कुँवर नारायण का कला चिंतन
दिनेश श्रीनेत
‘घर रहेंगे,
हमीं उनमें रह न पाएँगे,
समय होगा,
हम अचानक बीत जाएँगे’.
अगर आप सिनेमा प्रेमी हैं तो यह पंक्ति जाने कितनी खूबसूरत फिल्मों में डिज़ाल्व तकनीकी की मदद से समय बीतने के एहसास को आपके मन में ताजा कर देगी. जिस तरह सिर्फ दो अलग-अलग शॉट्स को खास तरह से जोड़कर सिनेमा समय के बीतने के अहसास को आपके मन-मस्तिष्क में अंकित कर देता है, देखिए इस लगभग एक वाक्य सरीखी कविता पंक्ति में कुँवर नारायण कितने अद्भुत ढंग से ऐसा कर पाते हैं, वह भी शब्दों को थामे हुए, उन शब्दों के पूरे प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए.
1.
कुँवर नारायण की कविताओं का पाठ आसान नहीं है. उनकी कविताओं के पाठ में एक निश्चित ठहराव चाहिए. बहुत जल्दबाजी या बहुत लंबा पॉज; दोनों ही कविता के आस्वादन में खलल सा डालता लगता है. खुद कुँवर नारायण कविता और सिनेमा के रिश्ते को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं,
“ऊपर से देखने पर लग सकता है कि कविता और फ़िल्मों के बीच कोई ख़ास रिश्ता नहीं है. ऐसा नहीं है. दोनों की रचना-विधियों में गहरी और पैनी समानताएँ हैं. मोन्ताज़ या सम्पादन कविता में भी उतना ही निर्णायक महत्त्व रखता है, जितना एक फ़िल्म के निर्माण में. दूसरी बात—बिम्बों और चित्रों की भाषा में भी जीवन को उसी तरह पढ़ा और सोचा जा सकता है, जैसे शब्दों में.”
कुँवर नारायण के कला संबंधी विमर्श के बारे में जब मैंने थोड़ा पढ़ना-समझना आरंभ किया तो यह लगा कि उनको हिंदी के उन कवि-आलोचकों की श्रेणी में नहीं रख सकते, जिन्होंने कविता के अलावा गाहे-बगाहे फिल्म समीक्षा, संगीत या चित्रकला की समीक्षा पर हाथ आजमाया है. उनकी कला दृष्टि इससे आगे तक जाती है. उनकी रचना और कला संबंधी टिप्पणियों में कोई द्वैत नहीं दिखता है. बल्कि जैसे-जैसे आप उनको पढ़ते जाते हैं, उनकी कविताओं और वैचारिक टिप्पणियों के गहरे अंतर्संबंध खुलते चले जाते हैं. इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि कविता के अलावा कुँवर नारायण की रुचि सिनेमा, संगीत, क्लासिकल साहित्य, समकालीन विश्व साहित्य, इतिहास, पुरातत्व और संस्कृति विमर्श में भी रही.
विभिन्न अनुशासनों में इस रुचि ने एक ऐसे विविधता से भरे और समावेशी व्यक्तित्व का निर्माण किया, जो न सिर्फ बहुत सहजता से विभिन्न कला माध्यमों के बीच आवाजाही कर सकता था, बल्कि उनके बीच के अंतर्सबंधों को बड़ी सूक्ष्मता से पकड़ सकता था.
यदि हम कुँवर नारायण के कला चिंतन पर बात करना चाहें तो इसे स्थापित करने के लिए हमें कला पर उनका कोई स्वतंत्र या सैद्धांतिक विमर्श नहीं मिलता है. इसके लिए हमें रिसालों में छपी उनकी फुटकर टिप्पणियों, उनके कुछ आलेखों और उनके साक्षात्कारों का ही सहारा लेना पड़ता है. लेकिन यही हम थोड़ा और गहरे उतरते हैं तो डॉट्स कनेक्ट होने लगते हैं. उनकी कविताओं का शिल्प, संगीत के प्रति उनका गहरा अनुराग, सिनेमा का एक गंभीर दर्शक होना- यह सब मिलकर उनकी कला संबंधी सोच को एक स्वरूप देते हैं. उस सोच की अपनी एक दिशा और उसका अपना एक स्वरूप है. उनको पढ़ते हुए यह स्पष्ट होने लगता है कि उनका कला विमर्श अलग न होकर उनकी रचनात्मकता में बहुत गहरे तक घुला-मिला है. यह कला संबंधी दृष्टिकोण उसी तरह से उनकी रचनात्मकता में मौजूद है, जैसे पेड़ की जड़ों में पानी मौजूद होता है.
बात सिनेमा से शुरु हुई थी तो उनके सिनेमा और नाटकों से प्रेम पर कुछ देर ठहरते हैं. शायद सिनेमा में तमाम कलाओं का समावेश उन्हें ज्यादा भाता होगा. उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि फ़िल्मों का शिल्प उन्हें बहुत आकृष्ट करता है. वे फ़िल्मों को एक लंबी कविता की तरह देखते-पढ़ते और अर्थ देते हैं. उन्हें ऐसी फ़िल्में ज़्यादा पसंद आती हैं जिनकी संवेदना और बनावट में कविता की लय और सांकेतिकता हो. यही वजह है कि सत्यजीत रे, क्रिस्तॉफ क्लिस्वोव्स्की, इग्मार बर्गमैन, तारकोव्स्की, आंद्रेई वाज्दा उनके प्रिय फ़िल्मकारों में से एक थे. अपने आलेख ‘साहित्य और सिनेमा : कुछ विचार बिन्दु’ में वे लिखते हैं,
“तारकोव्स्की की फ़िल्में सेल्युलाइड पर लिखी कविताओं की तरह हैं-आत्मसजग और चिन्तनशील, तथा एक सन्त की-सी सादगी को ओढ़े हुए . बाहरी आडम्बर न्यूनतम.”
तारकोवस्की पर एक और टिप्पणी है,
“उनको मैं फ़िल्मों का कवि मानता हूँ. हम शब्द इस्तेमाल करते हैं, वो बिम्ब इस्तेमाल करते हैं, लेकिन दोनों रचना करते हैं.” 1
कविता और सिनेमा की रचना प्रक्रिया पर उन्होंने कई बार विस्तार से अपनी बात कही है. वे लिखते हैं.
“जिस तरह फ़िल्मों में रशेज इकट्ठा किए जाते हैं और बाद में उन्हें संपादित किया जाता है, उसी तरह कविता रची जाती है. फ़िल्म की रचना-प्रक्रिया और कविता की रचना-प्रक्रिया में साम्य है. आर्सन वेल्स ने भी कहा है कि कविता फ़िल्म की तरह है. मैं कविता कभी भी एक नैरेटिव की तरह नहीं बल्कि टुकड़ों में लिखता हूँ. ग्रीस के मशहूर फ़िल्मकार लुई सड़क पर घूमकर पहले शूटिंग करते थे और उसके बाद कथानक बनाते थे.”
वे आगे एक जगह कहते हैं,
“कला, फ़िल्म, संगीत ये सभी मिलकर एक संस्कृति, मानव संस्कृति की रचना करती है लेकिन हरेक की अपनी जगह है, जहाँ से वह दूसरी कलाओं से संवाद स्थापित करे. साहित्य का भी अपना एक कोना है, जहाँ उसकी पहचान सुदृढ़ रहनी चाहिए. उसे जब दूसरी कलाओं या राजनीति में हम मिला देते हैं तो हम उसके साथ न्याय नहीं करते.”2
इसलिए कुँवर जी की सिनेमा से संबंधित ज्यादातर टिप्पणियाँ पढ़ना इसलिए सुखद है क्योंकि उसमें बराबर साहित्य के संदर्भ मिलते रहते हैं. विष्णु खरे जो खुद हिंदी के बेहतरीन फिल्म आलोचक रहे, उनके बारे में कहते हैं,
“सच तो यह है कि मितलेखी होने के बावजूद कुँवर नारायण जैसा सिने-आलोचक किसी भारतीय भाषा में नहीं है.”
उनकी किताब ‘लेखक का सिनेमा’ पर चर्चा करते हुए विष्णु खरे कहते हैं,
“कुँवर नारायण का फिल्म-लेखन यह सिद्ध करता है कि सिनेमा अत्यंत गहरे अर्थों में एक कला है, जिसका समूचा संबंध सभी के सारे जीवन से है. वह फिल्म को एक ‘संपूर्ण कला’ मानते हैं और उसे साहित्य से जोड़ कर देखते हैं. इसलिए जब वह एक फिल्मोत्सव देखते हैं तो रेखांकित करते हैं कि वह एक साहित्यिक की दृष्टि से देखा गया है. लेकिन लेखक की यह निगाह तटस्थ या उदासीन नहीं है. उनका सिनेमा देखने का तरीका सुविधाजनक विचारधाराओं से ऊपर उठता हुआ एक सार्वलौकिक प्रतिबद्धता की मांग करता है.” 3
सत्यजीत रे पर किसी भी भारतीय फिल्म निर्देशक के मुकाबले उन्होंने सबसे ज्यादा लिखा है. खास तौर पर प्रेमचंद की रचनाओं पर आधारित फिल्मों पर उन्होंने विस्तार से लिखा है, इन आलेखों में साहित्य और सिनेमा के अंतर्सबंधों पर उन्होंने बहुत बारीकी से बात की है, उदाहरण के लिए अपने लेख प्रेमचंद और सत्यजीत राय में वे लिखते हैं,
“शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म को देखते हुए वह ख़ास तरह का रचनात्मक टेंशन बराबर महसूस होता है, जो दो भिन्न प्रकार के कला-माध्यमों की टकराहट से उत्पन्न लगता है, उनके आदर्श समझौते से नहीं. इसके बरक्स ‘सद्गति’ फ़िल्म ज़्यादा समतल गति से आगे बढ़ती है और उसमें प्रेमचन्द मानो ज़्यादा सुरक्षित, इसलिए ज़्यादा आश्वस्त, लगते हैं. ‘सद्गति’ में सत्यजित राय, प्रेमचन्द के साथ-साथ चलते हैं, जबकि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में उनसे थोड़ा अलग हटकर भी.”4
2.
अन्य साहित्येत्तर विधाओं के मुकाबले कुँवर नारायण ने सिनेमा पर सबसे ज्यादा लिखा है फिर उसके बाद संगीत उनकी रुचि का विषय लगता है, मगर चित्रकला से वैसा स्पष्ट रिश्ता नहीं दिखता जैसा सिनेमा और संगीत के साथ है. बावजूद इसके चित्रकला की समझ उनमें गहरी है. इसका श्रेय उनके विश्व कविता के अध्ययन को जाता है. वे एक साक्षात्कार में बताते हैं,
“पाठ्यक्रम में शेक्सपीयर और अंगरेजी के रोमांटिक कवियों के अलावा मैंने टीएस इलियट तथा आधुनिक कविता को विशेष अध्ययन के लिए चुना. इसी समय यूरोप के प्रतीकवादी कवि बॉद्लेयर, मलार्मे, रैंबो, वर्लै, वलेरी तथा सुर्रियलिस्ट (अतियथार्थवादी) कविओं को भी पढ़ता रहता था. इनसे बहुत कुछ सीखने को मिला. प्रतीकवाद और सुर्रियलिज्म का सम्मान करता हूँ. कविता की आधुनिकता पर इनका स्थायी प्रभाव रहा है.”5
पश्चिम के कला आंदोलनों का असर चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य पर एक साथ पड़ा है, लिहाजा एक का अध्ययन दूसरी विधा के लिए दरवाजे खोल देता है. चित्रकला के संदर्भ उनकी कविताओं में बहुत गहरे हैं. खास तौर पर उनकी दो कविताएँ ऐसी हैं जो सीधे चित्रकला से जुड़ी हुई हैं. पहली है, ‘उदासी के रंग’. इस छोटी सी कविता का आरंभ ही बड़ा रोचक है,
उदासी भी
एक पक्का रंग है जीवन का
उदासी के भी तमाम रंग होते हैं
जैसे
फ़क्कड़ जोगिया
पतझरी भूरा
फीका मटमैला
आसमानी नीला
वीरान हरा
बर्फ़ीला सफ़ेद
बुझता लाल
बीमार पीला
यहाँ वे हर एक रंग की प्रचलित छवि को ध्वस्त करते चलते हैं. अगले हिस्से में कविता खत्म होती है इन पंक्तियों के साथ –
कभी-कभी धोखा होता
उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त
कि कहीं वे
किन्हीं उदासियों से ही
छीने हुए रंग तो नहीं हैं ?
अपनी एक अन्य कविता, ‘एक चीनी कवि-मित्र द्वारा बनाए अपने एक रेखाचित्र को सोचते हुए’ में वे रंगो की जगह रेखाओं की बात करते हैं. वे लिखते हैं, ‘रेखाओं में एक कौतुक है / जिससे एक काग़ज़ी व्योम खेल रहा है’.
अब यदि इन दो कविताओं के बरअक्स यदि शमशेर बहादुर सिंह की कुछ कविताओं को रखें तो पाएँगे कि कुँवर नारायण की कविताओं में चित्रकला दरअसल एक विचार रूप में आती है न कि बिंब की तरह. जबकि शमशेर शब्दों के माध्यम से किसी इंप्रेशनिस्ट ऑर्टिस्ट की तरह पेंटिंग बनाने का प्रयास करते हैं. मुक्तिबोध कहते हैं,
“शमशेर की मूलवृत्ति एक इंप्रेशनिस्ट चित्रकार की है. इंप्रेशनिस्ट चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा जो उसके संवेदना-ज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण, अतः प्रगाढ़, प्रभावपूर्ण अंग हैं. केवल कुछ ही ब्रेशेज में वह अपना काम करके दृश्य के शेष अंशों को दर्शक की कल्पना के भरोसे छोड़ देता है. दूसरे शब्दों में, इंप्रेशनिस्ट चित्रकार दृश्य के सर्वाधिक संवेदनाघात करने वाले अंशों को प्रस्तुत करेगा और वह मानकर चलेगा कि यदि वह संवेदनाघात दर्शक के हृदय में पहुँच गया तो दर्शक अचित्रित शेष अंशों को अपनी सृजनशील कल्पना द्वारा भर लेगा.” 6
‘एक नीला आइना बेठोस’, उषा, ‘एक पीली शाम’, ‘सींग और नाखून’, ‘शिला का खून पीती थी’ आदि कविताएँ बिंबों का एक अलग संसार रचती हैं जो चित्रकला के बेहद करीब है.दूसरी ओर कुँवर नारायण की काव्य भाषा भी चित्रात्मक कम है, उसमें शब्दों ध्वनि और कहे-अनकहे अर्थ की गूंज ज्यादा है. वे वैचारिकता और शब्दों के जरिए जीवन की गति को पकड़ने वाले कवि हैं. उनकी कविता को समझने के लिए त्रिलोचन की ये पंक्तियाँ काफी हैं, जहाँ वे कहते हैं, ‘भाषा की लहरों में जीवन की हलचल है / ध्वनि में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है’.
यही वजह है कि सीरज सक्सेना की तस्वीरों के साथ उनकी पंक्तियों को जब हम देखते हैं तो दोनों ही एक-दूसरे के पूरक लगते हैं. सीरज सक्सेना ने अपने चित्रों के माध्यम से बीते कुछेक सालों में उनकी कविताओं के साथ जो प्रयोग किए हैं, उसे हिंदी में एक उल्लेखनीय काम की तरह देखा जाना चाहिए. सीरज अपनी कला में एक प्राकृतिक अनगढ़पन बनाए रखते हैं, जो उन कलाकृतियों को प्रकृति में मनुष्य के बुनियादी हस्तक्षेप की ओर ले जाता है. उनके स्ट्रोक्स, रेखाएँ और बिंदु जब किसी भी कैनवस या सिरेमिक पर आते हैं तो अपने साथ के स्पेस को बराबर जगह देते हैं. कुँवर नारायण की कविताएँ भी कहे के साथ-साथ अनकहे को पर्याप्त स्पेस देती हैं. यही वजह है कि जब किसी सतह पर शब्द और रंग-रेखाओं की जुगलबंदी होती है तो वह सिर्फ पुनर्प्रस्तुति न होकर एक नए कलात्मक अनुभव में बदल जाता है.
“कभी-कभी एक फूल के खिलते ही उस पर मुग्ध हो जाता है पूरा जंगल” या फिर “उसी ओर से उगेगा सूर्य, आशा से देखते हैं जिधर, वृक्षों के शिखर” या “कोई दुःख, मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, वही हारा, जो लड़ा नहीं” जैसी यादगार पंक्तियाँ सीरज के ब्रश के स्पर्श के साथ और खुलती चली जाती हैं.
3.
अपने आलेखों और साक्षात्कारों में कुँवर जी भारतीय शास्त्रीय संगीत में अपनी गहरी रुचि का बराबर ज़िक्र रहते हैं. इस ज़िक़्र में पंडित जसराज, उस्ताद अमीर खाँ साहब, संयुक्ता पाणिग्रही जैसे शास्त्रीय गायकों का बार-बार नाम आता है. शास्त्रीय संगीत के प्रति अपनी दिलचस्पी का ज़िक्र करते हुए वे बताते हैं,
“मुख्य रूप से संगीत में मुझे ख़याल और ध्रुपद पसन्द हैं. ध्रुपद गायकी अभी इधर हाल में फिर से सामने आई है. बीच में तो बिल्कुल बैकग्राउंड में चली गई थी लेकिन अब डागर बन्धुओं की वजह से और बिहार की मलिक फ़ैमिली, सीताराम जी ने काफ़ी काम किया है.”
आगे कहते हैं,
“ख़याल गायकी में कुछ लोगों ने जैसे फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब ने धमार का पुट दिया तो मुझे ये प्रयोग अच्छे लगते हैं. आजकल गुंदेचा बन्धु बहुत अच्छा ध्रुपद गा रहे हैं. ख़याल गायकी तो खैर इस्टैब्लिश्ड गायकी है ही. इसमें मुझे इन्दौर घराने के अमीर ख़ाँ साहब बहुत पसन्द हैं. आजकल एक गायिका हैं जिनका नाम नहीं लेते लोग- मालिनी राजुरकर, लेकिन मैं समझता हूँ इतनी शुद्ध गायकी हमको कम सुनने को मिली है. आप ध्यान से कभी मालिनी जी को सुनिए, बहुत ही सुन्दर गायिका हैं. और नए लोगों में अश्विनी भिडे बहुत अच्छा गा रही हैं. जसराज जी तो खैर प्रिय गायकों में से हैं. निसार हुसैन ख़ाँ साहब मुझे बहुत पसन्द थे. इनके जैसा तराना गाने वाला-वो या अमीर ख़ाँ साहब. फ़ैयाज़ ख़ाँ साहब बहुत पसन्द हैं मुझे मगर उनके बाद उनका घराना, आगरा घराना, कुछ कमज़ोर पड़ गया.”7
गौर करें तो भारतीय शास्त्रीय संगीत के जरिए अज्ञेय और उनके बाद की एक पूरी पीढ़ी में अमूर्तन के प्रति खासा रुझान दिखता है. इसमें सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे और कुँवर नारायण का नाम लिया जा सकता है. कुँवर नारायण की पारिवारिक पृष्ठभूमि और लखनऊ शहर के परिवेश की भी इसमें अहम भूमिका है. घर में अक्सर होने वाली संगीत की बैठकी ने उनको संगीत का रसज्ञ बना दिया. वे एक इंटरव्यू में बताते हैं,
“हमारे घर जो संगीत की सभाएँ होती थीं. उनमें मित्रों की सहभागिता की भी एक खास जगह बनती थी; केवल स्मृति के अर्थों में ही नहीं, आमने-सामने की निकटता के अर्थों में भी. संगीत का आनंद या किसी कला का आनंद अकेले भी लिया जा सकता है. लेकिन जानकारों और घनिष्ठों के समूह में बैठकर सुनना उसके उत्सवी पक्ष को बढ़ाता है. घर की बैठकों में एक शाम एक ही गायकी होती थी, और उसके श्रोताओं के साथ जो एक निकटता सहज ही बन जाती थी, वह बड़ी संगीत सभाओं में दुर्लभ है.”8
संगीत के प्रति अपनी समझ को लेकर वे सदैव विनम्र ही रहे. खुद को संगीत का अच्छा श्रोता ही मानते थे. कहते थे,
“संगीत का रसज्ञ जरूर हूँ, पर उसका विशेषज्ञ, पंडित या मर्मज्ञ जानकार नहीं हूँ जो भी कह रहा हूँ उसे बिल्कुल मेरी निजी अभिरुचि माना जाए.”9
लेकिन सच्चाई यह है कि संगीत उनके काव्यात्मक सौंदर्यबोध में गहरे तक रचा-बसा है. यहाँ पर मैं उदाहरण के तौर पर उनकी एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो अब तक पूरी बातचीत के मूल विचार तक ले जाती है, यानी कि कुँवर नारायण के कला चिंतन तक. कविता है, ‘राग भटियाली’, छोटी सी कविता है –
एक राग है भटियाली
बाउल संगीत से जुड़ा हुआ
अंतिम स्वर को खुला छोड़ दिया जाता है
वायुमंडल में लहराता हुआ
जैसे संपूर्ण जीवन राग से युक्त हुई एक ध्वनि
अनंत में विलीन हो गई…
वह शेष स्वरों को बाँधता नहीं
इसलिए अंत में भी
उनसे बँधता नहीं,
अंतिम आह जैसा कुछ
एक अज़ीब तरह की मुक्ति का
एहसास देता है वह…
अब यह राग भटियाली असल में कोई शास्त्रीय राग नहीं बल्कि लोक संगीत का एक रूप है, खुद कुँवर नारायण राग भटियाली के बारे में एक साक्षात्कार में कहा है,
“जो राग तुमको बहुत अक्लासिक लगते हैं… जैसे भटियाली, जिस पर पूरा बाउल संगीत आधारित है, इसको पूरा फ़ोक लेवल पर भी गा सकते हैं और शास्त्रीय ढंग से भी. ये रिफाइंड लोक संगीत भी है.”10
यह लोक संगीत बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में गाया जाता है. एक नदी गीत, जिसे नाविक विस्तार में फैली नदी की धाराओं से गुजरते हुए गाते हैं. भटियाली शब्द भाटा से आया है, जिसका अर्थ है बहाव. यह मुख्य रूप से बंगाल डेल्टा के कई भागों में गाया जाता है. ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे स्थित मैमनसिंह जिला या बांग्लादेश के भाटी क्षेत्र को इसका मूल स्थान बताया है. यह बंगाल के बाउल संगीत के करीब है. ‘बाउल’ यानी ‘बाउरी’ अर्थात् बावरा, जो दुनिया के बनाए खांचों में न समाता हो. जो दुनियावी सोच से अलग हो. जो इस प्रकृति में दृश्य में ही अदृश्य की खोज कर लेता हो. जो संसार के मूर्त रूप में अमूर्त को पहचान लेता हो. जो इस भौतिक जगत में उस स्पेस की पहचान कर लेता हो, जिसका जिक्र मैंने सीरज की पेंटिंग और कुँवर नारायण की कविता के संदर्भ में किया था. और इस पंक्ति पर ठहरें –
अंतिम स्वर को खुला छोड़ दिया जाता है
वायु मण्डल में लहराता हुआ
जैसे सम्पूर्ण जीवन राग से युक्त हुई एक ध्वनि
अनंत में विलीन हो गई.
भटियाली गायकी में तान इतनी ऊंची उठती है कि जैसे लगता है कि नदी का वितान, उसकी कल-कल, सारा आकाश और पंक्षियों का कलरव या समस्त सृष्टि उस तान में समाहित होती जा रही है. जैसे जीवन अंततः इस सृष्टि में विलीन हो जाता है.
कुँवर नारायण का समस्त कला चिंतन सौंदर्य से सत्य और सत्य से विवेक तक का सफर है.
4.
आनंद कुमारस्वामी जब भारतीय की कला सिद्धांत की बात करते हैं तो वे उसे क्रोचे द्वारा परिभाषित आधुनिक सौंदर्यशास्त्र की स्वीकृत अवधारणाओं से भिन्न मानते हैं. ‘सौंदर्यशास्त्र’ शब्द ग्रीक शब्द ‘aisthesis’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है संवेदना या संवेदना का बोध. कुमारस्वामी का मानना था कि यदि इस शब्द की परिभाषा को केवल हमारी संवेदनात्मक प्रतिक्रिया के तक सीमित कर दिया जाए तो हम गलत अर्थ तक पहुँचेंगे. कुमारस्वामी के लिए कला बुद्धि से जुड़ी है, यानी manifestation of rational thought है. वह केवल ‘सौंदर्य की सतह’ नहीं हैं, बल्कि किसी गहरे सत्य को पाने का माध्यम है.
अपनी बात को उनकी ही एक कविता की पंक्ति से समाप्त करता हूँ,
भूल जाना मेरे बच्चे कि ख़ुसरो दरबारी था.
वह एक ख़्वाब था—
जो कभी संगीत
कभी कविता
कभी भाषा
कभी दर्शन से बनता था
वह एक नृशंस युग की सबसे जटिल पहेली था
जिसे सात बादशाहों ने बूझने की कोशिश की!
ख़ुसरो एक रहस्य था
जो एक गीत गुनगुनाते हुए.
इतिहास की एक बहुत कठिन डगर से गुज़र गया था.
तो कलाएँ हमेशा इतिहास की कठिन डगर से न सिर्फ गुजरती हैं बल्कि हमारा हाथ थामें उन कठिन रास्तों को पार भी कराती हैं.
संदर्भ
१. साहित्य और सिनेमा कुछ विचार बिंदु, कुँवर नारायण, लेखक का सिनेमा, राजकमल प्रकाशन
२.कुँवर नारायण फिल्म की तरह टुकड़ों में लिखते हैं कविता, जय प्रकाश जय, योर स्टोरी हिंदी (सितंबर 2017)
३.सिने-समालोचक और कवि कुँवर नारायण के लौटने की आशा, विष्णु खरे, नवभारत टाइम्स (अगस्त 2017)
४.प्रेमचंद और सत्यजीत राय, कुँवर नारायण, लेखक का सिनेमा, राजकमल प्रकाशन
५.कल्पना भी जीवन की भाषा है, जिये हुए से ज्यादा : कुँवर नारायण के साथ संवाद, राजकमल प्रकाशन
६.शमशेर मेरी दृष्टि में, मुक्तिबोध, शमशेर
७.विचार भी एक अनुभव है, जिये हुए से ज्यादा : कुँवर नारायण के साथ संवाद, राजकमल प्रकाशन
८.कौन अपना? कौन पराया?, जिये हुए से ज्यादा : कुँवर नारायण के साथ संवाद, राजकमल प्रकाशन
९.वही
१०.मैकदा तंग बना लूँ मुझे मंज़ूर नहीं, जिये हुए से ज्यादा : कुँवर नारायण के साथ संवाद, राजकमल प्रकाशन
बीते दो दशक से भी ज्यादा समय से दिनेश श्रीनेत स्वतंत्र रूप से सिनेमा, दृश्य माध्यमों तथा लोकप्रिय संस्कृति पर लिखते रहे हैं. वाणी प्रकाशन से उनकी पुस्तक ‘पश्चिम और सिनेमा’ कई विश्वविद्यालयों में सहायक अध्ययन सामग्री के रूप में अनुमोदित है. दिल्ली विश्वविद्यालय, बीएचयू, एमिटी यूनिवर्सिटी, अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा समेत कई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में सिनेमा और दृश्य विधाओं पर व्याख्यान. पेशे से पत्रकार दिनेश कथाकार भी हैं और उनकी कहानी ‘विज्ञापन वाली लड़की’ उर्दू समेत विभिन्न भाषाओं में अनुदित होकर भारत व पाकिस्तान में चर्चित हो चुकी है। सिनेमा गीतों पर संस्मरणात्मक पुस्तक ‘नींद कम ख़्वाब ज़्यादा’ तथा कथेतर गद्य का संचयन ‘शेल्फ में फ़रिश्ते’ 2023 में प्रकाशित. वे इस समय इकनॉमिक टाइम्स ऑनलाइन के भारतीय भाषा संस्करणों के प्रभारी हैं. dinesh.shrinet@gmail.com |
Nicely described
कुँवर नारायण जी की कविताओं और सीरज के शिल्प से सजा यह अंक समालोचन की विरल सौगात है।