कोश्का अरुण खोपकर अनुवाद: रेखा देशपांडे |
गृहप्रवेश
ज़िंदगी की बेहद अहम शाम किसी भी और शाम की ही तरह होती है. ऐसी ही एक आम शाम थी. शान्ता और मैं प्रोची मुखर्जी के घर खाने पर गये हुए थे. दोस्तों के साथ बतियाने के बजाय काफी सारा समय तो मैंने प्रोची की बिल्ली के साथ ही बिताया. उसने मेरे साथ घूमकर पूरे घर और आसपास से मेरा परिचय करा दिया. ख़ुद को सहलवा लिया, अपने नाज़ उठवा लिये, लाड़ लड़वा लिये और मेरी गोद में आकर बैठ गयी. बाद में बाक़ी लोगों की भावनाओं की क़द्र करते हुए हमने अलग-अलग थाली में खाना खाया.
प्रोची ने हमारे आपसी प्यार को याद रखा. बिल्ली के बच्चे हुए तो उनमें से गोरे-चिट्टों को किसी किसी ने गोद ले लिया. एक बच गया. गोरा-चिट्टा वह नहीं था. तब प्रोची ने शान्ता को फोन कर पूछा कि क्या आप लोग इसे गोद ले सकते हैं. यही नहीं, उसकी ख़ास तारीफ़ भी उसने की. उसकी राय में बाक़ी बच्चों की अपेक्षा उसका व्यक्तित्व अलग और निराला था. शान्ता ने हामी भरी तो ९ दिसंबर १९८७ को दो महीने उम्र का यह व्यक्तित्व हमारे घर में आ दाख़िल हुआ.
महोदया का प्रोची पर्व वाला नाम था अर्जुन. लेकिन अब हमारे साथ उसके नये जीवन की शुरुआत हो रही थी, उसका नया नाम रखना था. नामकरण हर किसीके जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना होती है. लेकिन बिल्लियों के नामों का एक निराला राज़ होता है. कुत्तों की तरह कोई-सा भी नाम रख दें, पुकारते ही पूँछ हिलाते हुए आपके सामने हाज़िर हो, यह बिल्ली को गवारा नहीं होता. इसके अलावा मोहतरमा के साथ बिताये थोड़े से समय के अंदर ही हमें उनकी आज़ादख़याली और ज़िद्दी स्वभाव की झलक मिल ही गयी थी.
मैं एक निर्गुणी नाम की खोज में था. सगुण नाम रखने से परिवार वालों और दोस्त मंडली के मन में बिल्ली को लेकर बेजा उम्मीदें पैदा हो जाती हैं. कुत्ते को लेनिन कहकर पुकारने पर वह खाने की चीज़ों का समान बँटवारा करेगा या गली के कुत्तों का नेता बन जायेगा या सीज़र कहकर पुकारने पर वह विश्वविजय करेगा– इस तरह के बेजा सपने बिल्ली को लेकर सजाने का कोई मतलब नहीं होता. इसलिए मैंने सोचा कि सगुण नाम देकर इस तरह की कोई धूमिल-सी भी उम्मीद रखने के बजाय निर्गुण नाम रख उसे अपनी मनमर्ज़ी से बरतने की छूट देना बेहतर. लेकिन निर्गुण नाम की खोज आसान न थी. इसके लिए सोच-विचार और कल्पनाशक्ति के साथ ही संवेदनशीलता से काम लेना ज़रूरी था. नाम सही न निकला तो सब कुछ टाँय टाँय फिस्स होने का डर था. क्योंकि बिल्ली की श्रवणक्षमता ज़बरदस्त होती है. इसे पुकारते समय अगर वह समाधिस्थ अवस्था में हो तो नाम की ध्वनि से उसकी समाधि भंग होकर आपको श्राप लग जाने की पूरी पूरी सम्भावना होती है.
नामकरण
फिर सहसा याद आया. सस्पेन्स की महिमा को जानने-समझनेवाले हिचकॉक ने अपनी फिल्म ‘टू कॅच अ थीफ़’ में उस शातिर बिल्ली का नाम सिर्फ़ ‘कैट’ रखा था. अर्थात अब निर्गुण नाम की ओर बढ़ने का रास्ता खुल गया था. इसके अलावा रूसी भाषा से भी मदद मिल गयी. लालित्य और कठिनता का मेल करने वाली रूसी जैसी दूसरी भाषा मेरे परिचय के दायरे में कहीं नहीं है. बस, मोहतरमा का नाम तय हो गया- कोश्का!
रूसी भाषा में कोश्का का मतलब निर्गुण होता है– सिर्फ़ बिल्ली. लेकिन उसकी ध्वनि कितनी प्यारी है. शुरू में सुर को खींचकर ‘कोशsssका’ पुकारें या आख़िर में सुर को तानकर ‘कोश्काsss’ पुकारें या फिर ‘कोश्कुली’, ‘कोश्कोच्का’, ‘कोशुला’- लाड़ से चाहे जो पुकारें. (इतना आसान नाम रखने के बावजूद उसका सही उच्चारण करने वाले बिरले ही होते हैं, इसका अहसास हमें काफी बाद में हुआ.)
तो इस निर्गुण नाम के साथ सुश्री जी ने अपनी नयी ज़िंदगी की शुरुआत की. नाम के ज़रिये ही हमने ज़ाहिर कर दिया था कि कोश्का के बर्ताव को लेकर हमारी कोई उम्मीद नहीं होगी. यह बात शायद उसे बहुत ही पसंद आयी. क्योंकि उसका शरीर भले ही नाज़ुक हो, उसकी एक सुनिश्चित जीवनदृष्टि थी और उसके अनुसार जीने की उसमें बला की जीवट थी.
रूप और स्वरूप
कोश्का जैसे-जैसे बड़ी होती गयी उसकी जीवनदृष्टि का स्वरूप अधिक से अधिक स्पष्ट होता चला गया. मूलतत्त्व यह था कि जो उसकी मर्ज़ी हो वैसा ही होना चाहिए. अगर आप कोश्का का लाड़ करना चाहें तो लाड़ स्वीकार करने का कोश्का का मूड होना ज़रूरी होता था. जितनी देर मूड बना रहेगा, उतनी ही देर आप लाड़ जारी रख सकते हैं. उसके बालों में फिरती आपकी उँगलियाँ पल भर भी ज़्यादा देर तक फिरती रहतीं तो आपको सशस्त्र विरोध का सामना करना पड़ सकता था. उसके काले, लम्बे, मखमली दस्तानों में बाघनख छुपे होते थे.
कोश्का के रंग का वर्णन करना मुश्किल ही था. बदन के बालों का रंग मुख्यतः काला था. उसमें पीले, सुनहरे रंग के बालों के अलग-अलग आकार के चकत्ते चमकते थे. दिन में सौ-सौ बार सौंदर्य-साधना कर उसने अपनी यह चमक आख़िर तक बरक़रार रखी थी. उसकी सैंकडों तस्वीरों में से आधी तस्वीरों में तो उसकी इस सौंदर्य-साधना की विविध अवस्थाएँ शिल्प रूप में देखी जा सकती हैं.
कोश्का की यह रंगविचित्रता किसीको भी सहज ही पसंद आ जाये ऐसी न थी. रंगसुंदरता की पारम्परिक परिभाषा में सटीक बैठनेवाली वह थी ही नहीं. इसलिए देखते ही उसके रंग पर फ़िदा हो जानेवालों की तादाद बहुत ही कम थी. इन अल्पसंख्यकों में हमारे कुछ चित्रकार और कलाकार दोस्त थे. बाक़ी लोग यह कहकर अपनी असली राय छुपा जाते कि ‘रंग कुछ अलग ही है न’!
हाँ, मगर अगर कोश्का ने आँखें खोली होतीं तो हर कोई उसकी आँखों को देखता ही रह जाता. इतनी सुंदर आँखें मैंने ज़िंदगी में कभी भी कहीं भी नहीं देखीं. चेहरे के अनुपात में आँखें इतनी बड़ी थीं कि देखने वाला उसका वर्णन ‘बड़ी-बड़ी आँखों वाली’ किये बग़ैर न रहता. दक्षिण भारत या बँगाल की कुछ महिलाओं की आँखें ऐसी होती हैं. लेकिन कोश्का की आँखों में मैंने कभी बेजा भावुकता नहीं देखी. उन आँखों में बुद्धि की चमक थी, चिंतक की-सी आब थी, ख़ुद्दारी थी और संजीदगी थी. भावनाओं के विशाल पट को प्रकट करने की क्षमता उनमें थी.
जब आसपास बहुत सारी रोशनी होती थी तब कोश्का की पुतलियों में सिर्फ़ एक काली खड़ी रेखा देखी जा सकती थी. बाक़ी हिस्से में पीले, कत्थई और हरे रंग का मिलाप नज़र आता. मोटी आँखें एक तरफ़ से देखने पर अर्द्धगोलाकार नज़र आतीं. हरी-हरी पत्ती पर भोर की ओस की बूँद हो जैसे.
कोश्का की आँखों की पुतलियाँ बड़ी-बड़ी और काली थीं. आजतक किसी भी देश में चेहरे के अनुपात में इतनी बड़ी आँखों वाली बिल्ली मैंने नहीं देखी. हमारे यहाँ उल्लू कोई बहुत चहेता पंछी नहीं समझा जाता. मगर ग्रीक मिथ्यकथाओं में उसे बुद्धिदेवता का वाहन माना जाता है. कोश्का की आँखों में ऐसी ही कोई बात थी. उसकी नज़र से नज़र मिलाने पर थोड़ी देर बाद आपकी नज़रें अपने आप झुक जाती थीं.
कोश्का की पुतलियों के अलग-अलग रंगों की कई-कई छटाओं में चारों तरफ़ के रंगों और रोशनी के चलते बराबर बदलाव आते रहते. बाल्कनी में धूप सेंकती बैठी होती तो उसकी आँखों में बाहर के पेड़ों की हरी छटाएँ झलकने लगतीं और सुनहरे रंग की तूलिका उसे हौले से छू जाती. कभी इन आँखों में सागर की हरी गहराई उतर आती, तो कभी शैवाल की मखमल लहराती नज़र आती. कभी सूरज की किरणों की स्पर्शरेखा पर मरकत चमक उठते. वनस्पति जगत, प्राणिजगत और खनिज बिल्लौर के तरह तरह के रंगों का मेल उसकी आँखों में झलकता रहता. पुतलियों के इन बराबर बदलते आकारों और रंगों को मैं निहारता रहता. उसके बदन के बालों के रंगों की छटाओं को उसकी आँखों में खोजने का बड़ा चाव मुझमें पैदा हुआ था.
चाल-चलन
कोश्का की सहज मोहमयी हरकतों को देख कोई विख्यात मॉडल या अभिनेत्री भी शर्म से गड़ जाय. कोश्का चल रही हो, आराम से कहीं लेटी हो, हवाओं पर सवार इधर उधर कूदती-फाँदती भाग रही हो, ताक में बैठ फिर अचानक झपट पड़ रही हो, परदे पर नाख़ून घिसते हुए सरसर चढ़ रही हो या पीठ के बल लेट धूप सेंक रही हो, स्थिर या गतिमान, हर स्थिति में आकार, रेखाओं का बड़ा ही लुभावना संगम देखने को मिल जाता.
लेकिन कोश्का की पूर्णता में बिना हाथों वाली वीनस द मिलो की तरह एक ख़ामी थी. उसकी रीढ़ की हड्डी में ज़रा-सा बाँकपन था. रेणुका उसे ‘पोकाड़ी’ अर्थात कूबड़ी कहकर चिढ़ाती थी. कभी-कभी पिस्सू उसे तंग करती थीं. तब उसे ‘फ्ली-बैग’ कहकर या जब वह जमुहाई ले रही होती तब उसे ‘पिंक माऊथ’ कहकर चिढ़ाने में रेणुका को बड़ा मज़ा आता. मुझे शक है कि उसमें से आधा मज़ा उसे मेरी प्रतिक्रिया देखने में आता होगा. शायद उस समय मेरा ही चेहरा झेंप-सा जाता होगा.
बग़ैर आवाज़ किये की हरकतों और कूद-फाँद की वजह से बिल्लियाँ अचानक कहीं भी प्रकट हो जाती हैं. भगवान के अचानक प्रकट हो जाने की बचपन की कल्पना सच बनकर सामने आयी कोश्का की वजह से. मेरी स्टडीवाली मेज़ पर वह अचानक प्रकट हो जाती. पुस्तकों की शेल्फ के पीछे छुप जाती और पुस्तक का पन्ना पलटने के लिए मेरा हाथ बढ़ता तो झट उसपर पंजा मार देती.
हिलती वस्तु पर झपट्टा मारने की कोश्का की आदत बड़ी होने पर भी नहीं गयी. ग्यारह साल का साथ रहा, उसकी आख़री बीमारी का दौर छोड दें तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि बिस्तर पर चादर चढ़ाते समय युद्ध न छिड़ा हो. उस समय उसकी आँखों में कथकली नर्तक वाले अद्भुतरसप्रदर्शक अतिनाटकीय भाव नाच रहे होते थे. साथ ही यह आभास होता कि उसके रावण के-से दस हाथ हों. चादर जब हवा में उछलती तो वह मेरी नज़र बचाकर चादर के नीचे घुस जाती और चादर चढ़ाने वाला मेरा हाथ जहाँ भी हो उसे अचूक नोचती, काटती या पकड़ती. यह सिलसिला कभी टूटा नहीं.
ग्यारह साल की ज़िंदगी में कोश्का के हाथों सिर्फ़ एक लकड़ी का बोल टूटा था. सिर्फ़ एक. वह भी इसलिए कि थोड़ा तिरछा रखा गया था और कोश्का अपना संतुलन खो बैठी थी और बोल कोश्का सहित नीचे गिर पड़ा था. दरअसल यह था उसकी हरकतों की अचूकता का ही प्रमाण. एक बार वह उछलकर ओवन पर कूदने वाली थी. तभी मुझे ध्यान आया ओवन पर रखी काँच की प्लेट का. अब क्या होगा!!! लेकिन उछलते ही कोश्का जबकि अभी अधर में ही थी, उसने प्लेट को देख लिया था, झट अपनी उछाल की दिशा बदल दी थी और प्लेट के बाहर पैर रख प्लेट को बचा लिया था.
शीशे की सँकरी अलमारी में बग़ैर एक भी वस्तु को ठेस पहुँचाये एक छोर से दूसरे छोर तक तेज़ी से चहलक़दमी करना उसके वोग मॉडल बने रहने के लिए किये रियाज़ का अंग होगा. बिल्लौरी वस्तुओं पर पड़ी रोशनी, उनकी लकदक और अंदर चमचमाते साये की तरह हिलते कोश्का के आकार को मैं साँस रोक देखता रहता था.
लेकिन कोश्का की हरकतों की अचूकता के पीछे सुंदरता के अलावा एक और कारण हुआ करता था– शिकार! एक बार बाल्कनी में एक भटकी हुई तितली रास्ता भूल आ गयी थी. उसे निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था. घबराहट में वह इधर उधर उड़ रही थी. क़रीब छह फूट की ऊँचाई पर उड़ रही तितली पर कोश्का नज़र रखे हुए थी. ताक में बैठी थी. बग़ैर आँखें घुमाये उसकी पुतलियाँ तितली का पीछा किये जा रही थीं. और फिर पलक झपकते न झपकते वह उछली. नाखून में तितली पकड़े हुए वह बड़ी सहजता से ज़मीन पर आ उतरी. उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ जब तक मैं उसके नाख़ून से तितली को छुड़ाता तितली बेचारी दम तोड़ चुकी थी.
मार्जार प्रजाति पर, फिर वह पालतू बिल्ली हो या शेर, बाघ आदि जंगली प्राणी, प्रकृति ने उनकी गतिमान और अचल अवस्थाओं में जितनी सुंदरता लुटायी है, उतनी किसी और प्रजाति पर नहीं. हाँ, घोड़ा बहुत ख़ूबसूरत होता है. लेकिन अगर गिर पड़े तो कितना दयनीय, कितना भारी भरकम लगता है. मोर अगर अपने पंख न फैलाये तो उसकी सुंदरता का अहसास ही नहीं होता. दौड़ते और चलते हिरन में जो सुंदरता नज़र आती है वह एक जगह लेटे हुए हिरन में नहीं. हंस और गिलहरी सुंदरता में और लयबद्धता में मार्जार प्रजाति के कुछ क़रीब आते हैं, लेकिन गिलहरी की हरकतें टुकड़ों-टुकड़ों में पेश होती हैं और हंस की गति में अनपेक्षित विराम नहीं होता.
निरी पेटपूजा नहीं है यह
कोश्का का खाना वैसे तो रोज़मर्रा का एक कार्यक्रम, मगर महत्त्वपूर्ण समारोह हुआ करता था. खाना खाते समय आसपास पूरी ख़ामोशी की दरकार होती थी. रसोई में से बरतनों की आवाज़ों के गूँजते ही वह खाना रोक देती थी. खाने की स्वादिष्टता की वह क़ायल थी. खाना थोड़ा ही खाती थी, मगर स्वाद लेते हुए. मछली ताज़ा होनी चाहिए. बिस्कुट कुरकुरे होने चाहिए. खाने की तश्तरी में कोई बेजा बू आये यह उसे बरदाश्त नहीं था. लोगों का ज़ोर ज़ोर से बोलना, हँसना, पैर पटकना मना था.
कोश्का बहुत कम खाती थी, इससे ताज़ा मछली एक दिन में उससे ख़त्म नहीं होती थी. एक ही क़िस्म की मछली बार-बार खाना उसे पसंद न था. दूसरे दिन के लिए दूसरी क़िस्म की खोज करनी पड़ती थी. एक बार हम लोग घर पर बड़े का गोश्त ले आये. उसे अच्छा लगा. तबसे हम उसे बड़े का गोश्त खिलाने लगे. गोश्त विक्रेताओं की हड़ताल हुई, उस दौरान मैं मुंबई के कोने-कोने में घूमकर बड़े के गोश्त के लिए लोगों के पास गिडगिड़ाता था. आख़िरकार पारसी कालोनी के पास वाले एक विक्रेता ने मुझे बताया कि पारसियों की बिल्लियाँ चिकन लिवर चाव से खाया करती हैं. बस, तबसे आख़िर तक वही उसका मुख्य खाना हो गया. उसके अलावा ताज़ा मछलियाँ (वे भी आला दर्जे की. बिल्लियाँ आम तौर पर मांदेली जैसी छोटी मछलियाँ पसंद करती हैं. लेकिन कोश्का उन्हें मुँह तक न लगाती थी), डैनिश ब्लू या वैसा ही कोई बेहतरीन चीज़ (अमूल के डिब्बेवाला बिल्कुल नहीं), प्रॉन, गर्म नर्म नर्म इडली, कण्डेंस्ड मिल्क और नारियल का नैचुरल आइस्क्रीम उसके पसंदीदा व्यंजन थे. कोश्का की पसंद का पता लगाने और उन्हें जाने कहाँ कहाँ से ला देने में मुझे बेहद ख़ुशी मिलती थी.
विजय मुलतानी नामक एक मार्जारप्रेमी व्यक्ति ने बिल्लियों की पसंद-नापसंद पर शोधकार्य कर एक डिब्बाबंद व्यंजन ईजाद किया था. वह कोश्का को बेहद पसंद था. सीलबन्द डिब्बा घर पहुँचाने वाली लड़की की गंध से वह वाकिफ़ थी. सीढियों पर उसके पैर रखते ही कोश्का उसे पुकारने लग जाती. अगर सो भी रही हो तो भी कैन ओपनर की आवाज़ सुनते ही जाग जाती.
अकेले खाना-खाना कोश्का को गवारा न था. खाने के समय पुकारकर, चिल्लाकर घर में मौजूद अपने चहेते व्यक्तियों में से किसीको बुला लेती. खाना खाते वक़्त आँखों की कोरों से देखती कि आप वहीं मौजूद हैं या नहीं. इसके बदले में या हो सकता है रीति-रिवाज निभाने की तमीज़ के चलते वह तब तक टेबल पर बैठी रहती जब तक मैं अपना खाना खाकर अपनी थाली नहीं उठाता था, फिर चाहे मैं देर रात घर लौटकर खाना क्यों न खा रहा होऊँ. मेरी थाली में परोसे खाने में उसे ज़रा भी दिलचस्पी नहीं होती थी. लेकिन उसने अपनी तमीज़ कभी नहीं छोड़ी. चोरी से खानेवाली बिल्लियों के क़िस्से घर-घर में बयान किये जाते हैं. मगर कोश्का ने अपनी ग्यारह साल की ज़िंदगी में कभी चुराकर कुछ नहीं खाया.
संपूर्ण स्वायत्तता
श्वानप्रेमियों ने दुनिया भर में ढिंढोरा पीट रखा है कि बिल्लियाँ इंसान से प्यार नहीं करतीं. एक तो यह कि कुत्ते को चाहनेवाले अधिकतर लोगों को यह तसल्ली मिलती है कि कम से कम कुत्ता तो उनकी सुनता है. कुत्ते से इंसान का रिश्ता नौकर और मालिक का होता है. कुत्ते के ईमानदार होने की बातें अक्सर की जाती हैं उनके पीछे दरअसल मुख्यतः सत्ता की राजनीति होती है. बिल्ली कभी किसी की हुकूमत को नहीं मानती. कोश्का को डॉक्टर के पास ले जाने पर फॉर्म भरते वक़्त जब फॉर्म में ‘प्राणी के नाम’ के साथ ही ‘प्राणी के मालिक का नाम’ पढ़ा तो मैं ख़ूब हँसा. मैंने डॉक्टर से कहा, ‘इस जहाँ में बिल्ली को कोई मालिक कहीं नहीं होता. अलबत्ता वह मेरे घर पर रहकर मुझपर अहसान ज़रूर करती है, इसलिए मेरा पता लिख देता हूँ. लेकिन मालिक वालिक तो कोई है नहीं’.
हर एक रिश्ता इंसान को कुछ न कुछ सिखाता है. वह रिश्ता चाहे दूसरे इंसान के साथ हो, चाहे पालतू पशु के साथ हो या चाहे पेड़ के साथ हो. पेड़ से अपने रिश्ते से इंसान इंतज़ार करना सीखता है. पेड़ में फूल, फल अपने समय पर ही लगते हैं. फिर आप चाहे जितनी जल्दी में हों, चाहे जितना उसका ख़याल रखें, चाहे जितनी उसकी निगरानी करें, पेड़ की घड़ी अपने हिसाब से ही चलेगी. बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा करने में इसी तरह बड़े धीरज से काम लेना पड़ता है. बिल्ली से आपका रिश्ता आपको सिखाता है कि बराबरी का रिश्ता क्या होता है. इस रिश्ते की निरपेक्षता में ही इसका सुख होता है. अपनी दुनियावी ज़रूरतें छोड़ दे तो बिल्ली स्वयंसिद्धा होती है. उसे आपकी क़तई ज़रूरत नहीं होती. आपको वह चाहती है, लेकिन आप उसकी ज़रूरत नहीं होते. ज़रूरत के चलते जो निर्भरता आती है वह बिल्ली में कभी नहीं होती. वह कभी किसी पर निर्भर नहीं करती. दूसरे रिश्तों के ज़रिये हमारे अहं को किसी न किसी शक्ल में एक तरह का सुख मिलता है. बिल्ली के साथ आपके रिश्ते से ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. अपने सुख की खोज आप ख़ुद करें. वह हो सकता है उसके खिलंदड़ेपन में आपको मिल जाये, उसकी लुभावनी अदाओं में मिल जाये. मगर बिल्ली ख़ुद आपके लिए ख़ास तौर से कुछ करे यह हो नहीं सकता. बिल्ली से आपका रिश्ता आपको समानता का सबक़ सिखाता है.
प्यार… लेकिन मर्ज़ी उसकी
मेरे घर लौटने की आहट कोश्का को सुनायी देती थी. जहाँ भी होती वहाँ से दरवाज़े पर आकर मेरा इंतज़ार करती. लेकिन जब कभी कई दिन तक बाहर रहकर मैं घर लौटता तो पहले तो काफ़ी देर तक मेरे पास न आती. सूटकेस की गंध सूँघती. मैं उसके पास जाता तो भाग खड़ी होती, चीख़ती. फिर जब उसे उठाकर सीने से लगा लेता तब मुझे काटकर, नोचकर, पर्याप्त सज़ा देने के बाद लाड़ जताने लगती. लेकिन अगर उसकी तरफ़ बिल्कुल ध्यान न दूँ, तो बराबर पैरों में लिपटती रहती. पैरों के पास मँडराती रहती और-और कुछ भी करने न देती.
एक बार पीठदर्द से मैं परेशान था. बीमारी की उस हालत में दस दिन तक बिस्तर पर एक ही अंदाज़ में लेटे रहना पड़ा था. इन दस दिनों के दौरान कोश्का मेरी बगल से बिल्कुल हटी नहीं. दोपहर का खाना भी नहीं खाती थी. रात दवाई के असर से मैं सो जाता तब जाकर अपना खाना खा लेती. दवाई का असर कम होने पर जैसे ही मेरी आँख खुलती और देखता तो वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखें मुझीपर गड़ाये बैठी मिलती. थोड़ा ठीक हुआ और बिस्तर से उठ-बैठने लगा तब जाकर उसने बिस्तर छोड़ा.
शांति कोश्का को अतिप्रिय थी. घर के लोगों की आवाज़ें कभी चढ़ने लग जायें तो वह बोलने वाले के पास आकर ग़ुस्सा करती. इससे घर में लड़ने-झगड़ने की छूट किसीको नहीं थी. आपका मूड जैसा भी हो, आपके मिज़ाज बिगड़े हुए हों, जब तक आप शान्त नहीं हो जाते वह चिल्लाती रहती और आपको एक भी लफ़्ज़ बोलने नहीं देती. बहुत हुआ तो अपने पंजे से आपके बदन पर हल्के-हल्के तमाचे जड़ती रहती.
संगीत-समीक्षा और तुरत-फ़ुरत फ़ैसला
कोश्का को शांति प्रिय थी, तो संगीत भी प्रिय था. हाँ, मगर संगीत की कुछ विधाएँ ही पसंद थीं उसे. इस बात को लेकर हमारे अनुभव इतने अद्भुत हैं कि जिन लोगों ने वे अपनी आँखों से देखे हैं वही उनका विश्वास कर सकते हैं. इसीलिए मैंने संगीत सुन रही कोश्का का फ़िल्मांकन कर रखा है. उस फूटेज में बीथोवन और कुमार गंधर्व के गाने की ताल पर अचूक पूँछ हिला रही कोश्का को देखेंगे तो आप यह नहीं कह सकेंगे कि यह तो हो ही नहीं सकता. हाँ, इस संदर्भ में तीन वाक़ये तो काबिले-बयान हैं.
एक बार मैं कीथ जारेट के क्लासिकल पियानो का कैसेट सुन रहा था. जब तक शास्त्रीय संगीत जारी था, मोहतरमा आगे के पैर मोड़कर बैठी इत्मीनान से सुन रही थीं. कैसेट की दूसरी तरफ़ आधुनिक संगीत रेकॉर्ड किया हुआ था. जैसे ही वह शुरू हुआ कोश्का ज़ोर से चिल्लायी, उछलकर टेप डेक पर चढ़ गयी और उसे नोचने लगी.
एक बार नन्दू (धनेश्वर) और नीला (भागवत) हमारे घर आये थे. नीला टेबल के पास वाली कुर्सी पर बैठ गाने लगीं. कोश्का पीछे बैठ सुन रही थी. गाना जारी था. कोश्का हौले से उठी और नीला के कंधे पर हाथ रख शांतिपूर्वक गाना सुनने लगी. दोनों में ख़ास दोस्ती न थी. इससे पहले कोश्का ने ऐसी हरकत किसी के साथ कभी नहीं की थी और न ही इसके बाद किसी के साथ कभी की. बेवजह प्यार जताना उसकी फ़ितरत में न था.
एक बार, मगर, बिल्कुल इसके विपरीत हादसा हुआ अरुणा साईराम को लेकर. वैसे आमतौर पर जब भी अरुणा गाती तो कोश्का उसके सामने आ बैठती थी. एक बार खाना खाते समय अरुणा किसी गायक की नक़ल उतारने लगी. बढ़ती उम्र के साथ जब गायक महोदय ऊँचा सुनने लगे थे तब उन्हें यह अहसास नहीं होता था कि वे ख़ुद बहुत ऊँची आवाज़ में गा रहे हैं. अरुणा उनके अचानक इसी ऊँचे सुर में गाने की नक़ल उतारने लगी. उसने गला फाड़ ऊँचे सुर में गाना शुरू किया. बस, उसी पल पास से गुज़र रही कोश्का ने अचानक उसे नोचा. हम देखते रह गये. घर आये मेहमान के सामने जब अपना बच्चा बुरी हरकत करता है तो माँ-बाप जिसतरह लज्जित होते हैं, ठीक ऐसी हालत हमारी हुई. लेकिन अरुणा विनोदप्रिय थी, समझदार थी. उसने सिफ़ारिश करने की अपनी इच्छा प्रकट की कि मद्रास म्युज़िक अकादमी में नवोदित कलाकारों की ऑडिशन टेस्ट करने के लिए कोश्का को नियुक्त किया जाये.
चंद हरकतें और
कोश्का हमारे घर की आधिकारिक नागरिक थी. वह अगर किसी कुर्सी पर बैठी हो तो हमें दूसरी कुर्सी ले आकर उसमें बैठना होता था. अगर वह सो रही होती तो ऐसा कुछ भी करना हमारे लिए मना था जिससे उसकी नींद उचट जाये. उसकी प्रिय जगहों पर हम अपना कोई सामान रखें यह नहीं हो सकता था. इस तरह के कई नियम हमने अपने आप पर लागू करवा लिये थे. उसकी एक वजह यह थी कि मर्ज़ी के ख़िलाफ़ किसी तरह के स्थलान्तरण का नतीजा सशस्त्र हमले में हो जाता. मेरा एक सहयोगी उसे ‘स्टेपल-पंच’ कहा करता था. उसके नुकीले दाँत स्टेपल किया करते थे और नाख़ून पंच किया करते थे. बैठने की जगह ढूँढ़ते समय कोश्का काफ़ी सोच-विचार करती थी. जी भर कर सोना होता था तो पलंग के नीचे की जगह पसंद की जाती. धूर्त पहरा देना होता तो किसी ऐसी ऊँची जगह का चुनाव किया जाता जहाँ से चारों ओर नज़र रखी जा सके. ऐशो-आराम के लिए जहाँ धूप हो ऐसी जगह बेहतर समझी जाती. एक बार उसे कमरे के बाहर रख दरवाज़ा बन्द कर लिया, तब परदे पर नाखून गड़ाते हुए वह ऊपर चढ़ी और शटर से देखने लगी कि अंदर क्या हो रहा है.
एक बार एक मेहमान वॉश बेसिन पर मुँह धो रही थी. तब कोश्का परदे पर मेहमान के चेहरे की ऊँचाई तक चढ़ गयी और वहाँ लटके हुए देखने लगी कि क्या हो रहा है. चेहरे से साबुन धुल गया और मेहमान ने आँखें खोलीं तो एक्स्ट्रीम क्लोज़-अप में सामने लटकता हुआ कोश्का का चेहरा देख वह डर के मारे चीख़ उठी. चेहरा साबुन से भी सफ़ेद पड़ गया था.
बिल्लियाँ छोटी होती हैं तब किसी भी चीज़ को अपना खिलौना बना लेती हैं. धूप का ज़रा-सा टुकड़ा तक उनका खिलौना बन जाता है. लेकिन जैसे-जैसे वे बड़ी होती हैं वैसे-वैसे खेलने में उनकी दिलचस्पी कम होती जाती है. मगर कोश्का आख़िर तक खेल में रुचि रखती रही और शान्ता की राय में बचकानी बनी रही.
हमारे एक अमरीकी रिश्तेदार ने उसके लिए ‘कैट डान्सर’ नामक एक खिलौना भेजा. खिलौना सादा-सा था, मगर उसके साथ बिल्लियाँ पागलों की तरह खेलती रहतीं. मेरी टेबल की ऊपरवाली दराज़ में यह खिलौना रखा रहता. सबेरे शान्ता और मैं घूमने निकलते तब कोश्का टेबल के कोने पर बैठी होती. अगर मैं टेबल के पास से गुज़रने लगूँ, तो पंजा मारकर मुझे खिलौने की याद दिला देती. अगर मैं न दूँ तो ग़ुस्सा करती, चिल्लाती.
यह खिलौना दरअसल लोहे के एक लचीले तार के छोर पर लगे रॉलप्लग्स थे. तार के हिलते ही रॉलप्लग्स तितली की तरह फड़फड़ाते, चूहे की तरह दौड़ पड़ते, गोल गोल घूमते. निशाना साध उनपर झपट पड़ने का खेल कोश्का को बेहद पसंद था. कभी अगर दराज़ ज़रा-सी खुली रह जाती तो वह ख़ुद ही हाथ डाल खिलौना निकाल लेती और खेलती रहती या आपको खेलने के लिए बुलाने लगती.
अलविदा
कोश्का के बदन पर हाथ फिरा रहा था तो सहसा उसके सीने पर मूँगफली के दाने जितनी माँस की गाँठ पायी. डॉक्टर ने बायोप्सी करने की सलाह दी. कैन्सर था. जब निदान किया गया तब तक मर्ज़ दूसरे स्टेज पर पहुँच चुका था. कोश्का ग्यारह साल की हो चुकी थी. इससे पहले उसके गर्भाशय का ऑपरेशन हो चुका था. डॉक्टर की राय थी कि उससे दूसरा ऑपरेशन बरदाश्त नहीं हो सकेगा. कोश्का का सौभाग्य था कि बहुत अच्छे पशु-चिकित्सक मिल गये थे. उनका नाम भी राजहंस था. बोले, ‘आज तक जिस शान और सम्मान के साथ वह जी रही थी, उसे उसी शान और सम्मान के साथ जीने दें’. उन्होंने यह भी कहा कि ज़िंदगी के चार-छह महीने बाक़ी हैं. रोग दूसरी इंद्रियों तक पहुँचने की अवस्था में था.
शुरू के कुछ महीने ठीक रहे. उसे किसी तरह का दर्द महसूस नहीं हो रहा था शायद. खेलती थी, कूदती-फाँदती थी, कैट डान्सर के साथ सबेरे छह बजे खेले बग़ैर हमें घूमने जाने नहीं देती थी. खाना-पीना भी नियमित था. हम जानते थे कि उसकी बीमारी जानलेवा है, फिर भी पागल मन यह उम्मीद किये हुए था कि हो-न-हो, कोई चमत्कार हो जाये और इस जानलेवा बीमारी से कोश्का बच ही जाये. जिन्हें ईश्वर में विश्वास नहीं होता वे लोग बिना किसी सहारे के क़िस्मत का सामना करते हैं. हम भी बेबस हो उसके आख़री दिन देखे जा रहे थे. कभी- कभी मुझे ज़रूरत महसूस होती थी प्रार्थना की अफ़ीम की. लेकिन नास्तिक व्यक्ति इस नशे का आदी नहीं होता. अपनी माँ की आख़री बीमारी के दौरान भी मेरा मन यह नशा करने का नहीं हुआ था. इस बात की ख़ुशी भी हुई थी कि जिस माँ को लोग धार्मिक समझा करते थे उसने किसी भी तरह की धार्मिक विधियाँ करने की मनाही कर दी थी. लेकिन फिर भी दिनोंदिन मेरी बेचैनी बढ़ती ही चली जा रही थी.
कोश्का का रोग बढ़ता जा रहा था. घर पर मौत के साये मँडराने लगे थे. चेहरे कुम्हलाने लगे थे. कोश्का के सीने पर गाँठों की तादाद बढ़ती जा रही थी. नासूर होने लगे थे. जैसे-जैसे रोग बढ़ता चला गया वह इंसान के साथ से और रोशनी से बचने की कोशिश करने लगी. घर के बाहर तो वह कभी निकली ही नहीं थी. उसके फ़ारिग़ होने के लिए हमने लकड़ी के भूसे से भरी प्लास्टिक पॉटी रखी थी. अब वह भूसा उसके ज़ख़्मों के लिए तकलीफ़देह साबित होने लगा. रेणुका ने सुझाव दिया, क्यों न हम काग़ज़ के छोटे-छोटे टुकड़े इस्तेमाल करें. ऐसा ही किया गया और कोश्का को भी सुझाव रास आया. फ़ारिग़ होते समय द्रव का स्पर्श उससे सहा नहीं जा रहा था.
कोश्का के आख़री दिन रेणुका के कमरे में बीते. रेणुका की फ़ितरत बिल्ली की-सी है. इसलिए उसका कमरा दूसरे कमरों की अपेक्षा अँधेरा है. कोश्का को इसी कमरे में सुकून मिलने लगा. क्या पता, शायद वह चाहती थी कि उसका बदला हुआ रूप हम न देखें. जो भी हो, वह कपड़ों की अलमारी के नीचे जा बैठती थी. घर के सारे लोग सो जाते तब फ़ारिग़ हो जाती. टॉर्च की रोशनी डाल उसे ढूँढ़कर खाना देना पड़ता.
कुछ एक पशु ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी दुरवस्था का अहसास हो जाता है. बचपन से पशुओं का जो अनुभव मैंने किया है, उससे यही लगता है कि लज्जा की जो भावना आजकल इंसानों की दुनिया से ग़ायब हो चली है वह इन पशुओं के मन में बरक़रार होती है. लिहाज़ा जिसके बाल काट दिये गये हों ऐसा कुत्ता बालों के फिर-से उगने तक पलंग के नीचे जा छुपा रहता है. घायल बिल्ली या उसकी बिरादरी के बाघ, शेर आदि अकेले रहना पसंद करते हैं. कोश्का के साथ यही हो रहा था. जब हम उसकी मदद करना चाहते थे, उसका साथ निभाना चाहते थे तब वह ख़ुद अकेले में अँधेरे में रहना पसंद कर रही थी. हमदर्दी से उकता गयी थी वह. हम किसी से चाहे जितना प्यार करते हों, उससे हमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए- एक कड़वा और क़ीमती सबक़ उसने जाते-जाते मुझे सिखा दिया था .
कोश्का की चाल में थकान उतर आयी थी. बला के ज़िद्दी स्वभाव के चलते वह आख़िर तक अपने पैरों पर चलती रही थी. बेहद फ़ुर्तीले शरीर ने अब कछुए की चाल अपना ली थी, जिससे बराबर विद्रोह किये जा रही थी वह. मगर उसकी हार हुई, प्रकृति और रोग की जीत हुई. अपने आपसे शर्मिन्दा हो रही थी वह. अपनी इच्छा को अपना शरीर धता बता रहा है यह बात उसकी ख़ुद्दारी को बरदाश्त नहीं थी.
कोश्का का शरीर हारता चला जा रहा था, मगर उसकी बुद्धि, विचारशक्ति और जीवनदृष्टि हारी नहीं थी. खाने में रुचि बरक़रार थी. पसंद-नापसंद वैसी ही थी. लेकिन भूख कम हो चली थी. आँखों की ज्योति तले रोग की कालिख जमा होने लगी थी. बस, ताज़ा प्रॉन और नारियल का आइस्क्रीम आखिर तक चाव से खाती रही.
कोश्का के शरीर से बह निकलने वाले ख़ून की मात्रा बेहद बढ़ गयी. नीचे बिछा कपड़ा बराबर बदलना पड़ रहा था. आख़िर तय हुआ कि उसे इस यंत्रणा से छुटकारा दिलवाया जाय. लेकिन उस समय भी उसकी जीवनेच्छा इतनी ज़बरदस्त थी कि तीन बार तो हमें ऐसा लगा कि वह ठीक हो रही है. इंजेक्शन का ख़याल तीन बार मुल्तवी कर दिया गया.
कोई भी चमत्कार नहीं हो रहा था. प्रकृति रोग को रोकने में असफल हुई जा रही थी. तब डॉक्टर को बुलाया गया. आख़री बार उसे हाथों में उठा लिया, उसकी पसंद का खाना खिलाया. उसे पकड़कर रखा. उसकी बड़ी-बड़ी आँखें मुझीपर गड़ी हुई थीं जब डॉक्टर ने पहला इंजेक्शन दिया. कोश्का शान्त हो गयी. माँसपेशियों को चैन आया. आँखें फाड़कर देखा उसने. फिर दूसरा इंजेक्शन. फिर डॉक्टर ने आँखों पर फूँक मारी जिसका अहसास उसे नहीं हुआ.
डॉक्टर बोले, ‘अब सब ख़त्म हुआ’.
रोग से जर्जर, कमज़ोर शरीर को मैंने अपने आँसुओं से और अपने हाथों से धोया. उसकी त्वचा की चमक फिर लौट आयी. हमेशा की तरह मैंने अपना माथा उसके माथे से सटाया. नाक पर नाक रगड़ी. लेकिन कोश्का का शरीर धीरे-धीरे ठँड़ा पड़ता जा रहा था. खुली आँखों को इन सारी बातों का पता ही नहीं चल रहा था. कोश्का के आसपास शान्ता और रेणुका की दबी सिसकियों, दबी-दबी हिचकियों की आवाज़ ख़ामोशी का अहसास और शदीद किये दे रही थी. अपनी प्रिय शांति के आगोश में दुबकी वह सो रही थी.
उसकी अस्थियाँ जिस गमले में डाल दी थीं, उस पौधे पर महीने भर बाद गहरे पीले फूल खिलने लगे और अँधेरे में से गर्दन उठाकर सबेरे के सूरज को ताकने लगे.
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अरुण खोपकर मणि कौल निर्देशित ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास की प्रमुख भूमिका. सिने निर्देशक, सिने विद् और सिने अध्यापक. फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए तीन बार सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कारों के सहित पंद्रह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित. होमी भाभा फेलोशिप से सन्मानित.‘गुरू दत्त : तीन अंकी शोकांतिका’ को सिनेमा पर सर्वोत्कृष्ट पुस्तक का राष्ट्रीय ॲवॉर्ड और किताब अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालिअन, बांगला, कन्नड और हिंदी मे भाषांतरित. ‘चलत् चित्रव्यूह’ के लिए साहित्य अकादेमी ॲवार्ड व महाराष्ट्र फाउंडेशन (यू. एस. ए.) ॲवार्ड, ‘अनुनाद’ और ‘प्राक् सिनेमा’ के लिए लिए महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार. अंतरराष्ट्रीय चर्चा सत्रों में सहभाग और प्रबंधों का अंग्रेजी, रशियन और इटालियन में प्रकाशन. सत्यजित राय जीवनगौरव पुरस्कार व पद्मपाणी जीवनगौरव पुरस्कार. चार भारतीय और छह यूरोपीय भाषाओं का अध्ययन. महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्मानित प्राक्-सिनेमा का सेतु द्वारा शीघ्र प्रकाशन. |
रेखा देशपांडे
माधुरी में अपनी पत्रकारिता की शुरुआत कर चुकी फिल्म-समीक्षक, लेखक, अनुवादक रेखा देशपांडे क्रमशः जनसत्ता, स्क्रीन और लोकसत्ता (मराठी दैनिक पत्र) में भी कार्यरत रही हैं. ‘रुपेरी’, ‘चांदण्याचे कण’, ‘स्मिता पाटील’, ‘नायिका’ (महाराष्ट्र राज्य साहित्य पुरस्कार 1997 प्राप्त), ‘मराठी चित्रपटसृष्टीचा समग्र इतिहास’, `तारामतीचा प्रवास– भारतीय चित्रपटातील स्त्री-चित्रणाची शंभर वर्षे’, ‘दास्तान-ए-दिलीपकुमार’ उनकी अबतक की प्रकाशित मराठी पुस्तकें हैं. अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दौर में वे धर्मयुग के लिए कई अनुवाद कर चुकी हैं और अब तक मराठी, अंगेज़ी और कोंकणी भाषा से हिंदी में, अंग्रेज़ी से मराठी में उनके चालीस के क़रीब अनुवाद छप चुके हैं, जिनमें साहित्य, समाज, राजनीति, इतिहास आदि कई विषय और अगाथा ख्रिस्ती, जोनाथन गिल हॅरिस, जॉन एर्स्काइन, एम. जे. अकबर, डॉ. जयंत नारळीकर, गंगाधर गाडगीळ, शिवदयाल, उषा मेहता, विंदा करंदीकर आदि लेखकों की पुस्तकें शामिल हैं. अरुण खोपकर की पुस्तक ‘प्राक्-सिनेमा’ का उनका किया हिंदी अनुवाद जल्द ही प्रकाशित होने जा रहा है. वे अंतरराष्ट्रीय फिल्म-समीक्षक संगठन की सदस्य हैं और केरळ, बंगलोर, कार्लोव्ही व्हॅरी (चेक रिपब्लिक), कोलकाता, थर्ड आय मुंबई, ढाका (बांग्लादेश), हैदराबाद, औरंगाबाद आदी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में समीक्षक ज्युरी की सदस्य की हैसियत से काम कर चुकी हैं. मराठी फिल्म कथा तिच्या लग्नाची की सहलेखिका रही हैं और 90 की दहाई में दूरदर्शन के धारावाहिक सावल्या(मराठी), आनंदी गोपाल (हिंदी) का पटकथा-संवाद-लेखन उन्होंने किया. |
आत्मीय संस्मरण का लाजवाब अनुवाद किया है। अरुण खोपकर के साथ पाठक भी कोश्का की स्मृति में खो जाता है…
बेहद रोचक संस्मरण।
सहृदयता से रचे गए इस संस्मरण में मनुष्येतर प्राणी से प्रगाढ़ मानवीय संबंध बनाने की व्यग्रता जिस बारीक विश्लेषण और मनोविज्ञान के साथ उपस्थित हुई है, वह इसे विशिष्ट बनाती है। ‘बिल्ली से आपका रिश्ता आपको समानता का सबक़ सिखाता है‘ – यह सामान्य कथन नहीं, बल्कि दार्शनिक अभिव्यंजना का रूप लेकर इस तथ्य को उजागर करता है कि संबंधों की दीर्घजीविता के लिए स्वायत्तता और पारस्परिकता के बीच समन्वय एवं संतुलन स्थापित करने की क्षमता बेहद जरूरी है।
सामान्य में विशिष्ट अर्थ भर देने वाली इस रचना के लिए समालोचन , अरुण खोपकर जी और रेखा देशपांडे का आभार।
मर्मस्पर्शी। बिल्लियों से मुझे हमेशा बहुत प्यार रहा है। जानती हूं की आप उन्हें गोद नहीं लेते, वही आपको गोद लेने का एहसान करती हैं। स्वतंत्र चित्त, वे आपको जीने का शउर सिखाती हैं।
कोश्का इतनी अपनी लगी कि उसकी हर अदा को मैं जी गई।
बिल्लियां बहुत साफ सुथरी होती हैं। यह अंत के उसके रोग और उसके कारण होने वाले रिसाव के प्रति उसकी नापसंदगी से ज़ाहिर है।अरुण और शांता खुशकिस्मत हैं कि उन्हें कोश्का का इतना लंबा साथ और प्यार मिला।
अरुण खोपकर ने उसकी हर भंगिमा का ऐसा सुंदर वर्णन किया है कि संस्मरण भरा प्यार उमड़ता कहीं उबाऊ नहीं होता। रेखा देशपांडे के अनुवाद में कहीं भी मराठी का पुट नहीं है।
दोनों को बधाई।
बेहद आत्मीय और मर्मस्पर्शी संस्मरण है। अनुवाद भी सुन्दर है। लेखक, अनुवादक और ‘समालोचन’ तीनों का शुक्रिया।
इसे पढ़ते हुए हिन्दी में महात्मा भगवानदीन की लिखी पुस्तक “बिल्ली की कहानी” की भी याद आई। यह विशेषकर बच्चों के लिए लिखी गई एक बिल्ली की बहुत ही दिलचस्प जीवनीनुमा कथा है।
गहरी संवेदना और सूक्ष्म रागात्मकता को अभिव्यक्त करता संस्मरण । अनुवाद ऐसा कि अनुवाद ही न लगे। थामस ग्रे ने अपने मित्र की बिल्ली के टब में डूबकर मरने पर एक शोकगीत लिखा था। हेमिंग्वे की कहानी – ओल्डमैन एट दि ब्रिज – में एक पुल पर गाँव छोडकर आये लोगों का जमावड़ा है। वे युद्ध के चलते हडबडी में अपने गाँव से भागकर वहाँ आये हैं। एक वृद्ध व्यक्ति बार- बार बडबडाता है- मेरी बिल्ली वहीं छूट गयी। हिन्दी में प्राणियों पर महादेवी जी के जैसे संस्मरणों की श्रृंखला आगे नहीं बन सकी।
कोश्का पर आपका लिखा संस्मरण आज पढ़ा…बहुत आत्मीय और मर्म छूने वाला है…स्कूल के दिनों में महादेवी वर्मा का संस्मरण गिल्लू पढ़ा था और आज कोश्का…. बिल्लियों के व्यवहार के बारे में मैं सचमुच बहुत कम जानता हूं मगर कोश्का को जानकर बहुत भला लगा.
उम्मीद है कि आप स्वस्थ और सानंद होंगे.