दास्तान-ए-शाहीन अपर्णा दीक्षित |
(यह कहानी अरब की नारीवादी लेखिका नवल अल सदावई के बेस्टसेलर उपन्यास वीमेन एट प्वांइट ज़ीरो से प्रेरित है. इस उपन्यास का हिंदी में कोई अनुवाद नहीं है. यह कहानी सदावई के उपन्यास का अनुवाद नहीं है. )
अपर्णा दीक्षित
मैं दोबारा कत्ल करूंगी. यह उनका डर नहीं है. उन्हें डर है कि मैं बच गई तो सच बोल दूंगी. मेरा मक़सद उस पार जाना है. इस दुनिया से बहुत दूर. इस उम्मीद में कि वह दुनिया बेहतर न सही, नई तो होगी. यही वज़ह है कि उन्हें मुझे मारने की जल्दी है, और मुझे मरने की. शाहीन ने जब रुख़सार से ये कहा तो उसकी आवाज़ कांपी नहीं. एक पुलिस कर्मी आकर खड़ी हुई, अगले ही पल शाहीन धड़धड़ाते हुए फांसी पर लटकने चल पड़ी. जैसे बड़ी मुद्दत से इंतज़ार किया हो इस दिन का. जैसे कोई चिड़िया रास्ता देखती है, बरसों बरस आज़ाद होने का.
रुख़सार बेज़ार ताक़ती रह गई. उससे रोया नहीं जा रहा था. रोना हमेशा आसान नहीं होता. ख़ासकर जब सामने वाले का दुःख ख़ुद को ही शर्मिंदा कर जाए. जब कोई मौत को हँसते हुए गले लगाना चाहे और आप उसे जीवन का लालच भी ने दे सके. कुछ नहीं था रुख़सार के पास शाहीन को देने के लिए. एक दिलासा भी नहीं. वह ये भी नहीं कह सकती थी कि अब सब ठीक हो जाएगा. मुँह छिपाए, अपना झोला-कलम उठाए, गाड़ी की तरफ बढ़ चली. मुंबई सेंट्रल जेल से निकलते हुए रुख़सार के पैर कांप रहे थे. जैसे किसी ने जकड़ लिया हो. पैरों से ज़हन तक. उसके पत्रकारिता के करियर का ये वो दिन था. जिसे वो मरते दमतक भूल नहीं सकती थी. गाड़ी स्टार्ट करते ही रुख़सार शाहीन की जिंदगी में हाज़िर थी. जैसे दाखिल हो जाते हैं तमाम घाव हमारे ज़हन में ताउम्र रिसते रहने के लिए.
रुख़सार कई रोज़ से महिला जेल पर कोई ख़बर करने की सोच रही थी. कुछ रोज़ पहले उसे जेलर ने ‘कुछ ख़ास हो तो’ के जवाब में बताया था कि एक क़ैदी है. किसी से ज्यादा बोलती नहीं. पर बहुत अच्छी है. उसे देखकर. बात करके. लगता ही नहीं कि वो किसी को मार भी सकती है. मैंने उसके अच्छे चाल-चाल को देखते हुए उसकी तरफ से सज़ा कम करने की दरख्व़ास्त भी लिखी. पर उसने दस्तख्त करने से इंकार कर दिया. तभी से रुख़सार शाहीन से बात करना चाहती थी. पर वो मानी नहीं. कितने ही चक्कर काटे रुख़सार ने. कितनी ही मिन्नतें करवाई. पर शाहीन अपनी बात से हिली ही नहीं. आख़िर अपनी फॉसी की सज़ा से एक दिन पहले शाहीन ने रुख़सार से बात करने का बुलावा भेजा.
जेल के बैरक में दो कुर्सियाँ रखी गई. चारों तरफ सन्नाटा. लेकिन रुख़सार के दाख़िल होते ही शाहीन ने उसे फर्श पर बैठने का इशारा किया. रुख़सार के होश फाक्त़ा थे. क्या था शाहीन में. बेहद आम नैन नक्श़. सादा रंग. पर क्या चमक थी उसकी आँखों में, रुख़सार एक टक देखती ही रही. पनीली हरी आँखें, किसी कंचे सी चमक रही थीं. रुख़सार ने एकदम साफ देखा ख़ुद को उनमें. जैसे क़ाबू में कर लिया था उसे किसी ने. शाहीन की आंखों ने ही जैसे खींच कर उसे फर्श पर पटक दिया. वो तासीर थी उसके देखने में. जैसे इंसान की रुह कलेजा निकाल के सामने रखने पर मजबूर हो जाए. दीवार से टिकी शाहीन जैसे आरामगाह के मसनद पर बैठी हो. तक़लीफ तो जैसे उसे छू के न गुज़री हो. ऐसी ख़ामोशी थी चेहरे पर. कोई मलाल नहीं. दर्द की इंतिहा ही दर्द का इलाज हो जैसे. सब कुछ ठीक लग रहा था. इंतज़ार पूरा हुआ. मौत बाहें फैलाए चौखट पर खड़ी है.
शाहीन अब ठीक थी. रुख़सार ने बैठते ही, सवालों की झड़ी लगा दी. क्यों नहीं सज़ा माफ करवाना चाहतीं आप. लगता तो नहीं आपने क़त्ल किया होगा किसी का. कोई फिक्र नहीं आपको. कोई डर. माथे पर कोई शिकन नहीं. जवाब में शाहीन ने सिर्फ मुसकुरा दिया. मुस्कुराहट के मायने रुख़सार की समझ के बाहर थे. उसे जानना था बस. कौन है ये सिरफिरी शाहीन, जो मरने के इंतज़ार में लैला हुई जाती है.
शाहीन ने दीवार पर नज़र गड़ाए कहा. जल्दी सुन लो वक्त कम है. बात गहरी है. ये कहानी मेरी है. रुख़सार ने सुना, जल्दी सुन लो तुम्हारी बेचैनी तुम्हें जीने नहीं देगी. और अब जब तुम मुझे इस हाल में देख चुकी हो, किसी हाल में नहीं. फिर शाहीन कहती चली गई.
तब मैं सिर्फ 15 की थी. बला की खूबसूरत, नाज़ुक, गाँव के रास्तों पर खुशबू जैसी उड़ती थी. यूसुफ मेरा पड़ोसी, मुझे बड़ा अच्छा लगता था. उसके बाल घुंघराले थे. एकदम दूध जैसा सफेद लंबा चौड़ा बदन. उसके छूते ही जैसे मेरे अंदर सौ तारों का करंट एक साथ दौड़ जाता था. हम घंटों अकेले वक्त बिताते. घूमते-फिरते, बातें करते, खाते-पीते और एक दूसरे को प्यार से सहलाते. मुझे उसकी आदत हो गई थी. मैं बहाने बनाकर उससे मिलने लगी थी. जैसे-जैसे हम बड़े होते गए हमें एक दूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. यूसुफ का देखना मुझे मेरी जवानी का एहसास कराता था. तभी अचानक एक दिन मेरी अम्मा ने बोला अब तुम बड़ी हो गई हो. हमारे कुछ रिवाज़ है. जिनसे तुम्हें गुज़रना होगा. ताकि तुम एक नेक, ईमानदार, वफादार और शौहरपरस्त औरत बन सको.
मुझे कुछ नहीं समझ आ रहा था. लेकिन लगा कि अम्मा का कहना है तो मेरी बेहतरी के लिए ही होगा. अम्मा ही तो कहती आई थी अब तक कि जा कुछ घड़ी खेल ले बेटा. खाना खा ले, भूख लगी होगी. आ तेल डाल दूं बालों में कैसे बेजान से हो गए हैं. लिपट के सोती थी मैं अम्मा के साथ. ख़ुश थी कि अब मैं भी एक नेक औरत बनने लायक हो गई. कितना ख़ुश होगा यूसुफ यह जानकर. इससे पहले मैं कुछ समझ पाती, अम्मा से पूछ पाती, नेक औरत के सपने सजा पाती. अगली ही सुबह अम्मा ने मुझे एक पुराने बिस्तर पर बांध कर लिटा दिया. बूढ़ी काकी को बुलाया. मुझे कुछ पता ही नहीं चला. मैंने काकी के हाथ में एक पुरानी ब्लेड देखी. मेरा दिल जैसे कूद कर मुँह के रास्ते ज़बान से बाहर ही लटक आया हो. ये क्या हो रहा है. ऐसे बनाते हैं नेक औरत. मेरी आँखें खुली की खुली रह गई. अचानक तभी मेरी जांघों के बीच से जैसे ख़ून का फव्वारा छूट पड़ा. मैं पागलों की तरह चीख़ रही थी. तड़प रही थी. घंटों चीखते-चिल्लाते मेरी हालत ने जवाब दे दिया. मैं बेहोश कई दिनों वहीं पड़ी रही.
बुख़ार में तपते हुए हफ्ता कैसे बीता पता ही नहीं चला. मेरे सामने अम्मा अब हादसा बनकर हर वक्त नाचती थीं. जिनसे चिपट कर सोती थीं. उन्हें सोचकर भी ख़ून की उल्टी आती थी. अम्मा हर वक्त ख्वाब में कसाई के जैसी चाकू लिए नज़र आती थीं. जब चलने-फिरने लायक हुई तो भी कई दिनों तक घाव टीसता रहा. जब भी बाथरूम जाती ऐसा लगता किसी ने टांगों के बीच मिर्ची भर दी हो. अम्मा ने ख़ुशी-ख़ुशी लड्डू बटवाएं, कहती फिरीं मुबारक हो बेटी का ठीक तरह से खतना हो गया. मुझे लगा मेरे दर्द की नुमाइश लगी हो कि देखो सह लिया.
दर्द मेरा नया साथी बन चुका था. मेरे लिए बड़े होने के मायने अब यही थे. यूसुफ से मिलने की इजाजत अब मुझे नहीं थी. घर के कामों में अम्मा का हाथ बटाती थी. फिर अचानक गाँव में हैजा फैला और हज़ारों जाने गई. उसी में मेरे अम्मा अब्बा का भी इंतकाल हो गया. अब मैं घर पर अकेली थी. स्कूल भी छुड़वा दिया था अम्मा ने. उनका कहना था लड़कियों के लिए ज्यादा पढ़ाई-लिखाई की क्या ज़रुरत. उन्हें घर का काम ही सीखना चाहिए. अब अम्मा अब्बा के जाने के बाद जैसे कोई काम ही नहीं था. सारा-सार दिन सोचती रहती कि अब क्या होगा मेरा. यूसुफ भी आगे की पढ़ाई के लिए शहर जा चुका था. फिर कुछ रोज़ बाद चचाजान घर आए और मुझे अपने साथ ले गए. उनके घर पर सब आराम थे. यहाँ तक कि उन्होंने मेरा स्कूल में दाखिला भी करवा दिया. हालांकि इसके एवज में मुझे उनके साथ सोना होता था. फिर भी मैं ख़ुश थी. दर्द की मुझे आदत हो गई थी. यहाँ तो दर्द के बदले पढ़ने की सहूलियत मिल रही थी.
यूसुफ से दूर खतने के बाद जब मेरा जिस्म मुझे कोई खुशी नहीं देता था. कम से कम उसकी वज़ह से मुझे बेहतर ज़िंदगी मिल रही थी. मैं पढ़ने में बहुत अच्छी थी. मैंने तालीम को ही अपना इश्क़ बना लिया था. दिलो जान लगाकर पढ़ती थी. लेकिन किस्मत ने तो जैसे चुनचुन कर मेरे दामन में कांटे टांक रखे थे. एक रोज़ चचाजान निकाह करके चाची ले आए. चाचीजान को मेरे पढ़ने-लिखने से लेकर मेरे खाने-पीने तक से दिक्कत थी. उन्होंने आते ही एक महीने के अंदर अपने किसी जईफ रिश्तेदार से मेरा निकाह तय कर दिया. उसकी उम्र साठ बरस थी. मैं जैसे अंदर तक दहल गई. मेरी पढ़ाई भी बंद करवा दी गई. अपने निकाह के दिन मैंने भागने की भी सोची. लेकिन जाती भी कहा. कोई तरीका नहीं था. आखिरकार मेहताब मेरी किस्मत में लिख दिया गया. उसे देखकर मुझे घिन आती थी. चेहरे पर बड़ा सा फोड़ा जिससे हर वक्त मवाद बहता रहता था. वो हर रात मेरे साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करता. मना करने पर मारता-पीटता. नेक औरत का सबक पढ़ाता कि कैसे उसे शौहर की बात चुपचाप मान लेनी चाहिए.
एक दिन परेशान होकर मैं वहां से भाग निकली. मेरे लिए सांस लेना भी मुश्किल हो गया था. नेकी मुझसे झेली नहीं जा रही थी. मेरी नाक के नथुने उसके मवाद की बदबू से भर गए थे. मेरी आँखों में उसकी हँसी गड़ने लगी थी. मैं अब गले तक भर गई थी. भागकर एक चाय की दुकान पर काम मांगने पहुंची.
दुकान के मालिक क़ययूम ने मुझे रख लिया. ठहरने की जगह भी दी. ऐसा लगा की सब ठीक हो जाएगा. एक दिन मैंने उसे बताया की मैं पढ़ी-लिखी हूँ अगर कोई बेहतर काम मिल जाए तो. इस पर अचानक वो भड़क गया. जैसे उसे गुस्सा आ गया हो कि मैं पढ़ी-लिखी कैसे हूँ. या मैं नेक औरत नहीं हूँ. क्योंकि नेक औरत पढ़ी-लिखी नहीं होती. पढ़ी-लिखी औरतें सज़ा की हक़दार हैं. उसने धोखे से मुझे एक कमरे में ले जाकर बंद कर दिया. वो ख़ुद भी आता और अपने दोस्तों को भी लाता. हर रोज़ मैं ज़ोर-ज़बरदस्ती की शिकार थी. बंद कमरे में दिन-रात का कुछ पता नहीं था. वक्त जैसे आरी के जैसे मेरे जिस्म पर गुज़र रहा था. फिर एक दिन किसी तरह से मैं वहाँ से बच कर भागने में क़ामयाब रही.
भागते हुए कब गलियाँ चौराहे सब पीछे छूट गए पता ही नहीं चला. समंदर के किनारे आकर निढाल गिरी गई. बेहोश हो गई थी भागते-भागते. लगता था जब से पैदा हुई हूं भाग रही हूँ. युसूफ होता आज साथ तो दौड़ में हार जाता. हमेशा मुझे चिढ़ाता था कि तुम्हें ठीक से भागना भी नहीं आता. आज आता तो देखता कैसे उसकी शाहीन बेसुध भागना सीख गई. ज़हन युसूफ के पास चला गया. लगता था युसुफ की बाहों में लेटी हुई हूं. या शायद मर चुकी हूं. किसी ने तभी सिर पर हाथ फेर कर जैसे मौत के मुँह से वापस घसीट लिया हो. या यूसुफ की गोद से. ये हाथ रेशमा का था.
रेशमा इलाके की सबसे महंगी वेश्या थी. उसे इस धंधे में लोग नाम से जानते थे. उसकी अदा और सलीका एकदम अलग था. मर्द उसके दीवाने थे. रेशमा के एक इशारे पर बड़ा से बड़ा रईस अपनी जेब ढीली कर देता था. रेशमा का इलाके में जलवा था. रेशमा मुझे अपने साथ ले गई. उसने मुझे सिखाया कि वेश्यावृत्ति भी एक धंधा है. इसके अपने तरीके और सलीके हैं. हुनर है. रेशमा ने मुझे कुछ ही रोज़ में हुनरमंद बना दिया था. अब इलाके की नामी वेश्याओं में मेरा नाम था. मैं अब डरी सहमी शाहीन नहीं थी. मेरी हरी पनीली आँखों के लोग दीवाने थे. मुझे देख कर शहर के रईस आहें भरते थे. रेशमा मेरी जिस्म फरोशी से अच्छे पैसे कमा रही थी. लेकिन धंधा तो धंधा. उसे पैसों की तलब थी. उसने मुझे बेचने की पूरी तैयारी कर ली थी. इस बार मुझे पता था. करना क्या है. मैं उसी रात वहाँ से भाग गई. अब मुझे धंधे और धंधे के उसूलों की तह तक जानकारी थी. मैंने ख़ुद अकेले काम शुरु किया. इस बार बिना किसी की मदद के. मैं अब इलाके की एक रसूखदार वेश्या थी. शाहीन बाई.
जिंदगी में ये पहला मौका था जब मुझे अपनी क़ीमत पता चल रही थी. जिस जिस्म में क़ैद थी. वो जिस्म यूसुफ के बाद अब पहली बार मुझे वापस मेरे क़रीब ले आया था. मैं ख़ुश थी. मुझे अब अम्मा की सारी बातों के मायने समझ आ रहे थे. मैं समझ गई थी अम्मा नेक औरत की चाशनी में पूरी जिंदगी पैर फंसाए डूबी हुई चींटी की तरह रही. जो न चाशनी से उबर पाई न ही उसमें डूब पाई. उनका ये वहम कि उनके पास चाशनी है, उन्हें घिसटता हुआ मौत के दरवाजे तक छोड़ आया. उनका वहम उन्हें हर पल उनसे दूर करता रहा. और मुझे उनसे. मुझे जिंदगी से अम्मा का बदला भी लेना था. मैं अपनी मालिक ख़ुद थी. न कहना एक नियामत है, ये मुझे न कहकर ही पता चला था. मेरे ग्राहक, मेरे काम का वक्त़, पैसे सब मैं तय कर रही थी. जिंदगी किसी फर्राटा कार की तरह सरपट दौड़ पड़ी थी. मैं हवा में थी. मेरे नाज़ों नख़रे उठाने वालों की भीड़ लगी थी. लेकिन मेरी निगोड़ी किस्मत. फिर सामने मुँह फाड़ कर खड़ी हो गई. मेरे पास एक ग्राहक आया और उसने रात भर में मुझे ये मानने पर मज़बूर कर दिया कि मैं एक घटिया काम करती हूं. अगली सुबह मेरे लिए नई थी. मेरे अंदर की नेक औरत एकबार फिर जाग गई थी.
मैंने इज्ज़त की नौकरी ढूंढना शुरु किया. क्योंकि मैं पढ़ी-लिखी थी, इसीलिए मुझे कुछ ही दिनों में एक ठीक-ठाक नौकरी मिल भी गई. मैं अपने काम के लिए ईमानदार थी. पूरी लगन और मेहनत से काम कर रही थी. मुझे वहाँ सलीम मिला. हमें इश्क़ हुआ. ऐसा मुझे लगा. मैं एक बार फिर पुरानी यादों में लौट जाना चाहती थी. मन ही मन गली-मोहल्लों में नंगे पांव भाग रही थी. दीवानी शाहीन एक मर्द के इश्क़ में पागल. लेकिन ये इश्क सिर्फ मुझे हुआ था ये समझने में मुझे ज्यादा वक्त़ नहीं लगा. क्योंकि सलीम को तो हमारी कंपनी के मालिक की लड़की से भी इश्क़ हुआ था. शायद उसे मुझे हासिल करना था वह भी मुफ्त में. धीरे-धीरे मुझे समझ आ गया, इश्क़ मेरे हिस्से की चीज़ नहीं. मैं सिर्फ एक जिस्म हूं. जिसे मर्दों को हासिल करना हैं. तो फिर इसकी पूरी क़ीमत मुझे मिलनी चाहिए. मैंने जान लिया था. मेरा पुराना धंधा इससे अच्छा और इज्ज़त का काम था. किसी की मजाल जो बिना नोट रखे मुझे हाथ भी लगा दे.
शाहीन एक बार फिर अपने काम की तरफ लौट गई. इस बार वह और मज़बूत होकर लौटी थी. वह समझ गई थी कि उसके लिए इससे बेहतर, पैसा देने वाला, रुतबा देने वाला काम अब और कोई नहीं. मेरे पास ग्राहकों की लंबी लाइन थी. सब रसूख वाले. पैसे वाले. तभी मेरी जिंदगी में वारिस आया. मेरा नया दलाल. वारिस ने मेरे धंधे को बढ़ा दिया था. अब हालात और भी बेहतर हो गए थे. मैं मालामाल थी. सूकुन से नहीं पैसों से. पता ही नहीं चला कब वारिस मुझ पर अपनी मलक़ियत साबित करने लग गया. आख़िर था तो मर्द ही. औरत की खाएंगे, फिर भी अपनी ही हुक़ुम चलाएंगे. इसके आलावा आता क्या है उन्हें. वो मुझे अपने हिसाब से काम करवाना चाहता था. मेरे ऊपर उसे हुकूमत काबिज़ करनी थी, जिसकी मैं अब आदी नहीं थी. हमारे झगड़े होने लगे. वो लगातार मेरे ऊपर हावी होने की कोशिश कर रहा था. मैं खीझ रही थी. एक दिन हमारे बीच की लड़ाई हद से आगे निकल गई. हाथापाई हो गई. हमारे बीच चीजें बिगड़ती ही चली गईं. उसने मुझपर चाकू तान दिया. मुठभेड़ में चाकू मेरे हाथ से वारिस को ही लग गया. ख़ास बात तो ये है कि क़त्ल की वज़ह से मैं जेल नहीं लाई गई, इस बार फिर वज़ह एक मर्द की मर्दानगी की तौहीन थी.
इसी हादसे के दौरान शहर के एक रईस बिजनेसमैन के साथ मैं सोई. उसने मुझे अच्छे पैसे भी दिए, पर मेरे मुँह पर फेंक कर. इस पर मैं जैसे पागल हो गई थी. वों मुझे दुश्मन दिख रहा था. उसकी ये दोमुही सूरत, हवस में लिपटी ईमानदारी और मुझसे नफ़रत देखी नहीं जा रही थी. जैसे मेरे अंदर कुछ जल उठा था. वारिस की मौत का मुझे कोई अफसोस नहीं था. मैं गुस्से और नफ़रत से भर गई थी. उलझनों ने मुझे घेर लिया था. तभी न जाने क्यूं मैंने उसे थप्पड़ जड़ दिया. घिन आ रही थी उससे. वह शहर का इज्ज़तदार रईस था. मुझे उसके इज्ज़तदार, रईस और मर्द तीनों होने से चिढ़ आ रही थी. वह मुझसे खीझ गया और उसने मुझे पुलिस के हवाले कर दिया. केस चला और मुझे सजाए मौत सुनाई गई. उसने मुझे नेक औरत न बन पाने का सबक सिखा दिया. फिर क्या था मैंने ठान ली जुर्म तो किया है सजा भी काटेंगे पर नेक औरत नहीं बनना है.
शाहीन के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. अपनी कहानी बयां करते हुए न ही उसकी आवाज़ भर्राई न ही उसने सिसकियाँ भरी. उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था. उसके चेहरे पर आत्मसम्मान की लालिमा थी. जैसे कह रही हो, नेक औरत न बनने के जुर्म में फांसी चढ़ जाऊंगी पर नेक औरत नहीं बनूंगी. रुखसार शर्म, घृणा, दर्द, लाचारी से लथपथ ख़ुद में ही सिमटी जा रही थी. वह शाहीन से निगाहें नहीं मिला पा रही थी. उसे लगा वह बेगुनाह के सामने कसूरवार सी बैठी थी. ज़मीन में धंसी जा रही थी. तभी जेल कर्मचारी शाहीन को लेने आ गई. आज शाहीन की फांसी का दिन था. शाहीन को ख़ौफ छू तक नहीं गया. ऐसा लगता था. आज उसकी ताजपोशी का दिन है.
वह ख़मोशी के साथ उठी. रुख़सार से बिना कुछ बोले, निगाहें मिलाए आगे बढ़ गई. जाते वक्त़ अम्मा, अब्बा, चचाजान सबका चेहरा सामने था. अम्मा कह रही थी देखा कहा था न नेक बन जा नहीं मानी न मेरी. अब देख क्या दिन देखना पड़ रहा. मैंने अम्मा को समझाया मर तो मैं उसी दिन गई थी जब आपने मेरा खतना किया था. आज तो बस मौत का दिखावा है. युसूफ मेरे गाल सहला रहा था, तुम कितनी बेदाग हो शाहीन. तुम्हें छूते डर लगता, कहीं मैली न हो जाओ. काश आज युसूफ सामने होता तो देख पाता कितनी पाकीज़ा है शाहीन. नेकी के रास्ते पर रही पर नेक औरत न बन सकी और आज उसी की सजा भुगतने कितने फक्र से जा रही है उसकी महबूबा. कुछ वक्त़ बाद जेलर ने रुख़सार को हिलाया. शाहीन गई. आपको भी जाना होगा. काफी देर हुई.
रुख़सार हड़बड़ा कर लड़खड़ाती सी खड़ी हुई. बहुत मशक़्त से अपनी गाड़ी तक पहुंची. इतने रोज़ से चेहरे पर सवालों की झड़ी लिए घूमती रुख़सार आज एकअदद सवाल से भी महरुम थी. उसका दिमाग सवाल से खाली था. दिल ज़ज्बातों से ज़ार-ज़ार. वो समझ चुकी थी. शाहीन को माफी क्यों नहीं चाहिए. चाहें इसकी क़ीमत जान देकर ही क्यों न चुकानी पड़े. वो समझ गई थी शाहीन को नेक औरत बनना नागवारा है, चाहे इसके लिए सजा-ए-मौत क्यों न हो.
सम्प्रतिः |
कहानी का भाषिक विन्यास ज़बरदस्त है. एक सांस में इसे पढ़ गया.
घर से लेकर बाहर तक और दाम्पत्य से लेकर प्रेम संबंध तक स्त्री के समक्ष पैदा होने वाली ख़ौफ़नाक स्थितियाँ मन को बेचैन कर देने में समर्थ हैं. यह रचना का कलात्मक प्रभाव और सार्थकता है.
साधुवाद.
बेहद शानदार कहानी है। इसे पढ़कर फीमेल म्यूटिलेशन पर बनी फिल्म ‘फ्लावर डिजर्ट’ (जो वारिस डेरिस की जीवन पर बनी है) का खतना वाला दृश्य याद आया जो बहुत विचलित करने वाला है।
बहुत मार्मिक कहानी। भाषा में प्रवाह और रवानी जानदार है। लेखिका को बधाई।
यह कहानी से अधिक किसी उपन्यास का सारांश लगता है।
यह स्त्री देह की नियति या दुर्भाग्य है। जैसे ही प्रेम से मनुष्य वंचित होता है वह देह बन जाता है या बना दिया जाता है। स्त्रियों को वास्तविक स्वतन्त्रता अब तक कहाँ मिली है। उन्हें देह से अलग देखने की कोशिश ही कब की गई। कुरीतियों का सबसे अधिक खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है। कहानी की शुरुआत इतनी जबर्दस्त है कि संवेदनशील मनुष्य एकबारगी हिल जाता है। यह कहानी सभी धर्मों और तबकों के मनुष्य को आत्ममंथन करने के लिए बाध्य करती है,बशर्ते कि वे मनुष्य हों। जो मनुष्य होगा कहानी के अंत में उसकी मनः स्थिति इस कहानी के पत्रकार जैसी होगी। मैं अपर्णा जी को बधाई जरूर दूंगा और अरुण देव की सराहना भी करना चाहूँगा कि उन्होंने संपादकीय दायित्व का निर्वहन किया है।
सुन्नत जैसी नृशंस अमानवीय प्रथा को किसी कहानी-उपन्यास में स्त्री की त्रासदी को व्यक्त करने के लिए आंसुओं से नहीं लिखा जा सकता। इसे ‘महिमामंडन‘ की प्रच्छन्न कोशिश ही कहा जाएगा जो समस्या के घनत्व और प्रभाव को डाइल्यूट करती है।
सुन्नत पर लिखी वही रचना महत्वपूर्ण कही जा सकती है जो देश-काल और चरित्र का कलात्मक चित्रण करते हुए अपनी भीतरी तहों में वैचारिक संवेदन का इतना घनत्व भरे कि वह रसास्वादन के साथ-साथ पाठक को बर्बर, सामंती पितृसत्तात्मक समाज के मनोविज्ञान, संस्कृति और धार्मिक जड़ताओं के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की व्यग्रता भी दे। इसके लिए लेखक को स्वयं एक पड़ताली नजर के साथ समय और परंपरा की अतल गहराइयों में उतरना पड़ता है। अब वे दिन लद गये जब स्त्री को देह, अपराध या ‘आंसू-दूध‘ बना कर कुछ भी चलताऊ कह दिया जाए। अब स्त्री-अवमानना और अपराध के लिए कठघरे में खड़ा की जानी चाहिएं – विवाह, परिवार, धर्म, न्याय और मीडिया जैसी संस्थाएं जो स्त्री-द्वेष और दमन की जमीन पर फलती-फूलती हैं।
कहानी के बरक्स जयश्री राय के उपन्यास ‘दर्दजा‘ को याद करती हूं तो लगता है नवल अल सदवी के गंभीर स्त्री सरोकारों और एक्टिविज्म को पीड़ा, जिजीविषा और संघर्ष के साथ प्रत्यक्ष देख पा रही हूं।
कहानी का कथ्य अच्छा है। शुरुआत में कहानी बहुत कुछ बताती, समझाती, रोचकता का पुल बांधती है। लेकिन अंत तक आते-आते भागती-दौड़ती है जैसे जल्द समाप्त करना है।
कहानी उपन्यास के बितान को समेटे है. अंत मे लगा अचानक खत्म हो गई. अपर्णा को बधाई
अतिसंवेदनशील कथ्य और मार्मिकता से परिपूर्ण कहानी के लिए अपर्णा मैम को बधाई ।
Hats off! Such a bold and audacious piece of work. The way she string together these words, truly represents her intrepid soul.