उत्तराखण्ड में नवलेखन-2बटरोही |
इस आलेख की शुरुआत पेशे से पशु-चिकित्सक गंगोलीहाट में जन्मे अड़तीस वर्षीय युवा लेखक-विचारक मोहन मुक्त के चर्चित आलेख ‘जातिवाद के ऊँचे शिखर’ से की गई थी. इस बीच अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए वह फेसबुक मीडिया में लगातार छाये रहे. गंगोलीहाट (जो अब अच्छे-खासे कस्बाई शहर की शक्ल ले चुका है) उत्तराखण्ड के जातीय इतिहास के सन्दर्भ में खासा महत्वपूर्ण रहा है. समुद्र सतह से 1760 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस प्राचीन पहाड़ी शहर में लगभग सभी कुमाऊनी जाति-सम्प्रदायों के लोग रहते हैं. ब्राह्मणों में पन्त, उप्रेती, कोठारी, भट्ट, पाठक, परगाई आदि और ठाकुरों में रावल, मेहता, कार्की, महर, बिष्ट, खाती आदि जातियों ने यहाँ के सांस्कृतिक गठन में मुख्य भूमिका निभाई है. गाँव के सीमान्त पर शिल्पकारों (दलितों) की बस्ती है, मोहन राम आर्य उर्फ़ मोहन मुक्त इसी हिस्से के रहवासी हैं. छोटी उम्र में ही इस तेजस्वी युवा ने उत्तराखण्ड के इतिहास, नृतत्व और मानव भूगोल का बारीक़ अध्ययन किया है और अपने क्षेत्र के इतिहास को अकाट्य तर्कों के सहारे नए सिरे से रचने की बात उठाई है.
गंगोलीहाट चूँकि अतीत में उत्तराखण्ड का सांस्कृतिक केंद्र रहा है इसलिए यहाँ अनेक परम्परा-स्थापक प्रतिभाओं का जन्म हुआ है. हिंदी, नेपाली और कुमाउनी के आरंभिक कवि लोकरत्न पन्त गुमानी, मिथक की तरह याद किये जाते रहे पुरुख पन्त, वीर संग्राम सिंह कार्की से लेकर हमारे दौर के सबसे महत्वपूर्ण इतिहासकार डॉ. राम सिंह और वर्तमान में चर्चित यायावर-इतिहासकार शेखर पाठक इसी इलाके के निवासी हैं. मोहन मुक्त ने अपने क्षेत्र के परम्परागत दिग्गजों की इतिहास-दृष्टि पर गंभीर सवाल उठाये हैं और आरडी सनवाल, राम सिंह जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सबको सिरे से ख़ारिज किया है.
लेखमाला की दूसरी कड़ी में हम उत्तराखण्ड के सीमांतों से उभरे दो महत्वपूर्ण रचनाकारों– पूर्वी सीमान्त पिथौरागढ़ के छत्तीस वर्षीय अनिल कार्की और पश्चिमी सीमान्त जौनसार बावर के पचास वर्षीय सुभाष तराण की चर्चा करेंगे. मोहन मुक्त के ही लगभग हमउम्र ये दोनों लेखक अपने वैचारिक प्रस्थान में एक ही जगह खड़े हैं और दोनों ने अपनी रचनाओं में अपने दौर और जड़ों से जुड़े सवालों को बेवाकी से उठाया है. ये सवाल उत्तराखण्ड से हिंदी में दाखिल हुए रचनाकारों से एकदम भिन्न और अधिक तीखे तेवर के साथ सामने आये हैं इसलिए इनकी चर्चा के लिए यहाँ एक अलग भूमिका की जरूरत महसूस हुई है.
हिंदी साहित्य में उत्तराखण्ड के रचनाकारों के महत्व को रेखांकित करने की जरूरत नहीं है. प्रकृति की भाषा को एक अछूता आयाम देने वाले कवि सुमित्रानंदन पन्त, हिंदी उपन्यास की मनोवैज्ञानिक धारा के आरम्भकर्ता इलाचंद्र जोशी, प्रगतिशील जीवन दृष्टि के शुरुआती आंचलिक कथाकार रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’, सबसे पहले हिंदी एकांकी नाटकों के रचयिता गोविन्दवल्लभ पन्त जैसे अनेक नाम तो हिंदी सहित्य के लैंडमार्क चेहरे हैं ही, पंतजी के ज्ञानपीठ को छोड़कर वर्तमान में भी चार साहित्य अकादमी सम्मान कवि और हिंदी साहित्य की मुख्यधारा के दर्जनों ऐसे कवि हैं जिनकी राय साहित्य-चर्चा में हमेशा निर्णायक महत्व की होती है. इन तमाम लोगों के अलावा हिंदी के पहले मुख्यधारा के कहानीकार हिमाचली लेखक चंद्रधर शर्मा गुलेरी को शामिल करते हुए अज्ञेय, निर्मल वर्मा, धर्मवीर भारती और राहुल सांकृत्यायन जैसे दिग्गज लोग हैं जिन्होंने उत्तराखंडी परिवेश पर खूब लिखा है, मगर क्या आज हिंदी की मुख्यधारा की चर्चा में उत्तराखण्ड कहीं दिखाई देता है? यानी उसका मानव भूगोल. पहाड़ी जीवन से अंकुरित ये तमाम रचनाकार, अपने लेखन में बिना किसी अपवाद के प्रवासी लेखक हैं. (मैं यहाँ केवल हिंदी के उक्त सम्मानित रचनाकारों की बात कर रहा हूँ.) एक छोटा-सा उदाहरण देना काफी होगा. 1920 के दशक में महाकवि पन्त ने अपनी मातृभाषा कुमाउनी में कविता लिखी ‘बुरूंश’. इस फूल को उत्तराखण्ड बनने के बाद उसका राज्य-पुष्प घोषित किया गया है.
कवि पन्त इस खूबसूरत पहाड़ी पुष्प का इस रूप में जिक्र करते हैं कि इसे देखकर उन्हें अपनी प्रेमिका की याद आती है. इस फूल को लेकर तब से लेकर अनगिनत कविताएँ लिखी गयी हैं, लगभग सभी में पन्त का नजरिया ही दुहराया गया है. बुरूंश तब से आज तक प्रवासी ही बना रहा, अपना जातीय पुष्प आज तक नहीं बन पाया. पन्त की कविता के ठीक सौ साल बाद 2022 में अड़तीस वर्षीय कवयित्री स्वाति मेलकानी का कविता-संग्रह ‘बुरूंश’ नाम से ही भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है जिसमें इस पुष्प-श्रृंखला की सात कविताएँ है. पहली बार यहाँ यह फूल प्रकृति को धकियाकर आदमी के सपनों और दुःख-दर्दों के बीच खड़ा दिखाई देता है.
बुरांश एक आशा है
कि रास्ता दोनों ओर खुला है
और
लौट जाना भी
हो सकती है एक शुरुआत
जैसे सर्दियों के लौटते ही
खिल उठते हैं बुरांश
और पतझड़ हार जाता है
एक और युद्ध
प्रेम और सौन्दर्य की
अमरता के साथ.
(स्वाति मेलकानी: बुरांश: पृष्ठ 36)
क्या कारण है इसका? अपने ही इलाके के कालजयी समझे जाने वाले कवि के द्वारा प्रवासी बना दिए गए इस फूल को दुबारा अपना बनाने में क्यों पूरी एक शताब्दी लगी?
अनिल कार्की, सुभाष तराण और स्वाति मेलकानी के इस प्रत्यावर्तन के पीछे कौन-सी मजबूरी है. क्या ये लोग एक सदी तक चले आ रहे प्रतीकों, मुहावरों और सरोकारों से काम नहीं चला सकते थे? जो बात पूरी सदी भर हमारा पाठ तय कर रही थी, साल-भर के अन्दर ऐसा क्या नया घटित हो गया? 1922 से 2022. सुमित्रानंदन पन्त की कुमाउनी कविता ‘बुरूंश’ से लेकर स्वाति मेलकानी की हिंदी कविता ‘बुरूंश’ तक की यात्रा.
मुझे लगता है, इसके लिए हमें फिर से अपने परिवेश और समाज से जुड़ी स्मृति की यात्रा को एक बार फिर लौटाना होगा. बहुत पीछे महाभारत-काल की ओर. महाभारत का काल मुझे नहीं मालूम है, शायद किसी को भी नहीं मालूम. यह कालजयी रचना किसी एक खास कालखंड या एक व्यक्ति के द्वारा तो लिखी नहीं गई, स्मृतियाँ जुड़ती चली गईं और अनाम रचनाकारों के द्वारा अपने किसी पुरखे द्वारा रची गई कथा को विस्तार दिया जाता रहा और इस तरह दुनिया का यह सबसे लम्बा काव्य ‘महाभारत’ न जाने कितनी शक्लों में रूप लेता चला गया. हमारे महादेश भारत की इस जातीय कथा को शताब्दियों से छोटी-छोटी बोलियों और भाषाओँ में गुंथा जाता रहा, अपने इलाके के अनुसार चरित्रों के नामकरण हुए, अनेक जगह रिश्ते बदले; जो एक जगह पति-पत्नी थे, दूसरी जगह भाई-बहन बन गए, राजा सेवक और दोस्त या दूसरे कई रिश्तों में तबदील होते चले गए; जनमानस को पता तक नहीं चला, हर पीढ़ी का आदमी कथा-यात्रा के अंतिम छोर का सिरा पकड़कर अपनी इस जातीय कथा का विस्तार करता चला गया. ‘महाभारत’ संसार की एकमात्र ऐसी महा गाथा है जिसे रचने में देश-दुनिया के हर कोने के सामान्य व्यक्ति ने, जिसके पास भी कथा पहुंची, इसे रचने में अपना योगदान दिया. चाहे वह गरीब हो या अमीर, समर्थ हो या असमर्थ, ज्ञानी हो या अनपढ़. शायद इसीलिए वह भारत का जातीय काव्य है.
कुमाउनी लोक जीवन में भी ‘महाभारत’ का एक ऐसा ही संस्करण मौजूद है जो आज भी ‘भारत’ नाम से कुमाउनी जागर गाथाओं में गाया जाता है. जागर-गाथाएँ कुमाऊँ के असवर्ण समाज के द्वारा सदियों से सुरक्षित और गाई जाती रही हैं. बाद में सवर्णों के द्वारा गाथा का हिंदी में लिप्यंतरण किया गया. जैसा कि पहले संकेत किया, मूल कथा तो असवर्ण-कंठों में विकसित होती चली गयी, पढ़े-लिखे पंडितों ने उसका अपने ढंग से लेखन कर डाला. ऐसा ही एक लिप्यंतरण कुछ वर्ष पहले अल्मोड़ा की एक पत्रिका में पिथौरागढ़ के बुजुर्ग अध्येता पद्मादत्त पन्त ने प्रस्तुत किया है जो इस कथा का एक अलग ही सांप्रदायिक किस्म का पाठ पेश करता है. यहाँ कुंती और गांधारी जुड़वाँ बहनें हैं और दोनों पुत्र की कामना में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं. कथा में कर्ण है तो कुंती का ही पुत्र लेकिन बदनामी के डर से उसे वह नदी में बहा देती है जिसे एक मछुवारे से गांधारी खरीद लेती है. गांधारी सौ ऋषियों के पास जाकर सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त कर लेती है. एक बकरी को काटकर उसके खून से अपना लहंगा रंग लेती है और खुद को प्रसूता घोषित करती है.
बहन के पास पुत्र देखकर कुंती भी अपने पुत्र के लिए तपस्या करने लगती है मगर उसे पुत्र प्राप्त नहीं होता. कुंती एक चर्मकार के घर जाती है जहाँ से मरी हुई गाय की जांघ लाकर उन सौ ऋषियों से पुत्र के लिए वरदान देने की ज़िद करती है जिन्होंने गांधारी को पुत्र दिए थे. ऋषियों ने कुंती को भी वरदान दे दिया लेकिन उन्हें फिर से गांधारी ने झपट लिया. कुंती ने फिर तपस्या की, लेकिन ऋषिगण उसे बार-बार सताते रहे. कभी उसे अपने लिए भोजन बनाने, बिस्तर की व्यवस्था करने और कभी सूर्य की गर्मी से बना और चाँदनी में ठंडा किया भात, हर भोजन के बाद उनके नौले में नहाकर रात्रि-विश्राम कर रहे ब्राह्मणों के पैर दबाने का आदेश देने लगे.
इस कुमाउनी जागर में पांडवों और कौरवों के जन्म की बेहद रोमांचक और ब्राह्मणवादी नज़रिए से बखानी गई घोर स्त्री और दलित-विरोधी कथा है, जिसे सुनकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं.
कथा इस प्रकार है-
हे श्रोताओं, कुंती और गांधारी एक ही शक्ल-सूरत की दो बहनें थीं. कुंती का निवास हस्तिनापुर में था जब कि गांधारी जैंतापुरी में रहती थी. एक समय की बात है कि गांधारी ने महल बनवाने का शुभ मुहूर्त जानने के लिए अपनी दासी को एक आना तथा एक माना चावल देकर अपने पुरोहित द्रोणाचार्य के पास भेजा. द्रोणाचार्य ने गृह-नक्षत्रों की गणना कर शुभ मुहूर्त निकाला और कहा– ‘महल को घोड़े के परमान से ऊँचा और हाथी के परमान से चौखंडा बनवाना. गांधारी द्वारा शुभ मुहूर्त में महल की नीव रखवाई गई. कुछ समय पश्चात महल बन गया. फिर शुभ दिन खोजकर ब्राह्मण और नाचने-गाने वाले बुलाकर पूरी विधि से गृह-प्रवेश किया. जब कुंती को यह पता चला तो उसने भी अपने लिए महल बनवाने की सोच ली. अपनी दासी को आना-माना देकर उसने भी शुभ-मुहूर्त पता लगाने के लिए द्रोणाचार्य के पास भेज दिया जिन्होंने कुंती को भी गांधारी जैसे ही निर्देश दिए. कुंती ने भी महल बनवा लिया और शुभ मुहूर्त के अनुसार गृह-प्रवेश भी कर लिया. एक दिन कुंती अपने कपड़े घोने के लिए नौले पर गई. उसने नहाया, कपड़े धोए और वहीं सुखाने के लिए फैला दिए. एक स्थान पर बैठकर उसने सूर्य का ध्यान किया तो सूर्य की उस पर दृष्टि पड़ी और उसे गर्भ ठहर गया जो शीघ्रता से बढ़ने लगा. जैसे ही एक दिन उसने पानी से भरा घड़ा उठाया उसके पेट से एक बालक उत्पन्न हुआ जिसके सिर पर मुकुट और कानों में कुंडल थे. राजा इंद्र की दृष्टि उस बालक पर पड़ी तो वह बालक के कुंडल और मुकुट लेकर चला गया. बदनामी के डर से कुंती ने बालक को टोकरी में रखकर नदी में बहा दिया. नदी के जल में रहने वाली एक बड़ी मछली ने उसे निगल लिया. नदी में मछुवारे ने जाल लगाया था, मछली उस जाल में फँस गई. मछुवारे ने मछली को बाहर निकला. मछली बहुत सुन्दर और बड़ी थी. इतनी देर में रात हो गई और मछुवारा वहीं सो गया. उधर गांधारी जैंतापुरी से मछुवारे के घर आई. मछुवारन से उसे पता चला कि मछुवारा मछली पकड़ने गया है. गांधारी ने मछुवारिन से कहा, तुम्हारा पति हमारे घाट से मछली पकड़ता है पर हमें कभी देता नहीं. इसलिए आज की सारी मछलियाँ उसे हमें देनी होंगी. उससे कहना कि यदि वो आज हमें मछली नहीं देगा तो में छीन के ले जाऊँगी और मछुवारे के हाथ भी काट दूंगी. इतना कहकर कर गांधारी जैंतापुरी चली गई. प्रातःकाल जब मछुआरा घर पहुंचा तो मछुआरिन ने उसे गांधारी की कही हुई बात बताई. यह सब सुनने के बाद मछुआरा मछली बेचने के लिए हस्तिनापुर चला गया. उसने अपनी मछली का मूल्य दो लाख टका के बराबर सोना रखा. कुंती ने जब उस मछली को देखा तो कहा, ‘तेरी मछली गर्भवती है, इसे हम नहीं लेंगे.’ मछुआरा मछली लेकर जैंतापुरी गांधारी के पास चला गया. गांधारी ने दो लाख टका जितना सोना देकर मछली को खरीद लिया. मछुआरा खुश होकर लौट गया और सोचने लगा इस सोने से अपने नाती-पोतों के लिए अन्न खरीद कर रख लूंगा. गांधारी ने वो मछली अपनी दासी को देकर उसे सावधानी से काटने को कहा. दासी ने जब मछली के पेट पर छुरी चलाई तो उसके पेट से एक सुन्दर-सा बालक निकला. दासी ने बालक गांधारी को दे दिया. गांधारी बालक को देखकर खुश हुई और उसने बालक को गोद ले लिया. बालक दूध पीने के लिए माँ के स्तनों को ढूंढने लगा. गांधारी बोली, ‘हे बालक, तू तो खाने का भोगी है. यदि तू मेरे लिए ही आया है तो मेरे स्तनों में दूध निकल जाये और गाय को भी बच्चा हो जाये.’ गांधारी की बात सच हो गई और बालक गांधारी का दूध पीने लगा. अब गांधारी ने दासी से एक बकरा कटवाया और उसके रक्त में अपना घाघरा भिगा दिया. इसके बाद वह प्रसूति-कक्ष में बालक को लेकर बैठ गई. पाँचवें दिन बालक का ‘पंचालौ’ किया. गांधारी ने बालक को नामकरण और जन्मकुंडली के लिए द्रोणाचार्य के पास भेज दिया. द्रोणाचार्य ने बालक की जन्मपत्री बनाई और दासी से जवाब भिजवाया, ‘हे गांधारी, तुम्हारा बालक शुभ मुहूर्त में पैदा हुआ है. यह सूर्यवंशी राजा बनेगा. इसकी छठी और नामकरण संस्कार अच्छे से करना और इसका नाम कर्ण रखना.’ गांधारी ने धूमधाम से नामकरण संस्कार किया और सभी को खूब धन-धान्य देकर खुश किया. कुंती को जब पता चला कि गांधारी को पुत्र हुआ है, वह सोचने लगी कि मेरी बहन पुत्रवती हो गई और मैं अभी निपूती ही हूँ. उसने पुत्रवती होने के लिए यमुना तट पर तप और पुत्र न होने पर वहीं प्राण देने का निर्णय लिया. कुंती यमुना तट पर चली गई और वहीं घास की झोंपड़ी बना कर तप करने लगी. एक दिन कुंती स्नान कर रही थी तो उसका एक बाल पानी में बह गया और बहते-बहते मछुआरे के जाल में फँस गया. वह बाल सोने जैसा पीला और चांदी जैसा सफ़ेद था. मछुआरे ने उसकी लम्बाई नापी तो वह नौ हाथ जितना लम्बा निकला. मछुआरा उस बाल को लेकर उस जगह पहुँच गया जहाँ कुंती तप कर रही थी. उसने सोचा, यह स्त्री हम जैसों के लिए नहीं है, यह तो ऋषिश्वरों के लिए है. मैं इस केश को औंधा पुरी ले जाऊंगा. औंधा पुरी पहुँचकर उसने ऋषिश्वरों से कहा, हे ऋषिश्वरों! एक सुंदर स्त्री यमुना तट पर तप कर रही है, यह केश उसी का है. सौ-के-सौ ऋषियों ने कहा, तू उस स्त्री को यहाँ ले आ. हम उसके साथ मनोविनोद करेंगे. मछुआरे ने लौटकर कुंती को मछुआरे का सन्देश दिया. कुंती सोचने लगी, पता नहीं आज मेरा भला होने वाला है या विनाश. जो भी हो पर मैं ऋषियों के पास अवश्य जाऊँगी. कुंती मछुआरे के साथ औंधापुरी आ गई. उसने ऋषियों को प्रणाम किया और ऋषियों ने उसकी ओर से पीठ फेर ली. कुंती सोचने लगी, इन ऋषियों ने ही मुझे बुलाया और अब मुझसे बात नहीं कर रहे हैं. मेरे जीवन का अब कोई उद्देश्य नहीं है इसलिए मैं प्राण त्याग दूंगी पर मरने से पहले इन ऋषियों का धर्म भ्रष्ट कर दूंगी क्योंकि इन्होंने मेरा अपमान किया है. कुंती चर्मकार के घर गई और वहां से मरी हुई गाय की जांघ ले आई. कुंती को इस तरह आता देख ऋषि गुफा में छिप गये. कुंती भी उनका पीछा करते हुए गुफा के द्वार पर बैठ गई. ऋषियों ने कुंती से कहा, हे कुंती, तू हमारा धर्म भ्रष्ट मत कर, तू जो भी मांगेगी, हम तुझे वो देंगे. कुंती ने गाय की जांघ फेंक दी और स्नान करके ऋषियों के पास आकर बोली, ‘मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दीजिये.’ ऋषियों ने कहा, ‘तू हमारे लिए भोजन बनाएगी और हम तुझे सौ पुत्र देंगे.’ अब कुंती ने ‘साल’ और ‘धमाल’ धानों का भात बनाया और मास की दाल बनाई और भोजन करने के लिए ऋषियों को बुलाया. ऋषि बोले, ‘हम इस प्रकार का भोजन नहीं करते. हम केवल सूर्य की गर्मी से पका अन्न ही खाते हैं.’ ऋषियों की बात सुनकर कुंती सूर्य-चंद्रमा के पास गई और बोली, आप लोग छह माह का एक दिन बना दीजिये.’ चन्द्र और सूरज ने कुंती को छह महीने का दिन दे दिया. अब कुंती ने इन्द्रपुरी से रूवासाल नामक धान मंगाया. मेघराज से वर्षा करने को और सूअरों को खेत खोदकर कीचड़ बनाने को कहा. कुंती ने उस खेत में रुवासाल धान बो दिया. खेत की मेड़ में अचारी आम बो दिया. धान और आम उगने लगे और थोड़े समय में ही धान में बालियाँ आने लगीं. धान की बालियाँ पकने पर कुंती ने चूहों को बुलाया और धान की कटाई करा ली. बंदरों से धान के गट्ठर बनवाकर भालुओं से दाने अलग करवा लिए. गौरैया से धान के छिलके निकलवाए. इन्द्रलोक से बर्तन मंगवाकर सूर्य की रौशनी से भोजन पकाया और आम की चटनी बनाई. भोजन परोसने के लिए आंवले के पत्तों से पत्तल बनवाए. ऋषियों को भोजन कराया. ऋषि तृप्त हो गए. उन्होंने कुंती से कहा, ‘इस जगह को साफ करके स्नान कर लो और फिर हमारे पास आओ. हम तुम्हें सौ पुत्रों का वरदान देंगे.’ जब गांधारी ने कुंती के वरदान की बात सुनी तो वो भी ऋषियों के पास चली गई और बोली, मुझे कई दिन घर से निकले हुए हो गए हैं, कृपया आप मुझे शीघ्र ही पुत्रों का वरदान दें. कुंती और गांधारी एक ही शक्ल-सूरत की थीं इसलिए ऋषियों ने उसे ही कुंती समझा और उसे सौ पुत्रों का वरदान दे दिया. स्नान करने के बाद जब कुंती ऋषियों के पास आई तो वो सो चुके थे. वो ऋषियों के जागने की प्रतीक्षा करने लगी और उनके जागने के बाद वरदान माँगा. ऋषियों को लगा कि कुंती शायद एक बार और वरदान मांग रही है, उन्हें क्रोध आ गया और उन्होंने कहा, ‘सौ पूत लेकर भी पूत-पूत करती है, तुझे शर्म भी नहीं आ रही है, अब हमारे पास तुझे देने के लिए कोई पुत्र नहीं है. तू यहाँ से चली जा.’ कुंती उदास हो गई और उसने प्राण त्यागने का निश्चय किया. यह समाचार पंच-देवताओं को मिला और उन्होंने ऋषियों के पास दूत भेजा. ऋषियों ने दूत को बताया– यह सत्य है कि इस नारी ने हमारी बहुत सेवा की पर इसकी शक्ल वाली गांधारी हमें धोखा देकर सौ पुत्रों वाला वरदान ले गई. अब हमारे पास कोई पुत्र नहीं है. दूत ने पूरी घटना पंचदेवों को सुनाई जिसके बाद पंचदेव कुंती के पास आए और बोले– हम तुमको पांच पुत्र होने का वरदान देते हैं, तुम्हारे पुत्र बलवान और बुद्धिमान होंगे जबकि गांधारी के सौ पुत्र निर्बल और बुद्धिहीन होंगे, कुंती स्नान करके दूब के मैदान में बैठ गई. चाँद और सूरज की दृष्टि उन पर पड़ी जिससे युधिष्ठर पैदा हुए. फिर वायु देव की दृष्टि पड़ी तो भीम पैदा हो गए. इंद्र की दृष्टि पड़ने पर अर्जुन और ब्रह्मा की दृष्टि पड़ने पर सहदेव पैदा हुए और अंत में पांडु राजा की दृष्टि पड़ने पर नकुल पैदा हुए. स्नान करने के बाद अपने पाँचों पुत्रों के साथ कुंती ऋषियों के पास आई जहाँ पंचदेव भी बैठे थे. ऋषियों ने पाँचों पांडवों के लिए वस्त्र बनवाए. युधिष्ठर ने माता कुंती से कहा, ‘हे माता, हमें अपने घर ले चलो.’ कुंती उनको हस्तिनापुर ले आई. अब भीमसेन ने देवताओं से पंचबाजे मांगे जो महादेव ने उसे दे दिए. पाँचों पांडव माता कुंती के साथ बाजा बजाते हुए हस्तिनापुर आ गए और युधिष्ठिर को गद्दी पर बैठा दिया. अल्मोड़ा से प्रकाशित स्मारिका ‘पुरवासी’ में प्रकाशित पद्मादत्त पन्त, अवकाशप्राप्त प्रधानाचार्य, लंठ्यूड़ा मार्ग, पिथौरागढ़ का लेख देखें जिसे काफल ट्री, 18 मई, 2022 के अंक में पुनर्मुद्रित किया गया है. |
उत्तराखण्ड की लोक-गाथाओं पर दशकों से काम हो रहा है और अनेक विद्वानों और शोधकारों ने बेहद श्रम से उसे प्रकाशित किया है. मगर आज तक यह काम सारा-का-सारा संकलनात्मक है. बेहतरीन शोध-अध्ययन हुए हैं, मौखिक साहित्य के बेहद आकर्षक ऑडियो-वीडियोज बने हैं और उनकी पहुँच सुदूर पर्वतांचल में आर-से-पार तक हुई है. प्रवासियों के बीच इस संस्कृति का अभूतपूर्व प्रसार हुआ है और अपार जन-समूह का उन्हें प्यार मिला है. वास्तविकता यह है कि गाथाओं और कला-संस्कृति का ताना-बाना आज उसी जगह खड़ा है जहाँ से वह शुरू हुआ था. अँगरेज़ अधिकारियों ने पहल की थी, उनकी प्रेरणा से खूब खोजें हुईं; स्थानीयों के शिक्षित होने के बाद उनके द्वारा इसे आगे बढ़ाया गया; दृश्य और प्रचार माध्यमों के सहारे नए-नए लोक-गायक, गाथाकार और कलाकार उभरे, मगर अपनी संस्कृति के बारे में हमारी समझ का विस्तार जरा भी नहीं हो पाया. जागर-गाथाओं और लोक-नृत्यों के नाम पर ज्यादातर उन्हें अधिक-से-अधिक चमत्कारी, फ़िल्मी और कर्मकांडी बनाने के उत्साह में ऐसे लोगों ने लोक की आत्मा ही नष्ट कर डाली.
कुंती-गांधारी और कर्ण से जुड़े उक्त कुमाउनी जागर को ही लें. यद्यपि यह लिप्यंतरण है, लेकिन मूल कथा का जो क्षेत्रीय आधार पर प्रस्तुतीकरण हुआ है, उसमें साफ तौर पर जातिवादी अहंकार और ब्राह्मणवादी कर्मकांड घुस आया है. मजेदार बात यह है कि इस लोक-थाती को सदियों से असवर्णों के द्वारा सुरक्षित रखा गया है, मगर सभ्य समाज के बीच अपने कलात्मक आग्रहों के साथ इसे सवर्ण सामने लाते रहे हैं; कहने की जरूरत नहीं है कि शिष्ट समाज उसे ही प्रामाणिक लोक-थाती मानते हुए उसे पूजता है, जहाँ पुरोहित द्रोणाचार्य कर्ण, पांडवों और कौरवों का छठी-संस्कार. नामकरण और यज्ञोपवीत करते हैं और ज्योतिष- गणना के आधार पर उनका शुद्धीकरण करते हैं. कुंती सौ ऋषियों और पंच-देवों को प्रसन्न करने के लिए कितने तो कष्ट सहती है, आकाश-पाताल एक कर कितना-कुछ नहीं करती, सिर्फ इसलिए कि उसे सूत-पुत्र ठहराए गए पुत्र की जगह कुलीन ब्राह्मण का गर्भ मिल सके. लेकिन जो मिलता है, वह एक चर्मकार का सहारा लेकर, जिसके शुद्धीकरण के लिए कुंती और गांधारी को कितनी बार तो ऋषियों के पवित्र नौले में नहाना पड़ता है.
नयी पीढ़ी को अपनी लोक-थात को नए सिरे से देखने की जरूरत है. अब तो नया ज्ञान और साधन आ चुके हैं, नया मीडिया आधुनिकतम जानकारी दे रहा है, जिसके जरिये हम अतीत, वर्तमान और भविष्य की एक साथ काल-यात्रा कर सकते हैं. हमारी नयी पीढ़ी के पास यह मेधा है, बशर्ते कि उनमें अपने लोक की जड़ें जिंदा हों और उनके प्रति सम्मान का भाव हो, सिर्फ किताबी नहीं, माँ के दुधमुंहे स्वाद की तरह अपनी जड़ों से वास्तविक रूप में जुड़ने की जरूरत है. पश्चिम के समृद्ध ज्ञान की बैसाखी के सहारे हम त्रिशंकु ही बने रह सकते हैं, जहाँ हम न धरती के रह जाते, न आकाश के.
अनिल कार्की
छत्तीस वर्षीय युवा कवि अनिल कार्की की 2015 में दो किताबें एक साथ प्रकाशित हुई हैं: ‘भ्यास तथा अन्य कहानियाँ’ और ‘उदास बखतों का रमौलिया’ (कविता). इसके अलावा भी उनकी किताबें आई हैं जो ध्यान आकर्षित करती हैं. पचास वर्षीय कवि-कथाकार-यायावर सुभाष तराण का एक कहानी-संग्रह ‘नदी की आँखें’ (2021) ही प्रकाशित हुआ है लेकिन अपनी जन्मभूमि चकराता जनजातीय क्षेत्र के मानव भूगोल और जनजीवन को लेकर कुछ बेहतरीन यात्रा-वृतांत, वैचारिक लेख और संस्मरण सामने आए हैं जो अपनी जड़ों का एकदम नया परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते हैं. दोनों रचनाकारों को एक साथ प्रस्तुत करने के पीछे यही आशय है कि ये आज के पहाड़ को, व्यापक अर्थों में हिंदी समाज की स्थानीयता के सौन्दर्य को (दर्द को नहीं) जिस सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं, हिंदी में पहले ऐसे चित्र नहीं देखे गए.
अब तो हिंदी के समकालीन लेखन में मुख्यधारा के अंतर्राष्ट्रीय मुहावरे का दबाव साफ दिखाई देने लगा है, जाहिर है कि इससे जनपदों का साहित्य कैसे अछूता रह सकता है. ऐसा कब से हुआ, बता पाना मुश्किल है, पर हमने जब लिखना शुरू किया था, स्थानीय और वैश्विक धरती के बीच ऐसी संवेदनात्मक दूरी नहीं थी. हो सकता है, दुनिया तब इतनी सिमटी नहीं थी; तो भी देखकर हैरत होती है कि उम्र में मुझसे ठीक चालीस साल छोटा अनिल कार्की उसी भावभूमि और भाषा-भंगिमा के तेवर में से अंकुरित हुआ है, जहाँ से मैंने छब्बीस साल की उम्र में लेखन की शुरुआत की थी. उसका शुरुआती कहानी-संग्रह ‘भ्यास कथा’ और पहला कविता संग्रह ‘उदास बखतों का रमौलिया’ इस वक़्त मेरे सामने हैं और मुझे इनमें अपनी रचना-यात्रा की आरंभिक पद्चाप साफ प्रतिध्वनित हो रही है; खासकर उस परिवेश की समाज-व्यवस्था को पूरी साफगोई और कलात्मक सृजनशीलता के साथ उजागर करने वाली कहानियां: ‘रामी कठार’, ‘मथुरिया की बकरी’ और ‘चरखुल्ली की धार’.
अजब संयोग है कि 1962 में ‘त्रिपथगा’ में प्रकाशित मेरी पहली कहानी ‘बर्फ पर बढ़ते कदम’ इसी तरह के दबाव से उपजी ऐसे युवा की कहानी है जिसका भाई पहाड़ी शिखर के बीरान गाँव में अपने बीमार पिता को छोटे भाई और अभागी बहन के सहारे छोड़कर सरहद पर लड़ते मारा गया है. जिस दिन भाई के शहीद होने की ख़बर मिलती है, भाई को फ़ौज के कमीशन में चुने जाने की सूचना मिलती है और वह दूसरे ही दिन बर्फ भरे मौसम में अपनी ट्रेनिंग के लिए शहर चल देता है. बीमार पिता को अकेली बहन के भरोसे छोड़कर बर्फीले रास्ते पर चलते हुए कथानायक को लगता है, वह ताज़ा बर्फ पर उभरे भाई के पगचिह्नों पर अपने कदम टिकाता फिर से देश के लिए शहीद होने जा रहा है. जाहिर है, पहली रचना होने के कारण उसमें कच्चापन और भावुकता है, तो भी अपने परिवेश और उससे जुड़े युवाओं की व्यथा-आकांक्षा यहाँ वही है जो अनिल की रचनाओं में है. जरूर कहानियों के कालखंड में 53 साल का फ़ासला आ गया है, मगर जरा गौर करें तो पाएंगे कि गाँवों की समाजार्थिकी इतने वर्षों में आज भी बहुत अधिक नहीं बदली है.
यही बात अनिल की लम्बी कविता ‘पहाड़ों पर नमक बोती औरतें’ के बारे में कही जा सकती है. 2015 में प्रकाशित इस कविता में पहाड़ी स्त्री की शाश्वत स्मृतियाँ मानो लौट-लौट आती हैं और यह कहना कतई गलत होगा कि इसमें पहाड़ी औरत की व्यथा है. यही दो पीढ़ियों का अंतर है जो अनिल को अपने दौर की रचना-धारा से अलग और समकालीन बनाता है. स्मृति के झरोखे से बार-बार अपने अतीत के नौस्टाल्जिया को धता बताती यह कविता सिर्फ पहाड़ी औरत की जीवटता की नहीं, किसी भी स्त्री की जिंदादिली की कविता बन जाती है. कविता में कोई भूमिका नहीं है, वह सीधे अपने परिवेश से संवाद करती है.
कविता के शुरू में दो पंक्तियों का समर्पण है, “अपनी इजा, जेड़ज्या, काखियों, भौजियों को जो जिन्दा हैं, उन आमाओं को जो पहाड़ जीते हुए शहीद हो गईं, उनको जिन्होंने पहले-पहल मुझे हिमालय दिखाया.”
दरअसल, यह कविता खुद में एक जिंदगी है जो किसी व्याख्या और परिचय की मोहताज नहीं है.
यह कविता अपनी जड़ों को अपने चारों ओर फैली धरती के समानांतर अनायास खोलती जाती है और कब परिवेश से कविता बन जाती है पता ही नहीं चलता. शब्द कवि का मानव-भूगोल बन जाते हैं और पहाड़ ऐसा परिवेश बन जाता है जहाँ पेड़ों, वनों, नदियों में मस्ती से नाच रही हैं. लेकिन यह नृत्य दूर सैलानी आँखों से देखा गया औरतों के सौन्दर्य पर लट्टू होकर चवन्नी-फैंक नाच नहीं है, जीवित स्त्री इकाइयों की अंतहीन चहलपहल है जो दरअसल नृत्य नहीं, भरी-पूरी जिन्दगी है. कविता में कहीं भी झोल नहीं है, न शिल्प में, न भाषा और कथन-भंगिमा में और न अपने रचनात्मक परिवेश के प्रस्तुतीकरण में.
यह कविता अपने उत्स के साथ ही खुद के लिए अपनी भाषा रचती चलती है, शायद इसीलिए अपना नया पाठक भी बनती चलती है. अभी-अभी शब्द अर्थ थे, किस पल धरती-आकाश और नदी-पर्वत बन गए, यह जानने का अवकाश ही नहीं मिलता. उसी क्षण वह गद्य बन जाती है, जिस वक़्त उसका अर्थ खुलकर हमें सुदूर वनांचलों में एक-दूसरे से बतियाती, सुख-दुःख पूरती स्त्री समूहों के बीच पहुँचा देती है. कविता एक गाथा बन जाती है और पाठक खुद भी अपने किरदारों के साथ बतियाने और नीबू-सने चटपटे नमक का स्वाद लिए पहाड़ों की यात्रा करता है. नदी-घाटी से पहाड़ की चोटी तक पहुँचता है, गझिन बांज के पतेलों को इकट्ठा कर रही औरतों की ओर देखता है, जब तक दर्शक कठिन चढ़ाई के बीच साँस लेने के लिए रुकता है, औरतें अपना बोझा सिर पर लादकर अपनी पहाड़ी ढलान पर कूदती गायब हो जाती हैं.
यह पहाड़ की जिन्दगी है, पर्वतारोहण नहीं, पहाड़ की सचमुच की धड़कन.
झोल तो अनिल की कहानियों में भी नहीं है, खासकर ऊपर उद्धृत कहानियों में, फिर भी वहां एक किशोर मन की जल्दबाज़ी साफ झलकती है, जिसे मैंने अपनी पहली कहानी के सन्दर्भ में रेखांकित किया था. लेखन का यह संस्कार धीरे-धीरे रियाज़ से हासिल किया जाता है जब लेखक समकालीन लेखन और अपने दौर के रचनाकारों के सरोकारों का सामना करता है. शायद इसीलिए अनिल की रचना-यात्रा आश्वस्त करती है, खासकर अपने परिवेश की खांटी स्थानीयता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता के कारण. और यह काम सिर्फ भाषा साधने या ज्ञान अर्जित करने से नहीं बनता, अपने अनुभव को स्मृति-संसार में लौटाने और फिर उन्हें उन्हीं की शर्तों पर वापस रचने से आकार ग्रहण करता है.
अनिल के समकालीनों में अनुभव को स्मृति के बजाय ज्ञान के मौजूदा कोष में से समेटने की जल्दबाजी दिखाई देती है, जो चमत्कार और आतंक का अहसास तो करता है लेकिन वहाँ अपनी धरती के अंदर बिछी जड़ें नहीं होतीं, बहुत साफ शब्दों में, अनुभवों का प्रत्यारोपण दिखाई देता है. नयी पीढ़ी के लिए यह यात्रा अधिक जोखिम भरी इसलिए भी है क्योंकि अपनी स्मृति को रूपाकार देते समय अपने अर्जित ज्ञान का ऐसा दबाव होता है, उनकी ऐसी-ऐसी आकर्षक व्याख्याएँ होती हैं कि वह उलझन में पड़ जाता है; इधर लपकता है, उधर लपकता है, नए ज्ञान के आ जाने से अर्जित भाषा का संकट ख़त्म हो चुका होता है, अनुभव का आशय भी उसके लिए बदल चुका होता है. क्या छोड़ूं, क्या अपनाऊँ का द्वंद्व किशोर रचनात्मकता का छोटा संकट नहीं है. इसे सिर्फ उसी उम्र से गुजरते हुए महसूसा जा सकता है.
अनिल की पीढ़ी का संकट ज्ञान के समृद्ध संसार के बीच अपनी जड़ों की तलाश में भटकते युवा मानस का ऐसा अहसास है जहाँ उसे खुद मालूम नहीं कि जिस जगह वह खड़ा है, यह उसी की धरती है. अनंत धरती के बीच अपनी जड़ खोजना तो शायद कभी भी आसन नहीं रहा होगा, इसीलिए उपनिषद्कार को उस वृक्ष की कल्पना करनी पड़ी होगी जिसकी जड़ें आकाश में फैली हैं और सारा वृक्ष धरती के अन्दर फैला है. शायद जड़ों को अपने या उसके देश-काल के भीतर या बाहर खोजने से भी काम नहीं चलेगा, क्योंकि हर प्राणी के लिए उसका वर्तमान ही एकमात्र सत्य होता है, बाकी तो सब पंडितों की व्याख्याएँ हैं.
फ़िलहाल, वर्तमान है 2014 में अनुनाद सम्मान प्राप्त अनिल कार्की का पहला कहानी-संग्रह ‘भ्यास कथा तथा अन्य कहानियां’. बारह कहानियों के इस संग्रह में लेखक के किशोर अनुभवों की ठेठ बानगी है, इसलिए अनुभव की ताजगी भी. सारे किरदार गाँव-क़स्बे के बेनाम लोग हैं जिन्हें लेखक ने अपने सरोकारों से जीवन और नाम प्रदान किया है. ये किरदार व्यक्ति भी हैं, स्थितियाँ भी, विडंबना भी हैं और धरती के किसी टुकड़े की व्यथा भी. सारी बातें तो कहानियों के बीच घुसकर ही जानी जा सकेंगी.
‘भ्यास कथा तथा अन्य कहानियाँ’ में गाँव-कस्बों के जीवन से जुड़ी 12 कहानियां हैं जिनमें आरंभिक कहानियाँ शिल्प और विषयवस्तु की ताज़गी से भरी हैं. दूसरा कहानी-संग्रह ‘धार का गिदार’ 2016 में प्रकाशित हुआ जिसमें लोक-जीवन हाशिये में जाता और उसकी जगह मध्यवर्गीय शहरी संवेदना हावी होती दिखाई दे रही है. 11 छोटी-छोटी कहानियों के इस संग्रह में भी गाँव-शहर के मिले-जुले संस्मरणात्मक किस्से हैं हालाँकि इन सभी का मुख्य स्वर लोक ही है. उदाहरण के लिए शीर्षक-कथा ‘धार का गिदार’ गाँव और शहर के गठजोड़ में एक बनावटी फ़िल्मी कहानी बनकर रह गई है. ‘धदार’ और दो रत्ती की फुल्ली’ में भी लोक का वह स्वर गायब है जहाँ से अनिल ने शुरुआत की थी. सबसे बड़ी विडंबना सामने आई है अद्भुत शिल्प वाली कहानी ‘चौमुड़ी’ में. शैलेश मटियानी, झुसिया दमाई और एक अनाम ऋतुरैण गायिका की प्रेरणा से पैदा हुई कहानी ज्यों ही गिर्दा के कब्जे में आती है, शहरी मध्यवर्ग उसमें हावी हो जाता है और एक अजीब कन्फ्यूजन पैदा करते हुए कहानी ख़त्म हो जाती है. संतोष की बात है कि लेखक ने अपनी अगली ही कहानी ‘दुर्गा जनरल स्टोर का कलैंडर’ में स्थिति सम्हाल ली है और वह अपनी मूल भंगिमा में लौट आया है. अनिल कार्की अपने लोक के प्रति प्रतिबद्ध तेवर के कारण, इसीलिए, अपनी समकालीनों के बीच उम्मीद जगाते हैं.
सुभाष तराण
पचास वर्षीय सुभाष तराण उत्तराखण्ड के उन गिने-चुने युवा विचारकों में से हैं जिसके बौद्धिक संस्कार अपनी धरती में से अंकुरित हुए हैं. वो हाई-फाई डिग्री धारी नहीं हैं; जहाँ तक मुझे मालूम है, वो इंटरमीडिएट हैं, लेकिन अपनी धरती और परिवेश से जुड़ा उनका ज्ञान बड़े-बड़े चर्चित विशेषज्ञों को अपनी जानकारी पर पुनर्विचार के लिए बाध्य करता है. लोकसभा सचिवालय में कर्मचारी सुभाष ने अपनी छोटी उम्र से ही हिमालय की दुर्गम चोटियों की खूब यात्राएँ की हैं और अपनी जड़ों को सम्हाल कर रखा है. जातिवाद और अंधविश्वास के दंश को उन्होंने गहराई से महसूस किया है लेकिन बड़बोले बौद्धिकों की तरह का राजनीति-प्रेरित चिंतन उनका नहीं है. बहुत संतुलित और अपने लोगों को उन्हीं की शर्तों पर मुख्यधारा का हिस्सा बनाने की चिंता उनके लेखन में साफ झलकती है. उनका गद्य अपने समकालीनों के बीच अलग चमकता है. 2021 में प्रकाशित उनकी कहानियों का संकलन ‘नदी की आँखें’ पाठकों के बीच पहुँचते ही बेहद लोकप्रिय हुआ है.
उनकी ‘इन्द्रू’ कहानी एक जनजातीय शिल्पकार लोहार की लोमहर्षक कहानी है जो अपने समाज की खुद के बारे में निर्मित धारणा को अपने ही हथियार द्वारा अलग ढंग से बदलता है और मेहनतकश इन्सान की ऐसी छवि प्रदान करता है जहाँ आदमी की नैसर्गिक सुन्दरता का नया आयाम सामने आता है. आदमी ही है जो लोहे जैसे बेडौल अयस्क को पारस की शक्ल दे सकता है. कहानी में इन्द्रू और उसके भाई के चट्टान से जूझने के अनेक भयावह विवरण दिए गए हैं.
किसी भी रचनाकार की आरंभिक रचनाओं में इस तरह के विवरण आते ही हैं, जो धीरे-धीरे रियाज़ से ही आती हैं. इसके बावजूद यह कहानी अपनी जड़ों से जुड़े परिवेश को लेकर मनुष्य, प्रकृति और मशीन के संघर्ष की एक दुर्धर्ष कहानी बयान करती है; शायद आदमी और मशीन के बीच अपने-अपने अस्तित्व को बचाए रखने की पहाड़ी परिवेश को लेकर लिखी गई पहली कहानी है, एक यादगार रचना. केवल उत्तराखंडी नई पीढ़ी की ही नहीं, हिंदी के समकालीन लेखन में यह एक सार्थक हस्तक्षेप है.
‘नदी की आँखें’ में कुल 33 छोटी संस्मरणात्मक कहानियां हैं; एक-से-एक यादगार. हिंदी कहानी की समकालीन भाषा और स्थानीयता के प्रति मुखर जुड़ाव के सन्दर्भ में सुभाष की इस किताब की कहानियों को जरूर पढ़ा जाना चाहिए.
एक कहानी का और जिक्र जरूर करना चाहता हूँ. वो कहानी है, ‘किन्नौरी लड़की’. अपने खास अंदाज़ और भाषा में पिरोई गई यह कहानी भी संस्मरणात्मक है हालाँकि एक परिपक्व कहानी. कहानी की ताकत को तो आप उसे पढ़कर ही महसूस करेंगे, कहानी पढ़ने के बाद मेरा ध्यान लेखक के सरनेम पर गया. मुझे नहीं मालूम कि यह उनका उपनाम है या जातिसूचक नाम, मगर मुझे लगा कितना सार्थक नाम चुना है इस युवा ने. यह भी मुझे नहीं मालूम कि जौनसारी में ‘तराण’ का क्या अर्थ है, कुमाउनी में इसका अर्थ है, ताकत, बल, ऊर्जा…
‘किन्नौरी लड़की’ में एक दृश्य है जिसमें कथानायक अपनी इकतरफा प्रेम की पात्र किशोरी प्रेमिका के पास भूल संशोधित करने के लिए बालों का गुलाबी रिब्बन लौटाने उसके घर जाता है जहाँ उस पर एक प्रौढ़ भोटिया कुत्ता झपटता है. मजेदार बात यह है कि कितने ही ताकतवर प्राणी से न डरने वाला भोटिया कुत्ता किन्नौरी किशोरी के इकतरफा प्यार में गिरफ्त किशोर सुभाष तराण से उसी तरह हार कर भाग जाता है जैसे अमृतसर का किशोर लहना सिंह उस लड़की से पूछे गए सवाल ‘तेरी कुड़माई हो गई’ का जवाब पाकर भाग गया था. यही है सुभाष का तराण. पूरब के कार्की अनिल का खश- तराण जब पश्चिम का महासू-तराण बनता है पूरे उत्तराखण्ड का तराण. सुभाष की कहानियां इसकी जीती-जागती मिसाल उदाहरण हैं.
बटरोही जन्म : 25 अप्रैल, 1946 अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँवपहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास ’गर्भगृह में नैनीताल’ का प्रकाशन, ‘हम तीन थोकदार’ प्रकाशित अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.इन दिनों नैनीताल में रहना. मोबाइल : 9412084322/batrohi@gmail.com |
महत्वपूर्ण कार्य है बड़े लेखक द्वारा नवलेखकों पर प्यार से दृष्टिपात करना 🙏
बेहतरीन
आपने लेखन के प्रति मेरे नजरिए को समझा और उसके बारे मे लिखा, बहुत शुक्रिया सर, मेरे लिए आपकी यह टीप किसी पुरुस्कार से कम नहीं।
Mahoday mahasu देवता ko Mahishasur kaha gaya hai.. इसका kya tathy hai..
“अनिल कार्की और सुभाष तराण को एक साथ आमने सामने रखने के पीछे यह तर्क है कि उसका मातृ-क्षेत्र जौनसार बावर में महासू (महिषासुर) को पूजा जाता है जबकि वह आर्यों की देवी दुर्गा का शत्रु है. पूरब का उत्तराखण्ड पांडवों और उनकी माँ कुंती को पूजता है और पश्चिम का पहाड़ी महासू देवता को. एक छोटे-से प्रदेश में विश्व की महान गाथा के ये परस्पर विरोधी स्वर. यही है उत्तराखण्ड के राज्य-पुष्प ‘बुरूंश’ का वास्तविक सौन्दर्य.”
महोदय आपने जो ये तथ्य लिखे है इससे समस्त जौनसार के लोगो की धार्मिक भावनाओ को ठेस पहुंच रही है. सुभाष शर्मा न तो कोई वरिष्ठ इतिहासकार है और न ही कोई बुद्धि जीवी. अगर किसी के द्वारा ऐसा लिखा गया है तो ये उस की विक्षिप्ता प्रदर्शित कर रही है। हमारे इष्टदेव महासू के सम्बन्ध में इस तरह की भ्रान्ति न फैलाये. आप इस लेख को तुरतं ही डिलीट करे.
महोदय
हमारे पास जिस बात के ठोस तथ्य नहीं है। उस पर कयास और किवदंतियों के आधार पर सार्वजनिक टिप्पणी करना शोभनीय नहीं है। क्योंकि परम महासू देवता महासू क्षेत्र के आराध्य है। आप की निजी राय किसी व्यक्ति, मत,पंथ,अथवा देवी देवता के प्रति क्या है, ये आपका नितांत निजी अधिकार है। आप नास्तिक हो हमें या आम लोगों को तब तक कोई प्राब्लम नहीं है ,जब तक आप हमारी आस्था को ठेस ना पहुंचाओ । किन्तु जब आप हमारी आस्था चोटिल करके अपना मत श्रेष्ठ सिद्ध करने की चेष्ठा करते हैं तब वास्तव में आवाज़ उठाना जरूरी हो जाता है।
जिसकी जैसी सोच है
उसकी वैसी खोज़ है
हम अपने आराध्य देवता महासू महाराज पर पूर्ण आस्था रखते हैं । उनका उद्गम उनके पूर्वज और उनका आधार कुछ भी हो।
हमें एक ऐसी शक्ति का संचरण उनके माध्यम से प्राप्त होती है जो हमें ऊर्जित करती हैं। और ऊर्जावान मनुष्य संसार को गतिशील बनाये रखते हैं।
”पूरण’
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)
वीर शहीद केसरी चंद राजकीय स्ना महाविद्यालय
डाकपत्थर (विकास नगर) देहरादून
बटरोही जी का आलेख उत्तराखंड के साहित्यिक एवं सांस्कृति परिवेश की समीचीन व्याख्या की है। हिन्दी साहित्य में उत्तराखंड के लेखकों और कवियों का योगदान बहुत बड़ा है। इस पर लिखने-पढ़ने की जरूरत बनी रहेगी।