हिंदी में दिलीप चित्रे की कविताएँ यतीश कुमार |
सोलह साल की आयु में ही जिसने घोषित कर दिया हो कि उसे कवि ही बनना है, जो अपनी आज़ादी को ख़ुद के लिए सर्वोपरि मानता हो, जो समय की पहचान करते हुए उसकी ताब में पका हो, जिसके पास जगत और आत्मा दोनों को एक साथ मापने और संप्रेषित करने का हुनर हो और जिसे सच्चाई का निर्मम बखान करने में भी किंचित मात्र का संकोच नहीं होता, जिसकी कविताओं में बिंबों का संश्लिष्ट अंतर्गुम्फन वैचारिक सघनता लिए कल्पना के नवाचार के साथ उपस्थित हों, भाषा और रूपाकार संग सच्चाई के अलक्षित पक्षों को सहज उजागर करते हुए भी जो एक दम सहज हो, जिसकी कविता किसी की कॉलर पकड़ कर विषय की ओर खींच ले, उस विरल समृद्ध सृजक कवि का नाम दिलीप चित्रे है.
अनुभवों के कवि होने के साथ-साथ दिलीप विश्व नागरिक की चेतना के भी कवि हैं जिनकी कविताएँ विज्ञान से लेकर भूगोल बदलने वाले कवियों में शीर्षस्थ नाम में आता है जो सिर्फ़ चित्रकार ही नहीं चित्रकला समीक्षक और फिल्मकार भी रहे हैं. एक चित्र में हजारों शब्दों के बराबर की भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता होती है और अगर कोई चित्रकार शब्दों की कूची से चित्र बना रहा हो तो संप्रेषित करने का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है. साहित्य और कला दोनों ही विधाओं पर समान अधिकार किसी के पास अगर हो तो इसे विरल संयोग ही कहा जाएगा.
कवि-चित्रकार दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे को पढ़ते हुए ऐसा बार-बार लगता है जैसे रंगों से एक लंबी बात-चीत का फ़लसफ़ा टुकड़ों में दर्ज है. रंगों का दर्शन बोध, उसकी व्यापकता और आपकी जिंदगी में उसकी अहमियत सब उनकी कविताओं में रची-बसी मिलती है. कविताओं से गुजरते हुए एक फिल्मकार की सूक्ष्म दृष्टि साफ़ दिखती है. काव्य पंक्तियों की रागात्मकता के कारण उनकी संगीत की बेहतरीन समझ और संपादक होने के कारण शब्दों की कसावट में बराबर का संतुलन साफ़-साफ नज़र आता है. यायावरी का छौंक लेखनी में तब दिखता है और तब जगत और आत्मा दोनों को एक साथ साधती तस्वीर कविता के बिंब में उभरती है.
जिनके घर का दरवाज़ा ही ख़ुद कैनवास हो उनकी कविताओं की दुनिया में प्रवेश करना कितना दुरूह और दुर्लभ रहा होगा पर हिन्दी भाषियों के लिए इसे सच कर दिखाया तुषार धवल ने, जो समकालीन कविता के प्रमुख स्वर और जाने माने कवि चित्रकार, कलाकार और फोटोग्राफर भी हैं. जिन्हें स्वयं अनुवाद के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला हो, उनकी कविताओं को अनुदित करने का अदम्य साहसिक प्रयास है यह संग्रह.
हर किताब के बनने की अपनी प्रक्रिया अपनी यात्रा होती है. एक गैर-मराठी जिसे मूल भाषा की वैसी समझ पहले नहीं रही हो वह अनुवाद के व्याकरण में उतर जाए तो यह सच में काबीले तारीफ़ बात है. उसके हठ और मित्रों की मदद के संग कैसे यह पुस्तक अपना आकार लेती है इसे समझना भी कम रोचक नहीं है. दो खंडों की किताब का शीर्षक `मैजिक मोहल्ला’ क्यों रखा इसके एवज में तुषार इसे मार्केज की `मैजिकल रियलिज्म’ से जोड़ते हुए कहते हैं यह इस मैजिक से अलग है पर असर में बिल्कुल वैसा ही है. कविताओं में जीवन जगत आत्मा और उनमें चल रहे अंतर्द्वंद्व की प्रतिगूंज मिलेगी आपको. इस गूंज के बीच अनश्वर के प्रति उनका कौतूहल भी अचंभित करता है.
इन प्रतिगुंजों में न खोते हुए एरोटिसिज्म लिए बिंबों का अनुवाद करना कितना कठिन रहा होगा यह कविताओं से गुज़रते हुए समझा जा सकता है. ख़ासकर जब `शक्ति की प्रार्थना’ या `खण्डोबा’ जो उनकी कविताओं का उत्स यानी ऐपिटॉम है, जैसी कविताओं से आप गुजरते हैं तो अनुवाद की गहराई और उसकी प्रक्रिया में निहित जटिलता को समझा जा सकता है साथ ही कैसे तुषार ने उन कविताओं को डिकोड किया होगा यह भी आश्चर्य का ही विषय है.
अदम्य जिजीविषा, अपार आशा के संग जिज्ञासा, निरुपायता से मुक्ति, विकल्प की तलाश और फिर दृश्यों में तुमुल के नेपथ्य में लटकता दामुल कविताओं से गुजरते हुए प्रत्यक्ष दिखने लगता है. वैसे दृश्यों के कोलाज में फैलती आँखों में जो चीख समा जाती है उसे रच देने का अदम्य साहस दिलीप चित्रे की कविताओं में देखा जा सकता है.
इस किताब को मराठी हिंदी मैत्री परम्परा की नाव को आगे ले जाने वाली पतवार की तरह भी देखा जा सकता है. इन कविताओं में इस अंधेरी समय की फैलती तिमिर को सपनों के उजाले कैसे हटाते हैं देखा जा सकता है. इन कविताओं से गुजरते हुए शब्दों का उपयुक्त प्रयोग जो किसी एक भाषा में ख़ुद को न बाँधे, ऐसे प्रयोग जो भाषागत वर्जना के बाहर हैं, बार-बार मिलेंगे. अस्तित्ववाद की कविताओं को रचते हुए भी दिलीप चित्रे अस्तित्व में दर्शन और अस्तित्व का दर्शन दोनों के बीच के संतुलन को साधते रहते हैं. यहाँ `सेल्फ’ और `आत्मा’ का अंतर और साफ़ दिखलाई देता है.
खंडोबा कविता का यह अंश प्रस्तुत है इन बातों को और बेहतर तरीक़े से समझने के लिए.
“फोड़ती हुई दर्शनों के असाध्य फोड़ों को
तब वे सारी स्त्रियाँ मिल कर तुम्हारे लहूलुहान दिमाग़ का पान करेंगी
वे ग्वालिनें बन जायेंगी
वे हताशा के दूध में नहलायेंगी तुम्हें
तब कोई माया मानवीय दया का दूध नहीं उड़ेलेंगी तुम्हारे अकेलेपन पर
तुम एक नग्न कृष्ण हो जाओगे पिघलते पिघलते”
आगे लिखा है –
“हे लिंगविहीन अंधेरों के द्विदल गुणसूत्र
जग को नहीं चाहिए, अपना नक्शा
अब पृथ्वी का पृष्ठ उलट दो
और डाल दो लंगर उसके कौमार्य में
उसके कपाल पर तिलक लगा दो
शब्द का”
इन कविताओं की एक-एक पंक्तियाँ हथौड़े की तरह गिरती हैं और धरती की तरह मन का अंतस हिलता रहता है. लगता है कविताएँ ऐसी कड़वी सच्चाई का असीम घोल है जो तृष्णा की तुष्टि नहीं करती अपितु बढ़ाती ही है. ऐसी कविताओं का अनुवाद करते हुए तुषार कितने ध्यान मग्न परकाया प्रवेश की स्थिति में रहे होंगे यह कल्पना से परे है. कविता की आत्मा में प्रवेश करके ही ऐसा अनुवाद संभव है. कविता की कोशिकाओं तक पहुँचना चेतना के सबसे गहरे तह को छू लेना ही तो है.
“या तो तुम कवि हो, या नहीं हो, बीच की बात नहीं होती है. इस बात को ईमानदारी से स्वीकार कर लो. ख़ुद भी बचोगे और कविता को भी बचा लोगे.”
एक कवि अपने स्वर, अपने लहजे में अपनी बात कहता है, दूसरों की नहीं. और कविता निष्कामता में ही जीवित रहती है. यश, पुरस्कार प्रशंसा की इच्छाएं हत्यारी इच्छाएं हैं.
शब्द, शिल्प, कोलाहल या खलबली मचाने वाले वाक्य विन्यास और कथ्य को कविताओं के आकार के अनुसार ढालने की विशिष्ट कला रखते हैं दिलीप चित्रे. सिरजते हुए वो आपको अपनी दुनिया में ले जाते हैं जिस दुनिया में उनका बचपन, उनका शहर, अध्यात्म और उसमें निहित आत्म संवेदनाओं की सघन अभिव्यक्ति मिलेगी. कवि मिथकों को अपने सृजनात्मक कृतित्व का अभिन्न अंग मानता है. भारतीय के साथ-साथ यूनानी मिथक को भी काव्य केंद्र में आप पायेंगे.
कविता के साथ-साथ टुकड़ों में कई संस्मरणात्मक आलेख हैं जिसे तुषार ने यादों के बियाबान में जाकर स्मृति की वीथियों की सुरंग में भटकते हुए लिखा है. यहाँ उन सब बातों का जिक्र है कि वो कैसे दिलीप चित्रे जी से मिले, कैसे उनके प्रभाव में उनके अंतस् पर दिलीप जी स्ट्रोक्स चलाते रहें, कैसे साहित्य कला संस्कृति और दर्शन का छौंक तुषार के व्यक्तित्व पर प्रभाव बनाता रहा. अनुवाद के बारे में दिलीप चित्रे का कहना था कि
“भाषा के बदलते ही कविता बदल जाती है. पर कुछ होता है जो नहीं बदलता.”
ये सारी बातें तुषार के दिल में बैठ गईं जिसका सीधा असर इन अनुदित कविताओं में देखा जा सकता है. उनकी यह बात ने तुषार के लिए कविता के नये रास्ते खोल दिए.
“Do all it takes to be and remain a poet; but don’t ever be a Sunday Poet! A poet is always Alive and Present, a poet always “IS”!
एक बात जो इस अनुवाद को और ख़ास बनाती है वह है तुषार ने दिलीप चित्रे की लयात्मकता को अनुवाद करते हुए कहीं नहीं छोड़ा है. चूंकि दिलीप चित्रे अपनी कविताओं में एक धुन एक संगीत छिपाये रचते हैं जिन्हें डिकोड करना इतना आसान नहीं रहा होगा. रहस्यवाद से शुरू होती कविता कब लोक की धरती पर यथार्थ के काँटे चुभो देती है पता नहीं चलता पर इसी चुभन को अनुवाद में बनाए रखना भी एक अद्वितीय कला है जिसे तुषार ने बखूबी पकड़ कर रखा है.
कम लोगों को पता है कि भोपाल गैस त्रासदी का असर दिलीप जी के पुत्र के फेफड़े पर पड़ा था और उनकी असमय मृत्यु 2003 में हुई . इसका असर कवि की अपनी मनोदशा पर भी पड़ा. रहमान, सलमा और मैं सीरीज की सारी कविताएँ जैसे भोपाल त्रासदी के बीच प्रेम और मृत्यु के आपसी खेल प्रसंगों का दस्तावेज है. एक त्रिकोण बनाती कहानी को अंश दर अंश टपकते शहद को चखते हुए इत्र और फिर ख़ून के स्वाद में बदलने की दास्तान. इन दास्तानों को सुनने के लिए लोहे के कान चाहिए जो मेरे नहीं हैं और अल्लाह को आवाज़ देकर थोड़ी देर को यहाँ विराम देना चाहता हूँ. पर कविताएँ हैं कि चैन नहीं लेने देती जैसे दर्द का चस्का है शेर को ख़ून की लत लग जाने जैसी और ये कविताएँ ऐसी की मस्क को कभी अमृत तो कभी मुक्ति का आभास कराने वाली.
कविता महानगरीय एवं विदेशों में बिताए अनुभव को प्रमुखता से केंद्र में रखते हुए लिखा गया है.
“एक नयी कौंध देखने को
मैं फिर से उजड़ जाता हूँ”
“जैसे
वह कोई पहाड़ नहीं है.
यह ख़ुद रोशनी है.
और मैं मूर्ख हूँ
जो इस पर चढ़ने की हिम्मत करता हूँ”
या
“वह आ गया है
पहाड़ पर
पृथ्वी
सिर्फ़ एक क्षण की
विराम स्थली है उनकी
जिसे कोई पानी प्रतिबिंबित नहीं करता”
ओह असंभव सी पंक्तियाँ तुम्हें पढ़ने का सुकून आसन में लीन साधना का सुकून-सा लगता है. मृत्यु को पढ़ते हुए भी अंतः शांति बनी रहे जैसे. कविताओं के नेपथ्य में एक संगीतज्ञ ध्यान मग्न दिखेगा. वो षड्ज और ऋषभ की बात करते हुए तुम्हें समग्र सप्तक तक ले जाकर शून्य के संगीत के बीच निर्विकार छोड़ देगा जहाँ मृत्यु से दो आँख करने की जगह शेष बची है ठीक वहाँ उसे तुम महसूस करोगे. वे कहते हैं-
“मृत्यु एक एकल सवारी है.” और कैसे मृत्यु अपना शटर दबाती है और कैसे फ़्लैश मुसकुराता है बिना देखे. और फिर आगे कवि कह उठता है:
“मैं उस विस्फोट के केंद्र में
होना चाहता हूँ
जो मेरी धज्जियां बिखेर दे”
और फिर कहीं और आगे जाकर कवि कहता है
“पूरे अस्तित्व पर विश्व का रोमांच
बिना हस्ताक्षर का करार
यह आरपार एक मध्यम में
मिलकर हुआ केदार”
कवि को पता है कि नंगे होने के लिए आईने की जरूरत नहीं. इन कविताओं में ब्रह्मज्ञान, बौद्ध वाणी, सम्पूर्ण सच क्रम वार सब की झलक मिलती है और पढ़ते हुए पाठक साधक में बदल जाता है. कवि निहार सकता है गायत्री का अंतस और ब्रह्मा की सुई की आँख जिसमें निपुणता से डाली गयी है एक डोरी जिसे सोच की आख़िरी सीढ़ी तक ले जाता है कवि और गढ़ देता है यथार्थ की कड़वाहट में डूबी कूची से निराकार को आकार देते हुए भयानकतम सच से लेकर मार्मिकतम वितान का चंदौवा दिखेगा जिसके नीचे सुकून और बेचैनी करवट दर करवट आपको कविता के, जीवन के, अलौकिकता के, मोक्ष के और करीब ले जाती दिखेगी.
वह पागल देखता है आवाज़ों को सूर्य-हुई आँखों से…
आगे लिखा है
वह पागल देखता है पंछी …उड़ते… फड़फड़ाते
और इस फड़फड़ाहट में उसकी आँखें डूब जाती हैं
कई बार कविताओं से गुजरते हुए लगा मृत्यु से संवाद करती पंक्तियों से गुज़र रहा हूँ. देह, इन्द्रियाँ और उनकी संवेदनाओं को प्रेषित करते हुए भावनात्मक, बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर जीवन की घनीभूत उपस्थित को उसके पूरे खुरदरेपन के साथ कविता के कैनवास पर उतारने का अदम्य साहस दिलीप चित्रे अपनी अलग विरल शैली में करते दिखते हैं. यहाँ कवि जीवन की त्रासदियों से गुजरते हुए भी कविता की रागात्मकता को बचाने में सफल दिखता है .
“निमित्त के दरवाज़े अचानक खुलते हैं लिखने के लिए”
कितनी बड़ी पात्रता और कितनी गहरी समझ की ज़रूरत है इसे लिखने के लिए. कैसे कोई इतनी आसानी से लिख सकता है.
“कितने ही स्वरों ने अलग किया है दिशाओं की परत को आधी-आधी मिल गयी हैं कितनी बार परछाइयाँ…”
और इन दर्शन भावों को रचते हुए कवि रच देता है प्रेम-राग और लिखता है
“निमित्त के दरवाज़े अचानक खुलते और बंद हो जाते हैं
और इसलिए हम मिले और हमारे पीछे
सभी दरवाज़े अदृश्य हो गए… हम साथ रह गए
निराधार, विस्मित हमने थामा एक-दूसरे का हाथ
और वही रहा हमारे हाथ में… जीवन बीत गया!”
प्रेम और मृत्यु दोनों को केंद्र में रखता है कवि और अद्वैत की ओर सफ़र करने निकल पड़ता है. ऐसी भाषा जहाँ एक योगी प्रेमी भी है और संभोग से समाधि तक जाने का रास्ता अख्तियार भी कर रहा है.
“मृत्यु से भी निश्चित हैं आज मेरे होंठ तुम जिसका चुम्बन
फूलों के पक कर
झरने में उगेगा तुम्हारा ही अवकाश रहस्य”
या
“स्वरशून्य खोखलेपन में मेरी ही चीख गिरी मुझ पर
यह सबूत था कि ब्रह्मांड की भी सीमाएँ हैं.”
या
“मैं सचमुच स्मृतियों के मध्य तक चलता चला गया हूँ
दो शब्दों के बीच की जगह में… शांति में.”
ऐसी कविताओं की पंक्तियों से गुजरते हुए महसूस होता है कि अंतरिक्ष एक पन्ने में कैसे उतर आता है. पढ़ते हुए लगता है कि कितना कुछ पढ़ना अभी बाक़ी है. जिस प्यास की तृष्णा आपको यहाँ ले कर आयी उसने ही आपके सामने पूरा रेगिस्तान खड़ा कर दिया है जबकि उसके पार समंदर की डुबकी अभी बाकी है. उसी डुबकी के लिए कविताओं को यूँ पढ़ रहा हूँ जैसे हर बार एक ओएसिस को पार कर लिया अब थोड़ा और क़रीब हूँ अपने समंदर से.
दर्शन और प्रेम का ऐसा सुंदर मिलन ऐसा विरल संतुलन कम ही देखने को मिलता है.
“आँखों के खुलने भर में
एक कविता ख़त्म और दूसरी शुरू होती है
वहाँ होना चाहिए था तुम्हें हमेशा के लिए”
कवि की दृष्टि अदेखे को देख सकती है. अबोले की बात कर सकती है. अनजाने की पहचान कर सकती है. वह सीप के भीतर कराहते सागर का अंतर्नाद भी सुन सकता है.
“कवि यूँ नहीं कह रहा पत्थर पर झुर्रियाँ हैं
युगों-युगों की स्मृतियों की
भीतर भविष्य के लावे का उबलता आवेग.”
आगे लिखते हैं-
“झुर्रियाँ पड़ते ही पत्थर हो जाता है गहरा रहस्य
मेरे जन्म का जामुनी रहस्य
मेरी नींद की शर्मसार रेत और फिर लिखते हैं-
अनजाने
अदृष्ट
मन में कौन से क्षण चूते हैं
रहस्यमय धुंध से या फिर यह भी लिख देते हैं”
“उसकी कृपा उसका कोई निशान नहीं छोड़ती
उस्ताद अपने काम के भीतर ही मौजूद होता है
बाख और तुकाराम अभी भी मेरे मानक हैं
मेरी पीड़ा के उल्लसित बीज”
पढ़ते हुए कई बार लगता है कवि ख़ुद से बातें कर रहा है और फिर अगले पल अपनी लेखनी में पल भर में समय से बातें करते हुए कवि काल से बातें करने की यात्रा को रच देता है.
“शब्द. और भी शब्द. दोपहर में शहर की गलियों-सा साफ़.
मैं उसी दुनिया का और भी अधिक विकृत रूप छोड़ जाऊँगा.
मेरे अपने शोर के लिए अधिक संपन्न.”
अरुण कमल ठीक ही कहते हैं
“दिलीप चित्रे भारतीय कविता की उस धारा के प्रतिनिधि हैं जिसने आधुनिकतावाद एवं देशज परंपराओं का संयुक्ताक्षर बनाया और अपने समय को, जो एक साथ वैश्विक और भारतीय है, बिल्कुल नये मुहावरों, बिंबों तथा लयों में व्यक्त किया.”
कवि ने जब भी मृत्यु को खंगालने की कोशिश की उनका वितान वृहत्तर होता चला गया. जीवन का गहन मनन करते हुए सिराजा है मृत्यु पथ को. दार्शनिक होते हुए यथार्थ की ज़मीन पर बोयी हुई कविता रची है.रचते हुए दर्शन भाव में ही आगे कहते हैं
“नंगे बनो उस जीभ की तरह जिसे दुनिया का कोई स्वाद नहीं ढँक सकता है”.
इतनी बड़ी बात को एक रूपक और एक अनूठे बिम्ब के सहारे इतनी आसानी से रच देने की कला के कायल हो जायेंगे आप इन कविताओं को पढ़ते-पढ़ते.
“यह जादू ख़ुद भी लड़खड़ाता है और चढ़ती ही जाती है
यह बाढ़ बावजूद इसके कि बारिश का नामोनिशाँ नहीं है
वे मिथकीय किनारे भुरभुरा कर गिर रहे हैं अब
जैसे-जैसे दवाब चढ़ता जाता है किसी आकाश की तरफ़
जो कभी स्रोत था और आश्चर्य
अब एक अखंड कब्र है”
“मैं जवाबदेह नहीं हूँ
अपने परम आनंद के लिए”
भाव को यूँ बेलौस व्यक्त करने की अद्भुत कला थी इस कवि में जो बहुत आसानी से लिख देता है कविता ‘और शायद मैं झिड़क दिया जाऊँगा’ एक चिंतामुक्त स्टेटमेंट के साथ. कवि की दृष्टि ऐसी भी है जो `चित्रकार’ कविता के माध्यम से चित्रों की आँख से चित्रकार को देखता है.
यही वो दृष्टि है जो इस कवि को हुजूम से बिल्कुल अलग विरलता प्रदान करती है. वह समुंदर पार की ध्वनिहीनता को साथ लिए सकारात्मक कल्पनारत्त है.
बेजुबानों और दृष्टिहीनों की संवेदना का वाहक है ये पंक्तियाँ. कवि विवेक में होते छेद को देख सकता है. वह शहर की खोती हुई निशानियों से लेकर धरती की खोती हुई स्मृति के लिए भी उतना ही चिंतित है, जो यह समझता है कि शून्यता और घनत्वता खाली होकर भी भयंकर ढंग से ठोस है. वह मृत्यु को प्रेम की नज़र से देखता है और जीवन को मृत्यु की नज़र से. विडंबना के उस क्षण को अपने कैनवास में उतारता है जहाँ हँसने और रोने के माने एक हो जाते हैं. जहाँ उल्लास के पीछे का कुहासा घना है. जिसकी पीपलियों के पीछे बंद है सपनों की चिड़ियाँ बेपंख. जहाँ कवि की कल्पना, दृष्टि और भाव यथार्थता से ओत-प्रोत मिलकर रंगों के निर्वात को चिह्नित कर रहे हैं. कवि का मानना है कि खोजने के उल्टे रास्तों में चलने वाला और कोई नहीं कवि ही होता है.
दिलीप चित्रे की कविताओं में यौनानुभाव, प्रेम और संभोग यह सब संदर्भों, बिंबों और कुशल कथ्य के सहारे आता है जो क्षण भर की असहजता के बाद पूर्ण सहजता प्रदान करता है. आप पायेंगे कि इस असहजता से सहजता की दूरी में इन्द्रियबोध से अलौकिक बोध की दूरी तय की जा रही है और इसी रास्ते पर चलकर कवि ऐंद्रिक संवेदना के माध्यम से विश्वबोध को भी तलाश रहा होता है. ऐसा करते हुए कई बार लगता है ओशो ने ज़रूर इन कविताओं को पढ़ा होगा. पढ़ते हुए उन दोनों के दर्शन की पृष्ठभूमि में कई बार समानता दिखी मुझे.
यहाँ तुकाराम और ज्ञानेश्वर का भी उनकी रचनाओं पर असर दिखता है परंतु दिलीप की शैली उसे उन सबसे अलग रखती है. यह मामला कविता में देह और छाया की तरह है. यहाँ देह अपना आकार नहीं बदल रहा बल्कि प्रकाश और अंधकार के खेल में छाया अपना आकार बदल रही होती है जो देह की होकर भी देह से भिन्न है. कवि अस्तित्ववाद और क्षणवाद में आसानी से विचरण कर लेता है और आसानी से लिख देता है:-
“जैसे अपने फटे
शरीर का चप्पल निकाल कर रखता हूँ
तुम्हारी जननेंद्रियों की चिता पर”
(सिम्फनी तीसरी)
या
“पकते हुए मांस की गहरी गंध में
मैंने अंधाधुंध चाटा तुम्हें
भोग की जीभ और भय की उँगलियों से”
“अब मैं पाता हूँ कि प्रेम ने मुझे कुछ नहीं सिखाया
मैं ख़ुद से ही मुक्त नहीं हो पाता हूँ
मेरे संवेग हिंसक पशु हैं बिना जंगल के
मेरी आत्मा एक पंछी बिना आकाश के”
“कठिन समय में सच भी कठिन हो जाता है और उसे किसी आसान तरीके से समझा-कहा-खोजा नहीं जा सकता.”
यह कहते हुए कवि व आलोचक अशोक बाजपेयी दिलीप चित्रे की कविताओं को उनके काव्यशिल्प में इस दुहरी कठिनाई से जूझता शिल्प मानते हैं जिसे सच की प्रमाणिकता अधिक प्यारी है. जिनकी कविताएँ उन्हें कई बार जगत् समीक्षा और आत्मसमीक्षा दोनों ही एक साथ लगता है .
लिखते हैं:
“यह एक वैश्विक
आपातकाल है. लेकिन कोई भी ईश्वर
समय पर नहीं आता है.”
और फिर आगे नाश्ता सीरिज की कविताओं में लिखते हैं:
“सिर्फ़ हमारी आत्माएँ ही
वे झुग्गियाँ हैं
जो साफ़ नहीं हो पायी हैं
अब तक.”
`इथिओपिया में’ कविता में एक जगह लिखा है. “ढूँढ़ता हूँ दोमुहे रूपक का खंजर जो प्रथाओं की छाती में धँस कर मुड़ जाये”
कवि चिंतित है अपने बचपन के घर को याद करके . उसकी स्मृतियाँ बहुत सघन है बस जगहों का नाम बदल गया है. नाम को अस्तित्वविहीन होते देखते हुए वह रच रहा है दुर्लभ स्मृति रंजक कविताएँ जैसे `मेरे बचपन का घर’ और ` चित्रे का वाड़ा, खारीबाब रोड, बड़ोदा’ या फिर `ग्रुप फोटो’.
दीमक लगे चेहरों के भाव को शब्द देने की हिमाक़त करता है कवि और लिखता है:
“कैमरे की लैंस में एकटक आँख गड़ाये है मरे लोगों का यह ग्रुप
और उन्हें ` स्माइल प्लीज’ कहने की सुविधा नहीं है मेरे पास”
इस श्रृंखला की कविताओं को लिखते हुए वह याद करते हैं अपने कई विदेशी लेखक मित्रों को, कालिदास को, गुरुदत्त को और तरह-तरह से याद करते हैं जन नायक जे.पी को. पाटलिपुत्र पर कविता लिखने वाले इस मराठी कवि की भाषा और परिवेश की समझ अद्वितीय है. इस कविता में आपको हर बार आश्चर्य में डाल देगा कवि बार- बार लिखकर `का करेगा’. ऐसा नहीं है कि इस व्यंग्य को सिर्फ बिहारी जन ही समझ सकते हैं.
इस संग्रह की कविताएँ कई पाठ की माँग करती है. इन कविताओं को इतनी आसानी से अपने कंठ में उतारा नहीं जा सकता. ये कविताएँ विष के उस रूप को धारण किए है जिसे विष उतारने के काम में लाया जाता है. दुख की ऐसी व्यंजना,ऐसा विवरण,ऐसा वृतांत पढ़ने को मिलना भी एक अनोखा सुख है.
“दुःख, दुःख की घड़ी है
एक शताब्दी से भी सपाट
मैं क्यों बोलूँ लाखों लोगों के लिए
जबकि दुःख, जैसा मैं जानता हूँ,
मौन है अकेले आदमी-सा
और उसकी आवाज़ ईश्वर की सी रूखी है:
दुःख, जैसा मैं जानता हूँ,
सब उलट कर रख देता है.”
जयप्रकाश नारायण को केंद्र में ही रखकर आगे लिखते हैं:
“हिंदुस्तान भर में गीदड़ रोते हैं जंगल बियाबान में
निर्बन्ध और अभद्र हो चली शांति में
एक सफेद चादर तले फिर से सो गया है इतिहास
तब भी तुम्हारा शव अमिट चैतन्य…”
आगे कालिदास को याद करते हुए लिखते हैं:
“और बुद्धिमान साथी, कुछ कविताएँ दे दो मुझे पढ़ने के लिए:
क्योंकि कविता पढ़ना हमें ख़ुद ईश्वर बना देता है .”
`खो चुके पुत्र के लिए अधूरा शोकगीत’ रचते हुए कितना तड़पा होगा कवि. ऐसा लगता है तड़प की पकड़ से सुकून की धूप सेंकने के लिए लिखी होगी उसने यह कविता. अपने बच्चे को साँस के लिए संघर्ष करते देखना आग पर बैठने जैसा ही तो है. तारे को बुझने से पहले तक देखना ख़ुद को भस्म होते देखना ही तो है. वहाँ दिखता है संकेतों से पराजित पिता, समय को ज़हर के कण बरसाते बादल सा देखता पिता, झुलसी हुई बगिया में पीड़ा का पेड़ उगते देखता पिता, आग को फिर राख में बदलते देखता पिता. दिलीप चित्रे मैं तुम्हारी इस असहनीय पीड़ा को नमन करता हूँ.
जीवन के अंतिम क्षणों में लिखी कविता लगेगी जब आप पढ़ेंगे कविता `चित्रे’. मोक्ष प्राप्ति की प्रार्थना का भी उनका अपना तरीका है.
“वह थक गया है
सोना चाहता है
स्वप्न देखता हुआ ना शुरुआत का, ना अंत का
अपनी हड्डियों को आराम दे कर, होंठों पर कोई प्रार्थना नहीं
उसकी कलम शिथिल, स्याही सूखती हुई
उसकी आँख खुलती हुई परम आकाश पर …”
“उस पर दया करो, हे परेशान पूर्वजों
क्रोधित समकालीनों, विचलित प्रियजनों
दिलीप निवृत होना चाहता है अकीर्तित
जहाँ प्रभु ख़ुद अपना अँगूठा चूसते हैं .”
दर्शन भाव का चरम रचते हुए आगे कवि लिखता है:-
“हज़ारों फूलों का अर्क लेकर बना है
यह मृत्यु का इत्र .
पर मरे हुए आदमी को
कोई महक नहीं आती .”
बड़ी कविता को पढ़कर ऐसी ही शून्यता छा जाती है जैसा आप अभी महसूस कर रहे होंगे. आगे की पंक्तियाँ पढ़कर तो भीतर की हड्डियों में भी सिहरन आ जाएगी जब आप पढ़िएगा
हज़ारों आत्महत्याओं का अर्क लेकर
बना है यह मृत्यु का इत्र .
आजकल तो जीवितों को भी
कोई महक नहीं आती है .
और याद में लिखे गीत रह जाते हैं
“forgetfulness is what I cultivate”
इसी शून्यता को महसूस करते हुए मैं दिलीप चित्रे की स्मृति छाया को नमन करता हूँ और आप सभी से इन कविताओं से गुजरने की अपील करता हूँ जिनका उपयुक्त भावानुवाद करके तुषार धवल ने हम सब को यह सुविधा प्रदान की है ताकि हम हिन्दीभाषी दिलीप चित्रे की विरल कविताओं का आस्वाद ले सकें और अपने प्रिय कवि की उस तिलिस्म अबूझ अजाने दुनिया में प्रवेश कर सकें.
मैजिक मुहल्ला
अनुवाद: तुषार धवल
भाग एक और दो (प्रत्येक की कीमत 695) (संस्करण – २०१९)
प्रकाशक
वाणी प्रकाशन दिल्ली
![]() 21 अगस्त, 1976 को मुंगेर (बिहार) ‘अन्तस की खुरचन’, ‘आविर्भाव’ (कविता-संग्रह) तथा बोरसी भर आँच (कथेतर) प्रकाशित. |
मुझ जैसे अनियमित पाठक के लिए दिलीप चित्रे का नाम अनजाना नहीं है । जनसत्ता में पढ़ा । इस आलेख में शब्दों का चयन और इन्हें मिलाकर बनायी गयीं पंक्तियों झँझोड़ती हैं । डायरी में लिखने से बेहतर है कि समालोचन का लिंक भेजकर छपवा लेता हूँ । एक जगह सुन्नता लिखा है । कहीं शून्यता तो नहीं लिखना था ।
यतीश जी के पास खूबसूरत language है, और उन्होंने मैजिक मुहल्ला की समीक्षा को संभव किया, यह बड़ी बात है. अर्धसत्य फ़िल्म में गोविंद निहलानी ने उनकी कविता का बढ़िया प्रयोग किया था…उस कविता को बहुत दिनों तक ढूंढता रहा…बहुत बाद में जाकर एक मित्र के प्रयास से हासिल हुई वह कविता….मैजिक मुहल्ला के भी दोनों खंड पास है… दिलीप चित्रे भारतीय भाषा के श्रेष्ठ कवियों में हैं, उन पर हिंदी
में और लिखा होना चाहिए. यतीश जी और अरुण जी को आभार कि सुबह-सुबह दिलिप चित्रे की कविता को डीकोड करने का एक मौक़ा यतीश जी ने मुहैया कराया ….
Tushar Dhawal Singh ने प्रिय कवि के अनुवाद के लिए भाषा सीखी? ऐसा समर्पण विरल है।
मैं भूल चुकी थी कवि का बेटा 1984 के गैस काण्ड की चपेट में आया था, हालांकि मैं इस हादसे के कुछ ही समय बाद बतौर एक्टिविस्ट भोपाल पहुंच गई थी लेकिन उन दिनों पीड़ितों की बस्तियों के आसपास ही रहती थी।
यतीश कुमार ने इन खण्डों को कितने प्रेम और लगन से देखा है!!! उम्मीद करती हूँ ये खण्ड उपलब्ध हो सकेंगे।
यतीश जी ने बेहद संलग्न आत्मीयता के साथ दिलीप चित्रे जी के कृतित्व से परिचित कराया है। दार्शनिक चिंतन से भरपूर उनकी कविताएं लेखक की भावविगलित टिप्पणियों के साथ अर्थव्यंजनाओं को दूने वेग से संप्रेषित करती हैं।
दिलीप चित्रे की कविताओं के अनुवाद हिन्दी में तब भी कम आते थे जब उनकी अंग्रेज़ी कविताएँ इलस्ट्रेट वीकली में छपती थीं। मराठी में अपनी जुडों से उनका जुडाव कितना गहरा रहा- इसका प्रमाण अभंगों का अंग्रेजी अनुवाद है। तुषार धवल उनकी कविताओं को विपुल संख्या में हिन्दी में लाये, यह हमारे लिए एक बड़ी खबर होनी चाहिए थी। इन अनुवाद संकलनों की उपेक्षा हमारे दारिद्र की द्योतक है। अनुवाद रजा फाउंडेशन के सौजन्य से छपे है, तो उनकी प्रामाणिकता संदेह से परे है। असल में हम अनूदित पुस्तकों को समीक्षा से लगभग बाहर मानकर चलते हैं। तुषार धवल का यह काम हिन्दी को और समृद्ध करने की दिशा में छोटा ही सही योगदान है। इसे समालोचन और यतीश कुमार ने रेखांकित किया, जोकि बहुत जरूरी था।
दिलीप चित्रे की कविताओं के अनुवाद पर यतीश कुमार का बेहद अच्छा और चिंतनपरक आलेख। दिलीप चित्रे की अत्यंत मार्मिक, गहन आध्यात्मिक कविताओं से एक बार फिर से गुजरना।