(मेरे सामने कुंवर जी की कविताएं, वैचारिक उपलब्धियां और उन्हें मिले अनेक सम्मान हैं. मैं आलोचना में ढूंढने जाता हूं तो उनके नाम पर कोई बहुत सार्थक लम्बी बहस…कोई हलचल लगभग नहीं मिलती. स्तुतिगान बहुत हैं, कवि प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन के भी कई संस्करण हैं, उनके कविता में होने के प्रति आभार-प्रदर्शन भी हैं, कई शोध-प्रबन्ध हैं, उनमें एकाध बेहद ख़ास भी है …. पर आलोचना कहां है – मैं सुदूर अतीत में मुंह डाल अपना पूरा ज़ोर लगाकर भी पूछूं तो भी उतने उत्तर नहीं मिलते, जितने की ज़रूरत और उम्मीद एक कवि और उसके मुझ जैसे प्रशंसक होती है. पता नहीं यह कितनी प्रशंसनीय स्थिति है, पर अपनी ही उलझनों में मैं इससे कतई सन्तुष्ट नहीं हूं. कुंवर जी ने हिंदी कविता की उम्र पार की हैं, अपने रचाव और वैचारिक गाम्भीर्य में वे वर्षों से शिखर पर हैं. कुछ उत्साही जन अपनी उपलब्धियों में बढ़ोतरी के लिए भी इस शिखर की यात्रा करते हैं …. जैसे कोई एवरेस्ट पर चढ़ आया हो …. और मैं कविता के प्रति अपने आदरभाव और प्यार में खीझ-सा जाता हूं. इस खीझ में जब ओम निश्चल जी ने कुंवर जी पर तैयार की जा रही एक किताब में लेख लिखने का प्रस्ताव दिया तो मैंने फैसला लिया कि लिखूंगा पर सिर्फ़ एक कविता संग्रह पर लम्बी प्रतिक्रिया की तरह …संग्रह भी मैंने किसी टाइम-मशीन में बैठने की तरह 1979 का चुना – अपने सामने ….. इस बहाने गुज़रे तैंतीस वर्षों के बीच एक आवाजाही करूंगा… ये मुश्किल काम है…. क्योंकि जब ये किताब छपी, तब मैं छह बरस का था और आज जब लिखने बैठा हूं तो उनतालीस का हूं ….और आलोचना मेरे बस का काम नहीं, मैं एक संवाद भर सकता हूं. भरोसा है कि छोटी-सी इस यात्रा में ख़ुद कवि का झुर्रियों भरा- उभरी नसों वाला अनुभवी और वत्सल हाथ मुझे सहारा देगा. यहां एक बात और साफ़ करना चाहूंगा कि कई लोग वरिष्ठ कवियों पर लिखते हुए उन पर अब तक हुए काम को यथासम्भव सामने रखते हैं और फिर कविता के साथ उस पर लिखे गए से भी संवाद करते हुए अपना कुछ लिखना पसन्द करते हैं लेकिन मैं उलटा चलता हूं…. पहले से लिखे-कहे हुए को परे रखकर अपने थोड़े-से साहित्य और जीवन विवेक पर भरोसा करता हूं. वह लिखा-कहा हुआ मेरी स्मृतियों में ज़रूर रहता होगा पर इस तरह का काम करते हुए मेरी मेज़ पर कभी नहीं रहता. मेरा हर संवाद ऐसा ही होता है, यह भी होगा, फिर चाहे इसे मेरी सीमा या फिर हठ मान लिया जाए.)
अपनी बहुत पुरानी एक उम्र में मैं एक किताब को छह बरस के बच्चे की तरह हाथ में लेता हूं … इसमें कुछ छपा है… कोई पंक्ति पूरी नहीं होती.. ये कैसी किताब है. ऐसी किताब को क्या कहते हैं… एक प्रौढ़ मुखड़ा झुक आता है मेरे ऊपर – बेटा,इसे कविता कहते हैं. फिर जो हम पढ़ते हैं गीत सरीखा अपनी कोर्स की किताबों में उसे क्या कहते हैं …. बेटा,उसे भी कविता कहते हैं …. यह संवाद यहीं समाप्त हो जाता है. वो बच्चा वहीं छूट जाता है …खड़ा रहता है अपने समय की पहेलियों में.
इमरजेंसी लगी थी… अब दूसरी आज़ादी मिली है… संजय गांधी एक लफंगा है, इंदिरा गांधी पुत्रमोह में पड़ी पिशाचिनी है…उसका दूसरा बेटा ठीक है… घर में पिता अपने दोस्तों से बहस करते रहते हैं. जयप्रकाश नारायण, लोहिया, मोरारजी देसाई, राजनारायण, चरण सिंह, लालकृष्ण अडवाणी, अटलबिहारी वाजपेयी, कुशाभाऊ ठाकरे, नानाजी देशमुख जैसे कई अपिरिचित नाम जो इन बहसों में इतनी बार आते हैं कि उस छोटे बच्चे के स्मृतिकोश में भी कहीं दर्ज़ हो जाते हैं…और एक उम्र ख़त्म हो जाती है … इस उम्र में कविता कहीं नहीं आती है.
२.
दूसरी उम्रों का समय है… हम सड़कों पर निकले हैं झुंड में… नारे लगाते…पोस्टर चिपकाते…
मैं अपनी कविता खोज रहा हूं… मुझे पोस्टर के लिए कविता चाहिए… मुझे नारा बनाने के लिए कविता चाहिए…. मुझे हल्ला बोलने के लिए कविता चाहिए… पिता की ख़रीदी वह किताब अब पुरानी पड़ चुकी है….उसके पन्ने पीले और जर्जर हैं… उसमें मुझे नारे नहीं मिल रहे हैं… पोस्टर के लिए कुछ नहीं मिल रहा है…. उसके सहारे हम अपना हल्ला बोल नहीं कर पा रहे हैं. लालकृष्ण अडवाणी और अटलबिहारी वाजपेयी का नाम स्मृतियों की खोह से बाहर आ चुका है… रथयात्रा हो रही है… पुरानी ढह रही मस्जिदनुमा इमारत पर कारसेवक हथौड़े- सब्बल लिए चढ़े हैं… गेरुए कपड़े वाली एक साध्वी उत्तराखंड के ही एक बड़े नेता से ख़ुशी के मारे लिपट पड़ी है. दूसरी आज़ादी के कुछ नायक मेरी इस नई उम्र के फासिस्ट खलनायक बन चुके हैं. यूं नायक वे मेरी उम्रों में कहीं थे ही नहीं, बस नामोल्लेख था उनका.
हमारी छाती पर अंधेरा सवार है. हम पिटते हुए मशाल जुलूस निकाल रहे हैं. मंडल-कमंडल सब हो रहा है. मेरे हाथों में दूसरी किताबें हैं. वह किताब आलमारी में रखी है ख़ामोश… उसके पन्ने तक नहीं फड़फड़ाते. लटके होंठ वाले प्रधानमंत्री बाज़ार की ओर मुंह किए हैं, उन्हें कुछ दिख नहीं रहा है. पत्रिकाओं में भूमंडलीकरण और उत्तरआधुनिकता जैसे शब्द दिख रहे हैं… विमर्श हो रहा है .. विरोध के नाम पर एक पहल भर है.
3.
मेरी उम्रों में अब चढ़ाई के दिन हैं….मेरी सांस फूल रही है… मैं रुकना और थोड़ा दम लेना चाहता हूं. आलमारी में वह किताब अब भी है ….अब उसे मैं अपने सामने पा रहा हूं … वह आलमारी से निकल कर मेज़ पर आ गई है. अब उसमें हरारत और हरक़त है. उसका पहला पन्ना खुलता है –
कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएं हमारे सामने होतीं
हमारे चारों ओर नहीं
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता
बाक़ी तो क्या, कुछ भी रुका हुआ नहीं था मेरी पिछली उम्र में…चल रहा था… भाग रहा था…. मुझसे आगे. जिन क्रूर ताक़तों की मैं अब हार चाहता हूं, वे सिर पर चढ़ी चली जा रही हैं. जीवन बदल गया है… इतना कि दूर-दूर तक गुमां तक न था जिसका. जिन्हें हम जेल में देखना चाहते थे, उन्हें सरकार में देख रहे हैं. सड़कों के संगी-साथी मेरी ही तरह दफ़्तरों में जा बैठे हैं या कुछ कारोबार कर रहे हैं. विचार जो मुहब्बत बन चुका है, उसके भीतर मैं अब भी अपनी उड़ानें भरता हूं लेकिन इन उड़ानों में अब सड़कों पर उतर जाना और पीटना-पिटना शामिल नहीं है. पुलिस के अफ़सर लाठियां भांजने की बजाए हाथ मिलाते हैं मुझसे और मैं कुंवर जी की इस पुरानी किताब के पहले ही पन्ने पर इन पंक्तियों में ख़ुद को पाता हूं साथियों समेत. दरअसल हममें ऊर्जा बहुत थी, विचार और ताक़त भी भरपूर, हम लड़ सकते थे पर स्थिति वही थी, जो कुंवर जी ने लिखी…न तो दिशाएं सामने थीं और जैसा कि अभी कहा मैंने, कुछ भी रुका हुआ नहीं था. पर मुझे गर्व है कि मैंने कोशिश की उस उम्र में और जो जारी है, इस उम्र में भी …. पर हाथ में किताबें बदल रही हैं. विचार कहां-कहां हो सकता है, कितनी दिशाओं में ढूंढना होता है उसे….यह सीख रहा हूं. भीतर की जगह से बाहर बहुत सारी जगहें हैं, उनमें बहुत सारी आवाज़ें हैं – कितना कुछ सुनना बाक़ी है अभी … अनुभव का संसार किस तरह बढ़ता है और अपने विस्तार हमें किस क़दर एकाग्र करता चलता है – ये सभी कुछ कुंवर जी की तैंतीस साल पुरानी कविता की एक किताब सिखा रही है. ये कई उम्रों की कविता है … कई उम्रों तक काम आना है इसे.
अभी ठीक अभी जिस उम्र में हूं, वहां चीज़ें ऐसे ही तो घट रही हैं –
बस वहीं से लौट आया हमेशा
अपने को अधूरा छोड़कर
जहां झूट है, अन्याय है, कायरता है, मूर्खता है –
प्रत्येक वाक्य को बीच में ही तोड़-मरोड़कर
प्रत्येक शब्द को अकेला छोड़कर
वापस अपनी ही बेमुरौव्वत पीड़ा के
एकांगी अनुशासन में
किसी तरह पुन: आरम्भ होने के लिए
झूट, अन्याय, कायरता और मूर्खता से सामना होने पर ख़ुद को अधूरा छोड़कर लौट आने का
यह उपक्रम मेरे विचार से मेल नहीं खाता… पर अपना-सा भी लगता है. हर किसी को मानना ही पड़ता है कि जीवन में हताशा के कुछ ज़रूरी क्षण भी होते हैं और बाद की उम्रों में वे बढ़ते जाते हैं. स्वप्नशील आंखों के गिर्द यथार्थ की स्याही उभरने लगती है. मेरे भीतर की एक कुछ पुरानी उम्र कहती है – ग़लत है, यूं लौट जाना….मुझे लड़ना चाहिए लेकिन समकालीन उम्र में हमेशा तो नहीं पर कभी-कभी पुन: आरम्भ होने के लिए लौटना अब मेरा भी मन होने लगता है. मेरे जीवन में मेरी विचारधारा ही मेरा एकांगी अनुशासन रही है, पर इस कविता में आने वाले शब्द ‘एकांगी’ में जो थोड़ा-सा व्यंग्य है, उसका भी कुछ करना होगा. बेमुरौव्वत पीड़ा भी मुझ अकेले की नहीं, मेरे सभी आमजनों की है. अपने सामने इन पंक्तियों में अगर मैं एक बहुचवन बना पाता हूं तो ये मेरी लगने लगती हैं – लौट आया की जगह लौट आए, बस इतना भर हो जाए तो सब कुछ मेरा लगने लगे और जिसे मैं मेरा कह रहा हूं, उसे दरअसल अपना कहा जाना चाहिए. मेरा मुझमें ही रह जाने को अभिशप्त हो सकता है पर अपना सबमें व्याप्त हो जाता है. इस तरह कुछ उलटफेर के साथ मैं कुंवर जी की कविता के निकट आता हूं. कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल के लिए मुझे अपनी छह साल की उम्र में लौटना पड़ता है. उस उम्र में दाखिल हुए शब्दों के स्पष्ट राजनीतिक आशय अब मुझे बहुत आसानी से परसाई जी के साहित्य में मिल जाते हैं. इन शब्दों ने भी अब तक मेरे साथ तैंतीस बरस की उम्र जी है और अब वे खुलने लगे हैं. यह संकलन 1979 का है तो जाहिर है कि कई कविताएं आपातकाल के साये में घुटकर लिखी गईं होंगी. इस बिंदु से कुंवर जी के इस संग्रह पर कुछ महत्वपूर्ण बहस हुईं हैं… इसलिए यहां मैं अधिक नहीं ठहरूंगा.
4.
कविता लिखना मेरे हिसाब से कभी भी अकेले की यात्रा नहीं होती. साथी कवि होते हैं …मित्रताएं होती हैं और शत्रुताएं भी पर इनका मोल तभी है जब ये विचार के लिए हों. बहुत खेद के साथ बार-बार कहना पड़ता है कि इधर पंकज चतुर्वेदी जैसा एकाध आलोचक भले अपवाद रूप में मौजूद है, बाक़ी हिंदी में आलोचना का तेज़ी से लोप हुआ है….कविता के सन्दर्भ में तो और भी. व्यक्तिगत मित्रताएं निभायी जा रही हैं या फिर व्यक्तिगत शत्रुताएं. संकट इसलिए भी गहरा है कि बची-खुची आलोचना का काम भी ख़ुद कवियों के कंधों पर आ पड़ा है. एक कवि दूसरे समकालीन कवि की बिना किसी निजी द्वेष के निमर्म आलोचना करे – इधर के ज़माने में यह दुर्लभ होता जा रहा है. मित्रताओं के प्रसंग भी ऐसे ही हैं… किसी ने मेरे संग्रह की तारीफ़ कर दी और मैंने उसके. सबसे बड़ा संकट इस वक़्त यह है कि कवि-आलोचक तो कुछ हैं पर आलोचक कोई नहीं है. इधर अपने कुछ समकालीन कवियों से बात करते हुए मुझे कुंवर जी की ये पंक्तियां बहुत महत्व की लगने लगी हैं –
…भरपूर चिल्लाता हूं : ‘नज़दीक आओ, और नज़दीक
मैं तुम्हारा
या किसी का
बुरा नहीं चाहता
तुम क्यों मुझे घेरते हो
अपने शकों से
मुझे एक मनुष्य की तरह पढ़ो, देखो और समझो
ताकि हमारे बीच एक सहज और खुला रिश्ता बन सके
मांद और जाखिम का रिश्ता नही’
सहयात्रियो, तुम्हारे स्वार्थ की धमकी
क्या मुझे अक्सर इसी विकल्प की ओर ढकेलती है
कि चलती ट्रेन से बाहर कूद जाऊं
इस चलती ट्रेन से कूदने के कई क्षण मेरे जीवन में अभी आए हैं और मुझे कुंवर जी का यह बरसों पुराना अनुभवसम्पन्न संग्रह बहुत अपना लगने लगा है. इसी के साथ कुछ युवा कवि-मित्रों पर लिखते या महज सोचते-विचारते हुए यह अहसास भी गहराता गया है –
तब भी कुछ नहीं हुआ
जिन नंगे तारों को मैंने अकस्मात् छू लिया था
उनमें बिजली नहीं थी
मुझे एक झटका लगा कि उनमें बिजली नहीं है
मुझे अकसर एक झटका लगता है जब वहां
बिजली नहीं होती
जहां बिजली को होना चाहिए
मुझ पर खुलता हुआ यह सामर्थ्य है कुंवर जी की कविता का कि वह कविता की राह से भी अधिक आलोचना की राह पर मेरे लिए कुछ प्रकाश लिए खड़ी है. वाकई उन नंगे तारों में बिजली नहीं थी और झटका भी यही कि अरे इसमें तो बिजली है ही नहीं… कवि मन की कौन कहे….. कुंवर जी ने न जाने किन सन्दर्भों में लिखी होंगी ये पंक्तियां लेकिन मेरे कई सन्दर्भ और प्रसंग इनसे जुड़ते हैं. मैं अब ख़ुद को प्रौढ़ और युवा कविता में ऐसे कई कोनों को रेखांकित कर पाने की स्थिति में पा रहा हूं,जहां बिजली होनी चाहिए थी, पर नहीं है…न होने का झटका बहुत है. बहुत खुली आंखों देख रहा हूं कि एक बड़ा कवि न सिर्फ़ साहित्य-प्रसंगों बल्कि निजी जीवन-प्रसंगों में भी किस तरह साथ आता है. फ़क़त आलमारियां बदलते मेरे जीवन में तैंतीस साल से रुके रहे अपने सामने के ये सधे हुए विचारवान क़दम अब मेरे साथ हैं….जितना एकान्त में, उससे कहीं अधिक कोलाहल में.
5.
कई संगी छूट गए. कुछ को अकाल-मृत्यु धर ले गई और कुछ को कविता और साहित्य में उनकी बेलगाम लोभ-लिप्साओं ने ग्रस लिया पर उन सबकी एक प्रस्तर बन चुकी शोकपूर्ण याद मुझे लगातार आती है –
मुझमें फिर एक अनुपस्थित का शोक है
और मैं उसमें जिन्दा हूं
एक अकारण शुरूआत और अकारण मृत्यु के बीच
कहां हूं
मैं कोमल हुआ था यहीं कहीं जैसे एक फूल
मैं कठोर हो गया हूं जैसे मेरी यादगार का पत्थर
हालांकि मैं कवि के साथ चल रहा हूं ….पर ऐसा क्यों लग रहा है कि अपनी स्नेहिल बुजुर्ग उपस्थिति के साथ धीरे-धीरे ख़ुद कुंवर जी मेरे साथ चल रहे हैं … सुबह की सैर में मेरे साथ चलने वाले एक आत्मीय वृद्ध पड़ोसी की तरह… जो कहते हैं – धीरे चलो… ये शरीर से ज़्यादा मन की मरम्मत और सेहत के लिए सुबह की हवा को… आते हुए उजाले को महसूस करते हुए चलना है…अभी झुटपुटा है… धोखा भी हो सकता है…किसी जगह कोई गिर भी सकता है…. सिर्फ़ शरीर की सेहत के लिए आना हो तो कुछ देर बाद पूरा उजाला होने पर आओ और फिर चाहे जितनी दौड़ लगाओ…. अब मैं क्या करूं इसका कि मुझे पिछले कुछ दिनों से उन वृद्ध पड़ोसी मित्र के चेहरे में कुंवर जी का चेहरा दिखने लगा है.
मैं जीवन और साहित्य में इतनी तरह की हिंसाओं के बीच रह रहा हूं कि दिन ठीक बीत जाए तो ख़ुशी की जगह हैरत जागने लगती है. संसार बहुत बढ़ा भी है… हिंसाओं के प्रकार और माध्यम भी बढ़े हैं… अपने सामने के परिदृश्य में उपस्थित घोषित आपातकाल के बरअक्स अब मेरे सामने साकार दृश्यों का एक अघोषित अधिक भयावह आपातकाल है…और इसकी विडम्बना को रेखांकित करती सबसे सही अभिव्यक्ति तैंतीस बरस पहले हो भी चुकी है –
आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
आज कोई दुर्घटना नहीं हुई
आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा नहीं माना
आज सबका यक़ीन किया
और कहीं धोखा नहीं खाया
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने ही को लौटा हुआ पाया
मेरे समकालीन जीवन की कविता होते-होते अंतिम तीन पंक्तियों में और अधिक प्रकट हो
जाती है. फिलहाल तो यही उपलब्धि है कि घर लौटें तो ख़ुद को ही लौटा हुआ पाएं… रास्ते में कहीं कुछ बदल न जाए… विचार, प्रतिबद्धता, भावुकता और मनुष्यता सही-सलामत रहे. कुंवर जी के इसी कविता को लें तो भाषा के स्तर पर भी पाएंगे कि बड़ी अभिव्यक्ति के लिए बड़ी बात कहना ज़रूरी नहीं होता और न ही उसे किसी जटिलता में इस तरह क़ैद कर देना कि उसके अभिप्राय अपनी मुक्ति के लिए छटपटाने लगें. मैं यह नहीं कह रहा कि हमें कुंवर जी के लहजे में बोलना चाहिए लेकिन इस सलीके के बारे में कुछ सीखना ज़रूर चाहिए. प्रभाव ग्रहण करना अलग चीज़ है और सीखना अलग. कुंवर जी से कभी मिला नहीं और मेरे जीवन और व्यवहार के हड़कम्प को देखते हुए दू-दूर तक सम्भावना भी नहीं कि कभी उनसे मिलकर दो बातें कर पाऊंगा पर अपनी इस उम्र में उन्हें सिर्फ़ कवि से कवि-शिक्षक के रूप में बदलता देखना अच्छा लग रहा है …और वो भी तैंतीस साल पुराने एक सबक़ में.
6.
यहां एक कविता है, जिसके शीर्षक ने मुझे उलझाया है – एक अदद कविता. न ‘कविता’ , न ‘एक कविता’ – एक अदद कविता. कुंवर जी की सादगी क़ायम है पर इस ‘अदद’ में कुछ है. छुपा हुआ है. अभी कुवर जी की कविता की भाषा पर बात कर रहा था और कहना ही होगा कि हिंदी-उर्दू की एक बहुत साफ़ लेकिन सादी आवाजाही उनके यहां सतत् बनी रहती है. उर्दू है पर ऐसी नहीं कि शब्दकोश खोलना पड़े. इस ‘अदद’ में तिरस्कार भी है, मायूसी भी है, मजबूरी भी है और किंचित-सा अविश्वास – हर कहीं दिखाई देने वाला वही लेकिन सधाव और संतुलन भी, जो कवि का अपना अमिट हस्ताक्षर बनता गया है. मैं कविता उद्धृत करता हूं –
जैसे एक जंगली फूल की आकस्मिकता
मुझमें कौंधकर मुझसे अलग हो गई कविता
और मैं छूट गया हूं कहीं
जहन्नुम के ख़िलाफ़
एक अदद जुलूस
एक अदद हड़ताल
एक अदद नारा
एक अदद वोट
और अपने को अपने ही
देश की जेब में सम्भाले
एक अवमूल्यित नोट
सोचता हुआ कि प्रभो
अब कौन किसे किस-किसके नरक से निकाले
यह बरसों पुराने समय के दृश्य है, जहां जुलूस और हड़ताल और नारा और वोट ‘एक अदद’ में दर्ज़ हैं पर एक अन्तराल के बाद वे उसी तरह नए समय में दाखिल हो रहे हैं…ख़ासकर वह अवमूल्यित नोट और ये छटपटाहट भी कि कौन किसे किस-किसके नरक से निकाले. यह मेरा समय है और इसका साफ़ मतलब है कि वो भी मेरा ही समय था…. चीज़ें अलगाई नहीं सकतीं…. इतिहास को विखंडित करके नहीं देखा जा सकता… किसी भी तरह हाइपर्रियल नहीं बनाया जा सकता.
7.
इस संग्रह में इंतिज़ाम एक विकट कविता है. कल्पना ही की जा सकती है कि किस खीझ,
आक्रोश, क्रोध और निराशा में इसे लिखा गया होगा और बात उसी समय की है, जो अन्तराल को परे हटाता हुआ नए में बदला है… हालात वैसे ही, बल्कि उससे बदतर हुए हैं. यह कविता एक अजीब कविता भी है पर उस नृशंसता और अराजकता को हम कैसे व्यक्त करेंगे जो एक उम्र से हमें नष्ट करती आ रही है. कविता में एक अस्पताल में एक अधमरा बच्चा लाया जाता है जो कवि के शब्दों में ‘बीमार नहीं, भूखा’ है. डाक्टर मेज़ पर से आपरेशन का चाकू उठाता है लेकिन वह चाकू नही ‘जंग लगा भयानक छुरा’ है और बच्चे के पेट में भोंकते हुए कहता है कि ‘अब यह बिलकुल ठीक हो जाएगा’. ये कैसी कविता है… मैं समझ पा रहा हूं कुछ-कुछ. अस्पताल, डाक्टर, भूख से अधमरा बच्चा, छुरे का भोंकना और फिर कहना कि अब यह बिलकुल ठीक हो जाएगा … इधर बिलकुल इधर के समय में यह एक भयावह यथार्थ की साफ़ तस्वीर है. मेरी यह धारणा और मजबूत होती जा रही है कि कविता अपने अर्थ से कहीं अधिक अभिप्राय में निवास करती है … वहीं से वैचारिकी का विस्तार खुलता है.
कुंवर जी का आत्मसंघर्ष दुतरफ़ा है – एक ओर वे आश्वस्ति भरोसा दिलाने वाली लगती चीज़ों के भीतर की कठोरता को बाहर लाते हैं और दूरी ओर यह प्रयास कि ‘एक रूखी कठोरता की/ भीतरी सुन्दरता किसी तरह बाहर आए. यह बहुत मुश्किल काम है और इसी के कारण कुंवर जी के समूचे कविकर्म में एक स्वयंसिद्ध विविधता मौजूद है.
8.
मैं जानता हूं हूं किसी को कानोंकान ख़बर
न होगी
यदि टूट जाने दूं उस नाज़ुक रिश्ते को
जिसने मुझे मेरी ही गवाही से बांध रखा है
और किसी बातूनी मौक़े का फ़ायदा उठाकर
उस बहस में लग जाऊं
जिसमें व्यक्ति अपनी सारी जिम्मेदारियों से छूटकर
अपना वकील बन जाता है
हिंदी कविता में बहसें होती थीं …जब कुंवर नारायण का यह संग्रह अस्तित्व में आया तो शायद तब तक विमर्श शब्द ज़बान पर नहीं चढ़ा था….ये मेरी तब की नही, अब की उम्र का शब्द है…. बहसें अब भी होतीं है लेकिन उससे कहीं अधिक विमर्श होता है… एक मानसिक समागम जैसा कुछ, जिसने एक पूरे रचनात्मक संघर्षशील साहित्यिक परिदृश्य को गर्त में धकेलकर रख दिया है. डाइअलेक्टिक या द्वन्द्वात्मक बातचीत की अवधारणा छूट रही है और उपदेशात्मक-उल्लेखात्मक डिस्कोर्स लगातार बढ़ रहा है. कुंवर जी क्षमाप्रार्थना के साथ मैं इस कविता में आए ‘बहस’ शब्द को ‘विमर्श’ बनाकर पढ़ता हूं तो आज के सन्दर्भ में बात और स्पष्ट हो जाती है. कुंवर जी ने यहां गवाह बनना पसन्द किया है, अपना वकील नहीं… और इसके बीच के वे बातूनी मौक़ै, जिनकी आज के हिंदी कविता संसार में भरमार है. गवाही किस चीज़ की दी जाती है – सबसे पहले अपने होने की, फिर अपने संसार में अपने होने की, फिर अपने समाज में अपने होने की, फिर घटनास्थल या वारदात की जगह पर अपने होने की, फिर उसे देखने या जानने की….. ये प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है… एक कवि की गवाही हमेशा विचारों के प्रदेश में होती है. विचार के लिए गवाही देना उसकी वकालत करने से बड़ा काम है, क्योंकि वकील को जो सुरक्षा अनायास ही हासिल हो जाती है, वह गवाह को नहीं. उसे किसी भी समय कहीं भी पकड़ा जा सकता है और उसके साथ कुछ भी किया जा सकता है. इस कविता में बहस से दूरी दरअसल उतनी दूरी भी नहीं है… बहस का एक प्रारूप भर है. विमर्श के बरअक्स बहस की तस्वीर आगे ज़रूरतों के नाम पर शीर्षक कविता में बेहतर खुलती है –
क्योंकि मैं ग़लत को ग़लत साबित कर देता हूं
इसलिए हर बहस के बाद
ग़लतफ़हमियों के बीच
बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाता हूं
वह सब कर दिखाने को
जो सब कह दिखाया
वे जो अपने से जीत नहीं पाते
सही बात का जीतना भी सह नहीं पाते
….. वे सब मिलकर
मिलकर मेरी बहस की हत्या कर डालते हैं
ज़रूरतों के नाम पर
और पूछते हैं कि ज़िन्दगी क्या है
ज़िन्दगी को बदनाम कर
इन पंक्तियों से मेरी क़रीबी अब रहती उम्र क़ायम रहेगी. मेरी अभी की उम्र में मैं भी अकसर ग़लत को ग़लत साबित करने के बाद कुछ ग़लतफ़हमियों के बीच यूं ही अकेला छोड़ गया हूं. मेरी बहस के हत्यारे मेरे बहुत नज़दीक रहे …. उन्होंने जीवन और साहित्य की ज़रूरतों की भरपूर दुहाई दी है … हत्यारे जानते नहीं कि बहस अकेली भले छूट जाए पर मरती नहीं है….कितना भी दम घोंटें पर उसकी सांसें चलती रहती हैं… वह जगह बदल कर फिर सामने आती है… एक ही वक़्त में कभी गद्य से कविता तो कभी कविता से गद्य में चली जाती है…हत्यारे किसी एक जगह हो सकते हैं और बहस हत्या की जगह से दूर फिर किसी और जगह धड़कने लगती है. कुंवर जी की एक समूची निष्कलुष कविउम्र हमारे सामने है और ज़िन्दगी को बदनाम करने पर ज़ोर देने वाले उनकी उम्रों से निकल कर अब हमारी उम्रों में दाखिल हो रहे हैं…लेकिन जब तक हर तरह के अंधेरों के पार रोशनी की ऐसी कविताएं मौजूद हैं, ज़िन्दगी की चमक भी बनी रहेगी.
9.
हम सभी कहीं न कहीं अपने आसपास चल रहे धार्मिक कर्मकांडों से परेशान रहते हैं. घरों के भीतर स्त्रियों द्वारा की जा रही निर्दोष प्रार्थनाओं से नहीं – उनसे, जो चिंघाड़ कर किए जाते हैं और हमें अपने घरों और जीवन से उठाकर अचानक किसी विकट धार्मिक उन्माद या युद्ध के बीचोंबीच पहुंचा देते हैं. देवी जागरण, अखंड मानसपाठ, मस्जिदों में उलेमाओं की चीख़ती-चिल्लाती तकरीर आदि. कुंवर जी की एक कविता मेरे सामने है – लाउडस्पीकर…
मुहल्ले के कुछ लोग लाउडस्पीकर पर
रात भर
कीर्तन-भजन करते रहे
मुहल्ले के कुत्ते लड़ते-झगड़ते
रात भर
शांति-भंजन करते रहे
मुझे ख़ुशी थी कि लोग भूंक नहीं रहे थे
(कीर्तन तो अच्छी चीज़ है)
और कुत्तों के सामने लाउडस्पीकर नहीं थे
(गो कि भूंकना भी सच्ची चीज़ है)
इस कविता के सामने मेरी अब की उम्र में मुझे दु:ख है कुंवर जी कि अब लोग भूंक रहे हैं और जानता हूं कि कीर्तन को अच्छी चीज़ बताना आपका अपना बयान नहीं, प्रचलित लोकधारणा का उल्लेख भर है. कुत्तों भूंक तब भी सच्ची थी, अब भी सच्ची है – अस्तित्व की लड़ाई लड़ती और अकसर मुहल्ले को आनेवाले ख़तरों से ख़बरदार करती हुई लेकिन लोगों की ये भूंक नई है, लड़ती-झगड़ती हुई…. कीर्तन-भजन अब वही नहीं रह गया है – धार्मिक शक्तिप्रदर्शन में बदल गया है.
10.
संकलन में अलग-अलग स्वर के आधार पर ही शायद तीन खंड किए गए हैं पर मेरी पढ़त में वे आपस में घुलमिल गए हैं. इनमें व्यक्ति,
समाज,
इतिहास,
स्थान और कुछ मात्रा में वह दार्शनिकता भी है,
जिसके लिए कुंवर जी को अकसर रेखांकित किया जाता है. स्थान को कुछ देर के लिए केन्द्र बनाएं तो मुझे याद आ रहा है कि इधर एक मित्र के साथ शहरों पर लिखीं गईं हिंदी कविताओं पर चर्चा हो रही थी और हम पिछले पचास-साठ परस की कविता में अपनी याददाश्त आज़मा रहे थे. हम शहरों में जितना बसते हैं,
उससे ज़्यादा शायद वे हममें बस जाते हैं और जगह बदल जाने पर भी बसे रहते हैं. मेरे सामने ये संग्रह है तो इस ध्यान जाना लाजिमी ही था… मैं देख रहा हूं कि यहां दिल्ली और उसका इतिहास एक रूखे विस्थापन के अहसास में आती है लेकिन लखनऊ अपनी पूरी रंगत और मुहब्बत के साथ आता है. दो पेज की इस पूरी कविता के विस्तार में जाने का लोभ मैं संवरण कर रहा हूं मगर इन दो पंक्तियों का नाज़ुक-सा जिक्र ज़रूरी होगा –
सरशार और मजाज़ का लखनऊ
किसी शौकीन और हाय किसी बेनियाज़ का लखनऊ
11.
इस संग्रह को पढ़ते हुए लगा है कि कुंवर जी के साथ एक चीज़ ख़ास हुई है या की गई है, जिसे मैं, अगर हुई है तो विडम्बना, और की गई है तो विसंगति कहना चाहूंगा – देखें कि किस तरह उनके समूचे कविकर्म को आत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने के झीने महीन आध्यात्मिक लगते आवरण से ढांक दिया गया. बिलकुल हाल में इसके दो प्रमाण मेरी स्मृति में तत्काल मौजूद हैं – एक तो हमारे साथी कवि गीत चतुर्वेदी ने अनुराग वत्स की ब्लागपत्रिका सबद में अपनी टीप में उन्हें ‘मिथिहास से निकला ऋषि’ कहा और दूसरा गीत के ही कविता संग्रह में मौजूद उसकी समीक्षा में अग्रज कवि विष्णु खरे ने लिखा – ब्रह्मांड और धरती के अनन्त वैविध्य को लेकर कुछ अहसास कुंवर नारायण में दिखाई पड़ता है, लेकिन वह रोमांचक, औत्सुक्यपूर्ण, चिंतनशील(स्पेकुलेटिव) या अपनी प्रतिबद्धता में ठोस कम, ‘हिंदू’ आध्यात्मिक अधिक लगता है.
मान्यताएं अपनी-अपनी हो सकती हैं… किसी भी कवि को अपने नज़रिये से देखने का अधिकार सबके पास है लेकिन कवि की मूल ऊर्जा की अवमानना नहीं होनी चाहिए, इतना निवेदन मेरा भी है. इन दोनों किताबों के बाहर जो कुंवर जी की बहुत सारी कविता है, उसे एक चादर से ढांप देना अनुचित होगा. खरे जी का इस्तेमाल किया गया पद ‘हिंदू’ अपनी ऐतिहासिकता में ख़तरनाक हो सकता है और कवि के समूचे कविकर्म के साथ अन्याय भी. अधिक प्रयास नहीं करना होगा ….अगर खरे जी की आपातकाल के दौरान लिखी गई कविताओं और कुंवर जी के संग्रह अपने सामने को आमने-सामने रख कर देख लिया जाए तो बात स्पष्ट हो जाएगी. बहरहाल… मैं यहां तुलनात्मक अध्ययन नहीं, कुंवर जी से संवाद आत्मीय संवाद भर करने बैठा हूं… और जैसा कि किसी भी लेख के साथ होता है, यहां भी एक नियत स्पेस के दायरे में कुछ हद तक अपनी उम्रों में एक आवाजाही और ये संवाद मैंने कर भी लिया है…. लेख छप जाएगा लेकिन यह संवाद अभी जारी रहेगा….कई उम्रों तक, क्योंकि मैंने शुरूआत में ही कहा है कि ये कई उम्रों की कविता है, कई उम्रों तक काम आना है इसे.
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