स्त्रियों का ही फसाना है. मर्द भी हैं, जो खासे नायाब रहे हैं. बिना स्त्री-विमर्श के बलुआ पंक में फंसे ये किताब उससे कहीं आगे की बात कह जाती है.
लेखिका भूमिका में लिखती हैं,
‘‘स्त्रीवाद के बलुआ पंक में फँसने का अपना तनिक इरादा नहीं है कि छटपट करते भीतर धँसते जाओ पर विमर्श का एक तिनका न दीखे जिसका सहारा ले कर बाहर निकलो, कुछ ज़्यादा ज्ञानी बन कर. हाँ, स्त्री को पुरुष के बराबर सिद्ध करने की तहरीर बेहिसाब मिलीं. जब उस पर हमारा पहले से यक़ीन है तो दूसरों के विमर्श के दलदल में क्यों फँसने जाएं?’’
पूरी किताब में आधुनिक, अपनी तरह की सोच रखने वाली, बुलंद, खब्ती, हुनरमंद, अकलमंद और अनोखी महिलाओं के बेहिसाब किरदार हैं, पर कहीं भी ये किरदार ज्ञान नहीं देते और न किसी विमर्श में उलझते हैं.
वजनी किताब
ये किताब 440 पन्नों में सिमटी हुई है. दिखने में भारी इस किताब के वजन में न जा कर अगर पन्ने दर पन्ने पर किरदारों, उनकी खासियतों, खब्तियतों और कारगुजारियों पर फोकस करें, तो एक वक्त के बाद न यह किताब वजनी रह जाएगी न किसी दिलचस्प उपन्यास से कम.
मैंने इस किताब को विशुद्ध पाठक के तौर पर पढ़ा. दो रात और दिन के कुछ घंटों तक मन ऐसा गुलजार रहा कि लगा ही नहीं कि यह सब कुछ मैं पढ़ रही हूं. ये तमाम किरदार और अफसाने मेरे आगे-पीछे घट रहे थे. जाने-अनजाने और कम जाने नाम कब अपने से हो गए, पता ही नहीं चला. याद रह गए ठहाके, मुस्कराहटें, आंखों में नमी और होंठों पर प्रेम.
चलिए, अब मैं सिलसिलेवार इस किताब पर बात करती हूं.
और माँ…
माँ का खिसका घर, अध्याय जैसे एक विशालकाय और खुले-खुले घर का मुख्य दरवाजा है. यहाँ से भीतर आते ही आप परिवार के रंगारंग, दिलचस्प, अलग-अलग सोच के सदस्यों से मिलते चले जाते हैं. इनमें सबसे विलक्षण और अलग हैं माँ. माँ नाजुक, सुंदर, कभी झूठ न बोलने वाली, देवर-ननदों से खासा प्यार करने वाली, अपनी मुख्तलिफ राय रखने वाली और सबसे बड़ी बात अपने बच्चों से अधिक किताबों से जुनून की हद तक लगाव रखने वाली. ऐसी माँ के अफसाने कम तो क्या ही होंगे. इस पहले ही चैप्टर में स्वर्णा आया जैसी किरदार भी हैं, जिसने पूरे घर को संभाल रखा. चोर के साथ वाला उनका किस्सा तो ऐसा है कि जितनी बार पढ़ेंगे, खिलखिलाकर हंसे बिना नहीं रह पाएंगे. जय देवी.
इस अध्याय का एक किस्सा हाजिर. स्वर्णा आया और चोर का किस्सा तो पहले से स्कूल के अध्याय में होने की वजह से लोकप्रिय है ही. यह किस्सा है माँ का, जो अदब, गायकी, साहित्य में एक सा दखल रखती थीं.
‘‘उस ज़माने में शादियों में बाईजी के मुजरे का आम चलन था. पर होता सिर्फ़ मर्दों की बैठक में. एक बार ममी अड़ गईं कि औरतें इतनी पायेदार मौज़िकी से क्यों महरूम रहें, वे भी बाईजी को सुनेंगी. बड़े अदब-क़ायदे से बाईजी को ज़नानखाने में तशरीफ़ लाने की दावत दी गई. नाज़ोनख़रे के साथ आयीं और मीराबाई के दो आला भजन क्लासिकल अंदाज में गा दिए. बड़ी चाची ने तुनक कर कहा, ‘कोई फड़कती हुई चीज़ सुनाइए न.’
बाईजी ने कानों को हाथ लगा कर कहा, ‘ये तो रूहानी मसर्रत की चीज़ है, इससे बेहतर सुनाने की हमारी ताब नहीं.’
वे बोलीं, ‘वही ग़ज़ल गाइए न, जो मर्दों की महफिल में सुनाती हैं. चिलमन के पीछे से हम भी सुना करती हैं न…’
सख़्त पर शीरीं आवाज़ में उनका जवाब आया, “आप ख़ानदानी बीवियाँ हैं, जो चाहे करें पर हमारी भी कोई इज़्ज़त है. औरतों के बीच हम यह नहीं गाया करतीं.’
तब ममी ने कहा, ‘सुबान अल्लाह! आपकी मौज़िकी और मोजिजबयानी दोनों की जितनी तारीफ़ की जाए कम है, वाह!’ माँ ने कहा, “ये अज़ीम फ़नकार हैं, ख़ुदमुख़्तार, आपकी मर्ज़ी की ताबेदार नहीं.”
बिस्तर से कम उठने वाली ममी, बाईजी के पास गयीं और झुक कर उनके दोनों हाथ अपने हाथ में सहेज लिए.’’
बकौल लेखिका, वो माँ से आगे अपनी बेटियों की दोस्त और राजदार बनती गईं. किताबों, कॉलेज के दोस्तों, रोमाँस सबमें बात होती. यहाँ माँ की एक बात रेखांकित करने लायक है. लेखिका का पहला उपन्यास उसके हिस्से की धूप पढ़ने के बाद माँ ने कहा कि उसे बीए के कोर्स में लगा देना चाहिए, जिससे जवान होती लड़कियाँ जान सकें कि मुहब्बत अपने में हसीन शै है और उसके लिए एक मर्द की दरकार है. पर जो हम हासिल करते हैं, मर्द के नहीं, अपने जरिए करते हैं.
मृदुला गर्ग के परिवार को जैसे-जैसे आप जानने लगते हैं, एक-एक व्यक्ति से मुहब्बत होने लगती है. ऐसा परिवार, पिता अपनी बेटियों पर दिल से मुहब्बत लुटाता है, स्त्रियाँ अपनी तरह से अपने लिए जीने का हौसला रखती हैं. पाँच बहनें मंजुल, मृदुला, चित्रा, रेणु और अचला और एक भाई राजीव.
एक परिवार ऐसा भी
इस भरे-पूरे परिवार की डालों और टहनियों की भी पहुंच हाथों से आगे है. इनकी भी कई-कई क़िस्से-कहानियां हैं. बहनों से आगे, बहन जैसी. अजब-गजब ऐसे किरदार कि लगे किसी हास्य फिल्म का दृश्य पेश कर रहे हों. इस किताब में मेरे कुछ बेहद पसंदीदा अफसानों में से एक हैं सरो, लेखिका की हमउम्र, पिता के मित्र की बेटी, जिसे चीजें चुराने का खब्त था. लेडी इर्विन स्कूल की मालकिन और प्रिंसिपल मिस सेनगुप्त, जो छात्राओं के व्यक्तित्व निखारने को प्रतिबद्ध थीं.
मृदुला जी को ऐसा परिवार मिला, जहाँ माँ साहित्य प्रेमी और अनुरागी थीं तो पिता ऐसे जिन्होंने माँ का नाज-नखरा उठाया और अपनी भी सहेलियों की एक दुनिया बनाई. बकौल लेखिका, पिताजी को औरतें पसंद थीं, कहना अपकथन होगा. बल्कि बेहद दिलकश लगती थीं पर काम के सिलसिले में नहीं. घूमने-फिरने, हँसी-मजाक में हिस्सेदारी और कला की दुनिया में विचरने के लिए मर्दों की बनिस्बत औरतों की सोहबत पसंद थी. मम्मी को जलन न होती, क्योंकि जब पिताजी मुशायरे या कव्वाली या किसी और रंगीनी में शिरकत करने जाते तो उन औरतों को ही नहीं, मम्मी को भी रखते.
सहेलियाँ और सहेला
सहेलियों का यहाँ पूरा जमघट है. नई भी और पुरानी भी. हर एक के क़िस्से अलग-अलग और नायाब. एक सहेली सती और उनकी कुतिया कुलवंत कौर बजाज से जुड़ी घटना ऐसी है, जो किताब पढ़ कर रख देने के बाद भी आपके होंठों पर गुनगुनी मुस्कान की तरह चस्पां रहती है.
विदेशी जमीं पर
किताब के बाद के हिस्से में मृदुला जी की विदेश यात्राओं के दिलचस्प वर्णन और विदेशी सहेलियों के क़िस्से हैं. इन किस्सों में कुछ जाने-पहचाने चेहरे भी हैं. सनकी विदेशी सहेलियां, आह नादिया, वाह नादिया की मार्मिक कहानी. उन्होंने बेहद मारक तरीके से खुशवंत सिंह के कुछ क़िस्से लिखे हैं. इन किस्सों से सरदार जी का व्यक्तित्व का भी पता चलता है और मृदुला जी के चुटकी लेने का अंदाज भी. उन दिनों खुशवंत सिंह के कॉलम के साथ एक बल्ब वाले सरदार जी का रेखाचित्र प्रकाशित होता था, सो लेखिका ने उन्हें बल्ब वाले सरदार जी ही कह कर संबोधित किया है. कई सारे मानीखेज अफसानों के बीच एक अफसाना की कुछ पंक्ति से आपको अनुमान हो जाएगा कि लेखिका की शैली में जब किरदार उतर आते हैं तो कैसा जादू रचते हैं:
“हिन्दुस्तान से हमीं दो थे और एक ही होटल में ठहरे थे. उन्होंने मुझे सीख दी कि पहली रात उसी होटल में खाना चाहिए; अगले दिन से दूसरे ठौर ढूँढ़ने चाहिए. मुझे बात जँच गई और हम खाने के कमरे में पहुँच गये. उन्होंने पूछा, क्या पीऊँगी तो मैंने उनकी तरह बियर के लिए हामी भर दी. खाने की बारी आई तो उन्होंने अपने लिए बीफ़ मँगवाया. मैंने कहा मैं शाकाहारी थी और कॉटेज चीज़ स्टेक मँगवाये. वे ख़ूब हँसे और वही क्लीशे दुहराया, घास-फ़ूस खाती हो जिसे सुन कान पक चुके थे. मैंने कहा, जानवर नहीं खाती, मर्द के भक्षण में एतराज़ नहीं है. उन्होंने पूछा, तुम्हारे चित्तकोबरा में कितना सेक्स है? मैंने कहा, जितना आप ज़िन्दगी भर नहीं कर पाएंगे. यहाँ तक उनका साथ, चलताऊ नोक-झोंक के बावजूद, क़ाबिले बर्दाश्त था. पर जब बैरा बिल लेकर आया और उन्होंने मुझ से कहा, “यू कैन पे (तुम पैसे दो) तो बर्दाश्त से बाहर हो गया. मर्द औरत को डिनर पर बुलाये और उससे बिल अदा करवाये, ऐसी भदेस कंजूसी का पहला तजर्बा था.”
कहीं आगे है स्त्री विमर्श से
मृदुला जी के लिए वैसे तो उनके रूबरू आईं हर स्त्री ही नायाब है. उनकी लेखनी निर्भीक तो है ही, वे बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहती हैं. इस किताब में कहीं स्त्री विमर्श का तमगा नहीं चिपका हुआ, लेकिन एक अंडर करंट हैं. सजग, सहज, शक्तिशाली और साधारण स्त्रियां भी जिस तरह जिंदगी में विभिन्न अवसरों पर मजबूती से डटी रहती हैं, अपनी पहचान को रेखांकित करती हैं और अपनी शर्तों पर चलती और चलाती हैं, ये किरदार और उनकी यात्रा स्त्री विमर्श से कहीं आगे है. इसलिए नई पीढ़ी भी इन किरदारों से उतना ही जुड़ती है, जितनी पुरानी पीढ़ी.
साथी हैं पुरुष
मृदुला जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘एक गुलाम पुरुष से प्रेम की अपेक्षा करना वाजिब नहीं है, जो खुद गुलाम है वह एक स्त्री से कैसे प्रेम करेगा?’
किताब की भूमिका में मृदुला जी लिखती हैं,
‘भले नाम इस फ़साने का वे नायाब औरतें हैं, पर इसमें मर्द भी ख़ूब हैं. अब साहेब, जहाँ औरत होगी, वहाँ मर्द होगा ही. आज़ू-बाज़ू न सही, आगे होने का वहम पाले पीछे आने वाला या कहीं वाक़ई आगे चलने वाला.’
किताब में चाहे पिता का जिक्र हो, भाई का, दोस्तों का या सहेलियों के पति या प्रेमियों का, अपनी जगह वे कतई ईमानदार हैं. लेखिका ने वे नायाब औरतों के चलते पुरुषों को कठघरे में खड़ा नहीं किया है. पुरुष खलनायक नहीं हैं. साथी हैं, वे भी नायाब हैं.
वे क़िस्से, अफसानों में यकसां, बहते चलते हैं. जहाँ जरूरत हैं वहाँ हैं और जहाँ नहीं, वहाँ नहीं. इसलिए यह किताब कहीं से भी एक पक्षीय नहीं लगती, बैलेंस्ड लगती है.
भाई से जुड़ा अफसाना बेहद मार्मिक है. उस क़िस्से की एक बानगी देखिए: पिताजी, जिन्होंने बेटियों को पालने में आयाजी के साथ पूरी जिम्मेदारी निभाई थी, बेटे के पालन-पोषण में नाकम रहे. पिताजी ने उसे वे स्नेह और संरक्षण नहीं दिया, जो बेटियों को देते आए थे. मनोवैज्ञानिक ने उनके रवैये का विश्लेषण करते हुए कहा, ‘वे उन मर्दों में से थे, जो अपनी मर्दानगी पर निस्सार रहते हैं, मंद बुद्धि और कमतर शख्सियत के बेटे को इसलिए प्यार नहीं कर पाते क्योंकि वह उन्हें अपनी छवि धूमिल करता लगता है.’
रिश्तों की ईमानदारी
लेखिका का पारिवारिक जीवन, दोस्तियां, लेखन, प्रोफेशनल जिंदगी और नई जगह और नए लोगों से मिलने का ताब, इतना कुछ है इस किताब में. वे नायाब औरतें बेहद ईमानदार और पारदर्शी किस्सों का खजाना है. इसे पढ़ते-पढ़ते एक बात दिमाग में तुरंत कौंधी कि लेखिका ने बेहद ईमानदारी बरती है, खासकर अपने परिवार और अपने बारे में भी लिखते हुए. वे अपने आपको किसी रुई के फाहे में लपेट कर पेश नहीं करतीं, जैसी जिंदगी जी है उसी तरह पन्नों पर उतार देती हैं.
इस किताब के पीछे मृदुला जी की सालों की मेहनत है. पढ़ते हुए कहीं न कहीं मैं उनके राइटिंग प्रोसेस को भी समझ रही थी और राइटिंग जर्नी को भी. मैंने उनका लिखा उपन्यास उसके हिस्से की धूप अपने कॉलेज के दिनों में पढ़ा था और अचंभित रह गई थी कि एक स्त्री के पास अपना जीवन गढ़ने के लिए ऐसे भी विकल्प हो सकते हैं. उस उपन्यास ने अगर मेरी सोच को माँझा और मुझे समझ दी तो चितकोबरा, कठगुलाब, डेफोडिल जल रहे हैं, मिलजुल मन जैसे उपन्यासों ने एक वृहद कैनवास खोल कर सामने रख दिया. ये सब उनकी जिंदगी के पड़ाव थे, जो कहीं न कहीं साथ-साथ उनके पाठकों भी जोड़ते-रचते जा रहे थे.
मृदुला गर्ग की इस किताब के आने से पहले भी उनकी जिंदगी से जुड़े कई प्रसंगों को हम सब जानते थे. उनकी बहनों के साथ रिश्ते, दिल्ली में हुई उनकी पढ़ाई, फिर शुरुआती लेखन, चितकोबरा के बाद बदलता परिदृश्य और फिर उनके बेटे का एक्सीडेंट.
इस किताब में उन्होंने तफसील से तमाम क़िस्से बयां किए हैं, सुख के भी और दुख के भी. अंत तक आते-आते आप उनके परिवार का एक हिस्सा बन जाते हैं.
जादुई भाषा
वे नायाब औरतें की एक बड़ी खासियत है इसकी जादुई और लटपटी भाषा. उर्दू और हिंदी की वर्जनाओं को तोड़ती हुई ऐसी चुटीली शैली जो पानी की तरह बहती हुई सीधे दिल में उतरती है. भाषा खूब फर्राटे मारती है. और शब्दों का चयन भी कुछ ऐसा जो ‘यकसां’ लुभाता चलता है. अर्से बाद इतनी बहती हुई, चुलबुली, व्यंग्यात्मक और मारक भाषा पढ़ने को मिली है. लेखिका का लेखन का वृहद अनुभव भाषा के स्तर पर भी साफ झलकता है.
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जयंती रंगनाथन
तीन दशकों से मीडिया और लेखन में सक्रिय. छह उपन्यास ‘आसपास से गुजरते हुए’, ‘खानाबदोश ख्वाहिशें’, ‘औरतें रोती नहीं’, ‘एफ ओ जिंदगी’, ‘शैडो’ और ‘मेरी मम्मी की लव स्टोरी’. दो कहानी संग्रह ‘एक लड़की दस मुखौटे’ और ‘गीली छतरी’. फेसबुक नॉवेल ‘30 शेड्स ऑफ बेला’. संस्मरणात्मक उपन्यास ‘बॉम्बे मेरी जान’आदि प्रकाशित . ‘कामुकता का उत्सव’ का संपादन. एचटी स्मार्टकास्ट और spotiy पर नियमित पॉडकास्ट आदि. |
जंयती जी ने बहुत खूबसूरती से किताब के बारे में लिखा। चितकोबरा मैंने पढ़ी तभी से जानने लगी हूं
कि मृदुला गर्ग जी का लेखन अनूठा है।
किताब पढ़ और बहुत कुछ मृदुला जी के बारे में जाना जा सकता है। जल्द ही मंगवाती हूं।
मृदुला गर्ग तो लोकप्रिय लेखिका हैं ही, उन्होंने जिस बेबाकी से, ईमानदारी और सच्चाई से अपने रचना कर्म को सजाया है, वह चिर परिचित अंदाजे बयां साहित्य जगत की अमूल्य थाती है। लेकिन जयंती रंगराजन की समीक्षा जहां पुस्तक को पढ़ने के लिए उत्साहित करती है, वहीं उनकी अनुभवी तथा बेलाग भाषा आनंदित करती है।