‘संडे मेल’ बंद होने के बाद भी नंदन जी से जब-तब मुलाकातें होती रहीं. और हर बार मैंने उनकी आँखों में वही गहरे विश्वास से लबालब कौंधती हुई मुसकान पाई, जिसने उनके साथ मानवीय रिश्ते की ऊर्जा को कभी छीजने नहीं दिया.
एक बार प्रगति मैदान में पुस्तक मेले में उनसे मुलाकात हुई और मैंने उन्हें बताया कि ‘राजकमल’ से ‘यह जो दिल्ली है’ का पेपर बैक संस्करण आ गया है, तो उन्होंने बेहद प्रसन्नता और संतुष्टि प्रकट की थी. ऐसी कई मुलाकातें मुझे एक के बाद एक याद आ रही हैं. लेकिन मैं उनसे किसी लंबी और अंतरंग मुलाकात की प्रतीक्षा में था. इसका मौका भी जल्दी मिल गया, कानपुर यात्रा में, जो एक तरह से मेरी पहली साहित्यिक यात्रा थी.
मैं रामदरश जी के आग्रह पर एक लेखक सम्मेलन में भाग लेने के लिए कानपुर गया था और उसमें दिल्ली से रामदरश जी के अलावा हिमांशु जोशी, महीप सिंह, प्रदीप पंत और नंदन जी शामिल हुए थे. जिस राजधानी एक्सप्रेस से हमें जाना था, उसके एक कंपार्टमेंट में मैं रामदरश जी और महीपसिंह थे, नंदन जी और जोशी जी अलग कंपार्टमेंट में थे. मैं रामदरश जी के साथ वाली सीट पर था.
थोड़ी देर के लिए मैं बाहर टहलने के लिए निकला. लौटा तो देखा, मेरी सीट पर नंदन जी जमे हैं. मजे में रामदरश जी से बतिया रहे हैं.
मैंने खुश होकर कहा, “यह तो अच्छा हुआ नंदन जी. मैं आपसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था.”
“तो ठीक है, फिर तो मैं यहीं रह जाता हूँ.” कहते-कहते नंदन जी के होंठों पर बड़ी प्रफुल्लित मुसकान सज गई. बोले, “टीटी से कहूँगा कि मेरी सीट यहाँ शिफ्ट कर दे. वहाँ किसी और को भेज दे.”
“टीटी मान जाएगा?” मैंने विस्मय से आँखें पटपटाईं, “वे आम तौर से नहीं मानते?”
“हाँ, मगर कहने वाले नंदन जी हों तो भला वे क्यों नहीं मानेंगे? जरूर मान जाएँगे राजा.” नंदन जी विनोद भाव से हँसे.
वे अपने पूरे मूड में थे. उस दिन कंपार्टमेंट के पीछे वाली कुछ सीटें खाली थीं. हम लोग वहीं जाकर बैठे और गाड़ी चल दी. टिकट चेकर आया तो मैंने उसे बताया कि नंदन जी की सीट बगल वाले कंपार्टमेंट में है, लेकिन ये हमारे साथ ही बैठेंगे. इसमें कहीं कुछ दिक्कत तो नहीं है?
वह नंदन जी को पहचानता था. मुसकराता हुआ बोला, “नहीं साहब, आप लोग ठाट से बैठिए.” और चला गया.
उस दिन दिल्ली से कानपुर तक की यात्रा में नंदन जी के मुख से इतनी कविताएँ, इतने गीत सुने और इस कदर झूम-झूमकर, लहर-लहरकर और आत्मिक आनंद से ऊभ-चूभ होकर वे उसे सुना रहे थे कि शब्द भले ही याद न रहे हों, लेकिन नंदन जी की वे मुद्राएँ और अदाएँ, मस्ती और बाँकपन मैं तो सात जन्मों तक नहीं भूल सकता. जो कविताएँ उन्होंने सुनाईं, वे सिर्फ उनकी ही नहीं थीं, उनके प्रिय मित्रों की भी थीं. और वे इस कदर तल्लीन होकर सुना रहे थे कि उन कविताओं की भीतरी शक्ति और अर्थ खुल-खुल पड़ते थे.
उस दिन पहली बार मैंने यह जाना कि नंदन जी इतना अच्छा गाते भी हैं और इतना अच्छा जमते और जमाते भी हैं. बीच-बीच में कुछ हलके-फुलके प्रसंग याद आते तो वे भी झूमते-झामते संग चल पड़ते. हर पल छेड़-छाड़, मस्ती और हास्य-विनोद की गुदगुदी.
थोड़ी देर बाद महीप सिंह उठकर उधर आए, तो उन्हें भी खींच लिया गया. और फिर एक नई लौ, एक नई शरारत का शरारा! मालूम ही नहीं पड़ता था कि हम गाड़ी में यात्रा कर रहे हैं या किसी अंतरंग घरेलू गोष्ठी में बैठे हैं.
उसी यात्रा में जब महीपसिंह फिर से उठकर अपनी दूरस्थ सीट पर चले गए और रामदरश जी कुछ निंदासे होकर अपनी सीट पर ऊँघने लगे, मैंने मौके का फायदा उठाकर बातचीत के कुछ छूटे हुए सूत्रों को लेकर फिर से चर्चा छेड़ दी. और देखते ही देखते यह चर्चा गंभीर और गफिन होती गई, बहुतेरे आगे-पीछे के प्रसंग और संदर्भ इससे जुड़ते चले गए. इसमें नंदन जी की नेपाल यात्रा का प्रसंग भी था, जिसमें खुद को मुख्य धारा का कवि मानने वाले बहुत से कवि फीके पड़ गए थे और नंदन जी की कविताओं ने श्रोताओं का मन मोह लिया था.
जब वे हॉल से उठकर जा रहे थे तो मुख्य धारा के एक चर्चित कवि ने, जो शराब में बुरी तरह धुत थे और डगमगा रहे थे, नंदन जी की और उँगली उठाकर कहा, “नंदन जी, आपमें पोटेंसी तो बहुत है, लेकिन जरा खुद को थोड़ा सँभालिए!” कहते-कहते मुख्य धारा के कवि लडख़ड़ाकर गिर गए.
इस पर नंदन जी ने सिर्फ इतना ही कहा, “ठीक है, लेकिन फिलहाल तो पहले आप खुद को सँभालिए.”
बिना कुछ कहे, करारी चोट कैसे की जा सकती है, यह नंदन जी से सीखना चाहिए.
हम लोगों ने नंदन जी को लगभग भुला ही दिया है ।अच्छा लगा कि ’समालोचन’ ने प्रकाश मनु के बहाने उन्हें याद किया ।बधाई
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
मनु भाई, नंदन जी पर आपका संस्मरण पूरा पढ़ डाला। आप जब भी लिखते हो एक पूरा दौर आंखों से गुज़र जाता है। नंदन जी से मुझे इसलिए ज्यादा लगाव था कि उन्होंने पराग में मुझे लगातार छापा। उनके कई चिट्ठियां मेरे पास थें पर वह सारी निधि दिल्ली में ही नष्ट हो गई। यह अफसोस मुझे रहेगा। पराग से मेरी एक बाल कविता ” हुई छुट्टियां अब पहाड़ों पर जाएं,झरनों की कलकल के संग गुनगुनाएं, धरती को छाया दिए जो खड़ा है, चलो उस गगन से निगाहें मिलाएं ” को स्वीकृत करते हुए लिखा था – आजकल तुमपर गीतों की बहार आ गई है।।। फिर उन्होंने दरियागंज वाले आफिस में भी बुलाया था जहां संयोग वश मेरी मुलाकात स्व. योगराज थानी और स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से हो गई थी। योगराज थानी खेल संपादक थे इसलिए उनसे तो नही सर्वेश्वर जी से मिलके बहुत ही खुशी हुई थी। पर सबकुछ वक़्त की धार में बह गया। मनु भाई, आपके उम्दा संस्मरण की बात कर रहा था, अपने पे आ गया।मेरा तो जो कुछ है वह कुल मिलाकर आपका ही है। बस,अब सिर में दर्द हो रहा है फिर नार्मल हुआ, संपर्क करूँगा। एक अलग काम भी शुरू करने को था फोकस ऑन चिल्ड्रन child issues पर पत्रिका है छोटी सी, पर अस्वस्थता के कारण आगे टाल दी एकदो महीने को। फिलहाल मैडिटेशन में लग गया हूँ। नंदन जी पर संस्मरण दोबारा पढूंगा मन नहीं भरा। सादर, रमेश
ग़ालिब छूटी शराब में रविन्द्र कालिया ने अपने संस्मरण में धर्मयुग के दमघोंटू माहौल और बतौर संपादक भारती जी के आतंक पर भी बहुत कुछ लिखा है। मसलन,अन्य पत्रिकाओ के स्टाफ धर्मयुग के दफ़्तर को कैंसर वार्ड कहा करते थे। उसी प्रसंग में एक बार भारती जी ने कालिया जी से कहा कि मैनेजमेंट नंदन जी के कार्य से खुश नहीं है। अगर एक प्रतिवेदन तैयार करो कि मातहतों से उनका व्यवहार अच्छा नहीं ,सबको षड़यंत्र के लिए उकसाते हैं एवं अयोग्य हैं, तो मैं इसे आगे बढ़ा सकता हूँ ।लेकिन कालिया जी इसके लिए तैयार नहीं हुए।उन्होंने लिखा है कि नंदन जी में और कोई ऐब भले ही रहा हो पर ये आरोप निराधार थे। मुझे लगता है कि नंदन जी अत्यंत गरीबी से आये थे और पत्रकारिता ही उनकी रोजी-रोटी थी इसलिए उनमें एक असुरक्षा की भावना थी। उनका तेवर कभी विद्रोही नहीं रहा।