कीर्तिलता कमलानंद झा |
कीर्तिलता आदिकालीन कवि विद्यापति (1350-1440) द्वारा अवहट्ट (परवर्ती अपभ्रंश) भाषा में रचित एक खंडकाव्य है. इसकी रचना 1405 ईस्वी के करीब की गई. इसमें विद्यापति ने तिरहुत नरेश कीर्तिसिंह के युद्धों और पराक्रम-वर्णन के साथ जौनपुर के शासक इब्राहिम शाह तथा जौनपुर नगरी का यथार्थ वर्णन किया है.
इसमें कथा का विस्तार अधिक नहीं हुआ है. किन्तु ऐतिहासिक सचाई के कारण यह काव्य आज भी अपना महत्त्व बनाए हुए है.
कथा इतनी भर है कि असलान द्वारा तिरहुत के राजा गणेश्वर की हत्या के बाद वहाँ की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था चरमरा जाती है. तिरहुत के दोनों राजकुमार अवयस्क हैं. वयस्क होने के बाद कीर्तिसिंह और वीरसिंह जौनपुर के राजा इब्राहिमशाह की मदद से असलान को पराजित करते हैं और तिरहुत का शासन अपने हाथ में लेते हैं.
कीर्तिलता पंद्रहवीं शताब्दी (उत्तरार्ध) के हिन्दुस्तान का हाल-ए-बयान है. इसमें उस समय का महत्वपूर्ण नगर जौनपुर का बाजार, अश्वसेना, हस्तिसेना, राजप्रसाद, वेश्या, तुर्कों और सैनिकों का ब्यौरेबार वर्णन इतनी दक्षता से कवि ने किया है कि वह (विद्यापति का) समय और समाज हमारे सामने उपस्थित हो जाता है.
१.
‘देववाणी’ से ‘मलेच्छवाणी’ की दुर्गम भाषिक यात्रा
कीर्तिलता का भाषिक महत्व लगभग सभी विद्वानों ने एक सिरे से स्वीकार किया है. विद्यापति ने ‘देववाणी’ संस्कृत, लोकवाणी मैथिली और ‘मलेच्छ वाणी’ (अरबी-फ़ारसी मिश्रित) में रचना कर दुर्गम भाषिक यात्रा की है और इसके लिए बड़ी कीमत भी चुकायी है. संस्कृत महात्म्य के समय ‘देसिल बयना’ और ‘मलेच्छ भाषा’ में लिखने के कारण उन्हें विभिन्न संघर्षों से गुजरना पड़ा था.
“विद्यापति के युग में दो सांस्कृतिक धाराएँ चली आती थीं. एक राजपूत मध्यकाल की हिंदू परंपरा और दूसरी अफगान काल की इस्लाम की परंपरा. विद्यापति ने अपने युग की वास्तविक स्थिति को मान्यता देते हुए दोनों को स्वीकार किया था. कीर्तिलता यद्यपि छोटा ही काव्य है किंतु कवि ने भाषा के असामान्य अधिकार द्वारा दोनों धाराओं की शब्दावली को अपने ग्रंथ में भर दिया है. इस्लामी शासन और रहन-सहन के अनेक शब्द पहली ही बार यहाँ स्पष्ट पहचाने गए हैं.”[i]
संपूर्ण भारतीय साहित्य में गैर फ़ारसी साहित्य से इस्लाम संस्कृति की उपेक्षा पर विचार किया जाना चाहिए. जहाँ कहीं थोड़ा बहुत इस्लामिक संस्कृति की अनुगूंज सुनाई पड़ती है वहाँ सामान्यता एक खास तरह की नकारात्मक और पूर्वाग्रह पूर्ण वर्णन देखने को मिलता है.
कीर्तिलता गैर फ़ारसी साहित्य में विरल रचना है जिसमें भारत की प्राचीन हिन्दू संस्कृति के साथ इस्लामिक संस्कृति के बारे में अच्छी खासी जानकारी प्राप्त होती है. कीर्तिलता की भाषिक वैशिष्ट्य की और संकेत करते हुए डॉक्टर शिवप्रसाद सिंह लिखते हैं,
“कीर्तिलता भाषा की दृष्टि से अत्यंत महत्त्व की वस्तु है. मध्यकाल की कोई भी रचना इतने पुराने और अत्यंत विकासशील भाषा के तत्वों को इतने विविध रूपों में सुरक्षित नहीं रख सकी है.”[ii]
जिस समय विद्यापति (1350- 1440) रचना कर रहे थे संस्कृत की परंपरा अवसान पर थी किंतु उसका महत्व बना हुआ था. संस्कृत के अच्छे ज्ञान और संस्कृत में कई पुस्तक लिखने के बाद भी उन्होंने अवहट्ट (परवर्ती अपभ्रंश) में लिखने का साहस दिखलाया.
संस्कृत के समक्ष अपभ्रंश की कितनी हीन स्थिति मानी जाती थी इसे हम राजशेखर के काव्य मीमांसा से जान सकते हैं. इसमें अपभ्रंश का स्थान भूतभाषा या पैशाची के थोड़ा ही ऊपर बताया गया है. राजशेखर ने काव्यमीमांसा में लिखा है कि राजसभा या कविसभा में उत्तर की ओर संस्कृत कवि, पूरब में प्राकृत के कवि और पश्चिम में अपभ्रंश के कवि और दक्षिण में भूतभाषा या पैशाची के कवियों का स्थान देना चाहिए.
भाषा का यह पदानुक्रम भाषा के राजनीतिक-सामाजिक स्टेटस का परिचायक है. इस स्टेटस में संस्कृत का स्थान सर्वोपरि है और पैशाची का सर्वाधिक हीन. विद्यापति ने साहस के साथ अपभ्रंश में रचना करने का निश्चय किया. आज जो स्थिति अंग्रेजी की है वही स्थिति उस समय संस्कृत की थी.
अंग्रेजी में धाराप्रवाह लिखनेवाला शायद ही हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं में रचना करना पसंद करेगा. हिंदुस्तान में भले ही 3% लोग ही अंग्रेजी जानते हों लेकिन अंग्रेजी में लिखना प्रतिष्ठा सूचक माना जाता है. उसी प्रकार उन दिनों संस्कृत मुट्ठी भर लोगों की भाषा थी, किंतु संस्कृत में लिखना गौरव की बात थी. आमजन की भाषा में लिखना उन दोनों भी दोयम दर्जे का लेखन-कर्म माना जाता था और आज भी. अरबी-फ़ारसी या अरबी-फ़ारसी मिश्रित भाषा को संस्कृत विद्वान ‘मलेच्छ भाषा’ की संज्ञा देते थे. इसका स्थान सबसे नीचे था.
विद्यापति ने कीर्तिलता में ‘मलेच्छ भाषा’ का भी प्रयोग किया है. 11वीं-12वीं शताब्दी में साहित्यिक भाषाओं की जो स्थिति थी उस पर भोजदेव ने ‘सरस्वतीकंठाभरण’ में प्रकाश डाला है. उनका कहना है कि कोई संस्कृत में और कोई प्राकृत में रचना करते हैं, कोई जनता की साधारण भाषा में और कोई ‘मलेच्छ भाषा’ का प्रयोग करते हैं-
संस्कृतेनैव केsप्याहु प्राकृतेनैव केचन
साधारण्या दिभिः केचित, केचन मलेच्छ भाषाया’
विद्यापति संस्कृत में तो रचना करते ही हैं साथ ही साधारण जन की भाषा (मैथिली) और मलेच्छ भाषा में भी रचना करते हैं. एक मैथिल पंडित द्वारा इस तरह की मिश्रित अरबी-फ़ारसी भाषा में रचना करना अपने आप में महत्त्वपूर्ण है. क्योंकि मैथिल पंडित भाषाई शुद्धता के लिए प्रख्यात रहे हैं. भाषाविद बाबूराम सक्सेना भी मैथिल पंडितों की इस प्रवृत्ति से परिचित हैं, उन्होंने लिखा है कि
“मिथिला के पंडित सदैव कट्टरपंथी रहे हैं और उनका संस्कृत से संपर्क बराबर रहा है. इसलिए वह बड़ी आसानी से स्थान-स्थान पर जननी भाषा से आधार ग्रहण कर सके हैं. आज भी पंडितों की मैथिली और अपढ़ ग्रामवासी की मैथिली में बहुत हद तक अंतर है.”[iii]
प्राकृत के बाद अपभ्रंश और परवर्ती अपभ्रंश अर्थात अवहट्ट भाषा की स्वीकारोक्ति क्रमशः पंडितों में भी होने लगी थी. भोजदेव ने स्पष्ट लिखा है कि प्राकृत में भी यद्यपि स्वाभाविक मिठास है परंतु अपभ्रंश ‘सुभव्य’ है
‘प्राकृतमधुरा: प्राकृतधुरा: सुभव्योSभ्रंशः’
(सरस्वतीकंठाभरण)
इस ‘भव्य’ का मतलब है कि ‘अपभ्रंश की तो बात ही कुछ और है’. विद्यापति ने अपनी कीर्तिलता की रचना इसी ‘सुभव्य’ भाषा में की है.
मध्यकालीन अन्य कवियों से अलग जो वैशिष्ट्य कीर्तिलता में उभर कर आता है वह है- अरबी- फ़ारसी शब्दों का अपभ्रंशीकरण या देसीकरण.
अरबी-फ़ारसी शब्दों का दो तरह का प्रयोग कीर्तिलता को विशिष्ट भाषाई गरिमा प्रदान करता है. एक तो सीधे-सीधे अरबी-फ़ारसी शब्दों का अपभ्रंश में घुलाकर प्रयोग और दूसरा अरबी-फ़ारसी शब्दों को तोड़-मरोड़ कर उसका देसीकरण करना.
यह अकारण नहीं है कि भाषाविदों का ध्यान कीर्तिलता ने अपनी ओर खींचा. वासुदेवशरण अग्रवाल कीर्तिलता की इस विशेषता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं,
“कीर्तिलता की यह शब्दावली और वर्णन के अंश मध्यकालीन सांस्कृतिक इतिहास के लिए मूल्यवान है. इनसे यह सूचित होता है कि हिंदी भाषा अपने पेट में फ़ारसी-अरबी शब्दों को निधड़क पचाने लगी थी. न केवल हिंदी में वरन प्राचीन बंगला और गुजराती में भी ऐसे शब्द घर करने लगे थे.[iv]
आज की हिंदी-उर्दू मिश्रित हिंदुस्तानी भाषा का आदि रूप अगर कहीं मिलता है तो वह कीर्तिलता में मिलता है. विशुद्ध तत्सम, अपभ्रंश, ठेठ देसी और अरबी-फ़ारसी शब्दों का मणिकांचन उपयोग कीर्तिलता की भाषा को विलक्षणता प्रदान करता है. इस तरह अरबी-फ़ारसी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग के औचित्य पर भारतीय संस्कृति-चिंतक वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं
“15 वीं शताब्दी के आरंभ में लिखने वाले विद्यापति के सामने यह रात-दिन वास्तविक प्रयोग में चालू हो चुके थे. उनको छोड़ देने से काव्य की यथार्थता का स्वरूप बिगड़ जाता और भाषा में वह जान भी नहीं रह जाती, जो अब है. यह अच्छा ही हुआ कि विद्यापति को इस बोलचाल की शब्दावली को अपना लेने में कोई दिक्कत या झिझक नहीं हुई. एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है कि राजमहल यह शाहीमहल का जिसे विद्यापति ने ‘महलमजीद’ कहा है वर्णन करते हुए उन्होंने हिंदू युग की संस्कृत शब्दावली और तुर्की युग की नई फ़ारसी और-अरबी शब्दावली दोनों को एक साथ अपना लिया है.[v]
अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में ऐसे 100 से अधिक शब्दों की सूची दी है जिसमें महलमजीद, दारखोल दरसदर, फ़ारगाह, फुरंगाह, अरदगर, गालिम, मीमाज, फरमाण, बजारी वजू, मंगोल, मरूतफ आदि महत्वपूर्ण हैं.
विद्यापति ने इन शब्दों का प्रयोग शाही दरबार, फौज और तुर्कों के रहन-सहन के प्रसंग में किया है. बाजार में दोनों कुमारों ने प्रवेश किया नहीं कि अरब-फ़ारसी के शब्दों की खनखनाहट सुनाई देने लगी- बजारी, हजारी, गंदा, कूज, सराफे, वजू, गुलाम, सलाम वगैरह.
कहीं ये शब्द ज्यों के त्यों प्रयुक्त हुए हैं जिसे गुलाम, सलाम, खत, बाजू वगैरह और कहीं इन्हें अपभ्रंश बना लिया गया है जैसे अदप (अदब), उज्जीर (वजीर), खाण (खान) षोजा (ख्वाजा), कादी (काजी), तकत (तख्त), दवाल (दुआल), देमान (दीवान) वगैरह.
हिंदी में अरबी-फ़ारसी शब्दों के प्रयोग का पुराना साक्ष्य दक्षिण में फरीदुद्दीन शकरगंजी (1173-1265) और ख्वाजा बंदानेवाज गेसूदराज मोहम्मद हुसैनी (1318-1422) जैसे दक्खिनी हिंदी के ग्रंथकार प्रस्तुत करते हैं और उत्तर में अमीर खुसरो (1253 1325 ई0) और कीर्तिलता का रचनाकार विद्यापति (1360-1440). यह परिघटना भारतीय भाषाओं में एक नए तरह के परिवर्तन को सूचित करती है.[vi]
रामविलास शर्मा ने विद्यापति को आरंभिक भारतीय ‘नवजागरण का अग्रदूत’ कहा है. ईश्वर, अलौकिक सत्ता और राजदरबार के बरक्स यहाँ से वहाँ तक उनकी रचनाओं में विन्यस्त मानवीय सरोकार और चिंताएँ विद्यापति को नवजागरण से जोड़ती हैं. मनुष्य का अस्तित्व विद्यापति के लिए सर्वोपरि था. मनुष्य के सम्मान के प्रति विद्यापति सर्वत्र चिंतित नजर आते हैं. उनके अनुसार मनुष्य जीवन की सार्थकता सम्मानपूर्ण जीवन जीने में हैं.
कीर्तिलता में वे ऐतिहासिक महत्त्व का वाक्य लिखते हैं- ‘माननि जीवन मानसों’. जीवन वही है जो मान से जीया जाए. कीर्तिलता का ‘मान’ शब्द समाजशास्त्री हेतुकर झा को भी आकर्षित करता है. वे अपने आलेख ‘विद्यापति के युग संकट’ में इस शब्द पर ठहरते हैं-
“विद्यापति ने ‘मान’ शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका मतलब मौजूदा संदर्भ में गरिमा या आत्मसम्मान है. अतः उनके अनुसार जीवन की सबसे जरूरी शर्त गरिमा या आत्मसम्मान के साथ समाज में जीना है. कीर्तिलता में उन्होंने लिखा है कि लोग गरिमा से वंचित हैं. उनके मुताबिक वह इस वजह से मानव के अस्तित्व को लेकर गहरा संकट है. मार्टिन बूबर ने बीसवीं सदी में कहा था कि मानवीय दुनिया में किसी के होने का असली मतलब उसकी इच्छा की पुष्टि में है. विद्यापति के शब्दों में हर इंसान की इच्छा गरिमा और सम्मान की पुष्टि है. ऐसा लगता है कि उनके लिए मानवीय गरिमा की पहचान अपने आप में साध्य है.”[vii]
विद्यापति ने जिस ‘मान’ की बात कही है, वह बेगार करने वालों को नहीं मिल सकती. इसलिए उनकी रचनाओं में दासों के दयनीय दशा का विस्तार से उल्लेख हुआ है. इस दृष्टि से विद्यापति की ‘लिखनावली’ विलक्षण कृति है.
कीर्तिलता में इब्राहिम शाह के शासन की तारीफ़ करते-करते विद्यापति ‘बड़े कवि’ की तरह सच कह जाते हैं. शाह से शासन में लोगों से बेगार लिया जाता था-
‘तुर्क बलपूर्वक राह चलते को बेगार करने के लिए पकड़ लाता है’-
कतहु तुरुक वारकार
बनत जैते बेगार.’
इसी सम्मान के खातिर विद्यापति उसे ही पुरुष का दर्जा देते हैं जो आत्मसम्मान से भरा हो-वीर और पराक्रमी हो.
२.
वीर (गाथाकाल) काव्य का मिथ और ‘राष्ट्रीय काव्य’ का सच
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल को वीरगाथा काल की संज्ञा दी है. शब्द के सही अर्थों में संपूर्ण आदिकाल में कीर्तिलता ही इस नामकरण को सार्थक सिद्ध कर पाती है. दूसरे शब्दों में जिन 12 ग्रंथों के आधार पर शुक्लजी ने आदिकाल का नामकरण किया उस नामकरण की प्रतिष्ठा कीर्तिलता से ही हो पाती है. क्योंकि वीरता या पराक्रम में ‘कन्या हरण’ को शामिल नहीं किया जा सकता. स्वयं आचार्य शुक्ल ने कुछ मज़े लेते हुए लिखा है
“किसी राजा की कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्षियों को पराजित कर उस कन्या को हर कर लाना वीरों के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था.”[viii]
आदिकाल के संदर्भ में कीर्तिलता का दूसरा महत्व उसकी प्रामाणिकता में है. आदिकाल में जिन 12 ग्रंथों का जिक्र आचार्य शुक्ल करते हैं उनमें कीर्तिलता देश और काल दोनों दृष्टियों से प्रामाणिक है. आदिकालीन अन्य लगभग सभी रचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध है.
दलपति विजय रचित खुमाण रासो (810-1000) के संदर्भ में स्वयं शुक्ल जी लिखते हैं कि उसमें महाराणा प्रताप सिंह तक का वर्णन मिलने से यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जिस रूप में यह ग्रंथ अब मिलता है वह विक्रम संवत की 17वीं शताब्दी में प्राप्त हुआ होगा.[ix]
बीसलदेव रासो में वीरता की गुंजाइश ही नहीं है. इस विरह-श्रृंगार प्रधान लघु काव्य के लिए शुक्लजी लिखते हैं, नाल्ह के इस बीसलदेव में, जैसा कि होना चाहिए था, न तो उक्त राजा की ऐतिहासिक चढाइयों का वर्णन है न उसके शौर्य पराक्रम का. श्रृंगार रस की दृष्टि से विवाह और रूठ कर विदेश जाने का (प्रोसित पतिका के वर्णन के लिए) मनमाना वर्णन है.[x]
पृथवीराज रासो को शुक्लजी ने ‘जाली ग्रन्थ’ कहा ही है. इन अप्रामाणिक वीरगाथापरक रचनाओं के समक्ष कीर्तिलता का अध्ययन कई दृष्टियों से रोचक और महत्वपूर्ण हो सकता है.
सर्वप्रथम किसी विद्वानों ने इसकी प्रामाणिकता पर संदेह नहीं किया है. क्योंकि विद्यापति साहित्यकार के साथ-साथ सीमित अर्थों में ही सही इतिहासकार भी थे, ठीक वैसे ही जैसे आदिकाल के अमीर खुसरो. विद्यापति ने अपनी रचनाओं में यत्र-तत्र समय और स्थान का जिक्र किया है. इतिहासकारों ने जब इस समय और स्थान को अलग-अलग स्रोतों से मिलाया है तो उसे लगभग सही पाया है. यही कारण है कि विद्यापति और उनकी रचना कीर्तिलता आदिकाल की सर्वाधिक प्रामाणिक रचना मानी गई.
प्रामाणिकता के अतिरिक्त कीर्तिलता का दूसरा वैशिष्ट्य इसकी कथावस्तु है. रासो ग्रंथ की तरह इसमें ‘कन्या हरण’ या ‘सीमा विस्तार’ के लिए चरित नायक युद्ध नहीं करते हैं, बल्कि मिथिला प्रदेश को शत्रु की चंगुल से निकालने के लिए युद्ध करते हैं. देश-दुर्दशा और उससे मुक्ति हेतु युद्ध आज की भाषा में कीर्तिलता को एक राष्ट्रीय काव्य का दर्जा देता है.
गणेश्वर की हत्या के बाद मिथिला की दशा अत्यंत दयनीय हो गई थी. कीर्तिलता में इस दयनीयता का यथार्थ वर्णन अद्भुत है-
ठाकुर ठक भए गेल चारें चप्परि घर लिज्झिअ
दास गोसाउनि गहिअ धम्म गए धंध निमज्जिय
खले सज्जन परिभविय कोई नहि होइ विचारक…
तिरहुति तिरोहित सब गुणे रा गणेश जबे सग्गग गऊँ[xi]
राजा के मरते ही रण का शोर मचा, पृथ्वी (मिथिला) पर हाहाकार मच गया. ठाकुर ठग हो गये, चोरों ने जबरदस्ती घरों पर कब्जा कर लिया, भृत्यों ने स्वामियों को पकड़ लिया, धर्म चला गया, काम-धंधे ठप्प हो गये.
मिथिला की विवशता से मुक्ति की आकांक्षा से प्रेरित होकर कीर्तिसिंह इब्राहिम शाह की मदद से शत्रुओं पर आक्रमण करते हैं. कोई रोमांस नहीं, देवी-देवता का आशीर्वाद नहीं, अलौकिक शक्ति का चमत्कार नहीं. केवल कूटनीति, राजनीति और आत्मविश्वास के साथ इब्राहिम शाह की विशाल सैन्य शक्ति पर भरोसा.
अचानक राजा की हत्या के बाद ‘देश’ की वित्तीय हालत, बेतरतीबी और अफरातफरी का यथार्थ वर्णन कीर्तिलता का वैशिष्ट्य है. तिरहुत के सभी गुण तिरोहित हो जाने के कारण ही कीर्तिसिंह कमर कसते हैं. यहाँ तिरहुत यानी मिथिला और मिथिला की जनता के प्रति लगाव उन्हें इस भयंकर युद्ध में शामिल करवाता है. विद्यापति चाहते तो अन्य आदिकालीन चरितकाव्य की तरह रोमांस का सृजन कर सकते थे. किंतु कीर्तिलता में मिथिला की चिंता सर्वोपरि है.
साहित्य के साथ इतिहास का निर्वाह कठिनतम दायित्व है. यह अत्यंत दुरूह कवि-कर्म है. कविता की कल्पनाशीलता में इतिहास की डोर छूटने लगती है तो इतिहास की मजबूत पकड़ कविता को नीरस बनाने लगती है. यही कारण है कि अधिकांश ऐतिहासिक काव्य में इतिहास की यथार्थता नदारद रहती है. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने काव्य और इतिहास के अंतरंग रिश्ते पर गंभीरता से विचार किया है. उनके विचार में कवि के लिए कल्पना की दुनिया वास्तविक दुनिया से अधिक सत्य है.
और वास्तविक जगत की कोई घटना उसकी कल्पनावृत्ति को उकसाने का सहारा भर है. इस प्रकार इतिहास उसकी दृष्टि में गौण है. वह केवल कल्पना-वृत्ति को उकसाने के लिए मनोहर जगत के निर्माण के लिए सहायक मात्र है. द्विवेदी जी के शब्दों में
“विवाह के समय स्त्रियां नाचती गाती थीं यह ऐतिहासिक तथ्य है. कवि के लिए इतना संकेत काफी है. फिर वह कल्पना की जाल बिछा देगा. स्थान-स्थान पण्य विलासिनियों के नृत्य केंद्रित आयोजन को वह इस रूप में चित्रित करेगा जिससे पाठक का चित्त मदविह्वाल हो जाए…. इस प्रकार का कोई अवसर मिला नहीं कि कवि की कल्पना उत्तेजित हुई नहीं. फिर कहाँ गया इतिहास और कहाँ गई तथ्यों की वह दुनिया जो बार-बार ठोकर मारकर कवि कल्पना की स्वच्छंद उड़ान में बाधा पहुंचाती रहती है.[xii]
३.
साहित्य और इतिहास का मुखामुखम
हजारी प्रसाद द्विवेदी सीधे-सीधे इतिहास अनुशासन में दीक्षित नहीं हैं, किंतु इतिहास की उनकी समझ अद्भुत है. उनकी चिंता यह है कि
“हिंदुस्तान में इतिहास को ठीक-ठीक आधुनिक अर्थ में कभी नहीं लिया गया. बराबर ही ऐतिहासिक व्यक्ति को पौराणिक या काल्पनिक कथानक बनाने की प्रवृत्ति रही है. कुछ में देवी शक्ति का आरोप करके पौराणिक बना दिया है; जैसे- राम, बुद्ध, कृष्ण आदि और कुछ में काल्पनिक रोमांस का आरोप करके निजंधरी कथाओं का आश्रय बना दिया है; जैसे उदयन, विक्रमादित्य और हाल. जायसी के रतनसेन और रासो के पृथ्वीराज में तथ्य और कल्पना का- फैक्ट्स और फिक्शन का अद्भुत योग हुआ है. कर्मफल की अनिवार्यता में, दुर्भाग्य और सौभाग्य की अद्भुत शक्ति में, मनुष्य के अपूर्व शक्ति भंडार होने में विश्वास ने इस देश के ऐतिहासिक व्यक्तियों का भी चरित्र लिखा जाने लगा, तब भी इतिहास का कार्य नहीं हुआ. अंत तक यह रचनाएँ काव्य ही बन सकीं इतिहास नहीं.”[xiii]
विद्यापति के संदर्भ में हम देखते हैं कि विद्यापति ने अपने कई आश्रयदाताओं पर चरित काव्य लिखा है लेकिन किसी चरित नायक में चमत्कार या देवी वरदान की कल्पना नहीं की. लेकिन आधुनिक रचनाकारों ने विद्यापति पर लिखते हुए उनके सेवक उगना को साक्षात शिव मान लिया. उनके गंगा-प्रेम को देखते हुए यह कल्पना कर ली कि उनके अंतिम समय में गंगा फूटकर उनके पास आ गई थी.
मध्यकालीन कवि विद्यापति इतिहास के प्रति आधुनिक दृष्टि रखते हैं लेकिन आधुनिक रचनाकारों का यह इतिहास के प्रति पौराणिक और मध्यकालीन दृष्टि है.
हजारी प्रसाद द्विवेदी आदिकालीन साहित्य के संदर्भ में इतिहास की पौराणिक दृष्टि की तीव्र आलोचना करते हैं. अपने सचेत इतिहास-बोध को अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं,
“सब मिलाकर ऐतिहासिक काव्य काल्पनिक निजंधरी कथानकों पर आश्रित काव्य से बहुत भिन्न नहीं होते. उनसे आप इतिहास के शोध की सामग्री संग्रह कर सकते हैं, पर इतिहास को नहीं पा सकते. इतिहास जो जीवंत मनुष्य के विकास की जीवन-कथा होता है, जो काल-प्रवाह से नित्य उद्घाटित होते रहने वाले नव-नव घटनाओं और परिस्थितियों के भीतर से मनुष्य की विजय यात्रा का चित्र उपस्थित करता है, और जो काल के परदे पर प्रतिफलित होने वाले नए-नए दृश्यों को हमारे सामने से सहज भाव से उद्घाटित करता रहता है. भारतीय कवि इतिहास प्रसिद्ध पात्र को भी निजंधरी कथानकों की उँचाई तक ले जाना चाहता है.”[xiv]
कीर्तिलता में इतिहास संबंधी यह विसंगतियाँ बहुत कम हैं. विद्यापति इस मामले में सजग कवि हैं और सावधान इतिहासकार- दोनों एक साथ. ऐसा नहीं है कि उनमें अतिशयोक्ति नहीं है. अतिशयोक्ति खूब है. लेकिन यह अतिशयोक्ति वहीं हैं जहाँ इतिहास का तथ्य बाधित नहीं होता है, कल्पनाशीलता वही है जहाँ इतिहास खंडित नहीं होता है. हजारी प्रसाद द्विवेदी कीर्तिलता की ऐतिहासिकता पर यूँ ही मुग्ध नहीं हैं. कीर्तिलता की ऐतिहासिकता पर उनका यहाँ एक लंबा उद्धरण देना आवश्यक जान पड़ता है. उनका यह उद्धरण कीर्तिलता को सम्पूर्ण मध्यकालीन भारतीय साहित्य में गौरव-ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित करता है,
“इन ऐतिहासिक काव्यों में कीर्तिलता का स्थान कुछ विशिष्ट है. यद्यपि यह पुस्तक भी आश्रयदाता समसामयिक राजा की कीर्ति गाने के उद्देश्य से ही लिखी गई है. और कविजनोचित अलंकृत भाषा में रची गई है तथा इसमें ऐतिहासिक तथ्य कल्पित घटनाओं या संभावनाओं के द्वारा धूमिल नहीं हो गया है. कीर्तिसिंह का चरित्र बहुत ही स्पष्ट और उज्ज्वल रूप में चित्रित हुआ है. कवि की लेखनी चित्रकार की उस तूलिका के समान नहीं है जो छाया और आलोक के सामंजस्य से चित्रों को ग्राह्य बनाती है बल्कि उस शिल्पी की टाँकी के समान है जो मूर्तियों के भी भित्तिगात्र में उभार देता है, हम उत्कीर्ण मूर्ति की ऊँचाई-नीचाई का पूरा-पूरा अनुभव करते हैं. उस काल के मुसलमानों का, हिंदूओं का, सामंतों का, शहरों का, लड़ाइयों का, सेना का, सिपाहियों के इतना जीवंत और यथार्थ वर्णन अन्यत्र मिलना कठिन है. कवि ने, जो भी सामने आ गया उसका ब्यौरेवार वर्णन करके चित्र को यथार्थ बनाने का प्रयत्न नहीं किया है; बल्कि आवश्यकतानुसार निर्वाचन, चयन और समंजस योजना के द्वारा चित्र को पूर्ण और सजीव बनाने का प्रयत्न किया है. इस प्रकार यह काव्य इतिहास की सामग्री से निर्मित होकर भी केवल तथ्य निरूपक पुस्तक नहीं बना है; बल्कि सचमुच का काव्य बना है. बहुत कम स्थलों पर कवि ने केवल संभावनाओं को वृहदाकार बनाया है. कीर्तिसिंह का वीररूप भी स्पष्ट हो जाता है और जौनपुर के सुल्तान फिरोज शाह (यहाँ इब्राहिम शाह होना चाहिए, क्योंकि कीर्तिलता में इब्राहिम शाह का ही वर्णन हुआ है) के सामने उसका अति नम्र भक्तिमान रूप भी प्रकट हुआ है. इन चित्रणों में कवि ने कीर्तिसिंह के द्वितीय रूप को दबाने का, उज्ज्वलतम रूप में चित्रित करने का प्रयास नहीं किया; बल्कि ऐतिहासिक तथ्य को इस भांति रखने का प्रयत्न किया है कि जिस स्थान पर कथानायक झुकता है, वहाँ भी वह पाठक की सहानुभूति और परिशंसन का पात्र बना रहता है…. सब मिलाकर कीर्तिलता अपने समय का बहुत ही सुंदर चित्र उपस्थित करती है. वह इतिहास का कविदृष्ट जीवंत रूप है. उसमें न तो काव्य के प्रति पक्षपात है, न इतिहास की उपेक्षा; उसमें यथास्थान पाठक के चित्त में करुणा, सहानुभूति, हास्य, औत्सुक्य और उत्कंठा जागृत करने के विचित्र गुण हैं.[xv]
मध्यकालीन हिंदी काव्य (रासो आदि) से कीर्तिलता कुछ अन्य अर्थों में भी भिन्न और विशिष्ट है. इन भिन्नताओं की ओर संकेत करने से कीर्तिलता की अर्थछटा निखरकर सामने आती है. मध्यकालीन चरितकाव्य का चरितनायक निभ्रांत पराक्रमी होता है. उसके पराक्रम के समक्ष कोई टिक नहीं पाता. उसे कभी न दु:ख सताता है न किसी बात पर वह खुश होता है. उदासी के क्षण तो उसके समक्ष फटकते ही नहीं. अवसाद तो उससे कोसों दूर रहता है. आशय है कि जीवन के बहुविध रंग से वह चरितनायक सर्वथा दूर रहता है. ऐसा लगता है कि उसका पदार्पण मात्र अपने पराक्रम का प्रदर्शन और भोग विलास के निमित्त हुआ है. भारतीय काव्येतिहास में धीरोदात्त नायक की परिकल्पना कुछ ऐसी ही की गई है. अंतर्विरोध, असमंजस, द्वंद्व आदि से परे वह हमेशा निर्भ्रान्त रहता है. जबकि संस्कृत के कुछ महाकाव्यों के चरितनायक इतने एकरेखीय नहीं होते. लेकिन जिस परंपरा में हम विद्यापति को चिह्नित करते हैं, उस परंपरा के चरितनायक के व्यक्तित्व में उतार-चढ़ाव या जीवनानुभूति का अभाव उसके व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान नहीं कर पाता.
इससे अलग कीर्तिलता का चरितनायक मिथिला नरेश कीर्तिसिंह अपने पराक्रम और शौर्य के प्रति निर्भ्रान्त नहीं हैं. इसलिए वे जौनपुर के शासक इब्राहिम शाह से मदद मांगने जाते हैं. उनकी अनावश्यक तारीफ करते हैं, ‘नगर की सजावट की कथा क्या कहूँ ऐसा जान पड़ता था जैसे दूसरी अमरावती (इंद्रपुरी) का अवतार हुआ हो.’
जौनपुर जाने के रास्ते में चरितनायक कीर्तिसिंह और सहोदर वीरसिंह की जो दुर्दशा होती है, उस पर किसी का भी हृदय विदीर्ण हो सकता है. राजपुरुष, जिसने कभी कष्ट नहीं झेला वह भयानक कष्टों से घिर जाता है. चला था मिथिला की दयनीयता को दूर करने, किंतु खुद दयनीय स्थिति को प्राप्त होता है-
“लोगों को छोड़ा, परिवार छोड़ा, राजपाट का परित्याग किया, श्रेष्ठ घोड़े और परिजनों को छोड़ा जननी के पाँव को प्रणाम किया, जन्मभूमि का मोह छोड़कर चले. नव यौवना पत्नी छोड़ी, सारा धन-वैभव छोड़ा. बादशाह से मिलने के लिए राजा गणेश्वर के पुत्र चले.”
लोभ छोडिडय अवरु परिवारा
रज्ज भोग परिहरिअ वर तुरंग परिजन विमुक्कीय
जननि पाए पन्नविअ जन्मभूमि को मोह छड्डिअ
पांतिसाह उद्देसे चलु गअन राय को पुत्त.[xvi]
सब कुछ छोड़छाड़ कर मिथिला को असलान के शिकंजे और आंतरिक शत्रुओं से मुक्ति दिलाने के लिए दोनों कुमार पांव पैदल जौनपुर के लिए चल दिए. इन दोनों कुमार के प्रति राह में आने वाली कठिनाइयों और एक नेक कार्य के लिए चलनेवाले के प्रति लोगों की संवेदनशीलता का बहुत ही सुंदर वर्णन विद्यापति ने कीर्तिलता में किया है. बहुत सी पट्टियां (बसे लोगों वाली जगह) और प्रांतर (निर्जन स्थान) पार करते चले…. बीच-बीच में ठहरते गए.
किसी ने कपड़ा दिया, किसी ने घोड़ा, किसी ने रास्ते के लिए थोड़ा संबल (राह खर्च) दिया, कोई कतार में आकर मनोबल बढ़ाने के लिए साथ चलता. किसी ने उधार दिया, किसी ने नदी पार कराया. किसी ने समान ढो दिया, किसी ने सीधा मार्ग बताया, किसी ने विनय पूर्वक आतिथ्य किया. इसी तरह कितने दिनों पर रास्ता समाप्त हुआ-
वहुल छाँड़ल पाटि पांतरे
वसन पाएल आँतरे
जहाँ जाइअ जेहे गांवों
भोगाइ राजा क वड्डि नावों
काहु कापल काहु घोल
काहु सम्बल देल थोल.[xvii]
इस वर्णन में अत्यंत सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों पर कवि का ध्यान गया है. लंबी पैदल यात्रा की तकरीबन सारी कठिनाई और विशेषताएँ यहां उपस्थित हो गई हैं. यह यथार्थ वर्णन, कुमार की यह दशा और दुख कीर्तिलता को मध्यकालीन काव्य परंपरा में विशिष्ट बनाता है.
नायिकाविहीन चरितकाव्य की रचना विद्यापति के साहस का परिचायक है. उस समय नायिका के बगैर काव्य रचना के प्रति सोचना भी दुष्कर रहा होगा. नायिका की उपस्थिति और उसका अपार सौंदर्य ही कवि कल्पना की उर्वर भूमि होती थी. भले ही वह नायिका मात्र कवि और नायक के मनबहलाव के लिए ही क्यों न सृजित की गई हो. अधिकांश मध्यकालीन काव्य में नायिका का सारा गुण अपूर्व सुंदर होने और नायक पर अपना प्रेम उड़ेल देने तक सीमित रहा है. यह सुखद तथ्य है कि कीर्तिलता नायिकाविहीन खंडकाव्य है. जबकि विद्यापति प्रेम और श्रृंगार के विरलतम कवि के रूप में प्रख्यात रहे हैं. कीर्तिलता में नायिका का प्रवेश विद्यापति की कल्पनाशीलता में चार चांद लगा सकता था, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ ‘रोमांस’ में काफूर हो सकती थी. लेकिन नहीं. विद्यापति ने कीर्तिलता को सोद्देश्य नायिकाविहीन रखा है. उद्देश्य स्पष्ट है- मिथिला की मुक्ति. तिरहुति की जनता को तबाही से त्राण दिलाना.
युद्ध की विभीषिका देश और देश की जनता को कैसे तबाह कर देती है, यह कीर्तिलता का एक महत्वपूर्ण पाठ है. इससे भी आगे बढ़कर अमूमन लड़ाई लड़ते तो पुरुष हैं लेकिन इसकी शिकार औरतें होती हैं. युद्ध में मारे गए सेनिकों की माँओं, पत्नियों, बेटियों और बहुओं के साथ क्या-क्या होता है और किस तरह की गलीज भरी ज़िन्दगी उन्हें जीना पड़ता है, यह कई आधुनिक रचनाओं से हम भली-भाँति समझ सकते हैं.
बड़ी बात यह है कि मध्कालीन रचनाकार विद्यापति भी युद्ध में स्त्री-दुर्दशा से चिंतित हैं और कीर्तिलता में इसकी और स्पष्ट संकेत करते हैं. मिथिला के दोनों कुमार के साथ जब तुर्क सुल्तान की उद्धत सेना युद्ध के लिए प्रस्थान करती है तो वह कोहराम मचाती चलती है. गाय और ब्राह्मणों की हत्या से उसे परहेज नहीं और शत्रु नगर की स्त्रियों को बंदी बनाने में संकोच नहीं-
गो बम्भन बध दोस न मानथि .
पर पुर नारि बन्दि कए आनथि ..[xviii]
खलनायक में भी सहज मानवीय गुणों का समावेश कीर्तिलता को आधुनिक चित्त के करीब ले आता है. खलनायक भी आखिर मनुष्य होता है उसके पास भी एक हृदय होता है, परिस्थिति विशेष में उसकी संवेदना भी जागृत होती है, उसे भी दुख-पश्चाताप सताता है; यह बात मध्यकालीन कवियों में विद्यापति समझ रहे थे. नायक गुणों का खान और खलनायक दुर्गुणों की गठरी यह पुरानी सोच है. कीर्तिलता में असलान राज्यलोभ में गणेश्वर की हत्या तो कर देता है. किंतु हत्या के बाद पश्चाताप से घिर जाता है- राजा के वध के बाद असलान का रोष शांत हुआ. अपने मन ही मन तुर्क असलान यूं सोचने लगा. मैंने यह बुरा काम किया, धर्म का विचार करके वह सिर धुनता. इस दुर्नीति से किये गए कुकृत्य से उद्धार पाने के लिए इससे बड़ा पुण्य कोई और नहीं दिखाई पड़ता कि मैं कीर्तिसिंह को राज्य सौंपूँ और उनका सम्मान करूँ-
राए वधिअऊं संत हुअ रोस.
निज मनहिं मने अस तुरुक्क असलान गुन्नइ
मंद करिअ होओ कम्म धम्म सुमरि निज सीस धुन्नइ….[xix]
४.
मुसलमान-ब्राह्मण (मैथिल) कनेक्शन
विद्यापति की कीर्तिलता और वल्लभाचार्य के कृष्णाश्रय ग्रंथ में एक श्लोक ‘मलेच्छाक्रांतेषु देशेषु पापेकलिनयेषु’ के अतिरिक्त संपूर्ण भक्तिकाव्य में मुसलमानों के अत्याचार का वर्णन सामान्यता देखने को नहीं मिलता है.
विद्यापति और वल्लभाचार्य तदयुगीन मुस्लिम अत्याचार के यथार्थ को व्यक्त करते हैं. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, जिससे आँखें चुराना सत्य पर परदा डालना है. कठिनाई यह है कि इस सत्य की व्याख्या विद्वान अपनी-अपनी सुविधानुसार करते रहे हैं. सर्वप्रथम हम विद्यापति पर विचार करें. कीर्तिलता में विद्यापति हिन्दू और मुसलमान की मिली-जुली संस्कृति को रेखांकित करते हैं. उसके बाद तुर्क सैनिकों के अत्याचार का- कोई तुर्क ब्राह्मण बटुक को पकड़कर लाता है और उसके माथे पर गाय का शिरूआ रख देता है. तिलक पोंछकर जनेऊ तोड़ देता है. उसके ऊपर घोड़ा चढ़ाना चाहता है. धोए उरिधान (नीवार) से मदिरा बनाता है. देव कुल (मंदिर) को तोड़कर मस्जिद बनाता है-
धरि आनए वाभन वरुआ
मंथा चढ़ावए गाइक चुरुआ
फोट चाय जनेऊ तोर
ऊपर चढ़ावए चाह घोर
धोआ उरिधाने मदिरा सांध
देउरि भांग मसीद बांध[xx]
मैथिली-हिंदी के कई विद्वानों ने विद्यापति की इन पंक्तियों के आधार पर हिंदूओ पर मुसलमान के बर्बर अत्याचार को रेखांकित किया है. लेकिन इस रेखांकन के दूसरे महत्वपूर्ण पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिए. और वह पक्ष यह है कि मुस्लिम शासकों के सौजन्य से ही मिथिला का शासन ब्राह्मणों के हाथ लगा. ‘मिथिला का इतिहास’ इस बात की तस्दीक करते हुए लिखता है
“फिरोज तुगलक ने कामेश्वर ठाकुर को मिथिला का अपना अधीन शासन नियुक्त किया था. उसका भाग्य विधाता दिल्ली का सुल्तान था.”[xxi]
कामेश्वर ठाकुर बहुत कम दिनों तक शासन कर पाए. जो भी वजह रही हो, फ़िरोजशाह ने दूसरी बार कामेश्वर ठाकुर के बेटे को मिथिला की बागडोर सौंपी-
“फिरोजशाह ने हाजी इलियास को परास्त कर मिथिला के उक्त विभाजन को समाप्त कर दिया. उसने कामेश्वर-पुत्र भोगेश्वर को अपने अधीन करद-भूप बनाकर अखंड मिथिला राज्य का उसे स्वामी बनाया.[xxii]
फ़िरोजशाह के समकालीन इतिहासकारों ने फिरोजशाह की मिथिला यात्रा पर विस्तार से प्रकाश डाला है. ‘तारीख-ए- फिरोजशाही’ में जियाउद्दीन बरनी उनके तिरहुति आगमन के संबंध में लिखते हैं,
“फिरोजशाह को यह सूचना मिली कि लखनौती के शासक इलियास ने उस प्रदेश को अपहरण द्वारा अपने अधिकार में कर लिया है और तिरहुत पर आक्रमण कर यहाँ के लोगों को कष्ट दे रखा है. अपहरण द्वारा बल प्राप्त करके मस्ती, अत्याचार, जुल्म तथा लूटमार के कारण उसे अपने हाथ-पांव की सुधि-बुधि नहीं रही; वह उस प्रदेश को नष्ट तथा ध्वंस कर रहा है.”
इस बात से खिन्न होकर फिरोजशाह 10 शव्वाल 754 हि. (8 नवंबर 1353 ई.) को बहुत भारी सेना लेकर राजधानी दिल्ली से बाहर निकला और लखनौती तथा पंडवा की ओर प्रस्थान करके निरंतर कूच करता हुआ अवध प्रदेश में पहुंचा.[xxiii]
दरभंगा के सामंतों और उच्च वर्ण / वर्गों द्वारा फिरोजशाह के भव्य स्वागत और सम्मान का जिक्र भी बरनी ने किया है,
“शाही पताकाएँ गोरखपुर से जगत पहुंची और जगत से सैर करती हुई कि तिरहुति में छाया डालने लगी. तिरहुति का राय तथा उस प्रदेश के राजा एवं जमींदार लोग दरबार में उपस्थित हुए और उन्होंने उपहार प्रस्तुत किए, उन्हें खिलअतें तथा सम्मान प्रदान हुआ. तिरहुत प्रदेश जिस प्रकार पहले दरबार के अधीन था तथा आज्ञाकारी था और खराज अदा करता था उसी प्रकार आज्ञाकारी तथा अधीन हो गया. शरा तथा राज्य का प्रबंध करने के लिए अधिकारी नियमानुसार सम्मानित राजसिंहासन की ओर से नियुक्त हुए. वह प्रदेश सुव्यवस्थित तथा सुशासित हो गया.[xxiv]
पिरुजगढ़ (झंझारपुर, मधुबनी, बिहार) के ग्रामीणों का कहना है कि फिरोजशाह अपने लाव लश्कर के साथ इसी में गाँव में टिका था. उसी के नाम पर गाँव का नाम ‘पुरुजगढ़’ हो गया.
फिरोजशाह के सवर्ण हिंदू प्रेम के कुछ ठोस कारण भी थे. फिरोज शाह के पिता रजब की शादी दीपालपुर के राजा रणमल भट्टी की पुत्री बीवी नायला से हुई थी. यही क्षत्राणी फिरोजशाह की माँ थीं. फिरोजशाह की पहली पत्नी भी हिंदू थी. और सबसे अधिक उसके राज्य का कर्ताधर्ता वजीर इमामउल मुल्क मकबूल तेलंगाना का एक ब्राह्मण था. फिरोजशाह प्रशासनिक कार्यों में इनके अलावा किसी दूसरे का नहीं सुनता. इसलिए जब फिरोजशाह ने अपने अंतिम दौर में जज़िया कर से मुक्त ब्राह्मणों पर भी जज़िया लगाया तो ब्राह्मणों में हताशा व्याप्त हो गई. पूर्व में ब्राह्मणों ने अपने ‘प्रताप’ से जज़िया कर से अपने को बरी कराया हुआ था. किंतु पहली बार फिरोजशाह को यह बात अटपटी लगी कि ब्राह्मण इस कर से मुक्त क्यों हैं?
ब्राह्मणों की एक टीम फिरोजशाह के पास गई और कहा कि यदि उनसे भी जज़िया कर लिया जाएगा तो वे अपने को आग के हवाले कर देंगे. फिरोजशाह के समकालीन इतिहासकार शम्स शिराज अफीफ़ी ‘तारीख ए फिरोजशाही’ में लिखते हैं
“जब उनके (ब्राह्मणों) ये सख्त अल्फाज बादशाह के कानों में पहुंचे तो उसने कैफियत बयान करने वालों को क्रोध से देखते हुए कहा कि ‘इन लोगों से कहो कि वे तत्काल अपने आप को जला डालें तथा मर जाएं, उनका जज़िया कोई नहीं छोड़ेगा. उन्हें यह विचार अपने हृदय से निकाल देना चाहिए.”[xxv]
इसी फिरोजशाह से मिथिला के राजा भोगेश्वाए सिंह की गहरी मित्रता थी जिसकी और विद्यापति कीर्तिलता में संकेत करते हैं. इस तरह कर्णाट वंश के हाथ से मिथिला के ब्राह्मणों के हाथ में शासन फिरोजशाह के कारण आया. विद्यापति के अनुसार फिर दूसरी बार मुस्लिम शासक इब्राहिम शाह ने एक मुस्लिम आक्रांता असलान को पराजित कर अपने हाथ से ब्राह्मण कीर्तिसिंह का राजतिलक किया-
‘पातिशाह जासु तिलक कर कीर्तिसिंह भऊँभ भूप.’
आज जिस मिथिला पर हम गौरवान्वित होते हैं उसमें मुसलमान शासक फिरोजशाह तुगलक और इब्राहिम शाह की भी आभा है. विद्यापति ने भोगेश्वर राय को अत्यंत प्रतापी सम्राट के रूप में चित्रित किया है और यह भी कहा है कि फिरोजशाह उन्हें प्रिय शाखा के नाम से संबोधित करते थे –
‘पिय सख भणि पिअरोज शाह सुरताण समानल’.
विद्यापति की इन पंक्तियों से और फिरोजशाह से लेकर इब्राहिम शाह की भूरि-भूरि प्रशंसा के निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है. विद्यापति अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमान और ब्राह्मण कनेक्शन के यथार्थ की ओर संकेत कर रहे हैं. पूरे देश के स्तर पर उन दिनों मुसलमान-राजपूत कनेक्शन तथा मिथिला के स्तर पर मुसलमान-ब्राह्मण गठबंधन को समझने से निहितार्थ स्पष्ट हो सकता है. मुस्लिम अत्याचार एक यथार्थ है तो दूसरा यथार्थ यह भी है.
इसी मुसलमान-ब्राह्मण गठबंधन का परिणाम है कि इब्राहिमशाह भारी फौज लेकर असलान से युद्ध करने आता है. एक मुसलमान राजा हिंदू ब्राह्मण की तरफ से मुसलमान के ही खिलाफ लड़ाई लड़ता है. फिरोजशाह इलियास के विरुद्ध और इब्राहिम शाह असलान के विरुद्ध.
यह भी एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सच्चाई है. सांप्रदायिक दृष्टि से इतिहास को देखने वालों को यह देखना चाहिए कि विद्यापति मध्यकालीन सत्ता के इस चरित्र की ओर संकेत करते हैं. विद्यापति की उन चंद पंक्तियों के आधार पर हिन्दुओं पर मुसलमान के अत्याचार का सामान्यीकरण करने वालों को इस संबंध पर भी विचार करना चाहिए.
महाराणा प्रताप और अकबर के बीच युद्ध को हिंदू मुसलमान के बीच का युद्ध समझने वाले लोगों को यह विदित है कि हल्दीघाटी के युद्ध में अफगानी मुस्लिम पठान हकीम खान सूरी महाराणा प्रताप का सेनापति था और अकबर की तरफ से आमेर के राजा मानसिंह सेनापति की भूमिका में थे.
विद्यापति ने तुर्ककालीन मुसलमान के अत्याचार को कीर्तिलता में रेखांकित किया है. 10वीं-11वीं शताब्दी से लेकर 16वीं-17वीं शताब्दी तक के काल के मुस्लिम अत्याचार या शोषण को एक समान मानना भारी ऐतिहासिक भूल है. मुगलपूर्व मुस्लिम शासन और मुगलकालीन मुस्लिम शासन में बहुत फर्क है- अत्याचार, शोषण और नीयत के मामले में भी.
इस प्रचंड फ़र्क को समझकर ही विद्यापति की उन पंक्तियों पर विचार किया जाना चाहिए. सुप्रसिद्ध इतिहासकार मोहम्मद हबीब अपने एक महत्वपूर्ण आलेख ‘महमूद के कार्यों का चरित्र और मूल्य’ में इस भिन्नता को दर्शाते हुए लिखते हैं
“15 वर्ष बाद हिंदू पुनरुत्थान के आगे वह नष्ट हो गए. जिसने तलवार उठाई वह तलवार से ही मारा गया. लाहौर के पूरब में मुसलमान का कोई चिह्न बाकी नहीं रहा. हिंदू विश्वास की जड़ें तो वे नहीं हिला सके पर अपने धर्म पर अमिट कलंक जरूर लगा दिया. दो सदियों बाद इस्लाम इस देश में फिर आया. उन लोगों के साथ जो महमूद से उतने ही भिन्न थे जितने भिन्न कोई दो इंसान संभव हो सकते हैं. पर जमाना बदल चुका था. फिर वह नया रहस्यवाद (सूफीवाद) सामने आया. जिसकी प्रवृत्तियां विश्ववादी थी. और जिसके सिद्धांत प्राचीन भारत के हिंदू ऋषियों की मूल शिक्षाओं से भिन्न न थी. इस रहस्यवाद के कारण दोनों धर्मों के लोगों के बीच विचारों का आदान-प्रदान संभव हुआ.”[xxvi]
यह इतिहास-दृष्टि यह मानती है कि बाद के मुगल बादशाहों का हिंसा-कर्म सत्ता संघर्ष का परिणाम था- न कि हिंदू मुसलमान का. जो भी इनकी सत्ता को चुनौती देता या जिनसे चुनौती की संभावना नजर आती वे इनके दुश्मन हो जाते- वह हिंदू हो या मुसलमान. अगर ऐसा नहीं होता तो भारी पैमाने पर मुसलमान ही इस हिंसा के शिकार नहीं होते.
हिंदू राजाओं के काल में भी भारी पैमाने पर हिंसा हुई, उसमें हिंदू ही मारे गए. संप्रदायवादी इतिहास-दृष्टि इस हिंसा और अत्याचार को सत्ता संघर्ष न मानकर आम हिंदू पर हुए अत्याचार का नैरेशन तैयार करती है.
लोकचित्त में धंसे मध्यकाल के भक्तकवि इस फर्क को समझ रहे थे. वे बादशाहों और सामंतों के सत्ताराग और सत्तापक्षी लडाइयों तथा शोषण से परिचित थे. इसलिए उन्होंने अपनी कविताओं में हिन्दू पर मुसलमान अत्याचार को एक सिरे से खारिज किया है.
५.
राजकुल का अंतर्कलह और बतौर खलनायक मुसलमान की कल्प-सृष्टि
हिंदी के ऐसे अध्येताओं जिन्हें मिथिला के इतिहास का पर्याप्त ज्ञान नहीं है वह विद्यापति की कीर्तिलता के आधार पर असलान को गणेश्वर का हत्यारा मान लेते हैं. लेकिन विद्यापति ने यहां इतिहास-धर्म का निर्वाह न कर राजधर्म का पालन किया. दरअसल गणेश्वर की हत्या मिथिला राजकुल के अंतर्कलह का परिणाम थी. असलान ने गणेश्वर की हत्या की ही नहीं थी. मिथिला के इतिहासकार और मिथिला के विद्वान भली-भांति इस तथ्य से परिचित हैं कि विद्यापति ने मिथिला राजकुल की इज्जत बचाने के लिए इस अंतरकलह पर परदा डालने के लिए असलान नामक मुसलमान की कल्पना की है. इस कल्पना से लंबे समय तक ऐतिहासिक भ्रांति फैली रही. इतिहासकार उपेंद्र ठाकुर ‘हिस्ट्री ऑफ मिथिला’ में स्पष्ट रूप से लिखते हैं
“Bhavesvara (Bhavesh or Bhavasimha) though quietly submitted to this decision, his sons-prince Harisimha and Tripursimha-got enraged, conspiracy against and finally succeeded in killing Ganesvara with the help of one Arjuna Rai and Ratnakara.”[xxvii]
महामहोपाध्याय पंडित परमेश्वर झा रचित अत्यंत महत्वपूर्ण पोथी ‘मिथिला तत्व विमर्श’ के हवाले ‘मिथिला का इतिहास’ में भी इस सचाई को उद्घाटित किया गया है,
“गणेश्वर के राज्याभिषेक काल में उत्तराधिकार का प्रश्न लेकर किंचित झंझट उत्पन्न हुई. उसके पिता का भ्राता भवसिंह अथवा भवेश जीवित था. कुछ लोग गणेश्वर के और कुछ भवसिंह के पक्ष में हो गए. दोनों दलों ने अपने-अपने पक्ष के उम्मीदवार के अधिकार का समर्थन करना आरंभ कर दिया. पर शीघ्र झगड़े का निपटारा हो गया. निर्णय गणेश्वर के पक्ष में हुआ. वह मिथिला के सिंहासन पर बैठा. भवसिंह ने अपने भातृ-पुत्र के निर्णय को स्वीकार कर लिया. किंतु उसके दो राजकुमार हरिसिंह एवं त्रिपुर सिंह को संतुष्टि न हुई. गणेश्वर के विरुद्ध इन दोनों (राजकुमारों) ने षड्यंत्र करना आरंभ किया. अर्जुन राय एवं रत्नाकर के सहयोग से अंततोगत्वा गणेश्वर की हत्या करने में षड्यंत्रकारियों को सफलता मिली.[xxviii]
पश्चात, प्रतिशोध में इस अर्जुन राय की भी हत्या हो जाती है. विद्यापति ने ‘लिखनावली’ में पुरादित्य (शिवसिंह का प्रिय मित्र) को अर्जुन राय का हंता बताया है. मिथिला के इतिहासकार का इस अनुमान में दम लगता है कि “असलान के माध्यम से गणेश्वर की हत्या अर्जुन आदि द्वारा किए गए षड्यंत्र का ही परिणाम रहा होगा.”[xxix]
लेकिन साथ ही इतिहासकार यह भी कह जाते हैं कि पवित्र ओइनवार ब्राह्मण राजपरिवार के सदस्यों द्वारा राजलोभ से किए गए निकृष्टतम जघन्य कृत्य पारिवारिक हत्या पर आवरण डालने के विचार से कवि कोकिल के उर्वर मस्तिष्क में किसी काल्पनिक विधर्मी हत्यारे असलान की कथा के सृजन करने की कल्पना उत्पन्न हुई और उसका प्रतिफल उसके लोकप्रिय सम्बद्ध पदों का निर्माण तथा उसके गान द्वारा जनता में भ्रामक कल्पित एवं तथ्यहीन कथानक का प्रचार हो गया.”[xxx]
वास्तव में राजलोभ किसी को भी नहीं बख्शता- वह ‘विधर्मी’ मुसलमान हो या ‘पवित्र’ ब्राह्मण.
६.
राज बरक्स समाज का यथार्थ
कीर्तिलता 14वीं शताब्दी के भारत का राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का लघु एल्बम है. कीर्तिलता में जौनपुर के दरबार से लेकर बाजार, अट्टालिका, वीथियों, राजमार्गों, दुकानों, वेश्याओं, सिपाहियों तथा उनके तंबू का यथार्थ चित्रण हुआ है. युद्ध के समय महंगाई आसमान छूने लगती है. इब्राहिम शाह की सेना युद्ध के लिए गाँव, नगर को पददलित करते हुए मिथिला की ओर कूच करती है तो युद्धजनित महंगाई विद्यापति से ओझल नहीं हो पाती-सेर के भाव पानी खरीद कर लाइए, पीते समय कपड़े से छानिए, पान के लिए सोने का टंक दीजिए, इंधन चंदन के भाव बिकता. बहुत कौड़ी (पैसा) देने पर ,थोड़ा कनिक (अन्न) मिलता. घी के लिए घोड़ा देना पड़ जाता. शरीर में लगाने के लिए करुआ का तेल (सरसों तेल) मिलता, बांदी और बैल महंगे दामों में मिलते-
सेरें कीनि पानि आनिअ.
पीवए षने कापडे छनिअ
चंदन क मूल ईंधन विका
वहुल कौटि कनिक थोड़
घीवक बेचाँ दीअ घोड़
करुआ क तेल आँगे लाइअ
वांदि बड़दा सओघ पाइअ.[xxxi]
हिंदू मुसलमान आपसी अंतर संबंधी ऐसे कई मिथकों को कीर्तिलता तोड़ती है जो आम जनमानस में फैली हुई है. यदि पूर्व सैनिकों का एक ओर अत्याचार है तो दूसरी तरफ विद्यापति को श्वेतधजा युक्त स्वर्ण कलशों से सुशोभित हजारों शिवालय भी इब्राहिम शाह की नगरी में दिखाई देते हैं –
‘धअ धवल हर घर सहस पेशखिअ कनक कलशहिं मंडिया.’[xxxii]
आजादी के बाद भी पूरे देश में फैले मंदिर वैसे भी मंदिर विध्वंसक मिथक को तोड़ते हैं. विद्यापति ने यह भी बताया है कि आम हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के धर्म का उपहास करते हुए भी मिलजुल कर रहते हैं-
‘हिन्दू तुरके मिलल बास
एकक धम्मे अओका उपहास.’[xxxiii]
जौनपुर के बाजार का दृश्य तो विद्यापति ने ऐसा विलक्षण रचा है कि सभी विद्वानों का ध्यान इस ओर स्वाभाविक रूप से गया है. सबसे बड़ी बात यह है कि जौनपुर का राजसी ठाठबाट विद्यापति को उतना रास नहीं आता जितना जौनपुर का आम जनजीवन- आम जनजीवन का बाजार. आधुनिककाल में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाटक ‘अंधेर नगरी’ के बाजार वर्णन का कीर्तिलता के बाजार वर्णन से अद्भुत साम्यता है. बाजार में सोने चांदी के दुकान तो हैं ही, बर्तन-बासन आदि बनाने की ध्वनि तक को पकड़ने की चेष्टा विद्यापति ने की है. उनमें निरंतर उठने वाली खास और किस्म-किस्म की आवाजों को परिलक्षित किया है. नगर में होने वाली भीड़ का वर्णन किया है और यह बताया है कि इस भीड़ में एक साथ ब्राह्मण- चांडाल, वेश्या-यति आदि का संसर्ग होता था. उनके मन में होने वाली प्रतिक्रियाओं का भी कवि वर्णन करता है. यह पूरा वर्णन एक प्रकार के खास स्थानीय रंग से रंगा हुआ है-
हाट करेओ प्रथम प्रवेश, अष्टधातु
घटना टंकार, केसरी पसरा कांस्य क्रेकार करें
प्रचुर पौरजन पद संभार संभिन्न धनहटा सोनहटा पनहटा
पकवानहटा मछहटा करेओ सुख- रव कथा
कहन्ते होइअ झूठ, जनि गंभीर गुग्गूरावर्तकल्लोल कोलाहल.[xxxiv]
इस प्रकार की जीवंत और सजीव वर्णन शैली पर मुग्ध होकर वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है,
“इस प्रकार की सजीव वर्णन शैली जायसी से पूर्व की अन्य रचनाओं में भी नहीं प्राप्त होती.[xxxv]
विद्यापति की रचनाओं के आधार यह कहने में संकोच नहीं कि उनकी आस्था वर्णाश्रम व्यवस्था में थी. वे स्वयं एक नैतिक ब्राहमण थे. विद्यापति के युग में मिथिला में भी व्यापार तथा सामाजिक परिवर्तन आदि के कारण वर्णाश्रम व्यवस्था का बंधन क्रमशः टूट रहा था, या कहना चाहिए कि उसके बंधन ढीले पड़ रहे थे. वर्णाश्रम व्यवस्था के दरकने की चिंता भी विद्यापति को सताती है.
कीर्तिलता में विद्यापति लिखते हैं कि
‘जाति-कुजाति में शादियाँ होने लगीं. अधम, उत्तम को कोई पारखी नहीं रहा- ‘जाति-अजाति विवाह अधम उत्तम काँ पार का.’
इसी तरह इब्राहिम शाह के शासन में बाजार में चांडाल और ब्राहमण एक साथ चलते हैं, एक दूसरे से टकराते हैं. इतना ही नहीं ब्राह्मण के जनेऊ चंडाल का स्पर्श कर लेता है. वेश्या की छाती सन्यासियों से टकराते हैं-
‘ब्राह्मण क यज्ञोपवीत चाण्डाल के आंग लूर
वेश्यान्हि करो पयोधर जती के ह्रदय चूर.’[xxxvi]
विद्यापति अपनी संस्कृत अवहट्ट और मैथिली रचनाओं के कारण हिंदी के प्रथम अंतर-अनुशासनिक रचनाकार तो कहे ही जा सकते हैं. उनकी कीर्तिलता अपने आप में बहु-अनुशासनिक यथार्थ काव्य है.
साहित्य और इतिहास के दुर्लभ मुखमुखम के अतिरिक्त कीर्तिलता तदयुगीन राजनीतिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था का यथातथ्य अंकन के लिए आज तक महत्वपूर्ण पुस्तक बनी हुई है. यह पुस्तक साहित्यकारों, इतिहासकारों और राजनीति शास्त्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र रही है. विद्यापति के ‘दुर्जन’ समकालीनों ने कीर्तिलता का महत्व तो नहीं ही समझा बाद में सैकड़ों वर्षों तक इसकी उपेक्षा हुई.
आधुनिक काल में आकर ग्रियर्सन और महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री आदि के प्रयास से कीर्तिलता का महत्व प्रतिपादित हुआ. कोई समझे ना समझे विद्यापति अपनी इस रचना के महत्व को खूब भली-भांति समझ रहे थे तभी तो उन्होंने लिखा कि जो इसके महत्व को समझेगा, वह इसकी प्रशंसा जरूर करेगा-
‘जो बुज्झिहि सो करिह पसंसा.’
(कीर्तिलता, प्रथम पल्लव)
७.
संपादन, अनुवाद और प्रतिलिपि की बहुलता के कारण
कीर्तिलता का उपरियुक्त वैशिष्ट्य आरम्भ से विद्वानों के मध्य उत्कट जिज्ञासा का कारण रहा है. फलस्वरूप कई मानद विद्वानों ने इसका सम्पादन, टीका, हस्तलेख, प्रतिलिपि और अनुवाद किया है. इसकी संख्या कीर्तिलता को एक दुर्लभ मध्यकालीन कृति के रूप में स्थापित करती है.
कीर्तिलता के हस्तलेख नेपाल दरबार लाइब्रेरी, ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन; नागरी प्रचारिणी सभा, काशी; जायसवाल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पटना; पटना कॉलेज लाइब्रेरी, पटना; कामेश्वरसिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा; गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टिट्यूट, प्रयाग; भदोही संग्रहालय, मुंबई; अनूप संस्कृत लाइब्रेरी बीकानेर, राजस्थान; आदि कई स्थानों पर उपलब्ध हैं.
कीर्तिलता की सर्वाधिक प्राचीन टीका संस्कृत भाषा में प्राप्त हुई है. टीका में सूचित अंकों की ‘वामगति’ गणना के अनुसार 1672 विक्रम संवत (1615 ईस्वी) में वदी शुक्रवार को यह प्रति लिखी गई. प्रति के अनुसार गोपालभट्ट के कनिष्ठ भ्राता श्री सूरभट्ट ने स्तंभतीर्थ (खंभात) कठियावाड़ में इसे लिखाया. साहित्य अन्वेषी अगरचंद नहटा ने इसकी संस्कृत छायायुक्त प्रति बीकानेर के अनूप सिंह पुस्तकालय से ढूंढ निकाली.
रोचक तथ्य यह है कि मिथिला से सुदूर सौराष्ट्र के स्तंभतीर्थ खंभात में इसकी टीका की गई. मूल के लगभग 200 वर्ष बाद ही कीर्तिलता की संस्कृत टीका तैयार की गई.
कीर्तिलता के यशस्वी संपादक वासुदेवशरण अग्रवाल इस टीका के संदर्भ में लिखते हैं,
“कीर्तिलता की अवहट्ट भाषा के शब्दों का अर्थ पंडितों के लिए भी दुरूह हो गया था. इसका मूल कारण यह ज्ञात होता है कि प्राचीन मैथिलों के विकास से प्राचीनतर अवहट्ट भाषा का परिचय उठ चुका था. संस्कृत भाषा के टीकाकार ने इसे प्राचीन हिंदी एवं प्राचीन मैथिली का ग्रंथ मानकर व्याख्या का जो प्रयत्न किया उसका किसी प्रकार सफल होना संभव ही न था. किंतु संस्कृत टीकाकार को एक लाभ विशेष था, अर्थात उसके सामने कीर्तिलता का जो मूल पाठ था वह अपेक्षाकृत मूल के अधिक निकट था और उसमें शब्दरूपों की स्थिति अच्छी थी.[xxxvii]
महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री को इसका श्रेय है कि सर्वप्रथम उन्होंने ही कीर्तिलता को बंगाक्षरों में बंगला-भाषान्तर और अंग्रेजी अनुवाद के साथ बंगीय सन 1331 ईस्वी (1924 ईस्वी) में प्रकाशित करवाया.
नागरी प्रचारिणी सभा से सन 1929 ईस्वी में बाबूराम सक्सेना द्वारा कीर्तिलता का संपादित संस्करण प्रकाश में आया.
सन 1955 ईस्वी में डॉक्टर शिवप्रसाद सिंह ने अपनी पुस्तक ‘कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा’ के अंतर्गत कीर्तिलता का महत्वपूर्ण पाठ संपादित किया.
1960 में डॉ उमेश मिश्र द्वारा मैथिली अनुवाद सहित कीर्तिलता का संपादन गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टिट्यूट में सुरक्षित नेपाल दरबार की पोथी की दो प्रतिलिपियों के आधार पर तैयार किया गया. विद्यापति के गंभीर अध्येता डॉक्टर वीरेंद्र श्रीवास्तव ने सन 1953 में कीर्तिलता का विस्तृत और सारगर्भित भूमिका के साथ संपादन किया.
इसे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने प्रकाशित किया है. कीर्तिलता में आवश्यक अंगों को समाविष्ट करते हुए डॉक्टर तपेश्वरनाथ द्वारा संपादित हिंदी अनुवाद सहित इसका एक संक्षिप्त संस्करण 1973 में बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना द्वारा संपादित किया गया. यह डॉ वीरेंद्र श्रीवास्तव संपादित ‘विद्यापति: अनुशीलन एवं मूल्यांकन, खंड 2 में संग्रहित है.
इसके अतिरिक्त पंडित गोविंद झा (मैथिली अकादमी, पटना-1992) श्री रमानाथ झा (पटना विश्वविद्यालय, पटना) तथा अवधेश प्रधान आदि ने कीर्तिलता का लिप्यान्तरण, अनुवाद और संपादन किया है.
कीर्तिलता की आखिर इतनी टीकाएँ, संपादन और भाष्य क्यों? लगभग सभी टीका के संपादकों ने विस्तृत भूमिका में कीर्तिलता के पाठ-अध्ययन की जटिलताओं और दुरुहताओं की ओर ध्यान दिलाया है.
सभी संपादकों को पूर्व के पाठों में कुछ न कुछ गंभीर असुविधाएँ और समस्याएँ नजर आई हैं. अगर कीर्तिलता महज एक मध्यकालीन कल्पनाश्रित महाकाव्य/ खंडकाव्य होती तो इतनी चिंताएँ आवश्यक नहीं थी. किंतु कीर्तिलता कदाचित आदिकालीन एकमात्र ऐसी रचना है जो बहुत हद तक इतिहास सम्मत है और कवि घटना एवं चरित्र का समकालीन भी है. इस दृष्टि से कीर्तिलता काव्य के साथ इतिहास की पुस्तक भी साबित होती है.
जिस समय का इतिहास आज भी हमारे लिए अनिश्चित है. थाह-थाह कर, अलग-अलग स्रोतों को आपस में मिलाकर तथा अनुमान के सहारे इतिहास को समझने की कोशिश की जाती है, वैसे समय में एक ऐसी किताब जो तत्कालीन राजनीति, समाज, संस्कृति पर यथार्थ रूप से प्रकाश डालती है, उसका सही पाठ-अध्ययन आवश्यक हो जाता है. साहित्य के साथ इतिहास की भी पुस्तक होने के कारण कीर्तिलता का थोड़ा भी गलत पाठ अर्थ का अनर्थ कर सकता है. और इस तरह का अनर्थ हुआ भी है.
यह अकारण नहीं है कि नये-पुराने इतिहासकारों, राजनीतिवेत्ताओं ने कीर्तिलता को अपना अध्ययन का विषय बनाया है. काशीप्रसाद जायसवाल, राधाकृष्ण चौधरी, उपेंद्र ठाकुर, डॉ विजय कुमार ठाकुर, शंकर कुमार झा, डॉ रत्नेश्वर मिश्र जैसे इतिहासकार से लेकर युवा इतिहासकार पंकज कुमार झा तक इसमें शामिल किए जा सकते हैं.
आज भी इतिहासकारों के लिए कीर्तिलता अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक सिद्ध होती है. पंकज ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ए पॉलीटिकल हिस्ट्री ऑफ लिटरेचर: विद्यापति एंड द फिफ्टिंथ सेंचुरी’ (2019) में कीर्तिलता पर गंभीर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया है.
सन्दर्भ-सूची
[i] कीर्तिलता – सं. वासुदेव शरण अग्रवाल, साहित्य सदन, चिरगाँव झांसी, प्रस्तावना से
[ii] कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा – शिवप्रसाद सिंह प्रथम संस्करण, निवेदन से
[iii] कीर्तिलता – सं बाबूराम सक्सेना पृष्ठ 26
[iv] कीर्तिलता – सं. वासुदेव शरण अग्रवाल, साहित्य सदन, चिरगाँव झांसी, पृष्ठ 58
[v] उपरियुक्त, पृष्ठ 57-58
[vi] कीर्तिलता और विद्यापति का युग-अवधेश प्रधान, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण 2019, पृष्ठ 32
[vii] विद्यापति सं. डॉ सूर्यननारायण, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली, 2020, पृष्ठ 65
[viii] हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कमल प्रकाशन, संस्करण – नवीनतम, पृष्ठ – 34
[ix] पर्युक्त पृष्ठ 35
[x] उपर्युक्त पृष्ठ 35
[xi] उपर्युक्त, पृष्ठ 242-243
[xii] हिंदी साहित्य का आदिकाल हजारी प्रसाद द्विवेदी वाणी प्रकाशन संस्करण 2000 पृष्ठ 106-107
[xiii] उपर्युक्त, पृष्ठ 108
[xiv] उपर्युक्त पृष्ठ 110
[xv] उपरियुक्त, पृष्ठ 112-113
[xvi] कीर्तिलता-विद्यापति, द्वितीय पल्लव, कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा- शिवप्रसाद सिंह, वाणी प्रकाशन, आवृत्ति 2009 पृष्ठ 248
[xvii] उपर्युक्त, पृष्ठ 248-249
[xviii] उपरियुक्त, पृष्ठ-320
[xix]उपरियुक्त, पृष्ठ 243
[xx] उपरियुक्त,पृष्ठ 270
[xxi] मिथिला का इतिहास – डॉ रामप्रकाश शर्मा, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा, प्रथम संस्करण – 197, तृतीय संस्करण 2016, पृष्ठ 253
[xxii] उपर्युक्त पृष्ठ 253
[xxiii] तारीख – ए – फिरोजशाही- जियाउद्दीन बरनी, तुगलककालीन भारत, अनुवादक – सैयद अतहर अब्बास रिजवी, इतिहास विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अलीगढ़, 1957 पृष्ठ 40
[xxiv] उपरियुक्त, पृष्ठ 41
[xxv] उपरियुक्त, पृष्ठ 151
[xxvi] मध्यकालीन भारत अंक 4, संपादक – इरफान हबीब, राजकमल प्रकाशन, 1993, पृष्ठ 22|
[xxvii] हिस्ट्री ऑफ मिथिला उपेंद्र ठाकुर मिथिला इंस्टीट्यूट आफ पोस्टग्रेजुएट स्टडीज एंड रिसर्च इन संस्कृत लर्निंग दरभंगा 1988 पृष्ठ 238
[xxviii] मिथिला का इतिहास – डॉ रामप्रकाश शर्मा, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा, प्रथम संस्करण – 197, पृष्ठ 261
[xxix]उपरियुक्त, पृष्ठ 262
[xxx] उपरियुक्त, पृष्ठ 262
[xxxi] कीर्तिलता-विद्यापति, तृतीय पल्लव, कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा- शिवप्रसाद सिंह , वाणी प्रकाशन, आवृत्ति 2009, पृष्ठ 295
[xxxii] कीर्तिलता – सं .बाबूराम सक्सेना, नागरीप्रचारणी सभा, काशी,1929 पृष्ठ 26
[xxxiii] उपरियुक्त, पृष्ठ 42
[xxxiv] उपरियुक्त, पृष्ठ 253-254
[xxxv] कीर्तिलता – सं. वासुदेव शरण अग्रवाल, साहित्य सदन, चिरगाँव झांसी, पृष्ठ 44
[xxxvi] कीर्तिलता-विद्यापति, द्वितीय पल्लव, कीर्तिलता और अवहट्ट भाषा- शिवप्रसाद सिंह, वाणी प्रकाशन, आवृत्ति 2009 पृष्ठ 255
[xxxvii] कीर्तिलता – सं. वासुदेव शरण अग्रवाल, साहित्य सदन, चिरगाँव झांसी, भूमिका पृष्ठ 43
कमलानंद झा हिन्दी और मैथिली आलोचना में गहरी अभिरुचि. सौ से अधिक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति एवं निर्देशन. हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार आलोचना-लेखन. सम्प्रति: |
कमलानन्द जी का यह अनुसंधानपरक लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस समय कुछ ही आलोचक हैं जो बहुत गम्भीरता से कुछ लिखते हैं, उनमें कमलानन्द जी का नाम बहुत सम्मान से लिया जा सकता है।
इन्होंने विद्यापति के लेखन ही नहीं, उस काल के राज और समाज का विस्तृत अध्ययन करके जिस तरह लिखा है, यह पठनीय के साथ संग्रहणीय भी है।
विद्यापति और उस काल के विशेषज्ञों में मैं इन्हें महत्वपूर्ण मानता हूँ और इनके लिखे एक-एक शब्द पढ़ता हूँ।
राजलोभ किसी को भी नहीं बख्शता- वह ‘विधर्मी’ मुसलमान हो या ‘पवित्र’ ब्राह्मण.
प्रो.कमलानंद झा
‘कीर्तिलता : जो बुज्झिहि से करहि पसंसा’ लेख कई मायने में महत्वपूर्ण है।
भाषा,भाव और साहस के कवि विद्यापति को घण्टों बिना उबाऊ के पढ़ा जा सकता है। मिथिलांचल की सामंती व्यवस्था में आम जीवन की व्यथा-कथा किस तरह से रची-बसी हुई है, इसे वहीं महसूस कर सकता है ‘जो एक तरफ फिरोजशाह, असलान तो दूसरी तरह गणेश्वर, हरिसिंह, त्रिपुर सिंह भवसिंह के भीतर के अंतर्द्वंद्व को महसूस कर पाएगा। विद्यापति तटस्थ होकर मिथिलांचल के बहाने भारतीय समाज को देखते-परखते हैं, तभी तो उन्हें सामाजिक जीवन की त्रासदी ‘पिया मोर बालक हम तरुणी गे’ जैसी कुप्रथा विचलित करती है। विद्यापति पर घोर श्रृंगारिक होने का आरोप लगता रहा है ‘कीर्तिलता’ इस बात को दूर तक नकारती है। विद्यपति सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक समझ को लेकर हमेशा ही निर्विवादित रहे हैं। युद्ध की विभीषिका में सबसे अधिक स्त्रियाँ प्रताड़ित होती है विद्यापति इस बात को बखूबी जानते थे। आलोच्य दृष्टि इस बात को बड़ी जिम्मेदारी से देखती-परखती है।
खानापूर्ति के इस दौर में संदर्भों की ऐसी जुटान और संपादकीय धैर्य वाकई काबिलेतारीफ है। आप दोनों को बधाई💐
तिरहुत से प्रेम करने वाले कवि विद्यापति को इस तरह भी देखा जा सकता है। कमलानंद झा ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ कीर्तिलता का विश्लेषण किया है। आज के मानवद्रोही धर्मान्ध समाज में कीर्तिलता का ऐसा पाठ बहुत मूल्यवान है।
महत्त्वपूर्ण रचना पर महत्त्वपूर्ण आलेख। बधाई!
सर को बधाई। लिखनावली को पढ़ा था। विद्यापति के माध्यम से तत्कालीन समाज राजनीति और इतिहास को बहुत ही सूक्ष्मता के साथ कमलानंद सर ने प्रस्तुत किया। इतिहास दृष्टि संपन्न समर्थ आलोचक को पढ़ना और सीखना अलग अनुभव है। पुनः बधाई
‘कीर्तिलता’ में अंकित समाज… तत्कालीन समाज का वर्ग तथा वर्ण विभाजन… राजनीतिक गतिविधियाँ तथा परिवेश… अर्थव्यवस्था… धार्मिक मान्यताएँ… परम्पराएँ… अंधविश्वास… हिंदू राजाओं तथा मुस्लिम शासक बादशाह के सम्बन्ध… हिंदू-मुस्लिम धर्मियों के आपसी ताल्लुकात … पूर्ववर्ती ऐतिहासिक वीररसयुक्त काव्यग्रंथों… तथा वर्णन साहित्य की परम्परा का पालन आदि पर विस्तृत अध्ययन आज तक की जानकारीनुसार न के बराबर है…
डॉ. शिवप्रसाद सिंह… डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल… डॉ. बाबूराम सक्सेना आदि द्वारा प्रस्तुत टीकाओं के आधार पर उपरोक्त संकेत जरूर मिलते हैं…लेकिन फिर भी विस्तृत अध्ययन दृष्टिगत नहीं होता…
अत: इसी दृष्टिकोण से ‘कीर्तिलता’ का गहरा…और विशद् अध्ययन किया है…कमलानंद झाजी ने…!
‘समालोचन’ का तहे-दिल से शुक्रिया…!!!
गहन शोध का परिणाम है ये आलेख। कीर्तिलता के माध्यम से विद्यापति को एक अलग और नए नैरेटिव से पेश किया है कमलानन्द सर ने। अब तक विद्यापति और कीर्तिलता के बारे में जो भी पढ़ाया गया था हमें उसके उलट। पहले के तमाम सामान्यीकरण को तोड़ता एक नया प्रतिमान गढ़ता शोध है। बहुत बहुत शुक्रिया सर
मेरे ज्ञान में बहुत बहुत इज़ाफा हुआ
प्रो. कमलानंद झा का यह लेख शोधपरक और आलोचनात्मक दोनों है। इस में उन्होंने ‘कीर्तिलता’ के कई अलक्षित पहलुओं को सामने लाया है। इस के लिए उन का बहुत-बहुत आभार ! इस में एक रसज्ञ की तरह उन्होंने पाठ का विश्लेषण भी किया है और रचना के ऐतिहासिक संदर्भों को भी स्पष्ट किया है।
कीर्तिलता अपने आप में बहु-अनुशासनिक यथार्थ काव्य है (लेख से) जिसके कई आयामों को इस लेख के माध्यम से नजदीक से जानने-समझने का अवसर मिला…ज्ञानवर्द्धन के लिए हार्दिक साधुवाद सर।