केदारनाथ अग्रवाल पर नरेन्द्र पुंडरीक और कालु लाल कुलमी की बातचीत |
आप केदारजी के साथ लम्बे समय तक बाँदा में रहे. पहली बार केदारजी ने आप पर कैसी छाप छोडी.
केदारजी से मेरी मुलाकात 1970 के आसपास हुई थी उस समय मैं दसवीं कक्षा का छात्र था. केदारजी मेरे पारिवारिक वकील थे. एक केस के सिलसिले में 1970 में पहली बार उनके आवास पर केस की स्थिति की जानकारी लेने के लिए मेरे बडे़ भाई विजय नारायण मिश्र ने मुझे भेजा था, जो उस समय आर्मी में सूबेदार के पद पर तैनात थे. केदारजी उन्हीं का केस लड़ रहे थे.
केदारजी का खपरैल का ईंटों का बना कच्चा मकान था. जो पैरोडा साईज का बना था. जो अब भी है. इसमें अब केदार शोध पीठ न्यास है. जिसके बाहरी सदन में नीम का एक पेड़ था जो अब भी है. जिसे केदारजी ने अपनी कविता में काल से लड़ने वाला पहरुआ कहा है.
जब मैंने उनके मकान के सामने पहुंचकर नीम के नीचे खड़े होकर वकील साहब! वकील साहब! कहकर आवाज लगाई, मैंने देखा एक मुर्दरिस जैसी शक्ल वाला मीडियम कद का गोरा-चिटृा सफेद पजामा-कुर्ता पहने एक आदमी बाहर आया. जो प्रथम द्रष्टा कहीं से भी वकील नहीं लग रहा था. लेकिन उसकी आँखें इतनी तेज थी, कि लगता था मेरा एक्सरे ही किये ले रही हों. तब मैं इन्हे कवि या साहित्यकार के रुप में नहीं जानता था. 1973 में जब इन्होंने यहां बाँदा में प्रलेस का राष्ट्रीय सम्मेलन कराया था, जिसकी गूंज पूरे नगर में थी, मेरे दूसरे नम्बर के बड़े भाई जगत नारायण शास्त्री के इस सम्मेलन से जुडे़ होने के कारण, सम्मेलन की गतिविधियों की जानकारी हुई, यह जानकर मैं दंग रह गया कि हमारे पारिवारिक वकील केदारनाथ अग्रवाल ही कवि केदारजी हैं जिनके नाम का शोर शहर में हर कहीं है. उस समय मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ता था. साहित्य का क ख ग थोड़ा बहुत जानने लगा था. उस समय मेरे घर पर कादम्बिनी, हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सारिका जैसी पत्रिकाएं आती थी. जिनके प्रभाव में मैं आने लगा था
एक कवि के रूप में उनका कैसे मूल्यांकन करते हैं?
केदारजी के साथ बहुत लम्बे अरसे तक जुड़ा रहा जो अब भी उनके निधनोपरांत उसी रूप में अबाधगति से ज़ारी है. सन् 1973 के प्रलेस सम्मेलन की गूंज शहर से जुड़े गांवों तक भी गई थी उस समय मेरे गांव के लोकनाथ पाठक जो स्वयं कवि थे, वे इनकी एक दो कविताओं की पंक्तियां अक्सर हम लोगों को सुनाया करते थे. यह कह कर कि केदारनाथ अग्रवाल की कविता सुना रहा हूं- काटो-काटो करबी, मारो-मारो हंसिया/साइत और कुसाइत क्या है/जीवन से बढ़ साइत क्या है?/ है न बढि़या कविता. कहकर खूब हंसा करते थे. हम लोग भी हंसा करते थे. इसी तरह की एक कविता वे और सुनाया करते थे- केन नदी का कर्मठ पानी/मार रहा है घूंसे कस कर/ तोड़ रहा है तट चट्टानी/ बस हो गई कविता. कैसी लगी कविता. सुनाकर खूब हंसा करते. हम लोग सोचा करते थे कि जब केदार बडे़ कवि है तो निश्चय ही यह बडी कविता होगी. लेकिन कड़बी और हंसिया और अपनी केन नदी जो गाँव से बिलकुल लिपटकर बह रही थी. जिसके पानी में हम लोग दिन-दिन भर किल्लोल करते उन पर भी कविता लिखी जा सकती हैं यह हमें पता नहीं था. अब तक कोर्स में निराला की ‘भिक्षुक‘ कविता पढ चुके थे. इसलिए यह मानकर ही संतुष्ट हो जाते कि ये भी उसी तरह की कविताएं हैं. उस समय उनकी एक कविता ‘चित्रकूट के बोड़म यात्री‘ खूब सुनी थी. केदारजी की कविताओं के वैचारिक अर्थ को न समझते हुए भी कविताओं का आनन्द लेते थे.
केदार हिन्दी कविता में मार्क्सवादी सौंदर्य चेतना के बेजोड़ कवि है. प्रगतिशील कविता में वे अकेले कवि हैं जिन्होंने वैज्ञानिक चेतना की वैचारिकता के साथ-साथ, कविता के सृजन में क्रियेशन को बहुत अधिक महत्व दिया है. प्रगतिशील हिन्दी कविता में, बिम्बों की सृष्टि के लिए हमेशा जाने जायेंगे. इस मायने में केदार विश्वजनीन कवि है.
आप केदारजी के साथ रहे हैं. ऐसे वाकिये बताये जो आज भी आप को प्रभावित करते हैं ..
सन् 80 से 2000 तक ज्यादातर शामें मैंने केदार के साथ गुजारी हैं. उनके रचनात्मक समय का साक्षी हूं. एक बार मैं केदारजी के साथ सर्वभाषा कविता सम्मेलन में गया था जो गणतंत्र दिवस के पूर्व आयोजित होता है. यह आयोजन उस बार भोपाल में रवीन्द्रालय में आकाशवाणी ने आयोजित किया था. यह संभवतः 87-88 की बात होगी. सूचना समय पर न मिलने के कारण रिजर्वेशन भी नहीं मिला था. केदारजी को मैंने किसी तरह रिजर्वेशन बोगी में घुसेड़ा, साथ में जो उनका बिस्तर था उसी को अस्थाई सीट बनाकर उनके बैठने की जगह बनायी. केदारजी ने बहुत धैर्य से पूरी रात बैठे-बैठे ही काट दी. सुबह ४:३० पर हम लोग भोपाल पहुंचे, सोचा था आकाशवाणी ने स्टेशन पर कोई व्यवस्था कर रखी होगी. आकाशवाणी की गाड़ी तो वहां लगी मिली थी लेकिन वह आकाशवाणी के किसी बड़े अधिकारी को लेने आयी थी. मैंने केदारजी को यह बात बतायी. केदारजी ने कहा चलो बाहर किसी होटल की तलाश करो. स्टेशन के बाहर हम दोनों सत्कार लाज में रुक गये. जो किसी मारवाडी का होटल था. नहा धो कर फ्रेश होने के बाद केदारजी ने होटल के वेटर को चाय ब्रेड लाने का आदेश दिया. नाश्ता करने के बाद जब वेटर प्लेटें उठाने आया तो साथ में नाश्ते का बिल भी दे गया. केदारजी ने बिल की राशि पढ़ते हुए कहा कि पुंडरीक यहां तो उजड़ जायेंगे यह तो चाय और ब्रेड का ही अस्सी रूपये का बिल दे गया हैं. अभी गनीमत है जल्दी से कमला प्रसाद को फोन कर बुलाओ. हम लोग यहां से चले. करीब एक घण्टे बाद कमला प्रसाद आ गये और हम उनके घर चले गये.
1987 में जब केदारजी को साहित्य अकादमी सम्मान उनके कविता संकलन ‘अपूर्वा’ को मिला, उस समय केदारजी 75 वर्ष पार कर चुके थे. केदारजी ने मुझसे कहा पुण्डरीक तुम्हे मेरे साथ दिल्ली चलना होगा. वहां से मैं रामविलास शर्मा के यहां चला जाऊंगा फिर कुछ दिन गाजियाबाद बिटिया किरण के यहां रुकूँगा. दिल्ली मैं पहली बार जा रहा था ज्यादा जानता नहीं था सोचा केदारजी को छोड़ कर शाम की गाड़ी से बांदा वापस आ जाऊंगा. केदारजी को लेकर दिल्ली गया. निजामुदृीन में जैसे ही स्टेशन पर पहुंचे. हम लोग उतर कर खडे़ ही थे कि अजय तिवारी दिखाई दिये. बाहर निकलते ही केवल गोस्वामी शायद विश्वविद्यालय की तरफ से गाड़ी लेकर केदारजी को लेने आये थे. केदारजी को आल इण्डिया इन्टरनेशनल हास्टल में रूकवाया था. केदारजी को कार में बैठा कर मैंने कहा मैं जा रहा हूँ. तभी मेरी बगल में खडे़ अजय तिवारी ने कहा बाबूजी की आप चिंता छोड़ें आज यह मेरे यहां रूकेंगे, कल शाम को आप भी अकादमी सम्मान देखकर जायेंगे.
दूसरे दिन दोपहर में हम लोग केदार जी से मिलने आल इण्डिया इन्टरनेशनल हास्टल पहुंचे. अजय के एक दो मित्र साथ थे. हास्टल के क्या पूछने? पूरे में वी. आई. पी. व्यवस्था थी. अजय तिवारी ने कहा बाबूजी हम लोग आपके यहां का नाश्ता करेंगे. बाबूजी ने कहा मंगा लो और कर लो नाश्ता. अजय तिवारी ने घण्टी बजायी और वेटर आया और दो लोगों का नाश्ता लाने का आर्डर दिया. बाबूजी ने कहा यह क्या छः लोग और दो लोगों का नाश्ता मंगाया. अजय तिवारी ने कहा आपका पैसा कम लगेगा मिल बांट कर खा लेंगे. बाबूजी ने कहा ये तुम लोग जानो. थोड़ी देर में पूरे दो टेबल पर नाश्ता लग गया. बाबूजी नाश्ता देखकर बोले ये तो इतना नाश्ता ले आया इसके तो बहुत पैसे देने पडेंगे.यह सुनकर सभी हंस पडे.
1986 में केदार सम्मान में डा. रामविलास शर्मा बांदा आये थे. डॉ.शर्मा कार्यक्रम के दो दिन पहले आये और कार्यक्रम के दो दिन बाद गये. 20, 21सितंबर को आयोजन था. कार्यक्रम के दूसरे दिन केदारजी के आवास पर शर्मा जी और केदार जी आमने-सामने बैठे थे. बाकी सभी लोग दालान में और आंगन में बैठे थे . कुबेर दत इस बैठक की शूटिंग कर रहे थे. तब रामविलास जी केदारजी द्वारा उन्हे लिखे पत्रों को पढ़ रहे थे. बड़ा ही अद्भुत दृश्य था , बडे़ ही भावुक पत्र थे. केदारजी की आखों से लगातार आंसू बह रहे थे. कई पत्रों में केदारजी ने रामविलास जी को उलाहने के तौर पर लिखा था – मैंने कविता के लिए एवं मार्क्सवादी वैचारिक चेतना के लिए ईमानदार जिन्दगी जीते-जीते जिन्दगी होम कर दी, लेकिन तुमने मुझ पर कुछ नहीं लिखा. तुम लिखोगे भी नहीं क्योंकि तुम मेरे दोस्त हो. इस आशय के कई पत्र थे. जीवन की भांति केदारजी का व्यक्त्वि भी एक्सरे की मशीन की तरह था. केदारजी ने अपनी कविता में एक जगह कहा है- नरम जीभ से /हमने दिग्गज पर्वत ठेले..
वर्ष 1992-93 में मैंने बांदा के कुछ साथियों को लेकर जो (प्रलेस) प्रगतिशील लेखक संघ से जुडे़ थे. केदारजी के जन्म दिन, पहली अप्रैल पर कार्यक्रम की शुरूआत की. जिसमें कुछ बाहर के केदारजी के साहित्यिक प्रेमीजनों को इलाहबाद,भोपाल, आदि जगहों से भी बुलाये गए. कार्यक्रम की शुरूआत अच्छी हो गई. दूसरे साल कुछ स्थानीय लोगों ने चुपचाप सहयोग की जगह असहयोग करना शुरू कर दिया. मैंने चिंतित हो कर केदारजी से कहा- वे हंसने लगे और कहा इन सब कार्यक्रमों मे यही सब होता है. बाबा तुलसी ने रामायण की शुरूआत से पहले इन्हीं की वन्दना की थी. तुम पूछो- कहो सबसे लेकिन अपने बल पर काम करो वरना कुछ नहीं कर पाओंगे. तुम कार्यक्रम करो, तुम्हारे कार्यक्रमों की सफलता से वे अपने आप शांत हो कर रास्ते पर आ जायेंगे. उनका यह मूलमंत्र हमेशा मेरे साथ है.
केदारजी पेशे से वकील थे, बांदा में रहते थे और कविता लिखते थे. आप क्या मानते हैं कोई वकालात का काम करते हुए काव्य सृजन कर सकता है?
केदारजी कचहरी को अपनी कविताओं का वर्कशाप मानते थे. उनका मानना था कि सही मायने में आदमी की आन्तरिकता को जानने के लिए, पहचानने के लिए मेरे लिए कचहरी से बढ़कर कोई दूसरी जगह हो ही नहीं सकती थी. उनका यह मानना था कि पंचायतों को खत्म करने के लिए अंग्रेजों ने ये अदालतें कायम की थी. क्योंकि गांवों की पंचायतें आदमी को आदमी बनाये रखती थी. अदालतों में आदमी आदमी को खाता हैं. अहल्कार, वकील, नौकरशाह,अधिकारी कोड़ा मारते हैं. और यहां का आम आदमी अदालतों में किस तरह पिसकर रह जाता हैं. टूट जाता है. केदारजी कहते हैं कि अगर मैं वकील नहीं होता तो मुझे यह सब कहां देखने को मिलता.
केदारजी ताउम्र बांदा में रहे, इसकी क्या वजह देखते हैं आप ? जब कि समय यह रहा कि हर कोई राजधानी की ओर भागे चला जा है.
केदारजी सुदूर गांव में पारम्परिक संस्कृति के पोषक परिवार में पैदा हुए थे. पिता साहित्यिक-सांस्कृतिक रूचि थे,नाटक एवं नौटंकियों में भाग लेते थे. पिता की रूचि को देखते हुए बाबा ने अपने दरवाजे पर रामलीला की शुरुआत की थी. हर तरह से हम देखते हैं कि केदारजी की जड़ें गांव के समाज से गहरे से जुड़ी थी. शिक्षा के दौरान तो वे रायबरेली, कटनी, जबलपुर, इलाहबाद, कानपुर रहे, लेकिन कानपुर से वकालत पास करने के बाद वे बादा में आकर वकालत करने लगे. वकालत चूंकि स्थायी जगह में रह कर करने का पेशा था. साहित्यिक कार्यक्रमों में बाहर कहीं आते जाते नहीं थे. कार्यक्रमों में बोलने के भी संकोची थे. साहित्यिक जुगाड़ों, काट-छाट में न विश्वास था न रखते थे. चैन्नई इसलिए दो-चार बार चले गये क्योंकि वहां उनका लड़का था. दिल्ली दो-चार बार इसलिए गये क्योंकि गाजियाबाद में उनकी बेटी किरण रहती थी.
केदार समय के विपरीत खडे़ होकर रचनारत रहनेवाले रचनाकारों में से थे. दिल्ली की ओर वह कभी-भी आकर्षित नहीं थे, दिल्ली के प्रकाशक उनकी रचनाएं मांगते रहे, पर उन्होंने नहीं दी. आज युवा लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे.
मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, केदार और त्रिलोचन- इन पंचरत्नों में अगर सबसे कम किसी पर लिखा गया तो वह केदारजी हैं . इसकी क्या वजह रही?
हाँ यह बिलकुल सही बात है. मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन ,और त्रिलोचन इन सभी में केदार पर कम लिखा गया. उनकी रचनात्मकता का काम अति महत्वपूर्ण होते हुए भी तात्कालीन साहित्यिक आलोचकों द्वारा उनकी आलोचना न करके उन्हें चर्चा से बाहर रखा गया. इसकी वजह जो मुझे समझ में आती है. एक तो यह है की रामविलास जी ने अपने दौर में किसी भी साहित्यिक रचनाकार को बक्शा नहीं था! चाहे वह राहुल जी हो, रांघेय राघव हो, या यशपाल हो. कवियों में निराला को छोड़ कर शायद ही उन्होंने किसी को पसंद किया हो. शर्मा से केदार की गहरी दोस्ती थी. हुआ यह कि डा. शर्मा के विरोधी, केदारजी के भी विरोधी हो गये. उनके द्वारा केदारजी पर न लिख कर उनको चर्चा से बाहर रखा गया. यह बात अभी-भी उसी तरह चल रही हैं. केदराजी बाँदा जैसी छोटी जगह पर रहे और बाहर ज्यादा जाते नहीं थे. इसलिए वे व्यक्तिगत रूप से ज्यादा जुडे़ नहीं. बादा जैसी छोटी जगह में लोगों का आना-जाना कम ही था. इसका भी प्रभाव पड़ा है.
केदारजी का काव्य यथार्थ गा्रमीण जीवन से नागरीय जीवन की यात्रा तय करता है. केदारजी छोटी से छोटी घटनाओं पर लिखते हैं इसी कारण कई बार उनकी कविताएं सपाट बयानी लगती हैं.
केदारजी ग्राम्य जीवन के यथार्थ से जुड़कर अपनी काव्य यात्रा शुरू की थी. ग्राम्य जीवन के यथार्थ को अपने सूक्ष्मकाव्य संवेगों में बहुत ही सटीक बिम्बात्मक रूपों में व्यक्त किया. उनकी कविताओं में जहां कहीं सपाटबयानी की बात की गई है वह ग्रामीण जीवन के यथार्थ की सहजता है और सहजता कभी सपाट नहीं होती है!
समाजवादी व्यवस्था के स्तम्भ को ढ़हते केदारजी ने देखा था. केदार की इसको लेकर क्या सोच थी और वे आनेवाले समय की आहट को कैसा महसूस कर रहे थे. खासकर समाजवादी मूल्यों को लेकर.
जब यल्सिन और गोर्बाचोव सोवियत सत्ता में आये उस समय ग्लासनोस (पुनर्निर्माण) और पेरोस्त्रोत (खुलापन)की चर्चा जोरों पर थी. उस समय जो रूस में हो रहा था उसे लेकर केदारजी का मानना था यह जो आदमी है वह परिवर्तन के लिए है. जो चीजें जड़ हो रही है उनमें परिवर्तन होना ही चाहिए. यह जो कुछ हो रहा है उसी के तहत हो रहा है. केदार वैज्ञानिक चेतना के हिमायती थे न कि मार्क्सवाद की जड़ चेतना के हिमायती. मार्क्सवाद व्यवस्थागत जड़ता का शिकार हो गया और उसी के चलते उसकी गतिशीलता खत्म होती गई और जड़ता केन्द्र में आती गई. पर मार्क्सवाद की वैज्ञानिक दृष्टि का महत्व हमेशा रहेगा. जब तक दुनियां में एक भी शोषित है तब तक मार्क्सवाद रहेगा
केदार ने काफी लम्बे समय तक सृजन किया. आजादी के पहले का और बाद का दोनों ही समय उन्होंने देखा था. दोनों के अन्तर को वे कैसे देखते थे.
केदारजी का जन्म बाँदा जिले के कमासिन गांव में हुआ था. 1857 के समय कमासिन बाँदा जिले की तहसील था, वह मात्र थाना भर है. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संगा्रम में कमासिन की अच्छी भूमिका थी. यहां के 25-30 लोगों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था. इस संघर्ष को कुचले जाने के बाद भी कमासिन को इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी. अंग्रजों ने तहसील यहां से हटा कर बबेरू कर दी. अंग्रेजों ने इसे पूरी तरह उपेक्षित कर दिया. 1857 से लेकर अब तक की हलचलों को केदार देश की जनता की सामंतवाद से मुक्ति मानते थे.
केदार प्रकृति के महान् चितेरे थे. आज हमारी सभ्यता जिस मोड़ पर हैं वहां सबसे अधिक संकट प्रकृति पर ही है. क्या केदार जी को इस संकट का कुछ पूर्वानुमान था.
केदार प्राकृतिक सौष्ठव के अद्भुत चितेरे थे. हिन्दी कविता में वे अद्वितीय थे. स्वयं केदार ने अपने आंगन में छोटी सी फूलों की बगिया लगा रखी थी. गुलाब उनकी बगिया में वर्ष भर फूलते रहते थे. उनकी एक कविता याद आती हैं. जल रहा है/जवान होकर गुलाब,/खोलकर होंठ /जैसे आग/ गा रही है फाग/. केदार के दरवाजे पर नीम के दो पेड़ लगे थे. जिन्हें वे अपना पहरुआ मानते थे. कहते थे यह काल को मेरे पास न आने देंगे और ये उसे मार भगायेंगे. पेड़ों को वे अपना अग्रज मानते थे- पेड़ नहीं /पृथ्वी के वंशज है/ फूल लिये/ फल लिये /मानव के अग्रज है.
केदारजी की जीवन शैली को देखते हुए अनायास ही गांधीजी का जीवन याद आ जाता है. आप क्या कहेंगे.
केदारजी सरल एवं सहज जीवन के अनुयायी थे. जीवन भर कच्चे मकान में रहकर गुजार दिया. यह कहते हुए मुझे इस मकान में बहुत सुवास है. अधिक सज-धज और टीम टाम में उनको दिक्कत होती थी. समाजवादी होने के कारण समाज में परिवर्तन तो चाहते पर मारकाट के रास्ते नहीं. खूनी क्रांति के पक्षधर कभी नहीं थे. वे विचार के माध्यम से व्यक्ति की चेतना बदलने के पक्षधर थे. वह कहते थे कि भई किसी को मार नहीं सकता. न सीमा पर जाकर युद्ध कर सकता हूं. मैं कविता लिखकर व्यक्ति की चेतना को बदलने का काम कर सकता हूँ.
कालु लाल कुलमी
अनेक पत्र – पत्रिकाओं में लेख आदि प्रकाशित शोध छात्र
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा.
ई पता : paati.kalu@gmail.com
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