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समालोचन

Home » माधुरी की मुस्कान : प्रीति प्रकाश

माधुरी की मुस्कान : प्रीति प्रकाश

मूल कथ्य पर टिकी हुई, यथार्थवादी, मार्मिक और समयोचित संदेश देती हुई. एक बैठकी में पढ़ जाने योग्य. कहानी से आपको और क्या चाहिए ? युवा कथाकार प्रीति प्रकाश की कहानी ‘माधुरी की मुस्कान’ आपको अवश्य पढ़नी चाहिए.

by arun dev
May 1, 2024
in कथा
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माधुरी की मुस्कान : प्रीति प्रकाश
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कहानी
माधुरी की मुस्कान
प्रीति प्रकाश

‘ग़रीब आदमी को एक दुःख नहीं होता उसे तो थोक भाव में दुःख मिले होते हैं. दीवाली के ठीक पहले वाली रात की बात है. माधुरी का पति जुआ हार कर आया, उसका गुस्सा उसने माधुरी पर निकाला और उसकी खूब पिटाई की. फिर जुआ खेलने चला गया. माधुरी ने उस दिन आलू सोयाबीन की सब्जी बनायी थी. मुँह के चोट की वजह से न तो तीखी सब्जी खाई गयी न सूखी रोटी निगली गयी तो पानी में डुबो कर खाया और फिर अखरे चौकी पर लेट गयी. बेटी चान्सी अलग कमरे में सो रही थी. आधा घंटा बीता होगा तो माँ के सिरहाने आकर खड़ी हो गयी और धीरे से कहा-

‘अम्मा, सो गयी हो क्या?

माधुरी का जी धड़का. डर हुआ कि कही उसके पति को पुलिस तो पकड़ कर नहीं ले गयी. पिछली बार जब वह पीकर चौक पर पड़ा था तब पुलिस ने उसे जेल में डाल दिया था. कर्जा काढ़ कर पांच हजार रुपये भरे थे माधुरी ने, तब जाकर वापस आ सका था.

‘अम्मा, सुधीर भैया फोन किया था, उ दिल्ली में ही बियाह कर लिया है.’

‘बियाह कर लिया है? केकरा से? कब? शरीर दर्द से चूर माधुरी को लगा कि उसका कलेजा बाहर निकल जाएगा.

‘दिल्ली के ही लड़की से अम्मा. कल कनिया को लेकर घरे आ जायेगा.’

‘लात न धरने देंगे घर में उसको’ पति से लात खाकर निढाल हुई माधुरी में जाने कहाँ की ताकत आ गयी जो तुरंत चौकी से नीचे उतर कर खड़ी हो गयी और गुस्से में तमतमा जोर-जोर से चिल्लाने लगी.

‘कहाँ ले दिल्ली जाके दो रुपया कमाकर घर भेजता. यहाँ तो आशिकी करने लगा. माई, दाई लौड़ी बन के घर-घर बर्तन मांजे और बबुआ आशिकी करे.

‘अम्मा, शांत हो जाओ. अब तो बियाह कर लिया भैया. अब काहे इतना बिगड़ रही हो.’ चान्सी को यह खबर खुशी वाली लग रही थी और अभी अम्मा का इस बात पर गुस्सा होना उसे अजीब लग रहा था.

‘सब न बियाह किया छुड़ा देंगे. उ रंडी को हम पतोह मानेगे कभी. मरकी लगौना बियाह कर लिया. बाप मतारी मर गया था क्या?’

रात भर माधुरी गालियाँ बकती रही. कभी बेटे को कभी बहू को कभी पति को तो कभी भगवान को.

‘जा हे भगवान जी, कहाँ सुत गए हो. काहे कपूत दे दिए कोखी में.’

 

२)

अगले दिन दीवाली थी लेकिन माधुरी के घर में मायूसी पसरी थी. बारह बरस की चान्सी तेरह बार अपने छुपाए पटाखे देख चुकी थी. जीजा के द्वार छेकाई से मिले रुपयों से खरीदा था लेकिन अब लग न रहा था कि अम्मा पटाखे जलाने देगी. जब अम्मा सो जायेगी तो चुपचाप छुरछुरी जला लेगी.

अम्मा ने जब भात तरकारी उसिन के रख दिया तब चान्सी से न रहा गया.

‘अम्मा, रात में तो खीर पूड़ी पकेगा न’

‘काहे नहीं पकेगा, बाप भाई कमा कर रख गया है घर में सो जरूर पकेगा’

माधुरी ने तीखा जवाब दिया और काम करने निकल गयी. वैसे तो कोई काम था न आज, लेकिन घर काटने दौड़ रहा था. बिट्टू की माँ नैहर गयी थी, अमन सर वापस चले गए थे और नर्स दीदी की मोर्निंग शिफ्ट में ड्यूटी थी. हाँ मैडम जी जरूर थी. वो नैहर ससुराल कहीं नहीं जाती. सरला सावन भरला भादों यहीं रहती. माधुरी ने उनके यहाँ ही दो घंटे काम किया. बर्तनों को रगड़-रगड़ कर मांजती रही, फिर दीवाली का हवाला देकर पंखे साफ़ किये और फिर खाना पकाने में भी मदद की. जब सारे काम ख़त्म हो गए तब भी घर जाने के नाम पर हिचकिचाई माधुरी. जाने बेटा बहू के साथ आ गया हो. मैडम जी को लगा कि शायद परुआ के लिए रुकी है सो दीवाली के नाम पर पांच सौ रुपये थमा दिए.

मुट्ठी बंद किये माधुरी घर में आयी और सीधा कमरे में जा घुसी. न पति से बात की न बेटी को कुछ कहा. चादर ओढ़ बिछौना पर लेट गयी. रात में पीकर शेर बना पति दिन के उजाले में मेमने की तरह कमरे के चार चक्कर लगा कर चला गया. दिनभर माधुरी का मन कैसा-कैसा होता रहा पर शाम को उठी. मुँह हाथ धोये और एकरंगा कपडे़ में लक्ष्मी गनेस के फोटो को लपेटने लगी. फिर दिया जलाकर हाथ जोड़ लिए. संझौती दिखाया और चान्सी को चार दिए छत पर रख आने को कहा. दरवाजे पर हुई खट-खट से जाकर खोला तो बाहर सुधीर कनिया को लिए खड़ा था. पहले से थोडा दुबरा गया था. कनिया सुन्दर थी गोल मटोल लम्बी चौड़ी.  हरे रंग की सलवार कमीज पहने सर पर पीला दुपट्टा लपेटे. कौन कहता सुधीर की कनिया है. साहब सुहब के घर से लग रही थी.

‘अम्मा अन्दर आने नहीं दोगी क्या?’ सुधीर ने तेज आवाज़ में बेशर्मी से कहा.

‘कौन है रे तू, काहे अन्दर आने दूं. बियाह कर लिया अपने-अपने. अब घर भी खोज ले अपने अपने. इहाँ क्या करने आया है.’

‘केतना बोलोगी अम्मा’ सुधीर मुसकुराने लगा.

‘बस इहे तो आता है, गलती कर दो और दांत चियार दो. जवान बहिन घर में है. माई घरे-घरे बर्तन चौका कर के पेट पोस रही है और बबुआ बियाह करके कनिया लेले आ गया.

 

३)

उस दिन नयी बहू के स्वागत में न तो कोई रस्म हुआ न खीर पूड़ी बनी. एक बेटा उ भी भगाकर लड़की ब्याह करके ले आये तो सास ससुर काहे कि खुशियाँ बांटे. दीवाली की रात को चूल्हा उपास ही रहा माधुरी के घर. बेटी चान्सी माँ से पूछने आयी कि खाना बना दूं तो माधुरी ने साफ़ मना कर दिया.

‘चुल्हा नहीं जलेगा ई घर में एबर. बड़ा उजियार किया है मेरे श्रवण कुमार ने मेरा मुख जो पकवान पकाऊ.’ लेकिन अगले दिन चार बजे भोर से ही खाना बनाने में जुट गयी माधुरी. ‘पूत कपूत हो जाए तो माता कुमाता तो नहीं हो सकती. दिल्ली से आने में चौबीस घंटा, फिर घर आये बारह घंटा बीत गया. अन्न का एक दाना नहीं खाया सुधीर ने. चान्सी भी देह्चोर है. एक बार कह दिया खाना नहीं बनेगा तो नहींये बनायी है.

भुइयां बैठ के ठरई का साग काट रही थी माधुरी, जब नई बहू ने आकर पाँव छुए. माधुरी ने देखा ‘सफ़ेद उंगलियाँ, नाखून पर कत्थई आलता. फिर चेहरा देखा. बहु का चेहरा जैसे दुर्गा जी, जैसे बुक-बुक बरता दीया. माधुरी का मन भर आया.

दुर्गा जी जैसे लड़की है. हाँ, लेकिन दहेज़ फूटी पाई न मिली. सोचा था एक ही बेटे पर थोड़े अरमान पूरे करूंगी. दो बेटियाँ ब्याही, दोनों को पलंग बना कर दिए लेकिन अपने घर न कभी एक पलंग बना सकी न बाकस खरीद सकी. सोचा था बहू आएगी तो लेकर आएगी. यहाँ तो छूछे हाथ आ गयी लड़की घर में. दोपहर में माधुरी का पति अखबार में दो नयी साड़ी लपेटे हुए लौटा.

‘दुकाने बंद थी आज. जान पहचान के आदमी से दुकान खुलवा कर लाये हैं. घर में नयी बहू आयी है तो उसे एक नयी साड़ी भी न दूं’ उसने शेखी बघारी

‘अच्छा, दिल्ली वाली के सामने बड़े सयाने बन रहे हो. कभी हमारे लिए तो कुछ न लेकर आ सके.’ माधुरी से न रहा गया तो बोली.

‘अरे एक तुम्हारे लिए ही तो है, हरी वाली.’ माधुरी ने साड़ी देखी. सूती साड़ी की सुनहरी किनारी. पति पर उसे लाड़ आया. दो दिन पहले की बात भूल गयी.

किसी ने किसी को नहीं बुलाया. लेकिन जाने कैसे नयी बहू को देखने धीरे-धीरे घर भर गया माधुरी का. दोनों बियाहल बेटियाँ आ गयी, नैहर से भाई भौजाई आ गया, जयधि का घर तो बगल में ही था तो उसके बच्चे तो जब से बहू आयी है घर में ही घुरी काट रहे थे. सबने कनिया को नेग दिया. बड़ी बेटी बिछिया ले आयी थी, मंझली चांदी का लौकेट. माधुरी की भौजाई सोना का नाक का कील लेकर आयी थी. जयधि ने पैसे हाथ में रखे. शाम तक खाने वाले पचास जन हो गए थे घर में. चांदनी ने सब्जी बनाई, माधुरी ने पूड़ी और पतोहू ने खीर पकाई. सबने खीर की खूब तारीफ़ की.

‘मेरे बेटे ने इतना मैटेरियल ला दिया तब तो बहू ने खीर बना ली.’ माधुरी ने नाक भौं सिकोडा.

रात को चान्सी ने सुधीर के साथ पटाखे भी फोड़े, कनिया ने फुलझड़ी जलाई. माधुरी दरवाजा बंद कर सो गयी.

 

४)

तीन दिन की छुट्टी के बाद जब माधुरी काम पर गयी तो हर जगह यही दुखड़ा सुनाया.

‘क्या करें मैडम जी, बेटा भगाकर लड़की ले आया है. कहता है मंदिर में ब्याह किया है.’

‘बिट्टू की मम्मी, उस लड़की को देख कर मेरे देह में आग लग गया. जाने कौन कुल खानदान की है. अभी भी मन कर रहा है कि जाकर बेलगा दे दुनु गोडा को’

‘लड़की सुन्दर है. लेकिन एको पैसा हाथ पर नहीं लेकर आयी है. हमारा तो सारा जिन्दगी बर्बाद हो गया. बेटा के ब्याह का एक गोड़ लगाई साड़ी नहीं जाने मैडम जी.’

‘बेटी सबका लइकाई में ब्याह कर देते थे कि कहीं कौने के साथे भाग मत जाए. हम क्या जाने कि बेटवा ही नाम हँसवा देगा समाज में.’

‘अभी तो डर है कि कौनों केस मुकदमा न कर दे उसका घर वाला.’

घर के लिए चलने लगी तो बिट्टू की मम्मी ने माधुरी को लहठी दिया. ‘मुजफ्फरपुर का लहठी है माधुरी, बहू को जाकर पहना देना. धन नहीं लायी है तो कोई बात नहीं सौभाग्य तो लेकर आयी है न. बहू लक्ष्मी है, दीवाली के दिन घर में कदम रखा है.

तीन घर में चौका बर्तन करके और अमन सर के यहाँ खाना पका कर जब माधुरी घर लौटी तब लाल साड़ी पहिने पतोहू पानी का गिलास ले आयी.

‘बाहर से गरमाईले आकर पानी नहीं पीते.’ माधुरी ने कहा लेकिन फिर गिलास लेकर पी लिया.

एक नजर पतोहू को देखा फिर लहठी हाथ में दे दी. ‘नया कनिया को लहठी पहनना चाहिए.’

हाथ में साबुन लगा कर कनिया जब लहठी पहन रही थी तभी माधुरी ने पूछा– ‘नाम क्या है तुम्हारा?

‘मुस्कान’

माधुरी एक पल के लिए ठहर गयी. सुधीर के पीठी पर एक और बेटी थी उसकी, नाम उसका मुस्कान ही रखा था. तीन बरस की हो गई थी तब बुखार उठा और चौबीस घंटे में मर गयी. अभी जिन्दा होती तो कनिया के ही संग की होती.

कनिया ने भर-भर हाथ लहठी पहन ली. माधुरी ने आँख भर के उसको देखा. घर उजियार हो रहा था कनिया से.

‘एक तो अपना घर दुआर छोड़ कर आयी है. अगर हम भी प्रेम से नहीं रखेंगे तो कहाँ जायेगी’ चान्सी जब किसी बात पर कनिया की शिकायत लेकर आयी माधुरी के पास तो उसने समझाया.

 

5)

‘अम्मा, तुमको पता है कि भाईजी और भौजी कहाँ मिले थे?’  चान्सी ने काम से घर लौट कर आयी माधुरी के पीठ से लगकर कहा. हफ्ते भर में चान्सी और कनिया गुईया बन गए थे. बहनों के जाने के बाद से चान्सी का मन उतना न लगता था घर पर. दिन भर चाची के घर फरार रहती. लेकिन जब से भौजाई आ गयी थी तब से दोनों हमेशा साथ ही रहती.

‘नए-नए में ननद भौजाई में ऐसा ही प्यार रहती है. साल भर बीतने दो फिर काटने दौड़ेंगी दोनों एक दुसरे को.’ माधुरी बड़बडाती.

‘दोनों साईट पर मिले थे. पच्चीस मंजिला बिल्डिंग बना रहे थे. भईया लेबर थे, भाभी भी वही काम कर रही थी, अपने परिवार के साथ. उनका परिवार छपरा से है. बचपन में वो लोग दिल्ली चले गए. वहीं पढ़े लिखे.’

‘कहाँ तक पढ़ी है मुस्कान?’

‘दसवीं पास हैं अम्मा जी’ पतोहू ने धीरे से कहा.

अच्छा, माधुरी को आश्चर्य हुआ ‘सुधीरवा तो पढ़ने का नाम ही नहीं लेता था. हम स्कूल रगेदते थे वो गाछी में आम बिनने चला जाता. आठवाँ भी पास नहीं किया. तुमने पढ़ लिखकर इस अनपढ़ को कैसे पसंद कर लिया. तुम्हें और कोई पढ़ा लिखा नहीं मिला क्या, जो इस बागड़ से ब्याह कर लिया.’

‘अम्मा जी, सुधीर ने कहा था कि वो अनाथ है तो हमको इनपर माया आ गया.’

‘अनाथ है, तो हमलोग भूत हैं क्या?’ चान्सी खिलखिलाई. माधुरी को अटपटा लगा. ये कोई हँसने वाली बात तो न थी. जिस बेटे को खून पसीना जला कर पोसा वो खुद को अनाथ बताए. पर कनिया के सामने सुधीर को डांट न सकती थी सो उसे ही डांट दिया.

‘नाम लेकर न बुलाओ कनिया. हमको देखी हो कभी पापाजी का नाम लेकर बुलाते. और हाँ, सुहागन औरत जैसा रहा करो. लिपस्टिक काजल लगाया करो. सब नया कपड़ा कहाँ हटा दी हो? नया जामा लुगा पहिनो. कनिया हो तुम.’

माधुरी ने जितना डांटा न था उससे जोर का मुस्कान को लगा. इतनी मुश्किल से तो अभी अम्मा जी उससे बात कर रही थी और अभी ही नाराज हो गयी. नहीं वो अम्मा जी को नाराज नहीं करेगी. माँ बराबर है वो. माँ को याद कर मुस्कान को रोना आ गया.

उस दिन से मुस्कान ने अपने सारे सलवार कमीज तह लगाकर धर दिए. साड़ी पहनने लगी, चूड़ी, बिछिया, सिन्दूर सबका ध्यान रखने लगी. सुधीर को भी सुधीर कहना छोड़ दिया. ‘चान्सी के भैया’ कहकर काम चलाने लगी.

 

6)

वैसे ही हाड़ कपा देने वाली ठण्ड थी. इतनी कि माधुरी को बिछावन छोड़ने में, ठन्डे पानी से हाथ धोने में बुखार लगता. लेकिन आज बात ही इतनी खुशी की थी कि उसके पाँव एक जगह टिक ही नहीं रहे थे.

‘बिट्टू की माँ, आप ठीक कह रही थी. पतोहू सौभाग्य लेकर आयी है. पहिले मेरा मालिक पीकर आता था, हमको भी पीटता था. पतोहू आयी है तब से पीकर आता है तो चुप्पे चाप सुत जाता है. हमार बेटी चान्सी, कहियों जो हमको एक गिलास पानी भर के दे दे. लेकिन हमार पतोहू तो हमारे लिए कुछ न कुछ बचाकर रखती है. जैसे ही हम जाते हैं खाने को दे देती है. माई बाप को जो देखता है बिट्टू की माँ, उसको भगवान् भी देखते हैं. देखिये न कार्तिक में बियाह हुआ और पूस में पेट में बौउआ है उसके.’

मैडम जी को यह बात इतने विस्तार से नहीं कहा माधुरी ने. मैडम जी का शादी हुए तीसरा साल होने जा रहा था लेकिन बाल बच्चा नहीं था. माधुरी को लगा कि मैडम जी को सुनकर दुःख मत लगे. बस इतना कहा– ‘मैडम जी, अब क्या करे. बाल बच्चा सबको हमी को देखना है. मालिक पियक्कड़ है. बेटा दिल्ली में काम करता था वो भी छोड़ कर घर बैठा है. आज बीस तारीख है मैडम जी. तीस को महीना पुगता है. हजार रुपया आज ही दे दीजिये. पतोहू को डाग्डर के यहाँ ले जाना है.’

नर्स दीदी जी के यहाँ कहा- ‘कभी समय मिले तो आइयेगा दीदीजी हमारे घर. नहीं तो हमको ही कहियेगा हम पतोहू को लेकर आ जायेंगे. थोड़ा देख दीजियेगा.’

अमन सर की सब्जियाँ खरीदने जब गयी माधुरी तब इमली भी खरीद ले आयी. पतोहू का मन खराब रहता है आजकल.

बैसाख महीने में अमन सर का ट्रान्सफर हुआ और बंगाली सर घर में रहने आये. वो बाहर ही खाना खा लेते. कभी-कभार कुछ काछ खुद भी पका लेते. माधुरी ने चार दिन उनके फ्लैट के चक्कर लगाए. उन्हें बताया कि अमन सर का सारा काम वही करती थी. बाजार से सब्जी लाना, खाना पकाना. यह भी की मछली मीट सब कुछ बना लेती है माधुरी. जिस दिन बंगाली सर ने माधुरी को काम पर रखा उस दिन बहुत खुशी हुई उसे. अब परिवार में आदमी बढ़ेगा तो आमदनी घट जाए तो काम कैसे चलेगा.

 

७)

‘गर्भवती औरत को एक बार पुआ पूड़ी खिला देना चाहिए.’ रात को आठ बजे माधुरी आँगन में चूल्हा पर पुआ छान रही थी और कनिया को अपनी सास की कहानी बता रही थी.

‘जाने सच या झूठ, बाकि कहती थी मेरी सास कि एक बार रात को पुआ छान रही थी तो एक चुरइन आ गयी पुआ मांगने.

सास से कही– ‘ए! ए!  एगो पुआ द ना.’

‘हमारी सास बड़ी न चालू थी. बोली पास आओ, देते हैं. लेकिन जब पुआ लेने चुरईन आई तब छनौटा से गरम तेल उस पर फेंक दी. बिलबिला के भाग गयी वो.’ कहते हुए हँसने लगी माधुरी.

‘अम्मा जी, चूरइन क्या होता है?’

‘जब गर्भवती औरत मर जाती है तब उसको चूरइन कहते हैं. वो रात में आती है और पुआ मांगती है.’

कनिया डर गयी. उसके कमरे की एक खिड़की खेत तरफ खुलती थी.

‘लेकिन हम नहीं देखे हैं कभी मुस्कान. पुरनका लोग का पुरनका खिस्सा है सब. अम्मा जी तो यह भी कहती थी कि सुन्दर लड़का सब का खून चूस कर जिन्दा रहती है सब चुरइन.’

‘अम्मा जी, आदमी मर के राक्षस बन जाता है क्या?’ जाने मुस्कान को क्या सूझा जो पूछा.

‘वो तो वो जिन्दे में ही रहता है.’ फिर से हँसते हुए माधुरी ने अपने पैर को देखा. दारू के नशे में पिछली रात उसके पति ने उसको धकेला तो वो फसुल से टकरा गयी और पैर कट गया. उसी पर पट्टी बाँध कर बैठी थी.

‘अम्मा जी आप तो पापा जी से ज्यादा कमाती हो. फिर काहे मार खाती हो. पापाजी पीकर आते हैं तो घर में घुसने ही काहे देती हो’ अचानक से कनिया पूछ बैठी.

‘पहिले बहुत अच्छे से रखते थे रे पापाजी हमको.’ माधुरी ने याद किया. फिर तीन-तीन बेटी के बाद उनको टेंसन हो गया. दारू पीकर कभी-काल हाथ उठाने लगे. हमार सास बहुत टाईट थी. कहती थी कि मरदाना आदमी बाहर जाता है दस तरह का बात होता है, घर आकर हाथ उठा दिया तो हव्वा नहीं बनाते हैं. हमको घर से निकलने नहीं देती थी. सास हमारी जब मर गयी आ बड़की का बियाह कर दिए तब देखे कि दू गो और कुआर बेटी है. अब उसका बियाह कैसे करेंगे. तब हम डेग निकाले घर से. तब तक तुम्हारे पापाजी को हाथ उठाने का और हमको मार खाने का बान धर लिया था. अब सोचते हैं इतना उमर बीत गया अब घर में घुसने नहीं देंगे उनको, तो गाँव समाज कहेगा कि जिनगी भर उ खिलाए तब सब ठीक था आ जब हम कमाने लगे तब रोब दिखाने लगे.

जाने दो जिसका जैसा भाग होता है उसको वैसा ही मालिक मिलता है.’

मुस्कान को समझ नहीं आया कि सास खुद को समझा रही है या उसे. उसे अपनी सास से उसकी सास ज्यादा खराब लगी.

 

8)

कच्चे आम के दिन आ गए थे. मुस्कान को आजकल दिन भर थकान रहती. न खाने का मन करता न कहीं जाने का.

मैडम जी ने एक टोकरी कच्चे आम दिए थे माधुरी को, आम दिन भर आँगन में पड़े रहे. चान्सी ने एक आम की चटनी लहसून मर्चा पका कर पीस दी. आम की खुशबू तीन कोठरी के घर में पसरी हुई थी.

‘अम्मा जी अचार डाल ले’ मुस्कान का जी ललचा रहा था.

‘हाँ डाल लेते हैं, नहीं तो बाबू होने के बाद एक साल अचार नहीं डालते हैं.’ माधुरी ने बैठे-बैठे फसुल से आम काटे, गुठली निकाली.आम की खट्टी खुशबू से उसके भी मुँह में पानी भर गया. चान्सी ने नमक हल्दी लगा कर कठरा में रख दिया. माधुरी ने दो हजार का नोट तुड़वा लिया और सारे मसाले ले आयी. मुस्कान चूल्हे पर कडाही में मसाले भूनने लगी माधुरी ने वहीं बोरा बिछा लिया और उस पर खल मूसल रख मसाले कूटने लगी. जीरा, धनियाँ, सौंफ, लाल मिर्च सरसों.

सब होने पर अचार भरने की बारी आयी. दोनों सास पतोहू अचार भरने बैठी.

‘अम्मा जी, आपने पापा जी से शादी क्यों की?’ जाने मुस्कान को क्या सूझा जो उसने माधुरी से पूछा.

‘हम किये? हमारे भैया न किये रे. हमको इतना ढंग कहाँ था कि अपने से पसंद करके शादी कर ले’ माधुरी ने कनखियों से पतोहू को देखा. वो झेंप गयी थी.

‘भैया बोले लड़का बहुत सुन्दर है, छतैला मकान है’

‘यह नहीं बताये कि दारू भी पीता है?’

‘ना, तुम्हारे पापा जी पता कहाँ चलने दिए. हम शादी करके आये तो एक साल तक हमको खूब जाने. सुधीर पेट में रह गया तो हम नैहर चले गए. हमको पता ही नहीं चला कि ये दारू पीते हैं. जब सुधीर को गोदी में लेकर आपस आये तो एकाध महीना बाद पी कर आने लगे. हमको जो पहिले पता चलता कि ये दारू पीते हैं तो हम तो भाग कर दूसरा ब्याह कर लेते. लेकिन अब तो एक लईका के माई थे, भागकर कहाँ जाते. यही जान कर ये ढीठा गए.’

‘अम्मा जी, आप सच में दूसरी शादी कर लेते?’ मुस्कान सोच में पड़ गयी कि अगर अम्मा दूसरे घर चली जाती तो क्या होता.

‘शादी का तो नहीं पता, लेकिन हम जरूरे तुम्हारे पापाजी को छोड़ कर भाग जाते.’ माधुरी ने हँसते हुए जवाब दिया.

‘लेकिन तुम हमारे सुधीर को छोड़ के मत भागना. वो तो तुमको बहुत जानता है. कभी एक लाइची भी नहीं खाता है.’

जाने माधुरी ने यह बात किस घड़ी कही और जाने कौन सा देवता था जिसे यह बात बुरी लग गयी जो उसी रात सुधीर दारू पीकर आ गया. दिल्ली से आने के बाद बाप के साथ मिलकर वो भी कबाड़ का ही काम करने लगा था. अब बाप के साथ रहकर दारू भी पीना सीख रहा था. उस दिन तो बेटा को घर में घुसने दे दिया माधुरी ने पर पतोहू के पास जाने न दिया. उसको दुआर पर सुलाया खुद पतोहू के कमरे में जाकर सो गयी. सुबह होने पर सुधीर के पास जाकर उसे मन भर समझाया. वो सर झुका कर सुनता रहा. माधुरी को याद आया शुरू में उसका मरदाना भी तो ऐसे ही सर झुका कर सुनता रहता था लेकिन सुधरा तो नहीं. पुरबी माई को सवा किलो लड्डू भाखा माधुरी ने. अब कि जो पूरबी माई सुधीर को सुधार दिया तो सवा किलो लड्डू चढ़ाऊंगी.

 

9)

मुस्कान को बबुआ हुआ सरकारी अस्पताल में. लेकिन बबुआ बहुत कमजोर था. माधुरी बच्चा को लेकर मुजफ्फरपुर भागी. शीशा में रखवाने. बारह हजार खर्चा हो गया. लेकिन बच्चा न बचा.

घर लौटी माधुरी तो पतोह का टाँका पक गया था. उसमें से पीब निकल रहा था. पतोह को लेडिस डॉक्टर के यहाँ लेकर दौड़ी. लेडिस डॉक्टर ने सरकारी अस्पताल का हवाला देकर कहा – ‘साफ़ सफाई से टाँका नहीं लगाया है. इसलिए पक गया. फिर से टाँका लगाया. दस हजार और खर्च हुए. महीने भर परेशान रही माधुरी. सारी जमा पूंजी ख़त्म हो गयी. पर कनिया को कुछ न कहा. गोरी चिट्टी गोल मटोल कनिया खुद ही झांवर पड़ती जा रही थी.

‘इसमें उस बेचारी का कौन दोष है मैडम जी. भगवान का मर्जी, जब चाहे दे जब चाहे ले ले.’ मैडम जी इतना नागा करने के लिए माधुरी को हटाना चाह रही थी. लेकिन उसके दुःख का सुन कुछ न कहा.

माधुरी ने जब यही बात बिट्टू की मम्मी को बताया तो वो बेचारी तो रोआँसा हो गयी. जब से बिट्टू के पापा का तबादला दूसरे जिला में हुआ है तब से बिट्टू की मम्मी को बात-बात पर रुलाई आ रही थी. माधुरी ने जब बच्चा टूटने की बात उनसे कही तो वो फफक पड़ी. बच्चे के लिए खरीदे कपड़े और कनिया के लिए खरीदी गयी साड़ी दिखाई उसने कनिया को. माधुरी बच्चे के कपड़े का क्या करती लेकिन साड़ी उसने मांग लिया.

‘पतोह को अच्छा से खिलाना पिलाना माधुरी, बहुत कमजोर हो गयी है.’ नर्स दीदी ने भी माधुरी को हिदायत दी.

बंगाली बाबू ने दूसरी महिला को खाना पकाने के लिए रख लिया था. माधुरी का इस महीने एक काम भी चला गया था.

माधुरी ने एकादशी करने को सोचा. जाने कहाँ भूल चूक हो गयी जो भगवान बबुआ को ले गए.

 

10)

पंद्रह दिन बीत गए. कनिया न हँसती न रोती. चांदसी के साथ भी हँसी मजाक भी न करती. जब तब उसके माथे में दर्द रहता. माधुरी को खुद ही अफ़सोस था कि इतने रुपये चले गए और बबुआ भी न बचा. घर का पहला पोता था.

‘का हुआ हो, काहे सुतल हो.’ उस दिन माधुरी जब काम से लौटी तो कनिया को अखरे चौकी पर  देख पूछ बैठी.

‘कुछ ना, अम्मा जी. माथा में दर्द है.’ कनिया सकुचा के गठरी हो गयी.

‘काहे दर्द है माथा में. चान्सी तनी गरी का तेल ले आओ तो. तुम्हारी भौजाई का माथा दुखा रहा है.’

माथे में हलके हाथों से दबाव पड़ने लगा तो कनिया सिसकने लगी.

सिसकी फिर रुलाई में बदल गयी. ‘अम्मा जी…’

‘का हुआ मुस्कान, रे रो काहे रही है’

‘अम्मा जी, हम कुछ नहीं किये थे. बबुआ अपने से चल गया.’

‘त के कह रहा है कि तुम कुछ की थी. बबुआ भगवान की देनी था. वो ले गए.’ माधुरी ने मुस्कान को कलेजे में साट लिया.

मुस्कान का सिसकना रोने में तब्दील हो गया.

‘अम्मा जी, बबुआ बहुत सुन्दर था.’ मुस्कान ने कलेजे पर हाथ रखा- ‘यहाँ, यहाँ दर्द करता है अम्मा जी. बहुत बुझाता है.’

माधुरी का दिल फटने लगा- ‘जाने दो, भुला दो उसको. हमारा धन नहीं था इसलिए नहीं रहा. जाने दो मुस्कान हमरो एगो बेटी थी मुस्कान. भगवान जी ले गए. तब हमको भी बड़ी बुझाता था. पंद्रह दिन तक हम रोते रहे. सबलोग कहता था कि बेटी के लिए काहे रो रही हो. लेकिन हमारे करेज में दर्द हो गया था. लेकिन देखो इतना बरस बाद तुमको फिर से भेजे कि नहीं हमारे पास. तुम्हारे पास भी फिर से भेजेंगे बबुआ.

माधुरी कनिया का माथा सहलाने लगी. दोनों औरतें मिल कर घाव भरने लगे.

 

11)

माधुरी को पता न चल रहा था कि चीजें ठीक हो रही थी या खराब. कनिया फिर से टनमनाने लगी थी. सुधीर ने बाप का कबाड़ का काम पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया था लेकिन फिर बाप की ही तरह रात-रात भर गायब रहने लगा था और सुबह शराब के आधे नशे में लाल आँखें लिए आने लगा था.

शुरू में माधुरी जब पूछती तब सर झुकाए रखता फिर तेज आवाज़ में माधुरी को जवाब देने लगा.

‘पापाजी से कभी पूछा है कि कहाँ रहते हैं रात भर, तो हमसे काहे पूछती हो?’

‘हम कहे थे क्या कि हमारा खाना बना कर रखो. नहीं बनाती. हमको भूख लगता तो हम अपना इंतजाम करते.’

‘साला परिवार होता ही है टेंशन देने के लिए.’

 

12)

दीवाली आने वाली थी जब माधुरी डब-डब आँख किये सबेरे काम पर पहुंची.

‘तबीयत ठीक नहीं है क्या माधुरी? मैडम जी ने पूछा तो रोने लगी.

‘मैडम जी, हमार पतोह चल गेल. पबनी में सबका बेटी पतोह घर आता है हमार पतोह घर से चल गेल.

‘कहाँ चल गेल माधुरी’ मैडम जी ने माधुरी को पहली बार रोते देखा.

‘दिल्ली चल गेल, हमार घर सून हो गेल. हमरा एक तनिका मन नइखे लागत मैडम जी. परब त्यौहार में सून हो गेल हमार घर.’

‘फिर भेजा क्यों माधुरी? परब भर रोक लेती बाद में जाने देती.’

माधुरी चुप लगा बैठी. लेकिन जब बिट्टू की माँ ने यही बात पूछा तब माधुरी ने दिल खोला-

‘बिट्टू की माँ, शुकर के रात के हमारा बेटा पी के आया. बाप के संगत में पीना सीख लिया है. काम धंधा भी चौपट कर दिया है. हम तो अपने थाकल हारल रहते हैं. हम सुत गए. हम नहीं जाने कि हमारा बेटा उस पर कब हाथ उठाया. जब खूब दिन होने पर भी पतोहू नहीं उठी और बेटा घुरी घुरी काटता रहा तब हम जाकर देखे. मुँह सूजा दिया था उ हरामी उसका.’ माधुरी का चेहरा तमतमा गया था.

‘हम बोले उसको. ए मुस्कान तुहो काहे नहीं मारी सुधीरवा को?’

जानती हैं बिट्टू की माँ वो क्या बोली- ‘कहती है, आप कभी पापाजी को मारे हैं? तो हम कैसे सुधीर को मारते.’

‘हमारा कलेजा फट गया. आन कोई के बेटी है मुस्कान. लेकिन उसको हम चान्सी से ज्यादा जानते हैं. बिट्टू की माँ, बच्चा होने पर उसका खून का कपड़ा धोये है. बच्चा जाने पर करेज में साट के सुताए हैं. हम सोच लिए, ना अगर इहाँ रहेगा बेटा पतोह. तो हमरे जैसन जिन्दगी जियेगा. हमरे जैसन हमार पतोह का हालत होगा. हमार आदमी सुधीर को अपने जैसा बना देगा हम मुस्कान को अपने जैसा बना देंगे. हम उसी समय बेटा को कहे जाओ दिल्ली. कमाओ. पतोह को भी कहे. तुम भी कमाना वहाँ. अगर इसके बाद आँख उठा के तुमको देखा सुधीर तो मुआ डालना उसको. साला हम मान लेंगे कि हम कौनो बेटा को जन्म नहीं दिए थे. चार गो बेटी के ही मतारी थे.’

हरे रंग की सुनहरी कोर वाली साड़ी के आंचल से उसने आंसू पोंछे और गैस का चूल्हा पोंछने लगी. चूल्हे पर एक पीला मटमैला सा दाग जाने कब से लगा था.

प्रीति प्रकाश
शिवहर, बिहार.वर्ष 2019 का राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानियों, आलेख, अनुवाद का प्रकाशन.

सम्प्रति बिहार सरकार में नौकरी.
preeti281192prakash@gmail.com

 

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Comments 17

  1. राकेश बिहारी says:
    1 year ago

    प्रीती प्रकाश की कुछ कहानियां पहले भी पढ़ी है। ‘रामलीला के जोकर’ और ‘तबस्सुम बा जी की भूरी गाय’ ने प्रभावित किया था। ‘माधुरी की मुस्कान’ उस प्रभाव यात्रा को आगे बढ़ाती है। इस कहानी से मेरा यह विश्वास और पुख्ता हुआ है कि जब कथ्य शक्तिशाली हो तो कहानी को बहुत ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं होती है। माधुरी के व्यवहारों की सहजता बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के यथार्थ और स्वप्न की टकराहटों से उत्पन्न आधुनिकता और प्रगतिशीलता की जिन ध्वनियों को रेखांकित करती है, वह इस कहानी को महत्त्वपूर्ण बनाता है। माधुरी और मुस्कान की पारस्परिकता सास- बहू की रूढ़ संबंध छवियों को जिस अनायासपन के साथ तोड़ती है वह पाठक के मर्म को गहरे छूता और संवेदित करता है। लाउड और प्रायोजित के विरुद्ध सहजता और अनायासपन की यह रचनात्मकता स्त्रीवादी कहानी का एक उल्लेखनीय पड़ाव है। प्रीति प्रकाश को बधाई और समालोचन का आभार!

    Reply
  2. Twinkle rakshita says:
    1 year ago

    प्रीति दी की कहानियां पहले भी पढ़ी हैं… सब एक से बढ़ कर एक। खास बात यह है कि बिना लाग लपेट के और अनावश्यक वर्णन के इनकी कहानियां आगे बढ़ती हैं… लेखिका अच्छी तरह से जानती हैं कि क्या लिखा जाए से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि क्या लिखने से बचा जाए। खूब बधाई प्रीति दी को।

    Reply
  3. ललन चतुर्वेदी says:
    1 year ago

    प्रीति ने मुझे अपने गाँव में पहुंचा दिया। आज ऐसी ही सच्ची कहानियों की जरूरत है। विमर्श के शोर ने हिन्दी कहानी को कितना नुकसान पहुंचाया है ,उसको महसूस किया जा सकता है। जानता हूँ कि कुछ लोग नाराज हो सकते हैं लेकिन उनकी कहानियाँ या कविताएं असमय दम तोड़ देंगी। अनुभूति में यदि सच्चाई नहीं है तो अभिव्यक्ति में सफाई नहीं होगी। प्रीति की कहानी में कहीं कोई बनावटीपन और वाग्जाल नहीं है। इस कहानी को पढ़ते हुए एक साथ हर्ष-विषाद दोनों की अनुभूति होती है ,यह इस कहानी की सफलता का प्रमाण है। भाषा इसकी ताकत है। प्रीति का सफर बहुत लंबा है और उन्हें वास्तविक शुभकामनायें और बधाई भी देता हूँ। काबिलेगौर यह कि आज मजदूर दिवस है और इस कहानी में महिला श्रमिकों की प्रगतिशील और उम्दा सोच भी समाविष्ट है। और अंत का कमाल तो देखिये -कोई उलाहना नहीं है माधुरी की ओर से। यह गज़ब है।
    समालोचन को भी बधाई।

    Reply
  4. Naresh Goswami says:
    1 year ago

    पात्रों की सोहबत में, उनके जीवन से एकमेक होकर, छोटे-छोटे विवरणों लेकिन मुख्यतः संवादों के ज़रिये यथार्थ का प्रकट और अंदरूनी कोलाज बुनती एक पठनीय और प्रभावशाली कहानी!
    चूंकि यह कहानी जीवन के सहज आवयविक यथार्थ को अनुकृत करती है, इसलिए टेकनीक के स्तर पर उसे किसी चमकदार और ध्यानाकर्षक युक्ति की ज़रूरत नहीं पड़ती. कुछ अलग शब्दों में कहा जाए तो यहाँ जीवन के अनुभव इतने साबुत हैं कि उन्हें पूरा करने के लिए कुछ आयात नहीं करना पड़ता.
    माधुरी के रूप में प्रीति ने बहुत कद्दावर चरित्र गढ़ा है— वह अपने दुराग्रहों, निजी दुखों और हताशाओं से पथराई संवेदना से ऊपर उठती है. पाठकों के सामने बनते और खुलते उसके व्यक्तित्व का सबसे रौशन पहलू यह है कि वह मुस्कान के जीवन में अपनी नियति की पुनरावृत्ति नहीं होने देती.

    Reply
  5. Madhu B Joshi says:
    1 year ago

    Sahaj, sundar kahani.
    Bina nare lagae streevad kee samaj sapeksh tasveer.

    Reply
  6. Anjali Deshpande says:
    1 year ago

    प्रीति प्रकाश की इस कहानी की भाषा तो स्वादिष्ट है, पोषण इसमें नहीं के बराबर है।

    Reply
  7. KAIFI HASHMI says:
    1 year ago

    अच्छी लगी कहानी। सरल, सहज और गहरी।

    Reply
  8. निहाल पराशर says:
    1 year ago

    बहुत बढ़िया लिखा प्रीति। कहानी बिल्कुल पाठक के अंतर्मन तक पहुँचती है। बिना लाग लपेट के एक बड़ी कहानी सामने आती है।

    बहुत बधाई।

    Reply
  9. Anonymous says:
    1 year ago

    प्रीति की कहानी पढते हुए प्रेमचंद याद आते हैं।जीवन का यथार्थ चित्रण, सजीव किरदार और जीवंत भाषा । खूब बधाई लेखिका को।

    Reply
  10. तेजी ग्रोवर says:
    1 year ago

    बहुत बढ़िया कहानी। रेणु याद आते रहे। और कई ऐसे प्रसंग भी जो घरों में आते कामगारों से हम सरीखों तक रोज़ पहुंचते हैं।।

    सधा शिल्प और सक्षम कलम!!!

    Reply
  11. Kamla Nand Jha says:
    1 year ago

    कहानी में अद्भुत प्रवाह है। स्वंय पढ़ाकर ले जाने की क्षमता है, कहानी में। गहरी संवेदना और यथार्थ-वर्णन कहानी का मजबूत पक्ष है। प्रीति को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  12. Anonymous says:
    1 year ago

    कहानी थोड़ी ही पढ़ी , कुछ नयापन नहीं लगा। एक स्त्री जिसका पति जुआरी है , शराबी है , उसे पीटता है। यह repetitive कथानक है।

    Reply
    • Anonymous says:
      1 year ago

      पूरी कहानी पढ़ें, जरूर कुछ नया मिलेगा।

      Reply
  13. विनीता बाडमेरा says:
    1 year ago

    जब कहानी का कथ्य इतना मजबूत हो तो बाकी ताम-झाम की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। यह कहानी स्त्री विमर्श को इस सरलता से रखती है कि पाठक हतप्रभ रह जाता है। सास बहू सहेलियां भी बन सकती है यह कहानी का सबसे बड़ा सकारात्मक पक्ष है।
    एक बेहतरीन कहानी के लिए लेखिका को बधाई

    Reply
  14. PREETI PRAKASH says:
    1 year ago

    कहानी को इतना प्यार देने के लिए आप सभी का बहुत धन्यवाद| समालोचन पर कहानी को स्थान देने के लिए अरुण सर का बहुत आभार|

    Reply
  15. सुमति सक्सेना लाल says:
    1 year ago

    सहज सुंदर कहानी। इस तरह की कहानियाँ ह्यूमन गुड्नेस पर हमारे विश्वास को और पुख़्ता करती हैं। प्रीति प्रकाश और समालोचन को बधाई।

    Reply
  16. Garima Srivastava says:
    12 months ago

    बहुत दमदार कहानी।प्रीति जी को बधाई।लोक के रंग में डूबी कहानी में मानव मनोविज्ञान बहुत सहजता से अभिव्यक्त है।इतनी सहज कहानियाँ वि रल हैं।समालोचन को बधाई।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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