कुँवर नारायण कुमारजीव, स्मृति और संवाद रेखा सेठी |
स्मृति
आज, हिंदी के प्रतिष्ठित कवि कुँवर नारायण जी की वर्षगाँठ है. 19 सितंबर 1927 को फैज़ाबाद में जन्मे कुँवर नारायण आज हमारे बीच होते तो 93 वर्ष के होते. 2017 में उनके भौतिक जीवन का अवसान हुआ. जीवन के 90 वसंत देखने का सौभाग्य उन्हें मिला. निश्चित जीवन काल की उपलब्धि के समानांतर, साहित्य में जो आयु उन्हें मिली है वह इससे कहीं बड़ी है. साहित्य की दुनिया में उनकी उपस्थिति सदा बनी रहेगी. वे अपनी रचनाओं के लिए तो याद आएंगे ही, अपनी जीवन दृष्टि के लिए भी सदा याद किए जाएंगे.
एक कवि को उसकी कविताओं के ज़रिये जानने और असल ज़िंदगी में जानने के बीच फ़र्क होता है पर कुँवर जी से मिलकर मैंने महसूस किया कि इनके यहाँ दोनों बातों में अद्वैत की स्थिति हैI उनकी रचनाओं के शब्द–शब्द में झलकती पारदर्शिता, उनके कवित्व और व्यक्तित्व दोनों का हिस्सा है. उनसे मिलने के बाद ही जाना कि साहित्य और साहित्यकार के बीच पारदर्शी घनिष्ठता भी हो सकती है. कुँवर जी जैसा सोचते थे और जैसा अपने साहित्य में अभिव्यक्त करते थे, निजी जीवन में भी वे बिल्कुल वैसे ही थे. उन्होंने अपने आपको जीवन की छोटी बड़ी विसंगतियों से अलग कर, आकाश के शून्य-सा विस्तृत तथा सागर के समान गहरा मानसिक क्षितिज बुन लिया था जो लघुता में महानता के अनुभव की तरह आसपास की क्षुद्रताओं को अपने होने मात्र से ही खंडित करता रहता.
कवि की यह अर्जित आत्म-चेतना कुँवर नारायण के व्यक्तित्व और साहित्य में साथ-साथ जगह पाती है. एक तरह से कहूँ तो जो भी उनके करीब जाता उसे यह अवसर अवश्य मिलता कि वह अपने जीवन को फिर से पहचान पाए और अपनी क्षुद्रताओं को भीतर की विराटता में घुलने दे. आज की स्वार्थी दुनिया में यह स्वयं को जानने समझने और बदलने की प्रक्रिया है.
उनके पास जाते ही एक अधीर समय में धैर्य जगने लगता है…गंभीरता और रागात्मकता का अतुलनीय समभाव. ‘आत्मजयी’ में कवि ने नचिकेता को सवाल पूछने और अपने जवाब खुद ढूँढने की जगह दी है. उसी तरह उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति सवाल पूछने और अपने उत्तर खुद ढूँढने का साहस कर सकता था. जिस तरह उनके लिए कविता मानवीयता का पर्याय है, उसी तरह जीवन भी मनुष्यत्व के परिष्कार की साधना, जिसमें बर्बर महत्वाकांक्षाएँ नहीं, विनम्र अभिलाषाएँ हैं. वे अपने पास आने वाले सभी की बातों में दिलचस्पी लेते, दूसरों को उत्सुकतापूर्ण जिज्ञासा से सुनते. उनके व्यक्तित्व की बहुत-सी छोटी-बड़ी बातें मुझ जैसे मिलने वालों को स्नेह से आश्वस्त करती थीं लेकिन उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण था यह पहचानना कि ज्ञान, गुरुत्व के दंभ को कैसे क्षीण कर देता है. मनुष्यत्व का परिष्कार संबंधों की इस रागात्मकता व अनुभव के विस्तार में क्षण-क्षण घटित होता.
2014 के आस-पास जब मैं उनसे मिली, आँखों से दुनिया देखने की दृष्टि धुंधली हो चुकी थी लेकिन दुनिया के पार देखने और व्यक्ति के भीतर झाँकने की दृष्टि पूरी तरह रोशन थी. उनके पास बैठे हुए इस रोशनी का अहसास बना रहता. इसीलिए कुँवर जी से हर बार मिलने के बाद कुछ समृद्ध-सा महसूस होता जैसे अपना कद, एक उंगल बढ़ गया हो. इसी समय अपनी अंतर्दृष्टि के सहारे वे अपने खंडकाव्य ‘कुमारजीव’ की रचना कर रहे थे. कुँवर जी कहा करते थे कि किसी भी स्थिति से टकराने से बेहतर है उसे बदलने की कोशिश और उनके लिए बदलने की शुरुआत हमेशा स्वयं को बदलने से होती थी. यह बात उनकी कविता के लिए भी उतनी ही सच थी जितनी उनके जीवन के लिए. जब भी कोई ऐसा प्रसंग आता कुँवर जी अपनी चीन से रूस तक की यात्रा तथा यूरोप की यात्राओं के विषय में अवश्य बताते और यह बताने से भी नहीं चूकते थे कैसे यात्राएँ आपको भीतर से बदल देती हैं.
कभी-कभी उनसे राजनीतिक परिस्थितियों पर भी बात होती. लोकतंत्र, नागरिकता, प्रशासन, सत्ता, संघर्ष- ये सब उनकी चिंता के विषय थे लेकिन उनकी कोई भी बात, कभी भी आक्रोश की सामयिक शब्दावली से निर्दिष्ट नहीं थी, उनकी चिंताएँ समानांतर संरचनाओं के निर्माण की थीं. अचानक बात करते-करते वे कुछ और सोचने लगते फिर इतिहास से उदाहरण देकर बताते कि ऐसे समय में ऐसा हुआ था. उनकी दृष्टि में साहित्य, संस्कृति और भाषा ने हर बार सत्ता की निरंकुशता को चुनौती दी है. यदि कोई विकल्प संभव है तो साहित्य और कलाओं के माध्यम से ही संभव हो सकता है. कुँवर जी के विश्वास की यह दृढ़ता हैरान करती थी. यूँ तो उनकी कविताओं में द्वंद्व की खासी जगह है लेकिन उनके व्यक्तित्व में दुविधा और शंका कम दिखाई पड़ते.
वर्तमान, अतीत और भविष्य के बीच आवाजाही करते हुए कुँवर जी समय के महत्व को समझाते, जिसे उन्होंने लिखा भी है. वे समय की अवधारणा को किसी क्षण पर अवरुद्ध करने की अपेक्षा, उसे काल की अनवरत धारा में, अपनी स्मृतियों और परंपराओं में पहचानने की कोशिश करते. जब भी वे इन विषयों पर बात करते तो उनके चेहरे का भाव और आँखों की गहराई देखते ही बनती. इस लोक में होकर भी कहीं बहुत दूर से बोलते हुए दिखाई पड़ते और फिर भी अपने इतने करीब…
प्रबंधकाव्यों की त्रयी में ‘कुमारजीव’ विलक्षण काव्य है. यह अजब संयोग था कि ‘कुमारजीव’ का प्रकाशन 2015 में हुआ और इसी वर्ष ‘आत्मजयी’ को 50 वर्ष पूरे हुए. जिस आत्म का संधान ‘आत्मजयी’ के नचिकेता से शुरू होता है वह ‘कुमारजीव’ में भी उपस्थित है जिसे बाहर से अधिक भीतर तलाशना और सँजोना होता है-
हमारी आँखें लपकती हैं
दूर चमकते तारों के लिए
पर देख नहीं पातीं
कि तारों और अंधेरों का
पूरा चिदाकाश तो हमारे अन्दर ही है
‘वाजश्रवा’ और ‘नचिकेता’ जहाँ औपनिषदिक पात्र हैं वहीं ‘कुमारजीव’ की उपस्थिति ऐतिहासिक है. ईसा की चौथी शताब्दी में उन्होंने बौद्ध-ग्रंथों का चीनी भाषा में जो अनुवाद किया, उसके माध्यम से तथागत को अपने भीतर अर्जित कर पूरे एशिया में प्रसारित किया. कुँवर जी की दृष्टि में यह न केवल कविता और भाषा के क्षेत्र में एक कमाल था बल्कि विद्वता के क्षेत्र में भी एक कमाल ही है. कुँवर नारायण ज्ञान के मुक्त आदान-प्रदान एवं संस्कृति के बहुलतावाद को जिस तरह प्रश्रय देते रहे हैं, कुमारजीव उसी सबका प्रतीक पुरुष है. कई भाषाओँ के बीच एक साथ जीते, संवाद करते हुए कुमारजीव संसार को एक नयी संवेदनशीलता से पहचानता है. उसका नयापन भौतिक जगत का नहीं दृष्टि और अनुभव का है.
कूछा, कश्मीर, काश्गर, ल्यांगचओ, छांग-आन से गुज़रती कुमारजीव की जीवन-यात्रा अनेक विडम्बनाओं की साक्षी है. वह उस बुद्धिजीवी का प्रतिनिधि है राज-सत्ताएँ जिसके ज्ञान पर अधिकार चाहती हैं. उसकी विद्वता एवं प्रतिष्ठा ही उसके लिए संकट बन जाती है. अनेक राजनीतिक हलचलों के बीच लवी-कुआंग द्वारा कुमारजीव को ल्यांगचओ राज्य में बंदी-जीवन जीने को बाध्य किया जाता है. यह विषम परिस्थिति उसके लिए परीक्षा भी है, चुनौती भी किन्तु राजसी अहंकार व आक्रामकता के पट-चित्र पर वह जो कथा लिखता है उसमें शुभ एवं शिव की आकांक्षा मद्धिम नहीं होने पाती. अपने उस कक्ष को वह पुस्तकों-ग्रंथों से पाट देता है. उसका सारा समय चिंतन, मनन, अध्ययन में बीतने लगता है. कुँवर नारायण लिखते हैं –
“ज़रूर वह मुश्किल वक्त रहा होगा पर निश्चय ही यह वक्त बेकार नहीं गया. शायद यहीं हम आदमी की संकल्प-शक्ति और पुरुषार्थ की उस महत्ता को पहचान सकते हैं जो उसके प्रारब्ध को बदल सकती है.”
कुमारजीव की यात्रा बाहर से भीतर मुड़ जाती है. उसने अपने ‘स्व’ को देश-काल की सीमाओं से मुक्त कर एक उन्मुक्त असीम में लय कर लिया. उसका असीम विचार, कल्पना, भाषा, साहित्य, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान का वह अद्वितीय लोक बन गया जिसने उसके अंतरतम के अँधेरे को उजास से आलोकित किया-
पत्थर की दीवारों से
लड़ने के बजाय
उन दीवारों को
पारदर्शी और दूरदर्शी बना लिया था
इस दृष्टि से, ‘कुमारजीव’ मुख्यतः ज्ञान द्वारा संभव मुक्ति के अनुभव का काव्य है. सत्ता और उसके सम्मुख बुद्धिजीवी की स्थिति के बनते-बिगड़ते समीकरण यहाँ देखे जा सकते हैं. इस काव्य के कलेवर का बहुत बड़ा भाग इन सन्दर्भों को उठाता है. चिंतन-मनन और अध्ययन से ज्ञान अर्जित करता कुमारजीव देश-काल की सीमाओं से स्वयं को पूर्णत: मुक्त कर लेता है. बुद्ध की ही तरह कुमारजीव विषमताओं के बीच जीवन के उच्चादर्शों का सूत्रधार है, जो इस तरह होने से ही जीवन की नश्वरता को अनश्वर में बदल देता है.
फिर से जिया जा सकता है कुमारजीव को
जैसे उसने जिया था तथागत को
क्योंकि कोई भी बुद्ध या कुमारजीव
कभी भी मरता नहीं
सं वा द
अब प्रस्तुत है कुँवर नारायण जी से उनके काव्य ‘कुमारजीव’ पर हुई एक छोटी-सी बातचीत. इसे मैंने उनके घर पर अपने फोन पर ही रिकार्ड किया था. संभवत: यह उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार है. वे रुक-रुककर सोचते हुए उत्तर दे रहे थे. मेरे लिए उन्हें लाइव रिकार्ड करने का अनुभव रोमांचक था. उन्हें भरोसा नहीं था कि रिकार्ड हो पाएगा. मेरा पूरा ध्यान उनकी तस्वीर और आवाज़ पर था. सोचा था कि बाद में अपने प्रश्न अलग से रिकार्ड कर एडिट कर जोड़ लूँगी लेकिन फिर वह हो नहीं पाया. आज उनके साथ उस समय की तस्वीर देखते हुए वह दोपहर मेरी आँखों में और भी जीवंत हो गई. यह संवाद उनकी स्मृति में सादर समर्पित है…
रेखा सेठी
नमस्कार कुँवर जी. अपने काव्य ‘कुमारजीव’ के विषय में कुछ बताइए.
कुँवर नारायण
‘कुमारजीव’ मेरी इधर की बिलकुल नई कृति है जो अभी प्रकाशित हुई है. बहुत समय से मैं उस पर काम करता रहा हूँ, उसके बारे में पढ़ता रहा हूँ. कुमारजीव का चरित्र मुझे कई कारणों से आकृष्ट करता रहा. कुमारजीव जिस रूप में है, आपके सामने उसका पाठ कई तरह से किया जा सकता है. मसलन कुछ संकेत देता हूँ, जैसे मैंने उसके समय की समस्या को लेकर थोड़ी-सी बात की है. एक बड़ा लेखक, कवि, विचारक एक समय में नहीं रहता, दो समयों में रह्ता है. एक तो उसका भौतिक समय होता है जिसमें उसका दैनिक जीवन बीतता है, जो नष्ट धर्मा समय होता है. दूसरा उसकी रचनाओं का समय होता है जिसमें में वह रचना करता, सोचता है. एक मानसिक जीवन या आत्मिक जीवन जीता है जो ज़्यादा स्थायी होता है. इसको मैंने उसका प्रति-समय कहा है. उसका भौतिक समय वह तो उसका दैनिक समय है और जो उसका रचना-समय है, जिसमें में उसकी रचनाएँ या विचार साकार होते हैं, वह उसका प्रति-समय है. जैसे बुद्ध हैं, जो उनका दैनिक समय था वह तो नष्ट धर्मा था, उनकी अस्थियों के साथ ही नष्ट हो गया लेकिन जो उनके विचारों का समय है, वह अमर समय है, वह आज भी जीवित है. उसकी एक परम्परा बराबर चलती रही है.
यही बात कुमारजीव पर भी लागू होती है. एक तो उसका अपना दैनिक जीवन था, शारीरिक जीवन था, एक उसके काम का समय था, जिसमें में उसने तीन सौ से अधिक बौद्ध धर्म ग्रंथों का अनुवाद किया. बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रचार किया. आज भी हम कुमारजीव को इसके लिए याद करते हैं. इस प्रकार समय की अवधारणा को लेकर काफी कुछ कहा जा सकता है.
दूसरा है उसका सामाजिक और राजनितिक जीवन. एक बहुत ही उथल-पुथल वाले राजनीतिक और सामाजिक समय में कुमारजीव जीवित रहा. उस समय किसी भी चीज़ में समझौता करना आसान नहीं था लेकिन कुमारजीव ने सारी कठिनाइयों के बावजूद इतना बड़ा काम कर डाला. यह अपने आप में एक बड़ा कमाल है. हमें यह देखना है कि ये क्या बात थी? उसने कैसे कर डाला? सबसे बड़ी बात है कि उसने अपना लक्ष्य निर्धारित किया कि हमको अपने जीवन में यह काम करना ही है और उससे वह कभी विचलित नहीं हुआ. रोज़ के दैनिक और सामाजिक जीवन की समस्याएँ आती रहीं, उनसे लड़ाई करके उसने अपने को शहीद नहीं कर दिया क्योंकि उसका लक्ष्य स्पष्ट था कि उसे इतना बड़ा काम पूरा करना है, किसी भी तरह करना है. हम शुरू से आखिर तक देखते हैं कि कुमारजीव के सामाजिक और दैनिक जीवन में जो उथल-पुथल है उसके साथ समझौता करने की जो तकनीक है, वह कितनी सहिष्णु और कितनी बुद्धिमत्ता से भरी हुई है. अगर ऐसा न होता तो शायद वह इतना काम नहीं कर पाता, कहीं भी तहस-नहस हो सकता था. हम देखते हैं कि यही धैर्य और निष्ठा जीवन में हमारा भी साथ दे सकती है, अगर हम अपने लक्ष्य के प्रति पक्के हैं, हमारा संकल्प दृढ़ है, शायद हम दुनिया की मुश्किलों के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे और काम को पूरा कर सकेंगे.
तीसरी बात मैंने रचनात्मकता के बारे में की है, जिसके विषय में सबको सोचना चाहिए. शुरू से ही मेरे मन में यह था कि जो उच्च कोटि की रचनाधर्मिता होती है उसमें एक अध्यात्मिक संतोष होता है. जिसमें मैंने अध्यात्म को धर्म से न जोड़कर रचना से जोड़ने की कोशिश की है. एक हद तक हमारे पाठक भी सहमत होंगे कि रचनाधर्मिता में भी उसी आध्यात्मिक संतोष का आभास मिलता है. हमारा ख्याल है कि कुमारजीव को इस तरह से भी देखा जाए, पाठ किया जाए तो हम कई सत्यों की तरफ जायेंगे जो हमारे आज के जीवन में भी लागू होते हैं. जहाँ से हमको प्रेरणा मिल सकती है और रास्ते भी मिल सकते हैं कि कैसे हम सारी दिक्कतों के बाद भी अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं.
रेखा सेठी
इस काव्य में कुमारजीव की स्त्री-दृष्टि भी विशेष रूप से प्रभावित करती है. उसने स्त्रियों को भोग्या रूप में ग्रहण न कर अत्यंत सम्मान के साथ अपनी संगिनी बनाया. इस विषय में कुछ बताइए आप क्या सोचते हैं.
कुँवर नारायण
कुमारजीव के प्रारंभिक जीवन में एक प्रसंग आता है जहाँ एक अरहंत उसकी माँ से कहता है कि यह प्रतिभाशाली बालक अगर पैंतीस बर्षों तक जीवन के भोग-विलास से अपने को बचाए रख सका तो ये अद्वितीय उपदेशक होगा. कुमारजीव इस पर विचार करता है और कहता है कि पर मेरा इरादा उपदेशक होना नहीं है. मैं तो अनुवादक होना चाहता हूँ. बौद्ध धर्म ग्रंथों का विचारक होना चाहता हूँ. मेरी दुश्मनी इन्द्रियों से नहीं है, मेरी दुश्मनी अज्ञान से है. हम देखते हैं कि कुमारजीव इस बात को अपने जीवन में चरितार्थ करता चलता है. एक प्रसंग आता है कि छांग-आन में सम्राट की इच्छानुसार कुमारजीव को विवाह करना पड़ता है ताकि और भी कुमारजीव पैदा हों और यह परम्परा कुमारजीव के आगे भी बढ़े तो कुमारजीव इसको भी स्वीकार करता है लेकिन वह वहाँ स्त्रियों को दूसरी तरह लेता है. उनको बराबरी का दर्जा देकर, उनको भी ज्ञान के योग्य समझकर उनसे बात करता है. हम देखते हैं कि यह बात कुमारजीव के पूरे चरित्र में व्याप्त है. कुमारजीव कहीं भी ऊँच-नीच, स्त्री-पुरुष का भेद नहीं मानता, वह इस बात को प्रमुखता देता है कि ज्ञान का अधिकार सबको है. सबको ज्ञान की बारीकियों तक पहुँचाया जाना चाहिए ताकि मुक्ति और ज्ञान सब तक पहुँच सके. यहाँ पर हम देखते हैं कि कुमारजीव के मन में जो बराबरी का उत्साह है वह कहीं भी कम नहीं होता. वह केवल भोग विलास के लिए विवाह नहीं करता. वह बार-बार यह कहता है कि मैं तुमको उसी तरह ज्ञान देना चाहता हूँ, जैसे अपने अन्य शिष्यों को दे रहा हूँ.
रेखा सेठी
आपने अपने एक निबंध में अनुवादकों के एतिहासिक दाय को स्वीकार किया है. कुमारजीव के महत्त्व को ही प्रकाशित करते हुए भी आपने लिखा है –‘एक संस्कृति के बीज दूसरी संस्कृति में पहुँचकर विकसित हुए’ यह विचार इस काव्य में किस तरह पल्लवित होता है?
कुँवर नारायण
कुमारजीव के अनुवादों के प्रयास में हम देखते हैं कि भाषा के प्रति वह विशेष रूप से संवेदनशील है. उसको संस्कृत भाषा से बहुत प्यार था. संगीत की जो ध्वनियाँ संस्कृत भाषा में सुनाई देती थीं वह अपने चीनी अनुवादों में भी उन ध्वनियों को लाना चाहता था. इसके लिए जहाँ भी आवश्यक हुआ उसने चीनी भाषा में संशोधन भी किया और आज भी उसको स्वीकार किया जाता है. यह बहुत साहसिक कार्य था, उसने जो किया बहुत सफलता के साथ किया और इसमें खास बात यह है कि न तो चीनी और न ही संस्कृत उसकी अपनी भाषा थी. उसकी अपनी भाषा तो खारी थी लेकिन इन दोनों सीखी हुई भाषाओं को लेकर उसने जो अनुवाद किये, उसमें भी यह साहस करना कि संशोधन तक कर सके, चीनी जैसी कठिन भाषा में एक बहुत बड़ा कमाल था. इसलिए आज हम उसमें जो संवेदनशीलता थी, ज्ञान के प्रति उसका जो लगाव था, उसे कई तरह से देखते हैं. अनुवाद के कामों को भले ही कहें कि अनुवाद का काम है लेकिन सिर्फ अनुवाद का काम नहीं होता है. वह भाषा के पूरे संसार को, पूरी गहराई से समझ सकने का सौहार्द था.
रेखा सेठी
अब थोड़ा कठिन सवाल है, कुमारजीव विपरीत परिस्थितियों को जीते हुए भी उससे संघर्ष नहीं करता, जीवन से सीधे नहीं टकराता. उसका रास्ता समन्वय का है या बचकर निकल जाने की कोशिश. आपके निकट इसके क्या निहितार्थ हैं?
कुँवर नारायण
देखिये ऐसा है जो आज के जीवन का संघर्ष है, वह खाली लड़ाई नहीं है. कुमारजीव का बड़ा अचीवमेंट यह है कि कैसे रास्ता निकाला जाय, कि उसका काम भी हो जाए और वह जीवित भी रहे. इस बात को जीने की एक कला के रूप में भी देखा जाना चाहिए. कुमारजीव कैसे-कैसे रास्ते निकालता है मुझे उसकी यह बात बहुत अच्छी लगी. उसने कहा कि दो तरह से जीवन को जिया जा सकता है, एक तो लड़ करके और एक जीवन के सकारात्मक पक्ष को सामने रख करके.
अहमद फ़राज़ का एक शेर याद आता है –
शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमा जलाते जाते.
हम देखते हैं कि कुमारजीव ने इस बात को चरितार्थ किया. ऐसे मुश्किल समय में तीन सौ बौद्ध धर्म ग्रंथों का अनुवाद और उस पर टीका-टिप्पणी करना कोई आसान रास्ता नहीं था लेकिन उसने एक इतनी बड़ी धरोहर को, जीवन के अत्यंत सकारात्मक पक्ष को उस समय में भी हमारे लिए बचाकर रखा. इसे मैं लड़ाई का एक दूसरे तरह का पक्ष मानता हूँ जो जीवन से पलायन नहीं है, जीवन से भरपूर सामना है और बहुत ही सकारात्मक और कंस्ट्रक्टिव ढंग से है. यह जीवन से भागने की बात नहीं है बल्कि रास्ता निकालकर जो काम करना है उसको पूरा कर सकने की कला का नाम है, यह जीवन है.
कुँवर जी हमसे बात करने के लिए आपका बहुत आभार! इस बातचीत से संभवत: ‘कुमारजीव’ को समझने की दृष्टि तो मिलेगी ही, आपके काव्य एवं जीवन-दृष्टि को समझने में भी एक नया अध्याय जुड़ गया है. धन्यवाद !
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रेखा सेठी
लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक.
दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर.
reksethi@gmail.com
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