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Home » प्रेम और न्याय के कवि: कँवल भारती

प्रेम और न्याय के कवि: कँवल भारती

पिछले पांच दशकों से अनथक सक्रिय कँवल भारती हमारे समय के महत्वपूर्ण लेखक-विचारक हैं. पंकज चौधरी के इसी वर्ष प्रकाशित कविता-संग्रह, ‘किस-किस से लड़ोगे’ पर कँवल भारती ने इस आलेख में प्रकाश डाला है. भारतीय समाज की जातिवादी बुनावट में अंतर्निहित अन्याय और वर्चस्व को ये कविताएँ खोलकर रख देतीं हैं.

by arun dev
November 30, 2022
in समीक्षा
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प्रेम और न्याय के कवि: कँवल भारती
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पंकज चौधरी
प्रेम और न्याय के कवि

कँवल भारती

 

‘किस-किस से लड़ोगे’ पंकज चौधरी की कविताओं का दूसरा कविता-संग्रह है, जो इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. इस संग्रह को पढ़ते हुए मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूँ, वे अनुभव मेरे सामने एक ऐसे कवि की छवि उभारते हैं, जो न समाजवादी है, न राष्ट्रवादी है, न मार्क्सवादी है, और जड़वादी तो कतई नहीं है, बल्कि घोर अराजकतावादी प्रतीत हो सकता है.

अराजकतावाद का मतलब है किसी भी सिद्धांत और प्रणाली में विश्वास न करना. क्या पंकज चौधरी अराजकतावादी कवि हैं?

हालाँकि उनकी कविताओं में बंधन-मुक्त विचार की स्थापना का साहस मिलता है, जिसका साहस बहुत कम लेखक कर पाते हैं. तो क्या पंकज साहस के कवि हैं?

यह कहना बहुत मुश्किल है, और निर्बंध विचार के सिद्धांत को मानना तो और भी मुश्किल. लेकिन, जैसा कि एमर्सन ने कहा है, ‘संसार में क्रांति सिर्फ प्रेम और न्याय के सिद्धांत से ही हो सकती है’, (The law of love and justice can affect a clean revolution),

पंकज चौधरी वस्तुतः इन्हीं सिद्धांतों से मनुष्य की तलाश करते प्रतीत होते हैं, और यह कतई निर्बंध विचार नहीं है. लेकिन इस तलाश में उन्हें जातियां ही मनुष्य की विरोधी दिखाई देती हैं. यथा-

ब्राह्मण
ब्राह्मण के नाम पर
हत्यारे को नायक कह देता है.

राजपूत
राजपूत के नाम पर
बलात्कारी को क्लीनचिट दे देता है.

यादव
यादव के नाम पर
अपराधियों की दुहाई देने लगता है.

कोइरी
कोइरी के नाम पर
खून का प्यासा हो जाता है.

चमार
चमार के नाम पर
अछूतानन्द को सबसे बड़ा कवि मानने लगता है.

खटिक
खटिक के नाम पर
उदितराज को सबसे बड़ा नेता मानता है.

और मीणा
मीणा के नाम पर
आदिवासियों का डकार जाता है.

अब सवाल यह पैदा होता है
कि क्या भारत में
जाति से बड़ा कोई संगठन है?[1]

इस लंबी कविता में पंकज किसी भी जाति को मनुष्य-रूप में नहीं देख पाते हैं. लेकिन जब वह यह सवाल उठाते हैं कि क्या भारत में जाति से बड़ा कोई संगठन है, तो वह एक जाति-निरपेक्ष और मनुष्य-सापेक्ष समाज के गठन के आकांक्षी हो जाते है. निश्चित रूप से यह एक मार्क्सवादी विचार है, जो वर्गीय समाज की बात करता है. लेकिन सच यह है कि भारतीय समाज में वर्गों में भी जातियां हैं. और अगर जातियां खत्म भी हो गयीं, जिसकी सम्भावना, हालाँकि नहीं है, तो इसमें संदेह है कि वे सारे दोष लुप्त हो जायेंगे, जो आज जातियों में मौजूद हैं. लेकिन पंकज, असल में, जाति से सर्वाधिक चिंतित हैं, और यह चिंता एक ही भाव-बोध की पुनरावृत्ति के साथ उनकी कई कविताओं- ‘इण्डिया मीन्स कास्ट’, ‘हेडलेस पोइट्री’, ‘अपने-अपने अन्धविश्वास’, ‘किस किस से लड़ोगे’, ‘जाति की महत्ता’, ‘कविता में’, ‘जाति है कि जाती नहीं’, ‘जाति गिरोह में तब्दील हुआ हिंदी साहित्य’, ‘कम्युनिस्ट कौन’, ‘महापुरुष’, ‘दोस्त और जाति’, ‘सात खून माफ’, ‘स्त्री विमर्श’, ‘खंड-खंड पाखंड’, ‘किस जाति से हो’, ‘सबसे ऊपर जाति’, ‘सछूत भारत अछूत भारत’ में देखी जा सकती है.

असल में ब्राह्मणों का ब्रह्म उतना व्यापक नहीं है, जितना व्यापक भारत में उनकी बनाई हुई जाति है. यह जाति ऐसी है कि मिलने वाले दो व्यक्तियों में अगर एक दूसरे की जाति का बोध नहीं है, तो उनके बीच बातचीत में किसी न किसी रूप में जाति पूछ ही ली जाती है. अगर दोनों एक ही जाति के हैं, अथवा दोनों सवर्ण या द्विज हैं, तो उनके बीच बातचीत औपचारिक से अनौपचारिक होती जायेगी. किन्तु यदि संयोग से उनमें एक सवर्ण और दूसरा दलित जाति का है, तो फिर दोनों के बीच बातचीत अजनबियों की तरह होती है. फिर वे ऐसे मिलते हैं, जैसे दो राष्ट्रों के दो नागरिक हों.

दलित के लिए जाति-पूछना हमेशा पीड़ा-दायक और अपमानजनक होता है, जबकि द्विज या सवर्ण के लिए नहीं, क्योंकि वह अपने आप को इस देश का शासक समझता है. पंकज की कविता ‘किस जाति से हो’ इसी कटु सत्य को रेखांकित करती है. यथा-

यह सवाल
अंतत: दाग ही दिया
मुझ पर उसने कि
किस जाति से हो?

इसी सवाल को
पूछने और उसका जवाब जानने के लिए
सवाल दर सवाल किए जा रहे थे

भारत में जब तक यह सवाल नहीं किया जाता
और इसका जवाब नहीं मिल जाता
तब तक प्राण अटका रहता है
जमीन और आसमान के बीच.[2]

इस जाति को कोई भी तोड़ना नहीं चाहता, मार्क्सवादी भी नहीं, जिसका यह दायित्व बनता है. और कवि का यह कहना गलत नहीं है कि वह इसलिए जाति पर बात करने से कतराता है, क्योंकि वह पहले ‘द्विज महान’ है, और जाति से लाभान्वित हैं. यथा-

वर्ग-शत्रु के खिलाफ
वे गोली दागते हैं
पूंजीवाद के खिलाफ
वे समुद्र की तरह गर्जना करते रहते हैं
महिला-उत्पीड़न के खिलाफ
वे शेरों की तरह दहाड़ते हैं
साम्प्रदायिकता के खिलाफ
वे डायनामाईट की तरह विस्फोट करते रहते हैं

लेकिन जाति के सवाल को उठाकर देखिए
वे इस तरह दम सटकाकर भागेंगे
जैसे कोई….होगा.[3]

एक मार्क्सवादी या साम्यवादी की मुख्य चिंता प्रणाली की होती है, और उसका सारा स्वप्न उस प्रणाली को लागू करने का होता है. और इस तथ्य पर वह कतई विचार नहीं करता कि साम्यवादी प्रणाली भारत के संदर्भ में एक विफल प्रणाली है, क्योंकि भारत की मुख्य समस्या वर्ग की नहीं, बल्कि जाति की है.

यह संतोष की बात है कि पंकज चौधरी की कविताओं में इस विफल प्रणाली को लागू करने की कोई बेचैनी नजर नहीं आती. वह मुख्यत: द्विजवाद के विनाश को अपना प्रस्थान बिंदु मानकर चलते हैं, क्योंकि उन्हें द्विजवाद में ही मनुष्य-विरोधी चेहरा दिखाई देता है. भले ही उनका चोला दक्षिणपंथी हो, अथवा वामपंथी. पर साहित्य और कला में वे सिर्फ द्विज हैं, और कुछ नहीं. यथा-

साहित्य अकादेमी पुरस्कार उनका
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार भी उनका
कविता रोटरदम की यात्रा उनकी

भारत भवन उनका
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय भी उनका
राजकमल, राधाकृष्ण और वाणी प्रकाशन से किताबें उनकी
साहित्य अकादेमी और भारतीय ज्ञानपीठ से भी किताबें उनकी

नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, मैनेजर पाण्डे
नंदकिशोर नवल और पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे आलोचक भी उनके.[4]

यह पंक्तियाँ पंकज के कविता-संकलन की तीसरी कविता ‘हिंदी कविता के द्विजवादी प्रदेश में आपका प्रवेश दंडनीय है’ की हैं, जिसमें साहित्य के सम्पूर्ण क्षेत्रों, संस्थानों और संसाधनों पर पूर्णरूपेण द्विजों का कब्जा दिखाया गया है. शायद ही किसी कवि ने इस ‘एकाधिपत्य’ को बेपर्दा करने का साहस किया हो. यह साहस आगे और भी है-

आल इंडिया का मंच उनका
दूरदर्शन का भी मंच उनका
कविता पाठ के मंच भी उनके

रूसी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पैनिश
जापानी, चाइनीज और हंगरी में भी अनुवाद उनके
अपना क्या, सारा कुछ उनका
हिंदी कविता में सौ-सौ का आरक्षण उनका
भारत का लोकतंत्र भले सबका
लेकिन कविता का लोकतंत्र सिर्फ उनका.[5]

इस कविता की अंतिम पंक्तियाँ और भी विचारोत्तेजक हैं. यथा-

द्विजों का ऐसा नंगा नाच जहाँ
गैर-द्विजों के नायक की वहाँ गुंजाइश कहाँ?
द्विजों का एकछत्र राज जहाँ
गैर-द्विज पर भी मार सके नहीं जहाँ
द्विजों का उर्वर प्रदेश जहाँ
गैर-द्विजों का बंजर प्रदेश वहाँ.
द्विजों के लिए पूनम का उजाला जहाँ
गैर-द्विजों के लिए अमावस का अँधेरा जहाँ.[6]

हिंदी कविता के ठेकेदार शायद ही इसे कविता कहेंगे. वे बड़ी आसानी से इसे द्विज-द्वेष का एक पोस्टर कह देंगे. पर, वे महाकवि निराला की इस कविता को क्या कहेंगे, जिसमें वह मुस्लिम शासन को अंधकारमय कह रहे हैं?-

भारत के नभ का प्रभापूर्ण
शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज रे- तमस्तूर्य दिगमंडल
उर के आसन पर शिरस्त्राण
शासन करते हैं मुसलमान.[7]

अगर निराला के मुस्लिम-विद्वेष में कविता है, तो पंकज चौधरी के द्विज-एकाधिपत्य पर प्रहार में कविता क्यों नहीं है? अगर मुस्लिम-शासन ने ब्राह्मणों के सांस्कृतिक सूर्य को ढक लिया था, तो क्या कला-और साहित्य में द्विज-शासन ने लोकतंत्र के सूर्य को नहीं ढक लिया है?

वैज्ञानिक और शायर गौहर रज़ा ने एक जगह लिखा है कि सआदत हसन मंटो ने कहा था, “कुछ लोगों को समाज की गंदगी कुरेदने की ज़िम्मेदारी लेनी पड़ती है.”

यह ज़िम्मेदारी जिन कुछेक कवियों ने ली हुई है, उनमें पंकज चौधरी भी एक हैं. और ऐसे कलमकार कभी हार नहीं मानते. वे हर अत्याचारी और जनविरोधी सत्ता के साथ अनवरत युद्ध-रत रहते हैं. सत्ता उन्हें डराती है, क्योंकि वह खुद उनसे डरी हुई होती है. इसलिए वह उनसे जीत नहीं पाती. पंकज कहते हैं-

मैं हार नहीं मानूंगा
तो तुम जीतोगे कैसे?

तुम मुझे औकात में क्या रखोगे?
तुम्हारी खुद की तो कोई औकात नहीं.

तुम मेरा रास्ता क्या रोकोगे
तुम्हारा रास्ता तो अपने आप है बंद होने वाला.[8]

यह सिर्फ सत्य को बेबाक ढंग से कहना भर नहीं है, बल्कि डरी हुई सत्ता को उसका वास्तविक चेहरा भी अनुभूत कराना है. यह सिर्फ राज-सत्ता का ही मामला नहीं है, वरन, और भी बहुत सी सत्ताएं हैं, जो समाज को संचालित और नियंत्रित करती हैं. ये सत्ताएं धर्म,संस्कृति, जाति, पूँजी और कला की भी हैं, जो राज-सत्ता के संरक्षण में काम करती हैं. ये सारी सत्ताएं पंकज की कविता ‘लहर है’ में तांडव करती दिखती हैं. यथा-

लहर है
देश को हिन्दुस्थान बनाने की लहर है.

लहर है
हाशिमों, अब्दुल्लों, रहमानों को
टुकड़े-टुकड़े कर देने की लहर है.

लहर है
पिछड़ों को हनुमान बना देने की लहर है

लहर है
भारत को आग का दरिया बना देने की लहर है.[9]

और इन सारी सत्ताओं की महासत्ता द्विज-सत्ता है, जिसने दलित जज सी. एस. कर्णन को सच बोलने की सजा दी थी. इसका खाका ‘जस्टिस कर्णन’ में बड़ी शिद्दत से पंकज ने खींचा है. यथा-

पैसा तुम्हारे पास भी है
पैसा द्विजों के पास भी है.

कानून तुम भी जानते हो
कानून द्विज भी जानते हैं.

जस्टिस तुम भी हो
जस्टिस द्विज भी हैं.

संविधान का तुम भी आदर करते हो
संविधान का द्विज भी आदर करते हैं.

लेकिन इससे क्या
तुम द्विज नहीं हो
वे द्विज हैं
जिनसे संविधान भी छोटा है
और जो अपने को भारत का सुप्रीम
संविधान समझता है.[10]

यही द्विज सारी सत्ताओं के केन्द्र में है. ‘साहित्य में आरक्षण’ कविता में यह कला में सत्ता के रूप में शासन करती है. यथा-

अखबार के भी वही संपादक बनते हैं
गोष्ठियों की भी वही अध्यक्षता करते हैं
चैनलों पर भी वही बोलते हैं
प्रधानमंत्री के शिष्टमंडल में
वही विदेशी दौरा करते हैं
लाखों के पुरस्कार भी वही बटोरते हैं
वाचिक परम्परा के भी वही लिविंग लीजेंड कहलाते हैं
महान पत्रकार, महान संपादक, महान आलोचक
महान कवि, महान लेखक भी वही कहलाते हैं.

और साहित्य में आरक्षण नहीं होता
ये भी वही बोलते हैं.[11]

इसी द्विज सत्ता ने भारतीय समाज में जातियों में भी ‘वाद’ पैदा किए हैं, जो समाज को विघटित रखकर द्विज सत्ता को मजबूत करते हैं. मार्क्सवाद में भारत के सन्दर्भ में धर्म-शक्ति का व्यापक अध्ययन नहीं हो सका, क्योंकि मार्क्स के सामने भारत का विशाल धर्म और उसकी संचालक शक्तियां नहीं थी, केवल बाइबिल थी. इसलिए मार्क्स नहीं देख सके कि भारत में सामंत भी ब्राह्मण और क्षत्रिय ही रहे. इन्हीं दोनों के गठजोड़ से भारतीय सामंतवाद का निर्माण हुआ. इस सामंतवाद में भी जनता में असली सत्ता ब्राह्मणों के ही हाथों में रही. अगर मार्क्स के सामने हिंदुत्व की धर्म-सत्ता रही होती, तो उसका दर्शन भारत के संदर्भ में विफल न होता. इसलिए यहाँ एक से नहीं, बहुतों से लड़ना होता है.

पंकज ने सही सवाल उठाया है ‘किस किस से लड़ोगे यहाँ’, क्योंकि यहाँ हर तरह के वादी हैं, ब्राह्मणवादी, राजपूतवादी, कायस्थवादी, कोयरीवादी, कुर्मीवादी, जाटववादी, वाल्मीकिवादी, अभिजात्यवादी, पूंजीवादी, अवसरवादी बकवादी, कुलीनतावादी, दयावादी, और-

सब यहाँ आदमी के वेश में वादी हैं
और वाद का आदी है
इंसानियत का ताज गिरा रखा है
आदमी बने भी तो बने कैसे
सबने ऐसे-ऐसे वादों का मल खा रखा है.[12]

लेकिन इसके बावजूद इन सारी सत्ताओं और सारे वादों से ‘लड़ना जरूरी है’, क्योंकि कवि कहता है, बचेगा वही, जो लड़ेगा. यथा-

लड़ो
क्योंकि बगैर लड़े कुछ नहीं मिलता.

लड़ो
क्योंकि जो लड़ेगा वही बचेगा.

लड़ो
क्योंकि नहीं लड़ोगे तो लोग तुम्हें खा जायेंगे.

लड़ो
क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं

और पाने के लिए सारा जहान है.[13]

यह गुलामों से मार्क्स ने भी कहा था, और बाबासाहेब ने भी, कि लड़ो, क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए गुलामी की जंजीरों के सिवा कुछ नहीं है, और पाने के लिए आज़ादी है. पर देश के शासक वर्ग ने ऐसा होने नहीं दिया, क्योंकि हिंदुत्व की राजनीति ने उन्हें धर्म की गुलामी देकर उनकी चेतना को ही आज़ादी के लिए मृत कर दिया. पंकज चौधरी गुलामों और गरीब मजदूरों में इस मृत चेतना को जीवित करने की कोशिश करते दिखते हैं. उनकी ‘पिछड़ों, तुम हमें वोट दो’, ‘अच्छे दिनों में’, ‘इस लोकतंत्र में’, ‘आत्मविश्वास’, ‘त्रासदी : एक महान संकट’ और ‘अंधेर नगरी’ कविताओं में इस राजनीतिक चेतना को देखा जा सकता है. जब वह ‘पिछड़ों, तुम हमें वोट दो’ कविता में यह कहते हैं-

पिछड़ों
तुम हमें वोट दो
हम तुम्हें हनुमान बनायेंगे.[14]

और ‘अँधेरी नगरी’ कविता में यह कि –

द्विजों को देवता बोलो
और शूद्रों को दानव.

पिछड़ों को हनुमान बनाओ
और द्विजों को राम.[15]

तो. यह हिंदू राजनीति के द्विज–वर्ग द्वारा पिछड़े वर्गों को गुलाम बनाना ही है. राम का अर्थ है शासक और हनुमान का अर्थ है राम का सेवक. पंकज यहाँ पिछड़े वर्गों की मृत पड़ी चेतना में प्राण फूंकने का काम करते हैं. यही कोशिश वह ‘त्रासदी: एक महान संकट”[16] कविता में यह बताने की करते हैं कि कैसे मेहनतकश और उत्पादक वर्ग शासित और शोषित बनकर रह गया और द्विज वर्ग क्यों कल भी शासक था, और आज भी है? ‘अच्छे दिनों में’ कविता में कवि ने भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के उस अच्छे दिनों वाले शासन का असली चेहरा दिखाया है, जिसका सपना दिखाकर नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे. मोदी की इस द्विज-सत्ता का इतिहास-बोध और सौंदर्य-बोध कितना घृणित और लोकतंत्र-विरोधी है, इसे बहुत ही बेबाकी से कवि ने शब्द-बद्ध किया है. यथा-

अच्छे दिनों में
मनु लौट रहे हैं
अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ.

अच्छे दिनों में
बेदखल हो रहे हैं
हमारी किताबों से
अकबर, शाहजहाँ.

अच्छे दिनों में
शंकराचार्यों की बन रही पीठ
और मौलवियों, पादरियों की
उधेड़ी जा रही पीठ.[17]

मोदी-राज में यह द्विज-तन्त्र इसलिए फलफूल रहा है, क्योंकि पीड़ित वर्गों में लोकतंत्र की समझ और प्रतिरोध की आकांक्षा ही नहीं है. ‘इस लोकतंत्र में’ कविता में कवि ठीक ही पूछता है कि क्या सबको रोजी-रोटी-छत मिल गई? क्या सबको सम्मान और न्याय मिल गया? अगर नहीं, तो प्रतिरोध कहाँ है? यथा-

अगर नहीं,
तो कहाँ है आवाज़?
कहाँ है आंदोलन?
कहाँ है विरोध?
कहाँ है धरना?
कहाँ है प्रदर्शन?[18]

और प्रतिरोध की चेतना एक ही सूरतेहाल में लोगों में नहीं हो सकती कि उन्होंने गुलामी को अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया हो. गुलामी की मानसिकता वास्तव में आत्मविश्वास को खत्म कर देती है. कवि ने इस यथार्थ को ‘आत्मविश्वास’ कविता में बहुत संजीदगी से अभिव्यक्त किया है कि पीडितों ने अपने अंदर का भय निकालकर आत्मविश्वास का प्रकाश भर लिया, तो वे जग जीत सकते हैं. यथा-

तुम आत्मविश्वास खो चुके हो
इसीलिए कोई भी तुम्हें डरा देता है
प्रकृति भी तुम्हें डरा देती है.

तुम ऐसा करो
तुम सबको डराना शुरू करो

कुछ नहीं करने से ही आदमी
आत्मविश्वास खोता है
और कुछ करने से ही आदमी
आत्म का और दुनिया का विश्वास पाता है.

देखना
लोग खुद ब खुद तुमसे डरते चले जायेंगे
और प्रकृति भी तुम्हारी दासी बनने चली आएगी.[19]

इस कविता में बुद्ध का यह सन्देश गूंजता है- अपना प्रदीप आप बनो, कोई तुम्हारा स्वामी नहीं, आप स्वयं अपने स्वामी हो. अपना प्रदीप और अपना स्वामी आप बनने की चेतना ही प्रेम और न्याय के सिद्धांत पर आधारित समाज, देश और राष्ट्र का निर्माण कर सकती है. पंकज चौधरी इसी भावभूमि के कवि हैं.

__

सन्दर्भ

[1] किस किस से लड़ोगे, कविता-संकलन, पंकज चौधरी, सेतु प्रकाशन, 2022, पृष्ठ 11-13
[2] वही, पृष्ठ 86-87
[3] वही, पृष्ठ 90
[4] वही, पृष्ठ 14
[5] वही, पृष्ठ 15
[6] वही, पृष् 16
[7] तुलसीदास, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996, पृष्ठ 11
[8] किस-किस से लड़ोगे, पृष्ठ 9-10
[9] वही, पृष्ठ 26-27
[10] वही, पृष्ठ 30-31
[11] वही, पृष्ठ 32
[12] वही, पृष्ठ 37
[13] वही, पृष्ठ 38-39
[14] वही, पृष्ठ 40
[15] वही, पृष्ठ 108-109
[16] वही, पृष्ठ 106-107
[17] वही, पृष्ठ 43-44
[18] वही, पृष्ठ 71
[19] वही, पृष्ठ 91

यह संग्रह यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है.

कँवल भारती
(4 फरवरी 1953)
महत्वपूर्ण लेखक और चिंतक

प्रकाशन

नई चेतना नए राग (कविता) 1970,
ईश्वर ब्रह्म और आत्मा (आलोचना) 1970,
हिंदू धर्मग्रंथों में शूद्र और नारी (शोध) 1971,
सीता: एक विद्रोहिणी नारी (विश्लेषण) 1979,
बौद्ध धर्मापदेष्टायों का नया संघ (आलोचना) 1981,
डॉ. अंबेडकर बौद्ध क्यों बने? (विश्लेषण)
1983, संत रैदास: एक विश्लेषण 1985, परिवर्धित सं 2000,
तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती (कविता) 1996,
मनुस्मृति: प्रतिक्राति का धर्मशास्त्र (विश्लेषण) 1996,
काशीराम के दो चेहरे (पत्रकारिता) 1996,
डॉ. अंबेडकर को नकारे जाने की साजिश (आलोचना) 1996,
डॉ. अंबेडकर : एक पुनमूल्यांकन (विश्लेषण) 1997,
लोकतंत्र में भागीदारी के सवाल (पत्रकारिता) 1997,
धम्मचक्कपवतन सुक्त (अनुवाद, व्याख्या, आलोचना) 1997,

दलित विमर्श की भूमिका (इतिहास) 2002,
दलित धर्म की अवधारणा और बौद्धधर्म (आलोचना) 2002,
दलित चिंतन में इस्लाम (आलोचना) 2004,
जाति, धर्म और राष्ट्र (विश्लेषण) 2005,
मायावती और दलित आंदोलन (पत्रकारिता) 2005,
दलित साहित्य की अवधारणा (आलोचना) 2006,
हिंदी क्षेत्र की दलित राजनीति और साहित्य (विश्लेषण) 2006,
चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ग्रंथावली (संपादन). 2016

राहुल सांकृत्यायन और डॉ. अंबेडकर (विश्लेषण) 2007, समाज, राजनीति और जनतंत्र 2009,
समाजवादी अंबेडकर 2009,
आजीवक परंपरा और कबीर 2009,
दलित साहित्य के आलोचक और विमर्श 2009;
संपादन-मूक भारत 1978,
माझी जनता 2000,
भीम पुष्पावली 1972,
युवा सप्तक कविता, कल्याणकुमार शशि और उनका काव्य 1980, 
वाल्मीकि वाणी 1984,
धम्मपद सौरभ 1997;
अनुवाद-फ्लेम इन डार्कनेस का अनुवाद अंधकार में ज्योति 1985,
रामायण: एक अध्ययन 1985 औग्रेजी से अनूदित. आदि

1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार  आदि सम्मानों से सम्मानित.

Kanwal Bharti
C – 260\6, Aavas Vikas Colony,
Gangapur Road, Civil Lines, Rampur 244901 (U.P.)
mob. 9412871013.

Tags: 20222022 समीक्षाकँवल भारतीकिस-किस से लड़ोगेजातिदलित चिंतनपंकज चौधरी
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Comments 2

  1. दयाशंकर शरण says:
    2 years ago

    बिना जाति उन्मूलन के कोई समाजवादी आंदोलन सफल नहीं हो सकता, यह जानते हुए भी भारतीय मार्क्सवादी नेताओ ने इसके खिलाफ कभी कोई गंभीर मुहिम नहीं छेड़ी।इसे नजरअंदाज करना एक बड़ी भूल थी।ये कविताएँ और आलेख इस बात की तरफ इशारा करते हैं।

    Reply
  2. राजेन्द्र दानी says:
    2 years ago

    अच्छी हैं कविताएं । किसी हद तक इन्हें पढ़ते हुए धूमिल याद आ जाते हैं । धूमिल को गए वर्षों हो गए हैं और हमारी समूची दुनिया बहुत रफ्तार से बिगड़ती चली गई है । ये कविताएं इस दुनिया को तरलता से देख रही हैं , इनमें वह ताप नहीं जो धूमिल की कविताओ में मिलता था , जबकि इनमें गहरा विवेक भरसक है । पर क्षमा करें इनमें केवल एक पक्ष की पक्षधरता ही अधिक है

    Reply

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