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समालोचन

Home » लोमहर्षण सूत और पुराण-वाचन का अधिकार : कुशाग्र अनिकेत

लोमहर्षण सूत और पुराण-वाचन का अधिकार : कुशाग्र अनिकेत

पुराणों की कथा कहने का अधिकार किसके पास है, यह विषय हाल के दिनों में चर्चा में था. क्या इस प्रकार का प्रश्न पहले भी कभी उठ चुका है? तब इसका क्या समाधान निकाला गया था. कुशाग्र अनिकेत जहाँ अर्थशास्त्र और प्रबंधन-विशेषज्ञ हैं वहीं संस्कृत के गहरे अध्येता भी. 26 शीर्षकों और 209 संदर्भों से तैयार यह आलेख इस प्रश्न के लगभग अधिकतर आयामों को छूता है. परम्परा में विद्यमान अग्रिम पुराण-वाचक लोमहर्षण सूत को जिस प्रकार समायोजित करने का प्रयास किया गया था, वह केवल दिलचस्प ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक राजनीति का एक प्रच्छन्न उदाहरण भी है. और अंततः उनकी हत्या की हुई. इसपर तो Umberto Eco के प्रसिद्ध उपन्यास The Name of the Rose जैसा उपन्यास लिखा जा सकता है. यह आलेख वर्ण और हिन्दू धर्म की जटिल पहेलियाँ को सुलझाता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
September 30, 2025
in मीमांसा
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लोमहर्षण सूत और पुराण-वाचन का अधिकार : कुशाग्र अनिकेत
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लोमहर्षण सूत और पुराण-वाचन का अधिकार
कुशाग्र अनिकेत

“व्यास-पीठ का अधिकारी कौन है?”

इस प्रश्न पर बहुत समय से विवाद चला आ रहा है। कुछ लोग केवल ब्राह्मण वर्ण के लोगों को ही पुराण-वाचन में अधिकृत मानते हैं। जब उन्हें स्मरण कराया जाता है कि महाभारत और पुराणों के आदि-वक्ता लोमहर्षण और उग्रश्रवा सूत-जाति के थे, तो वे उन्हें भी ब्राह्मण सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। आधुनिक काल में दुर्गादत्त त्रिपाठी, दीनानाथ शास्त्री, स्वामी करपात्री और बलदेव उपाध्याय लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने के मुखर समर्थक रहे हैं।

लोमहर्षण को ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए दीनानाथ शास्त्री ने “श्रीसनातनधर्मालोक” (प्रथम संस्करण १९५३) में जिन तर्कों को प्रस्तुत किया है, प्रायः उन्हीं का पंक्तिशः संस्कृत-अनुवाद स्वामी करपात्री ने अपने ग्रंथ “चातुर्वर्ण्य-संस्कृति-विमर्श” (१९८९) में दिया है। यद्यपि करपात्री जी ने उन्हें श्रेय नहीं दिया, तथापि उन्होंने लोमहर्षण के प्रसंग में दीनानाथ शास्त्री के तर्कों का ही अनुकरण किया है।[1]

यह एक विचित्र विडंबना है कि चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था से बाहर रहकर भी जिन लोगों ने सनातन धर्म के इतिहास में अपना विशिष्ट योगदान दिया है, उन्हें करपात्री जी जैसे कुछ विचारक ब्राह्मण सिद्ध करने को आतुर हैं। इस प्रकल्प में वे उन महात्माओं के जीवन-चरित को विस्मृत कराने और उनकी सामाजिक अस्मिता को मिटाने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीत होता है मानो तथाकथित उच्च वर्ग के महापुरुषों के अतिरिक्त भारतीय मनीषा के संवर्धन में किसी की भूमिका रही ही न हो।

दूसरी ओर, यही विचारक तथाकथित “निम्न” वर्ग के विद्याधिकार का निषेध करने और धार्मिक व सामाजिक जीवन में उनकी सहभागिता को सीमित करने के पक्षधर रहे हैं। शबरी से लेकर लोमहर्षण सूत तक, स्वयं को परंपरावादी कहने वाले ये विचारक वस्तुतः इतिहास-पुराण, धर्मशास्त्र, प्राचीन टीकाकारों और जन-सामान्य की परंपरा के विरुद्ध खड़े हैं। प्रचलित शब्दों के रूढ़ार्थ को परिवर्तित करने और अपने ही पूर्वाचार्यों के सिद्धांत का खंडन करने के कारण इन्हें “रूढ़िवादी” भी नहीं कहा जा सकता।

सौभाग्य से आज का समाज इन विचारकों को १९वीं–२०वीं शताब्दियों में छोड़कर आगे बढ़ चुका है, तथापि इन पुराने विवादों का प्रामाणिक समाधान अभी तक नहीं हो पाया है। भय है कि यदि ये अनसुलझे प्रश्न आगामी शती में पुनरुज्जीवित हो गए तो इन्हीं विचारकों के मत को परंपरा के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाएगा।

अतः आवश्यक है कि इनका निराकरण अभी हो और उन्हीं शास्त्रों के आधार पर हो जिनमें तथाकथित परंपरावादी श्रद्धा रखते हैं। इस लेख में हम पुराण-वक्ता लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने वालों को पूर्वपक्षी मानकर उनका खंडन करेंगे, जिसके फलस्वरूप व्यास-पीठ के अधिकारियों पर भी एक पुनर्विमर्श संभव होगा।

 

१.
सूत का द्विजत्व

क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण माता से उत्पन्न प्रतिलोम वर्ण-संकर जाति के लिए “सूत” शब्द रूढ़ है।[2] औशनस-स्मृति में भी कहा गया है कि क्षत्रिय से ब्राह्मण-कन्या में उत्पन्न संतान “सूत” कहलाती है-

नृपाद् ब्राह्मणकन्यायां विवाहेषु समन्वयात्।
जातः सूतोऽत्र निर्दिष्टः प्रतिलोमविधिर्द्विजः।
वेदानर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधकः॥[3]

अर्थात्

“क्षत्रिय पुरुष से ब्राह्मण कन्या में विवाह में पारस्परिक संबंध से जन्म लेने वाले पुत्र को ‘सूत’ निर्दिष्ट किया गया है। यह प्रतिलोम-विधि से उत्पन्न होने वाला द्विज है। यह वेदाध्ययन में अनधिकृत होकर भी यह वेदों के धर्मों का उपदेश देनेवाला है।”

इस श्लोक को उद्धृत करते हुए धर्मकोशकार स्पष्ट करते हैं कि सूत उपनेय होता है।[4]

वीरमित्रोदय में औशनस-स्मृति के इसी श्लोक को एक महत्त्वपूर्ण पाठभेद के साथ उद्धृत किया गया है- “मृषा ब्राह्मणकन्यायां विवाहेषु समन्वयात्” (वीरमित्रोदय, संस्कारप्रकाश, पृष्ठ ४०६)। इसके आधार पर मित्र मिश्र दो प्रकार के सूतों की कल्पना करते हैं –

(१) ब्राह्मण पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के विधिहीन विवाह से उत्पन्न संतान और
(२) क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मण स्त्री से उत्पन्न संतान।[5]

किंतु यह मत भ्रामक है, क्योंकि वीरमित्रोदय में स्वीकृत पाठभेद (“नृपाद् ब्राह्मणकन्यायाम्” के स्थान पर “मृषा ब्राह्मणकन्यायाम्”) औशनस-स्मृति के किसी संस्करण में प्राप्त नहीं होता है। मित्र मिश्र द्वारा प्रदत्त “सूत” की प्रथम परिभाषा भी सर्वथा अप्रचलित है। क्या यह “सूत” एक नई जाति है अथवा ब्राह्मण का ही एक प्रकार है? यदि वह ब्राह्मण है तो उपनयन-अधिकार से युक्त होते हुए भी वेदाधिकार से रहित क्यों है?

वस्तुतः इस प्रकार के सूत-संज्ञक ब्राह्मणपुत्र का किसी धर्मशास्त्र में उल्लेख नहीं मिलता है। ब्राह्मण माता-पिता के अमंत्रक गांधर्व आदि विवाह-प्रकारों से उत्पन्न संतान की भी “ब्राह्मण” संज्ञा ही होती है, “सूत” नहीं। इस व्याख्या का स्मृति के अन्य श्लोकों से पूर्वापर संबंध भी नहीं है। औशनस-स्मृति के अगले ही श्लोक में कहा गया है कि इस “सूत” संज्ञक पुरुष से ब्राह्मण-कन्या में “वेणुक” और क्षत्रिय-कन्या में “चर्मकार” की उत्पत्ति होती है।[6]

वेणुक की वृत्ति वेणु-वादन है। किंतु यदि यह “सूत” ब्राह्मण ही है तब तो उससे क्रमशः “ब्राह्मण” और “मूर्धावसिक्त” (“मूर्धाभिषिक्त”) की उत्पत्ति होनी चाहिए।[7] यदि “सूत” को व्रात्य ब्राह्मण माना जाए तब भी इससे ब्राह्मण कन्या में “भूर्जकंटक” नामक संतान जन्म लेती है, “वेणुक” नहीं। भगवत्कथाओं का गान करना ही भूर्जकंटक की वृत्ति है, जो वेणुक की वृत्ति से भिन्न है। भूर्जकंटक की गणना भी पतित ब्राह्मणों में होती है, संकर-जातियों में नहीं।[8]

दूसरी ओर वैखानस-स्मृति और सूत-संहिता में मद्गु अथवा नापित पिता और ब्राह्मण माता की प्रतिलोमज संतान को “वेणुक” कहा गया है।[9] निष्कर्ष यह है कि मित्र मिश्र की व्याख्या का सामंजस्य किसी धर्मशास्त्र से नहीं बैठता है। यदि सजातीयों के विवाह में केवल विधि-लोप के कारण नई-नई संकर जातियों का प्रादुर्भाव होने लगे तो चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था निश्चित ही मृगमरीचिका बनकर रह जाएगी।

मित्र मिश्र उपर्युक्त श्लोक में प्रयुक्त “समन्वयात्” (“समन्वय से”) का अर्थ “सजातीयात्” (“सजातीय पुरुष से”) करते हैं। किंतु यह भी अनुचित है। यदि “सम्” का अर्थ “समान” और “अन्वय” का अर्थ “वंश” अथवा “गोत्र” माना जाए तो भी “समन्वय” का अर्थ होगा – “समान वंश अथवा गोत्र का पुरुष”। धर्मशास्त्रों के अनुसार किसी स्त्री के समान वंश अथवा गोत्र के पुरुष से उत्पन्न संतान की “चंडाल” संज्ञा होती है, “सूत” नहीं।[10] वस्तुतः मित्र मिश्र की व्याख्या के विपरीत यहाँ “समन्वयात्” का वही अर्थ है जो प्रायः शास्त्रों में देखा जाता है – “पारस्परिक संबंध से” अथवा “अनुक्रम से” (सम्यगन्वयः समन्वयः)। इस प्रकार मित्र मिश्र की व्याख्या अनेक अंतर्विरोधों के कारण अमान्य हो जाती है।

जहाँ मित्र मिश्र का मत अनुपयुक्त है, वहीं अन्य धर्मशास्त्रों में सूतों को द्विज और उपनयन-संस्कार से संपन्न बताया गया है। महाभारत के अनुसार सभी प्रतिलोमज जातियों में सूत एकमात्र “द्विज” कहलाता है। यह द्विजोचित संस्कार से युक्त होता है। इसे क्षत्रिय से हीन किंतु वैश्य से श्रेष्ठ माना जाता है।[11] गौतम-धर्मसूत्र पर हरदत्त की टीका के अनुसार यद्यपि प्रतिलोमज जातियों का उपनयन नहीं होता है, तथापि सूत का उपनयन विहित है।[12] पुराण-सार में स्वामी विद्यारण्य इसी मत का समर्थन करते हुए सूतों को “द्विजवत्” आचरण वाला बताते हैं। धर्म का अवबोध कराना इसकी वृत्ति है।[13]

इन सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि सूत को “द्विज”, “द्विजवत्” और “धर्मोपदेशक” कहना धर्मशास्त्र-सम्मत है, किंतु इन शब्दों से उसका ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं होता।

 

२.
सूत की उत्पत्ति

अब हम लोमहर्षण सूत की उत्पत्ति पर विचार करते हैं। विष्णुपुराण के अनुसार राजा पृथु ने “पैतामह” (अर्थात् ब्रह्मा को समर्पित) यज्ञ किया था, जिसमें “सूति” से “सूत” की उत्पत्ति हुई थी। उसी यज्ञ से एक अन्य “मागध” नामक पुरुष का जन्म हुआ था। मुनियों ने इन सूत और मागध का कर्म निर्धारित करते हुए इन्हें राजा पृथु की स्तुति करने की आज्ञा दी थी।[14]

पद्मपुराण और वायुपुराण में इस कथा का विस्तार किया गया है। पृथु के यज्ञ में ओषधियों को कूटने के समय प्रमाद-वश इंद्र के लिए निर्धारित हविष्य में बृहस्पति का हविष्य मिश्रित हो गया और उस की आहुति इंद्र को दे दी गई। क्षत्रिय शिष्य के हविष्य का ब्राह्मण गुरु के हविष्य से मिश्रित होने से वर्ण-सांकर्य हुआ जिससे सूत की उत्पत्ति हुई। अत एव याजकों को प्रायश्चित्त भी करना पड़ा। क्षत्रिय के द्वारा ब्राह्मण “योनि” में उत्पन्न होने के कारण इस सूत को “वर्णवैकृत” अर्थात् वर्ण-संकर भी कहा गया। इस सूत के तीन धर्म हैं-

१. उत्तम धर्म – पुराणों की कथा का वाचन
२. मध्यम धर्म – क्षत्रियों पर आश्रित रहकर रथ, हाथी और घोड़ों का परिचालन करना
३. अधम धर्म – चिकित्सा करना।[15]

इन प्रथम सूत का नाम “रोमहर्षण” अथवा “लोमहर्षण” पड़ा।[16] ये भगवान् विष्णु के अंशावतार थे।[17] यहाँ पूर्वपक्षी का आक्षेप है कि भगवान् का अवतार किसी वर्णसंकर जाति में नहीं हो सकता।[18] किंतु ऐसा कोई भी तर्क ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का निषेध करने के कारण स्वतः निरस्त हो जाता है। सर्वशक्तिमान् लीलापुरुषोत्तम परमेश्वर कहीं भी अवतार ले सकते हैं, किसी भी शरीर में प्रकट हो सकते हैं। भगवान् विष्णु के अवतारों में से मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, हंस, और हयग्रीव आदि का मनुष्येतर स्वरूप है। रामायण-काल में भगवान् के अंशभूत विभिन्न देवताओं ने वानर-ऋक्ष जाति में अवतार लिया था। शूद्र-तुल्य संकर जाति में उत्पन्न महात्मा विदुर धर्मराज के अवतार माने गए हैं। गरुडपुराण और विष्णुधर्मोत्तर-पुराण के अनुसार भी श्रीहरि ने नपुंसक के रूप में अवतार लेकर तारकासुर और नरकासुर का वध किया था।[19] राजा रंतिदेव की परीक्षा लेने के लिए त्रिदेवों ने क्रमशः ब्राह्मण, शूद्र और चंडाल जाति के याचकों का वेष धारण किया था।[20] भगवान् शिव ने किरात के वेष में तपस्वी अर्जुन की परीक्षा ली थी। शांकर-परंपरा में भी शिव का चंडाल के रूप में आदि शंकराचार्य से वार्तालाप प्रसिद्ध है।

संपूर्ण ऐतिहासिक और पौराणिक वाङ्मय में लोमहर्षण अथवा उग्रश्रवा को कहीं भी “ब्राह्मण” नहीं कहा गया है। इसके विपरीत ब्राह्मण वर्ण में भगवान् विष्णु के अन्य अवतारों (वामन, परशुराम) को शास्त्रों में बार-बार “ब्राह्मण” कहा गया है। पुराणों के अनुसार लोमहर्षण को वेदाध्ययन का अधिकार भी नहीं था। इनके वंश में उत्पन्न सभी सूत वेदाधिकार से रहित थे और इन्हें देवताओं, ऋषियों और राजाओं की वंशावली, महात्माओं की स्तुति और पुराणों की कथा सुनाने की वृत्ति प्रदान की गई थी।[21] भागवत-पुराण के अनुसार लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा वेदों को छोड़कर अन्य सभी विषयों के विद्वान् थे।[22] भागवत के प्रायः सभी प्राचीन टीकाकारों ने एकमत होकर इसका कारण उग्रश्रवा का अत्रैवर्णिक होना माना है, जिसके फलस्वरूप वे वेदाधिकार से विहीन थे।

इस प्रकार सूत की उत्पत्ति के आख्यान से स्पष्ट है कि लोमहर्षण सूत जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। इनके पुत्र उग्रश्रवा और अन्य वंशज भी ब्राह्मणेतर थे।

 

३.
अयोनिजत्व से ब्राह्मणत्व नहीं

अब तक पौराणिक प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि लोमहर्षण सूत ब्राह्मणेतर थे। फिर भी, कुछ लोग उन्हें यज्ञ से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण मानने का आग्रह करते हैं। किंतु केवल अयोनिज होने से कोई ब्राह्मण नहीं हो जाता है। अयोनिज संतानों के वर्ण के निर्धारण में यजमान और संकल्प की प्रधानता है।

वाल्मीकीय-रामायण और महाभारत के अनुसार राजा कौशिक (विश्वामित्र) द्वारा किए गए आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए महर्षि वसिष्ठ की दिव्य गाय कामधेनु से कांबोज, पह्लव, द्राविड, शक, शबर, पौंड्र, हरीत, किरात, सिंहल, बर्बर, खस, चिबुक, पुलिंद, चीन, हूण, म्लेच्छ, और केरल जातियों का जन्म हुआ था।[23] किंतु मनुस्मृति और महाभारत के अनुसार इनमें से अनेक जातियाँ मूलतः क्षत्रिय थीं जो कालांतर में क्रियालोप के कारण व्रात्य अथवा शूद्र हो गईं।[24] अतः योद्धाओं के सृजन का संकल्प लेकर कामधेनु के द्वारा उत्पन्न अयोनिज संतानें मूलतः क्षत्रिय ही मानी जाएँगी, न कि ब्राह्मण।

इन व्रात्य-जातियों के क्षत्रियत्व से पतित होने के पीछे कुछ प्रसिद्ध पौराणिक आख्यान भी प्राप्त होते हैं, जिनके अनुसार राजा सगर ने गुरु वसिष्ठ की आज्ञा से इन्हें प्राण-दान देकर क्षात्र-धर्म से बहिष्कृत कर दिया था।[25] दूसरे आख्यान में ऋषि जमदग्नि की हत्या कर कुछ क्षत्रिय पर्वतीय दुर्गों में छिप गए थे। कालांतर में ये द्रमिड, काश, पौंड्र, और शबर बन गए।[26] प्रत्येक जाति की उत्पत्ति की स्वतंत्र कथा भी हैं, जैसे पुलिंदों का प्रादुर्भाव भ्रूणहत्या के पाप से ग्रस्त इंद्र के शरीर से माना गया है।[27] दूसरी ओर इनमें से शबर और म्लेच्छ आदि अनेक जातियों को वर्ण-संकर भी कहा गया है।[28]

इस प्रकार एक ही जाति की उत्पत्ति अयोनिपूर्वक दिव्य कारण, उच्च जाति से पतन और वर्ण-सांकर्य – इन तीनों से हो सकती है। यदि सूत-जाति की उत्पत्ति भी यज्ञ में अयोनिपूर्वक और लोक में वर्ण-सांकर्य – दोनों हेतुओं से मानी जाए तो इसमें कोई विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिए। प्रथम सूत के प्रादुर्भाव में जो यज्ञीय सांकर्य कारण बना था, वही सांकर्य लोक में भी इस जाति के जन्म का कारण बताया गया है। दोनों ही अवस्था में लोमहर्षण और उनके वंशज ब्राह्मण नहीं हैं, अपितु वेदाधिकार से रहित ब्राह्मणेतर हैं।

यदि केवल लोमहर्षण के वर्ण का निर्धारण करना हो तो पहले धृष्टद्युम्न और द्रौपदी की उत्पत्ति विचारणीय है। महाभारत के अनुसार धृष्टद्युम्न की उत्पत्ति अग्नि से और द्रौपदी की उत्पत्ति यज्ञवेदी से हुई थी। महाभारत के टीकाकार नीलकंठ तर्क देते हैं कि जिस प्रकार यज्ञ में क्षत्रिय संतान के संकल्प के कारण उत्पन्न धृष्टद्युम्न क्षत्रिय कहलाए, उसी प्रकार ब्राह्मणोत्पत्ति के संकल्प से उत्पन्न लोमहर्षण को ब्राह्मण मानना चाहिए।[29] यहाँ स्मरणीय है कि धृष्टद्युम्न और द्रौपदी को क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत इसलिए रखा गया था कि इनकी उत्पत्ति में यजमान द्रुपद थे और उनके संकल्प के अनुसार ही हविष्य को श्रपित और क्षत्रियत्व से अभिमंत्रित किया गया था।[30]

अब यही मापदंड लोमहर्षण पर लगाकर देखिए। जिस यज्ञ से लोमहर्षण प्रकट हुए थे, उसमें यजमान क्षत्रिय राजा पृथु थे। यह तो सर्वविदित है कि यज्ञ का फल यजमान को ही मिलता है। किसी क्षत्रिय राजा के यज्ञ के फलस्वरूप उत्पन्न पर अधिकार राजा का ही होगा। मेरे संज्ञान में इतिहास-पुराणों में ऐसा कोई वृत्तांत नहीं प्राप्त होता जब किसी क्षत्रिय यजमान के यज्ञ से ब्राह्मण पुरुष ने जन्म लिया हो। इतना ही नहीं, न तो राजा पृथु ने ब्राह्मण पुरुष की उत्पत्ति का संकल्प लिया था, न ही याजकों ने हविष्य को ब्राह्मणत्व से अभिमंत्रित किया था। प्रत्युत, वायुपुराण के अनुसार लोमहर्षण का जन्म याजकों के प्रमाद से हुआ था, जिसके लिए उन्हें प्रायश्चित्त भी करना पड़ा था।[31] फिर ब्राह्मण यजमान और ब्राह्मणोत्पत्ति के संकल्प – दोनों के अभाव यज्ञोद्भूत लोमहर्षण को ब्राह्मण किस आधार पर माना जाए?

कदाचित् “अग्निर्वै ब्राह्मणः”[32] से पूर्वपक्षी सूत को अग्निजन्मा होने के कारण ब्राह्मण सिद्ध करने का प्रयास कर सकते हैं। यदि यह सत्य होता तो भी ब्राह्मणत्व का प्रमाण नहीं माना जाता क्योंकि साक्षात् अग्नि से उत्पन्न होने वाले धृष्टद्युम्न को भी क्षत्रिय ही माना गया है। सूत का उत्पत्ति-स्थान तो अग्नि से दूर है। इस स्थान को विष्णुपुराण और पद्मपुराण में “सूति” अथवा “सूती” कहा गया है। वायुपुराण के अनुसार यह “सुत्या” है। टीकाकारों ने इसका अर्थ “सोमाभिषव-भूमि” माना है।[33] श्रौत-यज्ञों में ग्रावा नामक प्रस्तर से सोमलता को पीसकर उसका रस निकालने की क्रिया को अभिषव कहते हैं। यह कार्य उत्तरवेदी के पश्चिम मंडप में किया जाता है।[34] लोमहर्षण का जन्म इसी पश्चिम मंडप की भूमि से हुआ था, साक्षात् अग्नि से नहीं।

अतः ब्राह्मणोत्पत्ति के सभी कारणों के अभाव में लोमहर्षण को ब्राह्मणेतर मानना ही समीचीन है।

 

४.
सूत की उभय परंपरा

महर्षि व्यास के शिष्य लोमहर्षण दो परंपराओं के प्रवर्तक थे – प्रथम पौराणिकों की ब्राह्म परंपरा और दूसरी सूत शासकों की क्षात्र परंपरा। भागवत-पुराण के अनुसार पूर्वकाल में महर्षि व्यास ने लोमहर्षण को प्रथम “ब्राह्म” पुराण की संहिता का अध्ययन कराया था। तदनंतर लोमहर्षण के द्वारा प्रतिपादित पुराण-संहिता का नाम “रोमहर्षणिका” हुआ। इनके छह शिष्य हुए, जो “पौराणिक” कहलाए – त्रय्यारुणि, कश्यप (अथवा काश्यप), सावर्णि, अकृतव्रण, वैशंपायन (शिंशपायन अथवा शांशपायन) और हारीत। विष्णुपुराण में इनमें से तीन नाम सुमति, अग्निवर्चा, और मित्रायु बताए गए हैं।[35]

लोमहर्षण के शिष्यों में से काश्यप, सावर्णि और शांशपायन – ये तीन संहिताकार हुए। इस प्रकार एक ही आदि पुराण की चार अलग-अलग संहिताओं का निर्माण हुआ। लोमहर्षण की मृत्यु के पश्चात् उग्रश्रवा ने लोमहर्षण के शिष्यों से पुराण का ज्ञान प्राप्त किया। यदि लोमहर्षण के इन सभी शिष्यों को ब्राह्मण मान लिया जाए तो भी इतना तो सिद्ध है कि लोमहर्षण के शिष्यों के शिष्य उग्रश्रवा हुए थे जो सूत जाति के ही थे।[36] इस प्रकार पुराण-विद्या की एक परंपरा सूत-जाति में सुरक्षित रही।

बृहस्पति से प्राप्त ब्राह्म परंपरा के साथ-साथ लोमहर्षण और उनके वंशज इंद्र से प्राप्त क्षात्र परंपरा के भी संवाहक रहे हैं। पुराणों में कथा है कि लोमहर्षण के स्तुति-पाठ से प्रसन्न होकर राजा पृथु ने इन्हें अनूप देश का राज्य प्रदान किया।[37] “अनूप” का शाब्दिक अर्थ है “जलीय अथवा दलदल से भरा प्रदेश”।[38] संभवतः यह नर्मदा के तट पर स्थित माहिष्मती अथवा गुजरात के कच्छ क्षेत्र में रहा होगा। लोमहर्षण के पश्चात् अनूप-देश के जितने भी राजाओं का उल्लेख प्राप्त होता है, उनमें से किसी को भी ब्राह्मण नहीं कहा गया है।

राज्य प्राप्त कर सूतों ने क्षत्रियों के साथ वैवाहिक संबंध बनाए।[39] कालातंर में सूतों ने अंग और केकय जैसे देशों में भी शासन स्थापित किया।[40] राजा अंग के वंश में अधिरथ हुए जिन्होंने कुंतीपुत्र कर्ण का पालन-पोषण किया।[41] ये अधिरथ हस्तिनापुर-नरेश धृतराष्ट्र के सखा थे। ध्यातव्य है कि वायुपुराण के अनुसार कर्ण के पौत्र को भी “द्विज” कहा गया है।[42]

इस प्रकार सूतों में ब्राह्म और क्षात्र- दोनों परंपराएँ प्रचलित रही हैं। फिर भी इनका सामीप्य क्षत्रियों से अधिक रहा है। लोमहर्षण के प्राकट्य के समय ही इन्हें क्षत्रियों के समान धर्म-वाला घोषित कर दिया गया था।[43] अतः लोमहर्षण के वंशजों के ब्राह्म और क्षात्र मिश्रित आचरण से भी इनके ब्राह्मणेतर सूत होने का ही समर्थन होता है।

 

५.
अपनी जाति के विषय में उग्रश्रवा का मत

“उग्रश्रवा” का शाब्दिक अर्थ है “उग्र” अथवा “तेजोमय” कर्ण हो जिनके।[44] जिस प्रकार अपने पुराण-वक्तृत्व से ऋषियों में रोमांच उत्पन्न करने के कारण लोमहर्षण का नाम-करण किया गया, उसी प्रकार अभूतपूर्व श्रवण-शक्ति के कारण उग्रश्रवा का नाम भी प्रसिद्ध हुआ। स्वजाति के निर्णय में ऐसे आप्त पुरुष का वचन भी एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है।

उग्रश्रवा स्वयं को प्रतिलोम सूत जाति में उत्पन्न मानते थे। ब्रह्मवैवर्त-पुराण में वर्ण-संकर जातियों के निरूपण में उग्रश्रवा ने अपने पिता के जन्म का वृत्तांत भी सुनाया है।[45] एक ओर प्रसंग से स्पष्ट है कि लोमहर्षण वर्ण-संकर थे, दूसरी ओर उग्रश्रवा ने यह भी कहा है कि सूत पिता और वैश्य माता से उत्पन्न संतान “भट्ट” कहलाती है। यदि सूत ब्राह्मण होते तो उनसे उत्पन्न संतान की “भट्ट” संज्ञा नहीं होती।[46] भागवत-पुराण में भी शौनक आदि ऋषियों के सम्मुख उग्रश्रवा स्वयं को हीनजन्मा बताते हैं-

अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म वृद्धानुवृत्त्याऽपि विलोमजाताः ।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं महत्तमानामभिधानयोगः ॥[47]

अर्थात् “अहो, हम विलोमज होकर भी आप ज्ञानवृद्ध ऋषियों की सेवा से आज सफल जन्म वाले बने हैं। आप महापुरुषों के साथ संबंध अकुलीनता-रूपी पीड़ा को तत्काल दूर कर देता है।”

यद्यपि यह श्लोक विनय में कहा गया है, तथापि “विलोमजात” शब्द से सिद्ध है कि उग्रश्रवा स्वयं को वर्ण-संकर मानते थे। प्रायः सभी टीकाकारों ने इस श्लोक में प्रयुक्त “विलोमजात” का अर्थ वर्ण-संकर सूत किया है।[48] इनमें जीव गोस्वामी, वीरराघवाचार्य, विजयध्वजतीर्थ, विश्वनाथ चक्रवर्ती, शुकदेव, स्वामी वल्लभाचार्य, पुरुषोत्तम गोस्वामी और गिरिधरलाल सम्मिलित हैं। टीकाकारों के मत का सारांश यह है कि उग्रश्रवा क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण माता से उत्पन्न प्रतिलोम सूत जाति में जन्मे थे, किंतु ऋषियों के संसर्ग से उनका अकुलीनता-जन्य दोष दूर हो गया था। पुरुषोत्तम गोस्वामी तो यह भी कहते हैं कि सूतों की मुख्य वृत्ति पुराणों का वाचन है, अश्व-चिकित्सा उनकी अवर वृत्ति है।

यदि पूर्वपक्षी का कथन सत्य होता और उग्रश्रवा ब्राह्मण होते तो वे अन्य ब्राह्मणों के सम्मुख स्वयं को विलोमज और अकुलीन क्यों बताते?

 

६.
“द्विज” शब्द से ब्राह्मणत्व नहीं

पौराणिक प्रमाणों से लोमहर्षण सूत को ब्राह्मणेतर सिद्ध करने के पश्चात् हम पूर्वपक्षी के एक-एक तर्क का खंडन प्रारंभ करते हैं। बलदेव उपाध्याय ने अपनी पुस्तक “आर्य-संस्कृति” में लोमहर्षण को “महाविद्वान् ब्राह्मण” घोषित किया है।[49] इसके समर्थन में वे अग्निपुराण का वचन उद्धृत करते हैं, जहाँ सूत को “द्विज” कहा गया है-

पृषदाज्यात्‌ समुत्पन्नः सूतः पौराणिको द्विजः ।
वक्ता वेदादिशास्त्राणां त्रिकालानलघर्मवित् ॥

किंतु बलदेव उपाध्याय का यह मत भ्रांत है। सर्वप्रथम तो अग्निपुराण के वर्तमान कलेवर में उनके द्वारा उद्धृत श्लोक नहीं मिलता है। प्रचलित मध्यकालीन निबंध-ग्रंथों में भी यह दुर्लभ है। इस श्लोक का अप्राप्य होना विचारणीय है क्योंकि इसमें सूत को वेद आदि शास्त्रों का वक्ता कहा है। किंतु हम देख चुके हैं कि पद्मपुराण, वायुपुराण और कूर्मपुराण के अनुसार लोमहर्षण और उनके सभी वंशज वेदाधिकार से रहित थे। फिर वे वेद के वक्ता कैसे हो सकते हैं? यदि “वेद” से तात्पर्य पंचम वेद अर्थात् इतिहास लिया जाए, तभी यह संभव है।

फिर भी हम पूर्वपक्षी के संतोष के लिए इस श्लोक को पुराण का वाक्य स्वीकार कर लेते हैं। यह क्षणिक स्वीकृति उनके तर्क के शैथिल्य को प्रदर्शित करने के लिए है, क्योंकि किसी को “द्विज” कहने भर से कोई ब्राह्मण सिद्ध नहीं होता है। यह शब्द तो सभी उपनीतों के लिए प्रयुक्त होता रहा है।[50]

जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, औशनस-स्मृति, महाभारत और गौतम-धर्मसूत्र पर हरदत्त की टीका में वर्ण-संकर सूत को उपनयन के अधिकार से संपन्न बताया गया है। तदनुसार औशनस-स्मृति और महाभारत में वर्ण-संकर सूत के लिए “द्विज” शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया गया है। इतिहास-पुराणों में एक-दो स्थानों पर सूत को “द्विज” कहकर संबोधित किया गया है। उनका अर्थ इसी संदर्भ में समझना चाहिए।[51] ऐसा प्रतीत होता है कि बलदेव उपाध्याय ने इन पुष्ट शास्त्र-प्रमाणों की उपेक्षा कर अपना मत बनाया है। अतः यद्यपि लोमहर्षण सूत “महाविद्वान्” थे, तथापि उन्हें “ब्राह्मण” कहना उचित नहीं है।

 

७.
आभाणकों से शास्त्र-निर्णय नहीं

“द्विज” शब्द के अर्थ-निर्धारण के प्रसंग में किसी विद्वान् ने प्रतिप्रश्न किया है –

“यदि द्विज शब्द त्रैवर्णिकों के लिए ही प्रयुक्त है, तो ‘द्विजे महच्छब्दो न दीयते’ पंक्ति में महाद्विज का अर्थ महाब्राह्मण ही क्यों?”

यहाँ प्रश्नकर्ता एक आभाणक का उद्धरण दे रहे हैं, जो इस प्रकार है-

शङ्खे तैले तथा मांसे वैद्ये ज्योतिषके द्विजे ।
यात्रायां पथि निद्रायां महच्छब्दो न दीयते ॥

अर्थात् शंख, तैल, मांस, वैद्य, ज्योतिष, द्विज, यात्रा, पथ और निद्रा के पूर्व “महत्” शब्द नहीं लगाया जाता है।

इस आभाणक का मूल ज्ञात नहीं है, किंतु इसका प्रयोग महाकाव्यों के शब्दों को समझाने के लिए टीकाओं में मिलता रहा है। संभवतः इस आभाणक का प्रथम उल्लेख भरतमल्लिक द्वारा भट्टिकाव्य (१.४) की टीका में प्राप्त होता है। मल्लिनाथ सूरि ने भी इस कारिका का उद्धरण दिया है।

यद्यपि यह आभाणक लोक में प्रचलित है, तथापि शास्त्र-वाक्यों के अर्थ-निर्धारण में इसका आश्रय अनर्थमूलक है। सर्वप्रथम यह कहा जा सकता है कि इस आभाणक में “द्विज” का अर्थ केवल “ब्राह्मण” है, क्योंकि “महाद्विज” से तात्पर्य निंदित ब्राह्मण ही है, सर्वसामान्य निंदित उपनीत त्रैवर्णिक नहीं। किंतु सत्य तो यह है कि “महाद्विज” शब्द का एक भी प्रचलित निंदितार्थ-प्रयोग दुर्लभ है। यदि निंदितार्थ-प्रयोग मिलता है तो केवल “महाब्राह्मण” का। “महाब्राह्मण” का प्रयोग प्राप्त भी होता है तो केवल लौकिक साहित्य में। उदाहरण-स्वरूप भवभूति के महावीर-चरित नाटक में शतानंद परशुराम को “महाब्राह्मण” कहते हैं – “त्वमसि किं ब्राह्मण एव? अहो महाब्राह्मणस्याचारः!”।

इसी प्रकार मृच्छकटिक में विट विदूषक को कहता है – “महाब्राह्मण! मर्षय मर्षय”। कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल और मालविकाग्निमित्र में भी “महाब्राह्मण” शब्द ही आया है, “महाद्विज” नहीं। जब लोक में “महाद्विज” शब्द निंदितार्थ में प्रचलित ही नहीं है (जबकि “महाब्राह्मण” है), तब आभाणक के “द्विज” शब्द का विशिष्टार्थ “ब्राह्मण” लेने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।

यह भी सुज्ञेय है कि आभाणकों की पद्धति अल्प शब्दों में सारगर्भित बात कहने की है। लोक में सर्वविदित है कि मृतकों के निमित्त नारायण-बलि और पिंडदान लेने वाले ब्राह्मण “महाब्राह्मण” कहलाते हैं। “महाब्राह्मण” शब्द के प्रचलन से परिचित लोग आभाणक में प्रयुक्त “द्विज” शब्द का अर्थ “ब्राह्मण” लगा लेंगे – ऐसी आशा की जाती है। साथ ही ध्यातव्य है कि लोक में भी यह आभाणक सार्वत्रिक नहीं है। आर्यशूर ने जातकमाला (शशजातक) में “महाब्राह्मण” का प्रयोग महान् अथवा सम्मानित ब्राह्मण के अर्थ में किया है। जब लोकानुप्राणित आभाणक का व्यतिक्रम लोक में ही दीखता है तो शास्त्रों को उसके अनुरूप ढालने का प्रयास व्यर्थ है।

लोक-व्यापार से परे शास्त्रों में “महाब्राह्मण” अथवा “महाद्विज” प्रायः प्रशस्त अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण-स्वरूप बृहदारण्यक उपनिषद् में “महाब्राह्मण” शब्द “महान् ब्राह्मण” के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ शांकर-भाष्य में “अत्यधिक परिपक्व विद्या और विनय से संपन्न ब्राह्मण” बताया गया है।[52] ब्रह्मसूत्र पर शांकर-भाष्य में तो महाब्राह्मण का अर्थ “चारों वेदों का अध्ययन करने वाला” बताया गया है।[53] इतिहास-पुराणों में भी “महाब्राह्मण” अथवा “महाद्विज” शब्द निन्दित अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुए हैं।[54] दार्शनिक प्रकरण-ग्रंथों में “महाब्राह्मण” का अभिप्राय निंदित नहीं है।[55] फिर जब शास्त्रों में इस आभाणक की अप्रासंगिकता स्पष्ट है तो उनमें प्रयुक्त शब्दों के अर्थ-निर्धारण में इस आभाणक का प्रयोग क्यों किया जाए?

वस्तुतः उचित तो यही है कि शास्त्रों में प्रयुक्त “द्विज” शब्द का निर्धारण शास्त्र-प्रमाणों के आधार पर ही किया जाए। स्मृति-ग्रंथों में “द्विज” की परिभाषा स्पष्ट है। त्रैवर्णिकों का प्रथम जन्म माता के गर्भ से और द्वितीय जन्म मौंजी-बंधन से माना गया है। अत एव उपनयन-संस्कार से संपन्न ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य को “द्विज” कहा जाता है-

मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जिबन्धनात् ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः ॥[56]

अब यदि प्रसंग से ही “सूतः पौराणिको द्विजः” में “द्विज” का अर्थ दिखाने का आग्रह हो तो अग्निपुराण के वर्तमान कलेवर में यह श्लोक अप्राप्य है। तब श्लोक का प्रसंग शास्त्रांतर में ही अन्वेषणीय है। हम पहले ही देख चुके हैं कि वायुपुराण में लोमहर्षण सूत को “वर्णवैकृत” और पद्मपुराण, वायुपुराण और कूर्मपुराण में उन्हें और उनके सभी वंशजों को वेदाधिकार से रहित बताया गया है। वह कैसा ब्राह्मण जो वेदाधिकार से रहित हो? अतः “सूतः पौराणिको द्विजः” में “द्विज” का अर्थ ब्राह्मण नहीं हो सकता है। वहीं दूसरी ओर औशनस-स्मृति, महाभारत और गौतम-धर्मसूत्र पर हरदत्त की टीका में वर्ण-संकर सूत को उपनयन के अधिकार से संपन्न बताया गया है। तदनुसार औशनस-स्मृति में वर्ण-संकर सूत के लिए “द्विज” शब्द का प्रयोग भी किया गया है।

इन सभी शास्त्रीय प्रमाणों का समन्वय यही है कि लोमहर्षण उपनयन-संस्कार से संपन्न सूत थे, ब्राह्मण नहीं।

 

८.
लोमहर्षण की सर्वज्ञता

ब्रह्मपुराण के एक श्लोक में ऋषियों ने लोमहर्षण को “सर्वज्ञ” कहा है – “हे महामति! वेद, शास्त्र, महाभारत, पुराण और मोक्षशास्त्र में ऐसा कुछ नहीं है जो आपसे अज्ञात हो। आप सर्वज्ञ हैं।”[57] इस श्लोक के आधार पर दीनानाथ शास्त्री तर्क देते हैं कि लोमहर्षण वेदों के ज्ञाता थे; अत एव, ब्राह्मण थे।

सर्वप्रथम यह ध्यातव्य है कि केवल वेदों का ज्ञाता होने से कोई ब्राह्मण सिद्ध नहीं हो जाता है। अवश्य ही पूर्वपक्षी इल, सगर, और ययाति जैसे राजाओं को ब्राह्मण मानते होंगे क्योंकि उन्हें भी अनेकत्र वेदों का ज्ञाता कहा गया है।[58] न तो वेदज्ञता ब्राह्मणत्व का प्रमाण है, न ही वेदाधिकार। ये दोनों तत्त्व ब्राह्मणों के अतिरिक्त त्रैवर्णिकों में भी होते रहे हैं। अतः वेदज्ञ कहलाए जाने से लोमहर्षण का ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता।

दूसरा समाधान यह है कि वेदों का मर्म जानने और वेदों का विधिवत् अध्ययन करने में अंतर है। वेदों का विधिवत् अध्ययन किए बिना कोई अत्रैवर्णिक भी पूर्व-जन्म के पुण्य अथवा गुरु और देव की कृपा से वेदों के सार का ज्ञाता हो सकता है। ऐसे ज्ञाताओं की कोटि में यदि विदुर और धर्मव्याध के साथ-साथ लोमहर्षण सूत भी सम्मिलित हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

तीसरा समाधान यह है कि ब्रह्मपुराण के इस श्लोक का प्रयोजन लोमहर्षण की प्रशंसा करके उन्हें संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय का वृत्तांत सुनाने के लिए प्रेरित करना है।[59] हरिवंश-पुराण के अनुसार वेद, रामायण और महाभारत के आदि, मध्य और अंत में सर्वत्र भगवान् श्रीहरि का ही वर्णन है।[60] भगवान् की लीलाओं के रहस्य को जानने के कारण लोमहर्षण वेदों के सार को भी समझते हैं। तदनुरूप ही ऋषियों के निवेदन पर ब्रह्मपुराण की कथा सुनाने से पूर्व लोमहर्षण ने भगवान् विष्णु को नमस्कार किया है।[61]

चतुर्थ समाधान यह है कि समस्त वेद विष्णुमय और शिवमय हैं।[62] अतः यदि विष्णु-तत्त्व और शिव-तत्त्व का साक्षात्कार करने वाले लोमहर्षण को भी वेदों का ज्ञाता कह दिया जाए तो इसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी।

पंचम समाधान पूर्वपक्षी स्वयं अपने एक अन्य लेख में उपस्थापित करते हैं। पूर्वपक्षी के अनुसार शास्त्रों में कहीं वेदाधिकार से रहित व्यक्ति के द्वारा वेदाध्ययन का प्रसंग आए तो वहाँ “वेद” शब्द से पुराण, इतिहास अथवा नाट्यशास्त्र का बोध कर लेना चाहिए।[63] चूँकि अन्य पुराणों में लोमहर्षण और उनके वंशजों को वेदाधिकार से रहित माना गया है, इसलिए उपर्युक्त श्लोक में “वेद” शब्द का अर्थ पंचम वेद नाट्यशास्त्र अथवा वाल्मीकीय-रामायण मानना उपयुक्त है।[64]

किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि प्रकृत श्लोक में लोमहर्षण को केवल वेदों का ज्ञाता ही नहीं, अपितु “सर्वज्ञ” कहा गया है। प्रश्न है कि वह कौन सा तत्त्व है जिसे जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है? कभी यही प्रश्न शौनक ऋषि ने अंगिरा ऋषि से किया था।[65] कभी इसी तत्त्व का उपदेश अथर्वा ऋषि ने शांडिल्य ऋषि को दिया था।[66] इस परमात्म-तत्त्व के ज्ञाता होने के कारण लोमहर्षण सभी शास्त्रों के ज्ञाता और “सर्वज्ञ” कहे गए हैं, ब्राह्मण होने के कारण वेदाधिकारी नहीं। यही इस श्लोक का तात्पर्य है।

 

९.
“ब्रह्मवित्तम” शब्द से ब्राह्मणत्व नहीं

दीनानाथ शास्त्री यह तर्क देते हैं कि लोमहर्षण के लिए प्रयुक्त तथाकथित “ब्रह्मवित्तम” शब्द से उनका ब्राह्मणत्व सिद्ध होता है।[67] इसके समर्थन में वे कूर्मपुराण का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत करते हैं-

त्वया सूत महाबुद्धे भगवान् ब्रह्मवित्तमः ।
इतिहासपुराणार्थं व्यासः सम्यगुपासितः ॥[68]

पूर्वपक्षी के अनुसार इस श्लोक का अनुवाद इस प्रकार है-

“हे महाबुद्धि वाले सूत, तुम भगवान्, ब्रह्मविदों में श्रेष्ठ (ब्राह्मण) हो। तुमने इतिहास-पुराणों के लिए श्रीव्यासजी की खूब सेवा की थी।”[69]

किंतु किसी भी अध्येता को यह सुज्ञेय होगा कि उद्धृत श्लोक में सूत को कहीं भी ब्राह्मण नहीं कहा गया है। ब्राह्मण क्या, उन्हें ब्रह्मवेत्ता भी नहीं कहा गया है। संस्कृत-भाषा का प्रारंभिक विद्यार्थी भी बता सकता है कि उपर्युक्त श्लोक में “ब्रह्मवित्तम” सूत का नहीं, अपितु महर्षि व्यास का विशेषण है। इसी प्रकार “भगवान्” शब्द भी सूत का नहीं, अपितु व्यास का विशेषण है। संस्कृत में जिस वचन, लिंग और विभक्ति में विशेष्य होता है, उसी में विशेषण भी होना चाहिए-

यल्लिङ्गं यद्वचनं या च विभक्तिर्विशेष्यस्य ।
तल्लिङ्गं तद्वचनं सा च विभक्तिर्विशेषणस्यापि ॥

विशेषण-विशेष्य के इस सामान्य नियम से अनभिज्ञ पूर्वपक्षी से दुराग्रह के अतिरिक्त और क्या अपेक्षा की जा सकती है?

पूर्वपक्षी के अशुद्ध अनुवाद के विपरीत श्लोक का शुद्ध अनुवाद यहाँ दिया जा रहा है-

“हे महाबुद्धिमान् सूत! इतिहास और पुराण के ज्ञान के लिए आपके द्वारा ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान् व्यास की सम्यक् प्रकार से उपासना की गई है।”

यदि लोमहर्षण को ब्रह्मवेत्ता मान भी लिया जाए तो उससे उनका ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं होता है। इतिहास-पुराण में जनक, विदुर और धर्मव्याध से लेकर वर्तमान काल तक ऐसे अनेक ब्रह्मवेत्ता हुए हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं थे। महाभारत में ही राजा मुचुकंद को “ब्रह्मवित्” और भीष्म को “ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ” कहा गया है।[70] अब पूर्वपक्षी क्या इन्हें भी ब्राह्मण मानने का आग्रह करेंगे?

 

१०.
अभिवादन से ब्राह्मणत्व नहीं

पूर्वपक्षी का एक तर्क है कि लोमहर्षण ब्राह्मण इसलिए थे क्योंकि ऋषियों ने उनका अभिवादन किया था[71] और कोई ब्राह्मण अवर वर्ण के पुरुष का अभिवादन नहीं कर सकता। किंतु यह मत धर्मशास्त्रों के विपरीत है।

मनु और याज्ञवल्क्य के अनुसार मनुष्य को सम्मान दिलाने के पाँच कारण होते हैं – धन, स्वजन, आयु, सत्कर्म और विद्या। ये उत्तरोत्तर एक दूसरे से श्रेष्ठ हैं।[72] सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने का सर्वोच्च साधन विद्या है। चतुर्दश विद्याओं में पुराण का अनन्य स्थान है। फिर पुराण के परम ज्ञाता सूत को मुनियों के द्वारा सम्मानित क्यों नहीं होना चाहिए?

याज्ञवल्क्य-स्मृति की टीका में अपरार्क लिखते हैं कि उत्कृष्ट गुण और विद्या से युक्त पुरुष, यद्यपि निम्न जाति का हो, उच्च जातिवाले के लिए माननीय होता है। अतः जाति की उपेक्षा कर अधिक विद्वान् मनुष्य, कम विद्वान् के लिए आदरणीय है।[73]

इतना ही नहीं, मनु तो यह भी निर्देश करते हैं कि जिससे भी लौकिक, वैदिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ हो, उसका अभिवादन सभा में सबसे पहले करना चाहिए।[74] महाभारत में श्रीकृष्ण भी इस आचरण का अनुमोदन करते हैं।[75] तब जिस वक्ता से शौनक आदि अनेक मुनियों ने वर्षों तक पुराणों की कथा सुनी हो, उस ज्ञान-दाता का वे अभिवादन क्यों नहीं करेंगे?

किसी का अभिवादन करने का यह तो अर्थ नहीं कि उसे दंडवत् प्रणाम किया जाए। ब्राह्मण से कुशल, क्षत्रिय से नीरोगता, वैश्य से संपन्नता और शूद्र से आरोग्य के विषय में प्रश्न कर लेना ही अभिवादन है।[76] यहाँ तक कि पतंजलि के महाभाष्य में आचार्य के द्वारा शूद्र विद्यार्थी से भी कुशल-प्रश्न करने का उल्लेख मिलता है – “तुषजक! कुशल हो?”[77] नागेश-भट्ट के अनुसार ऐसा कुशल प्रश्न “प्रतिसंभाषणमात्र” अर्थात् किसी संभाषण का साधारण उत्तर है। कैयट के अनुसार यह आशीर्वचन भी हो सकता है। अब यदि मुनियों ने सूत का अभिवादन कर उन्हें कुशल रहने का आशीर्वाद दे दिया तो इसमें कैसा दोष है? अनेक पुराणों में ऋषियों ने सूत को दीर्घायु होने और सुखी रहने का आशीर्वाद दिया है।[78]

भागवत-पुराण में भी ऋषियों ने सूत का “सत्कार” किया है।[79] टीकाकारों ने यहाँ “सत्कार” के विभिन्न अर्थों को प्रकाशित किया है-

(१) यथोचित सम्मान,
(२) यथायोग्य पूजा,
(३) आदरपूर्वक संभाषण, और
(४) हीनजन्मा सूत को भी ब्राह्मणों के मध्य “ब्रह्मासन” का दान।[80]

इस सत्कार का प्रयोजन सूत से पुराण-कथाओं के विषय में जिज्ञासा प्रकट करना है।

केवल अभिवादन करने से यदि सूत ब्राह्मण सिद्ध हो सकते हैं तो श्रीराम, श्रीकृष्ण, और बलराम समेत अनेक ब्राह्मणेतरों को भी ब्राह्मण मान लेना चाहिए, क्योंकि ब्राह्मण मुनियों ने स्थान-स्थान पर इन्हें नमस्कार किया है। बलराम जी के द्वारा सूत के वध के प्रकरण में भी उनके आगमन पर मुनियों ने उठकर उनका अभिवादन किया था। साथ में उनकी पूजा-अर्चना भी की थी।[81] क्या मुनियों के इस आचरण से बलराम जी को भी ब्राह्मण सिद्ध कर दिया जाए? यहाँ तक कि महाभारत में तथाकथित “निम्न” जाति में उत्पन्न हुए महात्मा विदुर के इंद्रप्रस्थ-आगमन पर वहाँ के द्विजातियों ने उनकी पूजा की है।[82] भागवत-पुराण में यदुवंशी उद्धव जी ने कृष्ण-भक्त गोपियों की चरण-रेणु को शिरोधार्य करने में अपना सौभाग्य माना है।[83]

यदि पूर्वपक्षी यह आक्षेप करें कि ब्राह्मणों से सम्मानित ये सभी महात्मा तो देवताओं के अवतार थे तो वहाँ ध्यातव्य है कि पुराणों में लोमहर्षण सूत को भी भगवान् विष्णु का अंशावतार कहा गया है। फिर मुनियों द्वारा सूत का अभिवादन किए जाने से उनका ब्राह्मणत्व नहीं, अवतार होना ही द्योतित होता है।

परमेश्वर का वास सभी जातियों में है – यह भावना वेदों से ही सनातन धर्म में प्रतिष्ठित रही है। यजुर्वेद के शतरुद्रीय में रथकार, कुंभकार, लोहार, और निषाद जैसी शिल्पी जातियों को नमस्कार किया गया है। टीकाकार भट्ट भास्कर के अनुसार इसका कारण यह है कि इन जातियों में देवता का अधिष्ठान है और ये परमेश्वर की कृपा-पात्र हैं।[84] अतः मुनियों के अभिवादन के कारण भी लोमहर्षण को ब्राह्मण नहीं माना जा सकता है।

 

११.
महाभारत के वाक्य का दुर्विनियोग

१७वीं शताब्दी में नीलकंठ चतुर्धर द्वारा प्रणीत महाभारत की भारत-भाव-दीप टीका और १९वीं शताब्दी में वंशीधर शर्मा द्वारा प्रणीत भागवत-पुराण की भावार्थ-दीपिका-प्रकाश टीका में लोमहर्षण सूत को ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए यह तर्क दिया गया है कि शौनक आदि महान् मुनि-गण किसी हीन जाति में उत्पन्न पुरुष से परम तत्त्व का ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकते थे। अतः लोमहर्षण अवश्य ही ब्राह्मण होने चाहिए।[85] अपने मत के समर्थन में दोनों टीकाकार एक ही वाक्य उद्धृत करते हैं – “न हीनतः परमभ्याददीत”।

किंतु नीलकंठ और वंशीधर शर्मा का यह मत समीचीन नहीं है। सर्वप्रथम तो वंशीधर शर्मा उद्धृत वाक्य को श्रुति-वाक्य मानते हैं। किंतु यह वाक्य वेद में नहीं है। यह महाभारत का श्लोकांश है। संपूर्ण श्लोक इस प्रकार है-

नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी न हीनतः परमभ्याददीत ।
ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत न तां वदेद् रुशतीं पापलोक्याम् ॥[86]

महाभारत में यह श्लोक चार प्रसंगों में आया है-

१. ययाति का पुत्र पुरु को उपदेश, जिसकी पुनरावृत्ति मत्स्यपुराण में है,

२. द्यूत-क्रीड़ा के समय विदुर द्वारा दुर्योधन की भर्त्सना,

३. हंस का साध्य-गणों से संवाद (हंस-गीता), और

४. दानधर्म-पर्व के अंतर्गत भीष्म का युधिष्ठिर को उपदेश।

इन चारों स्थानों पर इस श्लोक का उल्लेख वाक्संयम का उपदेश देने के लिए हुआ है। उपर्युक्त श्लोक का अनुवाद इस प्रकार है-

“किसी के मर्म को (कठोर वचनों से) चोट नहीं पहुँचाए, न नृशंस वचन बोले, और न हीन वचनों (अथवा अनुचित साधनों) से दूसरे को वश में करे। जिस वाणी से दूसरे को उद्वेग हो, उस अकल्याणमयी और पापी जनों के द्वारा व्यवहृत (अथवा पापमय लोकों की ओर ले जाने वाली) वाणी को न बोले।”[87]

उपर्युक्त श्लोक के सभी अवयवों से यह स्पष्ट है कि इसका विषय वाणी का संयम है। प्रायः सभी प्रसंगों में इस श्लोक के पश्चात् भी वाक्संयम का उपदेश निरंतर चलता रहता है।[88] इस प्रकरण के अनुरूप ही “न हीनतः परमभ्याददीत” का अर्थ करना चाहिए। “अभ्यादा” (अभि + आ + दा) का अर्थ “लेना”, “छीनना”, अथवा “प्रारंभ करना” होता है। तदनुरूप विभिन्न टीकाकारों ने वाक्य की दो प्रमुख व्याख्याएँ की हैं-

१. किसी पराए को हीन दोषों से कलंकित न करें,
२. किसी शत्रु को द्यूत आदि हीन अभिचार कर्मों से वश में नहीं करें।[89]

इनमें से प्रथम अर्थ देवबोध द्वारा प्रणीत महाभारत की (वर्तमान में उपलब्ध) प्राचीनतम टीका में प्रदत्त है। यह व्याख्या लक्षालंकार-टीका के प्रणेता वादिराज यति द्वारा भी मान्य है। किंतु आश्चर्य तो यह है कि नीलकंठ ने सूत के प्रकरण में इस वाक्य के जिस अर्थ (“किसी हीनजन्मा से परम रहस्य का ज्ञान नहीं ले”) को स्वीकार किया था, उसे ही संपूर्ण श्लोक की व्याख्या करते हुए त्याग दिया है। प्रत्युत, यहाँ नीलकंठ उपर्युक्त द्वितीय अर्थ के समर्थक बन गए हैं।

इनके दो अर्थों के अतिरिक्त इस वाक्य के कुछ अन्य प्रसंगानुकूल अर्थ किए जा सकते हैं-

१. किसी पराए को हीन वचनों (असत्य-भाषण, प्रवंचना आदि) से वश में नहीं करे

२. पराई संपत्ति को हीन वचनों से नहीं छीने

सभी व्याख्याओं का मूलभूत अभिप्राय लगभग समान है – किसी पराए व्यक्ति को हीन वचनों अथवा अनुचित साधनों से कष्ट नहीं देना चाहिए। किंतु सूत के प्रकरण में नीलकंठ और वंशीधर शर्मा उपर्युक्त वाक्य का अर्थ इस प्रकार लगाना चाहते हैं – “हीन-जाति से परम रहस्य को ग्रहण नहीं करे” – जो वाक्संयम के उपदेश के मध्य अप्रासंगिक होने के कारण स्वीकार्य नहीं है। यहाँ किसी हीन वर्ण में जन्मे व्यक्ति से उच्च विद्या ग्रहण करने का अवसर ही नहीं है। भला, सभागार में द्रौपदी को बलपूर्वक लाने का आदेश देने वाले दुर्योधन को यह उपदेश क्यों दिया जाता कि परम तत्त्व का ज्ञान हीन जाति से नहीं लेना चाहिए? विदुर के कथन का प्रयोजन तो दुर्योधन को परस्त्री को कपटपूर्वक वशीभूत करने से रोकना ही था।

अतः महाभारत के उपर्युक्त वाक्यांश से किसी अवर जाति में उत्पन्न मनुष्य से परम-ज्ञान लेने का निषेध नहीं प्राप्त होता है। प्रत्युत, इस वाक्यांश का नीलकंठ और वंशीधर शर्मा के अभिप्राय से संबंध ही नहीं है। खेद की बात है कि दोनों टीकाकारों ने इस श्लोकांश का न केवल पूर्वापर प्रसंग से असंगत विनियोग किया है, अपितु इसका अर्थ भी अशुद्ध लगाया है। चूँकि “न हीनतः परमभ्याददीत” को शब्द-प्रमाण के रूप में उद्धृत किया गया है, अतः इस प्रमाण के अप्रासंगिक सिद्ध हो जाने से टीकाकारों का निष्कर्ष भी अनुपपन्न हो जाता है।

 

१२.
विद्यादान से ब्राह्मणत्व नहीं

“न हीनतः परमभ्याददीत” का अर्थ स्पष्ट करने के पश्चात् हम नीलकंठ और वंशीधर के मूल तर्क पर विचार करते हैं। पूर्वपक्षी के अनुसार यह कहना अनुचित है कि शौनक आदि महान् मुनियों ने किसी हीन जाति में उत्पन्न पुरुष से परम रहस्य का ज्ञान प्राप्त किया था। एतदर्थ वे चाणक्य-नीति के वचन “नीचादप्युत्तमा विद्या ग्राह्या” का उद्धरण देकर कहते हैं कि यह नीति केवल आपत्काल में विद्या-ग्रहण के लिए अथवा वृत्ति-प्रदायिनी विद्या के लिए है, पारमार्थिक विद्या के लिए नहीं।[90]

किंतु यह तर्क भी उचित नहीं है। महाभारत में ऋषि याज्ञवल्क्य का हितोपदेश है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अंत्यजों से भी ज्ञान प्राप्त करके उस ज्ञान में श्रद्धा रखनी चाहिए। यही मत मनुस्मृति का भी है।[91] यह ज्ञान नित्य-कर्म और शौचाचार के प्रबोध से लेकर अनेक शास्त्रों के उपदेश तक विस्तृत हो सकता है। इसे केवल वृत्ति देनेवाली विद्या तक सीमित मानना अनुचित है। मनु के अनुसार यदि स्त्री और शूद्र शास्त्र-सम्मत और श्रेयस्कर ज्ञान का उपदेश करें तो उस ज्ञान को ग्रहण कर तदनुरूप आचरण करना चाहिए।[92]

जैसा कि मैंने अपने एक पूर्व लेख में स्पष्ट किया था, आपस्तंब धर्मसूत्र पर हरदत्त की टीका और मनुस्मृति (२.२३८) पर मेधातिथि और कुल्लूक भट्ट की टीकाओं के अनुसार अर्थशास्त्र, स्थापत्य, तंत्र, न्यायशास्त्र, काव्य, नाट्यशास्त्र, मंत्र-विद्या, गारुड-विद्या, आयुर्वेद, ज्योतिष, और व्याकरण समेत अनेक विद्याओं का ज्ञान शूद्रों से भी प्राप्त किया जा सकता है।[93]

कुल्लूक भट्ट तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि पूर्व के संस्कारों के कारण किसी अंत्यज को मोक्ष के उपायों का ज्ञान हो तो उससे वह भी ग्रहण करना चाहिए। अर्थशास्त्र से लेकर आत्मविद्या पर्यंत ये सभी विद्याएँ पुराणों में भी समाविष्ट हैं। तदनुसार धृतराष्ट्र ने विदुर से धर्मशास्त्र और कौशिक ने धर्मव्याध से आत्म-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त किया था।[94]

यदि यह कहा जाए कि विदुर और धर्मव्याध प्रभृति जन तो अपवाद-स्वरूप हैं क्योंकि वे दिव्य और अलौकिक चरित्र से संपन्न थे तो वहाँ स्मरणीय है कि लोमहर्षण भी भगवान् विष्णु के अंशावतार थे। अतः मुनियों का लोमहर्षण से पुराणों का ज्ञान प्राप्त करना अनुचित कैसे हो सकता है?

पुनः ऐसा कोई नियम नहीं है कि किसी सामान्य शूद्र अथवा अंत्यज से विद्या नहीं प्राप्त की जा सकती है। आचार्य वराहमिहिर ने तो ज्योतिष शास्त्र में यवन-मत के सूत्रों को भी स्वीकार किया है। उनके अनुसार ज्योतिर्विद् यवन लोग म्लेच्छ होकर भी ऋषियों के समान पूजनीय हैं।[95] इतिहास-पुराणों में मतंग जैसे अंत्यजों का आख्यान भी प्रसिद्ध है, जिन्होंने तप और भगवत्कृपा से ऋषि का पद प्राप्त किया और तदनंतर शबरी समेत अनेक शिष्यों का मार्गदर्शन किया।[96]

यदि यह कहा जाए कि विदुर जैसे शूद्र महात्माओं से विद्या केवल आपत्काल में स्वीकार की जा सकती है तो वह भी नितांत अनुचित होगा क्योंकि महाभारत में स्थान-स्थान पर विदुर के द्वारा मंत्री के रूप में नीति-परक उपदेश दिए गए हैं। क्या शूद्र के द्वारा प्रदत्त ऐसी हितकारिणी विद्या को तब तक ग्रहण नहीं किया जाए, जब तक श्रोता स्वयं संकट में नहीं फँसा हो? यह तो आपत्काल में कूपखनन के समान अनर्थमूलक कल्पना है।[97]

 

१३.
“सौति” शब्द से ब्राह्मणत्व नहीं

पूर्वपक्षी का आग्रह है कि लोमहर्षण के लिए जो “सूत” शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह उनका नाम था, न कि उनकी जाति का अभिधान। इसके लिए वे तीन तर्क देते हैं-

१. लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को “सौति” भी कहते हैं। पाणिनीय-व्याकरण के अनुसार कुछ अपवादों को छोड़कर यह अपत्य प्रत्यय व्यक्ति के नाम में ही लगता है, जाति के नाम में नहीं। जिस प्रकार “द्रोण” नामक व्यक्ति का पुत्र “द्रौणि” (अश्वत्थामा) कहलाता है, उसी प्रकार “सूत” नामक व्यक्ति का पुत्र “सौति” कहलाता है।

२. जिस प्रकार “ब्राह्मण” जाति में उत्पन्न होने वाला पुरुष “ब्राह्मण” ही कहलाता है (“ब्राह्मणि” नहीं), उसी प्रकार “सूत” जाति में उत्पन्न होने वाला “सूत” ही कहलाता है।

३. सूतपुत्र के रूप में प्रसिद्ध कर्ण को “सूत” ही कहा गया है, “सौति” नहीं।[98]

प्रथम तर्क का उत्तर यह है कि इतिहास-पुराणों में उग्रश्रवा को “सूत” और “सौति” दोनों कहा गया है। महाभारत के मंगलाचरण के पश्चात् प्रथम वाक्य में ही उग्रश्रवा को “सूत” कहा गया है-

“लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ॥”[99]

यही वाक्यांश महाभारत में अन्यत्र भी आया है।[100] इसके अतिरिक्त महाभारत के समीक्षित पाठ में शताधिक स्थानों पर उग्रश्रवा के वचन से पूर्व “सूत उवाच” आया है।  यही पद्धति अनेक पुराणों की भी है। अब यदि पिता का नाम “सूत” था तो क्या पुत्र का नाम भी “सूत” था? ऐसे समान नाम वाले पिता-पुत्र का युग्म तो निश्चय ही विलक्षण है। “आत्मा वै जायते पुत्रः” से पुत्र में पिता का स्वरूप अवश्य देखा जा सकता है, किंतु पिता और पुत्र का एक ही नाम होना दुर्लभ है। इतना ही नहीं, लोमहर्षण अपने वंशजों को भी “सूत” कहकर अभिप्रेत करते हैं-

मदन्वये तु ये सूताः सम्भूता वेदवर्जिताः ।
तेषां पुराणवक्तृत्वं वृत्तिरासीदजाज्ञया ॥[101]

मार्कंडेय पुराण में लोमहर्षण को भी “सूतवंशज” कहा गया है।[102] अब यदि “सूत” उनका नाम होता तो वे “सूतवंशज” कैसे कहला सकते थे? उपर्युक्त वचनों से “सूत” शब्द लोमहर्षण, उग्रश्रवा और उनके समस्त वंशजों का वैयक्तिक नाम नहीं, अपितु उनकी जाति का अभिधान सिद्ध होता है।

अब प्रश्न उठता है कि यदि “सूत” व्यक्ति का नाम नहीं, अपितु जाति का नाम है तो “सौति” शब्द की सिद्धि कैसे हो सकती है? यहाँ समस्या पूर्वपक्षी के लिए ही है, क्योंकि वे केवल पाणिनीय-व्याकरण के अनुसार महर्षि व्यास के वाङ्मय में प्रयुक्त शब्दों की साधुता का विवेचन कर रहे हैं। किंतु महाभारत जैसे आर्ष ग्रंथों में ऐसे सहस्रों प्रयोग मिलते हैं जो पाणिनीय-व्याकरण के अनुसार सिद्ध नहीं होते। अत एव, महर्षि व्यास के शब्द-सागर के विषय में महाभारत के टीकाकार देवबोध ने लिखा है-

“महर्षि व्यास के शब्द के विषय में ‘यह नहीं देखा गया है’- ऐसा संशय मत करो, क्योंकि वह पद अज्ञानियों के द्वारा अज्ञात है, न कि अविद्यमान। जिन शब्द-रत्नों को व्यास ने माहेंद्र व्याकरण के समुद्र से उद्धृत किया, क्या वे पाणिनि-रूपी गो-खुर में समा सकते हैं?”[103]

महर्षि व्यास के जिन असंख्य प्रयोगों को वर्तमान में प्राप्त पाणिनि-व्याकरण के द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता है, उनमें “सौति” भी एक है। आर्ष वाङ्मय में जातिवाचक शब्दों में भी अपत्यार्थ इञ्-प्रत्यय प्रयुक्त होता था। इसका प्रमाण महाभारत में ही “सौति” के अतिरिक्त “नैषादि” (प्रायः एकलव्य के लिए प्रयुक्त) और “कैराति” जैसे शब्दों का मिलना है।[104] इन प्रयोगों से पूर्वपक्षी के दूसरे तर्क का भी उन्मूलन हो जाता है।

पूर्वपक्षी का तृतीय तर्क तो विशुद्ध अज्ञानता-जनित है। उनके अनुसार कर्ण को केवल “सूत” कहा गया है, “सौति” नहीं। किंतु महाभारत में स्थान-स्थान पर कर्ण के साथ-साथ संजय, बंदी और दारुकि को भी “सौति” कहा गया है।[105] ये चारों पात्र जाति-सूत ही थे।

महर्षि व्यास की वाणी विपुल है और उनके द्वारा प्रणीत इतिहास-पुराण वेद के समान ही महनीय हैं।[106] हम पाते हैं कि व्यास-वाङ्मय में “सूत” और “सौति” – ये दोनों शब्द जाति-सूतों के लिए प्रयुक्त हुए हैं। अतः उग्रश्रवा के “सौति” अभिधान से उन्हें और उनके पिता लोमहर्षण को ब्राह्मण मान लेना स्वयं को व्यामोह में डालना है।

 

१४.
कौटिल्य के वचन से ब्राह्मणत्व नहीं

लोमहर्षण को ब्राह्मण दिखाने हेतु बलदेव उपाध्याय कौटिल्य के अर्थशास्त्र का एक वाक्य उद्धृत करते हैं-

क्षत्रियात् सूतः। पौराणिकस्त्वन्यः सूतो मागधश्च। ब्रह्मक्षत्राद् विशेषः॥[107]

इस पर बलदेव उपाध्याय की व्याख्या इस प्रकार है –

“क्षत्रिय का ब्राह्मणी में उद्भूत प्रतिलोमज ‘सूत’ कहलाता है। पौराणिक सूत तथा मागध इनसे भिन्न होते हैं। सूत ब्राह्मण से श्रेष्ठ तथा मागध क्षत्रिय से श्रेष्ठ होते हैं।”[108]

यहाँ बलदेव उपाध्याय द्वारा उद्धृत पाठ अर्थशास्त्र के सभी प्रचलित पाठों से भिन्न है – “ब्राह्मणात् क्षत्राद् विशेषः”। मेरे संज्ञान में किसी प्रकाशित संस्करण में यह पाठ नहीं मिलता है।[109] हम यह नहीं कह सकते कि उनके पाठ में “ब्रह्मक्षत्राद्” के स्थान पर “ब्राह्मणात् क्षत्राद्” कैसे आ गया, किंतु इस प्रकार के पाठ-परिवर्तन से पूर्वपक्षी का निजी लाभ है। “ब्रह्मक्षत्राद् विशेषः” का सामान्य अर्थ है – “ब्राह्मण और क्षत्रिय से विशेष”। किंतु पूर्वपक्षी अपने पाठ के आधार पर दिखाना चाहते हैं कि पौराणिक सूत एक भिन्न श्रेणी है, जो ब्राह्मणों से श्रेष्ठ है (“ब्राह्मणाद् विशेषः”)। वहीं पौराणिक मागध क्षत्रियों से श्रेष्ठ हैं (“क्षत्राद् विशेषः”)।

यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि पौराणिक सूत ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठ है तो उन्हें पूर्वपक्षी ब्राह्मण वर्ण में सम्मिलित क्यों करना चाहते हैं? क्यों नहीं ब्राह्मणों से ऊपर एक और वर्ण बनाया जाए जिसमें पौराणिक सूत को रखा जाए? अथवा क्यों न पौराणिक सूत को देव आदि मनुष्येतर योनि का जीव मान लिया जाए?

यदि ऐसा एक भिन्न वर्ण बना भी लिया जाता है तो क्या उसमें लोमहर्षण अकेले परिगणित होंगे अथवा उनके सभी वंशज भी सम्मिलित किए जाएँगे? हम पिछले भाग में देख चुके हैं कि “सूत” केवल लोमहर्षण का नहीं, अपितु उनके सभी वंशजों का भी नाम है। इतिहास-पुराणों में “सूत” एक जातिवाचक अभिधान है। महाभारत में युधिष्ठिर के अनुगामियों में जिन विभिन्न वर्ग के लोगों का उल्लेख है उनमें पौराणिक सूत भी सम्मिलित हैं। इनका उल्लेख बहुवचन में किया गया है।[110] यह स्पष्ट है कि पौराणिक सूत एक समूह अथवा जाति है। अतः लोमहर्षण के सभी वंशजों को एक भिन्न वर्ण में सम्मिलित कर लेना चाहिए।

वस्तुतः पूर्वपक्षी द्वारा उद्धृत कौटिल्य के वाक्य में प्रयुक्त “ब्रह्मक्षत्र” शब्द में समाहार द्वंद्व समास है। इसका विग्रह है – “ब्राह्मण और क्षत्रिय” (“ब्रह्म च क्षत्रं च”)।[111] इन दोनों पदों में एकवद् भाव होने के कारण समस्त पद भी एकवचन में है, द्विवचन में नहीं। दूसरी बात यह है कि अर्थशास्त्र के समीक्षित पाठ में उद्धृत वाक्य का एक पाठभेद प्राप्त होता है – “ब्रह्मक्षत्राद् विशेषतः”।[112] अब ग्रंथ के तृतीय अधिकरण के सप्तम अध्याय के संपूर्ण प्रकरण का अवलोकन करें-

ब्राह्मणस्य वैश्यायामम्बष्ठः। शूद्रायां निषादः पारशवो वा॥ क्षत्रियस्य शूद्रायामुग्रः॥ शूद्र एव वैश्यस्य॥ सवर्णासु चैषामचरितव्रतेभ्यो जाता व्रात्याः॥ इत्यनुलोमाः॥

शूद्रादायोगव-क्षत्त-चण्डालाः॥ वैश्यान्मागध-वैदेहकौ॥ क्षत्रियात्सूतः॥ पौराणिकस्त्वन्यः सूतो मागधश्च। ब्रह्मक्षत्राद् विशेषतः॥ त एते प्रतिलोमाः स्वधर्मातिक्रमाद् राज्ञः सम्भवन्ति॥[113]

हम देख सकते हैं कि उपर्युक्त प्रत्येक वाक्य का अर्थ समझने के लिए “जात” शब्द का अध्याहार आवश्यक है, जैसे – “ब्राह्मणस्य वैश्यायां (जातः) अम्बष्ठः (उच्यते)”। “सवर्णासु चैषामचरितव्रतेभ्यो जाता व्रात्याः”[114] में तो “जात” शब्द स्पष्ट विवक्षित है जहाँ से हम इस शब्द की अनुवृत्ति ले सकते हैं। अब इसी “जात” शब्द का अध्याहार प्रकृत वाक्य में भी करते हैं –

पौराणिकस्त्वन्यः सूतो मागधश्च। ब्रह्मक्षत्राद् विशेषतः (जातः)॥

अर्थात् “पौराणिक सूत और मागध अन्य हैं। ये ब्राह्मण और क्षत्रिय से विशेष प्रकार से उत्पन्न हुए हैं।”

इस व्याख्या से ज्ञात हो जाता है कि कौटिल्य का आशय यह नहीं था कि पौराणिक सूत ब्राह्मण और क्षत्रिय से विशिष्ट थे, अपितु वे उन दोनों वर्णों से एक विशेष विधि (यज्ञीय सांकर्य) से उत्पन्न हुए थे। कौटिल्य के समय दो प्रकार के सूत होते थे –

(१) लौकिक सूत, जो तात्कालिक क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता की संतान थे और |
(२) पौराणिक सूत, जिनकी परंपरा पहले से चली आ रही थी।

दोनों प्रकार के सूत प्रतिलोमज ही माने जाते थे, जैसा कि प्रतिलोमज संतानों के प्रकरण के अंत में कौटिल्य स्पष्ट करते हैं – “ये सब प्रतिलोम हैं…”[115]।

यही द्वैध निषादों में भी देखा गया है। इतिहास-पुराणों के अनुसार आदि निषाद की उत्पत्ति मृत राजा वेन के दक्षिण उरु के मन्थन से हुई थी।[116] किंतु लोक में ब्राह्मण पिता और शूद्रा माता की संतान को भी निषाद कहा गया है।[117] तब पूर्वपक्षी वेन के क्षत्रिय होने के कारण आदि निषाद और उनकी संतति को क्षत्रिय क्यों नहीं मान लेते हैं? वहीं दूसरी ओर केवल ब्राह्मण तथा शूद्रा के संसर्ग से उत्पन्न संतान को वर्ण-संकर निषाद माना जाए। किंतु ऐसा अर्थ किसी शास्त्रकार ने नहीं किया है। पूर्वमीमांसा के “निषादस्थपत्यधिकरण” से यह तो सुविदित ही है कि न तो निषाद त्रैवर्णिक हैं और न “निषादस्थपति”।

जैसा कि हम व्रात्य क्षत्रिय जातियों के प्रसंग में देख चुके हैं, एक ही जाति की उत्पत्ति अनेक कारणों से हो सकती है। इसका यह अर्थ नहीं कि विभिन्न कारणों से उत्पन्न एक ही जाति के लोग सजातीय नहीं हैं। उनमें से केवल एक विधि से उत्पन्न लोगों को स्वेच्छानुसार अन्य वर्ण का मान लेना औचित्य के परे है।

 

१५.
“ब्रह्मन्” संबोधन से ब्राह्मणत्व नहीं

संपूर्ण पौराणिक वाङ्मय में से दीनानाथ शास्त्री भविष्यपुराण का एक उद्धरण देते हैं जहाँ सूत को “ब्रह्मन्” कहकर संबोधित किया गया है-

एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः ।
पृच्छन्ति विनयेनैव सूतं पौराणिकं खलु ॥

भगवन् ब्रूहि लोकानां हितार्थाय चतुर्युगे ।
कः पूज्यः सेवितव्यश्च वाञ्छितार्थप्रदायकः ॥

विनायासेन वै कामं प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ।
सत्यं ब्रह्मन्वदोपायं नराणां कीर्तिकारकम् ॥[118]

अर्थात्

“एक समय नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषि विनयपूर्वक पौराणिक सूत से पूछने लगे – “हे भगवन्! लोकों के हित के लिए चारों युगों में कौन पूज्य है, किसकी सेवा की जानी चाहिए और कौन वांछित फल देने वाला है? यह हमें बताइए। हे ब्रह्मन्! जिस कीर्ति-प्रदायक उपाय से मनुष्य बिना प्रयास के ही शुभ कामनाओं को प्राप्त कर सकते हैं, वह यथार्थतः कहिए।”

इस “ब्रह्मन्” संबोधन के आधार पर पूर्वपक्षी सूत को ब्राह्मण सिद्ध करना चाहते हैं।[119] किंतु यदि भविष्यपुराण की पाठ-संबंधी विविधता की उपेक्षा कर दी जाए तो भी इस एक संबोधन से सूत का ब्राह्मणत्व नहीं सिद्ध होता है। पूर्वकाल में आदर-प्रदर्शनार्थ “ब्रह्मन्”, “भगवन्”, और “महात्मन्” जैसे संबोधन पदों का निर्बाध प्रयोग होता था। पहले अथवा आज भी किसी ब्राह्मण को “महाराज” जैसे आदरसूचक शब्द से संबोधित करने का यह अर्थ नहीं वह क्षत्रिय है।[120]

“ब्रह्मन्” संबोधन में एक गूढ़ भाव भी निहित है। उपनिषदों के अनुसार जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।[121] अतः यदि किसी ब्रह्मवेत्ता को “ब्रह्मन्” कहकर संबोधित किया जाए तो इसमें कैसा आश्चर्य? उपर्युक्त श्लोक में भी सूत के लिए प्रयुक्त “ब्रह्मन्” संबोधन साभिप्राय ही है। ऋषियों ने सूत से जो परम-तत्त्व स्वरूप भगवान् नारायण के विषय में प्रश्न किया है, उस प्रश्न का उत्तर कोई ब्रह्मवेत्ता ही दे सकता है। अत एव, अन्य सभी शास्त्रीय प्रमाणों के आलोक में भविष्यपुराण में केवल एक स्थान पर प्रयुक्त “ब्रह्मन्” जैसे आदरसूचक संबोधन से सूत की ब्रह्मज्ञता विवक्षित है, न कि उनका जन्मना ब्राह्मणत्व।

 

१६.
“ऋषि” शब्द से ब्राह्मणत्व नहीं

महाभारत में एक स्थान पर लोमहर्षण और उग्रश्रवा को “ऋषि” कहा गया है।[122] पूर्वपक्षी इसी अभिधान से उन्हें ब्राह्मण सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। किंतु यह अनुचित है, क्योंकि “ऋषि” शब्द से ब्राह्मणत्व का निर्णय नहीं हो सकता है।

“ऋषि” शब्द की व्युत्पत्ति “ऋष्” धातु से हुई है, जिसका अर्थ “जाना” अथवा “प्राप्त करना” है। इस धातु में उणादिसूत्र “इगुपधात् कित्” (४.११९) से “इन्” और “कित्” जोड़कर “ऋषि” शब्द बनता है। यह व्युत्पत्ति पुराणों में प्रसिद्ध है।[123] जो मंत्र, ज्ञान अथवा मोक्ष को प्राप्त कर ले, वह “ऋषि” है।[124] पुराणों के अनुसार “ऋष्” धातु के चार अर्थ हैं – गति, श्रुति, सत्य और तप। ये चारों जिसमें सन्निहित हों, उसे “ऋषि” कहते हैं।[125] महर्षि यास्क के निरुक्त के अनुसार तत्त्व का दर्शन अथवा साक्षात्कार करने वाला “ऋषि” कहलाता है।[126] विशेषतः वैदिक मंत्रों के द्रष्टा को “ऋषि” कहते हैं। अमरकोश के अनुसार जिनकी वाणी सत्य होती है, वे “ऋषि” हैं।[127] इन सभी परिभाषाओं में से किसी में भी ऋषि की जाति विवक्षित नहीं है।

वेदों से लेकर इतिहास-पुराण तक ऐसे अनेक ऋषि हुए हैं, जो ब्राह्मणेतर जातियों में उत्पन्न हुए थे। ऋग्वेद में ही पुरुरवा (१०.९५), मांधाता (१०.१३५), नहुष (९.१०१.७-९), ययाति (९.१०१.४-६), त्रसदस्यु (४.३८-३९), और प्रतर्दन दैवोदासि (९.९६) जैसे अनेक क्षत्रिय ऋषियों द्वारा दृष्ट मंत्र प्राप्त होते हैं। ऋषियों की सात कोटियों में इन्हें “राजर्षि” कहा गया है।[128] वैश्य जाति के वत्सप्री भालंदन (ऋग्वेद ९.६८, १०.४५-४७) भी मंत्रद्रष्टा ऋषि हुए हैं। विश्वामित्र और वीतहव्य जैसे कुछ ऋषियों ने क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर भी तपश्चर्या से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। इस प्रकार पूर्वकाल में विभिन्न जातियों में उत्पन्न लोग ऋषि हो चुके हैं।

किंतु “ऋषि” का पद प्राप्त करने के लिए वैदिक मंत्रों का द्रष्टा होना अनिवार्य नहीं है। विभिन्न इतिहास-पुराणों के प्रणेताओं (वाल्मीकि और वेदव्यास), वेदांगों के प्रवर्तकों (पाणिनि, यास्क, पराशर, याज्ञवल्क्य, नारद, पिंगल आदि), षड्-दर्शन के प्रणेताओं (गौतम, कणाद, कपिल, पतंजलि, जैमिनि, बादरायण) और अनेक तत्त्वदर्शी राजाओं (जनक, ऋतुपर्ण) को भी “ऋषि” की उपाधि से विभूषित माना गया है, यद्यपि वे वेदमंत्रों के द्रष्टा नहीं हैं। इसी प्रकार यदि पुराणों के युगल वक्ता लोमहर्षण और उग्रश्रवा को भी “ऋषि” मान लिया जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

अतः “ऋषि” अभिधान से लोमहर्षण और उग्रश्रवा का तत्त्वदर्शी होना ही सिद्ध होता है, ब्राह्मण होना नहीं।

 

१७.
विप्रों के मध्य परिगणना से ब्राह्मण नहीं

महाभारत के अनुशासन पर्व में युधिष्ठिर भीष्म से प्रश्न करते हैं कि मनुष्य पापों से मुक्त कैसे हो सकता है? उत्तर में भीष्म पितामह देवताओं और ऋषियों का नामोल्लेख करते हैं, जिनका कीर्तन करने वाला निष्पाप हो जाता है।[129] देवताओं की सूची में देवर्षि, सिद्ध, गंधर्व, अप्सरा, पितर, ग्रह, नक्षत्र, काल-भाग (रात्रि, दिन, संध्या, मास, संवत्सर), नदी, सरोवर, तीर्थ, पर्वत, दिशाओं और विदिशाओं का उल्लेख है। यद्यपि शास्त्रों में अनेकशः “देवयान” और “पितृयान” अथवा “देव-ऋण” और “पितृ-ऋण” के संदर्भ में पितर आदि को देवताओं से भिन्न बताया गया, तथापि इनमें देवत्व के आधान के कारण इनकी देव-कोटि में परिगणना की गई है।

देवताओं की सूची के अनंतर ऋषियों की सूची प्रदत्त है। इस सूची में राजर्षि-समेत विभिन्न प्रकार के ऋषियों का उल्लेख है। इन ऋषियों का उल्लेख करने से पूर्व एक श्लोक आया है, जिसके आधार पर पूर्वपक्षी लोमहर्षण को ब्राह्मण सिद्ध करना चाहते हैं-

देवतानन्तरं विप्रांस्तपःसिद्धांस्तपोधिकान् ।
कीर्तितान्कीर्तयिष्यामि सर्वपापप्रमोचनान् ॥[130]

अर्थात्

“देवताओं के पश्चात् अब मैं उन विप्रों का वर्णन करूँगा, जो तप से सिद्ध हुए हैं, तप में श्रेष्ठ हैं और जिनका कीर्तन सभी पापों का नाश कर देता है।”

ऋषियों की इस सूची में आगे चलकर लोमहर्षण और उग्रश्रवा का भी उल्लेख है।[131] हम पहले ही देख चुके हैं कि “ऋषि” अभिधान से सूत का ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता। किंतु जैसा दीनानाथ शास्त्री का आग्रह है, क्या “विप्र” शब्द के प्रयोग से सूत का ब्राह्मणत्व सिद्ध होता है?[132] अब इस प्रश्न पर विचार करते हैं।

“विप्र” शब्द का मुख्यार्थ “ब्राह्मण” है – यह स्वीकार करने में कोई हानि नहीं है। किंतु जब किसी समूह के अधिकांश लोग ब्राह्मण हों और कुछ लोग अब्राह्मण हों तो कई बार उस समूह को “ब्राह्मणों का समूह” कहकर व्यपदिष्ट किया जाता है। तर्कशास्त्र में इसे “दंडिन्याय” (अथवा “छत्रिन्याय”) कहते हैं।

इस न्याय के अनुसार जब किसी समूह में कुछ लोग दंड धारण किए हों और कुछ नहीं तो भी उस समूह को “दंडधारियों का समूह” कहा जाता है। इसी प्रकार यद्यपि भीष्म द्वारा उपदिष्ट ऋषियों की सूची में क्षत्रिय वर्ण के राजर्षि और सूत जाति के लोमहर्षण और उग्रश्रवा भी सम्मिलित हैं, तथापि ब्राह्मणों की प्रधानता होने के कारण समूह के सदस्यों को “विप्र” कह दिया गया है।

यदि पूर्वपक्षी समस्त ऋषियों को केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों में विभक्त करना चाहें तो उन्हें इस प्रकरण के उपांत्य श्लोक को देखना चाहिए, जहाँ “ये चान्ये नानुकीर्तिताः” से अन्य अनुल्लेखित ऋषियों का समावेश किया गया है। इनमें ही भालंदन वत्सप्री जैसे वैश्य वर्ण के ऋषियों को भी परिगणित कर लेना चाहिए। अतः विभिन्न वर्णों के ऋषियों के वर्णन के पूर्व ब्राह्मणों की प्रधानता के कारण “विप्र” शब्द का प्रयोग समुचित ही है।

उपर्युक्त श्लोक में “विप्र” शब्द को ऋषियों के विशेषण के रूप में भी स्वीकार किया जा सकता है। विशेषण के रूप में “विप्र”का एक अर्थ “मेधावी” है। महर्षि यास्क के निरुक्त से लेकर सायणाचार्य के भाष्य तक “विप्र” का यह अर्थ प्रसिद्ध है। निरुक्त में “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति”[133] के प्रसंग में यास्क ने “विप्र” का अर्थ “मेधावी” स्वीकार किया है।[134] इसी प्रकार सायणाचार्य ने अनेकशः “विप्र” का अर्थ “मेधावी”अथवा “स्तोत्र-कर्ता”माना है।[135] यद्यपि “क्षत्रं हि इन्द्रः”[136] जैसे वचनों से यह प्रसिद्ध है कि इंद्र का वर्ण क्षत्रिय है, तथापि वेदों में उन्हें “विप्र” कहा गया है।[137] यहाँ “विप्र” का अर्थ “ज्ञानवान्” है।

इतिहास-पुराणों में भी “विप्र” शब्द ब्राह्मणेतरों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। मुद्गल-पुराण में महर्षि याज्ञवल्क्य ने राजर्षि कौशिक को “विप्र” कहकर संबोधित किया है और उन्हें तप द्वारा ब्राह्मणत्व की प्राप्ति का मार्ग दिखलाया है।[138] सूर्यवंश के एक क्षत्रिय का नाम भी “विप्र” हुआ है।[139]

यह भी ध्यातव्य है कि महाभारत की ऋषियों की सूची में कक्षीवान् जैसे ऋषि का नाम भी उल्लेखित है[140] जो ऋषि दीर्घतमा और उशिज् नामक दासी के पुत्र थे।[141] ऋग्वेद के मंत्रों के द्रष्टा और ऋषि की संतान होने के कारण कक्षीवान् का ऋषित्व सिद्ध है[142], किंतु उनका ब्राह्मणत्व विवादित है। ऋग्वेद (४.२३) में कक्षीवान् को “विप्र” कहा गया है, जिसका अर्थ सायणाचार्य ने “मेधावी” ही किया है, “ब्राह्मण” नहीं।[143] यदि दासीपुत्र कक्षीवान् की विप्रों में परिगणना हो सकती है तो लोमहर्षण की क्यों नहीं?

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि केवल विप्रों के मध्य परिगणित हो जाने से लोमहर्षण और उग्रश्रवा को ब्राह्मण नहीं माना जा सकता है।

 

१८.
लोमहर्षण का वध

भागवत-पुराण, स्कंदपुराण और मार्कंडेयपुराण में कथा आती है कि एक बार बलराम जी नैमिषारण्य गए थे, जहाँ शौनक आदि ऋषि-गण १२ वर्षों तक चलने वाले यज्ञ में भाग ले रहे थे। बलराम जी के पहुँचते ही समस्त ऋषियों ने उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी पूजा-अर्चना की। किंतु ब्रह्मासन पर आसीन पुराण-वक्ता लोमहर्षण खड़े नहीं हुए। तब बलराम जी ने कुपित होकर कहा-

कस्मादसाविमान् विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः ।
धर्मपालांस्तथैवास्मान् वधमर्हति दुर्मतिः ॥

ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च ।
सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः ॥

अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः ।
न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः ॥

एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः ।
वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः ॥[144]

“यह प्रतिलोमज होकर भी इन विप्रों तथा धर्म के रक्षक हम लोगों के ऊपर कैसे बैठा हुआ है? यह दुर्बुद्धि वध के योग्य है। इसने भगवान् ऋषि वेदव्यास का शिष्य होकर पुराण और इतिहास समेत अनेक धर्मशास्त्रों का सब प्रकार से अध्ययन किया है। किंतु ये समस्त शास्त्र इस असंयमी, अविनीत, अपने को व्यर्थ ही पंडित मानने वाले और अजितेंद्रिय का गुण-वर्धन नहीं करते, जैसे किसी नट की (सभी चेष्टाएँ अभिनय के लिए होती हैं)। जो अत्यधिक पापी जन धर्म का ध्वज धारण करते हैं, वे मेरे द्वारा वध्य हैं। इसीलिए मैंने इस संसार में अवतार लिया है।”

ऐसा कहकर बलराम ने हाथ में कुश लेकर उसके अग्र-भाग से लोमहर्षण पर प्रहार किया, जिससे लोमहर्षण की मृत्यु हो गई। अब बलराम द्वारा लोमहर्षण-वध के कारणों पर विचार करते हैं। स्कंदपुराण में भी बलराम के शब्द एतदनुरूप हैं।[145] उनके शब्दों से यह स्पष्ट है कि वे लोमहर्षण को प्रतिलोम-जाति में उत्पन्न वर्ण-संकर मानते थे।

जब बलराम जी ने देखा कि लोमहर्षण उच्चासन पर बैठे हुए हैं, तब वे मान बैठे कि वे ऋषियों का तिरस्कार कर रहे थे। चाहे सर्वसहिष्णु ऋषियों ने लोमहर्षण के द्वारा अपना अतिक्रमण सह लिया किंतु बलराम जी ने उसे दोषपूर्ण माना। बलराम जी के स्वागत में ब्राह्मणों के खड़े हो जाने पर भी प्रतिलोमज सूत द्वारा बैठे रहना और प्रणाम नहीं करना उनके क्रोध का कारण था।[146] इस आचरण से उन्हें विश्वास हो गया लोमहर्षण मिथ्या दंभ और मात्सर्य से भरे हुए थे। विनय के अभाव में उनकी विद्या भी गुणवर्धनार्थ नहीं, प्रत्युत प्रदर्शनार्थ ही थी।[147] तब बलराम जी ने यह निश्चय किया कि लोमहर्षण को दंड देना उनका कर्तव्य था।[148]

यह भी सत्य है कि बलराम जी लोमहर्षण के चरित से भली-भाँति परिचित थे, क्योंकि वे जानते थे कि लोमहर्षण ने महर्षि वेदव्यास से पुराण और इतिहास जैसे शास्त्रों का अध्ययन किया था। इस अध्ययन के कारण लोमहर्षण को धर्माधर्म का विवेक होना चाहिए था।[149] ऐसा कोई संकेत नहीं है कि वे पूर्वकाल में राजा पृथु के यज्ञ से लोमहर्षण की उत्पत्ति की कथा को नहीं जानते थे। किंतु वे यज्ञीय-सांकर्य से उत्पन्न होने वाले लोमहर्षण को प्रतिलोमज ही मानते थे। यदि लोमहर्षण ब्राह्मण थे तो बलराम जी ने उन्हें प्रतिलोमज सूत कैसे मान लिया? क्या केवल “सूत” नाम से उन्हें भ्रम हो गया और इसका दंड उन्होंने ऐसा दिया कि लोमहर्षण का वध ही कर दिया? जब बलराम जी लोमहर्षण के पूर्व वृत्तांत को जानते थे तो वे उनके नाम के रहस्य को क्यों नहीं जानते होंगे? पूर्वपक्षी के पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

भागवत-पुराण के इस वृत्तांत पर लिखने वाले प्रायः सभी टीकाकारों ने लोमहर्षण को “सूत” नामक प्रतिलोम-जाति में उत्पन्न माना है। इनमें श्रीधरस्वामी, जीव गोस्वामी, वीरराघवाचार्य, विजयध्वजतीर्थ, शुकदेव, गिरिधरलाल और गंगासहाय सम्मिलित हैं।[150] स्वामी वल्लभाचार्य ने सुबोधिनी टीका में इस प्रसंग की विस्तार-पूर्वक व्याख्या की है, जिसमें उन्होंने लोमहर्षण को प्रतिलोमज सूत और वेदाधिकार से रहित बताया है।[151] १९वीं शताब्दी के आधुनिक टीकाकार वंशीधर शर्मा को छोड़कर किसी अन्य टीकाकार ने लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने का आग्रह नहीं किया है। किसी टीकाकार ने यह भी नहीं कहा है कि बलराम जी लोमहर्षण के जन्म-वृत्तांत से अनभिज्ञ थे।

प्रायः सभी टीकाकारों के मत का सारांश यह है-

१. लोमहर्षण प्रतिलोमज सूत थे। उन्हें वेदाध्ययन का अधिकार नहीं था।

२. सूत होकर भी वे ब्राह्मणों से ऊँचे आसन पर विराजमान थे।

३. ब्राह्मणों के उठकर प्रणाम करने पर भी लोमहर्षण ने बलराम जी को प्रणाम नहीं किया था।

अतः लोमहर्षण के वध का कारण यही था कि वे प्रतिलोम वर्ण-संकर सूत होकर ब्राह्मणों से भी उच्च आसन पर आसीन थे और बलराम जी के आगमन पर भी उनके स्वागत में खड़े नहीं हुए थे। इसलिए लोमहर्षण के ब्राह्मण होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

 

 

१९.
ब्रह्महत्या क्या है?

पूर्वपक्षी के द्वारा लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि लोमहर्षण का वध करने के पश्चात् बलराम जी ने ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त किया था।[152] इस तर्क का विवेचन करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि ब्रह्महत्या क्या है?

सामान्यतः किसी ब्राह्मण का वध करने के अपराध को ब्रह्महत्या कहते हैं। यह पंच महापातकों में परिगणित है –

(१) ब्रह्महत्या
(२) सुरापान
(३) स्तेय
(४) गुरु-तल्प-गमन और
(५) पूर्वोक्त महापातक करने वालों के साथ संसर्ग।[153]

किंतु कई बार किसी ब्राह्मण का वध किए बिना भी कोई ब्रह्महत्या के समान पाप से ग्रस्त हो सकता है।

वस्तुतः धर्मशास्त्रों में ब्रह्महत्या पापों की एक कोटि अथवा मापदंड है। शास्त्रों में अनेक पापों को ब्रह्महत्या के समान माना गया है। इनमें से कुछ उल्लेखनीय हैं –

(१) गुरु का तिरस्कार करना
(२) वेद की निंदा करना
(३) मित्र का वध करना
(४) अधीत विद्या का नाश करना
(५) आश्रम, घर, ग्राम अथवा नगर में आग लगाना
(६) प्यासी गायों को पानी पीने से रोकना
(७) शास्त्रों को दूषित करना
(८) विकलांग जनों का सर्वस्व छीन लेना
(९) दीन-दुखी की संपत्ति हरना
(१०) आत्मप्रशंसा में असत्य बोलना
(११) राजा से झूठी चुगली करना
(१२) गुरु को व्यर्थ यातना देना
(१३) युद्ध से पराङ्मुख क्षत्रिय अथवा शरणागत का वध करना
(१४) देवता, द्विज अथवा गोवंश की भूमि का हरण करना
(१५) यज्ञ में दीक्षित क्षत्रिय अथवा वैश्य को मार डालना।[154]

इन पापों का प्रायश्चित्त ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त के समान है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि केवल ब्रह्महत्या के लिए विहित प्रायश्चित्त-व्रत का आचरण करने से कोई ब्रह्महत्या का अपराधी नहीं हो जाता है।

प्रायः किसी पाप की अत्यधिक निंदा करने के लिए भी उसे ब्रह्महत्या के समान बताया जाता है। विभिन्न पुराणों में असत्य-भाषण, आत्मप्रशंसा और परनिंदा को ब्रह्महत्या के समतुल्य कहा गया है। पुराण-वाक्यों का उद्देश्य यह है कि कर्ता इन पापों को भी गंभीर समझते हुए इनमें प्रवृत्त नहीं हो।

दूसरी ओर कुछ विशेष परिस्थितियों में ब्राह्मण का वध करने पर भी ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगता है। किसी आततायी ब्राह्मण का वध करने में ब्रह्महत्या का दोष नहीं है, चाहे वह वेद, वेदांग और वेदांत का ज्ञाता ही क्यों न हो।[155] आततायियों के अनेक प्रकार बताए गए हैं-

(१) आग से जलाने वाला
(२) विष देने वाला
(३) शस्त्र उठाकर मारने वाला
(४) धन चुराने वाला
(५) भूमि का हरण करने वाला
(६) पत्नी का अपहरण करने वाला
(७) शाप से मारने वाला
(८) अथर्ववेद के मंत्रों से मारने वाला और
(९) राजा से (मिथ्या) चुग़ली करने वाला।[156]

विशेषतः क्षत्रिय-धर्म को स्वीकार कर और युद्ध में शस्त्र उठाकर आक्रमण करने वाले ब्राह्मण को मारने में भी ब्रह्महत्या का दोष नहीं है।[157]

धर्मशास्त्रों में ऐसे अनेक पाप वर्णित हैं, जो ब्रह्महत्या से प्रत्यक्ष भिन्न अवश्य हैं, किंतु जिनका प्रायश्चित्त ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त का आंशिक अनुपालन है। इनमें क्षत्रियहत्या, वैश्यहत्या और शूद्रहत्या सम्मिलित है।[158]

इस प्रकार केवल बलराम जी द्वारा किए गए ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त से हत लोमहर्षण की जाति का निर्णय नहीं किया जा सकता है। हम आगामी भागों में देखेंगे कि पुराणों के अनुसार लोमहर्षण का वध ब्रह्महत्या नहीं, अपितु ब्रह्महत्या के समान पाप था।

 

२०.
लोमहर्षण के वध में ब्रह्महत्या के समान दोष

भागवत-पुराण के अनुसार यदि किसी मनुष्य में अन्य वर्ण का लक्षण दिखे तो उसे उसी वर्ण का मानना चाहिए।[159] महर्षि व्यास से पुराण-संहिता का अध्ययन कर लोमहर्षण और ब्रह्मासन के योग्य और ब्राह्मणकल्प हो गए थे। अतः उनका वध भी ब्रह्महत्या के समान था, जिसके लिए बलराम जी ने तदनुरूप प्रायश्चित्त किया था।

कथा है कि जब बलराम जी ने अभिमंत्रित कुश से लोमहर्षण का वध किया तो ऋषियों में हाहाकार मच गया। तदनंतर ऋषियों ने बलराम जी से कहा कि उन्होंने अनजाने में ही “ब्रह्महत्या के समान” अधर्म कर दिया है-

अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन ।
आयुश्चात्माक्लमं तावद् यावत् सत्रं समाप्यते ॥

अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा ।
योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामक: ॥

यद्येतद् ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन ।
चरिष्यति भवाँल्लोकसङ्ग्रहो नाऽन्यचोदितः ॥[160]

अर्थात्

“हे यदुनंदन! हमारे द्वारा इन लोमहर्षण को ब्रह्मासन दिया गया था। साथ ही जब तक यह सत्र संपन्न न हो तब तक के लिए इन्हें कष्ट-रहित आयु भी प्रदान की गई थी। आपने अनजाने में ही ब्रह्महत्या के समान कर्म कर दिया है। किंतु आप योगेश्वर हैं और वेद भी आपके नियामक नहीं हैं। हे लोकपावन! यदि आप किसी अन्य की प्रेरणा के बिना ही ब्रह्महत्या के पाप से शुद्ध करने वाले आचरण (प्रायश्चित्त) का अनुष्ठान कर लेंगे तो यह लोकसंग्रह (सामान्य लोगों के शिक्षणार्थ) होगा।”

प्रायः सभी टीकाकारों ने उपर्युक्त श्लोक में प्रयुक्त “ब्रह्मवधो यथा” का अर्थ “ब्रह्महत्या के समान पाप” किया है।[161] इन टीकाकारों में श्रीधरस्वामी, जीव गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, वीरराघवाचार्य, विजयध्वजतीर्थ, शुकदेव, स्वामी वल्लभाचार्य और गिरिधरलाल सम्मिलित हैं। क्या अद्वैत, क्या विशिष्टाद्वैत और क्या द्वैत – लगभग सभी दर्शनों और संप्रदायों के टीकाकारों ने लोमहर्षण के वध को ब्राह्मण-वध के समान पाप माना है। यदि लोमहर्षण ब्राह्मण थे तो उनके वध को “ब्रह्महत्या” ही कहना चाहिए था। उसे “ब्रह्महत्या के समान पाप” कहने का क्या औचित्य था? प्रायः सभी टीकाकारों के मत का सार इस प्रकार है-

१. पुराणवक्ता लोमहर्षण प्रतिलोमज होते हुए भी ऋषियों की कृपा से उनके मध्य ब्रह्मासन अर्थात् ब्राह्मण के योग्य आसन पर आसीन थे। जब तक लोमहर्षण ब्रह्मासन पर आसीन थे, तब तक ब्राह्मण के समान थे।[162]

२. ब्रह्मासन पर आसीन होने के कारण वे बलराम जी के स्वागत में खड़े नहीं हो सकते थे।

३. बलराम (लीलास्वरूप में) यह नहीं जानते थे कि लोमहर्षण ऋषियों की सम्मति से ही ब्रह्मासन पर विराजमान थे। अनजाने में लोमहर्षण का वध करने के कारण ही उन्होंने प्रायश्चित्त किया था।[163]

४. ब्रह्मासन पर स्थित लोमहर्षण का वध ब्रह्मवध के समान था, किंतु ब्रह्मवध नहीं था।

५. लोमहर्षण के वध के प्रायश्चित्त के लिए बलराम जी ने ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त किया था।

इस प्रसंग की व्याख्या में भागवत-पुराण की सिद्धांतप्रदीप-टीका के प्रणेता शुकदेव महाभारत में प्राप्त सनत्सुजात और भीष्म का एक कथन उद्धृत करते हैं-

शरीरमेतौ सृजतः पिता माता च भारत ।
आचार्यशास्ता या जातिः सा सत्या साऽजराऽमरा ॥[164]

अर्थात्

“माता और पिता केवल शरीर की सृष्टि करते हैं, किंतु आचार्य के अनुशासन से जो जाति प्राप्त होती है, वही सत्य, अजर और अमर है।”

इस श्लोक से भी सिद्ध हो जाता है कि ऋषियों की कृपा से लोमहर्षण किसी उत्कृष्ट ब्राह्मण के समान हो गए थे, किंतु वे जन्म से प्रतिलोमज सूत ही थे। इस प्रकार सभी टीकाकारों ने भागवतकार के द्वारा लोमहर्षण के प्रतिलोमज होने, ऋषियों की कृपा से ब्राह्मणोचित आसन पर आसीन होने, और उनके वध में ब्रह्महत्या के समान दोष के वर्णन का अनुमोदन किया है।

खेद है कि लोमहर्षण को ब्राह्मण सिद्ध करने के प्रकल्प में व्यस्त पूर्वपक्षी पुराणकार का आशय नहीं समझ पाए। लोमहर्षण के वध के लिए बलराम जी द्वारा किए गए प्रायश्चित्त का उद्देश्य “लोकसंग्रह” बताया गया है।[165] भगवद्गीता (३.२०) की टीकाओं में विभिन्न आचार्यों ने “लोकसंग्रह” का द्विविध अर्थ प्रकाशित किया है – (१) लोक को उन्मार्ग से निवृत्त करना और (२) लोक को स्वधर्म में प्रवृत्त करना।[166] तदनुसार प्रकृत प्रकरण में लोकसंग्रह का तात्पर्य लोक को गुरुजनों को कष्ट देने से निवृत्त करना और उनका समादर करने में प्रवृत्त करना है। किसी मनुष्य के कर्म, शील और गुण पूजनीय होते हैं, न कि केवल जाति।[167] चाहे वह किसी भी जाति में जन्मा हो, जो ज्ञानदाता है, वह समस्त समाज के लिए ब्राह्मणवत् पूजनीय है। ऐसे गुरु का वध ब्रह्महत्या के समान है। यदि अज्ञानता-वश भी ऐसे गुरु को कष्ट दिया जाए तो उसका प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। यह मर्यादा ईश्वर और जीव – दोनों के लिए समान है। भगवान् के मर्त्यावतार का प्रयोजन मर्त्य-लोक को यही शिक्षा देना है।[168]

 

२१.
सूत की अवध्यता

धर्मशास्त्रों में गो और ब्राह्मण के ही समान कर्तव्य-परायण सूतों को अवध्य माना गया है। यद्यपि प्रतिलोम वर्ण-संकर होने के कारण सूत शूद्र-सधर्मा है और उसके वध से शूद्रहत्या का दोष ही होना चाहिए[169], तथापि सूतों की रक्षा के लिए धर्मशास्त्रों में कुछ विशेष विधान भी प्राप्त होते हैं। सूत की अवध्यता की परंपरा वेदों से ही चली आ रही है। यजुर्वेद के शतरुद्रीय में सूत को “अहंत्य”, “अहंत्व” और “अहंति” कहा गया है।[170] इनमें से प्रथम दो शब्दों का अर्थ है “अवध्य” अर्थात् “जो मारने योग्य नहीं हो”। अपने विभिन्न कर्तव्यों के सम्यक् निर्वाह के लिए सूत को अवध्यता प्राप्त है-

१. सारथ्य – युद्ध में सारथ्य-कर्म करते समय सूत को प्रतिद्वंद्वी योद्धा से सुरक्षित रखना आवश्यक है। महर्षि शंख के अनुसार सारथि अथवा सूत को युद्ध में नहीं मारना चाहिए।[171] कुरुक्षेत्र-युद्ध में भी भीष्म द्वारा निर्मित नियमावली में सूत को मारना वर्जित था।[172] कलिंग-नरेश श्रुतायुध ने इस नियम के विपरीत आचरण किया था। कौरव-पक्ष से युद्ध में भाग लेते हुए श्रुतायुध ने सारथि श्रीकृष्ण पर वरुण-देव द्वारा प्रदत्त गदा से प्रहार किया था, किंतु वरुण की चेतावनी के अनुसार निःशस्त्र अयोद्धा पर वार करने के कारण उस गदा ने लौटकर श्रुतायुध को ही मार डाला।[173]

२. दौत्य – वाल्मीकीय-रामायण में सुमंत्र और महाभारत में संजय के समान अनेक अवसरों पर सूत राजाओं के दूत भी बनते रहे हैं। दौत्य-कर्म के प्रसंग में सूत को अभयदान दिया जाता था। किसी राजा द्वारा दूत का वध निंदित कर्म माना गया है। युद्ध-काल में भी दूत अवध्य है।[174]

३. मंत्रित्व – महाभारत के अनुसार मंत्रि-परिषद् के २७ सदस्यों में से एक पौराणिक सूत भी होना चाहिए। यह सूत पचास वर्ष का हो। साथ ही निर्भीक, ईर्ष्या से रहित, बुद्धि और स्मृति से संपन्न, विनीत, समदर्शी, कार्य के निर्धारण में विवाद करने वालों में समर्थ, लोभ-रहित और व्यसनहीन भी हो।[175] मंत्रिपरिषद् का सदस्य होने के कारण राजा के लिए हितकारी किंतु श्रवणकटु मंत्रणा देने के लिए सूत को अभयदान दिया जाता था। अतः इस परिस्थिति में भी वह अवध्य होता था।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि कर्तव्य-पालन में प्रवृत्त सूत को प्रायः शास्त्रों में अवध्य माना गया है। ऐसे सूत को मारने पर प्रायश्चित्त अपेक्षित है। विशेष परिस्थिति में यह प्रायश्चित्त ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त के समान होता है। जिस प्रकार यज्ञ में दीक्षित ब्राह्मणेतर त्रैवर्णिक को मारने पर ब्रह्महत्या के प्रायश्चित्त का विधान है, उसी प्रकार ज्ञानयज्ञ में दीक्षित सूत को मारने पर भी मानना चाहिए। यदि लोमहर्षण के समान कोई सूत ब्रह्मासन पर स्थित होकर पुराण का वाचन करता है तो वह भी ब्राह्मण के समान अवध्य ही माना जाएगा। किंतु ऐसे सूत-वध के प्रायश्चित्त के विधान-मात्र से उसे जन्मतः ब्राह्मण मान लेना भ्रम-पूर्ण है।

 

२२.
नीलकंठ चतुर्धर का स्वमत-खंडन

लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है। इस परंपरा के सबसे प्राचीन संवाहक महाभारत के टीकाकार नीलकंठ चतुर्धर हुए हैं, जिनका रचनाकाल १७वीं शताब्दी का उत्तरार्ध था। इनके पूर्व भागवत-पुराण के टीकाकार श्रीधरस्वामी (१४वीं शताब्दी) ने लोमहर्षण को अब्राह्मण और प्रतिलोमज स्वीकार किया है। श्रीधरस्वामी के पश्चात् भागवत के प्रायः सभी टीकाकारों ने लोमहर्षण को जाति-सूत माना है। इनमें वीरराघवाचार्य (विशिष्टाद्वैत), विजयध्वजतीर्थ (द्वैत), स्वामी वल्लभाचार्य (शुद्धाद्वैत) और जीव गोस्वामी (अचिंत्यभेदाभेद) प्रमुख हैं। मेरे संज्ञान में नीलकंठ चतुर्धर के मत को किसी समकालीन आचार्य का समर्थन भी प्राप्त नहीं हुआ है।

नीलकंठ के दो सौ वर्ष पश्चात् भागवत-पुराण के उपटीकाकार वंशीधर शर्मा ने लोमहर्षण को ब्राह्मण माना है। किंतु इन्हीं के समकालीन बालंभट्ट ने लोमहर्षण को प्रतिलोमज सूत सिद्ध किया है। तदनंतर २०वीं शताब्दी में जहाँ बलदेव उपाध्याय और स्वामी करपात्री लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने के समर्थक हुए हैं, वहीं स्वामी चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती ने इन्हें जाति-सूत स्वीकार किया। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि १७वीं शताब्दी के उपरांत प्रत्येक कालखंड में लोमहर्षण की जाति पर पक्ष और विपक्ष में विवाद चलता रहा है।

किंतु आश्चर्य की बात तो यह है कि नीलकंठ द्वारा प्रणीत महाभारत की टीका के अंतर्गत भी यह विवाद चलता दिखलाई देता है। एक ही प्रबंध में दो स्थानों पर आए लगभग समान वाक्य की टीका में नीलकंठ ने दो अलग-अलग मतों का प्रतिपादन किया है। जैसा कि हम जानते हैं, मंगलाचरण के अनंतर महाभारत का प्रथम वाक्य इस प्रकार है-

लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ॥[176]

इस वाक्य की टीका में नीलकंठ लिखते हैं –

“लोमहर्षण के पुत्र…सौति। सूत-जाति की उत्पत्ति वायुपुराण में कही गई है।…वहाँ “वर्णवैकृत” का अर्थ है याज्ञवल्क्य-स्मृति में उक्त विलोमजत्व – ‘ब्राह्मण स्त्री में क्षत्रिय से उत्पन्न संतान सूत कहलाती है’। इस सूत के अपत्य को “सौति” कहते हैं।”[177]

नीलकंठ की उपर्युक्त व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि वे लोमहर्षण को जाति-सूत मानते थे। उनके द्वारा उद्धृत याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९३) के वर्ण-जाति-विवेक-प्रकरण के वाक्य “ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूतः” से कोई संशय का स्थान शेष नहीं रहता है।

किंतु कुछ ही पृष्ठों के पश्चात् महाभारत के आदिपर्व के चतुर्थ अध्याय में उपर्युक्त वाक्य की पुनरावृत्ति होती है।[178] पौलोम पर्व के आरंभ में इस वाक्य की पुनरावृत्ति वर्षों से शोध का विषय रही है। इसकी टीका में नीलकंठ का मत परिवर्तित हो जाता है। अब वे उग्रश्रवा को जाति-सूत से भिन्न मानते हैं। नीलकंठ के अनुसार ब्राह्मण के संकल्प से अग्नि-कुंड से उत्पन्न होने वाले लोमहर्षण ब्राह्मण हैं। ब्रह्मासन के अधिकारी होने के कारण वे अन्य ऋषियों के सजातीय होने चाहिए। लोमहर्षण का वध करने पर बलराम जी द्वारा ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त भी उनके ब्राह्मणत्व का प्रमाण है।[179]

अतः नीलकंठ की टीका में एक स्थान पर लोमहर्षण प्रतिलोमज सूत-जाति में उत्पन्न माने गए हैं तो दूसरे स्थान पर ब्राह्मण सिद्ध किए गए हैं। यदि नीलकंठ लोमहर्षण को वस्तुतः ब्राह्मण मानते तो महाभारत के प्रथम वाक्य की टीका में ही इसे स्पष्ट कर देते। किंतु चार अध्यायों के अंतराल में विपरीत मतों का प्रतिपादन करने के कारण उनका प्रबंध विरोध-कथन से ग्रस्त है।

यह विरोधाभास कैसे उत्पन्न हुआ? इसकी अलग-अलग कल्पनाएँ की जा सकती हैं। क्या नीलकंठ ने टीका लिखते-लिखते अपना मत परिवर्तित कर दिया? अथवा चतुर्थ अध्याय की टीका लिखने के लिए किसी अन्य को नियुक्त कर दिया? यथार्थ जो भी हो, स्ववचन-व्याघात के कारण नीलकंठ का मत अस्वीकार्य है।

 

२३.
वंशीधर शर्मा का वाक्चापल्य

१९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मथुरा-निवासी वंशीधर शर्मा ने भागवत-पुराण पर श्रीधरस्वामी की “भावार्थदीपिका” टीका पर “भावार्थदीपिकाप्रकाश” नामक उपटीका का प्रणयन किया था। अद्वैत-मतानुयायी श्रीधरस्वामी की उपटीका होने के कारण “भावार्थदीपिकाप्रकाश” से भी अद्वैत-मत का समर्थन अपेक्षित है। किंतु शर्मा ने विभिन्न द्वैत आचार्यों के कई उद्धरण दिए हैं और अनेक स्थानों पर श्रीधरस्वामी के अद्वैत-परक वचनों को वैष्णव-मतानुकूल सिद्ध करने का विशेष प्रयत्न किया है। लोमहर्षण सूत की जाति के प्रकरण में तो वे श्रीधरस्वामी और समस्त वैष्णवाचार्यों की निर्विवाद परंपरा के विरुद्ध जाकर सूत को ब्राह्मण सिद्ध करने के लिए शब्दों का विलक्षण खेल रचते हैं। इस खेल का प्रकाशन-मात्र ही इसके खंडन के लिए पर्याप्त है।

आरंभ में ही स्पष्ट करना आवश्यक है कि उपटीका का प्रयोजन मूल टीका में निहित तत्त्व को प्रकाशित करना है। एतदनुरूप “भावार्थदीपिका” टीका की उपटीका का नाम “भावार्थदीपिकाप्रकाश” है। यदि उपटीकाकार का मूल टीकाकार से मतभेद हो तो उन्हें अपने सिद्धांत के प्रतिपादन के लिए स्वतंत्र टीका लिखनी चाहिए।

यहाँ हम भागवत-पुराण के एक श्लोक पर श्रीधरस्वामी की टीका और वंशीधर शर्मा की उपटीका का विवेचन करेंगे-

तत्सर्वं न: समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्‍नातमन्यत्र छान्दसात् ॥[180]

अर्थात् ऋषियों ने उग्रश्रवा सूत से कहा कि “आपसे जो कुछ भी यहाँ पूछा गया है, वह सब हमें पूर्णतः बताइए। मैं मानता हूँ कि आप वेद के अतिरिक्त वाणी के अन्य विषयों में स्नात (विद्वान्) हैं।”

यहाँ प्रश्न उठता है कि सूत को वेद के विषय में विद्वान् क्यों नहीं कहा गया है? श्रीधरस्वामी इसका स्पष्ट उत्तर देते हैं – “त्रैवर्णिक नहीं होने के कारण”।[181] तात्पर्य यह है कि उग्रश्रवा ब्राह्मण तो क्या, क्षत्रिय अथवा वैश्य भी नहीं थे। इस कारण उन्हे वेदाधिकार प्राप्त नहीं था, किंतु वे इतिहास-पुराण में निपुण थे। श्रीधरस्वामी के आशय का समर्थन प्रायः सभी वैष्णव टीकाकार करते हैं। इनमें स्वामी वल्लभाचार्य, वीरराघवाचार्य, जीव गोस्वामी, विश्वनाथ चक्रवर्ती और गिरिधरलाल सम्मिलित हैं।[182]

किंतु वंशीधर शर्मा समस्त टीकाकारों द्वारा मान्य अर्थ का प्रत्याख्यान करना चाहते हैं। उनकी व्याख्या के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं-

१. उपर्युक्त श्लोक में प्रयुक्त “छान्दसात्” (“छान्दस” शब्द, पंचमी विभक्ति, एकवचन) वस्तुतः सूत का संबोधन है। इसका अर्थ है – “वह जो निरंतर अग्नि को प्राप्त करे”।

२. “अन्यत्र” का अर्थ “बिना” अथवा “अन्य स्थान पर” नहीं है। प्रत्युत, इसका पदच्छेद है – अनि + अत्र।

३. “अ” का अर्थ “आदि” है। जिस शब्द के “अ” (आदि) में “नि” आता हो, उसे “अनि” कहते हैं। अतः “अनि” का अर्थ “निष्णात” है, क्योंकि उसके आरंभ में “नि” आता है।[183]

इस प्रकार “मन्ये त्वां विषये वाचां स्‍नातमन्यत्र छान्दसात्” का अर्थ बना – “हे छान्दसात् (निरंतर अग्नि को प्राप्त करने वाले) सूत! मैं तुम्हें यहाँ वाणी के विषय में स्नात (विद्वान्) और निष्णात मानता हूँ।”

इस व्याख्या को पढ़कर केवल यही कहा जा सकता है कि चाहे वाक्य को तोड़ना पड़े, शब्दों को तार-तार करना पड़े, यहाँ तक कि स्वयं को ही छलना पड़े किंतु किसी भी प्रकार सूत अवश्य ही ब्राह्मण सिद्ध हो जाने चाहिए।[184]

वंशीधर शर्मा के इस दुरन्वय में महर्षि व्यास का आशय तो क्या, संस्कृत का मूलभूत व्याकरण भी बाधक नहीं रहा है। पंचमी-विभक्त्यंत “छान्दासात्” शब्द को संबोधन बताना कातंत्र-विभ्रम और हैम-विभ्रम जैसे वैयाकरणों के मनोविनोद के ग्रंथों के अनुरूप है, जिनमें विभिन्न पदों की प्रत्यक्ष विभक्ति का निराकरण कर उन्हें किसी अन्य असाधारण पद्धति से सिद्ध किया गया है। उदाहरण-स्वरूप “अग्निभ्यः” को प्रथमा-विभक्त्यंत और “पर्वतात्” को क्रियापद (पर्व् + शप् + तात्) दिखलाया गया है।

इसी प्रकार एकाक्षर कोश से “अ” का अर्थ निकाल कर श्रमपूर्वक “अनि” शब्द गढ़ा गया है, जो अश्रुतपूर्व होने के साथ-साथ हास्यास्पद भी है। जब संस्कृत में “नि” से प्रारंभ होने वाले असंख्य शब्द हैं, तब “अनि” का अर्थ “निष्णात” ही क्यों लिया जाए? “निर्बुद्धि”, “निर्बोध” अथवा “निष्ठुर” क्यों नहीं? पुनः यह नवनिर्मित “अनि” शब्द भी विभक्ति-रहित होने के कारण “अपदं न प्रयुञ्जीत” नियम का उल्लंघन कर रहा है।

किंतु सबसे बड़ी बात तो यह है कि जब सभी शब्दों के अर्थ परिवर्तित किए जा सकते हैं तो “राम” को “रावण” भी सिद्ध किया जा सकता है। शास्त्र के अर्थ को छिन्न-भिन्न करने वाली वंशीधर-कृत टीका के लिए विवेकचूडामणि (६२) की एक उक्ति उपयुक्त बैठती है – “शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्”।

वंशीधर शर्मा के इस विलक्षण प्रलाप को भी गंगाधर पाठक स्वपक्षमंडनार्थ उद्धृत कर लिखते हैं – “श्रीमद्भागवत के मर्मज्ञ महाविद्वान् श्रीवंशीधर जी ने तो विशेषरूपेण इसका स्पष्टीकरण किया है-…इस विशिष्ट व्याख्यान से श्रीसूतजी का पूर्ण वेदाधिकार भी सिद्ध हो जाता है।” वाह, जिस श्लोक से सभी पूर्वाचार्य सूत के वेदाधिकार का अभाव मानते रहे हैं, उसी से गंगाधर पाठक सूत का “पूर्ण वेदाधिकार” सिद्ध करना चाहते हैं! इसके पूर्व कि वे “अहो रूपमहो ध्वनिः” में खो जाएँ, गंगाधर पाठक को अपने संप्रदाय और पूर्वाचार्यों के प्रति वंशीधर शर्मा के उद्गारों से अवगत हो जाना चाहिए।

संतोष की बात है कि सभी विद्वानों ने नेत्र बंद नहीं किए हैं। अन्य विषयों में वंशीधर शर्मा के वाक्चापल्य से उनके समकालीन विद्वान् भी परिचित रहे हैं। १९वीं शताब्दी के प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज ने अपने “उच्छिष्टपुष्टिलेश” नामक प्रबंध में शर्मा के द्वारा उपस्थापित श्रीराम और श्रीकृष्ण में भेदबुद्धि की कठोर निंदा की है। साथ ही शर्मा के द्वारा शांकर-मत में दोष-दर्शन का प्रत्याख्यान भी प्रस्तुत किया है।[185]

इस प्रकार हम पाते हैं कि वंशीधर शर्मा का मत भागवतकार के आशय, पूर्वाचार्यों के सिद्धांत, संस्कृत व्याकरण और सामान्य ज्ञान के भी विरुद्ध होने के कारण सर्वथा त्याज्य है।

 

२४.
बालंभट्ट की समस्या

२०वीं शताब्दी के स्वामी करपात्री से पूर्व जिन गिने-चुने लेखकों ने शूद्रों के संस्कृताधिकार का निषेध किया है, उनमें १९वीं शताब्दी के बालंभट्ट उल्लेखनीय हैं। इन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी थॉमस कोलब्रुक के संतोष के लिए याज्ञवल्क्य-स्मृति की मिताक्षरा टीका पर उपटीका लिखी थी। करपात्री जी के ही समान बालंभट्ट शूद्रों के द्वारा संस्कृत शब्दों के उच्चारण-मात्र को निषिद्ध बताते हैं। पूर्व के एक लेख में अन्यान्य शास्त्र-प्रमाणों से इनके अपसिद्धांत का निराकरण किया जा चुका है।[186]

फिर भी वंशीधर शर्मा और करपात्री जी के विपरीत बालंभट्ट स्वीकार करते हैं कि पुराणवक्ता लोमहर्षण सूत प्रतिलोमज ही थे, ब्राह्मण नहीं।[187] संभवतः १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जब बालंभट्ट लिख रहे थे, तब तक लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने का प्रचलन सीमित था। बालंभट्ट के अनुसार प्रतिलोमज होते हुए भी लोमहर्षण को अपने तपोबल और महर्षि वेदव्यास के संकल्प के कारण पुराण-अध्ययन का अधिकार प्राप्त हुआ था। तदनंतर महर्षि शौनक के संकल्प के कारण वे ब्रह्मासन के योग्य भी बने थे। बलराम जी के वचनों से भी लोमहर्षण अब्राह्मण ही सिद्ध होते हैं। उनके वध को ब्रह्महत्या के समान कहा गया है, ब्रह्महत्या नहीं।[188]

इन सब तर्कों को प्रस्तुत करने के पश्चात् बालंभट्ट स्वीकार करते हैं कि सूतों को मंत्रित्व और सारथ्य के साथ पुराण के अध्ययन और प्रवचन का भी अधिकार है, किंतु इसमें ब्राह्मण का संकल्प और अपना तपोबल कारण है। इस स्थिति में हीनजन्मा से विद्या ग्रहण करने का निषेध प्रासंगिक नहीं रहता। बालंभट्ट यह भी जोड़ते हैं कि संजय और अधिरथ जैसे साधारण सूतों को पुराण-वाचन का अधिकार नहीं है।[189]

किंतु यही बात तो सामान्य ब्राह्मण के विषय में भी कही जा सकती है। उदाहरण-स्वरूप पद्मपुराणोक्त माहात्म्य के अनुसार भागवत के कथावाचक को विरक्त, वैष्णव, विप्र, वेदशास्त्रों का शुद्ध व्याख्यान करने वाला, दृष्टांत देने में कुशल, धीर और अत्यंत निःस्पृह होना चाहिए।[190] क्या ये सभी लक्षण सर्व-सामान्य ब्राह्मण में देखे जा सकते हैं? यदि देखे जा सकते तो किसी भी ब्राह्मण को कथावाचक क्यों नहीं बना दिया जाता है? उसके लिए विशेष अर्हत्ता क्यों निश्चित की जाती? इसी प्रकार बालंभट्ट के ही कथनानुसार सूतों में भी विशेष तपोबल और गुरु-कृपा से संपन्न व्यक्ति को पुराण-वक्ता क्यों नहीं बनाया जा सकता है? कूर्मपुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने लोमहर्षण के वंशज सूतों की आजीविका के लिए पुराण-वक्तृत्व का विधान किया है।[191] तब इस आजीविका को धारण करने से सूतों को कैसे रोका जा सकता है?

सूत द्वारा पुराण-वाचन की परंपरा बालंभट्ट के लिए एक अन्य समस्या भी उत्पन्न करती है। यदि सूत प्रतिलोम वर्ण-संकर है तो धर्मशास्त्रों के अनुसार उसे शूद्र-सधर्मा मानना चाहिए।[192] वसिष्ठ-धर्मशास्त्र के अनुसार प्रतिलोमज संतानें गुण और आचार से भ्रष्ट होती हैं। याज्ञवल्क्य-स्मृति में भी अनुलोम संतानों को “सत्” और प्रतिलोम संतानों को “असत्” कहा गया है। बालंभट्ट स्वयं प्रतिलोमजों को “असत्” और “वर्णबाह्य” कहते हैं।[193] अब प्रश्न उठता है कि यदि ऐसे असत्, शूद्र-तुल्य, और वर्णबाह्य प्रतिलोमज सूत के द्वारा पुराण का वाचन हो सकता है तो शूद्र-मात्र के द्वारा पुराण का अध्ययन अथवा केवल संस्कृत-संभाषण क्यों नहीं हो सकता?

इस समस्या से बच निकलने के लिए बालंभट्ट यह विलक्षण तर्क प्रस्तुत करते हैं कि सूत वर्ण-संकर है, साक्षात् शूद्र नहीं। अत एव, उसके पुराण-अध्ययन के अधिकार से शूद्रों का अधिकार सिद्ध नहीं होता है।[194] किंतु यदि शूद्रों के लिए पुराण-अध्ययन का निषेध प्रतिलोम वर्णसंकरों पर लागू नहीं होता है, तब तो वैदेहक, चंडाल, मागध, क्षत्ता, और अयोगव जैसे प्रतिलोमजों को पुराण-अध्ययन का अधिकार प्राप्त हो जाना चाहिए। यदि कुछ अन्य शास्त्र-वचनों से चंडाल के लिए विशेष निषेध मान भी लें तो शेष चार प्रतिलोमजों के लिए तो इस अधिकार को स्वीकार करना ही होगा। यहाँ तक कि शूद्रेतर और वर्णबाह्य (और कुछ मतों में वर्ण-संकर) होने के कारण थॉमस कोलब्रुक जैसे बालंभट्ट के हितैषी अँग्रेज़ों को भी इस अधिकार से संपन्न मानना पड़ेगा। तब केवल भारत के सनातन-धर्मी शूद्र ही बचेंगे जिन्हें न तो पुराण-अध्ययन का अधिकार होगा, न संस्कृत बोलने का!

सत्य तो यह है कि वेदांत के जिस अपशूद्राधिकरण से शूद्रों के वेदाध्ययन के अधिकार का निषेध होता है, उसी से लोमहर्षण सूत और उनके वंशजों के वेदाधिकार का भी निषेध हो जाता है। फिर भी भागवत-पुराण में सूत को वह सब जानने वाला बताया गया है, जो महर्षि व्यास जैसे वेदवेत्ता जानते थे।[195] टीकाकार वीरराघवाचार्य के अनुसार ब्रह्मसूत्रों के अध्ययन में अनधिकृत होकर भी लोमहर्षण सूत इतिहास-पुराण के प्रधान प्रतिपाद्य तत्त्व को जानते थे। इसमें कारण महर्षि व्यास का अनुग्रह था कि उन्होंने वेदांत के शास्त्र नहीं अपितु उपदेश के माध्यम से अपने शिष्य लोमहर्षण को परम गोपनीय तत्त्व का बोध करा दिया।[196]

यह पारमार्थिक ज्ञान लोमहर्षण के पश्चात् उनके पुत्र उग्रश्रवा में प्रतिष्ठित हुआ। अतः वेदाध्ययन में अनधिकृत होकर भी गुरु-शिष्य परंपरा से सूतों ने इतिहास-पुराण के प्रतिपाद्य विषय का ज्ञान प्राप्त किया। यदि गुरु-कृपा और तपश्चर्या से प्रतिलोमज सूतों को यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है तो उनके सधर्मा शूद्रों को क्यों नहीं हो सकता? वस्तुतः शूद्रों के अधिकार के विषय में बालंभट्ट का संपूर्ण मत ही अनर्थमूलक है, जिसके दुष्परिणामों की अभी हमने कल्पना भर की है।

शूद्रों को न केवल संस्कृत बोलने का अधिकार है, अपितु इतिहास-पुराण आदि विभिन्न विद्यास्थानों की शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार भी है। इनके अतिरिक्त विशेषतः सूतों को अपनी सर्वोत्तम वृत्ति के रूप में पुराण-वाचन का परंपरा-प्राप्त अधिकार है।

 

२५.
करपात्री जी की कर्मणा वर्ण-व्यवस्था

यद्यपि समाज में प्रसिद्ध है कि स्वामी करपात्री जन्माधारित वर्ण-व्यवस्था के मुखर पक्षधर थे, तथापि अंततोगत्वा उनकी लेखनी कर्मणा वर्ण-व्यवस्था का समर्थन कर बैठती थी। कैसे? चाहे शबरी हो अथवा लोमहर्षण सूत, करपात्री जी ने इतिहास-पुराण में जिस ज्ञानी, सच्चरित्र अथवा भक्त पर दृष्टिपात किया, उसे एक-एक कर ब्राह्मण घोषित करते गए। ब्राह्मणत्व के प्रमाण-पत्र के उन्मुक्त वितरण के अवसर पर उन्होंने ब्राह्मणार्ह व्यक्तियों की जाति के विषय में उपलब्ध असंदिग्ध शास्त्र-प्रमाणों और पूर्वाचार्यों की परंपरा का अंकुश भी स्वीकार नहीं किया। करपात्री जी द्वारा जो शबरी को ब्राह्मणी बताने का प्रयास किया गया, उसका शास्त्रानुसार खंडन पूर्व में प्रस्तुत किया जा चुका है।[197] प्रकृत लेखमाला में लोमहर्षण सूत को ब्राह्मण सिद्ध करने के उनके प्रकल्प का प्रत्याख्यान किया गया है।

करपात्री जी के खंडन में प्रस्तुत लेख “शबरी कौन थीं?” में महर्षि याज्ञवल्क्य का एक कथन भी उद्धृत है जिसके अनुसार सभी वर्ण ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण तत्त्वतः “ब्राह्मण” हैं।[198] फिर करपात्री जी को अधिक श्रम न करके केवल इस एक श्लोक के आधार पर सभी को ब्राह्मण सिद्ध कर देना चाहिए था। किंतु ऐसा करना भी उन्हें अभीष्ट नहीं है, क्योंकि उनका ब्राह्मण-प्रमाण-पत्र किसी के जन्म के आधार पर नहीं, अपितु जन्म के वर्षों पश्चात् किए गए आचरण के आधार पर ही मिलता रहा है। यदि इसे कर्मणा वर्ण-व्यवस्था नहीं कहें तो क्या कहें?

करपात्री जी के कर्मणा वर्ण-व्यवस्था के निर्धारण में भाषा, भोजन और परिवेश के साथ-साथ परिधान को भी प्रमाण माना गया है। यद्यपि यह निर्विवाद सत्य है कि शबरी शबर जाति में उत्पन्न हुई थीं, तथापि यदि कभी कृष्ण-मृगचर्म धारण किए दिख जाएँ तो करपात्री जी उन्हें ब्राह्मणी सिद्ध कर दें क्योंकि करपात्र-मत में ब्राह्मण ही कृष्णाजिन धारण कर सकते हैं, वन में रहने वाली जनजातियाँ नहीं। प्रकृत प्रकरण में चाहे उग्रश्रवा स्वयं को हीनजन्मा और वेदवर्जित और अपने पिता लोमहर्षण को प्रतिलोम वर्णवैकृत कहें, चाहे विभिन्न ऋषिगण उन्हें वेदाधिकार से रहित मानें, और चाहे भागवत-पुराण के प्राचीन टीकाकारों में उनकी जाति के विषय में मतैक्य हो, किंतु प्रमाण-पत्र-दाता के समक्ष इन साक्ष्यों का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है तो बस इस बात का कि लोमहर्षण ने ऋषियों को पुराण का ज्ञान दिया था, जबकि कोई वर्ण-संकर ब्राह्मणों को ज्ञान नहीं दे सकता है।

यद्यपि शबरी-प्रसंग के समान हम यहाँ यह नहीं कह सकते कि सूत को ब्राह्मण बताने वाले प्रथम महानुभाव करपात्री जी थे, तथापि समाज में इस पक्ष के प्रचार का सर्वाधिक श्रेय उन्हीं को जाता है। प्रचार भी ऐसा कि उत्तर भारत के अद्वैती श्रीधरस्वामी और विशिष्टाद्वैती वीरराघवाचार्य जैसे पूर्वाचार्यों के सिद्धांत की उपेक्षा कर करपात्र-मत का अनुसरण करने लगे! जिस प्रकार शूद्रों के संस्कृतोच्चारण के अधिकार का मंद स्वरों में निषेध करने वालों को करपात्री जी ने अपनी वाणी प्रदान की और शूद्र समाज का देवालयों में प्रवेश रोकने हेतु आंदोलन चलाया, उसी प्रकार उन्होंने लोमहर्षण को ब्राह्मण मानने वाले अपसिद्धांत को भी पुनरुज्जीवित किया था।

किंतु शब्दों के रूढ़ और प्रसिद्ध अर्थों से लोक को विमुख करना इतना सरल नहीं है। सौभाग्य से आज भी जन-मानस में शबरी को शबर-जातीया और लोमहर्षण सूत को सूत-जातीय ही माना जाता है। इस जन-मान्यता को यथावसर धर्मप्राण महात्माओं का अवलंबन भी मिलता रहा है। उदाहरण-स्वरूप करपात्री जी के समकालीन स्वामी चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती जी ने सूत के प्रकरण में सर्वविदित शास्त्रीय मत का प्रतिपादन किया है-

“नैमिषारण्य के ऋषियों द्वारा प्रदान किए गए उच्चासन से ही सूत ने पुराणों का उपदेश किया था। इससे हम समझ सकते हैं कि पुराणों को कितना सम्मान दिया जाता था। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि जन्म से अधिक ज्ञान का आदर किया जाता था। हम यह भी देखते हैं कि महनीय विद्याओं के अध्ययन में जाति का कोई विचार नहीं किया जाता था। विद्वान् पुरुष को, चाहे उसकी जाति कोई भी हो, सम्मानपूर्वक सुना जाता था।”[199]

“चातुर्वर्ण्य-संस्कृति-विमर्श” में करपात्री जी ने जिन महात्माओं को ब्राह्मण सिद्ध करने का प्रयास है, उनकी विस्तृत सूची है। सभी का विस्तरशः खंडन करना संभव नहीं है। अपसिद्धांत के उपस्थापन में कुछ वाक्यों से अधिक वाग्व्यय नहीं होता है, किंतु उसके निराकरण में सैकड़ों शास्त्रीय प्रमाणों का संयोजन करना पड़ता है। अत एव, शबरी और लोमहर्षण के विषय में करपात्र-मत का खंडन हो जाने के कारण अब स्थालीपुलाक-न्याय से संशय की अवस्था में करपात्री जी के एतदनुरूप अन्य विचारों को अनाप्त मानना ही श्रेयस्कर है।

 

२६.
पुराण-वाचन का अधिकार

जिस आसन पर बैठकर कोई वक्ता पुराणों की कथा का वाचन करता है, उसे “ब्रह्मासन”, “व्यासासन”, अथवा “व्यास-पीठ” कहते हैं। इस पर आरूढ़ होने वाले पुराण-वक्ता को “व्यास”, “शुक” अथवा “सूत” की संज्ञा दी जाती है। पूर्वपक्षी का मानना है कि व्यास-पीठ से पुराण-वाचन का अधिकार केवल ब्राह्मण को है, अन्य को नहीं। इस मान्यता के पीछे दो प्रकार के शब्द-प्रमाण दिए जाते हैं-

(१) जिनसे ब्राह्मण वक्ता का विधान होता है और

(२) जिनसे अन्य वर्णों के वक्ता का निषेध होता है।

प्रथम कोटि के प्रमाणों में पद्मपुराण का एक श्लोक उद्धृत किया जाता है जिसमें कहा गया है कि ब्राह्मण को आगे करके ब्राह्मण के द्वारा कहे गए पुराण का श्रवण करना चाहिए।[200] इसके अतिरिक्त वंशीधर शर्मा द्वारा भागवत-पुराण (१.१.५) की टीका में “संहितोक्त” कहकर वचन उद्धृत किए गए हैं जो अब किसी भी ग्रंथ में दुर्लभ हैं।

द्वितीय कोटि के प्रमाणों में कुछ वचनों से शूद्रों द्वारा पुराणों के पाठ का निषेध प्राप्त होता है।[201] दूसरी ओर कहीं-कहीं शूद्रों के लिए इतिहास-पुराणों के पाठ का विधान भी है।[202] जो भी हो, बालंभट्ट जैसे टीकाकार शूद्रों के इस निषेध का वर्णसंकरों पर अतिदेश स्वीकार नहीं करते हैं। अतः शूद्रों द्वारा पुराण-पाठ के निषेध से सूतों का निषेध सिद्ध नहीं होता है। तब पूर्वपक्षी को कुछ ऐसे शास्त्र-वचनों की आवश्यकता पड़ती है जिनमें सभी ब्राह्मणेतरों का पुराण-वाचन में अनधिकार विवक्षित हो। मेरे संज्ञान में पुराणों के वर्तमान कलेवर में ऐसे वचन दुर्लभ हैं। केवल भविष्य-पुराण का एक श्लोक यहाँ उल्लेखनीय है-

ब्राह्मणं वाचकं विद्यान्नान्यवर्णजमादरेत् ।
श्रुत्वान्यवर्णजाद्वाचं वाचकान्नरकं व्रजेत् ॥[203]

अर्थात् “ब्राह्मण को वाचक मानना चाहिए। किसी अन्य वर्ण में जन्मे वाचक का आदर नहीं करना चाहिए। यदि कोई अन्य वर्ण के वाचक से (पुराण) वाणी सुनता है, तो वह नरक को प्राप्त होता है।”

किंतु यहाँ कुछ विप्रतिपत्तियाँ हैं। वाल्मीकीय-रामायण के अनुसार क्षत्रिय वंश में उत्पन्न कुश और लव ने प्रथमतया मुनियों के समक्ष रामायण का गान किया था।[204] तब क्या यह माना जाए कि इतिहास के वाचन में क्षत्रिय भी अधिकृत हैं? इसी प्रकार यह भी सिद्ध हो चुका है कि महाभारत और पुराणों के वाचक लोमहर्षण और उग्रश्रवा वर्ण-संकर सूत जाति के थे।

हम पहले ही देख चुके हैं कि पुराणों के अनुसार सूतों की प्रधान वृत्ति पुराणों का वाचन है। इस पर पूर्वपक्षी का तर्क है कि वहाँ “पुराण” शब्द से तात्पर्य “पुराण” नामक शास्त्र-विशेष नहीं, अपितु पुराण (पुरातन) राजाओं का चरित है।[205] यह तो और भी हास्यास्पद है, क्योंकि पद्मपुराण, कूर्मपुराण और वायुपुराण में जहाँ-जहाँ सूतों को “पुराण” का अधिकारी और वक्ता कहा गया है, वहाँ प्रसंग उन पुराणों के प्रादुर्भाव का ही है। यदि पूर्वपक्षी “पुराण” को विशेषण मानना चाहें तो उन्हें उन वाक्यों में कोई-न-कोई विशेष्य भी उपस्थापित करना पड़ेगा। किंतु “तेषां पुराणवक्तृत्वं वृत्तिरासीदजाज्ञया”[206] में “पुराण” का विशेष्य कहाँ है?

यह भी ध्यातव्य है कि पूर्वपक्षी स्वयं पुराणों के सर्वमान्य पाँच लक्षणों (सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वंतर, वंशानुचरित)[207] में से दो (वंश और वंशानुचरित) के वाचन में सूतों का अधिकार स्वीकार कर रहे हैं। “वंश” और “वंशानुचरित” के अंतर्गत पुरातन राजाओं की उत्पत्ति और उनकी वंश-परंपरा का ही वर्णन किया जाता है।[208] अतः न्यूनातिन्यून पुराणों के ४०% अंश के वाचन में सूतों का अधिकार सिद्ध होता ही है! शब्दों के रूढ़ और प्रसिद्ध अर्थ को त्यागकर उनका अप्रसिद्ध अर्थ प्रस्तुत करने से पूर्वपक्षी के लिए ऐसी अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

उपर्युक्त विप्रतिपत्तियों के आलोक में हम भविष्य-पुराण के पुराण-वक्तृत्व निषेध को तक्रकौण्डिन्य-न्याय से समझ सकते हैं। वस्तुतः हमें दो वाक्य प्राप्त होते हैं –
(१) ब्राह्मणेतर को पुराण-वाचन नहीं करना चाहिए; और
(२) सूतों को पुराण-वाचन करना चाहिए।

यहाँ प्रथम वाक्य उत्सर्ग अथवा सामान्य नियम है, जबकि द्वितीय वाक्य अपवाद है, जो उत्सर्ग को बाधित करता है। निष्कर्ष यह है कि यद्यपि सामान्यतः ब्राह्मणेतरों को पुराण-वाचन का अधिकार नहीं है, तथापि सूतों को यह अधिकार प्राप्त है।

एक अंतिम प्रश्न यह उठ सकता है – क्या सूतों से पुराण का श्रवण करने में धर्म-हानि होगी? इसके उत्तर में ब्रह्मवैवर्त पुराण के अंतर्गत प्राप्त काशीरहस्य का मत द्रष्टव्य है कि यदि पतित और सदोष वक्ता के मुख से भी सुनी गई भगवान् की कथा हृदय में पल्लवित होती है तो वह वक्ता ही परम गुरु है। ऐसे वक्ता से उपदिष्ट होकर पापी और दुराचारी लोग भी सर्वोच्च ज्ञान और शाश्वत मोक्ष-पद को प्राप्त होते हैं।[209]

अतः अनेक शास्त्र-प्रमाणों से पूर्वपक्षी का आग्रह निर्मूल सिद्ध होता है। लोमहर्षण और उग्रश्रवा जिस सूत जाति के पुरोधा थे, उसका परंपरा-प्राप्त कर्तव्य इतिहास-पुराण का रक्षण और प्रसारण रहा है। सनातन धर्म के प्रति सूतों के अतुल्य योगदान के लिए समाज को उनका कृतज्ञ होना चाहिए, न कि उनकी जातीय अस्मिता और महापुरुषों को छीनकर अन्यत्र वितीर्ण कर देना चाहिए। हम आशा करते हैं कि पूर्वपक्षी द्वारा इतिहास-परिवर्तन का यह प्रयत्न अज्ञान-मूलक ही है, मात्सर्य-जन्य नहीं।

 


सन्दर्भ 

[1] दीनानाथ शास्त्री का “श्रीसनातनधर्मालोक (३-२)” १९५३ में प्रकाशित हुआ था। इसका द्वितीय संस्करण १९७३ में आया था। इस पुस्तक के ३१वें अध्याय (पृष्ठ ३६३-३७८) में सूत को ब्राह्मण सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। दीनानाथ शास्त्री का संदर्भ दिए बिना स्वामी करपात्री ने “चातुर्वर्ण्य-संस्कृति-विमर्श” (प्रथम संस्करण १९८९ में प्रकाशित) के अंतर्गत “सूतस्य ब्राह्मणत्वम्” (पृष्ठ २६८-२७२) में इस संपूर्ण अध्याय का अत्यल्प परिवर्तनों के साथ पंक्तिशः संस्कृत अनुवाद प्रस्तुत किया है। “चातुर्वर्ण्य-संस्कृति-विमर्श” के अन्य अध्यायों (जैसे “काक्षीवतः शूद्रत्वखण्डनम्”) में भी दीनानाथ शास्त्री की पुस्तक का पंक्तिशः अनुकरण द्रष्टव्य है। यदि यह मान लिया जाए कि करपात्री जी को वही शास्त्र-प्रमाण उपलब्ध थे जो पूर्व में दीनानाथ शास्त्री की पुस्तक में आ चुके थे तो भी उन प्रमाणों के संयोजन का क्रम और उनकी व्याख्या में असाधारण समानता है। २०२४ में जालपुट पर “सूतजी का परिचय” शीर्षक से प्रकाशित हिंदी निबंध में गंगाधर पाठक ‘मैथिल’ ने भी अनेक स्थानों पर दीनानाथ शास्त्री का अनुकरण किया है। इसमें भी दीनानाथ शास्त्री का उल्लेख नहीं है।

[2] क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः (मनुस्मृति १०.११)

[3] औशनस-स्मृति ३

[4] “उशना – सूतसुवर्णावुपनेयो, रथकारोऽनुपनेयः (धर्मकोश में औशनस-स्मृति (३) के उद्धृत श्लोक पर टिप्पणी)

[5] “यत्तु ‘मृषा ब्राह्मणकन्यायां विवाहेषु समन्वयात्…धर्माणामनुबोधकः’ इत्युशनसो वाक्यं, तस्यायमर्थः। ब्राह्मणकन्यायां मृषा विधिहीनेषु विवाहेषु ऊढायां समन्वयात् सजातीयाज्जातः अत्र शास्त्रे प्रतिलोमविधिः प्रतिलोमधर्मा द्विजो निर्दिष्टः स च वेदानर्हः तथाप्येषां स्मार्त्तानां धर्माणामनु पश्चात् ब्राह्मणं पुरस्कृत्य ब्राह्मणाभावे वा बोधकः उपदेष्टा भवति। ततश्च विधिश्च विधिविकलविवाहोढब्राह्मणीजातस्य ब्राह्मणस्यैव सूतसंज्ञस्य प्रतिलोमधर्मस्येदमुपनयनं न सूतजातेरिति न विरोधः।” (वीरमित्रोदय, संस्कारप्रकाश, पृष्ठ ४०६)

[6] सूताद् विप्रप्रसूतायां सुतो वेणुक उच्यते।
नृपायामेव तस्यैव जातो यश्चर्मकारकः॥
(औशनस-स्मृति ४)

[7] ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः ।
(महाभारत १३.४७.२८)

विप्रान्मूर्धावसिक्तो हि क्षत्रियायां विशः स्त्रियाम् ।
(याज्ञवल्क्य-स्मृति १.९१)

[8] व्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्मा भूर्जकण्टकः
(मनुस्मृति १०.२१)

विप्रः संस्कारहीनश्च व्रात्यतामधिगच्छति ।
ब्राह्मण्यां तस्य यः पुत्रो भृज्जकण्टः स हि स्मृतः ॥

…

तेषां कर्माणि वक्ष्येऽहं जीवनाय विशेषतः ।
वर्ण्यौ हरिहरौ तैश्च गीतगाथाप्रबन्धनैः ॥

चरितैर्देशभाषाभिर्गानं तज्जीविका स्मृता ।
लोकाचारात्स्मृतास्तेषां शूद्रधर्मा न हि क्वचित् ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९७) पर बालंभट्ट-टीका में उद्धृत विश्वंभर-वास्तुशास्त्र का वचन)

“एते च नानुलोमजा न प्रतिलोमजा अपि तु ब्राह्मणा एव। मद्यप-पतितब्राह्मणादिवत्। दुर्ब्राह्मणा व्यभिचारजा इति संप्रदायः।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९७) पर बालंभट्ट-टीका)

[9] “मद्गोर्विप्रायां वेणुको वेणुवीणादी” (वैखानस-स्मार्त-सूत्र १०.१५); “विप्रायां नापिताज्जातो वेणुकः परिकीर्तितः” (सूतसंहिता १.१२.३३)

[10] समानगोत्रप्रवरां कन्यामूढ्वोपगम्य च ।
तस्यामुत्पाद्य चांडालं ब्राह्मण्यादेव हीयते॥
(स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, धर्मारण्य-खंड २१.९)

ब्राह्मण्यां शूद्रजनितश्चाण्डालो धर्मवर्जितः।
कुमारीसम्भवस्त्वेकः सगोत्रायां द्वितीयकः ॥
ब्राह्मण्यां शूद्रजनितश्चाण्डालस्त्रिविधः स्मृतः।
(व्यास-स्मृति १.८-९)

आरूढपतितापत्यं ब्राह्मण्यां यस्तु शूद्रजः ।
सगोत्रोढासुतश्चैव चण्डालास्त्रय ईरिताः ॥
(वीरमित्रोदय, संस्कारप्रकाश, विवाहसंस्कार, कुलपरीक्षा में उद्धृत बौधायन-मत)

[11] ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जातः सूतो भवति पार्थिव ।
प्रातिलोम्येन जातानां स ह्येको द्विज एव तु ॥
रथकारमितीमं हि क्रियायुक्तं द्विजन्मनाम्।
क्षत्रियादवरो वैश्याद्विशिष्ट इति चक्षते ॥
(महाभारत, दाक्षिणात्य-पाठ ४.२१.९-१०)

[12] “प्रतिलोमाज्जाताः सूतादयो धर्महीना उपनयनादिधर्महीना, तत्र सूतस्यैकोपनयनमात्रं शास्त्रान्तरेऽङ्गीकृतम्” (गौतम-धर्मसूत्र (१.४.२०) पर हरदत्त-टीका)

[13] क्षत्रियाद् विप्रकन्यायां सूतो नाम प्रजायते।
प्रतिलोमनिवासेषु विष्णोरभ्यर्चनं तथा॥
धर्मावबोधनं तस्य सारथ्यं कटविक्रयः।
नित्यं द्विजवदाचार इति सूतस्य वृत्तयः॥
(पुराणसार ५.३६-३७)

[14] तस्य वै जातमात्रस्य यज्ञे पैतामहे शुभे ।
सूतः सूत्यां समुत्पन्नः सौत्येऽहनि महामतिः ॥
तस्मिन्नेव महायज्ञेजज्ञे प्राज्ञेऽथ मागधः ।
प्रोक्तौ तदा मुनिवरैस्तावुभौ सूतमागधौ ॥

…

अथ तौ चक्रतुः स्तोत्रं पृथोर्वैन्यस्य धीमतः ।
भविष्यैः कर्मभिः सम्यक्सुस्वरौ सूतमागधौ ॥
(विष्णुपुराण १.१३.५१-५२, ६०)

[15] वैन्यस्य हि पृथोर्यज्ञे वर्त्तमाने महात्मनः ।
मागधश्चैव सूतश्च तमस्तौतां नरेश्वरम् ॥

…

तत्र सूत्यां समुत्पन्नः सूतो नामेह जायते ।
ऐन्द्रे सत्रे प्रवृत्ते तु ग्रहयुक्ते बृहस्पतौ ॥

तमेवेन्द्रं बार्हस्पत्ये तत्र सूतो व्यजायत ।
शिष्यहस्तेन यत्पृक्तमभिभूतं गुरोर्हविः ॥

अधरोत्तरधारेण जज्ञे तद्वर्णसंकरम् ।
येत्र क्षत्रात्समभवन्ब्राह्मण्याश्चैव योनितः ॥

पूर्वेणैव तु साधर्म्याद्वैधर्मास्ते प्रकीर्तिताः ।
मध्यमो ह्येष सूतस्य धर्मः क्षेत्रोपजीविनः ॥

पुराणेष्वधिकारो मे विहितो ब्राह्मणैरिह ।
दृष्ट्वा धर्ममहं पृष्टो भवद्भिर्ब्रह्मवादिभिः ॥
(पद्मपुराण, सृष्टिखंड १.३०, १.३२-३६)

वैन्यस्य हि पृथोर्यज्ञे वर्त्तमाने महात्मनः ।
सुत्यायामभवत् सूतः प्रथमं वर्णवैकृतः ॥
ऐन्द्रेण हविषा तत्र हविः पृक्तं बृहस्पतेः ।
जुहावेन्द्राय देवाय ततः सूतो व्यजायत ।
प्रमादात्तत्र सञ्जज्ञे प्रायश्चित्तञ्च कर्मसु ॥
शिष्यहव्येन यत् पृक्तमभिभूतं गुरोर्हविः।
अधरोत्तरचारेण जज्ञे तद्वर्णवैकृतः ॥
यच्च क्षत्रात् समभवद्ब्राह्मणाऽवरयोनितः ।
ततः पूर्वेण साधर्म्यात्तुल्यधर्मा प्रकीर्त्तितः ॥
मध्यमो ह्येष सूतस्य धर्मः क्षत्रोपजीवनम् ।
रथनागाश्वचरितं जघन्यञ्च चिकित्सितम् ॥
तत् स्वधर्ममहं पृष्टो भवद्भिर्ब्रह्मवादिभिः ।
कस्मात् सम्यङ्न विब्रूयां पुराणमृषिपूजितम् ॥
(वायुपुराण १.१.२८-३३)

[16] त्वया सूत महाबुद्धे भगवान्ब्रह्मवित्तमः ।
इतिहासपुराणार्थे व्यासः सम्यगुपासितः ॥
तस्य ते सर्वरोमाणि वचसा हर्षितानि यत् ।
द्वैपायनस्यानुभावात्ततोऽभू रोमहर्षणः ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य १.५-६)

त्वया सूत महाबुद्धे भगवान् ब्रह्मवित्तमः ।
इतिहासपुराणार्थं व्यासः सम्यगुपासितः ॥
तस्य ते सर्वरोमाणि वचसा हर्षितानि यत् ।
द्वैपायनस्य तु भवांस्ततो वै रोमहर्षणः ॥
(कूर्मपुराण १.३-४)

द्रष्टुं तान् स महाबुद्धिः सूतः पौराणिकोत्तमः ।
लोमानि हर्षयाञ्चक्रे श्रोतॄणां यत् सुभाषितैः ।
कर्मणा प्रथितस्तेन लोकेऽस्मिँल्लोमहर्षणः ॥
(वायुपुराण १.१.१३)

[17] त्वं हि स्वायंभुवे यज्ञे सुत्याहे वितते हरिः ।
संभूतः संहितां वक्तुं स्वांशेन पुरुषोत्तमः ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य १.८; कूर्मपुराण १.१.६)

[18] “श्रीसनातनधर्मालोक (३-२)” (द्वितीय संस्करण, १९७३), पृष्ठ ३७३

[19] ऋतधामा च भद्रेन्द्रस्तारको नाम तद्रिपुः।
हरिर्नपुंसको भूत्वा घातयिष्यति शङ्कर ॥
(गरुडपुराण, आचारकांड ७८.५३)

दायादा बान्धवास्तस्य भविष्यन्त्यसुराश्च ये ।
तेषां च भविता राजा नरको नाम नामतः ॥
स्त्रीपुंसोः सत्त्ववध्यश्च वरदानात्स्वयम्भुवः ।
हरिर्नपुंसको भूत्वा घातयिष्यति तं तदा ॥
(विष्णुधर्मोत्तर-पुराण १.१८७.५-७)

[20] भागवत-पुराण ९.२१.३-२८

[21] यथाश्रुतं सुविख्यातं तत्सर्वं कथयामि वः ।
धर्म एष तु सूतस्य सद्भिर्दृष्टः सनातनः ॥
“देवतानामृषीणां च राज्ञां चामिततेजसाम् ।
वंशानां धारणं कार्यं स्तुतीनां च महात्मनाम् ॥
इतिहासपुराणेषु दृष्टा ये ब्रह्मवादिनः ।
न हि वेदेष्वधीकारः कश्चित्सूतस्य दृश्यते ॥
(पद्मपुराण, सृष्टिखंड १.२७-२९; तद्वत् वायुपुराण १.१.२६-२८)

नियोगाद् ब्रह्मणः सार्द्धं देवेन्द्रेण महौजसा ।
वेनपुत्रस्य वितते पुरा पैतामहे मखे ॥
सूतः पौराणिको जज्ञे मायारूपः स्वयं हरिः ।
प्रवक्ता सर्वशास्त्राणां धर्मज्ञो गुणवत्सलः ॥
तं मां वित्त मुनिश्रेष्ठाः पूर्वोद्‌भूतं सनातनम् ।
अस्मिन् मन्वन्तरे व्यासः कृष्णद्वैपायनः स्वयम् ॥”
श्रावयामास मां प्रीत्या पुराणं पुरुषो हरिः ।
मदन्वये तु ये सूताः सम्भूता वेदवर्जिताः ॥
तेषां पुराणवक्तृत्वं वृत्तिरासीदजाज्ञया ।
स तु वैन्यः पृथुर्धीमान् सत्यसन्धो जितेन्द्रियः ॥
(कूर्मपुराण १.१४.१२-१६)

[22] तत्सर्वं न: समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्‍नातमन्यत्र छान्दसात् ॥
(भागवत-पुराण १.४.१३)

[23] ^ततस्तानाकुलान्दृष्ट्वा विश्वामित्रास्त्रमोहितान् ।
वसिष्ठश्चोदयामास कामधुक्सृज योगतः ॥
तस्या हुम्भारवाज्जाताः काम्बोजा रविसन्निभाः ।
ऊधसस्त्वथ संजाताः पह्लवाः शस्त्रपाणयः ॥
योनिदेशाच्च यवनः शकृद्देशाच्छकास्तथा ।
रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च हरीताः सकिरातकाः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.५४.१-३)

असृजत्पह्लवान्पुच्छात्प्रस्रवाद्द्राविडाञ्छकान् ।
योनिदेशाच्च यवानाञ्शकृतः शबरान्बहून् ॥
मूत्रतश्चासृजत्कांश्चिच्छबरांश्चैव पार्श्वतः ।
पौण्ड्रान्किरातान्यवनान्सिंहलान्बर्बरान्खसान् ॥
चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान्हूणान्सकेरलान् ।
ससर्ज फेनतः सा गौर्म्लेच्छान्बहुविधानपि ॥
(महाभारत दाक्षिणात्य-पाठ १.१९१.३८-४०)

[24] शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।
पारदापह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः ॥
(मनुस्मृति १०.४३-४४)

मेकला द्रमिडाः काशाः पौण्ड्राः कोल्लगिरास्तथा ।
शौण्डिका दरदा दर्वाश्चौराः शबरबर्बराः ॥
किराता यवनाश्चैव तास्ताः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात् ॥
(महाभारत १३.३५.१८)

[25] ततः शकान् सयवनान् काम्बोजान् पारदांस्तथा ।
पह्लवांश्चैव निःशेषान् कर्तुं व्यवसितो नृपः ॥
ते वध्यमाना वीरेण सगरेण महात्मना ।
वसिष्ठं शरणं सर्व्वे प्रपन्नाः शरणैषिणः ॥
वसिष्ठस्तान् तथेत्युक्त्वा समयेन महामुनिः ।
सगरं वारयामास तेषान्दत्त्वाऽभयन्तदा ॥
सगरः स्वाम्प्रतिज्ञाञ्च गुरोर्वास्यं निशम्य च ।
धर्म्मं जघान तेषां वै वेषान्यत्वं चकार ह ॥
अर्द्धं शकानां शिरसो मुण्डयित्वा व्यसर्जयत् ।
यवनानां शिरः सर्वं काम्बोजानान्तथैव च ॥
पारदा मुक्तकेशाश्च पह्लवाः श्मश्रु धारिणः ।
निःस्वाध्यायवषट्काराः कृतास्तेन महात्मना ॥
शका यवनकाम्बोजाः पह्लवाः पारदैः सह ।
केलिस्पर्शा माहिषिका दार्वाश्चोलाः खसास्तथा ॥
सर्व्वे ते क्षत्रियगणा धर्म्मस्तेषां निराकृतः ।
वसिष्ठवचनात्पूर्वं सगरेण महात्मना ॥
(वायुपुराण २.२३.१३५-१४२, तद्वत् हरिवंश-पुराण, हरिवंश-पर्व १४.१२-२०)

[26] ततस्तु क्षत्रियाः केचिज्जमदग्निं निहत्य च ।
विविशुर्गिरिदुर्गाणि मृगाः सिंहार्दिता इव ॥
तेषां स्वविहितं कर्म तद्भयान्नानुतिष्ठताम् ।
प्रजा वृषलतां प्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात् ॥
त एते द्रमिडाः काशाः पुण्ड्राश्च शबरैः सह ।
वृषलत्वं परिगता व्युत्थानात्क्षत्रधर्मतः ॥
(महाभारत १३.२९.१४-१६)

[27] वामन-पुराण ७६.२३

[28] नृपायां वैश्यतो जातः शबरः परिकीर्तितः।
मधूनि वृक्षादानीय विक्रीणीते स्ववृत्तये॥
(वाल्मीकीय-रामायण (१.१.५६) पर गोविंदराज की टीका में उद्धृत नारद-पुराण का वचन)

क्षत्त्रवीर्य्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापतः ।
बलवन्तो दुरन्ताश्च बभूवुर्म्लेच्छजातयः ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखंड १०.११९)

[29] “‘अग्निकुण्डसमुद्भूतः सूतो निर्मलमानसः’ इति रोमहर्षणं प्रति शौनकवचनस्य पुराणान्तरे दर्शनादग्निजो रोमहर्षणः सूतस्तस्य च ब्राह्मणसङ्कल्पाद् ब्रह्मासनार्हत्वम्। धृष्टद्युम्नस्य क्षत्रियवत्।” (महाभारत (१.४.२) पर नीलकंठ-टीका)

[30] याज उवाच ।

याजेन श्रपितं हव्यमुपयाजेन मन्त्रितम् ।
कथं कामं न संदध्यात्सा त्वं विप्रैहि तिष्ठ वा ॥
ब्राह्मण उवाच ।
एवमुक्ते तु याजेन हुते हविषि संस्कृते ।
उत्तस्थौ पावकात्तस्मात्कुमारो देवसन्निभः ॥

…

कुमारी चापि पाञ्चाली वेदिमध्यात्समुत्थिता ।
सुभगा दर्शनीयाङ्गी वेदिमध्या मनोरमा ॥
(महाभारत १.१५५.३६-३७, ४१)

[31] ऐन्द्रेण हविषा तत्र हविः पृक्तं बृहस्पतेः ।
जुहावेन्द्राय देवाय ततः सूतो व्यजायत ।
प्रमादात्तत्र सञ्जज्ञे प्रायश्चित्तञ्च कर्मसु ॥
(वायुपुराण १.१.२९)

[32] काठक-संहिता ६.६

[33] “सूत्यामिति सूतिरभिषूति अभिषूयते कण्ड्यते सोमोऽस्यामिति सूतिः सोमाभिषवभूमिः” (विष्णुपुराण (१.१३.५१) पर श्रीधरस्वामी-टीका); “सूत्यां सूत्यायां सोमाभिषवे जाते। सूयते सोमोऽस्यामिति सूतिः” (विष्णुपुराण (१.१३.५१) पर विष्णुचितीय-टीका)

[34] “उत्तरवेद्याः प्रतीचीने सदसः प्राचीने मण्डपेऽभिषवः” (अर्थसंग्रह (४९) पर कौमुदी-भाष्य)

[35] त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः ।
वैशम्पायनहारीतौ षड्वै पौराणिका इमे ॥
(भागवत-पुराण १२.७.५)

प्रख्यातो व्यासशिष्योऽभूत् सूतो वै रोमहर्षणः ।
पुराणसंहितां तस्मै ददौ व्यासो महामुनिः ॥
सुमतिश्चाग्निवर्चाश्च मित्रायुः शांशपायनः ।
अकृतव्रणः सावर्णिः षट् शिष्यास्तस्य चाभवन् ॥
काश्यपः संहिताकर्ता सावर्णिः शांशपायनः ।
रोमहर्षणिका चान्या तिसृणां मूलसंहिताः ॥
चतुष्टयेनाप्येतेन संहितानामिदं मुने ।
आद्यं सर्वपुराणानां पुराणं ब्राह्ममुच्यते ॥
(विष्णुपुराण ३.६.१६-१९)

[36] अधीयन्त व्यासशिष्यात्संहितां मत्पितुर्मुखात् ।
एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम् ॥
(भागवत-पुराण १२.७.६)

[37] तुष्टेनाथ तयोर्द्दत्तो वरो राज्ञा महात्मना ।
सूताय सूतविषयो मगधो मागधाय च ॥
(पद्मपुराण, सृष्टिखंड १.३९)

ततः श्रुतार्थः सुप्रीतः पृथुः प्रादात्प्रजेश्वरः ।
अनूपदेशं सूताय मागधान्मागधाय च ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य ३३६.११३)

तयोः स्तवैस्तैः सुप्रीतः पृथुः प्रादात् प्रजेश्वरः ।
अनूपदेशं सूताय मगधान् मागधाय च ॥
(हरिवंश-पुराण, हरिवंश-पर्व ५.४२)

ततः स्तवान्ते सुप्रीतः पृथुः प्रादात् प्रजेश्वरः ।
अनूपदेशं सूताय मगधं मागधाय च ॥
(वासुपुराण १.१.१४५)

तयोः स्तवान्ते सुप्रीतः पुथुः प्रादात्प्रजेश्वरः ।
अनूपदेशं सूताय मगधं मागाधाय च ॥
(ब्रह्मपुराण ४.६७)

आत्मनाऽष्टम इत्येव श्रुतिरेषां परा नृषु ।
उत्पन्नौ बन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ ॥
तयो प्रीतो ददौ राजा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान् ।
अनूपदेशं सूताय मगधं मागधाय च ॥
(महाभारत, दाक्षिणात्य-पाठ १२.५८.१२१-१२२)

[38] अनुगता आपो यस्मिन् अनूपः। अनु + आप् = अनु + आप् + अ (“ऋक्पूरब्धूःपथामानक्षे” (पाणिनि-सूत्र ५.४.७४) से अ-समासांत प्रत्यय) = अनु+ऊप्+अ (“ऊदनोर्देशे” (पाणिनि-सूत्र ६.३.९८) से अनु से परे आपः के आकार का ऊकार) = अनूपः (“अकः सवर्णे दीर्घः” (पाणिनि-सूत्र ६.१.१०१) से सवर्ण दीर्घ संधि)

[39] सह सूतेन संबन्धः कृतः पूर्वं नराधिपैः।
तेन तु प्रातिलोम्येन राजशब्दो न लभ्यते ॥
(महाभारत, दाक्षिणात्य-पाठ ४.२१.११)

[40] तेषां तु सूतविषयः सूतानां नामतः कृतः।
उपजीव्यं च यत्क्षेत्रं राजन्सूतेन वै पुरा ॥
सूतानामधिपो राजा केकयो नाम विश्रुतः।
राजकन्यासमुद्भूतः सारथ्येऽनुपमोऽभवत् ॥
(महाभारत, दाक्षिणात्य-पाठ ४.२१.१२-१३)

गङ्गायाः सूतविषयं चम्पामभ्याययौ पुरीम् ।
स मञ्जूषागतो गर्भस्तरङ्गैरुह्यमानकः ॥
(महाभारत ३.२९२.२६)

[41] मत्स्यपुराण, ४८.१०२-१०८; वायुपुराण २.३७.१०७-११४; हरिवंश-पुराण, हरिवंश-पर्व ३१.५५-५८; विष्णुपुराण ४.१८.३-७

[42] दायादस्तस्य चाङ्गेभ्यो यस्मात् कर्णोऽभवन्नृपः ।
कर्णस्य शूरसेनस्तु द्विजस्तस्यात्मजः स्मृतः ॥
(वायुपुराण २.३७.१०८)

[43] यच्च क्षत्रात् समभवद्ब्राह्मणाऽवरयोनितः ।
ततः पूर्वेण साधर्म्यात्तुल्यधर्मा प्रकीर्त्तितः ॥
मध्यमो ह्येष सूतस्य धर्मः क्षत्रोपजीवनम् ।
रथनागाश्वचरितं जघन्यञ्च चिकित्सितम् ॥
(वायुपुराण १.१.३१-३२)

[44] “उग्रे सुतेजसी श्रवसी श्रवणे यस्य। तेजश्च पुराणश्रवणजनितं पुण्यम्।” (महाभारत (१.१.१) पर देवबोध की टीका)

[45] कश्चित्पुमान्ब्रह्मयज्ञे यज्ञकुण्डात्समुत्थितः ।
स सूतो धर्मवक्ता च मत्पूर्वपुरुषः स्मृतः ॥
पुराणं पाठयामास तं च ब्रह्मा कृपानिधिः ।
पुराणवक्ता सूतश्च यज्ञकुण्डसमुद्भवः ॥
वैश्यायां सूतवीर्य्येण पुमानेको बभूव ह ।
स भट्टो वावदूकश्च सर्वेषां स्तुतिपाठकः ॥
एवं ते कथितः किञ्चित्पृथिव्यां जातिनिर्णयः ।
वर्णसङ्करदोषेण बह्व्योऽन्याः सन्ति जातयः ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखंड १०.१३४-१३७)

[46] “ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठो नाम जायते” (मनुस्मृति १०.८)

[47] भागवत-पुराण १.१८.१८

[48] “प्रतिलोमजा अप्यद्य जन्मभृतः सफलजन्मान आस्म जातः” (श्रीधरस्वामी); “…वयं विलोमजाता अपि ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जाता अपि वृद्धानां ज्ञानेन वयसा जन्मना च वृद्धानां भागवतानामनुवृत्त्या हेतुभूतया अधुना जन्मभृतः प्रशस्तदेहधृतः स्म भवामः” (वीरराघव); “विलोमजाता हीनजन्मानोऽपि…” (विजयध्वजतीर्थ); “विलोमजाता अपि वयमद्यैव जन्मभृतः उत्तमजन्मान्तरं लब्धवन्त आस्म द्विजत्ववत्” (जीव गोस्वामी); “विलोमजा निन्द्या अपि अद्य जन्मभृतः सफलजन्मानः आस्म जाताः” (विश्वनाथ-चक्रवर्ती); “‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जातः स वै सूत उदाहृत’ इति स्मृतिप्रसिद्धा विलोमजा अपि वृद्धानां ज्ञानादिभिः स्थविराणामनुवृत्त्या सेवयाऽद्य जन्मभृतः आस्म” (शुकदेव); “विलोमजाता इति ‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूतः’ वृद्धानुवृत्त्या एवं जाताः (स्वामी वल्लभाचार्य); “तत्र हि पृथोर्यज्ञे बृहस्पतेर्हविषि ऐन्द्रं हविः प्रमादतः पतितम्, ततः सूत उत्पन्नः, तस्य मुख्या वृत्तिः पुराणकथनम्, अन्यथा अश्वचिकित्साद्या जघन्या इत्युक्ताः” (पुरुषोत्तम गोस्वामी); “अहो अस्मद्भाग्यं वयं विलोमजाता ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जाता अपि वृद्धानां ज्ञानेन वयसा जन्मना च वृद्धानां शुकादीनां भवतां चानुवृत्त्या सेवया कृपया वा हेतुभूतया अद्याधुना जन्मभृतः प्रशस्तदेहधृत आस्म जाताः” (गिरिधरलाल)

[49] पृष्ठ १७५

[50] मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जिबन्धनात् ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति १.३९)

मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जिबन्धनम् ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशस्तस्मादेते द्विजातयः ॥
(गरुडपुराण, आचारकांड ९४.२४-२५)

[51] तन्मन्त्राणां च माहात्म्यं तथैव द्विजसत्तम ।
तत्कथायाश्च तद्भक्तेः प्रभावमनुवर्णय॥
(स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, ब्रह्मोत्तरखंड १.४)

[52] “अत्यन्तपरिपक्वविद्याविनयसम्पन्नः” (बृहदारण्यक उपनिषद् (२.१.१८-१९) पर शांकर-भाष्य)

[53] “एष तु महाब्राह्मणः यश्चतुरो वेदानधीते”
(ब्रह्मसूत्र (१.३.८) पर शांकर-भाष्य)

[54] तपस्विशरणोपेतां महाब्राह्मणसेविताम् ।
ददर्श तपनीयाभां महाराजः पुरूरवाः ॥
(मत्स्यपुराण ११६.३)

महाभारत ३.२००.४७; महाभारत ३.१३१.३; महाभारत ९.४७.६१; स्कंदपुराण, प्रभासखण्ड ३४.३५; स्कंदपुराण, नागरखंड १५७.४०; स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, धर्मारण्यखंड ३६.१९५; स्कंदपुराण, वैष्णवखंड, वेंकटाचलमाहात्म्य ३२.२४; भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व २११.४५

[55] “महाब्राह्मण इत्येते सुप्त्यानन्दे श्रुतीरिताः” (पञ्चदशी ११.४६)

[56] याज्ञवल्क्य-स्मृति १.३९

मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जिबन्धनम् ।
ब्राह्मणक्षत्रियविशस्तस्मादेते द्विजातयः ॥
(गरुडपुराण, आचारकांड ९४.२४-२५)

[57] न तेऽस्त्यविदितं किञ्चिद् वेदे शास्त्रे च भारते ।
पुराणे मोक्षशास्त्रे च सर्वज्ञोऽसि महामते ॥
(ब्रह्मपुराण १.१७)

[58] स कृत्वा निश्चयं राजा सोपाध्यायगणस्तदा ।
यज्ञकर्मणि वेदज्ञो यष्टुं समुपचक्रमे ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.३७.२४)

स तु पूर्वभवे जातो ब्राह्मणो लोकविश्रुतः ।
इलो नाम स वेदज्ञो यथेलो नृपतिस्तदा ॥
(भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व ३.१७.१६)

पृथिव्यामस्ति को राजा वेदज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।
ब्रह्मण्यो वेदविच्छूरो यज्वा दाता सुभक्तिमान् ॥

नारद उवाच-

एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो नहुषस्यात्मजो बली ।
यस्य सत्येन वीर्येण सर्वे लोकाः प्रतिष्ठिताः॥

भवादृशो हि भूर्लोके ययातिर्नहुषात्मजः ।
भवान्स्वर्गे स चैवास्ति भूतले भूतिवर्धनः॥
(पद्मपुराण, भूमिखण्ड ६४.२३-२५)

[59] यथापूर्व्वमिदं सर्व्वमुत्पन्नं सचराचरम् ।
ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ॥

श्रोतुमिच्छामहे सूत ब्रूहि सर्वं यथा जगत् ।
बभूव भूयश्च यथा महाभागा भविष्यति ॥
(ब्रह्मपुराण १.१८-१९)

[60] वेदे रामायणे पुण्ये भारते भरतर्षभ ।
आदौ चान्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ॥
(हरिवंश-पुराण, भविष्यपर्व १३२.९५)

[61] अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्व्वजिष्णवे ॥
नमो हिण्यगर्भाय हरये शङ्कराय च ।
वासुदेवाय ताराय सर्गस्थित्यन्तकर्म्मणे ॥
(ब्रह्मपुराण १.२१-२२)

[62] अयजद्यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ॥
(भागवत-पुराण ९.१९.४८)
सर्ववेदमयं शिवम् (ध्यानबिंदूपनिषद् ३३)

[63] “कहीं द्विजेतर और पुरुषेतर का वेदश्रवण दीखे तो वहाँ ‘नाट्यसंज्ञमिमं वेदं सेतिहासं करोम्यहम्‌’ (नाट्यशास्त्र १५५) नाट्यशास्त्र अथवा पुराणेतिहासरूप पंचम वेद का ही श्रवण समझना चाहिए।” (“श्रीरामभक्ता शबरी ब्राह्मणी थीं”, गंगाधर पाठक)

[64] वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेद: प्राचेतसादासीत् साक्षाद् रामायणात्मना ॥
(मंत्र-रामायण)
“इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते” (भागवत १.४.२०)

[65] शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ। कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ (मुण्डकोपनिषद् १.१.३)

[66] यस्मिन्निदमोतं च प्रोतं च। यस्मिन्निदं सं च विचैति सर्वं यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति । तदपाणिपादमचक्षुः श्रोत्रमजिह्वमशरीरमग्राह्यमनिर्देश्यम् ॥

(शाण्डिल्योपनिषद् २.१)

[67] श्रीसनातनधर्मालोक (३-२) (द्वितीय संस्करण, १९७३), पृष्ठ ३७३; प्रतीत होता है कि गंगाधर पाठक ने दीनानाथ शास्त्री के अनुकरण में उनके तर्क को यथावत् लिख दिया है, फिर आगे जोड़ा है – “…इस श्लोक में ‘भगवान् ब्रह्मवित्तमः’ का अर्थ यह भी लिखा है कि हे सूत! आप साक्षात् भगवान् एवं ब्रह्मविद्वरिष्ठ हैं।” (“सूतजी का परिचय”, गंगाधर पाठक)

[68] कूर्मपुराण १.३

[69] “श्रीसनातनधर्मालोक (३-२)” (द्वितीय संस्करण, १९७३),  पृष्ठ

[70] ततो राजा मुचुकुन्दः सोऽन्वशासद्वसुन्धराम् ।
बाहुवीर्यार्जितां सम्यक्क्षत्रधर्ममनुव्रतः ॥
एवं यो ब्रह्मविद्राजा ब्रह्मपूर्वं प्रवर्तते ।
जयत्यविजितामुर्वीं यशश्च महदश्नुते ॥
(महाभारत १२.७५.२०-२१)

अयं ब्रह्मविदां श्रेष्ठः अयं ब्रह्मविदां गतिः ।
इत्यभाषन्त भूतानि शयानं भरतर्षभम् ॥
(महाभारत ६.११५.१२)

[71] नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम् ।
कथामृतरसास्वादकुशला ऋषयोऽब्रुवन् ॥
(स्कंदपुराण, वैष्णवखंड, भागवतमाहात्म्य १.२; पद्मपुराण, उत्तरखंड १९३.४)

“श्रीशौनकका सूतको अभिवादन [प्रणाम] आया है, नहीं तो ब्राह्मण-द्वारा वर्णसङ्कर को अभिवादन कैसे होता?” (श्रीसनातनधर्मालोक (३-२) (द्वितीय संस्करण, १९७३), पृष्ठ ३७३)

तस्मिन्नवसरे सूतं पञ्चक्रोशदिदृक्षया ।
गत्वा समागतं वीक्ष्य मुदा ते तं ववन्दिरे॥
(शिवपुराण, कैलास-संहिता १.९)

सूत सूत महाभाग व्यासशिष्य नमोस्तु ते ।
(शिवपुराण, विश्वेश्वर-संहिता २१.१, २३.१)

[72] वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी ।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ॥
(मनुस्मृति २.१३५)

विद्याकर्मवयोबन्धु-वित्तैर्मान्या यथाक्रमम् ।
एतैः प्रभूतैः शूद्रोऽपि वार्धके मानमर्हति ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति १.११६)

[73] “उत्कृष्टगुणविद्यायुक्तस्तु हीनजातिरप्युत्कृष्टजातेर्मान्यो भवति। तेन जातिमनादृत्य बहुविद्योऽल्पविद्येन मान्यः।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.११६) पर अपरार्क की टीका)

[74] लौकिकं वैदिकं वाऽपि तथाऽध्यात्मिकमेव वा ।
आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत् ॥
(मनुस्मृति २.११७)

[75] लौकिकं वैदिकं वाऽपि तथाऽऽध्यात्मिकमेव वा ।
यस्माज्ज्ञानमिदं प्राप्तं तं पूर्वमभिवादयेत् ॥
(महाभारत, दाक्षिणात्य-पाठ १४.११०.५५)

[76] ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम् ।
वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ॥
(मनुस्मृति २.१२७)

[77] “कुशल्यसि तुषजक” (अष्टाध्यायी (८.२.८३) पर पातंजल-महाभाष्य)

[78] सूत सूत महाभाग चिरञ्जीव सुखी भव ।
यच्छ्रावयसि नस्तात शांकरीं परमां कथाम् ॥
(शिवपुराण, रुद्रसंहिता १.१.७)

[79] त एकदा तु मुनय: प्रातर्हुतहुताग्नय: ।
सत्कृतं सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात् ॥
(भागवत-पुराण १.१.५)

[80] “यथोचितं बहुमतम्” (वीरराघवाचार्य); “तद्योग्यसत्कारैः पूजितम्” (विजयध्वजतीर्थ); “तथापि सूतस्य हीनत्वेन कथायोग्यस्थानोपवेशनासम्भवेनोत्थितेनोदासीनेन च तेन कथं कथनं सम्भवति, येन पप्रच्छुरिति शङ्कां निवारयन्नाह – सत्कृतमासीनं चेति। मुनीनामाज्ञयाऽऽसीनमुपविष्टं ब्रह्मासनदानेन सत्कृतं चेत्यर्थः।” (गिरिधरलाल); “सत्कारसंभाषणादिना। ब्रह्मासनदानेन वा सूतः पौराणिकः उग्रश्रवा।” (स्वामी वल्लभाचार्य)

[81] तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः ।
अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन् ॥
सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः ।
रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत ॥
(भागवत-पुराण १०.७८.२१-२१)

प्रपेदे नैमिषारण्यं मुनीन्द्रैरभिसेवितम् ।
आगतं तं विलोक्याथ नैमिषीयास्तपस्विनः ॥
दीर्घसत्रे स्थिताः सम्यङ्नियता धर्मतत्पराः ।
अभ्युद्गम्य यदुश्रेष्ठं प्रणम्योत्थाय चासनात् ॥
अपूजयन्विष्टराद्यैः कन्दमूलफलैस्तदा ।
आसनं परिगृह्यायं पूजितः सपुरःसरः ॥
(स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, सेतुखंड १९.१६-१८)

[82]ततः प्रायाद्विदुरोऽश्वैरुदारैर्महाजवैर्बलिभिः साधुदान्तैः ।
बलान्नियुक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा मनीषिणां पाण्डवानां सकाशम् ॥
सोऽभिपत्य तदध्वानमासाद्य नृपतेः पुरम् ।
प्रविवेश महाबुद्धिः पूज्यमानो द्विजातिभिः ॥
(महाभारत २.५२.१-२)

[83] आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम् ।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥
(भागवत-पुराण १०.४७.६१)

[84] नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यः पुञ्जिष्ठेभ्यश्च वो नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमः॥
(शुक्ल-यजुर्वेद १६.२७)

“सर्वे चैते शिल्पिनो जातिविशेषाः। देवाधिष्ठानशङ्कया नमस्क्रियन्ते।…सर्वेऽपि चैते विविधाराधनसंप्रणीतपरमेश्वरप्रसादभाजो जातिविशेषा एव नमस्क्रियन्त इति।”
(भट्ट भास्कर टीका)

[85] “न महान्तः शौनकादयो हीनात् परं रहस्यं जगृहुरिति वक्तुं युक्तम्। न हीनतः परमभ्याददीतेत्यत्रैव तन्निषेधात्।” (महाभारत (१.५.२) पर नीलकंठ की टीका); “न महान्तः शौनकादयो हीनात् परं रहस्यं जगृहुरिति वक्तुं शक्यम् ‘न हीनतः परमभ्याददीत’ इति श्रुतेः।” (भागवत-पुराण १.१.५ पर वंशीधर शर्मा की टीका)

[86] महाभारत १.८२.८, २.५९.६, १२.२८८.८, १३.१०७.५६; मत्स्यपुराण ३६.८ पाठभेद – “पापलौल्याम्”

[87] गीताप्रेस का अनुवाद – “क्रोधवश किसी के मर्म-स्थान में चोट न पहुँचाये (ऐसा बर्ताव न करे, जिससे किसी को मार्मिक पीड़ा हो)। किसी के प्रति कठोर बात भी मुँह से नहीं निकाले। अनुचित उपाय से शत्रु को भी वश में न करे। जो जी को जलानेवाली हो, जिससे दूसरे को उद्वेग होता हो, ऐसी बात मुँह से नहीं बोले, क्योंकि पापीलोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं।”

[88] अरुन्तुदं परुषं रूक्षवाचं वाक्कण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् ।
विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां मुखे निबद्धां निरृतिं वहन्तम् ॥
(महाभारत १.८२.९)

वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति यैराहतः शोचति रात्र्यहानि ।
परस्य नामर्मसु ते पतन्ति तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु ॥
(महाभारत १.८२.११ पाठभेद – “परस्य वा मर्मसु”, २.५९.७ पाठभेद – “समुच्चरन्त्यतिवादा हि वक्त्राद्”, १२.२८८.९, १३.१०७.५७; मत्स्यपुराण ३६.११ पाठभेद – “शोचति वा त्र्यहानिः…परस्य नो मर्मसु”)

[89] ^“हीनः दोषः, तेन परं नाभ्याददीत न योजयेत्।” (देवबोध); “न हीनतः परमभ्याददीत इत्यत्र परं पुरुषं प्रति हीनात् दोषात्, नाभ्याददीत न वदेदिति यावत्। तस्मिन् हीनान् दोषानिति वा।” (वादिराज यति); “हीनतः नीचेन कर्मणा द्यूतादिना। परं शत्रुम् अभ्याददीत वशे कुर्वीत।” (नीलकंठ चतुर्धर)

[90] विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम् ।
नीचादप्युत्तमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कलादपि ॥
(चाणक्य-नीति १.१६)

“’नीचादप्युत्तमा विद्या ग्राह्या’ इति त्वापत्परं वृत्त्युपयोगिविद्यापरं वा।”
(भागवत-पुराण १.१.५ पर वंशीधर शर्मा की टीका)

[91] प्राप्य ज्ञानं ब्राह्मणात्क्षत्रियाद्वा वैश्याच्छूद्रादपि नीचादभीक्ष्णम् ।
श्रद्धातव्यं श्रद्दधानेन नित्यं न श्रद्धिनं जन्ममृत्यू विशेताम् ॥
(महाभारत १२.३०६.८५)

श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि ।
अन्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥
(मनुस्मृति २.२३८)

श्रद्दधानः शुभां विद्यां हीनादपि समाचरेत् ।
सुवर्णमपि चामेध्यादाददीतेति धारणा ॥
(महाभारत १२.१५१.२९)

[92] यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किञ्चित् समाचरेत् ।
तत् सर्वमाचरेद् युक्तो यत्र चास्य रमेन्मनः ॥
(मनुस्मृति २.२२३)

यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किञ्चित्समाचरेत् ।
तत् सर्वमाचरेद् युक्तो यत्र वा रमते मनः ॥
(भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व ४.१९२)

[93] https://samalochan.com/sanskrit/

[94] यत्तेषां च प्रियं तत्ते वक्ष्यामि द्विजसत्तम ।
नमस्कृत्वा ब्राह्मणेभ्यो ब्राह्मीं विद्यां निबोध मे ॥
(महाभारत ३.२०१.१४)

[95] म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम् ।
ऋषिवत् तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्दैवविद् द्विजः ॥
(बृहत्संहिता २.१४)

[96] https://samalochan.com/shabari/

[97] यावत् स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावज्जरा दूरतो
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत् क्षयो नायुषः ।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान्
सन्दीप्ते भवने हि कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥
(वैराग्यशतक ७९)

[98] “उग्रश्रवास्तु सौतिरेव न जातिसूतः। तथा त्वेतत्राऽपि सूतशब्दप्रयोगोपपत्तेः सौतिरित्यपत्यार्थस्य तद्धितास्यानर्थक्यं स्यात्।” (महाभारत (१.४.२) पर नीलकंठ की टीका); “हरिवंशस्य (१।४) सौतिशब्दव्याख्यानप्रसङ्गे नीलकण्ठेनोक्तम्। सूत: ‘अग्निकुण्डसमुद्भूत सूत निर्मलमानस।’ इति पौराणिकप्रसिद्धोग्निजो लोमहर्षण: सूत:। तस्य पुत्र: सौति:, उग्रश्रवा:। ननु ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूत इति स्मृत्युक्त: तद्धितानर्थक्यापत्ते:। यथा ब्राह्मणपुत्रो ब्राह्मणो भवति तथा जातिसूतपुत्रः सूत एव भवति इति। सौतिरिति तद्धितप्रयोगो व्यर्थः स्यात्। ‘नाहं वरयामि सूतम्’ (म॰भा॰ १।१८९।२३) इत्यत्र सूतपुत्रत्वेन प्रसिद्धः कर्णः सूत इत्येवोक्तो न सौतिः।” (चातुर्वर्ण्य-संस्कृति-विमर्श, पृ॰ १६८)

[99] महाभारत १.१.१

[100] “लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे ॥” (महाभारत १.४.१)

[101] कूर्मपुराण १.१४.१५-१६

[102] मत्तोऽयमिति मन्वानाः समुत्तस्थुस्त्वरान्विताः ।
पूजयन्तो हलधरमृते तं सूतवंशजम् ॥
(मार्कंडेय-पुराण ६.२८)

[103] न दृष्ट इति वैयासे शब्दे मा संशयं कृथाः ।
अज्ञैरज्ञातमित्येव पदं न हि न विद्यते ॥

यान्युज्जहार माहेन्द्राद् व्यासो व्याकरणार्णवात् ।
शब्दरत्नानि किं तानि सन्ति पाणिनिगोष्पदे ॥

(महाभारत पर देवबोध-प्रणीत ज्ञानदीपिका टीका की भूमिका, ७-८; पाठभेद – “माहेशाद्”)

[104] महाभारत में “नैषादि” शब्द के १४ प्रयोग (१.१२३.११, १.१२३.१७, १.१२३.१८, १.१२३.२९, १.१२३.३८, ६.५०.५, ७.९१.४७, ७.१५६.२, ७.१५६.१७, ७.१५६.१८, ८.४३.७०, १२.१३३.३, १४.८४.१०, १६.७.१०) और “कैराति” का एक प्रयोग (२.४८.१०, “कैरातिका” के रूप में) प्राप्त होता है। किरात जाति की कन्या के लिए “कैरातिका” शब्द अथर्ववेद (१०.४.१४) में भी प्राप्त होता है। एक स्थान पर तो निषादी के पुत्र को भी “नैषादि” कहा गया है-
निषाद्यां क्षत्रियाज्जातः क्षत्रधर्मानुपालकः ।
कापव्यो नाम नैषादिर्दस्युत्वात्सिद्धिमाप्तवान् ॥
(महाभारत १२.१३३.३)

[105] संजय (महाभारत १.१.१०१), बंदी (महाभारत १.४.५), दारुकि (महाभारत ३.१९.५, ६, १२, १६, १९, २३, २९, ३१), कर्ण (५.८.२७; ७.१५४.५५, ७.१५७.२८, ८.४७.१४, ८.५०.६५, ८.६०.६, ८.६५.२३, १४.५९.२१)

[106] पुराण वेदो ह्यखिलो यस्मिन् सम्यक् प्रतिष्ठितः ।
भारती चैव विपुला महाभारतवर्द्धिनी ॥
(वायुपुराण १.१.१५)

[107] अर्थशास्त्र ३.७.२८-२९

[108] आर्य-संस्कृति, पृ॰ १७४

[109] शाम शास्त्री, गणपति शास्त्री, वाचस्पति गैरोला, रघुनाथ सिंह, और आर॰ पी॰ कांगले के संस्करणों में बलदेव उपाध्याय द्वारा उद्धृत पाठ उपलब्ध नहीं है। समीक्षित पाठ में यह विकल्प के रूप में भी नहीं दिया गया है। अत एव, इसे बलदेव उपाध्याय का पाठ ही मान लेना चाहिए।

[110] तं प्रयान्तं महाबाहुं कौरवाणां यशस्करम् ।
अनुजग्मुर्महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥
वेदवेदाङ्गविद्वांसस्तथैवाध्यात्मचिन्तकाः ।
चौक्षाश्च भगवद्भक्ताः सूताः पौराणिकाश्च ये ॥
कथकाश्चापरे राजञ्श्रमणाश्च वनौकसः ।
दिव्याख्यानानि ये चापि पठन्ति मधुरं द्विजाः ॥
एतैश्चान्यैश्च बहुभिः सहायैः पाण्डुनन्दनः ।
वृतः श्लक्ष्णकथैः प्रायान्मरुद्भिरिव वासवः ॥
(महाभारत १.२०६.१-४)

[111] “ब्रह्मक्षत्रेणेति समाहारद्वन्द्वः” (वाल्मीकीय-रामायण (४.१७.३४) पर नागेशभट्ट-टीका)

[112] कौटिलीय अर्थशास्त्र का समीक्षित पाठ (मोतीलाल बनारसीदास), खंड १, पृ॰१०७; यही पाठ १९१९ में शाम शास्त्री द्वारा और १९२४ में गणपति शास्त्री द्वारा प्रकाशित संस्करणों में उपलब्ध है।

[113] अर्थशास्त्र ३.७.२१-३०

[114] अर्थशास्त्र ३.७.२४

[115] “त एते प्रतिलोमाः…

[116] तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम् ।
मन्त्रपूतैः कुशैर्जघ्नुरृषयो ब्रह्मवादिनः ॥
ममन्थुर्दक्षिणं चोरुमृषयस्तस्य मन्त्रतः ।
ततोऽस्य विकृतो जज्ञे ह्रस्वाङ्गः पुरुषो भुवि ॥
दग्धस्थाणुप्रतीकाशो रक्ताक्षः कृष्णमूर्धजः ।
निषीदेत्येवमूचुस्तमृषयो ब्रह्मवादिनः ॥
तस्मान्निषादाः संभूताः क्रूराः शैलवनाश्रयाः ।
ये चान्ये विन्ध्यनिलया म्लेच्छाः शतसहस्रशः ॥
(महाभारत १२.४९.१००-१०३)

[117] ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठो नाम जायते ।
निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते ॥

(मनुस्मृति १०.८)

[118] भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व २.२४.१-३

[119] श्रीसनातनधर्मालोक (३-२) (द्वितीय संस्करण १९७३), पृष्ठ ३७२

[120] सर्वत्र कुशलं ब्रह्मन्सुदर्शन महामते ।
मम वेदाटवीनाथकृपया नाशुभं क्वचित् ॥
तवापि कुशलं ब्रह्मन् किं सुखागमनं तथा ।
किंवाऽगमनकार्यं ते सुदर्शन ममाश्रमे ॥
स्वनयस्य पुरोधास्त्वं खलु वेदविदांवरः ।
तं विहाय महाराज मधुरापुरवासिनम् ॥
महत्या सेनया सार्धं किमर्थं त्वमिहागतः ।
(स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, सेतुखंड १६.७९-८२)

[121] “स यो ह वै तत्‌ परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति” (मुण्डकोपनिषद् ३.२.९)

[122] उत्तरां दिशमाश्रित्य य एधन्ते निबोध तान् ।
अत्रिर्वसिष्ठः शक्तिश्च पाराशर्यश्च वीर्यवान् ॥
विश्वामित्रो भरद्वाजो जमदग्निस्तथैव च ।
ऋचीकपौत्रो रामश्च ऋषिरौद्दालकिस्तथा ॥
श्वेतकेतुः कोहलश्च विपुलो देवलस्तथा ।
देवशर्मा च धौम्यश्च हस्तिकाश्यप एव च ॥

लोमशो नाचिकेतश्च लोमहर्षण एव च ।
ऋषिरुग्रश्रवाश्चैव भार्गवश्च्यवनस्तथा ॥
एष वै समवायस्ते ऋषिदेवसमन्वितः ।

आद्यः प्रकीर्तितो राजन्सर्वपापप्रमोचनः ॥
(महाभारत १३.१५१.३६-४०)

[123] गत्यर्थादृषतेर्द्धातोर्नामनिर्वृत्तिरादितः ।
यस्मादेष स्वयम्भूतस्तस्माच्चात्मर्षिता स्मृता ।
(वायुपुराण १.५९.८१)

गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नामनिष्पत्तिरुच्यते ।
यस्मादृषतिसत्त्वेन महत्तस्मान्महर्षयः ॥
(ब्रह्मांडपुराण, पूर्वभाग, अनुषंगपाद १.७१)

गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नामनिर्वृत्तिकारणम् ।
यस्मादेष स्वयम्भूतस्तस्माच्च ऋषिता मता ॥
(मत्स्यपुराण १४५.८३)

[124] ऋषति प्राप्नोति मन्त्रं ज्ञानं संसारपारं वा

[125] ऋषीत्येष गतौ धातुः श्रुतौ सत्ये तपस्यथ ।
एतत्सन्नियते तस्मिन् ब्रह्मणा स ऋषिः स्मृतः ॥
(वायुपुराण १.५९.७९)

[126] “ऋषिर्दर्शनात्” (निरुक्त ३.११); “साक्षात्कृतधर्माणः ऋषयो बभूवुः”(निरुक्त १.२०)

[127] “ऋषयः सत्यवचसः” (अमरकोश २.७.४७); “ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति”(उत्तररामचरित १.१०)

[128] सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षयः ।
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावराः ॥
(रत्नकोश ५५३)

[129] अयं दैवतवंशो वै ऋषिवंशसमन्वितः ।
द्विसंध्यं पठितः पुत्र कल्मषापहरः परः ॥
(महाभारत १३.१५१.२)

[130] महाभारत १३.१५१.३०

[131] लोमशो नाचिकेतश्च लोमहर्षण एव च ।
ऋषिरुग्रश्रवाश्चैव भार्गवश्च्यवनस्तथा ॥
(महाभारत १३.१५१.३९)

[132] श्रीसनातनधर्मालोक (३-२) (द्वितीय संस्करण १९७३), पृष्ठ ३७२

[133] ऋग्वेद १.१६४.४६

[134] “इममेवाग्निं महान्तं आत्मानं बहुधा मेधाविनो वदन्ति।” (निरुक्त ७.१८)

[135] “नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम्” (ऋग्वेद १०.११२.९) पर “विप्रतमम् अतिशयेन मेधाविनम्” (सायण-भाष्य); “विप्रस्य वा यजमानस्य वा गृहम्” (ऋग्वेद १०.४०.१४) पर “विप्रस्य मेधाविनः स्तोतुर्वा” (सायण-भाष्य)

[136] शतपथ-ब्राह्मण ५.१.१.११

[137] अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिन्द्रं गीर्भिर्मदता वस्वो अर्णवम् ।
यस्य द्यावो न विचरन्ति मानुषा भुजे मंहिष्ठमभि विप्रमर्चत ॥
(ऋग्वेद १.५१.१)

[138] अनेन विधिना विप्र तपस्व त्वं महामुने ।
तदा प्रभविता सर्वं गताहङ्कारभावतः ॥

…

सर्वेभ्यो नमनं विप्र हृदि भावसमन्वितम् ।
कर्तव्यं च त्वया नित्यं राजर्षिवन्महामते ॥
(मुद्गलपुराण १.५२.२७, ३५)

[139] “रिपुं रिपुञ्जयं विप्रं वृकलं वृषतेजसम्” (विष्णुपुराण १.१३.२, कूर्मपुराण १.१४.२, शिवपुराण, उमा-संहिता ३०.१२)

[140] यवक्रीतोऽथ रैभ्यश्च कक्षीवानौशिजस्तथा ।
भृग्वङ्गिरास्तथा कण्वो मेधातिथिरथ प्रभुः ।
बर्ही च गुणसंपन्नः प्राचीं दिशमुपाश्रिताः ॥
(महाभारत १३.१५१.३१)

[141] “उशिक्संज्ञायामङ्गराजस्य महिष्या दास्यां दीर्घतमसोत्पादितः कक्षीवान् अस्य सूक्तस्य ऋषिः” (ऋग्वेद (१.११६) पर सायण-भाष्य)

[142] राजन्नैतद्भवेद्ग्राह्यमपकृष्टेन जन्मना ।
महात्मनां समुत्पत्तिस्तपसा भावितात्मनाम् ॥
उत्पाद्य पुत्रान्मुनयो नृपते यत्र तत्र ह ।
स्वेनैव तपसा तेषामृषित्वं विदधुः पुनः ॥
(महाभारत १३.२८५.१२-१३)

[143] “अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवाँ ऋषिरस्मि विप्रः” (ऋग्वेद ४.२३)

[144] भागवत-पुराण १०.७८.२४-२७

[145] मध्ये मुनीनां सूतोऽयं कस्मान्निन्द्योऽनुलोमजः ।
उच्चासने समध्यास्ते न युक्तमिदमञ्जसा ॥
अवमत्य भृशं चास्मान्धर्मसंरक्षकानयम् ।
आस्तेऽनुत्थाय निर्भीतिर्न च प्रणमते तथा ॥
पठित्वायं पुराणानि द्वैपायनसकाशतः ।
सेतिहासानि सर्वाणि धर्मशास्त्राण्यनेकशः ॥
न मां दृष्ट्वा प्रणमते नैव त्यजति चासनम् ।
द्वैपायनस्य महतः शिष्याः पैलादयो द्विजाः ॥
एवंविधमधर्मं ते नैव कुर्युर्यथा त्वयम् ।
तस्मादेनं वधिष्यामि दुरात्मानमचेतनम् ॥
दुष्टानां निग्रहार्थं हि भूर्लोकमहमागमम् ।
मया हतो हि दुष्टात्मा शुद्धिमेष्यत्यसंशयम् ॥
(स्कंदपुराण, ब्रह्मखंड, सेतुखंड १९.२१-२६)

[146] “वस्तुतो ब्राह्मणातिक्रम एव तस्य दण्डे हेतुः। तथापि ब्राह्मणैः केनचित् प्रकारेण तस्य दोषोऽङ्गीकृतः तस्य मात्सर्यजनकत्वाद् अप्रत्युत्थानमेव हेतुं मन्यते।…आधिक्येनोच्चासनेन ब्राह्मणान् हीनान् कृत्वा आसीनः। ते च विप्रा विशेषेण पूरकाः सर्वसुहृदः अतस्तेषां तूष्णींभावो न दोषायेति। स्वयं दण्डाधिकृत इति क्रोधोपपत्तिरुक्ता।” (भागवत-पुराण (१०.७८.२३) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका)

[147] अविनीतस्य विद्या निर्वीर्येति न गुणजननसामर्थ्यम्। किञ्च वृथापण्डितमानिन इति। विद्या बुद्ध्या गृहीता सती स्वकार्यं करोति तदभिमानात् तस्या अग्रहणमेव यस्तु पाठव्यतिरेकेणापि मन्यते पण्डितोऽहमिति स प्रयोजनाभावात् स्वार्थं विद्यां न ग्रहीष्यत्येव कथं विद्याफलं जनयेत्। अतो न गुणाय भवन्ति पुराणादीनि। किञ्च नटस्येवेति परप्रदर्शनार्थमेव यो विद्यां गृह्णाति तस्य न विद्यातः फलं यथा नटस्य।” (भागवत-पुराण (१०.७८.२६) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका)

[148] “इदं नाधिकारिभिः कर्तुं शक्यमन्यथाधिकारस्वीकारो व्यर्थः स्यात्, यथा परमहंसानां सर्वातिक्रमसहनं युक्तम्, एवं राज्ञोऽपि चेत् तदा सर्वनाशः स्यात्। एतदर्थमेव मम अवतारः येन धर्मो रक्षितो भवति। अतस्तदेव मम कर्तव्यम्।” (भागवत-पुराण (१०.७८. २७) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका)

[149] “ऋषिर्मन्त्रद्रष्टा तस्य शिष्योऽप्यलौकिकार्थज्ञो भवितुमर्हति तत्रापि भगवतः सानुभावस्य। न केवलं शिष्यत्वमात्रं किन्तु बहून्यधीत्येति। चकारादध्यापनाभ्यासौ।…इतिहासश्रवणेन नीतिज्ञानं भवति, तदभावे केवलधर्मेऽप्यनर्थः स्याद् गजेन्द्रवत्। पुराणाध्ययनात् साभिप्रायधर्मज्ञानम्। धर्मशास्त्रैः देशकालकुलधर्मा आधुनिका अपि सर्व एव ज्ञाता भवन्ति।” (भागवत-पुराण (१०.७८.२५) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका)

[150] “सूतं प्रतिलोमजं न कृतं प्रह्वणमञ्जलिश्च येन तमध्यासीनं तान् तेभ्योऽप्युच्चैरासीनमित्यर्थः” (श्रीधरस्वामी); “ततः सूतं लिङ्गविशेषेण तज्जातिमुदीक्ष्येत्युत्तरोत्तरविस्मयबुद्धिः…” (जीव गोस्वामी); “अप्रत्युत्थायिनं प्रत्युत्थानमकृतवन्तं तं सूतं प्रतिलोमजं न कृतं प्रह्वणं प्रणामोऽञ्जलिश्च येन यान् विप्रानध्यासीनं विप्रेभ्योऽप्युच्चासनासीनमित्यर्थः…प्रतिलोमज इत्यनेन तदनर्हत्वाविष्कारः” (वीरराघवाचार्य); “प्रतिलोमजः विपरीतजन्मा” (विजयध्वजतीर्थ); “अप्रत्युत्थायिनमकृतप्रत्युत्थापनं सूतं ‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जातः स वै सूत उदाहृतः’ इति स्मृतिप्रोक्तलक्षणं प्रतिलोमजं न कृतं प्रह्वणं प्रणामोऽञ्जलिश्च येन तं तान् विप्रान् अप्यध्यासीनं विप्रेभ्योऽपि उच्चे आसने उपविष्टम्” (शुकदेव); “कस्मादसौ सूतः विप्रान् अस्मांश्चाध्यास्ते विप्रादिभ्यः उच्चैरासनमधितिष्ठतीत्यर्थः…तस्य तदनर्हत्वमाह प्रतिलोमज इति…भगवतो वेदव्यासस्य शिष्यो भूत्वा वेदेऽधिकाराभावाद् इतिहाससहितानि पुराणानि बहून्यधीत्य तथा सर्वशः कार्त्स्न्येन धर्मशास्त्राणि चाधीत्याप्येवमध्यास्ते” (गिरिधरलाल, तद्वद् गंगासहाय)

[151] “सूत इति जात्या हीनः।” (भागवत-पुराण (१०.७८. २३) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका); “वेदाध्ययनं शङ्कितं भविष्यतीति तन्निराकरणार्थमितिहासपुराणानीत्याह” (भागवत-पुराण (१०.७८.२५) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका)

[152] “अत एव तद्वधाद् बलरामेण ब्रह्महत्याव्रतं चीर्णमिति स्मर्यते।” (महाभारत (१.४.२) पर नीलकंठ-टीका)

[153] ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ।
महान्ति पातकान्याहुः संसर्गश्चापि तैः सह ॥
(मनुस्मृति ११.५४)
ब्रह्महा मद्यपः स्तेनस्तथैव गुरुतल्पगः ।
एते महापातकिनो यश्च तैः सह संवसेत् ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति ३.२२७)

[154] अनृतं च समुत्कर्षे राजगामि च पैशुनम् ।
गुरोश्चालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया ॥
(मनुस्मृति ११.५५)

गुरूणामध्यधिक्षेपो वेदनिन्दा सुहृद्वधः ।
ब्रह्महत्यासमं ज्ञेयमधीतस्य च नाशनम् ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति ३.२२८)

आश्रमे वाऽऽलये वापि ग्रामे वा नगरेऽपि वा ।
अग्निं यः प्रक्षिपेत् क्रुद्धस्तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
गोकुलस्य तृषार्तस्य जलान्ते वसुधाधिप ।
उत्पादयति यो विघ्नं तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
यः प्रवृत्तां श्रुतिं सम्यक् शास्त्रं वा मुनिभिः कृतम् ।
दूषयत्यनभिज्ञाय तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
चक्षुषा वापि हीनस्य पङ्गोर्वापि जडस्य वा ।
हरेद् वै यस्तु सर्वस्वं तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
गुरुं त्वङ्कृत्य हुङ्कृत्य अतिक्रम्य च शासनम् ।

वर्तते यस्तु मूढात्मा तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
यावत्सारो भवेद् दीनस्तन्नाशे यस्य दुःस्थितिः ।
तत् सर्वस्वं हरेद् यो वै तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
(महाभारत दाक्षिणात्य-पाठ १४.१०४.४-९)

अन्यच्च शृणु भूपाल वाक्यं धर्मार्थसंहितम् ।
ब्रह्महत्यासमं पापं तद्विना तदवाप्यते ॥
क्षत्रियः संगरं गत्वा अथवाऽन्यत्र संगरात् ।
पलायन्तं न्यस्तशस्त्रं विश्वस्तं च पराङ्मुखम् ॥

अविज्ञानं चोपविष्टं बिभेमति च वादिनम् ।
तं यदि क्षत्रियो हन्यात्स तु स्याद्ब्रह्मघातकः ॥
(ब्रह्मपुराण १६४.२९-३१)

देवद्विजगवां भूमिं पूर्वदत्तां हरेत्तु यः ।
प्रनष्टामपि कालेन तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥
(पद्मपुराण, भूमिखंड ६७.५७)

सवनगतौ हि क्षत्रियवैश्यौ निघ्नन्ब्रह्महा भवति…।
(विष्णुपुराण ४.१३.१०९)

यागस्थक्षत्रविड्घाती चरेद्ब्रह्महणि व्रतम् ।
गर्भहा च यथावर्णं तथात्रेयीनिषूदकः ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति ३.२५१)

[155] अध्यापकं कुले जातं यो हन्यादाततायिनम् ।
न तेन भ्रूणहा भवति मन्युस्तन्मन्युमृच्छति ॥
पाठभेद – ब्रह्महा
(बौधायन-धर्मसूत्र १.१०.१८.१३)

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ॥
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ।
प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति ॥
(मनुस्मृति ८.३५०-३५१, विष्णु-स्मृति ५.१९०-१९१)

आततायिनं हत्वा नात्र प्राणच्छेत्तुः किञ्चित्किल्विषमाहुः अथाप्युदाहरन्ति…
आततायिनमायन्तमपि वेदान्तपारगम् ।
जिघांसन्तं जिघांसीयान् न तेन ब्रह्महा भवेत् ॥
स्वाध्यायिनं कुले जातं यो हन्यादाततायिनम् ।
न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तन्मन्युमृच्छतीति ॥
(वसिष्ठ-धर्मशास्त्र ३.१५-१८)

अपेतं ब्राह्मणं वृत्ताद्यो हन्यादाततायिनम् ।
न तेन ब्रह्महा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमृच्छति ॥~
(महाभारत १२.३५.१९)

प्रगृह्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे ।
जिघांसन्तं निहत्याजौ न तेन ब्रह्महा भवेत् ॥
(महाभारत १२.३५.१७)

तात्कालिकवधं हत्वा हन्तारमाततायिनम्।
न च हन्ता च तत्पापैर्लिप्यते द्विजसत्तम ॥
आततायिनमायान्तमपि वेदान्तगं रणे ।
जिघांसंतं जिघांसेच्च न तेन ब्रह्महा भवेत् ॥
(पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड ४८.५६-५७, तथैव शिवपुराण, उमासंहिता २१.३५)

आत्मानं हन्तुमायान्तमपि वेदाङ्गपारगम् ।
न दोषो हनने तस्य न तेन ब्रह्महाऽभवम् ॥
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, गणपति-खण्ड ३५.८१)

[156] अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः ।
क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते आततायिनः ॥
(वसिष्ठ-धर्मशास्त्र ३.१६)

उद्यतासिविषाग्निं च शापोद्यतकरं तथा ।
आथर्वणेन हन्तारं पिशुनं चैव राजसु ॥
भार्यातिक्रमिणं चैव विद्यात्सप्ताततायिनः ।
यशोवित्तहरानन्यानाहुर्धर्मार्थहारकान् ॥
(विष्णु-स्मृति ५.१९२-१९३)

[157] उद्यतेषुमथो दृष्ट्वा ब्राह्मणं क्षत्रबन्धुवत् ।
यो हन्यात्समरे क्रुद्धो युध्यन्तमपलायिनम् ।
ब्रह्महत्या न तस्य स्यादिति धर्मेषु निश्चयः ॥
क्षत्रियाणां स्थितो धर्मे क्षत्रियोऽस्मि तपोधन ।
यो यथा वर्तते यस्मिंस्तथा तस्मिन्प्रवर्तयन् ।
नाधर्मं समवाप्नोति नरः श्रेयश्च विन्दति ॥
(महाभारत ५.१७८.२७-२८)

[158] ऋषभैकसहस्रा गा दद्यात्क्षत्रवधे पुमान् ।
ब्रह्महत्याव्रतं वापि वत्सरत्रितयं चरेत् ॥
वैश्यहाब्दं चरेदेतद्दद्यादेकशतं गवाम् ।
षण्मासाच्छूद्रहाप्येतद्धेनूर्दद्याद्दशाथ वा ॥
(याज्ञवल्क्य-स्मृति ३.२६६-२६७)

[159] यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्।

यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥
(७.११.३५)

[160] भागवत-पुराण १०.७८.३०-३२

[161] “अधार्मिकप्रतिलोमजवधः कोऽयमधर्म इति चेत् तत्राहुः – अस्येति। पुराणप्रवचनायाऽऽत्मनः शरीरस्य नास्ति क्लमो यस्मिन् तदायुश्च दत्तम्”(श्रीधरस्वामी); “…अजानतैव विचाररहितेनैव आचरितः (इव) ब्रह्मवधः इवेति योज्यम् एवं ब्रह्मवधसदृश एवायं न तु ब्रह्मवधः…”(जीव गोस्वामी); “ब्रह्मवधो यथेति ब्रह्मवधसदृशोऽस्य वधः…” (सनातन गोस्वामी); “अधार्मिकप्रतिलोमजवधः कोऽयमधर्म इत्यत आहुः – अस्येति सार्धेन…पुराणवक्त्रे ब्राह्मणाय देयं यस्मान्न प्रत्युत्थीयते तद् ब्रह्मासनमित्यर्थः। अजानतेति। अतस्त्वयाऽजानतैव आचरितं कृतं यथा ब्रह्मवधः ब्रह्महत्या तद्वत्। ब्रह्महत्यासदृशं पापं कृतमित्यर्थः।”(वीरराघवाचार्य); “ब्रह्मासनं ब्राह्मणमध्ये ब्राह्मणयोग्यासनम्। अस्य निधनं त्वया अजानतैव यद्वाऽजानता वा ब्राह्मणवधसमानदोषोऽयमित्यशयेनाह – ब्रह्मेति।” (विजयध्वजतीर्थ); “यथा ब्रह्मवधः तथास्य वध इति महापातकसमत्वम्।” (स्वामी वल्लभाचार्य); “अजानतैवेति ‘आचार्यशास्ता या जातिः सा नित्या साऽजराऽमरा’इति महर्षिणोत्कृष्टायां सर्वाभिमाननिरासपूर्वकपरब्रह्मात्मकत्वलक्षणायां निवेशितस्यात एवास्माभिः ब्रह्मासने स्थापितस्य सर्वज्ञेनापि त्वया भावित्वादजानतेव यथा यथावदेव ब्रह्मवधः कृत इत्यर्थः।”(शुकदेव); “ननु अधार्मिकप्रतिलोमवधः कोऽयमधर्म इत्याशङ्क्याह – अस्येति। यावत्काले नैतत् सत्रं यागः समाप्यते तावत्कालमस्माभिरस्य रोमहर्षणस्य ब्रह्मासनं दत्तम्, अतोऽस्याप्रत्युत्थानं युक्तमेवेति सूचितम्…अत एतत् सर्वमजानतेव त्वया यथाऽब्रह्मवधः क्रियेत तथाऽस्य वध आचरितः कृतः”(गिरिधरलाल); “हे यदुनन्दन! यावता कालेन एतत् सत्रं समाप्यते तावत्कालमस्माभिरस्य रोमहर्षणस्य ब्रह्मासनं दत्तम्। अतोऽस्याप्रत्युत्थानं युक्तमेवेति सूचितम्…अत एतत् सर्वमजानतेव त्वया यथा ब्राह्मणवध क्रियेत तथाऽस्य वध आचरितः कृतः।” (अन्वितार्थप्रकाशिका)

[162] “यावदयमासने उपविश्य तिष्ठति तावद् ब्राह्मण एवेति अतः एनीमेशन नोत्थितम्। (भागवत-पुराण (१०.७८.३०) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका)

[163] “अज्ञानात्कृतमिति प्रायश्चित्तार्हत्ता, कामतो ब्राह्मणवधे निष्कृतिर्न विवक्षितेति।” (भागवत-पुराण (१०.७८.३१) पर स्वामी वल्लभाचार्य की टीका);

इयं विशुद्धिरुदिता प्रमाप्याकामतो द्विजम् ।
कामतो ब्राह्मणवधे निष्कृतिर्न विधीयते ॥
(मनुस्मृति ११.८९)

[164] महाभारत १३.१०८.१८, ५.४४.५ पाठभेद – “कुरुतः”, १२.१०९.१७ पाठभेद – “आचार्यशिष्टा”

[165] चरिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया ।

नियम: प्रथमे कल्पे यावान् स तु विधीयताम् ॥
(भागवत-पुराण १०.७८.३३)

[166] “लोकस्य उन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणम्” (शंकराचार्य); “लोकस्य सङ्ग्रहः स्वधर्मे प्रवर्तनम्” (श्रीधरस्वामी)

[167] कर्मशीलगुणाः पूज्यास्तथा जातिकुले न हि।

न जात्या न कुलेनैव श्रेष्ठत्वं प्रतिपद्यते॥
(शुक्रनीतिसार २.३१)

गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः
(उत्तररामचरितम् ४.११)

[168] “मर्त्यावतारस्त्विह मर्त्यशिक्षणम्” (भागवत-पुराण ५.१९.५)

[169] स्वजातिजानन्तरजाः षट् सुता द्विजधर्मिणः ।

शूद्राणां तु सधर्माणः सर्वेऽपध्वंसजाः स्मृताः ॥
(मनुस्मृति १०.४१)

[170] “नमः सूतायाहन्त्याय” (तैत्तिरीय-संहिता ४.५.२); “नमः सूतायाहन्त्वाय” (काठक-संहिता १७.१२, मैत्रायणी-संहिता २.९.३); “नमः सूतायाहन्त्यै” (शुक्ल-यजुर्वेद १६.१८)

[171] “शङ्खोप्याह – ‘न पानीयं पिबन्तं न भुञ्जानं नोपानहौ मुञ्चन्तं नावर्माणं सवर्मा न स्त्रियं न करेणुं न वाजिनं न सारथिनं न सूतं न दूतं न ब्राह्मणं न राजानमराजा हन्यात्’ इति” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.३२६) की मिताक्षरा टीका में उद्धृत)

[172] न सूतेषु न धुर्येषु न च शस्त्रोपनायिषु ।
न भेरीशङ्खवादेषु प्रहर्तव्यं कथंचन ॥
(महाभारत ६.१.३२)

[173] महाभारत ७.६७.४४-५६

[174] असंशयं शत्रुरयं प्रवृद्धः कृतं ह्यनेनाप्रियमप्रमेयम् ।
न दूतवध्यां प्रवदन्ति सन्तो दूतस्य दृष्टा बहवो हि दण्डाः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.५०.६)

वैरूप्यमङ्गेषु कशाभिघातो मौण्ड्यं तथा लक्ष्मणसन्निपातः ।
एतान्हि दूते प्रवदन्ति दण्डान्वधस्तु दूतस्य न नः श्रुतोऽपि ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.५०.७)

साधुर्वा यदि वाऽसाधुर्परैरेष समर्पितः ।
ब्रुवन्परार्थं परवान्न दूतो वधमर्हति ॥ ११ ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.५०.११)

दूतवध्या न दृष्टा हि राजशास्त्रेषु राक्षस ।
दूतेन वेदितव्यं च यथार्थं हितवादिना ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.५६.१२६)

सुमहत्यपराधेऽपि दूतस्यातुलविक्रमः ।
विरूपकरणं दृष्टं न वधोऽस्तीह शास्त्रतः ॥
(वाल्मीकीय-रामायण ५.५६.१२७)

“अन्यत्र व्यश्वसारथ्यायुधकृताञ्जलिप्रकीर्णकेशपराङ्मुखोपविष्टस्थलवृक्षाधिरूढदूतगोब्राह्मणवादिभ्यः” (गौतमधर्मसूत्र २.१.१८)

[175] अष्टाभिश्च गुणैर्युक्तं सूतं पौराणिकं चरेत् ।
पञ्चाशद्वर्षवयसं प्रगल्भमनसूयकम् ॥
मतिस्मृतिसमायुक्तं विनीतं समदर्शनम् ।
कार्ये विवदमानानां शक्तमर्थेष्वलोलुपम् ॥
विवर्जितानां व्यसनैः सुघोरैः सप्तभिर्भृशम् ।
अष्टानां मन्त्रिणां मध्ये मन्त्रं राजोपधारयेत् ॥
(महाभारत १२.८६.८-१०)

[176] महाभारत १.१.१

[177] “लोमहर्षण पुत्र इति…सौतिः सूतजातेरुत्पत्तिरुक्ता वायुपुराणे।…वर्णवैकृतमिति ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूत इति याज्ञवल्क्यस्योक्तं विलोमजत्वम्। तस्य सूतस्यापत्यं सौतिः पौराणिकः पुराणे कृतश्रमः।” (महाभारत (१.१.१) पर नीलकंठ-टीका)

[178] लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे ॥
(महाभारत १.४.१)

[179] “अत्र ‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूतः’ इति स्मृत्युक्तो विलोमजो जातिसूतः सञ्जयाधिरथादिरन्यः। यस्य जीविका सारथ्यं वा पुराणराज्ञां शौर्योदार्यादिवर्णनेन स्वामिप्रोत्साहनं च। अत एवाऽस्य पौराणिक इति संज्ञा। उग्रश्रवास्तु सौतिरेव न जातिसूतः। तथा त्वेतत्राऽपि सौतिरित्यपत्यार्थस्य तद्धितास्यानर्थक्यं स्यात्। किं तर्हि? ‘अग्निकुण्डसमुद्भूतः सूतो निर्मलमानसः’ इति रोमहर्षणं प्रति शौनकवचनस्य पुराणान्तरे दर्शनादग्निजो रोमहर्षणः सूतस्तस्य च ब्राह्मणसङ्कल्पाद् ब्रह्मासनार्हत्वम्। धृष्टद्युम्नस्य क्षत्रियवत्। ब्रह्मासनं च वैशम्पायनशान्तव्रतमार्कण्डेयादितुल्यस्तत्सजातीय एवार्हति न हीनः। न हि महान्तः शौनकादयो हीनात् परं रहस्यं जगृहुरिति वक्तुं युक्तम्। न हीनतः परमभ्याददीतेत्यत्रैव तन्निषेधात्। नीचादप्युत्तमा विद्या ग्राह्येति त्वापद्विषयमेतत्। अत एव तद्वधाद् बलरामेण ब्रह्महत्याव्रतं चीर्णमिति स्मर्यते। तत्र सूतशब्दस्तु कथाप्रवक्तृत्वसामान्यात्। तस्माद् ब्राह्मण एव पुराणप्रवक्तृत्वेन वरणीयः श्रोतुकामैर्न हीनः, पौराणिकपदं न जातिसूतपरमपितु पुराणाध्येतृब्राह्मणपरमिति॥” (महाभारत (१.४.२) पर नीलकंठ की टीका)

[180] भागवत-पुराण १.४.१३

[181] “छान्दसादन्यत्र वैदिकव्यतिरेकेण अत्रैवर्णिकत्वात्” (श्रीधरस्वामी)

[182] “अत्रैवर्णिकत्वाद् वेदे परं न परिचयः”(स्वामी वल्लभाचार्य); “वेदवाक्यव्यतिरिक्तेतिहासपुराणादिश्रवणे त्वामेवाधिकारिणं व्यासानुग्रहाद् रोमहर्षणसुतं मन्य इत्यर्थः”(वीरराघव); “न चैवं सूताधिकारात् पुराणादीनां न्यूनत्वमाशङ्क्यम्” (जीव गोस्वामी); “न चैवं सूताधिकाराद् वेदेभ्योऽस्य शास्त्रस्य न्यूनत्वमाशङ्क्यम्”(विश्वनाथ चक्रवर्ती); “छान्दसादन्यत्र अत्रैवर्णिकत्वेन वेदेऽधिकाराभावात्”(गिरिधरलाल)

[183] ^^^“इदं तु ब्राह्मणक्षत्रिययोर्बृहस्पतीन्द्रयोराहुतिदानसमये चरुवैपरीत्येन उपचारत उक्तम्। वस्तुतस्तु छन्दोभिर्वेदैः स्तुत इति छान्दसोऽग्निस्तम् अतति सातत्येन गच्छति प्राप्नोतीति हे छान्दसात् सूत। अनि अत्रेति पदच्छेदः। तथा चात्र वाचां विषये त्वां स्नातं मन्ये। कथम्भूतम् अनि। अ आदौ नि इत्यक्षरं यस्य तत् निष्णातमित्यर्थः। ‘अ आदावधिक्षेपवर्जनामन्त्रणेषु च’। ‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जातः सूत इत्यभिधीयते’ इत्युक्तलक्षणो नायं सूतः किन्तु अग्निकुण्डसमुद्भूत इति।”(वंशीधर शर्मा)

[184] वाक्यं भिन्द्यात् पदं छिन्द्यात् कुर्यादात्मप्रवञ्चनम् ।
येन केनाप्युपायेन सूतो वै ब्राह्मणो भवेत् ॥

[185] “अयं वंशीधरः किं रामानुजानुयायी चैतन्यमतानुयायी शाङ्करमतानुयायी वेति भ्रमामः।…कदाचिच्छङ्कराचार्यं निन्दति क्वचिद् भाष्यकारा इति संबोधनेन तस्मिन्नादरं च दर्शयति। अतोऽस्य चेष्टयोन्मत्त इति विज्ञायते। संस्कृतभाषाऽभिज्ञोऽप्ययं सिद्धान्ते संशयवानेव।” (षोडशयष्टी, उच्छिष्टपुष्टिलेशः, पृ॰ ८४)

[186] https://samalochan.com/sanskrit/

[187] “लोमहर्षणोऽपि प्रतिलोमज एव हि।…वर्णवैकृतं ‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियात् सूत’ इति मूलकृदाद्युक्तं विलोमजत्वम्। अयं रोमहर्षण एव।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९४) पर बालंभट्टी)

[188] “रोमहर्षणं प्रति शौनकवाक्यस्य पुराणान्तरे दर्शनात्। अस्य च तपोबलाद् व्याससङ्कल्पात् पुराणाध्ययनेऽधिकारस्तत एव शौनकसङ्कल्पाद् ब्रह्मासनार्हत्वम्। ‘अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन’ इति बलभद्रं प्रति शौनकोक्तेः। रोमहर्षणमासीनमित्युपक्रम्य।…तत्रैव बलभद्रोक्तेरयं न ब्राह्मणः। अत एव तद्वधस्याजानतेवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथेत्यनेन ब्रह्मवधसादृश्यमुक्त्वा।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९४) पर बालंभट्टी)

[189] “सूतानां मन्त्रित्वाश्वसारथ्यादाविव पुराणाध्ययनतच्छ्रावणयोरप्यधिकारः। परं त्वन्त्ययोर्ब्राह्मणसङ्कल्पादेव। यथा व्याससङ्कल्पादध्यसनं शौनकसङ्कल्पाच्छ्रावणं तदीयातितपोवशाच्च तयोस्तथासङ्कल्पः तेन न हीनतः परमभ्याददीतेति निषेधस्य नात्रावकाशः तेन सूतमात्रस्य नात्राधिकारः मन्त्रित्वादि तु सञ्जयाधिरथादेः प्रसिद्धमेव। ब्रह्मासनं दत्तमिति ऋष्युक्त्या च ब्राह्मणानामेव श्रावणेऽधिकारो नान्येषामिति सिद्धम्।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९४) पर बालंभट्टी)

[190] विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।

दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽतिनिःस्पृहः ॥
(पद्मपुराणोक्त भागवत-माहात्म्य ६.२०; पद्मपुराणोक्त हरिवंश-माहात्म्य २.१४, पाठभेद – “वक्ता कार्यो दयान्वितः”)

[191] मदन्वये तु ये सूताः सम्भूता वेदवर्जिताः ।

तेषां पुराणवक्तृत्वं वृत्तिरासीदजाज्ञया ॥
(कूर्मपुराण १.१४.१५-१६)

[192] स्वजातिजानन्तरजाः षट् सुता द्विजधर्मिणः ।

शूद्राणां तु सधर्माणः सर्वेऽपध्वंसजाः स्मृताः ॥
(मनुस्मृति १०.४१)

“शूद्र-सधर्माणो वा। अन्यत्र चण्डालेभ्यः॥”
(अर्थशास्त्र ०३.७.३७)

[193] छन्नोत्पन्नाश्च ये केचित् प्रातिलोम्यगुणाश्रिताः ।
गुणाचारपरिभ्रंशात् कर्मभिस्तान्विजानीयुः ॥
(वसिष्ठ-धर्मशास्त्र १८.७)

“असत्सन्तस्तु विज्ञेयाः प्रतिलोमानुलोमजाः” (याज्ञवल्क्य-स्मृति १.९५); “अत एतावदत्र विवक्षितमसन्तः प्रतिलोमजाः सन्तश्चानुलोमजा ज्ञातव्या इति” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९५) पर मिताक्षरा टीका); “तत्र प्रतिलोमजा असन्तः असाधवः वर्णबाह्या इत्यर्थः” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.९६) पर बालंभट्टी)

[194] “सूतस्य श्रवणं तु न शूद्राधिकारप्रतिपादकं सूतस्य सङ्करजातत्वेनाशूद्रत्वात्। ‘ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूत’ इति प्रागुक्तेरन्यदप्यत्र विषये प्रागुक्तम्।” (याज्ञवल्क्य-स्मृति (१.१२१) पर बालंभट्टी)

[195] यानि वेदविदां श्रेष्ठो भगवान् बादरायण: ।
अन्ये च मुनय: सूत परावरविदो विदु: ॥
वेत्थ त्वं सौम्य तत्सर्वं तत्त्वतस्तदनुग्रहात् ।
ब्रूयु: स्‍निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुह्यमप्युत ॥
(भागवत-पुराण १.१.७-८)

[196] “नन्वपशूद्राधिकरणन्यायेन अनधिकृतशारीरकोऽहम् इतिहासपुराणाध्ययनजापातप्रतीतिमान् कथं भवत्प्रश्नस्योत्तरं वक्तुं प्रभुरितीमां शङ्कां वारयन्त आहुः – वेत्थेति। हे सौम्य! सदनुग्रहात्सतो व्यासस्यानुग्रहात् हेतोः तत्सर्वम् इतिहासपुराणादिप्रधानप्रतिपाद्यं वस्तु, तत्त्वतस्त्वं वेत्थ जानसि। अनधिकृतशारीरकोऽपि त्वं सदनुग्रहादितिहासपुराणाद्यर्थरूपं वस्तु यथावद् वेत्सि नत्वापातत इति भावः। सदनुग्रहादपि कथं शारीरकाध्ययनं निर्णेतव्यं वस्तुतत्त्वमहं विद्यामित्यत आहुः, ब्रूयुरिति। स्निग्धानुरक्तस्य त्वादृशस्य शिष्यस्य गुरवो बादरायणादयो गुह्यमपि ब्रूयुः, शारीरकमुखेनानुक्त्वा केवलमुपदिशेयुरिति भावः।” (भागवत-पुराण (१.१.८) पर वीरराघवाचार्य की टीका)

[197] https://samalochan.com/shabari/

[198] ^^सर्वे वर्णा ब्राह्मणा ब्रह्मजाश्च सर्वे नित्यं व्याहरन्ते च ब्रह्म ।

तत्त्वं शास्त्रं ब्रह्मबुद्ध्या ब्रवीमि सर्वं विश्वं ब्रह्म चैतत् समस्तम् ॥
(महाभारत १२.३१८.८८)

[199] हिंदू धर्म, अध्याय १२, पृ. ४६२ (अनुवाद मेरा)

[200] ब्राह्मणं च पुरस्कृत्य ब्राह्मणेनानुकीर्तितम् ।
पुराणं शृणुयान्नित्यं महापापदवानलम् ॥
(पद्मपुराण, स्वर्गखंड ६१.५८-५९)

[201] सच्छूद्रैरपि नो कार्या वेदाक्षरविचारणा ।
न श्रोतव्या न पठ्या च पठन्नरकभाग्भवेत् ॥
पुराणानां नैव पाठः श्रवणं कारयेत्सदा ।
स्मृत्युक्तं सुगुरोर्ग्राह्यं न पाठः श्रवणादिकम् ॥
(स्कंदपुराण, नागरखंड २४१.४-५)

[202] https://samalochan.com/sanskrit/

[203] भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व २१६.७४

[204] तौ राजपुत्रौ कार्त्स्न्येन धर्म्यमाख्यानमुत्तमम् ।
वाचो विधेयं तत्सर्वं कृत्वा काव्यमनिन्दितौ ॥
ऋषीणां च द्विजातीनां साधूनां च समागमे ।
यथोपदेशं तत्त्वज्ञौ जगतुस्तौ समाहितौ ।
महात्मानौ महाभागौ सर्वलक्षणलक्षितौ ॥
तौ कदाचित्समेतानामृषीणां भावितात्मनाम् ।
आसीनानां समीपस्थाविदं काव्यमगायताम् ॥
(वाल्मीकीय-रामायण १.४.११-१३)

[205] महाभारत (१.४.२) पर नीलकंठ की टीका

[206] कूर्मपुराण १.१४.१५-१६

[207] सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥
(स्कंदपुराण, प्रभासखंड, प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य, २.८४, पाठभेद – “वंशानुवंशचरितम्”; स्कंदपुराण, अवंतीखंड, रेवाखण्ड १.३१; शिवपुराण, वायवीय-संहिता १.१.४०-४१; वराहपुराण २.४, वायुपुराण १.४.१०, मार्कंडेयपुराण १३४.१३, मत्स्यपुराण ५३.६५)

[208] राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः ।
वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये ॥
(भागवत-पुराण १२.७.१६)

[209] पतितोऽपि महापापो मूर्खोऽपि व्यसनान्वितः ।
कामक्रोधादियुक्तोऽपि कृपणोऽपि विषादवान् ॥
इत्यादिदोषयुक्तोऽपि यन्मुखाद् विष्णुसत्कथा ।
श्रुति विकासमायाति स वक्ता परमो गुरुः ॥
येनोपदिष्टाः पापिष्ठा अपि कामातुराः शठाः ।
परं ज्ञानमवाप्याऽपि शाश्वतं यान्ति तत्पदम् ॥
(काशीरहस्य १०.४-६)

बिहार में जन्मे कुशाग्र अनिकेत न्यू यॉर्क, अमेरिका में अर्थशास्त्र और प्रबंधन-विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत हैं। कुशाग्र ने अर्थशास्त्र, गणित, और सांख्यिकी में स्नातक की शिक्षा न्यू यॉर्क के कॉर्नेल विश्वविद्यालय से पूरी की, जहाँ उन्हें विश्वविद्यालय के सर्वोच्च अकादमीय सम्मान से पुरस्कृत किया गया। तत्पश्चात् वे कोलंबिया विश्वविद्यालय से प्रबंधन-शास्त्र (MBA) में सर्वोच्च सम्मान से उत्तीर्ण हुए।

कुशाग्र तीन भाषाओं (अंग्रेज़ी, हिंदी, एवं संस्कृत) में अपने गद्य और पद्य लेखन के लिए भारत और सयुंक्त-राज्य में अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। उन्होंने नित्यानंद मिश्र के सह-लेखन में Krishna-Niti: Timeless Strategic Wisdom (२०२४) नाम की चर्चित पुस्तक लिखी है। सम्प्रति वे भारतीय शिलालेखीय साहित्य पर शोध कर रहे हैं।
ka337@cornell.edu

Tags: कथा वाचन का अधिकारकुशाग्र अनिकेतलोमहर्षण सूत और पुराण-वाचन का अधिकार
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Comments 7

  1. Ajit Singh says:
    11 hours ago

    अत्यंत ज्ञानवर्धक लेख। कुशाग्र जी को साधुवाद

    Reply
  2. Satvik says:
    11 hours ago

    स्वयं उग्रश्रवा ने अपने को वर्ण-संकर प्रतिलोम सूत बताया है; ब्राह्मण नहीं । लोमहर्षण सूत एवं उनके वंशज ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि समाज में महत्वपूर्ण पुराण-वाचक, विद्वान और संस्कृति संवाहक रहे हैं । यह दर्शाता है कि हिन्दू धर्म की महानता में ब्राह्मणों के अलावा भी अन्य जातियों का योगदान था । अति उत्तम !

    Reply
  3. Bhatnagar says:
    11 hours ago

    Very insightful and meaningful reexamination of traditional beliefs .

    Reply
  4. Udbhav says:
    11 hours ago

    Well elaborated and insightful

    Reply
  5. संजय प्रसाद says:
    8 hours ago

    अनेक प्रचलित मिथ्या मतों का खण्डन करने हेतु कुशाग्र अनिकेत जी को धन्यवाद। आशा करते हैं कि आगे भी आपके निबंध पढ़ने का अवसर मिलेगा।

    Reply
  6. Dr Gade Vijay Mahadeo says:
    3 hours ago

    . अति उत्तम एवं प्रशंसनीय आलेख
    लेखक को साधुवाद

    Reply
  7. Jayshree Purwar says:
    3 hours ago

    कुशाग्र वास्तव में कुशाग्र हैं । इतने परिश्रमपूर्वक जो गवेषणात्मक लेख उन्होंने लिखा है वह अत्यंत सराहनीय है । प्रचलित विवादों को सप्रमाण खंडित करते हुए इस प्रकार तारतम्यगत रूप में तथ्यों को स्थापित करना एक कठिन काम है । अनेक साधुवाद ।

    Reply

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