• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » आज भी याद आते हैं नंदन जी: प्रकाश मनु » Page 7

आज भी याद आते हैं नंदन जी: प्रकाश मनु

कन्हैयालाल नंदन (१ जुलाई,१९३३ - २५ सितम्बर,२०१०) अपने समय की कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं से जुड़े हुए थे. धर्मयुग के सहायक संपादक, सारिका, दिनमान और पराग के संपादक, तथा साप्ताहिक संडे मेल के प्रधान संपादक आदि उत्तरदायित्वों को संभालते हुए उन्होंने प्रचुर लेखन भी किया, अपने समय के प्रसिद्ध गीतकार थे. प्रकाश मनु ने कन्हैयालाल नंदन के साथ-साथ हिंदी पत्रकारिता के उस युग की अनेक अंतर-कथाओं को भी यहाँ प्रस्तुत किया है. कन्हैयालाल नंदन को स्मरण करते हुए यह संस्मरण प्रस्तुत है.

by arun dev
September 24, 2021
in संस्मरण
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

फिर जाने कैसे जैंनेद्र जी का प्रसंग छिड़ गया. उनके उस इंटरव्यू की चर्चा होनी लगी, जिसमें उन्होंने ‘पत्नी बनाम प्रेमिका’ विषय पर अपने विचार प्रकट किए थे. और बाद में आलोचना होने पर सारा इल्जाम नंदन जी पर धरकर मुकर गए थे. इस पर नंदन जी का जो जवाब ‘धर्मयुग’ में छपा था, मुझे याद था. हालाँकि इसके पीछे की बहुत सी स्थितियाँ जो मुझे पता नहीं थीं, वे उस दिन मालूम पड़ीं और नंदन जी की खुद्दारी भी.

उनकी यही खुद्दारी चितकोबरा प्रसंग में भी उभरकर आई. मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘चितकोबरा’ पर प्रतिक्रिया के रूप में जैनेंद्र जी के कहे पर विवाद छिड़ जाने पर, बहुत से लेखकों ने ताने मारने और व्यंग्य कसने शुरू कर दिए थे. पहले तो नंदन जी चुपचाप सुनते रहे. लेकिन फिर उनके भीतर का ठसके वाला पत्रकार जागा और उन्होंने कहा, “जैंनेद्र जी, एक लेखक के रूप में मैं आपका बेहद सम्मान करता हूँ. और व्यक्तिगत रूप से आप मुझे जो भी चाहे, कह लें. मैं बुरा नहीं मानूँगा. लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन के संपादक का एक सम्मान है. उसका आप इस तरह से अपमान करें, यह ठीक नहीं है.”

और उन्होंने जैनेंद्र जी का भरपूर सम्मान करते हुए भी अपने उस ठसके को निभाया और पूरी दबंगी से निभाया. यह जानते हुए भी कि जैनेंद्र जी के साहू शांतिप्रसाद जैन से संबंध हैं और अच्छे, घनिष्ठ संबंध हैं, उन्होंने अपनी जिद में कोई कमी नहीं आने दी. इसलिए कि यहाँ उनकी जिद एक व्यक्ति नंदन की जिद न होकर, एक पत्रकार या संपादक के स्वाभिमान की जिद थी.

इसी चर्चा में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और रघुवीर सहाय जी से जुड़े कुछ ऐसे मार्मिक प्रसंग भी छिड़ गए कि मेरी आँखें आर्द्र हो गईं. शुरू में जब नंदन जी ‘दिनमान’ के संपादक होकर आए, तो सर्वेश्वर जी के कारण उन्हें बड़ी विचित्र स्थिति झेलनी पड़ी थी. सर्वेश्वर जी ‘दिनमान’ में ‘चरचे और चरखे’ स्तंभ लिखा करते थे. अपने स्तंभ में उन्होंने नंदन जी को संपादक बनाए जाने का विरोध किया. नंदन जी ने इसे देखा, पर कुछ नहीं कहा. उसे वैसा ही जाने दिया. सर्वेश्वर जी के लिए यह चकित करने वाली बात थी.

इसी तरह महीनों निकल गए, पर सर्वेश्वर जी एक बार भी नंदन जी की केबिन में नहीं गए. अगर उन्हें कुछ कहना होगा था तो वे ‘सुनो नंदन…!’ कहकर वहीं से आवाज लगा देते थे. तब एक दिन नंदन जी खुद सर्वेश्वर जी की मेज के पास गए और बोले, “सर्वेश्वर जी, आप तो मेरी केबिन में कभी चाय पीने तक नहीं आए. पर चलिए, अब मैं आपके पास चाय पीने आया हूँ.”

नंदन जी की इस सरलता और आदर भाव ने सर्वेश्वर जी के दिल को छू लिया. फिर तो उनके संबंधों में इतनी प्रगाढ़ता हो गई, कि सर्वेश्वर जी अपने मन की हर बात नंदन जी को बता दिया करते थे.

अपने जीवन के आखिरी चरण में सर्वेश्वर जी जब थोड़े निराश हो चले थे, नंदन जी ने ‘पराग’ पत्रिका के संपादक के लिए उनके नाम को आगे बढ़ाया, और अपने प्रयत्नों में सफल भी हुए. यह बात सर्वेश्वर जी को पता चली तो उन्होंने नंदन जी के प्रति गहरी कृतज्ञता प्रकट की थी.

धर्मवीर भारती जी से जुड़े कुछ प्रसंग भी नंदन जी ने सुनाए. ‘धर्मयुग’ में भारती जी के साथ काम करते हुए, नंदन जी को बहुत अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ा. पर फिर भी नंदन जी के मन में भारती जी के प्रति गहरे सम्मान की भावना थी, और वह अंत तक रही. वे पत्रकारिता में उन्हें अपना गुरु मानते थे. लिहाजा जब भी उन्होंने किसी नई पत्रिका का संपादन भार सँभाला, तो पहला पत्र वे हमेशा धर्मवीर भारती जी को ही भेजते थे, और उनका आशीर्वाद माँगते थे.

इसी तरह रघुवीर सहाय नंदन जी को ज्यादा पसंद नहीं करते थे. पर एक छोटे से प्रसंग में जब उन्होंने नंदन जी की अपने प्रति अतिशय विनय और सम्मान की भावना देखी, तो वे अवाक रह गए. यह उनके लिए लगभग अप्रत्याशित था. उन्होंने नंदन जी से कहा, “क्षमा करें, आपको लेकर मेरे मन में कुछ गलतफहमी थी.”

नंदन जी ने बड़ी विनम्रता से कहा, “सहाय जी, मेरे लिए यही बड़ी बात है कि अब आपकी वह गलतफहमी दूर हो गई.”

नंदन जी जब ये प्रसंग सुना रहे थे, तब उनके चेहरे पर कोई अभिमान नहीं, बल्कि साहित्य और साहित्यकारों के लिए गहरे आदर और विनम्रता का ही भाव था. मानो इन बड़े और समर्पित साहित्यकारों के लिए कुछ करके, वे स्वयं ही कृतार्थ हो रहे हों. यों भी, मैंने कई बार महसूस किया कि बड़े साहित्यकारों के आगे झुकना उनके स्वभाव में था, और इसमें उन्हें बड़ा आत्मिक सुख मिलता था.

इससे नंदन जी के व्यक्तित्व का एक बिल्कुल अलग पहलू मेरी आँखों के आगे आया, जिसे भूल पाना मेरे लिए कठिन है.

हाँ, उस साहित्यिक गोष्ठी की बात तो रह ही गई जिसमें शामिल होने के लिए हम लोग कानपुर गए थे. हम सभी लेखकों को अपनी रचना-यात्रा के बारे में कहना था, सभी ने कहा भी. पर नंदन जी का ‘कनपुरिया’ स्टाइल सबसे अलग था. उन्होंने साहित्य में पाठकों की कभी और खासकर किताबें खरीदकर पढ़ने वाले पाठकों की कमी की ओर इशारा किया कि इससे हिंदी के लेखकों की स्थिति दुर्बल होती है. लेकिन फिर जल्दी ही उन्होंने साहित्य की चिंतनधारा को कानपुर की टूटी-फूटी, गंदी सड़कों और पर्यावरण की ओर मोड़ दिया. बोले, “यहाँ की सड़कें इतनी गंदी और टूटी-फूटी हैं, तो आप लोग मिलकर आंदोलन क्यों नहीं करते?”

और मुझे याद आया, बरसों पहले मेरे पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि पत्रकारिता का मतलब कोरा पत्रकार होना थोड़े ही हैं! उसे जीवन के हर क्षेत्र और हर विषय की अच्छी जानकारी होनी चाहिए.

नंदन जी की कविताओं की भी खासी धूम रही है. वे कवि सम्मेलनों में छा जाने वाले कवियों में से थे. श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे. उनकी कविताओं की दो पुस्तकें छपी हैं और स्वयं उनके मुख से भी उनकी कुछ बेहतरीन कविताएँ सुनने का मुझे सौभाग्य मिला है. इनमें ईश्वर को संबोधित एक कविता तो मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा. तो भी नंदन जी की छवि मेरी आँख के आगे एक लेखक नहीं, पत्रकार की ही ठहरती है. वे कविताएँ लिखते हैं, लगातार लिखते आए हैं और बुरी तो हरगिज नहीं लिखते. लेकिन तो भी वे मुझे जितने बड़े पत्रकार लगते हैं, उतने बड़े कवि नहीं. ये मूलत: पत्रकार ही हैं और पत्रकारों की जो बड़ी पीढ़ी हमने देखी है, उसकी आखिरी और महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में उन्हें हमेशा आदर के साथ याद किया जाएगा.

मुझे याद है, एक दफा यों ही बातों-बातों में मैंने उनसे पूछा था, “आपके जीवन का सबसे बड़ा सपना क्या है?” सुनकर उन्होंने कहा, “एक ऐसा अखबार निकालना, जिसमें मेरी पूरी टीम मेरे साथ हो और अपने ढंग से काम करने और कुछ कर दिखाने की पूरी छूट हो. मेरा खयाल है कि वह हिंदी का एक अनोखा अखबार होगा. पर वह चल कितना पाएगा, कह नहीं सकता.” कहते-कहते एक शरारती हँसी उनके होंठों से छलक पड़ी थी.

नंदन जी गंभीर होकर जितनी ‘अगंभीर’ बातें और अगंभीर होकर जितनी गंभीर बातें कर लेते हैं, वैसी सामर्थ्य वाले हिंदी में शायद बहुत कम लेखक मिलेंगे. और आप माने न मानें, मुझे तो यह भी एक बड़े पत्रकार के रूप में उनके सफल होने का एक राज लगता है. उनका यह अंदाज ऊपर से थोड़ा हुआ नहीं, कहीं भीतर से आता है और इससे उनके कहे में एक अलग ताकत और पुख्ताई आ जाती है.

मैंने अकसर देखा है, यों ही खेल-खेल में, वे आम जीवन का एक मामूली सा शब्द उठा लेते हैं, मगर जब वह उनकी भाषा की रवानगी में शामिल होता है तो फिरकनी की तरह नाचने लगता है और कुछ ऐसा कह जाता है, जिसे ‘किताबी लोगों की किताबी भाषा’ नहीं कह पाती. यही नंदन जी का ‘ठेठ हिंदी का ठाट’ है, जिससे उनके लिखे गद्य में एक अलग गूँज पैदा हो जाती है. ‘जरिया नजरिया’ के रूप में लिखे गए नंदन जी के तमाम संपादकीय और टिप्पणियाँ इसी वजह से बार-बार पढ़े जाने की माँग करती हैं.

नंदन जी और गुच्छों के रूप में मौजूद आज के तमाम पत्रकारों के बीच असली फर्क ही यही है. लोग कहते हैं—तमाम लोग कहते हैं, पर उनके कहने का कोई अलग अंदाज नहीं होता. मगर नंदन जी के पास बात तो थी ही, बात कहने का एक बिल्कुल अलग अंदाज भी था, जो उन्हें हिंदी के पत्रकारों की एक दुर्लभ होती बिरादरी की बड़ी प्रमुख और महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित करता था.

देश की आजादी के बाद हिंदी के पत्रकारों की जो दो-तीन पीढ़ियाँ सबसे अधिक सक्रिय, जिम्मेदार और कर्मशील रही हैं, उनमें नंदन जी निश्चय ही शिखरस्थ पत्रकारों में हैं. यह दीगर बात है कि टाइम्स आफ इंडिया के मालिकों से संबंधों को लेकर, नंदन जी के बारे में जब-तब कुछ गलतफहमियाँ और अटपटी किंवदंतियाँ भी कानों में पड़ जाती थीं. वे कितनी सही, कितनी गलत हैं, मैं कह नहीं सकता. पर अगर वे सही हैं, तो भी एक शिखरस्थ पत्रकार होने की उनकी हैसियत को इससे चुनौती नहीं मिलती. सच तो यह है कि वे अपना प्रतिमान आप थे.

हिंदी में व्यक्तिवहीन पत्रकारों की अपरंपार भीड़ के बीच नंदन जी को एक ऐसे बड़े पत्रकार के रूप में याद किया जाना चाहिए, जो अंत तक निरंतर अपनी ‘धमक’ बनाए रहे. साथ ही, जिसके लेखन और संपादन-कर्म के पीछे उसका ठोस व्यक्तित्व, स्वाभिमान और ‘ठेठ हिंदी का ठाट’ है. और संपादक की इन बड़ी उपलब्धियों के पीछे एक सदाबहार शख्स और शख्सियत की निरंतर सक्रियता को भी चीन्हा जा सकता है.

कभी बातों-बातों में नंदन जी ने मुझे अपना एक बड़ा ‘राज’ बताया था कि जीवन के हर पड़ाव पर उन्हें एक राजदार व्यक्ति की जरूरत हमेशा रही है, जिसे वे सब कुछ कहकर मुक्त हो सकें. यहाँ इसमें सिर्फ इतना जोड़ना और काफी है कि किसी ‘राजदार’ को खोजता हुआ नंदन जी का ‘यारबाश’ और हरफनमौला व्यक्तित्व ही, उन्हें इतना बड़ा जिंदादिल और असाधारण पत्रकार बनाता है.

_____________

प्रकाश मनु,
545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. 09810602327,
ईमेल – prakashmanu333@gmail.com

Page 7 of 7
Prev1...67
Tags: कन्हैयालाल नंदनप्रकाश मनु
ShareTweetSend
Previous Post

आज के समय में मैनेजर पाण्डेय: रविभूषण

Next Post

पाण्डुलिपि के पृष्ठों पर बहस: पंकज कुमार बोस

Related Posts

विष्णु खरे की आत्मकहानी : प्रकाश मनु
आत्म

विष्णु खरे की आत्मकहानी : प्रकाश मनु

देवेंद्र सत्यार्थी से प्रकाश मनु की बातचीत
बातचीत

देवेंद्र सत्यार्थी से प्रकाश मनु की बातचीत

प्रकाश मनु : सदाशय पारदर्शिता: गिरधर राठी
आलेख

प्रकाश मनु : सदाशय पारदर्शिता: गिरधर राठी

Comments 4

  1. रमेश अनुपम says:
    4 years ago

    हम लोगों ने नंदन जी को लगभग भुला ही दिया है ।अच्छा लगा कि ’समालोचन’ ने प्रकाश मनु के बहाने उन्हें याद किया ।बधाई

    Reply
  2. Anand Vishvas says:
    4 years ago

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति

    Reply
  3. रमेश तैलंग says:
    4 years ago

    मनु भाई, नंदन जी पर आपका संस्मरण पूरा पढ़ डाला। आप जब भी लिखते हो एक पूरा दौर आंखों से गुज़र जाता है। नंदन जी से मुझे इसलिए ज्यादा लगाव था कि उन्होंने पराग में मुझे लगातार छापा। उनके कई चिट्ठियां मेरे पास थें पर वह सारी निधि दिल्ली में ही नष्ट हो गई। यह अफसोस मुझे रहेगा। पराग से मेरी एक बाल कविता ” हुई छुट्टियां अब पहाड़ों पर जाएं,झरनों की कलकल के संग गुनगुनाएं, धरती को छाया दिए जो खड़ा है, चलो उस गगन से निगाहें मिलाएं ” को स्वीकृत करते हुए लिखा था – आजकल तुमपर गीतों की बहार आ गई है।।। फिर उन्होंने दरियागंज वाले आफिस में भी बुलाया था जहां संयोग वश मेरी मुलाकात स्व. योगराज थानी और स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हो गई थी। योगराज थानी खेल संपादक थे इसलिए उनसे तो नही सर्वेश्वर जी से मिलके बहुत ही खुशी हुई थी। पर सबकुछ वक़्त की धार में बह गया। मनु भाई, आपके उम्दा संस्मरण की बात कर रहा था, अपने पे आ गया।मेरा तो जो कुछ है वह कुल मिलाकर आपका ही है। बस,अब सिर में दर्द हो रहा है फिर नार्मल हुआ, संपर्क करूँगा। एक अलग काम भी शुरू करने को था फोकस ऑन चिल्ड्रन child issues पर पत्रिका है छोटी सी, पर अस्वस्थता के कारण आगे टाल दी एकदो महीने को। फिलहाल मैडिटेशन में लग गया हूँ। नंदन जी पर संस्मरण दोबारा पढूंगा मन नहीं भरा। सादर, रमेश

    Reply
  4. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    ग़ालिब छूटी शराब में रविन्द्र कालिया ने अपने संस्मरण में धर्मयुग के दमघोंटू माहौल और बतौर संपादक भारती जी के आतंक पर भी बहुत कुछ लिखा है। मसलन,अन्य पत्रिकाओ के स्टाफ धर्मयुग के दफ़्तर को कैंसर वार्ड कहा करते थे। उसी प्रसंग में एक बार भारती जी ने कालिया जी से कहा कि मैनेजमेंट नंदन जी के कार्य से खुश नहीं है। अगर एक प्रतिवेदन तैयार करो कि मातहतों से उनका व्यवहार अच्छा नहीं ,सबको षड़यंत्र के लिए उकसाते हैं एवं अयोग्य हैं, तो मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ ।लेकिन कालिया जी इसके लिए तैयार नहीं हुए।उन्होंने लिखा है कि नंदन जी में और कोई ऐब भले ही रहा हो पर ये आरोप निराधार थे। मुझे लगता है कि नंदन जी अत्यंत गरीबी से आये थे और पत्रकारिता ही उनकी रोजी-रोटी थी इसलिए उनमें एक असुरक्षा की भावना थी। उनका तेवर कभी विद्रोही नहीं रहा।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक