बीच के एक छोटे से अंतराल के बाद नंदन जी से मेरी मुलाकातों का अगला दौर शुरू हुआ था सन् 1993 में, जब विजयकिशोर मानव ‘रविवासरीय’ से अलग हो गए थे. इस बीच ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में ऊपरी स्तर पर बहुत कुछ बदला था. मानव जी ने रविवासरीय को एक शानदार ऊँचाई दी थी, इसके बावजूद उन्हें हटाना जरूरी समझा गया. शायद इसलिए कि वे अपने ढंग से काम करने वाले संपादक थे और अपने काम में कोई दखल बर्दाश्त नहीं करते थे. और मानव जी नहीं थे तो मुझे रविवासरीय में लिख पाने की वह स्वतंत्रता मिलनी तो मुश्किल थी, जो मानव जी के होते मुझे हासिल थी. इसके बिना लिखने की मेरी कोई इच्छा भी न थी. जो भी लिखूँ, उसमें मेरे मन की सच्चाई और हृदय का पूरा वेग हो, बस, यही चीज मुझे लिखने के लिए उकसाती थी. और इसमें मैं किसी भी तरह के दबाव को स्वीकार करने के लिए राजी नहीं था.
यहाँ तक कि मानव जी के आग्रह पर महीनों की मेहनत से बाल कविता की विकास-यात्रा पर एकदम अलहदा नजरिए से लिखा गया बड़ा ही रोचक और रसपूर्ण लेख भी मुझे वापस लेना पड़ा. वह ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में तीन किस्तों में छपना था. इतनी मेहनत उस पर हुई थी, कि मुझे थोड़ा अफसोस हुआ. पर फिर उसके लिए रास्ता निकल आया. गिरधर राठी जी उन दिनों साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के संपादक थे, और पत्रिका के अंक बेहद शानदार निकल रहे थे.
मैंने बहुत झिझकते हुए राठी जी को पूरी स्थिति बताई और वह लेख देख लेने का आग्रह किया. राठी जी को वह बेहद पसंद आया. बड़ी प्रमुखता से उऩ्होंने उसे पत्रिका में छापा, जिस पर वरिष्ठ साहित्यकारों की बहुत अच्छी प्रतिक्रियाएँ और पत्र मुझे मिले. बाद में उसी को केंद्र में रखकर मैंने हिंदी बाल कविता का इतिहास लिखा.
पर ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में निरंतर लिखने का जो सिलसिला था, वह तो थम सा ही गया था. मानव जी मेरी स्थिति समझ रहे थे. उन्होंने दो-एक बार कहा, “आप नंदन जी से क्यों नहीं मिलते? अब तो वे आपको अच्छी तरह जानते हैं. ‘संडे मेल’ में आप उसी तरह लिख सकते हैं, जैसे यहाँ रविवासरीय में लिख रहे थे.”
पर मैं टालता रहा.
आखिर थोड़े अंतराल के बाद नंदन जी से फिर से मुलाकात का सिलसिला शुरू हुआ. हालाँकि इस बार भी उत्प्रेरक बने मानव ही. वही नंदन जी के पास मुझे ले गए. और वहाँ जाकर उन्होंने जो पहला वाक्य कहा, वह मुझे अब भी याद है, “भाईसाहब, मैं अपने मित्र को आपके सुपुर्द करके जा रहा हूँ. अब यह आपके लिए लिखेंगे. मैंने इनसे यही कहा है कि ये आपमें और मुझमें कोई फर्क न समझें.”
उस दिन के बाद से नंदन जी के साथ संबंधों में एक नया आयाम जुड़ा—संपादक और लेखक वाला रिश्ता. नंदन जी के संपादक के रूप में मैंने कई तरह की प्रचारित बातें सुनी हैं, लेकिन उनके संपादक के साथ मेरा संबंध सचमुच गरिमायुक्त और शानदार रहा. मैंने उन्हें लेखकों को अपने विचार प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता देने वाला एक बड़ा संपादक ही पाया. उन्होंने कभी किसी से हिसाब-किताब बराबर करने के लिए मेरा इस्तेमाल नहीं करना चाहा और न कभी अपने संबंध मुझ पर थोपने चाहे. यहाँ तक कि बहुत बार उनके मित्रों की किताबों पर मैंने लिखा और बेतरह कठोरता के साथ लिखा. लेकिन उन्होंने एक भी शब्द संपादित किए बगैर उसे छापा.
इस बारे में अजित कुमार के संस्मरणों की पुस्तक ‘निकट मन में’ पर लिखे गए मेरे लंबे आलोचनात्मक लेख और उस पर कई अंकों तक चली बहस खुद में एक इतिहास बन गई. ऐसे ही चार खंडों में छपे राजेंद्र यादव जी के संपादकीयों के संचयन पर मैंने बहुत मेहनत करके लेख लिखा था, ‘अंधी गली में भटकता विचारों का काफिला’, जिसे नंदन जी ने ‘संडे मेल’ के दो अंकों में बड़ी धूमधाम के साथ छापा था. लेख में मैंने न सिर्फ राजेंद्र जी के वैचारिक अंतर्विरोधों को पकड़ा था, बल्कि चीजों को जबरन सनसनीखेज और नकारात्मक बनाने की उनकी प्रवृत्ति पर भी गहरी चोट की थी.
राजेंद्र जी के कहानीकार का मैं काफी प्रशंसक था. उनसे मेरा किसी किस्म का कोई मन-मुटाव न था. बल्कि मैं एक तरह से उनका सम्मान ही करता था. पर कुछ समय से वे ‘हंस’ के संपादकीयों के जरिए जिस तरह की उत्तेजक बहसें, सेक्स और देहवादी विचारों को आगे बढ़ा रहे थे, उसे मैं अच्छा नहीं समझता था. लेख में उसी पर चोट थी, बल्कि कहना चाहिए, बड़ी करारी चोट थी. मैं नहीं समझता कि हिंदी का कोई और संपादक उसे इस ढंग से छाप और प्रचारित कर सकता था. इस लिहाज से कम से कम हिंदी पत्रकारिता का कोई और ‘शोमैन’ नंदन जी के मुकाबले का नहीं है, यह मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ.
उन्हीं दिनों मैं पत्रकारिता पर केंद्रित अपने उपन्यास ‘यह जो दिल्ली है’ पर काम कर रहा था. उपन्यास पूरा हुआ तो मैंने नंदन जी से कहा, “आप पत्रकार हैं और यह पत्रकारिता पर लिखा गया उपन्यास है. एक तरह से दिल्ली में पत्रकारिता के मेरे दस वर्ष के अनुभव इस किताब में किसी न किसी रूप में आए हैं. तो मेरी इच्छा है कि आप इसे पढक़र अपनी बेबाक राय दें. उसी को मैं इस किताब में भूमिका के रूप में शामिल कर लूँगा.”
उपन्यास की पांडुलिपि मैंने नंदन जी के पास छोड़ दी थी. उसे जिस तल्लीनता के साथ उन्होंने पढ़ा, उस पर अपनी बेबाक प्रतिक्रिया, यहाँ तक कि कई बढ़िया सुझाव भी दिए, वह सब मेरे लिए एक न भूलने वाला अनुभव है. ‘यह जो दिल्ली है’ पढ़कर जो पत्र उन्होंने मुझे लिखा था, वही उपन्यास की भूमिका के रूप में छपा है और उसी को नंदन जी ने ‘संडे मेल’ के एक संपादकीय के रूप में बड़ी प्रमुखता के साथ छापा था. यहाँ तक कि ‘यह जो दिल्ली है’ के भी कई अंश ‘संडे मेल’ में धारावाहिक छपे और खासी धूमधाम के साथ छपे. इसके अलावा बीच-बीच में वहाँ थोड़ा-बहुत लिखने का सिलसिला तो चल ही रहा था.
मेरे लिए सबसे खुशी की बात यह थी कि एक लेखक के रूप में नंदन जी ने मुझे पूरी आजादी दी थी. उनका हर बार यही कहना होता था, “मैं खुद को तुम पर थोपना नहीं चाहता, क्योंकि ऐसा करने का मतलब तो तुम्हारी हत्या होगी. इसके बजाय मैं चाहता हूँ कि जो तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ है, वह सामने आए.”
यही नहीं, वे मेरी कितनी चिंता करते थे, यह भी मुझसे छिपा न रहा. एक छोटी सी घटना याद आ रही है. उस दिन मैं ‘संडे मेल’ में उनसे मिलने गया था. बातों-बातों में काफी देर हो गई. शाम को दफ्तर बंद होने के बाद उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी में ही बैठा लिया, ताकि मुझे आश्रम तक छोड़ दें. वहाँ से फऱीदाबाद की बस मिल जाती थी. रास्ते में उनसे बातें चल पड़ीं. अचानक बहुत भावुक होकर मैंने कहा, “नंदन जी, मेरी इच्छा है कि मैं आपके साथ काम करूँ! जिस दिन आप कहेंगे, मैं अपनी नौकरी छोड़कर आ जाऊँगा.”
इस पर नंदन जी ने मेरी भावुकता पर विराम लगाते हुए कहा, “नहीं प्रकाश अभी ‘संडे मेल’ के हालात इतने अच्छे नहीं है. जिस दिन हो जाएँगे, तभी मैं तुमसे कहूँगा.”
उस दिन उनकी यह बात मुझे बहुत प्रिय नहीं लगी थी. पर उसके कुछ महीने बाद ही ‘संडे मेल’ के बंद होने की खबर मिल गई. तब नंदन जी की कही हुई बात पर मेरा ध्यान गया और मैंने मन ही मन उन्हें शुक्रिया कहा. इसलिए कि ‘संडे मेल’ में जाने पर मैं बीच अधर में ही लटक जाता, जबकि अभी मेरी गृहस्थी कच्ची थी और बच्चे बहुत छोटे थे. ऐसे में ‘संडे मेल’ में जाता तो उसके बंद होने पर, कोई नई नौकरी खोज पाना मेरे जैसे सीधे-सादे, भावुक और अव्यावहारिक आदमी के लिए बहुत आसान नहीं था.
हम लोगों ने नंदन जी को लगभग भुला ही दिया है ।अच्छा लगा कि ’समालोचन’ ने प्रकाश मनु के बहाने उन्हें याद किया ।बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
मनु भाई, नंदन जी पर आपका संस्मरण पूरा पढ़ डाला। आप जब भी लिखते हो एक पूरा दौर आंखों से गुज़र जाता है। नंदन जी से मुझे इसलिए ज्यादा लगाव था कि उन्होंने पराग में मुझे लगातार छापा। उनके कई चिट्ठियां मेरे पास थें पर वह सारी निधि दिल्ली में ही नष्ट हो गई। यह अफसोस मुझे रहेगा। पराग से मेरी एक बाल कविता ” हुई छुट्टियां अब पहाड़ों पर जाएं,झरनों की कलकल के संग गुनगुनाएं, धरती को छाया दिए जो खड़ा है, चलो उस गगन से निगाहें मिलाएं ” को स्वीकृत करते हुए लिखा था – आजकल तुमपर गीतों की बहार आ गई है।।। फिर उन्होंने दरियागंज वाले आफिस में भी बुलाया था जहां संयोग वश मेरी मुलाकात स्व. योगराज थानी और स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हो गई थी। योगराज थानी खेल संपादक थे इसलिए उनसे तो नही सर्वेश्वर जी से मिलके बहुत ही खुशी हुई थी। पर सबकुछ वक़्त की धार में बह गया। मनु भाई, आपके उम्दा संस्मरण की बात कर रहा था, अपने पे आ गया।मेरा तो जो कुछ है वह कुल मिलाकर आपका ही है। बस,अब सिर में दर्द हो रहा है फिर नार्मल हुआ, संपर्क करूँगा। एक अलग काम भी शुरू करने को था फोकस ऑन चिल्ड्रन child issues पर पत्रिका है छोटी सी, पर अस्वस्थता के कारण आगे टाल दी एकदो महीने को। फिलहाल मैडिटेशन में लग गया हूँ। नंदन जी पर संस्मरण दोबारा पढूंगा मन नहीं भरा। सादर, रमेश
ग़ालिब छूटी शराब में रविन्द्र कालिया ने अपने संस्मरण में धर्मयुग के दमघोंटू माहौल और बतौर संपादक भारती जी के आतंक पर भी बहुत कुछ लिखा है। मसलन,अन्य पत्रिकाओ के स्टाफ धर्मयुग के दफ़्तर को कैंसर वार्ड कहा करते थे। उसी प्रसंग में एक बार भारती जी ने कालिया जी से कहा कि मैनेजमेंट नंदन जी के कार्य से खुश नहीं है। अगर एक प्रतिवेदन तैयार करो कि मातहतों से उनका व्यवहार अच्छा नहीं ,सबको षड़यंत्र के लिए उकसाते हैं एवं अयोग्य हैं, तो मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ ।लेकिन कालिया जी इसके लिए तैयार नहीं हुए।उन्होंने लिखा है कि नंदन जी में और कोई ऐब भले ही रहा हो पर ये आरोप निराधार थे। मुझे लगता है कि नंदन जी अत्यंत गरीबी से आये थे और पत्रकारिता ही उनकी रोजी-रोटी थी इसलिए उनमें एक असुरक्षा की भावना थी। उनका तेवर कभी विद्रोही नहीं रहा।