नालंदा विश्वविद्यालय कैसा था |
नालंदा विश्वविद्यालय अभी के सामान्य विश्वविद्यालयों की तरह सभी शास्त्रों में गति रखने वाला उच्च-शिक्षा केंद्र था, या आईआईटी, आईआईएससी, आईआईएम की तरह उसकी गति किसी विशेष शास्त्र या कौशल में थी, या फिर बतौर शिक्षण संस्थान उसका स्वरूप अभी के लिए समझ से परे, कुछ बिल्कुल ही अलग किस्म का था? अब से आठ सौ साल पहले, यानी तिरोहित होने से ठीक पहले तक तो सिर्फ इसकी सांसें चल रही थीं, लेकिन एक सरसरी खोजबीन से समझ यही बनती है कि जब यह पूरी रवानी में रहा होगा, तब भी इसका कामकाज पिछली दो-तीन सदियों में धरती पर मौजूद किसी भी शिक्षण संस्थान जैसा नहीं था. हाँ, अभी के उच्च-शिक्षा केंद्रों से बराबरी खोजनी हो तो अध्ययन की विशिष्टता को देखते हुए इसे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के ज्यादा करीब कहा जाएगा.
नालंदा कोई पांथिक या सांप्रदायिक संस्थान नहीं था. भारत से बाहर इसको जाति, वर्ण, पंथ, क्षेत्र, नस्ल या राष्ट्र जैसी संकीर्णताओं से मुक्त होने के लिए ही सबसे ज्यादा याद किया जाता है. लेकिन एक संस्था के रूप में इसकी पहचान बौद्ध धर्म से, उसमें भी विशेष रूप से इसकी महायान शाखा से जुड़ी थी. विश्वविद्यालय की बाकी फैकल्टी भी इससे बहुत ज्यादा दूर नहीं जाती थीं. वैदिक अध्ययन, सांख्य, तर्कशास्त्र, व्याकरण और चिकित्साशास्त्र की पढ़ाई यहाँ जरूर होती थी, लेकिन सबॉर्डिनेट या आनुषंगिक रूप में. ज्योतिष और उसके लिए जरूरी कालगणना तथा आकाशीय घटनाओं का अध्ययन यहाँ समय बीतने के साथ जोर पकड़ता गया, लेकिन आर्यभट जैसा महान गणितज्ञ खगोलशास्त्री नालंदा से जुड़ा था, यह मानना कठिन है. इन निष्कर्षों के आधार बिंदुओं पर आगे और बात होगी.
नालंदा के बरक्स तक्षशिला का स्वरूप किसी बहुशास्त्रीय या सामान्य शिक्षण संस्थान जैसा माना जा सकता है. कई सारी धार्मिक परंपराओं के अध्ययन के अलावा विभिन्न कौशलों, यहाँ तक कि शस्त्रविद्या की परंपरा भी तक्षशिला से जुड़ी थी. उसे विश्वविद्यालय कहने में एक ही अड़चन है कि वहाँ लिखी गई किताबें नहीं खोजी जा सकी हैं. यानी प्रशिक्षण पर उसका जोर ज्यादा था, रिसर्च ओरिएंटेशन कम था. बहु-कौशल प्रशिक्षण संस्थान, मल्टी-स्किल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट जैसा वर्गीकरण तक्षशिला के लिए बेहतर होगा. अभी पाकिस्तान की राजधानी रावलपिंडी से 40 किमी दूर कब्जाशुदा खंडहरों वाले इस शिक्षण केंद्र को यह बहुआयामी स्वरूप उसके विशिष्ट इतिहास से हासिल हुआ था.
तक्षशिला की शुरुआत वैदिक परंपरा से हुई बताई जाती है. फिर गांधार की इंडो-ग्रीक सभ्यता ने उसपर असर डाला तो वहाँ बौद्ध धर्म की पढ़ाई होने लगी, जिसका झुकाव हीनयान की तरफ था. बाद में कुषाणवंशी शासन के प्रभाव में तक्षशिला की छवि महायान के एक विशिष्ट बौद्धिक केंद्र जैसी बनी, लेकिन ईसा की पांचवीं सदी में अल्चोन हूण शासकों ने उसे तहस-नहस कर दिया. गांधार सभ्यता के बहुत सारे पहलू हूणों के बाद भी जीवित रहे और कुछेक तो समृद्ध भी हुए, लेकिन तक्षशिला जाता रहा. लगभग इसी समय खड़े हो रहे नालंदा को इसका फायदा इस रूप में मिला कि तक्षशिला के कुछ संसाधन उसकी ओर मुड़ गए. कदम-कदम पर मात खा रहे गुप्त शासन ने मगध तक चढ़ आए हूणों के खिलाफ मालवा के औलिकारवंशी शासकों के साथ मोर्चा बांधा और उन्हें शिकस्त दी. नालंदा को तक्षशिला जैसी मजबूती देना 32 साल लंबे (496 ई.-528 ई.) इस रक्षात्मक युद्ध का ही एक पक्ष था.
आश्रम पद्धति और विश्वविद्यालय
नालंदा के संरक्षित खंडहरों में कई भव्य भवनों के अवशेष हैं. इनमें कुछेक तो ऐसे थे, जिनकी उस दौर में कल्पना करना भी कठिन लगता है. ह्वेनसांग ने वहाँ रहते हुए खिड़की से बाहर दिख रहे नजारे का जो चित्र खींचा है, उसमें नौ मंजिला पुस्तकालय पर सुबह-सुबह मंडराते पंछियों का जिक्र आज भी मन मोह लेता है. लेकिन जो छोटी-छोटी कोठरियां वहाँ दिखती हैं, वे क्लास रूम से ज्यादा ध्यान की जगहें जान पड़ती हैं. बौद्ध साहित्य में नालंदा का जिक्र भी विश्वविद्यालय के रूप में नहीं, हर जगह ‘नालंदा (या नलेंद्र) महाविहार’ कहकर ही आता है. महाविहार यानी वे ठिकाने, जहाँ बुद्ध के समय में भिक्षु बारिश के दिन गुजारते थे. महायानी भिक्षुओं ने भिक्षा के लिए निकलना बंद कर दिया तो दान आधारित ये जगहें अध्येताओं का आवास बन गईं और बाद में धार्मिक केंद्रों की तरह प्रतिष्ठित हुईं.
अभी दो सौ साल पहले तक बुद्ध की कोई याद इस देश में नहीं बची थी- गोरख, कबीर, तुलसी, नानक या कोई भी मध्यकालीन कवि अपनी लिखाई में उनका नाम तक नहीं लेता- इसकी बहुत सारी वजहें हो सकती हैं. राजाओं ने उन्हें चलन से बाहर कर दिया हो, या सांप्रदायिक दुराग्रहों ने लोगों का ब्रेनवॉश कर डाला हो. लेकिन आठ सौ साल चली नालंदा जैसी श्रेष्ठ शिक्षण संस्था का समाज में कोई नामलेवा न रह जाए, यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आती.
याद रहे, उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों को नालंदा के खंडहरों की सूचना वहाँ के स्थानीय लोगों ने ही दी थी. लेकिन किसी ने इसे रुक्मिणी का महल तो किसी ने प्राचीन जैन राजा का आवास बताया था. विश्वविद्यालय जैसी किसी चीज की तो कोई किंवदंती भी इस क्षेत्र में दर्ज नहीं की गई थी. सन 1811-12 में फ्रांसिस बुचानन हैमिल्टन ने इसका सर्वे किया तो बहुत सारे तालाबों से घिरे अवशेषों के रूप में इसका रिकॉर्ड रखा. एक बौद्ध महाविहार के रूप में इसकी पहचान बाकी ज्यादातर बौद्ध संस्थानों की तरह 1861-62 में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) के संस्थापक अलेक्जेंडर कनिंघम ने ही की.
नालंदा और इसके अलावा उदंतपुरी और विक्रमशिला जैसे स्थानवाची शब्दों के साथ भी ‘विश्वविद्यालय’ शब्द का जुड़ना किसी पुरातात्विक खोज का नतीजा नहीं है. ऐसा कोई शब्द न तो चीन, तिब्बत और श्रीलंका के बौद्ध साहित्य में मिलता है, न ही देश के पारंपरिक हिंदू साहित्य में. ऐसे में यह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बने रूमानी माहौल की ही देन जान पड़ता है. ऐसा शायद इसलिए हुआ कि नालंदा की खुदाई, यहाँ मिली चीजों और इमारतों में से ज्यादातर की निशानदेही 1915 से 1937 के बीच की है, जो भारत में स्वतंत्रता आंदोलन का सबसे वेगवान समय था. इस आंदोलन का शीर्ष नेतृत्व कैंब्रिज, ऑक्सफोर्ड और यूरोप-अमेरिका के अन्य विश्वविद्यालयों से पढ़कर आया था और उसने बुद्ध और विश्वविद्यालय के रोमांस को मिला दिया. यह रूमानियत छोड़कर यथार्थ पर लौटें तो किसी भी पुराण, महाकाव्य या अन्य संस्कृत ग्रंथ में ‘विश्वविद्यालय’ जैसी कोई अवधारणा दूर-दूर तक नजर नहीं आती.
जिस आश्रम व्यवस्था की चर्चा प्राचीन भारत की विशिष्ट शिक्षा पद्धति की तरह होती है, उसके ब्यौरे इतने कम मौजूद हैं कि विश्वविद्यालय जैसी सर्वसमावेशी, कॉस्मोपॉलिटन संस्था के लिए उसमें कोई जगह थी या नहीं, कहना कठिन है. शायद नहीं, क्योंकि आश्रम व्यवस्था में शिक्षा का विशेषाधिकार इतना सीमित था कि देसी मनुष्यों में ही नब्बे फीसदी उसमें नहीं आ सकते थे. किसी तिब्बती, चीनी या बर्मी को पढ़ाने का सवाल कहाँ पैदा होता था? इसकी काट करते हुए तक्षशिला की मिसाल दी जा सकती है, लेकिन उसपर पड़े इतर प्रभावों पर चर्चा हो चुकी है.
सातवीं सदी ईस्वी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में नालंदा महाविहार का भव्य चित्र प्रस्तुत किया है. सम्राट हर्षवर्धन द्वारा सौ गांव और हर गांव के दो सौ परिवार इसके खर्चे पूरे करने के लिए लगाए जाने की बात कही गई है. इस आधार पर एक समय में दस हजार से ज्यादा छात्र-शिक्षक यहाँ मौजूद होने की अटकल लगाई जाती रही है. लेकिन जो टूटा-बिखरा इतिहास इस जगह का मिलता है, वह इसे सामान्य छात्रों के बजाय महायान बुधिज्म के विशिष्ट पक्षों के अध्येताओं, साधकों, तांत्रिकों और इसके करीब पड़ने वाले व्याकरण और ज्योतिष जैसे विषयों के संभावित विशेषज्ञों के ही अनुरूप बताता है. लगभग 800 साल चल गई इतनी बड़ी संस्था के समवर्ती प्रभाव बहुत बड़े थे लेकिन चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्य संबंधी छाप को इसकी अकेडमिक्स से कैसे जोड़ा जा सकता है?
इधर कुछ समय से गणितज्ञ-खगोलशास्त्री आर्यभट के नालंदा में अंतरिक्ष विज्ञान विभाग का अध्यक्ष होने की बात भी कही जाने लगी है, लेकिन इसके आधार को लेकर कोई बात नहीं होती. ‘आर्यभटीय’ गणितीय सूत्रों और प्रेक्षण आधारित खगोलीय प्रस्थापनाओं का ग्रंथ है. इसकी प्रतिलिपि और टीकाएं सबसे ज्यादा केरल में मिलती हैं, जिसे आधार बनाकर आर्यभट को केरलवासी या वहीं रहकर काम करने वाला बताने का भी एक चलन है. स्वयं आर्यभट खुद को एक जगह उज्जैन और दूसरी जगह कुसुमपुर का निवासी बताते हैं. भास्कराचार्य प्रथम ने उन्हें ‘अश्मक’ कहा है- गोदावरी नदी के किनारे एक खास इलाके का व्यक्ति. आर्यभट को नालंदा से जोड़ने के लिए ग्रामीण पटना का तरेगना गांव उनकी वेधशाला बन जाता है और कुसुमपुर को पाटलिपुत्र कह दिया जाता है. उनका समय (476 ई.-550 ई.) जरूर नालंदा के शीर्ष पर पहुंचने का है, लेकिन दोनों को जोड़ने के लिए इतने सूत्र काफी नहीं हैं.

पहले ज्ञान-केंद्र, फिर शिक्षाकेंद्र
दो विरोधी पहलुओं की ओर ध्यान दें. कुछ ऐतिहासिक तथ्य कहते हैं कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (375 ई.-414 ई.) के समय में नालंदा की ख्याति एक उच्च कोटि के शिक्षाकेंद्र जैसी बन गई थी, जबकि कुछ अन्य तथ्य उस दौर में इसकी उपस्थिति को नकारते हैं. तिब्बती गाथाओं में नालंदा महाविहार की निरंतरता गुप्तकाल से पहले की बताई जाती है. कुषाणकाल के बीच से जारी. जबकि चीनी यात्री फाह्यान की लिखाई इस प्रस्थापना को खारिज करती है.
तिब्बत में अति-सम्मानित ‘17 नालंदा पंडितों’ की सूची में पहला नाम नागार्जुन का है. माध्यमक दर्शन के रचनाकार और रसायनज्ञ नागार्जुन. लेकिन ईसा की दूसरी सदी में, जब भारत के उत्तरी हिस्से पर कुषाण वंश का और दक्षिण में सातवाहन वंश का शासन था, तब नागार्जुन के ज्यादातर किस्से सातवाहनों से ही जुड़े पाए गए हैं. नालंदा में उनकी लंबी उपस्थिति का कोई प्रमाण नहीं मिलता. लेकिन इस सूची के दूसरे नाम, आचार्य आर्यदेव यकीनन नालंदा की पहली बौद्धिक धुरी हैं. उनकी और बहुशास्त्रीय, बहुप्रातिभ अ-बौद्ध विद्वान मातृचेता की दार्शनिक बहसें तिब्बत की मिथकीय किस्सागोई का हिस्सा हैं. इस ऐक्शन-पैक्ड बहसबाजी का अंत मातृचेता के बौद्ध धर्म अपनाने में हुआ और बाद में उनकी विश्वव्यापी ख्याति संस्कृत के शीर्ष महाकवि अश्वघोष (80 ई.-150 ई.) के रूप में बनी.
बताना जरूरी है कि आर्यदेव खुद को कमल से जन्मा हुआ बताते थे, लेकिन उनके बारे में की गई खोजबीन उन्हें सिंहली भिक्षु बताती है. घुमक्कड़ी करते हुए श्रीलंका से आंध्र प्रदेश आना, वहाँ के श्रीपर्वत क्षेत्र में आचार्य नागार्जुन का शिष्य बनना, उनसे माध्यमक दर्शन सीखना. मातृचेता ने जब अपने अनुयायियों के साथ नालंदा महाविहार को चारों ओर से घेरकर बहस के लिए डुगडुगी बजाई तो भिक्षुओं के बुलावे पर आर्यदेव ने पानी भरने वाला भृत्य बनकर घेरा पार किया और महाविहार पहुंच गए. यहाँ से आगे आर्यदेव के मृत्युपर्यंत नालंदा की कमान संभालने से पता चलता है कि इस संस्थान का स्वरूप शुरू से ही अंतरराष्ट्रीय है. यहीं से नालंदा विश्वविद्यालय की प्रसिद्धि एक ऐसे शिक्षण संस्थान की बनी, जहाँ पढ़ने और पढ़ाने के लिए व्यक्ति का जन्म नहीं, केवल उसकी गुणवत्ता देखी जाती है.
नालंदा में आचार्यों के किस्से अक्सर जोड़ों में सुनाई पड़ते रहे हैं. आर्यदेव और अश्वघोष से आगे बढ़ें तो इस संस्थान से जुड़े कई और विद्वानों की चर्चा के बाद कोई दो सदियों के अंतर पर नालंदा महाविहार के दो क्रमिक (एक के बाद दूसरे) कुलपतियों के रूप में दो भाइयों असंग और वसुबंधु का नाम सुनने में आता है. बौद्ध धर्म के विशाल भूगोल में इन दोनों चिंतक भाइयों की प्रतिष्ठा इनके ग्रंथों के अलावा दिलचस्प जीवनगाथा के लिए भी है. इनका अलहदा बौद्धिक कार्य जीवन दर्शन के क्षेत्र में कुछ नई राहें खोलने वाला है, लेकिन इनपर हम बाद में चर्चा करेंगे.
महायान की ध्यान-मूलक शाखा ‘चान’ बुधिज्म के संस्थापक, छोटे भाई वसुबंधु की जीवनी ह्वेनसांग के भारत आने से पहले छठीं सदी ईसवी में ही चीनी भाषा में अनूदित हो चुकी थी. बौद्ध दर्शन के ‘योगाचार’ मत की शुरुआत करने वाले इन दोनों आचार्यों के सक्रिय समय का अनुमान 400 ई. के कुछ दशक पीछे और आगे का लगाया गया है. लेकिन इस दौर में ही तेरह साल भारत की खाक छानने वाले चीनी यात्री फाह्यान ने अपने यात्रा वर्णन में तक्षशिला की तो बड़ी चर्चा की है, मगर नालंदा तो क्या पूरे मध्य भारत में किसी बड़े शिक्षण संस्थान का जिक्र नहीं किया है.
इससे नतीजा यह निकलता है कि लगभग दो-ढाई सौ साल का समय ऐसा था जब चिंतन और विमर्श के केंद्र के रूप में नालंदा की प्रतिष्ठा बन गई थी, कद्दावर कुलपतियों की परंपरा भी वहाँ जड़ जमा चुकी थी, लेकिन पढ़ाई का स्थिर ढांचा नहीं खड़ा हुआ था. यूं कहें कि 399 ई. से 412 ई. तक भारत में फाह्यान की उपस्थिति के समय नालंदा की शक्ल किसी विश्वविद्यालय जैसी नहीं थी लेकिन एक ज्ञान-केंद्र के रूप में इसकी विकास प्रक्रिया दृढ़ता से जारी थी.
किसने बनाया, कैसे चला
फाह्यान (337 ई.-422 ई.) गुप्तवंश के शीर्षकाल में भारत आया था. उस समय ज्यादातर बौद्ध केंद्रों में ‘विधर्मियों’ के मजबूत होने और मथुरा जैसी महत्वपूर्ण बौद्ध नगरी में भी विहार से ज्यादा देवालय दिखने की बात उसके यहाँ है. अतीत में पुष्यमित्र शुंग की ‘धर्मविरोधी गतिविधियों’ और कुछ बौद्ध स्थलों के विनाश का जिक्र भी उसके यहाँ मिलता है लेकिन पंजाब में एक देवपूजक ब्राह्मण से बौद्ध दर्शन पढ़ने का किस्सा भी फाह्यान के यहाँ है. यह कमाल की बात है कि धर्म के स्पष्ट विभेद के बावजूद ‘धार्मिकों’ और ‘विधर्मियों’ में तीखा टकराव जाहिर करने वाली एक भी बात उसके ग्रंथ में नहीं है.
(स्रोत : चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण, अनुवाद- जगन्मोहन वर्म्मा, नेशनल बुक ट्रस्ट)
वैदिक और श्रमण परंपरा के बीच खुद गुप्तवंश की स्थिति क्या थी, इस बारे में तरह-तरह की राय होना स्वाभाविक है. कारण यह कि प्राचीन भारत का यह सबसे शक्तिशाली राजवंश आस्था के मामले में सीधे रास्ते पर नहीं चला. वंश के पहले महत्वपूर्ण राजा चंद्रगुप्त प्रथम ने एक लिच्छिवि राजकुमारी से विवाह किया और उसके बेटे समुद्रगुप्त की विरुदावली में ‘लिच्छिवि दौहित्र’ (लिच्छिवियों का नाती) का विरुद भी शामिल था. प्राचीन भारत और नेपाल के इतिहास को जोड़कर पढ़ें तो पता चलता है कि बुद्धकाल में ही उनका धर्म अपना लेने वाला लिच्छिवि गण अपने बिखराव के बाद भी बौद्ध आस्था पर डटा रहा. इस आधार पर समुद्रगुप्त को आधा वैदिक और आधा बौद्ध माना जा सकता है. कुमारगुप्त के दो उत्तराधिकारियों ‘बुद्धगुप्त’ और ‘तथागतगुप्त’ के नाम सीधे बौद्ध संस्कृति से निकले थे. लेकिन गुप्तकाल की पहचान वैदिक संस्कृति में नई जान फूंकने और श्रमण संस्कृति को किनारे करने वाली ही है.
गुप्तवंश द्वारा जहाँ-तहाँ दिखाए जाने वाले बौद्ध समादर को आप चाहें तो उसका उदारवाद कह लें, न चाहें तो सत्ता के लिए लगातार बनाया जाने वाला एडजस्टमेंट बोलकर संतोष करें. लेकिन इस आधार पर ये दो निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि नालंदा विश्वविद्यालय गुप्तवंश की ही रचना है, और वहाँ वैदिक धारा, श्रमण धारा (यानी बौद्ध, जैन, आजीवक और लोकायत) और गणित, चिकित्सा, ज्योतिष आदि सेक्युलर विषयों को बराबर जगह प्राप्त थी.
नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना का समय वहाँ की खुदाई में मिले टेराकोटा लेखों के आधार पर 427 ई. बताया जाता है. इसके संस्थापक के रूप में वहाँ राजा शक्रादित्य का नाम दर्ज है. इस नाम के किसी राजा के बारे में कोई जानकारी नहीं जुटाई जा सकी है, लिहाजा प्रस्थापना यह दी गई है कि शक्रादित्य संभवतः कुमारगुप्त (414ई.-455 ई.) का ही दूसरा नाम या उसका विरुद था. कुमारगुप्त, यानी गुप्तवंश के तीसरे ताकतवर सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का उत्तराधिकारी. बाद में ‘आदित्य’ उपनाम वाला एक और राजा नरसिंहगुप्त बालादित्य (495-530) इस वंश में हुआ, लिहाजा कुमारगुप्त के बारे में यह प्रस्थापना दूर की कौड़ी नहीं लगती.
319 ई. से 467 ई. तक का समय इस राजवंश के उत्कर्ष का माना जाता है और इन डेढ़ सदियों में इसके साम्राज्य का नक्शा बर्मा से सिंध तक और अफगानिस्तान से आंध्र प्रदेश तक पहुंचता है. ऐसे में सन 427 ई. में नालंदा में अपना सिक्का चला सकने वाले शक्रादित्य नाम वाले किसी गैर-गुप्त राजा के लिए गुंजाइश बनाना मुश्किल है. फिर भी इतिहासकारों को नक्शा दुरुस्त रखने के लिए आसान नतीजे निकालने के बजाय अपना ध्यान पुरातात्विक सबूतों की व्याख्या पर ही केंद्रित रखना चाहिए. एक बात तय है कि गुप्तों का सत्ताकेंद्र मगध नहीं कोसल था, उनकी राजधानी अयोध्या थी और नालंदा विश्वविद्यालय किसी भी राजवंश से ज्यादा अपने आचार्यों की रचना था.
किसी एक राजा पर निर्भर होने के बजाय इसके संसाधन हमेशा कई स्रोतों से आते थे. इसको दिए गए दान के टेराकोटा अभिलेख मौजूदा थाईलैंड और इंडोनेशिया तक के राजघरानों से इसका रिश्ता बताते हैं. नालंदा का जो भव्य चित्र ह्वेनसांग ने खींचा है, वह इसका ढांचा खड़ा होने के 200 वर्षों में ही बन गया था, जबकि गुप्तवंश की विदाई इसके बीच में ही हो चुकी थी और उसके सत्ता में रहते यह एक बार सांप्रदायिक आगजनी का शिकार भी हो चुका था. निष्कर्ष यह कि नालंदा अपने स्वरूप में ही स्वायत्त था और राज्य-नियंत्रित होने की इसकी प्रवृत्ति नहीं थी.

किनसे जुड़ी प्रसिद्धि
ह्वेनसांग (602 ई.-664 ई.) का समय सम्राट हर्षवर्धन का है. फाह्यान के सवा दो सौ साल बाद अपनी उम्र के 27वें साल से शुरू करके 43 वें साल तक कुल सोलह साल का समय उसने भारत में बिताया और इस देश की बहुत बदली हुई तस्वीर पेश की. हूण हमलों से ‘धर्म’ की डगमगाहट का जिक्र उसके यहाँ कई जगह आता है. गांधार क्षेत्र का पूरा विवरण विध्वंस के चित्रों से भरा हुआ है. तक्षशिला विश्वविद्यालय, भारत का सबसे पुराना उच्च शिक्षण केंद्र सिर्फ यादों में रह गया है. कुछ और जगहों का जिक्र भी है जहाँ ‘धर्म’ जरा पहले तक था, फिर नहीं रहा. फाह्यान के बरक्स ह्वेनसांग की किताब इस मामले में भी अलग है कि बौद्ध धर्म और ‘तीर्थिकों’ के धर्म के बीच जमीनी समझदारी की कोई ठोस घटना उसमें नहीं है. हाँ , कुछ पहले नालंदा में हो चुके बड़े अग्निकांड का हवाला जरूर मिलता है.
फाह्यान से ह्वेनसांग के बीच नालंदा जिन आचार्यों से जुड़कर चर्चा में रहा, वे सब के सब महायानी बौद्ध दार्शनिक, सूत्रकार, विमर्शकार या साहित्यिक व्यक्तित्व थे. न किसी वैदिक या जैन आचार्य का, न किसी चिकित्साशास्त्री, गणितज्ञ, खगोलविद या साहित्यकार का नाम नालंदा विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ मिलता है. चंद्रगुप्त विक्रमादित्य से लेकर हर्षवर्धन तक का यह समय संस्कृत के कुछ अद्भुत महाकवियों, नाटककारों और उपन्यासकारों के लिए याद किया जाता है. कालिदास, भारवि, माघ, दंडी, शूद्रक और बाणभट्ट. लेकिन इनमें किसी के भी जीवन परिचय में नालंदा तो क्या किसी शिक्षण संस्थान का जिक्र पढ़ने को नहीं मिलता. मेधा को शिक्षा से जोड़ने का चलन ही नहीं है.
दुर्भाग्यवश, इस दौर में संस्कृत की दूसरी शाखा, बौद्ध शाखा से हम पूरी तरह अपरिचित हैं. बौद्ध संस्कृत के अकेले महाकवि के रूप में जब-तब केवल अश्वघोष पर बात होती है, जिनका समय ईसा की दूसरी सदी का है. उनके भी सिर्फ एक ग्रंथ ‘सौंदरानंद’ का चौथाई हिस्सा और ‘बुद्धचरित’ से कुछ छिटपुट चीजें ही भारत में खोजी जा सकी हैं.
फाह्यान के आने से लेकर ह्वेनसांग के जाने तक के जिस ढाई सौ साल लंबे दौर की हम बात कर रहे हैं, उसमें बौद्ध आचार्यों की दार्शनिक रचनाएं, टीकाएं, स्तोत्र और प्रार्थना पुस्तकें चीन और तिब्बत के अलावा समूचे पूर्वी एशिया में अनूदित रूप में और कभी-कभी नेपाल में ताड़पत्रों की लिखाई में अपने मूल रूप में भी मिल जाती हैं. लेकिन भारत में ये आश्चर्यजनक रूप से अनुपस्थित है. जैसे-जैसे चीनी और तिब्बती भाषाओं से बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद सामने आ रहे हैं, हमारे अतीत का एक जरूरी हिस्सा, बरबस मिटा दिए गए शब्दों की एक पूरी दुनिया हमारे सामने आ रही है. लिखित ग्रंथों का यह विलोप कोई ‘वन टाइम अफेयर’ न होकर खोज-खोजकर किया हुआ कृत्य जान पड़ता है.
बौद्ध दर्शन के विशाल दायरे को देखते हुए ढाई सौ वर्षों की इस छोटी सी अवधि में भी दार्शनिकों की एक ठीकठाक लंबी श्रृंखला दिखती है. नालंदा के सत्रह महापंडितों में से आठ- आर्यदेव, असंग, वसुबंधु, दिग्नाग, चंद्रकीर्ति, बुद्धपालित, भाविवेक और धर्मकीर्ति– दोनों चर्चित चीनी यात्रियों फाह्यान और ह्वेनसांग की भारत यात्रा के बीच ही पड़ते हैं. आचार्य चंद्रगोमी का नाम इन 17 में शामिल नहीं है क्योंकि उनकी ख्याति दार्शनिक से ज्यादा वैयाकरण की है. उन्हें हम ‘चांद्र व्याकरण’ के लिए जानते हैं, जिसे उनकी मृत्यु के आठ सौ साल बाद पढ़ने के लिए तेरहवीं सदी की एक जद्दोजहद का जिक्र आगे आने वाला है. बहरहाल, आचार्य चंद्रकीर्ति के साथ सालोंसाल चली चंद्रगोमी की बहसें तत्वज्ञान में उनके गहरे दखल का प्रमाण हैं. इनमें कुछ दार्शनिकों पर लामा तारानाथ के यहाँ बहुत अच्छी चर्चा मिलती है. नीचे आए सारे उद्धरण तिब्बती भाषा में सन 1608 में प्रकाशित उनकी किताब के अभी पचास साल पहले भारत में ही किए गए अंग्रेजी अनुवाद ‘हिस्ट्री ऑफ बुधिज्म इन इंडिया’ के छब्बीसवें अध्याय से लिए गए हैं.
दक्षिण से धर्मकीर्ति ‘मध्य देश (मगध) आए, आचार्य धर्मपाल से दीक्षा ली और त्रिपिटक के अध्येता बने. पाँच सौ सूत्रों और धारणियों को उन्होंने अपने हृदय में उतार लिया.… तर्कशास्त्र के बहुत सारे ग्रंथों का अध्ययन कर लेने के बाद भी वे असंतुष्ट ही रहे. दिग्नाग के शिष्य ईश्वरसेन से उन्होंने ‘प्रमाण-समुच्चय’ सुना और एक ही बार में ईश्वरसेन की बराबरी पर पहुंच गए. दूसरी बार इसे सुनकर वे दिग्नाग के स्तर पर आ गए. तीसरी बार इसे सुनकर उन्हें लगा कि ईश्वरसेन गलती पर थे और दिग्नाग का वास्तविक अर्थ वे पूरी तरह नहीं समझ पाए थे. यह जान लेने के बाद उन्होंने आचार्य ईश्वरसेन को उनकी समझ की कमजोरियां बताईं. इससे वे प्रसन्न हुए और कहा कि तुम दिग्नाग के बराबर हो गए हो. प्रमाण-समुच्चय की एक ऐसी टीका लिखो, जिसमें सारे गलत दृष्टिकोणों को रेखांकित किया गया हो.’
बताना जरूरी है कि वसुबंधु के शिष्य दिग्नाग (या दिङ्नाग) महायान के पहले तर्कशास्त्री थे और अपने ग्रंथ ‘प्रमाण-समुच्चय’ में उन्होंने और चीजों के अलावा अपनी बौद्ध आस्था को भी तर्क की कसौटी पर कसने का प्रयास किया था. दिग्नाग और धर्मकीर्ति की जगह बाकी महायान से इतनी अलग है कि उनके लिए ‘प्रमाणवाद’ का एक अलग खेमा ही बना दिया गया. तिब्बती बुधिज्म में शास्त्रार्थ की मुद्राएं- हाथ भांजने के तरीके- दिग्नाग से आए हैं. उनकी मूर्तियों में भी उनके हाथों और चेहरे की मुद्रा जूडो के मैच में उतरे किसी जापानी उस्ताद की याद दिलाती है.

असंग और वसुबंधु
दोनों सहोदर भाइयों असंग और वसुबंधु पर यहाँ हम अलग से थोड़ी बात करते हैं. शुरू में एक-दूसरे के प्रति कटुता से भरे अतीत के बावजूद उन्होंने पचास साल से ज्यादा समय तक एक के बाद एक नालंदा महाविहार का नेतृत्व किया. उनका जन्म गांधार क्षेत्र में (पुरुषपुर, यानी पेशावर के नजदीक) ईसा की चौथी सदी में हुआ था. एक राय उन्हें मध्य भारत में ही किसी जगह का मानने की है, लेकिन उनकी जिंदगी के किस्से इस राय से मेल नहीं खाते. वे दोनों एक ही मां लेकिन दो पिताओं की संतान थे. एक के पिता क्षत्रिय थे, दूसरे के ब्राह्मण. दोनों का पालन-पोषण भी अलग-अलग परिवेश में हुआ. वसुबंधु असंग से काफी छोटे थे और प्रसिद्धि के बावजूद उन्हें नापसंद करते थे.
भारतीय संस्कृति में एक पिता और दो मांओं की संतानें सामान्य समझी जाती रही हैं. राम-लक्ष्मण की मिसाल हर जगह भ्रातृ प्रेम के लिए दी जाती है. दोनों के पिता दशरथ लेकिन एक की मां कौशल्या, दूसरे की सुमित्रा. महाभारत में देवताओं के साथ विवाह-पूर्व संसर्ग से जन्मे कुंती और माद्री के पांच पुत्रों (पांडवों) को दैवी कथा मान लें तो एक मां और अनेक पिता की संतानों का वरेण्य उदाहरण मुझे इन दो बौद्ध आचार्यों में ही देखने को मिला. वैसे, इसको उस समय की गांधार संस्कृति से भी जोड़कर देखा जा सकता है. वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में गांधार के निवासियों को गंधर्व कहा गया है, जबकि मनुस्मृति में गंधर्व विवाह (वर और कन्या द्वारा अपने-अपने परिवारों की अनुमति लिए बगैर किए गए विवाह) को आठ मान्य विवाहों में से एक, लेकिन कम ग्राह्य बताया गया है. एक स्त्री के एकाधिक पति होना पॉलिएंड्री कहलाता है और तिब्बत तथा कुछ दुर्गम पहाड़ी इलाकों में यह हाल तक चलन में था. मनुस्मृति के लिए यह मुद्दा ही अविचारणीय था, लेकिन बौद्ध दायरे में असंग और वसुबंधु की मां पूज्य मानी जाती हैं.
असंग को हम योगाचार दर्शन के संस्थापक के रूप में जानते हैं. विज्ञानवाद, यानी चेतना को सृष्टि का मुख्य तत्व मानने का दर्शन बौद्ध धारा में असंग का ही शुरू किया हुआ है. बौद्ध दायरे में कमोबेश देवी-देवताओं जैसे ही पूजनीय चरित्रों, साधना में सहायक बोधिसत्वों की अवधारणा भी मुख्यतः उनकी ही दी हुई है. यूं कहें कि बाद वाले बुधिज्म को बुद्ध, उनके परिजनों और प्रारंभिक अर्हतों के अलावा दैवी आभा वाली जिन भी मूर्तियों के जरिये हम जानते हैं, उनका दार्शनिक आधार असंग ने ही तैयार किया है. मन को थामने वाली अद्भुत कल्पनाएं, जो बाद में हिंदू धर्म में भी मूर्तिपूजा की तमाम शक्लों की बुनियाद बन गईं. यह अच्छा हुआ या बुरा, बहुत बाद का सवाल है.
और बातों के अलावा असंग का एक कमाल पांच मैत्रेय ग्रंथों को पृथ्वी पर उतारने का भी है. मैत्रेय एक ऐसे बुद्ध हैं जो न जाने कब से तुषित नाम के स्वर्ग में निवास कर रहे हैं. पृथ्वी पर उनका आना कभी भविष्य में ही हो सकेगा. मूंछों वाले सुंदर राजपुरुष जैसी शक्ल की उनकी मूर्तियां जगह-जगह दिख जाती हैं. नालंदा के पास ही एक गुफा में लंबे समय तक बैठ जाने के बाद आचार्य असंग अपने साथ ये ग्रंथ लेकर निकले और इन्हें मैत्रेय द्वारा लिखित बताया. ऐसी उलटबांसियों के लिए गौतम बुद्ध की चिंतन प्रणाली में कोई जगह नहीं हो सकती थी. ‘अभिसमयालंकार’, ‘महायानसूत्रालंकार’, ‘मध्यांतविभाग’, ‘धर्माधर्मताविभाग’ और ‘रत्नगोत्रविभाग-महायानोत्तरतंत्र’ अंततः भाषिक रचनाएं हैं और संस्कृत जानने वाला कोई मनुष्य ही इनका लेखक हो सकता है. स्वयं असंग के अलावा यह मनुष्य भला कौन हो सकता था, लेकिन वह समझ कैसी थी, जिसे इतने गहन श्रम से अपना नाम जोड़ना जरूरी नहीं लगा?
असंग की तुलना में वसुबंधु की दार्शनिक स्थिति का विकास काफी घूम-फिरकर हुआ. अपनी विचार यात्रा उन्होंने हीनयान की एक शाखा सर्वास्तिवाद से शुरू की. इस समय बुद्ध का धर्म कई पंथों में बंटा हुआ था. उनमें संवाद ही नगण्य था तो विमर्श क्या होता. वसुबंधु के ग्रंथ ‘अभिधर्मकोशभाष्य’ को पंथों के पार बौद्ध दर्शन का आपसी विमर्श दोबारा शुरू करने का श्रेय जाता है. ताड़पत्र पर 367 पृष्ठों में लिखे इस विलुप्त ग्रंथ को राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत में ढूंढ़ निकाला और 1975 में इसका पुनर्प्रकाशन हुआ. वसुबंधु की गति कई बौद्ध पंथों में तो थी ही, अयोध्या में एक सांख्य दार्शनिक से शास्त्रार्थ के बाद चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उन्हें तीन लाख स्वर्णमुद्राओं का पुरस्कार भी दिया था.
व्यक्तित्व का यह चमत्कार इन भाइयों की माता से चला आ रहा था, जिनके क्षत्रिय पति से आचार्य असंग की और ब्राह्मण पति से आचार्य वसुबंधु की उत्पत्ति हुई थी. लंबे समय तक महायान को नकारते रहे वसुबंधु अपने बड़े भाई असंग के लिखे को निस्तत्व मानते थे और इसकी प्रचुरता के लिए इसे हाथी के बोझ जैसा बताते थे. लेकिन बाद में असंग के प्रभाव से ही वे महायान में आए. गहनतम आस्था में तीक्ष्णतम तर्क की गुंजाइश वसुबंधु के यहाँ कई शास्त्रों और पंथों के बीच की आवाजाही से ही बनी, जिसका फैलाव बाद में दिग्नाग, और फिर अपने चरम रूप में धर्मकीर्ति तक हुआ. धर्मकीर्ति की ‘प्रमाणवार्तिक’ वैसे तो दिग्नाग के ‘प्रमाण-समुच्चय’ की टीका है और इसकी तर्क प्रणाली इतनी फूलप्रूफ है कि जहाँ-तहाँ मिल जाने वाले इसके अंश पढ़कर लगता है जैसे इमानुएल कांट को पढ़ रहे हों. लेकिन स्वयं दिग्नाग की जड़ में अपनी बहुलतावादी दृष्टि लिए वसुबंधु बैठे हुए हैं. बहस का आनंद लेते हुए, चुपचाप.
धर्मकीर्ति से सरहपा तक
इतिहास के तिब्बती स्रोतों में धर्मकीर्ति और शंकराचार्य के बीच जन्म-जन्मांतर तक चले दार्शनिक युद्ध का वर्णन मिलता है. शंकराचार्य बार-बार धर्मकीर्ति से पराजित होकर अगले जन्म में उनपर विजय प्राप्त करने की उम्मीद में जन्म पर जन्म लिए जा रहे हैं. लामा तारानाथ के यहाँ उनके ऐसे तीन या चार जन्म बताए गए हैं. लेकिन इन दोनों दार्शनिकों के वास्तविक जीवनकाल का जो हिसाब लगाया जा जा सका है, उसके मुताबिक धर्मकीर्ति की मृत्यु का समय 650 ई. के पहले का और शंकराचार्य के जन्म का समय 750 ई. के बाद का ही निकलता है. दोनों एक वक्त में मौजूद रहे हों, यह संभावना तभी बन सकती है, जब शंकराचार्य को व्यक्ति के बजाय परंपरा की तरह देखा जाए. उनके बाद तो परंपरा चल ही रही है. क्या पता पहले भी रही हो, बस इसके धूमिल सदस्य सूची से हटा दिए गए हों.
जो भी हो, नालंदा की चर्चा तिब्बती और चीनी बौद्ध दायरे में धर्मकीर्ति के बाद भी जोर-शोर से उठती रही है, लेकिन ज्यादा बड़े दार्शनिकों से जुड़कर नहीं. यहाँ से आगे बौद्ध धर्म का साधना पक्ष अधिक उभरता है, जबकि दर्शन पर चर्चा नए सवालों के सामने पुराने ग्रंथों की टीका तक सिमट जाती है. सातवीं सदी में ही नालंदा तंत्र की तरफ मुड़ता दिखाई देता है. एक संयोग यह भी कि नालंदा के बारे में जो कुछ हम जानते हैं, उसमें ज्यादातर दो ही स्रोतों से आया है और दोनों का संबंध सातवीं सदी ईसवी से है. चीनी यात्री ह्वेनसांग और यीछिंग, जिन्होंने इस विश्वविद्यालय में बतौर छात्र ठीक-ठाक समय गुजारा. उनके ब्यौरे अमर्त्य सेन की ‘आर्गुमेंटेटिव इंडियन’ में रत्नों की तरह चमकते हैं.
ईसा की आठवीं सदी से इस महाविहार के दार्शनिकों से ज्यादा यहाँ के तांत्रिक, साधक, सिद्ध और स्तोत्रकार चर्चा में आने लगते हैं. उनके चमत्कारों पर बात होने लगती है. चीन जाने वाले भारतीय आचार्यों के नाम में ‘वज्र’ जुड़ा हुआ मिलने लगता है- वज्रबोधि, अमोघवज्र आदि. यह बौद्ध धर्म की तीसरी बड़ी शाखा ‘वज्रयान’ के उदय का समय है.
इस दौर में नालंदा के कुछ बड़े आचार्यों पर बात करनी हो तो आठवीं सदी की शुरुआत में इस संस्थान की सबसे ज्यादा चर्चा आचार्य शांतिदेव (685 ई.-763 ई.) के लिए होती है. चौरासी महासिद्धों में उनका नाम ‘भुसुकुपा’ के रूप में आता है. बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर भिक्षु बनने से पहले शांतिदेव सौराष्ट्र के राजकुमार थे और उनका नाम शांतिवर्मन था. उनका ग्रंथ ‘बोधिसत्वचर्यावतार’ (या बोधिचर्यावतार) एक सामान्य मनुष्य को बोधिसत्व जैसा जीवन जीने का रास्ता बताता है. बिना किसी दार्शनिक जटिलता के एक साधना-केंद्रित रचना, जिसमें अनुभव की चमक है- ‘दूसरों के दुख को अपने सुख से बदल नहीं सकते तो बुद्धत्व आपकी पहुंच में नहीं आने वाला.’
बोधिसत्व, यानी इसी जन्म में या कई जन्मों के बाद बुद्ध बनने की ओर अग्रसर प्राणी. इस किताब के कुल दस हिस्सों में से दो पर मौजूदा दलाई लामा की दो किताबें आ चुकी हैं. बौद्ध उपदेशक प्रायः ‘ऐंगर मैनेजमेंट’ के लिए इसके सूत्रों पर बात करते हैं.
आठवीं सदी ईसवी के मध्य में दो बड़े नाम शांतरक्षित (725 ई.-788 ई.) और कमलशील (740 ई.-795 ई.) के उभरे. दोनों नालंदा के छात्र थे. माध्यमक दर्शन में दोनों की ख्याति थी. लेकिन एक ने विक्रमशिला महाविहार में पढ़ाने का रास्ता अपनाया, उसके कुलपति बने, जबकि दूसरे नालंदा में ही शिक्षक बने. दोनों में बड़ी गहराई बताई जाती है लेकिन दोनों ने अपनी सबसे उत्पादक आयु में देश छोड़ दिया और दोनों की मृत्यु तिब्बत में हुई.
नालंदा में आठवीं सदी का अंत सिद्ध सरहपा से जुड़ा हुआ है, जो विद्वानों से जगमगाते इस विश्वविद्यालय को ज्ञान और मुक्ति की स्थली से ज्यादा बंधन और बोझे की तरह देखते हैं और जैसे-तैसे इससे अपना पिंड छुड़ाते हैं. शांतरक्षित, कमलशील और सरहपा, तीनों पर आगे हम फिर बात करेंगे, लेकिन थोड़ा बाद में. आठवीं सदी ईसवी में नालंदा से जुड़ाव को लेकर शांतिदेव से सरहपा तक सतत गिरावट दिखाई पड़ती है, जिसकी कई व्याख्याएं हैं.
एक तो यह कि 500 ई. के आसपास नालंदा महाविहार के पुस्तकालय में लगी या लगाई गई आग में नब्बे फीसदी से ज्यादा ग्रंथ जलकर खाक हो गए, जिससे महायानी चिंतन परंपरा को भारी आघात पहुंचा और चमत्कारवाद हावी हो गया.
दूसरी यह कि वज्रयान के उदय के साथ आचार्यों को ‘सिद्ध’ होने का चस्का लग गया, नालंदा की अकेडमिक्स बिगड़ गई.
तीसरी यह नालंदा की आय का बड़ा स्रोत गांधार और मध्य एशिया था, जो हूणों के हमले में टूट-बिखर गया. राहुल सांकृत्यायन संकट को हूणों के हमले से खींचकर 705 ई. से उत्तरी ईरान और गांधार पर होने वाले इस्लामी हमलों तक ले जाते हैं और उधर से आ रही खबरों को महायान से मोहभंग और वज्रयान के उदय का कारण बताते हैं. खैर, बदलाव की वजहें स्विच ऑन-ऑफ जैसी नहीं हो सकती थीं. इस दौर में ही 11 साल नालंदा के छात्र रहे चीनी यात्री यीछिंग (635 ई.-713 ई.) भी वहाँ मंडरा रहे किसी बाहरी या भीतरी संकट का जिक्र नहीं करते.
पालवंश ने जो किया
नालंदा की स्थिति में एक बड़ा बदलाव ईसा की आठवीं सदी के मध्य में पालवंश के उदय के साथ आया. इसके पहले मगध में बौद्ध धर्म के सामने दो जानलेवा खतरे दो पूर्वी शासकों पुष्यमित्र शुंग (185 ईसापूर्व-149 ईसापूर्व) और शशांक गौड़ (600ई.-637 ई. या 590ई.-625 ई.) की ओर से आए थे. लेकिन अभी बारी शत्रु के बजाय मित्र की ओर से खतरा झेलने की थी. गौड़वंश के ध्वंसावशेषों पर मुखिया गोपाल को मत्स्य न्याय (अराजकता) की स्थिति में राजा चुन लिया गया था. ‘पाल’ कोई वंशनाम नहीं, गोपाल नाम का ही एक हिस्सा है. लगभग चार सौ साल चल गए इस राजवंश ने शुरू से अंत तक खुद को बुद्ध के धर्म से ही जोड़े रखा, लेकिन धर्म को लेकर इसका आग्रह आध्यात्मिक न होकर पांथिक था और जादू-टोने-टोटकों को लेकर इसके सारे शासक बहुत ज्यादा संवेदनशील थे.
किसी के लिए भी यह समझना बहुत कठिन है कि राजा गोपाल ने गौड़देश (उत्तरी बंगाल) से निकलकर मगध पर कब्जा करने के बाद नालंदा महाविहार से बमुश्किल दस मील की दूरी पर उदंतपुरी महाविहार की स्थापना क्यों की. इससे जुड़ा मिथक भी टोटके वाला ही है. किसी सिद्ध ने राजा को शवसाधना का टोटका बताया. इसपर अमल करके उसने एक वेताल को साध लिया और उदंतपुरी की नींव रख दी. किंवदंतियों से भरे लामा तारानाथ के इतिहास ग्रंथ में यह किस्सा अपने वीभत्स ब्योरों के साथ मौजूद है. नालंदा के बगल में (आज के बिहारशरीफ में) राज्य-संरक्षित उदंतपुरी महाविहार खड़ा हो जाने से न केवल उसके संसाधन घट गए और कई आचार्यों ने पुरानी जगह छोड़कर नया ठीहा पकड़ लिया, बल्कि सरहपा प्रकरण बताता है कि इससे वहाँ ड्रॉपआउट रेट भी बढ़ गया.
न सिर्फ नालंदा बल्कि पूरा मगध पालवंश के उदय के पहले और उसके बाद भी सैकड़ों साल तक गौड़ और कन्नौज सत्ताओं की रस्साकशी में फंसा रहा. पालवंशी शासकों को पता था कि लड़ाई लग जाने पर वे उदंतपुरी को बचा नहीं पाएंगे. नालंदा की तो फिर भी एक शिक्षण संस्थान के रूप में पुरानी साख थी, शशांक गौड़ जैसे राजा ने भी अपने चढ़ाव के दिनों में उसे पूरी तरह नष्ट नहीं किया था. लेकिन ऐसी कोई सुविधा उदंतपुरी को नहीं मिलने वाली थी.
बहरहाल, इसी आशंका के तहत या अपनी स्वतंत्र छाप को और मजबूत करने के लिए पाल शासकों ने भागलपुर के पास विक्रमशिला महाविहार की स्थापना की और नवीं से बारहवीं सदी ईसवी तक नालंदा से कहीं ज्यादा संसाधन और प्रतिष्ठा विक्रमशिला विश्वविद्यालय को प्राप्त हुई. तिब्बती स्रोतों में इसका मुकाम बहुत ऊंचा है. शांतरक्षित से लेकर दीपंकर तक तिब्बत में बौद्ध धर्म के कुछ सबसे बड़े आचार्य विक्रमशिला महाविहार से ही वहाँ ले जाए गए थे. इसका अपवाद कमलशील हैं, जो नालंदा से गए और आठवीं सदी ईसवी के अंत में ल्हासा के दरबार में झेन बुधिज्म के चीनी आचार्य मोहेयान से एक निर्णायक शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने के बाद वहीं उनकी निर्मम हत्या हो गई.
क्या उदंतपुरी और विक्रमशिला महाविहारों की स्थापना को आधार बनाकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है पालवंश ने जान-बूझकर नालंदा को बर्बाद किया? शायद नहीं, क्योंकि जब-तब विक्रमशिला के कुलपतियों को ही नालंदा का मुख्य प्रभारी बना देने के बावजूद पाल शासक इसे भी आर्थिक अनुदान देते रहे.
भारत से बाहर केवल तिब्बत को छोड़कर समूचे बौद्धवृत्त में एक शिक्षण केंद्र और धार्मिक केंद्र के रूप में नालंदा की प्रतिष्ठा की कोई तुलना नहीं थी. वहाँ की खुदाई में कई टेराकोटा लेख ऐसे मिले हैं जिनमें दक्षिण-पूर्वी एशिया के बौद्ध साम्राज्यों ने नालंदा की देखरेख और धार्मिक कलाकृतियों के व्यापार को लेकर पाल शासन के साथ संधि और समझौते किए हैं. पालवंश के लिए नालंदा एक ऐसा संसाधन था, जिससे बिल्कुल हाथ खींच लेने का जोखिम वह नहीं उठा सकता था.
उदंतपुरी, विक्रमशिला और मोहभंग
महाविहार कैसे शिक्षण-प्रशिक्षण से हटकर राजकाज का हिस्सा बन जाते हैं, आचार्यों का काम कैसे चिंतन-मनन से हटकर राजा और राजपरिवार के लिए पूजा-पाठ कराने का हो जाता है, बाहर उनकी छवि कैसे राज-रक्षित तांत्रिकों जैसी बनती जाती है, जिनसे मिलना सबके लिए संभव नहीं होता, ऐसे तमाम ब्यौरे उदंतपुरी और विक्रमशिला महाविहारों से जुड़े किस्सों में मिल जाते हैं. जिन राजाओं की पालवंश से लड़ाई रही होगी, जिन इलाकों के लोग पाल शासकों को भयंकर हाथियों से लैस सेना वाले हमलावरों की तरह देखते होंगे, उनकी नजर में इस वंश के फायदे के लिए बड़े-बड़े टोने-टोटके करने वाले बौद्ध आचार्यों की स्थिति कैसी होगी, इसकी तो बस कल्पना की जा सकती है.
उदाहरणों में इसे समझना हो तो भिक्षु होने से पहले भागलपुर के पास ही सोहोर (या ज़ोहोर) नाम की किसी रियासत के राजकुमार रहे शांतरक्षित और दीपंकर ‘अतीश’ को देखा जा सकता है. दोनों में लगभग ढाई सौ साल का अंतर है. एक का समय आठवीं सदी का, दूसरे का ग्यारहवीं सदी के मध्य का. दोनों विक्रमशिला महाविहार के कुलपति थे और तिब्बत के राजाओं ने उन्हें काफी सोना देकर अपने यहाँ बुलाया था. लेकिन जाने से पहले वे दूतों से अपने जिन खर्चों और व्यस्तताओं का जिक्र करते हैं, वे किसी छोटे-मोटे राजा जैसी ही हैं. सैकड़ों मंदिरों, विहारों और भिक्षुओं का प्रबंधन उनके ऊपर है, उन सभी का कुछ स्थायी इंतजाम किए बगैर वे इतनी दूर कैसे जा सकते हैं?
जाहिर है, इतनी बड़ी जिम्मेदारियों के साथ उन्हें राजा का दबाव भी झेलना पड़ता होगा. खासकर दीपंकर ने तो कई मौकों पर शीर्ष राजनयिक की भूमिका निभाई. दशकों तक आपस में लड़ते रहने वाले कलचुरी वंश और पालवंश में समझौता कराने और उन्हें विवाह संबंध में बांधने का श्रेय उन्हें ही जाता है. लेकिन कोई भिक्षु यही सब करने के लिए तो अपना घर-बार नहीं छोड़ता. लिहाजा इस दौर के आचार्यों में पतली गली से निकल लेने की प्रवृत्ति भी दिखती है.
सड़क पर मुक्तिकामी कवि
दार्शनिकों के बाद नालंदा विश्वविद्यालय से जुड़े सबसे चर्चित व्यक्ति सरहपा हैं, जिन्हें इधर हिंदी भाषा के आदि व्यक्तित्वों में एक माना जाने लगा है और दोहा छंद शुरू करने का श्रेय भी दिया जाने लगा है. कुछ ऐसा ही किस्सा ओड़िया, बांग्ला और मैथिली में भी चल पड़ा है, हालांकि सरहपा की भाषा इनमें किसी के भी खांचे में नहीं अंटती. उनकी जितनी चर्चा विश्वविद्यालय से जुड़ने को लेकर होती है, उससे ज्यादा उसे छोड़ देने को लेकर होती है. सरहपा ने नालंदा में पढ़ाई की और वहाँ पढ़ाया भी लेकिन संस्थाओं को उन्होंने पालना या मंच के बजाय बंधन ही समझा.
तिब्बत में पहला बौद्ध मठ स्थापित करने वाले आचार्य शांतरक्षित के शिष्य हरिभद्र को नालंदा में सरहपा का गुरु नहीं, शिक्षक भर बताया जाता है. पीछे कहा जा चुका है कि सरहपा ने नालंदा विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और वहीं बतौर शिक्षक उनकी नियुक्ति भी हो गई. इससे पहले की जानकारी यह है कि मां-बाप की तरफ से उन्हें राहुलभद्र नाम मिला था. वैदिक धारा में पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद वे नालंदा में पढ़ने आए थे. वहाँ दाखिले से पहले दी गई प्रव्रज्या के बाद उन्हें सरोरुहवज्र कहा गया. बतौर शिक्षक सरहपा पर शराब पीने का आरोप लगा था और स्थानीय राजदरबार में उनकी पेशी भी हुई थी. निष्कर्ष यह कि नालंदा का किताबी ज्ञान सरोरुहवज्र को व्यर्थ ही लगता था.
एक रात उन्होंने मुक्ति का रास्ता दिखाने वाली एक डाकिनी का सपना देखा और सबेरे उठकर उसको ढूंढने निकल पड़े. कई दिन बाद एक व्यस्त बाजार के चौराहे पर उन्हें बाण बनाकर बेचने वाली एक स्त्री मिली, जिसके अनुशासित कौशल ने उनको मुग्ध कर दिया. वे खड़े-खड़े कुछ देर उसका काम देखते रहे, फिर स्त्री ने अपने हाथ में थमे तीर पर से नजर उठाई और बिना लाग-लपेट बोली कि
‘बुद्ध के मायने तुम्हें शब्दों और किताबों से नहीं, प्रतीकों और कामकाज के जरिये पता चलेंगे.’
यहीं से सरहपा नालंदा छोड़कर पूरी तरह सड़क के आदमी बन गए.
सरहपा का दौर (800 ई. के कुछ दशक इधर और उधर) गुजरने के कोई आठ सौ साल बाद घुमंतू नाथपंथी योगी बुद्धगुप्तनाथ से तिब्बत में ही सुना हुआ यह किस्सा लामा तारानाथ की अंग्रेजी में अनूदित किताब ‘द सेवन इंस्ट्रक्शन लीनिएजेस’ में दर्ज है. सरह, सरहपा या सरहपाद शब्द में आने वाला शब्द ‘सर’ प्राकृत या अपभ्रंश में वही है, जो संस्कृत में ‘शर’ है. तालाब के अर्थ में ‘सर’ शब्द उनके भिक्षु नाम सरोरुहवज्र में मौजूद है, लेकिन सरोरुह यानी कमल जैसा मृदु भाव ‘सरहपा’ नाम के साथ नहीं जुड़ा है. मूर्तियों में वे दोनों हाथों से सीधा बाण पकड़े नजर आते हैं.

बर्बादी का पहला दौर
कायदे से इसे बर्बादी का दूसरा या तीसरा दौर कहना चाहिए, क्योंकि 500 ई. के आसपास नालंदा महाविहार को नब्बे फीसदी से ज्यादा जला दिए जाने का जिक्र ऊपर आ चुका है, और फिर अगली सदी में शशांक गौड़ ने भी इसका कम नुकसान नहीं किया था. आग लगने की घटना लामा तारानाथ के यहाँ इस तरह है कि तीर्थिक पृष्ठभूमि के दो युवा नालंदा महाविहार में भिक्षुओं के साथ खाना खाने बैठ गए और वहाँ उनकी पहचान हो जाने के बाद कुछ युवा भिक्षुओं ने उन्हें अपमानित किया. नतीजा यह रहा कि दोनों तीर्थिकों ने नालंदा के विनाश का प्रण ठान लिया.
उनमें एक तो कुछ दिन बाद अनशन से उठकर चला गया लेकिन दूसरे ने ‘सूर्यसिद्धांत’ की मदद से नालंदा में आग लगा दी, जो बुझाते ही नहीं बन रही थी. बहरहाल, ग्रंथों की अकथनीय क्षति के बावजूद महाविहार को फिर से खड़ा कर लिया गया, क्योंकि यह उसके उत्थान का दौर था और आगजनी एक अलग-थलग घटना थी. लेकिन अभी बर्बादी के पहले दौर के रूप में जिस घटनाक्रम की बात चल रही है, वह इस शिक्षण संस्थान के नीचे जाने का है और नालंदा की बर्बादी इस बार कोई घटना न होकर धीमी रफ्तार से चलने वाली एक सदियों लंबी प्रक्रिया है.
पालवंश के साथ अपने खट्टे-मीठे रिश्तों का सबसे ज्यादा नुकसान नालंदा को ईसा की नवीं और दसवीं सदियों में लगभग दो सौ साल चले त्रिपक्षीय युद्ध में उठाना पड़ा, जिसने इसको समकालीन संसार के सबसे प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान की स्थिति से घटाकर सिर्फ एक पालवंशी संस्था की हैसियत में ला छोड़ा और अपने देशकाल से इसके अलगाव की जमीन तैयार कर दी. याद दिला दें कि यह त्रिपक्षीय युद्ध राजस्थान और गुजरात में पकड़ रखने वाले गुर्जर-प्रतिहार वंश, कर्नाटक में जड़ें जमाए राष्ट्रकूट वंश और उत्तरी बंगाल से उभरे पालवंश के बीच उत्तर भारत का केंद्र समझे जाने वाले कन्नौज राज्य पर कब्जे के लिए लड़ा गया था. इसके प्रभावों पर ठीक से काम नहीं हो पाया है.
लंबे समय तक पालवंश के स्थायी शासन में रहे ठेठ बंगाल (अभी के बांग्लादेश समेत), थोड़ा असम, झारखंड और पूर्वी बिहार को छोड़ दें तो देश में लगभग सारे ही बौद्धस्थलों पर कब्जे, उनमें तोड़फोड़ या उन्हें जला दिए जाने के सबूत अंतहीन से लगने वाले इस युद्ध से जुड़े हुए मिलते हैं.
सन 1904-05 ई. में कुशीनगर की खुदाई का दूसरा दौर शुरू करने वाले जे. पी. वोगेल ने ईसा की नवीं सदी में वहाँ जमी कोयले और राख की एक फुट मोटी परत के बारे में लिखा है. लुंबिनी में पूजा-पाठ बंद होने का समय यही है, जहाँ से बुद्ध की जन्मस्थली एक हजार वर्षों के लिए विस्मृति के गर्भ में चली गई. ओडिशा और आंध्र प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात तक बौद्ध स्थलों पर कब्जा करके उन्हें विष्णु, शिव या देवी का मंदिर बना देने के पुरातात्विक साक्ष्य सबसे ज्यादा नवीं-दसवीं सदी के ही मिलते हैं. कुमाऊं का पूर्व-बौद्ध कत्यूरी राजवंश ‘महा-श्रमण-रिपु’ का विरुद अपने नाम के साथ इसी दौर में जोड़ता है. इन सारे छिटपुट सबूतों का कोई साझा अर्थ भी निकलना चाहिए.
ईसा की आठवीं सदी बीतने के बाद से नालंदा का नाम तिब्बती इतिहास में भी कभी विरले ही सुनाई पड़ता है. जो भी जिक्र आता है, लगभग सारा का सारा या तो विक्रमशिला के आचार्यों का होता है, या फिर घुमंतू सिद्धों का. इस बात का ऐसा तात्पर्य कृपया न लिया जाए कि नवीं-दसवीं सदी में नालंदा को किसी विनाशलीला का सामना करना पड़ा था. ऐसा कोई सुराग मेरे पास नहीं है, लेकिन इस दौर को ठीक से देखने की जरूरत बेशक महसूस करता हूं.
समझना कठिन है कि भारत के पुरातत्वविदों ने बौद्ध स्थलों के विनाश को लेकर अपना सारा ध्यान बारहवीं सदी के अंत में गंगा घाटी पर तुर्कों के हमलों के इर्दगिर्द ही क्यों केंद्रित कर लिया. पुरातत्व और इतिहास सत्य के उपकरण हैं. ये ऐसे शास्त्र तो नहीं हैं, जिन्हें इतिहास की गुत्थियों के सरलतम जवाब खोजने के लिए पढ़ा और पढ़ाया जाता है.
अंतिम प्रहार
1192 ई. में तराइन के दूसरे युद्ध में मोहम्मद मोईजुद्दीन गोरी के हाथों पृथ्वीराज की पराजय के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल तक सभ्यतागत विध्वंस की कहानियों से हमारी याददाश्त भरी हुई है. इसमें बनारस के पूरब में हुई सारी तबाही के साथ एक तुर्क सरदार बख्तियार खिलजी का नाम जुड़ता है, जिसे मोहम्मद गोरी की हमलावर फौज में एक सिपाही की जगह भी नहीं मिल पाई थी. उसने जो किया वह यकीनन उसकी औकात से ज्यादा था.
बख्तियार खिलजी द्वारा मगध के महाविहारों के विध्वंस का अनुमान तुर्क इतिहासकार मिनहाजुस्सिराज (1193 ई.-1266 ई.) के ग्रंथ ‘तबकात-ए-नासिरी’ के कुछ ब्यौरों के आधार पर लगाया जाता है. इस किताब का शीर्षक दिल्ली की पहली तुर्क सल्तनत के एक कमजोर सुल्तान नासिरुद्दीन के नाम पर है, लेकिन इसको इतिहास के एक लंबे-चौड़े प्रॉजेक्ट की तरह लिखा गया है, जिसमें इस्लाम का इतिहास भी शामिल है. यहाँ दो बातें याद रखना जरूरी है.
1. मिनहाज बख्तियार खिलजी के सैन्य अभियान का प्रत्यक्षदर्शी नहीं था, और
2. तबकात-ए-नासिरी में बख्तियार खिलजी की भूमिका नायक से ज्यादा खलनायक की है. ‘बंगाल पर अनधिकृत कब्जा करके ममलूक वंश से बगावत करने वाला एक ऐसा सरदार, जिसकी जात खोटी है. जो खराब भाषा बोलता था, सच्चा तुर्क भी नहीं था.’
किताब में बताया गया है कि लगभग 200 सिपाहियों वाली बख्तावर की टुकड़ी एक किले के सामने पहुंची तो उसका सिर्फ एक छोटा सा दरवाजा खुला था. दो सैनिक अपनी जान पर खेलकर दरवाजे में घुस गए और मारकाट मचा दी. लेकिन वहाँ मौजूद सिरमुंड़े लोगों ने जवाबी हमले या बचाव की शक्ल में कुछ नहीं किया. यह लड़ाई पूरी तरह एकतरफा थी और बख्तियार की टुकड़ी को बाद में पता चला कि यह कोई किला भी नहीं बल्कि पढ़ाई-लिखाई की जगह थी और स्थानीय लोग इसे ‘बिहार’ कहते थे. कब्जे की जगह पर आग लगाने का कोई जिक्र इस किताब में नहीं है. बाद में खोजबीन से पता चला कि यह वर्णन भी नालंदा का न होकर उसके पास ही स्थित उदंतपुरी महाविहार का है. नालंदा के प्रसिद्ध नौमंजिला पुस्तकालय के तीन महीने जलते रह जाने की इतनी चर्चा इसकी खुदाई में दर्ज राख की तह से जुड़ी हो सकती है, लेकिन इस चर्चा का कोई पुख्ता स्रोत मेरी नजर में नहीं आया है.
लामा तारानाथ अपने इतिहास ग्रंथ में मगध के महाविहारों के विनाश से संबंधित अध्याय की शुरुआत बारहवीं सदी ईसवी के मध्य में पालवंश को अपदस्थ कर सत्ता में आए कर्नाटक मूल वाले सेनवंशी शासकों के नाम गिनाने से करते हैं.
‘लवणसेन का बेटा काशसेन था. उसका बेटा मणितसेन और उसका बेटा रथिकसेन था. इसमें किसने कितने साल शासन किया, इसकी स्पष्ट जानकारी मुझे नहीं है. लेकिन चारों ने मिलाकर अस्सी साल से ज्यादा राज नहीं किया.… इन चारों सेनों के समय में तीर्थिकों (सनातनी हिंदुओं) की संख्या मगध में बढ़ती गई. म्लेच्छ दृष्टिकोण के बहुत सारे अनुयायी भी आ गए थे. उदंतपुरी और विक्रमशिला को बचाने के लिए राजा ने इन्हें आंशिक रूप से किलों में बदल दिया और कुछ सैनिक भी यहाँ तैनात कर दिए.… धर्म के अन्य केंद्र व्यवहारतः विलुप्त हो चुके थे, हालांकि ऐसा कहा जाता है कि विक्रमशिला और उदंतपुरी में भिक्षुओं की संख्या अभयाकर (‘मंत्रयान-माध्यमक’ सिद्धांत के प्रणेता, विक्रमशिला विश्वविद्यालय के कुलपति अभयाकर गुप्त, मृत्यु-1125 ई.) के समय जितनी ही थी.
‘रथिकसेन की मृत्यु के कुछ समय बाद और लवणसेन (लक्ष्मणसेन?) का शासन कुछ साल गुजरने तक स्थिति शांतिपूर्ण थी. फिर तुरुष्क राजा चंद्र गंगा और यमुना के बीच के इलाके ‘अंतर्वेदी’ में आया. कुछ भिक्षुओं ने इस राजा के लिए दूत का काम किया. परिणाम यह हुआ कि बंगाल और अन्य इलाकों के क्षुद्र तुरुष्क शासक एकजुट होकर मगध पर चढ़ दौड़े और उदंतपुर में कई दीक्षित भिक्षुओं का जनसंहार कर दिया. उन्होंने इस विहार को और विक्रमशिला को भी तहस-नहस कर डाला. …इसमें कोई संदेह नहीं कि कई सिद्ध और साधक इस दौर में भी थे. लेकिन सामान्यतः लोगों के कर्म में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता, लिहाजा इस सब को रोका नहीं जा सका.’

जो कुछ थोड़ा बचा रहा
आगे राजा लवणसेन के बेटे बुद्धसेन, उनके बेटे हरितसेन और उनके भी बेटे प्रतीतसेन का जिक्र लामा तारानाथ ने किया है, जिन्होंने ‘तुर्कों का आज्ञापालन किया, और उनके पास राज्य शक्ति के नाम पर कुछ भी नहीं था लेकिन इस सीमित शक्ति में भी वे थोड़ा बहुत ‘शासन’ (बौद्ध व्यवस्था) की उपासना करते रहे. खासकर बुद्धसेन के समय में पंडित राहुल श्रीभद्र नलेंद्र (नालंदा) में रहते थे और लगभग सत्तर लोग वहाँ उनसे धर्म के बारे में सुनते थे.’ ध्यान रहे, यहाँ नालंदा महाविहार की दुर्दशा जरूर बताई गई है, पर उसके विनाश को लेकर अलग से कुछ नहीं कहा गया है.
सन 1234 से 1236 ई. तक तीर्थयात्रा करने और चांद्र-व्याकरण पढ़ने मगध आए तिब्बती भिक्षु चाग लोचबा दोर्जेपाल (धर्मस्वामी) ने तुर्क सैनिकों के भय से भागकर जंगल में छिपे गया के राजा बुद्धसेन से अपनी मुलाकात और आचार्य राहुल श्रीभद्र के शिष्यत्व में गुजरे अपने समय का ब्यौरा तिब्बत में अपने शिष्य ‘उपासक चोदर’ को लिखाया. उनकी यह जीवनी ‘नाम-थार’ उस दौर की झलक देखने के लिए एक अद्भुत खिड़की का काम करती है.
रूसी बौद्ध अध्येता जॉर्ज रोरिख बताते हैं कि तांत्रिक विमर्शों के लिए विख्यात विक्रमशिला विहार तुर्क हमले के बाद सन 1200 के आसपास धर्मस्वामी के चाचा चाग लोचबा ग्राकोम (1153-1216 ई.) और कश्मीरी पंडित शाक्य श्रीभद्र (1145-1225 ई.) की मगध यात्रा तक बचा हुआ था. लेकिन धर्मस्वामी के समय में उसका अस्तित्व मिट चुका था और उसकी नींव के पत्थर उखाड़कर नदी में फेंक दिए गए थे. उदंतपुरी विहार के खात्मे के बाद वहाँ तुर्क फौजों की छावनी स्थापित होने की बात खुद धर्मस्वामी बताते हैं. वह भी कुछ यूं, जैसे यह कोई बहुत पुरानी बात हो.
आगे वे कहते हैं-
‘नालंदा (नलेंद्र महाविहार) की शोभा उजड़ चुकी है, 84 विहारों में से मात्र दो ही विहार आबाद रह गए हैं. पहले इस परिसर में सात मंदिर हुआ करते थे, अभी सिर्फ चार मूर्तियां बची हैं. एक खसर्पण (अवलोकितेश्वर) की, एक घूमी गर्दन वाले मंजुश्री की, एक बिना गहनों वाली तारा की और एक ज्ञाननाथ की. 90 वर्षीय पंडित राहुल श्रीभद्र चार अन्य शिक्षकों के साथ लगभग 70 छात्रों को पढ़ाते हैं.’
धर्मस्वामी इन्हीं आचार्य राहुल श्रीभद्र से चंद्रगोमी का लिखा चांद्र व्याकरण पढ़ने आए थे और संयोगवश एक साल पढ़ भी ले गए. यहाँ उन्होंने अपने सामने नालंदा पर हुए एक तुर्क हमले का लोमहर्षक वर्णन भी किया है, लेकिन इस बार के विध्वंस का कोई ब्यौरा उनके यहाँ नहीं है. जले हुए भव्य पुस्तकालय की यादें तीन दशक बाद भी जिंदा होतीं, लेकिन धर्मस्वामी के यहाँ वह सिरे से गायब है.
तिब्बत के ही कुछ अन्य स्रोतों से पता चलता है कि नालंदा विश्वविद्यालय के आखिरी कुलपति, 77 वर्षीय कश्मीरी भिक्षु शाक्य श्रीभद्र न जाने कहाँ-कहाँ भटकने के बाद विद्वानों के एक दल के साथ सन 1203-04 ई. में सिक्किम के रास्ते तिब्बत की ओर रवाना हुए. वहाँ चुंबी घाटी में उनकी मुलाकात युवा अनुवादक ठोपू लोचबा रिंछेन सेंगे से हुई, जिन्हें देखकर उन्हें लगा कि उनके साथ मजाक किया गया है. लेकिन सवाल-जवाब के क्रम में ठोपू लोचबा ने उन्हें संतुष्ट किया और इस दल को तिब्बत में कई साल तक अपनी प्रतिभा और मेधा का उपयोग करने का मौका मिला.
इस विद्वन्मंडली में शामिल थे ‘माध्यमक’ और ‘प्रज्ञापारमिता’ के विशेषज्ञ सुगतश्री, विनय के शिक्षक जयदत्त, व्याकरण और अभिधर्म के आचार्य विभूतिचंद्र, तर्कशास्त्र के विशेषज्ञ दानशील, चांद्र व्याकरण के ज्ञाता संघश्री, मैत्रेय ग्रंथों के जानकार जीवगुप्त, शांतिदेव कृत ‘बोधिचर्यावतार’ के मर्मज्ञ महाबोधि और कालचक्रतंत्र के विशेषज्ञ कालचंद्र.
इनमें लगभग सारे विद्वान तिब्बत में ही रह गए, स्वदेश वापस नहीं लौटे. इन्हीं में एक शाक्य श्रीभद्र की प्रतिष्ठा विश्वविजयी मंगोलों के पहले गुरु साक्या पंडित (कुंग ग्येलचेन) के गुरु और दीक्षागुरु के रूप में है. तिब्बती बौद्ध धर्म के सारे ही पंथों में उन्हें अपने एक पूर्वज जैसा सम्मान दिया जाता है. विद्वानों की सूची यहाँ देने का एक उद्देश्य यह है कि इससे नालंदा, उदंतपुरी और विक्रमशिला में पढ़ाए जाने वाले विषयों का अंदाजा मिल सकता है.

अवतार हो, मगर किस रूप में
कुछ समय पहले ईसा की बीसवीं सदी बीतने को थी तो इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी बनाने का सुर्रा भी हवा में था. ऐसा ही एक सपना देखते हुए सन 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने नालंदा को लेकर एक दिलचस्प बात शुरू की. बिहार विधानसभा को दिए गए अपने उद्बोधन में उन्होंने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने की चुनौती पेश की तो विधानसभा ने इसके लिए जमीन उपलब्ध कराने का फैसला कर लिया. फिर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की पहल पर नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को जोड़ते हुए पूर्वी एशिया के बौद्ध आबादी वाले देशों के जिम्मेदार राजनेताओं का एक जुटान बनाया गया, जिसमें नालंदा की मूल भावना के तहत एक इंटरनेशनल प्रॉजेक्ट के रूप में मिल-जुलकर फंड जुटाने और न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप के साथ स्वायत्त ढंग से संचालित संसार एक श्रेष्ठ विश्वविद्यालय के रूप में इसे विकसित करने की भूमिका बांधी गई.
ऊपर की लंबी चर्चा में नालंदा महाविहार की वैश्विक दृष्टि, स्वायत्तशासी स्वरूप, एक राजा पर निर्भर न रहने की नीति और सदा कुछ नया करने की सोच रेखांकित हुई है. ठीक-ठीक ऐसा ही नहीं, लेकिन इसके करीब जाते हुए 2011-12 के नालंदा यूनिवर्सिटी ऐक्ट में राष्ट्रपति को इस विश्वविद्यालय का विजिटर बनाया गया. इसका चांसलर हर बार इसके अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन निकाय द्वारा ही चुने जाने का नियम बना और अगले दस वर्षों में इसपर 2710 करोड़ रुपये खर्च करने की बात भी कानून में दर्ज हुई. बीच में कोरोना महामारी ने खर्चे को उस स्तर तक नहीं जाने दिया, यह बात समझ में आती है. लेकिन इसका अंतरराष्ट्रीय पहलू लगभग खत्म ही हो जाना, इसका पूरी तरह से केंद्र सरकार के पैसों पर निर्भर संस्था बन जाना समझ में नहीं आता. कुछ नया करना तो इसके बाद भूल ही जाना होगा.
नए नालंदा विश्वविद्यालय का परिसर बहुत लंबा-चौड़ा, भव्य, आधुनिक और बिजली, पानी, कचरे आदि की दृष्टि से आत्मनिर्भर है. लेकिन यह सब इसके सही दिशा में बढ़ने की गारंटी नहीं है. परिसर के विमोचन के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कही हुई यह बात बिल्कुल सही है कि ज्ञान को आग से नष्ट नहीं किया जा सकता. लेकिन इतिहास में उसे नष्ट करने के नए-नए तरीके हमेशा ही खोजे जाते रहे हैं. यह न होता तो ज्ञान परंपराओं को पुनर्जीवित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. विनाश के इन तरीकों में सबसे आसान है विस्मृति, जिसके लिए पोलराइजेशन यानी धार्मिक, राजनीतिक और वैचारिक ध्रुवीकरण अचूक नुस्खे की भूमिका निभाता रहा है. इस नुस्खे के तहत पहले संस्थाओं और पद्धतियों के छोटे-छोटे ब्यौरे भुलाए जाते हैं, फिर एक दिन मूल को ही घूरे पर डाल दिया जाता है.
ईसा की पांचवीं सदी की शुरुआत से तेरहवीं सदी की शुरुआत तक जैसे-तैसे आठ सौ साल चल जाने वाला नालंदा विश्वविद्यालय सिर्फ एक शिक्षा केंद्र नहीं, खुद में एक जीती-जागती सामाजिक अवधारणा भी था. शिक्षा को सिर्फ दो जातियों के लिए आरक्षित चीज मानने वाले, ‘ईश्वर निर्मित’ वर्ण-व्यवस्था के अनुयायी इस देश में नालंदा ने ऐसी शिक्षा व्यवस्था कायम की, जहाँ शिक्षकों और छात्रों की जाति तो क्या नस्ल भी नहीं देखी जाती थी. चीनी, बर्मी, श्रीलंकाई, कोरियाई, तिब्बती और तुर्क पृष्ठभूमि के लोगों ने यहाँ पढ़ाई की और अपने समाजों में इसकी परंपरा की जड़ रोपी.
नालंदा विश्वविद्यालय को कम से कम दो बार स्थानीय लोगों ने नष्ट किया, तब इसकी मरम्मत करके काम लायक बना दिया गया. फिर लंबे अवमूल्यन के बाद तीसरी बार यह विदेशी हमले में तबाह हुआ और इसके साथ-साथ बुद्ध का धर्म भी भारत से लुप्त हो गया. पूरे पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशिया में आज भी इस बात पर आश्चर्य किया जाता है कि बुद्ध के देश में छह सौ साल तक कोई उनका नाम लेने वाला भी क्यों नहीं था.
अभी के पुनरावतार में नालंदा का क्या होगा, कौन जानता है. लेकिन वध्य होने की अपनी नियति के बावजूद नालंदा इसी देश, इसी समाज से उपजा था. हमें दुनिया भर में लगातार खोजी जा रही ऐतिहासिक सामग्री की रोशनी में न केवल इस संस्था की बारीकियों को ठीक से समझने की कोशिश करनी चाहिए, बल्कि मौका मिलते ही इस नई पहल में भी जान डाल देनी चाहिए.
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) ![]() शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’, पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’, भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ आदि पुस्तकें प्रकाशित. patrakarcb@gmail.com |
महत्वपूर्ण आलेख …..नालंदा के इतिहास के ऊपर झूठ और किंवदंतियों के रख की मोटी परत जम चुकी है , जिसे इस तरह के नए लेखन और अनुसंधान से ही हटाया जा सकता है ।
चन्द्रभूषण जी ने नालन्दा के उद्भव, विकास और अवसान की प्रामाणिक कथा लिखी है जिसे विस्तार देकर पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की आवश्यकता है।
बढ़िया लेख। बौद्ध धर्म के पतन पर बहुत काम किया जाना शेष है।
शुक्रिया पंकज जी। क्या ही अच्छा हो कि नालंदा यूनिवर्सिटी का इतिहास विभाग खुद इस प्रॉजेक्ट पर एकाधिक शोधकार्य कराए। बोनाफाइड शोधकर्मी न होने के कारण आर्काइव्स का उपयोग न कर पाना इस मामले में मेरा बहुत बड़ा ड्रॉबैक है।
पिछले कुछ समय से चंद्रभूषण के लेख पढ़ रहा हूं। हमेशा ही कुछ नया, सोचने लायक। जो काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था, वह हिंदी में अभी तक नहीं हो पाया है। अरुण जी आप की निष्ठा हमेशा शक्ति और प्रेरणा देती है।
महत्वपूर्ण आलेख। नालंदा की यात्रा रही यह। विविध पक्षों से गुजरती। समालोचन पर आना यानी एक अलग संसार में प्रवेश पा जाना। चंद्रभूषण जी की हाल में एक किताब विज्ञान पर पढ़ी है। वे हर बार नए के साथ आश्चर्य में डालते हैं।
बहुत बहुत बधाई सर 💐
धुंध साफ़ करने वाला सारगर्भित और सुगठित आलेख। धन्यवाद।
जानकारियों का अच्छा संग्रह।
मातृचेट को मातृचेता टंकित कर दिया गया है। अथवा यह हमारी पालि, संस्कृत आदि मूल सामग्री की अपेक्षा अंग्रेज़ी पर निर्भरता दिखाता हो!