कीड़ाजड़ी सरस गद्य, कामचलाऊ रिपोर्ताज प्रवीण कुमार झा |
चार साल पहले किताबी दुनिया के कुछ ख़ुफ़िया सूत्रों के हवाले से खबर मिल गयी थी कि ऐसी एक किताब आने वाली है. शायद कोरोना संकट में लटक गयी होगी या कुछ संपादन कार्य चल रहा होगा, मालूम नहीं. यह भी खबर मिली थी कि पुष्पेश पंत पान का इतिहास-भूगोल लिख रहे हैं, जो अब तक कहीं नज़र नहीं आयी. किताबें अपरिहार्य कारणों से लटकती रहती हैं, कोई नयी बात नहीं. कीड़ाजड़ी जैसी किताबों की टोह में रहता हूँ, क्योंकि कुछ चीजें कुछ ख़ास लोग ही बेहतर करते हैं.
कुछ महीने वाले यायावर मिज़ाज के अखिल रंजन जब नॉर्वे आए तो मुझे दो किताबें दे गए. एक थी- ‘कच्छ कथा’. दूसरी- ‘कीड़ाजड़ी’. मैं कच्छ कथा तो उसी वक्त पढ़ गया मगर कीड़ाजड़ी को पकने के लिए रख दिया. सोचा कि यह किसी ट्रेन, बस, या हवाईजहाज़ में ही पढ़ूँगा. सापेक्ष गति के साथ.
अनिल यादव के लेखक परिचय में लिखा है कि वह बेलीक जीवन के लिए जाने जाते हैं. वह वो नहीं करते, जो और लोग करते हैं. वह नहीं लिखते, जो और लोग लिखते हैं. यूँ तो यह परिचय उन्हें बोहेमियन की धारा में ले जाता है, मगर पाठक पहले से तैयार हो जाएँ कि किताब में वह नहीं मिलेगा जो आप सोच रहे हैं. वह आपकी उम्मीद पर खरे इसलिए नहीं उतरेंगे क्योंकि उम्मीद तो होती ही लीक पर है.
मसलन इस पुस्तक ‘कीड़ाजड़ी’ में पहली बार यह शब्द पृष्ठ 19 में बिना किसी परिचय के निकल गया. उसके बाद यह कीड़ाजड़ी आधी किताब में है ही नहीं! हो सकता है कि मेरी नज़र से छूट गया हो, मगर लेखक आधी किताब में हमें यूँ गोल-गोल घुमा रहे होते हैं कि हम भूल जाते हैं कि शीर्षक था क्या. शायद कीड़ाजड़ी कुछ हो ही न? यूँ ही लेखक को नाम आकर्षक लगा हो तो रख लिया हो? शायद कोई उपमा हो?
पूरी किताब पढ़ने के बाद जब मुझे समझ आ गया कि यह कीड़ाजड़ी क्या बला है, तो मैं वापस पहले पृष्ठ पर लौटा. देखा कि यह तो पहले पृष्ठ पर मौजूद था, मगर उसने भेष बदल रखा था. वहाँ कीड़ाजड़ी पर एक कवित्त था, जिसे मैं अनावश्यक नाट्यारंभ समझ कर ‘स्किप’ कर गया था. सच पूछिए तो दूसरी बार पढ़ कर भी यह पूरी तरह समझ नहीं आया कि यह कवित्त कीड़ाजड़ी महात्म्य है. उस कवित्त का कवि परिचय एक पहेली है- पंद्रहवीं सदी के तिब्बती चिकित्सक के लेखन का अनुवाद किन्हीं कुकुरमुत्ता वैज्ञानिक यूरोपीय/अमरीकी ने किया, जिन पर आधारित कवित्त कवि मृत्युंजय ने लिखा!
इस कवित्त में मध्ययुगीय शृंगार काव्य से दिनकर के वीर रस कविताओं का कैप्सूल दिखता है. जैसे ये पंक्तियाँ-
“जग में इंद्रिय सुखों का सार है ज्ञानी मदनानंद घना
अष्टांग शास्त्रे रचित रहस से कामवर्धना ज्ञान बना”
“जो हीन मनुज हो मूढ़ चरम हो स्वार्थ समुद्र में खोया हो
जो नहीं समर्पण करता हो जो अविश्वास में सोया हो”
बहरहाल अपने चिकित्सकीय प्रशिक्षण से यह लगा कि बड़े से बड़े भेषज विज्ञानवेत्ता (फार्माकोलोजिस्ट) भी इस कीड़ाजड़ी के सभी अवयव नहीं जमा कर सकते. न इस विचित्र प्रक्रिया से गुजर सकते हैं. न ही मर्दानी ताक़त की शीशियाँ बेच रहे नेपाली तंबुओं की पहुँच यहाँ तक होगी. यह तो मुझे हीनयान बौद्ध, वाममार्गी तांत्रिकों, साइबेरियाई शामनों या कैरीबियन वूडू जैसा नुस्ख़ा लगा. मिट्टी को गौरैया के सीने में पका कर, भेड़ का दूध, याक की आंत, भालू का पित्ताशय और न जाने क्या क्या…! हालाँकि ‘सभ्य’ मनुष्य काम-लालसा में कंकड़ चबा जाएँ या शाहबलूत की शाखा पर उल्टा लटक जाएँ, इसमें संदेह नहीं.
पुस्तक के लगभग हर अध्याय की आखिरी पंक्तियाँ बीज-वाक्य की तरह बन पड़ी है. जैसे कीड़ाजड़ी के संदर्भ में लिखा है-
‘अगर किसी कीड़ाजड़ी निकालने वाले पूछा जाए, “क्या आप भी इसे खाते हैं?”
वह हँसता है, “नहीं, हमलोगों को इसकी ज़रूरत नहीं पड़ती”
यह हँसी सभ्यता और विकास के विषय में बहुत कुछ कहती है.’
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अनिल यादव के लेखन से पहला परिचय उनके ब्लॉग और पुस्तक ‘वह भी कोई देस है महाराज’ से हुआ था. वह पूर्वोत्तर के राज्यों से गुजरते हुए वहाँ के मानवीय पहलुओं पर बतकही शैली में चर्चा कर रहे थे. यह किताब मैंने स्टोरीटेल पर ऑडियो रूप में सुनी, और लगा कि वह चौपाल पर बैठ क़िस्सा सुना रहे हैं. यह कहने में गुरेज नहीं कि उससे प्रेरित होकर मैं एक पूर्वोत्तर यात्रा पर निकल गया था.
उस पुस्तक में वह चलायमान थे, जबकि ‘कीड़ाजड़ी’ में वह अपेक्षाकृत स्थिर हैं. वहाँ उनकी ऊर्जा दिखी थी, जबकि यहाँ सुस्ती और आधी नींद में लगते हैं. वहाँ वह जा-जा कर लोगों से मिल रहे थे, दृश्य चित्रण कर रहे थे. यहाँ वह पहाड़ी विद्यालय के मौसमी हिंदी शिक्षक हैं, जो अधिक से अधिक अपने बंद कमरे से निकल कर चाय की टपड़ी तक जाते हैं, राहगीरों या ग्रामीणों से बतियाते हैं. वह एक यात्रा जर्नल था, जबकि यह एक डायरी है जिसके कई पन्ने वह शायद बंद कमरे में भी लिख लेते. मसलन कीड़ाजड़ी जैसे रहस्यमय नुस्ख़े के लिए भी वह बहुत अधिक जतन नहीं करते, पहाड़ की खोहों में जाकर मृदा नहीं तलाशते, दुर्गम दर्रों से नहीं गुजरते, बल्कि उनकी स्वीकारोक्ति है-
“मुझे एक दिन कीड़ाजड़ी मुफ्त और अनायास खाने को मिल गयी”
संभव है कि लेखक का उद्देश्य ही इस परिश्रम और संधान को वृथा सिद्ध करना हो. ख़ामख़ा इस निःस्वाद निरर्थक जड़ी के लिए क्यों भटकूँ? क्यों न उन पहाड़ों में छुपे चरित्रों को तलाशूँ जो हर जगह हैं, मगर नज़र नहीं आते? जैसे वह खिलाफ सिंह दानू जो कहीं बर्फ़ में दब कर गुमनाम मर गया! वह जोती जो उन्हें माटर बुलाती है, मगर उनके स्कूल में नहीं पढ़ती. वे कुत्ते जो संवाद करते हैं. वह बाबा जिसे स्वयं भगवान राम ने स्वप्न में आकर अपना मोबाइल नंबर दिया, मगर पुलिस ने उसे जब्त कर लिया. वह तिरपन सिंह जो घसियारों के लिए घास काटने की प्रतियोगिता आयोजित करता है.
लेखक स्वतंत्र हैं कि वे अपने पात्र, अपने आयाम खुद चुनें. लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि उनके बनाए खाँचों में हर पाठक उतर जाए. जैसे एल साइज की क़मीज़ के बदले अगर एम साइज की क़मीज़ पहननी पड़ जाए, तो कुछ कसावट सी महसूस होती है. इसमें क़मीज़ की समस्या नहीं, मगर समस्या तो है. आधी किताब तक कीड़ाजड़ी का न मिलना, और उसके बाद अचानक कुछ अखबारी जानकारियों की एक गट्ठर हाथ में लिए हकबकाए खड़े होना कुछ खल गया. मैंने तुरंत अपनी यह भड़ांस साझा की, लेकिन यह किस तरह लिखा जाता तो बेहतर होता? क्या ऐसे संस्मरणों या रिपोर्ताज का कोई मानक खाका है?
एक चर्चा में सुना कि संस्मरणों में डायरी की तरह बारीक़ विवरण डालने की ज़रूरत नहीं कि कब नींद खुली, क्या बात हुई. सूक्ष्म वर्णन के बजाय बड़े फलक पर भाव-चित्रण हो. वहीं यूरोप पर एक संस्मरण लिख रहे लेखक ने मुझे कहा कि उनके इस संस्मरण में यूरोप की चर्चा नगण्य होगी. वह नहीं चाहते कि पाठक इस पुस्तक से ख़ामख़ा जानकारियों के दलदल में फँस जाए. यह न हो, वह न हो तो आखिर संस्मरण में क्या हो?
इनसे बहुत आपत्ति नहीं कि संस्मरण लेखक का आत्म-संवाद हो सकता है. जैसे ‘कीड़ाजड़ी’ के दो पृष्ठों में लेखक ईश्वर और धर्म के विषय में कुछ बड़बड़ाते नज़र आते हैं. ऐसे और भी पृष्ठ हैं जहाँ प्रश्न वही रख रहे हैं, और उत्तर भी खुद दे रहे हैं. यह लेखक की खूबी है कि इस आत्म-संवाद में वह पाठक को जोड़ लेते हैं. मुझे एक शोधार्थी ने कहा कि उनके गुरु कभी कुछ आधा-अधूरा बड़बड़ा जाते हैं, जिसे ग़ौर से सुनने पर नए शोध की राह निकल आती है. यह अचेतन की आवाज़ होती है, जो भले ठीक से सुनाई न दे, मगर इसकी गूँज दूर तक जाती है.
‘बड़बड़ाहट’ से इस पुस्तक की एक लंबी पंक्ति याद आयी-
“लकड़ी के जर्जर पुलों के नीचे पानी की बड़बड़ाहट, बेहिसाब फटी चट्टानों की वीभत्सता को छिपाए काई और फर्न की नेकी…फेफड़ों में ताजगी का साझा अहसास, सूनेपन में अपने भीतर देर तक गोता खाकर डूबने का असर यह हुआ कि मंजिल तक पहुँचने पर सबको शहरों में खो गयी सच्ची भूख वापस मिल चुकी थी”
एक और पंक्ति
“मेरे शेखचिल्ली दिमाग में एक पथरीला रास्ता है जिस पर एक ताज़ा सफ़ेद अखबार पड़ा है, घाटी की ढलानों पर लटके घर रोशनी से जगमग हैं, अखबार में बाबा रामदेव के पेड़ की छाल से बने लगते पैरों की बड़ी ब्लैक एंड वाइट फोटो छपी है जिसके नीचे लिखा है- ‘जिसके पैरों से चल कर बिजली आयी’”
ऐसी दो-चार पंक्तियों के बाद मैं कुछ देर के लिए झन्ना भी गया था. मुझे लगा जैसे एक खूबसूरत रिपोर्ताज़ बौद्धिक लच्छेदारी की भेंट चढ़ गया. जैसे ख़ानापूरी पीएच.डी. का वजनी शोधग्रंथ जिसका मात्र पहला और अंतिम पृष्ठ शोध से संबंधित हो. लेकिन दूसरी तरफ़ कथेतर गद्य पर ऐसे आरोप भी लगते रहे हैं कि उनसे साहित्य पिपासा शांत नहीं होती. मैंने यह पुस्तक अखिल रंजन से प्राप्त कर उनसे पूछा था- “सिर्फ़ रिपोर्ताज़ है या साहित्यिक संतुष्टि भी होगी? प्रोज कैसे हैं?”
उन्होंने मुसकुरा कर इस भाव से कहा- “गद्य का आनंद तो निश्चित आएगा”
मुझे यह अंदेशा नहीं था कि गद्य के प्रभाव में रिपोर्ताज दब जाएगा. यहाँ मैं एक तुलना ‘कच्छ कथा’ पुस्तक से करना चाहूँगा जिसमें विवरणों से मोड़ आते हैं, मगर लीक भटकती नहीं. संगीत में इसे तिरोभाव-आविर्भाव कहते हैं जब गायक राग के स्वरूप से जान-बूझ कर कुछ भटक कर वापस लौट आते हैं. लेकिन, अगर वे ऐसा करते हुए किसी और ही राग में प्रवेश कर जाएँ, तो यह दोष कहा जा सकता है. ऐसा लगा कि लेखक भी इस पुस्तक में कुछ भटक से गए हैं.
मैंने मन में यह थ्योरी बना ली कि दस वर्ष पहले की गयी यात्रा के नोट्स थे, जिसे उन्होंने जोड़ कर संपादक को दे दिया. संभव है, उन्हें पढ़ते समय लगा हो कि कीड़ाजड़ी की चर्चा कुछ कम रह गयी. उस वक्त इंटरनेट और उपलब्ध किताबों को पढ़ कर सामग्री जोड़ी गयी हो. ऐसे स्रोतों से तथ्य दुरुस्त ही होते हैं, मगर कीड़ाजड़ी के गढ़ में बैठे व्यक्ति से यह उम्मीद भी होती है कि प्राथमिक स्रोत सामने रखें. वह इस प्रक्रिया की जड़ तक पहुँचें. अगर ऐसा करने में रुचि न हो, या यह मूल उद्देश्य न हो, फिर यह आधा-अधूरा द्वितीयक स्रोत रखने की क्या आवश्यकता?
एक ख़ामख़ा नॉलेज-सीकर को कुछ निराशा हो सकती है कि यह सब तो विकीपीडिया पर भी पढ़ लेते; लेकिन जो दुनिया के किसी ज्ञानकोश में नहीं मिलती, वह है लेखक के अंदर बैठा एक एंथ्रोपोलोजिस्ट. लेखक जिस तरह व्यक्ति, समाज और संस्कृति को पढ़ते हैं, वह बेमिसाल है. कुछ वाक्य तो आँखों के सामने से यूँ एक्सप्रेस ट्रेन की तरह गुजर गए कि लगा भाग कर उसे पकड़ लूँ.
जैसे एक वाक्य है-
“गरीबी ऐसी ख़ास चीज लगती है जिसका ज़िक्र बच्चे करते हैं तो उनकी कोमलता छलक जाती है. बड़े करते हैं तो लुप्त हो जाती है”
इस पुस्तक की दृष्टि कीड़ाजड़ी से कहीं अधिक बहुकोणीय हैं. भावी पाठकों से यह कहना चाहूँगा कि इसमें कीड़ाजड़ी कम ढूँढें, और अनिल यादव अधिक.
Praveen Kumar Jha is a bilingual author in Hindi and English and a Norway based superspecialist doctor by profession. He is also a social media activist with numerous articles in digital and print media, alongwith an avid bilingual blogger. His debut book ‘Chamanlal Ki Diary’ had been a best-seller, and his travelogue ‘Bhooton ke desh mein’ and ‘Nastikon ke desh mein’ were published in 2018. The pathbreaking book for Praveen is ‘Coolie lines’ published by Vani Prakashan, a historical narrative on indentured labour- the largest migration in history. Praveen has also written short Kindle books based on music of Maihar and a tale on science education called Irodov Katha. His next book ‘Wah Ustad’ is based on schools of Hindustani music (gharanas). doctorjha@gmail.com |
प्रवीण जी ने अच्छी समीक्षा लिखी है.
भावी पाठकों के लिए उत्सुकता जगाने वाली टिप्पणी। अनिल यादव भाषा से खिलंदड़ी करते हैं। यह उनका मिजाज है। आपने ठीक लिखा कीड़ाजड़ी में अनिल यादव को अधिक ढूँढें।
किताब की कमज़ोर कड़ी पर उंगली रखती चुस्त, लेकिन उम्मीद से पहले ख़त्म हो जाने वाली समीक्षा!
मुझे भी इसका शीर्षक भ्रामक लगा था यह शायद ‘कीड़ाजड़ी’ की लोक-चर्चा को भुनाने का प्रकाशकीय पैंतरा रहा होगा. लेकिन, प्रवीण जी की तरह मैं इसे ‘कामचलाऊ’ रिपोर्ताज नहीं कहूँगा.
मेरे ख़याल में इसे या तो पिंडर घाटी का मोबाइल समाजशास्त्र कहा जाना चाहिए या फिर वहां की समाजशास्त्रीय कथा। उसमें घाटी के समाज की तलहटी और ऊपरी सतह पर चल रही प्रक्रियाओं का तुरंता सही लेकिन एक सजग और सघन आकलन ज़रूर है.
मसलन : ‘’ यहां का भूगोल आपदा से पहले और बाद, इतिहास कीड़ाजड़ी के पहले और बाद, और समाजशास्त्र अंग्रेजी शराब के पहले और बाद के कालखंडों में बांटकर देखने से बहुत सहूलियत होती है।‘’
इस क्रम में किताब का एक उल्लेखनीय पहलू यह भी है कि वह घाटी की सत्ता-संरचना को भी पकड़ती है. वह बताती है कि अपनी दुर्गमता के बावजूद यह घाटी सत्ता–शासन की अखिल भारतीय संरचना से अछूती नहीं है। मतलब अगर वह सत्ता के व्यापक तंत्र में अधीनस्थ हैसियत रखती है तो उसे कभी आगे नहीं निकलने दिया जाएगा। उदाहरण के लिए, चामू और रूप सिंह पहाड़ तथा बर्फ़ के मिज़ाज को चाहे जितनी गहराई से समझते हों; मध्यवर्गीय और मूर्ख ट्रैकरों की किसी भी हद तक जाकर जान बचाएं, लेकिन पर्वतारोहण के इतिहास में न उन्हें कोई जगह दी जाएगी, न किसी अभियान के एलबम में उनकी कोई तस्वीर ही होगी.
इसी तरह, मंदिर और देवस्थान पर आयोजित होने वाले धार्मिक कार्यक्रम में दलान को एक रस्सी से दो हिस्सों में बांट दिया जाता है जिसमें एक तरफ़ आर्या (दलित) लोगों की चाय बन रही है और दूसरे हिस्से में दानू (क्षत्रिय) लोगों की भट्ठी पर खाना बन रहा है। आर्या सबके साथ बैठकर प्रसाद नहीं खाते। इसे वे घर जाकर खाते हैं। और तो और दोनों समुदायों की आग तक अलग है। देवताओं के जागरण वाले कार्यक्रम में दानू लोगों की तरफ़ इतनी ठसाठस भीड़ है कि कोई अलाव तक नहीं पहुंच पाता, जबकि आर्या लोगों के लिए रस्सियों से घेरकर एक जगह बनाई गई है जिसमें निर्धूम आग जल रही है। लेकिन वहां केवल चार-पांच लोग बैठे हैं।
मुझे लगता है कि इसे यह जानने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि वर्चस्वी और विजयी राजनीति के स्थानीय प्रतिरूप कैसे गढ़े जाते हैं. इस सिलसिले में यह प्रसंग याद करें :
‘ एक त्रिपुंडधारी आंखें फैलाकर, भर्राई आवाज़ में बोल रहा है… पहले के टाइम में ऐसी विद्या हुई कि अनवाल (गड़रिये) भेड़ का सिर काटकर बकरी में, बकरी का सिर भेड़ में लगा देते थे। मैंने अपने बचपन में नेवले का सिर सांप पे लगा ख़ुद देख रखा है। ऐसी-ऐसी चमत्कारी जड़ी-बूटियां होने वाली हुई यहां, जड़ी तो अब भी होगी लेकिन उसके जानने वाले ख़त्म हो गए, तब तिब्बती विद्या के जानकार भी यहां आने वाले हुए, ख़ैर कोई बात नहीं हमारी सरकार बनी तो हम इससे लाख गुना अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करेंगे।’
बहरहाल, ऊपर के तमाम बिंदुओं को समेट कर कहूँ तो अनिल यादव की यह किताब अपने देखे हुए को एक सरस और लगभग ललित एथ्नाॅग्रफ़ि के स्तर तक ले जाती है.
अनिय यादव को नयी किताब कीड़ाड़ीजड़ी पर प्रवीण कुमार की समीक्षा पढ़ी, जो अधूरी लगी। प्रवीण कुमार जी जानते होंगे कि कीड़ा जड़ी ऐसी जड़ी बूटी है जिसके इस्तेमाल से कामोत्तेजना भरपूर प्राप्त होती है।
यह जड़ी उत्तराखंड या लेह लद्दाख की कुछ पहाड़ियों पर पाई जाती है। जिसकी खोज में क्षेत्रीय तथा बाहर से आने वाले लोग तत्पर रहते हैं। इसके व्यापार में कुछ पैसे वाले लोग बड़ी मुस्तैदी से लगे रहते हैं। दरअसल, इसकी कीमत वहीं लोग दे पाते हैं जिनके पास पैसा है। जैसे कि सेठ-साहूकार या मौसमी नेता। नेताओं के पास अतुल धन है। कुछ लोग केवल ऐय्यासी के लिए राजनीति में आते हैं। मुंहमांगी कीमत पर उन्हें कीड़ा जड़ी चाहिए।
समीक्षक की आलोचना जानकारी से परे है। अरुण यादव के लेखन से सभी परिचित हैं मगर कीड़ा जड़ी उपन्यास में उन्होंने क्या लिखा है, उसकी थीम सामने आना चाहिए था।