व्यवस्था और न्याय की कश्मकश |
यहाँ से आगे
7.
भरत का फैसला और बुद्ध-तथागत का जिक्र
रामायण की कहानी शुरू से अंत तक ऐसे निर्णायक बिंदुओं से भरी है, जहाँ किसी के आवेग से चीजें तहस-नहस होती नजर आती हैं, लेकिन एक बड़े दृष्टिकोण के साथ किया गया कोई फैसला उन्हें उलटी दिशा में लेता जाता है. यहाँ एक छोटे से, कम चर्चित प्रसंग पर चर्चा करना अच्छा रहेगा, जिससे रघुवंश के एक पहलू पर प्रकाश पड़ता है. अयोध्याकांड में राजा दशरथ के सारथी और महामंत्री सुमंत्र कैकेयी को समझाकर हार जाते हैं तो राजा उनसे कहते हैं कि चतुरंगिणी सेना और बहुत सारा धन-धान्य राम के पीछे रवाना कर दिया जाए, ताकि वे वन में ही आनंद से रहें-
निघ्नन् मृगान् कुन्जराम् च पिबमः चारण्यकम् मधु I
नदीः च विविधाः पश्यन् न राज्यम् संस्मरिष्यतिII 2-36-6
भरतः च महा बाहुर् अयोध्याम् पालयिष्यति I
सर्व कामैः पुनः श्रीमान् रामः संसाध्यताम् इतिII 2-36-9
‘हिरन और हाथी मारेंगे, जंगली शहद पीएंगे, कई तरह की नदियाँ देखेंगे, राज्य को याद भी नहीं करेंगे. … महाबाहु भरत अयोध्या का पालन करेंगे और राम की भी सारी इच्छाएं पूरी होती रहेंगी.’
जवाब में कैकेयी बहुत ही क्रुद्ध होकर कहती हैं कि इस उपाय से तो धन और प्रजा से खाली हुई अयोध्या बिना नशे की शराब जैसी हो जाएगी, भरत उसे स्वीकार नहीं करेंगे. (2-36-12) राम को यहाँ से उसी तरह जाना होगा, जैसे आपके वंश में राजा सगर ने असमंज नाम से प्रसिद्ध अपने ज्येष्ठ पुत्र को बर्तन-भांड़े और पत्नी के साथ सदा के लिए निष्कासित कर दिया था.
जवाब में दशरथ के दूसरे मंत्री सिद्धार्थ कैकेयी को सगरपुत्र असमंज का किस्सा विस्तार से बताते हैं. यह कि उनका दिमाग ठिकाने पर नहीं था. ‘हमारे बच्चों को पकड़कर वे सरयू नदी में फेंक देते थे.’ लोगों ने शिकायत की तो राजा सगर ने उन्हें देशनिकाला दे दिया. बाद में उनके जहाँ-तहाँ घूमने, कुदाल-टोकरी लेकर पहाड़ी दर्रे खोदते रहने की खबरें आती थीं. ‘सुधार्मिक राजा सगर ने पुत्र को इसलिए छोड़ा. राम ने क्या पाप किया है जो उन्हें छोड़ दिया जाए?’
इति एवम् अत्यजद् राजा सगरः वै सुधार्मिकः I
रामः किम् अकरोत् पापम् येन एवम् उपरुध्यतेII 2-36-26
इस प्रकरण से हमें पता चलता है कि ज्येष्ठ पुत्र को ही राज देने की परंपरा कभी भी उतनी आसान और निर्विवाद नहीं हो सकती थी, जितनी यह अतीत के किस्से पढ़-पढ़कर आज लगने लगी है. राजा का ज्येष्ठ पुत्र दिमाग से ढीला भी हो सकता है. यानी राज मिलने की वजहें पैदाइश के अलावा भी हो सकती हैं. पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिता-पुत्र जोड़ियों की जो सीधी रेखा ‘रघुवंशम’ में कालिदास ने खींची है, वैसी कोई अप्राकृतिक चीज वाल्मीकि के यहाँ नहीं दिखती.
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में बुद्ध-तथागत को चोर की तरह दंडनीय बताने वाले राम-वाक्य पर चर्चा 1990 के दशक में भगवान सिंह ने शुरू की. एकबारगी यह अकारण आया हुआ लगता है लेकिन इसका प्रसंग स्पष्ट है. वनवास के प्रारंभ में ही भरत के साथ चित्रकूट गए मुनि जाबालि राम को घर लौटकर राज संभालने को कहते हैं. ‘वनगमन का आदेश करने वाले राजा दशरथ तो रहे नहीं. आदेश कराने वाली रानी कैकेयी भी अपनी बात से हट चुकी हैं.’ यहाँ आम समझाइश से आगे बढ़कर अपने तर्क को वे चरम बिंदु तक खींच ले जाते हैं और कहते हैं कि त्याग-तपस्या, पिंडदान या हर हाल में वचन निभाते हुए कष्ट झेलना कोई बुद्धिसंगत बात नहीं है.
यदि भुक्तम् इह अन्येन देहम् अन्यस्य गच्छति.
दद्यात् प्रवसतः श्राद्धम् न तत् पथ्य् अशनम् भवेत्II 2-108-15
दान सम्वनना ह्येते ग्रन्था मेधाविभिः कृताः I
यजस्व देहि दीक्षस्व तपः तप्यस्व सम्त्यजII 2-108-16
स न अस्ति परम् इत्य् एव कुरु बुद्धिम् महामते I
प्रत्यक्षम् यत् तद् आतिष्ठ परोक्षम् पृष्ठतः कुरु II 2-108-17
सताम् बुद्धिम् पुरः कृत्य सर्व लोक निदर्शिनीम् I
राज्यम् त्वम् प्रतिगृह्णीष्व भरतेन प्रसादितः II 2-108-18
‘किसी को दिया हुआ भोजन अगर किसी और के शरीर में चला जाता हो तो कहीं दूर गए लोगों को भी श्राद्ध-भोज की तरह ही खाना खिला दिया जाना चाहिए. बलि, उपहार, तप और त्याग जैसी बातें ग्रंथों में चालाक लोगों ने इसलिए डाल रखी हैं ताकि लोगबाग दान-पुण्य करते रहें. इसलिए हे महामति! प्रत्यक्ष दिखने वाली सृष्टि से परे कुछ भी नहीं है, ऐसा मानकर जो दिख रहा है, उसी पर ध्यान दें और जो परोक्ष है, यानी दिखता नहीं, उसकी ओर पीठ फेर लें. यहाँ आए सज्जनों की बात पर भरोसा करें और भरत द्वारा खुशी-खुशी दिए जा रहे राज्य को अपना लें.’
जवाब में लगभग पूरा सर्ग 109 वचन की मर्यादा को लेकर जाबालि के लिए राम की फटकार जैसा है. ‘राजा और राजकुमार ही अगर अपने कौल के पक्के न रहे तो किसी की भी मर्यादा कोई क्यों रखेगा?’ रही बात जाबालि की अपनी वैचारिकी की तो बौद्ध होने की बात ही दूर, वे स्थिर नास्तिक भी नहीं हैं. डांट खाकर मुनिवर कहते हैं- ‘जो भी मैंने कहा, सब आपको प्रसन्न करने के लिए कहा था.’ नास्तिकता को लेकर अब उनकी राय यह है कि जैसे अभी उनका मन नास्तिक से बदलकर आस्तिक हुआ है, वैसे ही आगे कभी फिर से बदलकर नास्तिक हो जाएगा.
स चापि कालोऽयमुपागतः शनैः, यथा मया नास्तिकवागुदीरिता I
निवर्तनार्थं तव राम कारणात्, प्रसादनार्थं च मयैतदीरितम्II 2-109-39
तात्पर्य यह कि बुद्ध और तथागत वाली बात रामायण में क्षेपक नहीं है, जैसा अनेक रामायणी दावा करते हैं. न ही इस ग्रंथ में इन शब्दों का कोई भिन्न अर्थ प्रयुक्त हुआ है, जैसा वाल्मीकि को आदिकवि मानने वाले विद्वान हमें समझाते हैं. जाबालि के तर्क यहाँ नास्तिक समझ वाले एक दरबारी के हैं, जिसे ज्यादा से ज्यादा लोकायत परंपरा में माना जा सकता है. राम को अयोध्या वापस ले जाकर उनका मुंहलगा बनना ही उसका उद्देश्य है. दुख का समाधान खोजने के लिए बसी-बसाई गृहस्थी सदा के लिए छोड़ देने की बुद्ध परंपरा के साथ उसका कोई मेल नहीं है.
वेद, गाय और ब्राह्मण के प्रामाणिक और एकमात्र रक्षक के रूप में अपने नायक की ब्रैंडिंग के लिए वाल्मीकि या उनकी काव्य परंपरा को आगे बढ़ाते हुए किसी और कवि ने यहाँ बुद्ध-तथागत को चार्वाक परंपरा के पदार्थवादी नास्तिकों की पांत में बिठा दिया है. आगे राम अपने मृत पिता दशरथ की निंदा करते हैं, इस बात के लिए कि उन्होंने जाबालि जैसे विषमस्थ बुद्धि वालों को अपने सलाहकारों में शामिल किया, फिर नास्तिकों के साथ-साथ बुद्ध-तथागत को भी चोर बताते हुए कहते हैं कि प्रजाजनों में अगर क्षमता हो तो ऐसे लोगों को राजा से दंडित कराएं, और अगर यह संभव न हो तो कम से कम कोई बुद्धिमान व्यक्ति इनका मुंह न देखे, इनसे बात न करे.
निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं तद् यस्त्वामगृह्णाद्विषमस्थबुद्धिम् I
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम् || 2-109-33
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विध्हि I
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानाम्, न नास्तिकेनाभिमुखो बुधः स्यात्II 2-109-34
8.
विराध और ऋषि- मुनि : दो चिंतन परंपराओं का संकेत
राम का दुर्भाग्य किस तरह वनवास में भी उनका पीछा नहीं छोड़ता, भरत द्वारा रिश्तों की कीमत पर राज्य लेने में कोई रुचि न दिखाने के बावजूद कैकेयी के प्रति राम का क्रोध किस तरह बना रहता है, इसके लिए अयोध्याकांड के अंतिम और अरण्यकांड के शुरुआती सर्ग पढ़े जाने चाहिए. चित्रकूट में भरत और उनके साथ आए अयोध्या के प्रतिनिधियों की राम से मुलाकात के बाद वहाँ के आश्रमवासी बहुत परेशान रहने लगे. राम के पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके चित्रकूट आने के बाद से राक्षसों का खतरा उनपर बहुत बढ़ गया है, कुछ तपस्वी मारे भी गए हैं.
राम को यह बात तकलीफ देती है, साथ ही यह भी कि ऐसी स्वच्छ जगह घोड़े-हाथियों की लीद से कितनी गंदी हो गई है. वहाँ से वे दंडकवन में जाने का फैसला करते हैं, जिसके लिए चित्रकूट से एक थोड़ा सुरक्षित रास्ता उन्हें अत्रि ऋषि के आश्रम तक ले जाता है. वहाँ भी सारे सम्मान के बावजूद कुछ अनिच्छा सी देखकर राम-लक्ष्मण और सीता घने जंगल में चले जाते हैं. वहाँ उनका सामना खून और चर्बी से सनी बाघ की खाल पहने, पहाड़ की चोटी जैसे इंसानी शक्ल वाले एक विशाल प्राणी से होता है, जिसने अपने भाले में तीन सिंह, चार बाघ, दो भेड़िये, दस तेंदुए और बड़े दांतों वाले एक हाथी का सिर बींध रखा है. जोरों से कुछ बड़बड़ाते हुए वह सीता को सीधे गोद में उठा लेता है.
अधर्म चारिणौ पापौ कौ युवाम् मुनि दूषकौ I
अहम् वनम् इदम् दुर्गम् विराधो नाम राक्षसःII 3-2-12
चरामि सायुधो नित्यम् ऋषि मांसानि भक्षयन् I
इयम् नारी वरारोहा मम भार्या भविष्यतिII 3-2-13
‘इस दुर्गम वन में मुनियों को दूषित करने वाले तुम दोनों अधर्मी कौन हो? मैं विराध नाम का राक्षस हथियार लेकर यहाँ घूमता हूं और ऋषियों का मांस खाता हूं. सुंदर कमर वाली यह नारी मेरी पत्नी बनेगी.’
पहली बार इस प्रकरण में ऋषि और मुनि शब्दों का प्रयोग हमें विरोधी अर्थों में सुनने को मिलता है. खुद को राक्षस कहने वाला विराध नाम का यह जीव ऋषियों का मांस खाता है और मुनियों को शस्त्रधारियों द्वारा दूषित किए जाने को लेकर चिंतित है. आगे मृत्यु के करीब पहुंचने पर यह व्यक्ति खुद को गंधर्व बताता है और मिट्टी में दबा दिए जाने को ही अपने लिए उचित अंतिम संस्कार कहता है. ऊपर किसी और प्रकरण में जिक्र आ चुका है कि गंधर्व देश का ही नाम गांधार है. इस देश की राजधानी का नाम आज भी बहुत कम बदला है. अभी हम इसे ‘कंदहार’ कहते हैं.
गांधार का लंबे समय तक बौद्ध संस्कृति का केंद्र होना और इसके पहले वैदिक संस्कृति के चिंतकों के लिए ‘ऋषि’ और श्रमण संस्कृति में इस मिजाज के लोगों के लिए ‘मुनि’ शब्द का चलन भी कुछ चुगली करता है. यकीनन यह एक टेढ़ी प्रस्थापना है. लंबे समय से हम ‘ऋषि-मुनि’ शब्दयुग्म का प्रयोग करते आ रहे हैं. एक आम भारतीय के लिए इन दोनों शब्दों का एक-दूसरे से अलग कोई अर्थ अब नहीं रह गया है. स्वयं वाल्मीकि अपने लिए रामायण में ऋषि और मुनि, दोनों शब्द इस्तेमाल करते हैं. लेकिन गौर करें तो कुछ मुनियों के लिए ऋषि शब्द कहीं देखने को नहीं मिलता. जैसे, कपिल मुनि को कहीं भी कपिल ऋषि नहीं कहा गया है. इसी तरह गौतम बुद्ध के लिए जो एक नाम सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है वह ‘शाक्यमुनि’ ही है. जैनों में मुनि परंपरा सुदूर अतीत से चली आ रही है. वहाँ किसी के ऋषि होने का सवाल ही नहीं है. जाहिर है, इस प्रसंग में दोनों शब्दों की अर्थ-भिन्नता कुछ मायने रखती है.
बहरहाल, सीता का एक परपुरुष की गोद में होना राम के लिए बहुत बड़े धक्के का सबब है. सूखे मुंह से जैसे-तैसे बोलते हुए वे लक्ष्मण से कहते हैं कि धर्म से ब्याही गई उनकी पत्नी के साथ ऐसा होना उनके लिए अयोध्या से हुए निष्कासन जितना ही कष्टप्रद है.
‘मेरी दूरदर्शी मंझली मां कैकेयी अपने पुत्र को राज दिलाने की खुशी भले न हासिल कर पाई हों, पर मेरे जैसे सर्वप्रिय व्यक्ति को वन में भेजने के पीछे उनका जो प्रयोजन था, वह सिद्ध हो चुका है.’
ताम् दृष्ट्वा राघवः सीताम् विराध अङ्कगताम् शुभाम् I
अब्रवीत् लक्ष्मणम् वाक्यम् मुखेन परिशुष्यता II 3-2-16
पश्य सौम्य नरेन्द्रस्य जनकस्य आत्म संभवाम् I
मम भार्याम् शुभाचाराम् विराधाङ्के प्रवेशिताम् II 3-2-17
कैकेय्यास्तु सुसंवृत्तम् क्षिप्रम् अद्य एव लक्ष्मण I
या न तुष्यति राज्येन पुत्रार्थे दीर्घदर्शिनीII 3-2-19
ययाऽहम् सर्वभूतानाम् प्रियः प्रस्थापितो वनम् I
अद्य इदानीम् सकामा सा या माता मम मध्यमा II 3-2-20
यहाँ से आगे समय बड़ी तेजी से गुजरता है. राम का वनवास लगभग पूरा ही दंडकारण्य के विविध हिस्सों में, यानी ग्रंथ के अनुसार अरण्यकांड में ही पार हो जाता है. राक्षस होने के पहले शक पर ही किसी को मार देना. नाक-कान और स्तन काट लेना (ग्रंथ में लक्ष्मण किसी राक्षसी के साथ ऐसा दो बार करते हैं. एक बार शूर्पणखा के साथ, दूसरी बार किष्किंधा पहुंचने से पहले एक बेनाम राक्षसी के साथ.) ऐसा अमानवीकरण और बीच-बीच में ऋषियों के आश्रम में होने वाला दार्शनिकीकरण, दोनों साथ-साथ दिखते हैं. आश्रम भी ऐसे आ जाते हैं जैसे बस्तर के जंगलों में बाजार.
9.
निषादराज और सुग्रीव : क्षत्रियेतर राजन्य
जरूरी नहीं कि एक महागाथा में सारे चरित्र कहानी को आगे बढ़ाने के लिए ही आएं. आधुनिक उपन्यासों और फिल्मों में भी कोई-कोई कैरेक्टर कॉमिक रिलीफ देकर अपने रास्ते हो लेता है. लेकिन रामायण में हाशिये पर मौजूद तीन चर्चित चरित्र न तो कहानी का जरूरी हिस्सा हैं, न ही वे माहौल बदलने में काम आते हैं. अयोध्याकांड में निषादराज गुह, अरण्यकांड में शबरी और उत्तरकांड में शंबूक के होने का मकसद पाठक को कोई तयशुदा संदेश देने का जान पड़ता है. यहाँ इन तीनों पर चर्चा के क्रम में हम उस संदेश को पकड़ने का प्रयास करेंगे. इस संदेश का ही एक गौण पक्ष, यूं कहें कि उप-प्रमेय सुग्रीव के संदर्भ में खुलता है, हालांकि वे कहानी के मुख्य पात्रों में से हैं.
सबसे पहले निषादराज गुह, जिन्हें वाल्मीकि रामायण में शबरी और शंबूक से कहीं ज्यादा जगह मिली है. इनकी कुछ न कुछ भूमिका अयोध्याकांड के पांच-छह सर्गों में दिखाई पड़ती है. विचित्र बात है कि तुलसीकृत रामचरितमानस से शुरू करके राधेश्याम रामायण जैसे नौटंकी आधारित प्रयोग और बहुत सारे भजन-कीर्तनों में इस चरित्र को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है. अपना अहोभाग्य मानकर पांव धुलवाने का आग्रह करता, सपरिवार भवसागर से तर जाने के लिए राम-लक्ष्मण-सीता की चरण-धोअन पीता, खुद को नीच से नीचतर मानकर अतिकथन में जाता छोटी जात का एक इंसान, जिसे ज्यादा से ज्यादा एक अतिपिछड़े टोले का मुखिया समझा जा सकता है.
इसके उलट, वाल्मीकि रामायण में यह आदमी बाकायदा अपने इलाके का राजा है. दैन्य या हीनता का उसके यहाँ कोई लेश तक नहीं है और राम के प्रति उसका व्यवहार ऐसा है, जैसा अपनी रियासत में आ गए एक आपदाग्रस्त राजपुरुष के साथ होना चाहिए. निर्वासित राजकुमार को जंगल में, नदी किनारे अपनी पहली रात श्रृंगबेरपुर में ही बितानी है और वहीं अपने राजसी वस्त्र छोड़कर, पेड़ों की छाल पहनकर, बालों में बरगद के दूध से जटाएं बनाकर अगली सुबह गंगा-पार के घने जंगलों में निकल जाना है, जहाँ न कोई इंसानी बस्ती है, न खेती-बाड़ी होती है. राजा गुह को अपनी तरफ आते देख राम अपनी जगह से उठकर लक्ष्मण के साथ उनकी ओर चले जाते हैं.
तमार्तः संपरिश्वज्य गुहो राघवमब्रवीत् I
यथायोध्या तथेदम् ते राम किम् करवाणि तेII 2-50-36
(राघव को आर्त स्थिति में देखकर गुह ने उनसे कहा, जैसी तुम्हारे लिए अयोध्या है, वैसी ही यह जगह है राम, तुम्हारे लिए मैं क्या करूं? राम का ‘अपने जैसा’ दोस्त- ‘रामस्यात्मसमः सखा’ गुह को तीन श्लोक पहले बताया जा चुका है.)
यह प्रकरण लंबा है और अगला सूरज उगने से पहले राम-लक्ष्मण-सीता को गंगा पार करा देने के बाद कुछ सर्गों के अंतर पर कहानी में एक बार फिर निषादराज गुह की वापसी भरत का काफिला रोकने के लिए होती है. इस लिहाज से कहानी में बतौर पात्र भी उनकी एक भूमिका देखी जा सकती है. उद्देश्य, यह साबित करना कि महल से और राज्य से निकाल दिए जाने के बाद भी राम अलग-थलग नहीं पड़े हैं. अयोध्या से बाहर भी उनके कुछ चाहने वाले मौजूद हैं. लेकिन एक दूसरी समस्या किताब खत्म करने के साथ ही हमें बुरी तरह घेरती है. यह कि निषादराज गुह की सामाजिक स्थिति क्या है? ऋषि या राजन्य तो वे हैं नहीं. राम का ‘आत्मसमः सखा’ होने की गुंजाइश कैसे बनी?
इस सवाल का जवाब खोजते हुए हमें ‘राजन्यवर्ग’ को लेकर अपना नजरिया बदलना पड़ सकता है. आगे किष्किंधा में सुग्रीव से बने बराबरी के रिश्तों से भी जाहिर होता है कि रामायण में राजन्य का अर्थ ठीक-ठीक क्षत्रिय न होकर उससे कुछ बड़ा है. धारणा यह है कि जिस भी समाज में व्यवस्था मौजूद है वहाँ कोई व्यक्ति ऐसा होना जरूरी है, जिसका शासन चलता हो, यानी जिसका कहा सभी मानते हों. वह व्यक्ति ही वहाँ का राजा है और उसे राजन्यवर्ग में शामिल मानते हुए शत्रुता या मित्रता, दोनों ही भावों में राम को उसके प्रति बराबरी का व्यवहार करना है. जाहिर है, यहाँ निषादराज गुह के प्रति राम का व्यवहार किसी व्यक्तिगत या वर्णगत उदारता से संचालित नहीं है.
कुछ रामायण विशेषज्ञ राम और गुह के रिश्तों को आधार बनाकर और वेदों में ‘शूद्रकर्मी’ पृष्ठभूमि से आए कुछ ऋषियों का हवाला देकर उत्तरकांड के शंबूक प्रकरण को क्षेपक बताते हैं. यहाँ यह दोहराना जरूरी है कि रामायण में राजन्यवर्ग और ऋषिवर्ग, दूसरे शब्दों में कहें तो क्षत्रिय और ब्राह्मण के प्रति नजरिया बिल्कुल एक सा नहीं है. ग्रंथ की शुरुआत में ही आई नारदीय प्रस्थापना के अनुसार राम को सौगुने राजवंशों की स्थापना करनी है. यानी नए राजा बनाने के अलावा मुखियों को अपने जैसे जीवन मूल्यों वाले राजा की मान्यता भी देनी है. जबकि ब्राह्मणों की केवल रक्षा करनी है और दान-धर्म से उन्हें प्रसन्न रखना है. तात्पर्य यह कि ऋषिवर्ग में कोई भी नया प्रवेश प्रतिबंधित रहेगा.
और हाँ, नए राजा अपने दायरे में जरूर लाए जाएंगे, लेकिन उनसे बराबरी की एक सीमा भी रहेगी. सुग्रीव के मामले में यह सीमा रेखा लक्ष्मण के हाथों खींची जाती है, जो राम द्वारा छलपूर्वक अपने बड़े भाई की हत्या कराकर राजा तो बन गए हैं, लेकिन रामकाज में तत्परता नहीं दिखा रहे हैं, सीता की खोज करने के अपने वायदे को लेकर पर्याप्त सजग नहीं हैं. उन्हें उनकी असल जगह दिखाने के लिए लक्ष्मण किष्किंधा के राजमहल में ही नहीं, सीधे सुग्रीव के अंतःपुर में घुस जाते हैं और ‘राजन्’ जैसे संबोधनों का मोह छोड़कर उन्हें वानर ही कहकर हड़काते हैं-
अनार्य त्वम् कृतघ्नः च मिथ्यावादी च वानर I
पूर्वम् कृतार्थो रामस्य न तत् प्रतिकरोषि यत्II 4-34-13
ननु नाम कृतार्थेन त्वया रामस्य वानर I
सीताया मार्गणे यत्नः कर्तव्यः कृतम् इच्छताII 4-34-14
स त्वम् ग्राम्येषु भोगेषु सक्तो मिथ्या प्रतिश्रवः I
न त्वाम् रामो विजानीते सर्पम् मण्डूक राविणम्II 4-34-15
महाभागेन रामेण पापः करुण वेदिना I
हरीणाम् प्रापितो राज्यम् त्वम् दुरात्मा महात्मनाII 4-34-16
कृतम् चेत् न अभिजानीषे राघवस्य महात्मनः I
सद्यः त्वम् निशितैर् बाणैर् हतो द्रक्ष्यसि वालिनाम्II 4-34-17
‘अनार्य, कृतघ्न, झूठे वानर, राम ने तेरे लिए जो किया है, उसके बदले में तुझे कुछ नहीं करना? अरे वानर, राम को जरिया बनाकर अपना मतलब तूने साध लिया, अब सीता को खोजने का प्रयास करना तेरा कर्तव्य है या नहीं? यहाँ गांव में बैठकर मजे कर रहा है, राम को तो पता भी नहीं था कि तू मेढक की बोली बोलने वाला सांप है. महाभाग राम की कृपा से तुझे वानरों का राज मिल गया, लेकिन यह तो महात्मा की कीमत पर एक दुरात्मा को लाभ मिलने जैसी बात हुई. राघव के किए का बोध तुझे अब भी नहीं हुआ तो तीखे बाणों से बेधकर तुझे बालि के यहाँ भेज दूंगा.’
मतलब यह कि राजा हो गए, अच्छा है. लेकिन काम के न हुए, ज्यादा उड़ते दिखे तो तुरंत औकात बता दी जाएगी!
10.
शबरी : भक्ति में जल जाना
यह लंबा लेख लिखने का विचार मेरे मन में प्रसिद्ध ब्लॉग लेखक गिरिजेश राव की एक छोटी सी लिखाई पढ़कर आया था, जिसका उद्देश्य यह सिद्ध करने का था कि शबरी ने राम को जूठे बेर खिलाए हों, यह तो संभव ही नहीं है. उनके ब्लॉग से कुछ हिस्से आगे यहाँ उद्धृत किए जाएंगे और जहाँ जरूरी लगा वहाँ उनसे बहस भी की जाएगी. लेकिन इससे पहले कुछ बात ‘शबरी’ नाम पर कर ली जाए, जिसे बचपन से अपने घर में होने वाले भजन-कीर्तन में मैं ‘सेवरी’ ही सुनता आया हूं. हाल तक मैं सेवरी या इसके तत्सम रूप शबरी को घने जंगल में तपस्या कर रही किसी भक्त महिला का नाम मानता था. यह, बल्कि शबरी का पुलिंग ‘शबर’ खेती के बजाय शिकार और वन-उपजों पर निर्भर रहने वाले समुदायों, यूं कहें कि आदिवासियों का जातीय संस्कृत नाम है, यह जानकारी मुझे बाद में हुई.
शवरीपा या शबरीपा चौरासी महासिद्धों में एक हैं और शिकारी जैसी धज में उनकी मूर्तियाँ धनुष-बाण के साथ बनाई जाती रही हैं. सिद्ध परंपरा में वे दो महासिद्धों के बीच पड़ते हैं. नागार्जुन के वे शिष्य हैं और मैत्रीपा के गुरु. तिब्बती बौद्ध धर्म की काग्यू परंपरा में शबरीपा का स्थान बहुत ऊंचा है. मूर्तिशास्त्र (आइकनॉग्रफी) में उनके साथ पर्णशबरी नाम की एक देवी दिखाई पड़ती हैं, जिनके दोनों तरफ शीतलामाई और ज्वरासुर सहायकों की तरह खड़े रहते हैं.
बहरहाल, यह जानकर अजीब लगा कि रामायण से लेकर भक्तिकाल की नवधा भक्ति परंपरा तक जिस भक्त-शिरोमणि शबरी की इतनी चर्चा है, हकीकत में उनका अपना कोई नाम भी नहीं है. जैसे ऊंची जातियों में श्रमिक महिलाओं को उनके जाति-नाम से याद करने का चलन रहा है, उसी तरह शबर पृष्ठभूमि की स्त्री को संस्कृत में शबरी कहा जाता है. यूनानी पुराण ओडिसी में आए चरित्र साइक्लोप्स जैसे दिखने वाले, सीने में सिर लिए एक आंख के राक्षस कबंध ने अरण्यकांड में राम के हाथों मुक्ति पाने के बाद दिव्य शरीर में आकर उन्हें सुग्रीव तक पहुंचने का रास्ता बताया. इस श्लोक में ‘शबरी’ शब्द एक तपस्विनी के चर्चित नाम की तरह आया है. कुछ यूं कि मातंग ऋषि और उनके शिष्यों का दौर बीत चुका है लेकिन उनकी सेवा-टहल करने वाली एक स्त्री आज भी वहाँ है.
तेषाम् गतानामद्य अपि दृश्यति परिचारिणी I
श्रमणी शबरी नाम काकुत्स्थ चिरजीविनी II 3-73-26
शबरी नाम के साथ जुड़ने वाले ‘श्रमणी’ और ‘सिद्धा सिद्धसम्मता’ जैसे विशेषणों से उनके श्रमण संस्कृति (जैन, बौद्ध, लोकायत, आजीवक में से किसी एक से जुड़ी) और सिद्ध परंपरा में अवस्थित होने का संकेत मिलता है. निश्चित रूप से इन दोनों शब्दों के कुछ इतर, ‘सनातनी’ अर्थ भी मौजूद हैं. श्रमण और श्रमणी का उपयोग संस्कृत में कभी-कभी तीर्थयात्रियों के लिए भी होता है जबकि ‘सिद्ध’ शब्द चमत्कार दिखाने वालों से लेकर पहुंचे हुए महात्माओं तक के लिए इस्तेमाल में आता रहा है. चाणक्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में राजा को सलाह दी है कि वे अपने जासूसों को सिद्ध बनाकर विरोधी खेमे में भेज दें, और उनसे उस तरफ की जानकारियाँ निकलवा लें. लेकिन शबरी के मामले में इन शब्दों के ऐसे अर्थ तभी लिए जा सकते थे, जब इनका ऐसा प्रयोग वाल्मीकि रामायण में एकाधिक बार आया होता.
आगे चलें तो शबरी प्रकरण अरण्यकांड के 74वें सर्ग तक सीमित है. सीताहरण के बाद राम द्वारा राक्षस कबंध का वध किए जाने और उसी के बताए मुताबिक सीता की खोज में मदद के लिए पश्चिम दिशा में चलते हुए वानर-राज्य किष्किंधा पहुंचने के बीच यह प्रकरण बिना किसी संदर्भ के आता है और रामायण की कहानी पर कोई असर डाले बगैर खत्म हो जाता है. सर्ग की शुरुआत पंपा सरोवर के सौंदर्य-वर्णन से होती है, जिसके किनारे शबरी का आश्रम मौजूद है. यह वर्णन भी दो बार आया है. सर्ग 73 में कबंध के मुंह से और 74 में राम-लक्ष्मण द्वारा स्वयं. कबंध ने तो राम को पत्नी-वियोग से दुखी जानकर खान-पान के लिहाज से पंपा सरोवर का विधिवत विज्ञापन ही कर डाला है-
तत्र हंसाः प्लवाः क्रौङ्चाः कुरराः चैव राघव I
वल्गु स्वरा निकूजन्ति पंपा सलिल गोचराःII 3-73-12
न उद्विजन्ते नरान् दृष्ट्वा वधस्याकोविदाः शुभाः I
घृत पिण्ड उपमान् स्थूलान् तान् द्विजान् भक्षयिष्यथःII 3-73-13
(‘हंस, सारस, चकवे, बनमुर्गे पंपा के पानी में कूजते दिखाई पड़ते हैं. इंसानों को देखकर वे बेचैन भी नहीं होते. घी के डले जैसे इन मोटे पक्षियों का भक्षण आप वहाँ कर सकते हैं.’)
इसके अलावा कबंध ने पंपा सरोवर के इर्दगिर्द खड़े फलवृक्षों का वर्णन किया है, जिनसे तोड़कर लक्ष्मण राम को कई सारे स्वादिष्ट फल परोस सकते हैं. साथ ही यहाँ के पानी में मौजूद एक कांटे वाली मछलियों का भी जिक्र है, जिन्हें तीरों पर भूनकर खाना बहुत अच्छा रहेगा.
गिरिजेश राव ‘एक आलसी का चिट्ठा’ ब्लॉग की एक पोस्ट में अपनी बात शबरी द्वारा राम-लक्ष्मण के आदर-सत्कार के बाद इस ‘श्रमणी-सिद्धा’ से किए गए राम के कुछ सवालों से शुरू करते हैं. उनके निष्कर्षों से आपकी सहमति या असहमति जो भी हो, लेकिन भक्ति-दर्शन का अनुगमन करती उनकी भावप्रवण भाषा से किसी का भी प्रभावित हो जाना स्वाभाविक है. श्लोकों के बाद गिरिजेश जी की व्याख्या इनवर्टेड कॉमाज में दी हुई है.
कच्चित् ते निर्जिता विघ्नाः कच्चित् ते वर्धते तपः I
कच्चित् ते नियतः कोप आहारः च तपोधने II 3-74-8
कच्चित् ते नियमाः प्राप्ताः कच्चित् ते मनसः सुखम् I
कच्चित् ते गुरु शुश्रूषा सफला चारु भाषिणि II 3-74-9
‘जन्मों की साध पूरी हुई है, प्रभु पधारे हैं. सिद्ध तापसी शबरी पहले कृताञ्जलि मुद्रा में आवभगत करती है और दोनों के पाँव पकड़ लेती है. श्रीराम ‘कच्चित’, अर्थात ‘है कि नहीं’ के बहाने सुध लेते हैं. ‘आप के विघ्न समाप्त हैं. हैं कि नहीं? तप बाढ़ पर है. है कि नहीं? हे तपोधनी! उनसे आप की उद्विग्नता और रोगादि नियत, अर्थात सम पर हैं. हैं कि नहीं? हे चारु भाषिणी! तुमने अपने नियम की सिद्धि पा ली है. है कि नहीं? मन सुखी है. है कि नहीं? गुरु की शुश्रूषा सुफल हुई है. है कि नहीं?’’
रामेण तापसी पृष्ठा सा सिद्धा सिद्ध सम्मता I
शशंस शबरी वृद्धा रामाय प्रति अवस्थिताII 3-74-10
‘ऐसे हाल-चाल पर सिद्धों द्वारा सम्मत उस सिद्धा ने राम के लिये स्वयं को अवस्थित कर उत्तर दिया :’
अद्य प्राप्ता तपः सिद्धिः तव संदर्शनात् मया I
अद्य मे सफलम् जन्म गुरवः च सुपूजिताःII 3-74-11
अद्य मे सफलम् तप्तम् स्वर्गः चैव भविष्यति I
त्वयि देव वरे राम पूजिते पुरुषर्षभII 3-74-12
व अहम् चक्षुषा सौम्य पूता सौम्येन मानद I
गमिष्यामि अक्षयान् लोकान् त्वत् प्रसादात् अरिंदमII 3-74-13
‘तुम्हारे आज दर्शन हो गये राम! तप सिद्धि हो गयी. आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज गुरु की पूजा सफल हुई. आज मेरे जो भी तप थे, सफल हुये और स्वर्ग भी होगा. हे पुरुषोत्तम! आज मैंने तुम्हारा स्वयं पूजन किया. तुमने अपने सौम्य रूप का दरस दे आंखें जुड़ा दीं, मुझे इतना मान दिया. हे अरिंदम! तुम्हारे प्रसाद से मैं अब तुम्हारे लोक जाना चाहती हूं.’
ब्लॉगर गिरिजेश राव जी का उद्देश्य यहाँ केवल यह सिद्ध करने का है कि शबरी राम-लक्ष्मण को जूठे बेर खिला ही नहीं सकती थी. वे कहते हैं-
‘ऋषियों के सान्निध्य में रहने वाली तपोधनी धर्मसंस्थिता श्रमणी यथाविधि सत्कार करेगी और जूठे बेर खिलाएगी? कदापि नहीं. अतिथि को जूठा नहीं खिलाया जाता. इतनी मर्यादा भी नहीं जानती होगी ? ‘मुनीनाम् आश्रमो येषाम् अहम् च परिचारिणी – मैं ऋषियों के आश्रम की परिचारिणी भी हूँ.’
मया तु विविधम् वन्यम् संचितम् पुरुषर्षभ I
तव अर्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायाः तीर संभवम्II 3-74-17
‘हे पुरुषोत्तम, तुम्हारे लिये लिये इस पम्पा तीर पर वन में उपजने वाले विविध खाद्य संग्रहीत कर रखी हूं. शबरी राम को आश्रम के दर्शन कराती हैं.
राम विस्मित हैं- प्रहर्सम् अतुलम् लेभे आश्चर्यम् इदम् च अब्रवीत्. आराध्या ‘वृद्धा रामाय प्रति अवस्थिता’ से आराध्य इतना चकित है कि बिन मांगे ही सरि फूट पड़ती है- अर्चितो अहम् त्वया भद्रे गच्छ कामम् यथा सुखम्. शबरी निहाल हैं, अब किसलिये यह देह धारण करना ? जो स्वयं चल कर आया है, क्यों न उसके लिये आहुति ही दे दूं ! आहुति के समय वाल्मीकि क्या लिखते हैं- जटिला चीर कृष्ण अजिन अंबरा. अनुज्ञाता तु रामेण हुत्वा आत्मानम् हुत अशनेIIII आहुति के पश्चात शबरी कैसी हो जाती हैं?’
दिव्यम् आभरण संयुक्ता दिव्य माल्य अनुलेपनाII 3-74-33
दिव्य अंबर धरा तत्र बभूव प्रिय दर्शन I
विराजयन्ती तम् देशम् विद्युत् सौदामिनी यथाII 3-74-34
‘दो विरुद्ध स्थितियों के बीच साधक और साध्य; अग्नि एवं आहुति जैसे एकाएक दीप्त हो उठे हों! वाल्मीकि भक्त और ईश्वर के साक्षात्कार को अद्भुत प्रभा, ऊर्जा और संलयन प्रदान करते हैं – विराजयन्ती तम् देशम् विद्युत् सौदामिनी यथा. इसे कहते हैं जीवन की सिद्धि, कि आगे के लिये कुछ बचा ही नहीं! जाने शबरी के भाव कैसे रहे होंगे, दर्शन तो राम ने बहुतों को दिये. अरिंदम अर्थात शत्रुओं का दमन करने वाला शब्द प्रयोग चिह्नित करने योग्य है. शबरी के लिये राम अरिंदम सिद्ध हुये, भीतर जो भी विकारी दोष शत्रु थे, नष्ट हो गये. वह मुक्त हो गईं.’
यहाँ पहुंचकर गिरिजेश राव जी कथावाचकों जैसी मुद्रा में आ जाते हैं. वाल्मीकि साफ कहते हैं कि शबरी ने राम की बात को इस तरह लिया, जैसे उन्हें अपने आराध्य की ओर से अग्नि में स्वयं की आहुति दे देने की अनुमति मिल गई हो. ऐसा करते हुए उनके बाल लटियाए हुए हैं, बोरे जैसा रूखा कपड़ा और मृगछाला उन्होंने पहन रखी है. लेकिन ज्वाला में भस्म होने के साथ उनके सुंदर स्वरूप का वर्णन ऐसे किया गया है, जैसे एक भक्तिन के लिए मुक्ति की सर्वश्रेष्ठ राह यही हो. समझना कठिन है कि आग में जलकर ही मुक्ति होनी थी तो इसके लिए आराध्य का इतना इंतजार करने की क्या जरूरत थी? बालकांड में ऐसा ही इंतजार अहल्या का भी है, लेकिन उनकी मुक्ति अलग है.
वहाँ अहल्या गौतम की पत्नी हैं. जमाने पहले इंद्र ने उनके पति का रूप धारण करके धोखे से उनके साथ संभोग किया. जवाब में गौतम के शाप से इंद्र के अंडकोष कटकर जमीन पर आ गए और अहल्या खुद हजारों साल तक सिर्फ हवा पीकर धूल और पत्तों में पड़ी हुई बाकी दुनिया के लिए अदृश्य बनी रहीं. जैसे यहाँ मातंग ऋषि का आश्रम खाली पड़ा है, उसी तरह वहाँ ऋषि गौतम के उजड़े हुए आश्रम में भी अदृश्य अहल्या के अलावा और कुछ नहीं था.
राम के स्पर्श से शापमुक्त होकर अहल्या दृश्यमान हुईं और ऋषि गौतम के साथ खुशी-खुशी रहने लगीं. यह सही है कि शबरी को किसी शाप से मुक्त नहीं होना, लेकिन एक पवित्र जीवन बिताने के बाद आग में जल जाने का क्या अर्थ है? विवाह-बंधन से मुक्त श्रमणी-सिद्धा-शबरी के तपस्वी जीवन की क्या यही परिणति सोची जा सकती थी? रामायण में शरीर समेत सबकुछ समर्पित कर देने वाली भक्ति का यह अकेला उदाहरण है, लेकिन कितना दारुण! भक्तजन इसपर बात क्यों नहीं करते? जूठे या साफ-सुथरे बेर खिलाने वाली बात तो इसके सामने कुछ भी नहीं है.
11.
रावण, सीता और हनुमान : जल्दी में निकल गए कुछ दृश्य
वाल्मीकि रामायण में सीता से रावण की मुलाकात बहुत अलग ढंग से होती है. रावण ने केसरिया रेशम का वस्त्र पहने, खड़ाऊं डाले, छतरी और कमंडल लिए ब्राह्मण का वेश बना रखा है. लेकिन उसने सीता से भिक्षा की याचना नहीं की है और उनकी कुटिया के इर्दगिर्द कोई लक्ष्मण रेखा भी नहीं खिंची हुई है. देर से गए हुए अपने पति की चिंता में डूबी सीता के सामने रावण अचानक पहुंच जाता है और किसी रीतिकालीन कवि की तरह उनके होंठों की, दांतों की, आंखों की, बालों की, मुस्कान की, जांघों की, नितंबों की, कमर की, स्तनों की प्रशंसा करने लगता है.
ग्रंथ में सीता इसका कोई विरोध नहीं करतीं. जैसे दुनिया देखी एक राजकुमारी के लिए यह कोई बड़ी बात न हो. यूं भी अभी तक सुख-दुख, भय, क्रोध और ईर्ष्या जैसे सीधे, स्पष्ट भावों से ही उनका सामना हुआ है. दुष्चरित्रता जैसी जटिल चीज से यह संभवतः उनकी पहली ही मुलाकात है. वे रावण को बैठने के लिए आसन देती हैं. हाथ-मुंह धोने के लिए शीतल जल देती हैं. वन से उपजी कंद और फल जैसी कुछ चीजें खाने के लिए उसके आगे पेश करती हैं.
वे शिकार के लिए निकले पति और उनके पीछे गए लक्ष्मण की प्रतीक्षा में हैं, इसलिए बीच-बीच में उचक कर देख भी ले रही हैं. लेकिन राम-लक्ष्मण कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे. अछोर वन में हर तरफ हरियाली ही नजर आ रही है.
ततः सुवेषम् मृगया गतम् पतिम्, प्रतीक्षमाणा सह लक्ष्मणम् तदा I
निरीक्षमाणा हरितम् ददर्श तत्, महद् वनम् नैव तु राम लक्ष्मणौ II 3-46-38
अतिथि को आराम से बैठ गया देखकर सीता 22 श्लोकों में उसे बचपन से लेकर वहाँ पहुंचने तक अपनी रामकहानी सुना डालती हैं, जिससे वे भरी पड़ी हैं और शायद बहुत दिनों से सुनाने के लिए कोई मिला भी नहीं है. फिर पूछती हैं कि हे ब्राह्मण, इस दंडकवन में आप अकेले क्यों घूम रहे हैं, कृपया अपना नाम, कुल, गोत्र इत्यादि विस्तार से बताएं.
सः त्वम् नाम च गोत्रम् च कुलम् आचक्ष्व तत्त्वतः I
एकः च दण्डकारण्ये किम् अर्थम् चरसि द्विजII 3-47-24
जवाब में रावण सीता का सवाल पूरा होने का इंतजार भी नहीं करता और राक्षसराज वाली अपनी विख्यात पहचान उजागर कर देता है.
‘देव, असुर और मानुषलोक जिससे त्रस्त हैं, हे सीता, राक्षस गणों का ईश्वर मैं वही रावण हूं!’
येन वित्रासिता लोकाः स देवासुर मानुषा I
अहम् सः रावणो नाम सीते रक्षो गणेश्वरःII 3-47-26
फिर उसका यह आत्म-परिचय खिंचता ही चला जाता है. सीता की ओर से तेजस्वी प्रतिवाद के बाद डेढ़ सर्ग तो प्रलोभनों में जाते हैं. फिर वाल्मीकि नौ-दस श्लोकों में उनके अपहरण का चित्र खींचते हैं, जिनमें दो ये रहे-
वामेन सीताम् पद्माक्षीम् मूर्धजेषु करेण सः I
ऊर्वोः तु दक्षिणेन एव परिजग्राह पाणिनाII 3-49-17
ताम् अकामाम् स काम आर्तः पन्नगेन्द्र वधूम् इव I
विवेष्टमानाम् आदाय उत्पपात अथ रावणःII 3-49-22
(कमल लोचनी सीता को बाएं हाथ से मूर्धा पर (गर्दन के नीचे बालों के पास) दबोच लिया और दाएं से उनकी कमर पकड़ कर उठा लिया. … कामभाव से त्रस्त रावण ने नागिन की तरह छटपटा रही निष्काम सीता को उठाकर (इच्छानुसार कहीं भी प्रकट हो जाने वाले, सोने के पहियों वाले खच्चर जुते अपने रथ पर) रख लिया और उड़ चला.)
इस किस्से को यहीं छोड़कर हम लंका में रावण के महल में हनुमान के शुरुआती अनुभवों की तरफ चलते हैं, जहाँ मंदोदरी को रावण की शय्या से दूर लेटी हुई देखकर वे उसी को सीता समझ बैठते हैं. अपने अभियान को सफल जानकर उनकी सहज प्रतिक्रिया ऐसी है, जैसे वे कोई अलौकिक बुद्धिमान प्राणी नहीं, छोटे से सामान्य बंदर हों. ध्यान रहे, हनुमान से अपनी पहली भेंट में राम उनकी भाषा पर मुग्ध होते हुए कहते हैं कि इस तरह तो तीनों वेदों का ज्ञानी ही बोल सकता है. रामायण की महाकाव्यात्मकता इस बात में है कि अंतर्विरोधों की चिंता किए बिना हर चरित्र के सारे संभव पक्ष यहाँ खुलकर निखर आते हैं. दोनों स्थितियों में अलग दिखने वाले हनुमान के वर्णन पर गौर करें-
नान् ऋग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेद धारिणः I
ना सामवेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम्II 4-3-28
नूनम् व्यकरणम् कृत्स्नम् अनेन बहुधा श्रुतम् I
बहु व्याहरता अनेन न किंचित् अप शब्दितम् II 4-3-28
किष्किंधा में प्रवेश के साथ ही हनुमान की भाषा सुनकर लक्ष्मण से राम कहते हैं-
‘ऋग्वेद के ज्ञान के बिना कोई इतना विनीत नहीं हो सकता, यजुर्वेद को जाने बिना ऐसी विद्वता नहीं आ सकती, और सामवेद को सुने बिना इतना सुंदर बोला नहीं जा सकता. व्याकरण को भी इन्होंने शुरू से आखिर तक कई बार बार सुन रखा है और बहुत बार इसका व्यवहार किया है, क्योंकि इतनी लंबी बात कहने के दौरान एक भी गलत शब्द इन्होंने नहीं बोला.’
ऐसी धीर-गंभीरता के साथ हनुमान के उस व्यवहार का क्या मेल है, जो उन्होंने देर रात रावण के महल में दिखाया? पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ अपनी आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में लिखते हैं कि इस श्लोक को एक लेख में उतार देने पर देश भर के आस्तिक विद्वान उनपर टूट पड़े थे कि उनके श्रद्धापात्र का वर्णन यहाँ एक बंदर की तरह किया गया है!
आश्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छम्, ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम I
स्तम्भान् अरोहन् निपपात भूमौ, निदर्शयन् स्वाम् प्रकृतिम् कपीनाम्II 5-10-54
भुजदंडों पर फटका मारा, पूंछ चूम ली, खुश हो गए, उछल-कूद मचाने लगे, खंभे पर चढ़ गए और जमीन पर आ गिरे, इस तरह बानरों वाला अपना स्वभाव दिखा दिया. (हालांकि महल में तो सूता पड़ा था, यह सब देखता कौन?)
इसके थोड़े ही समय बाद अशोक वाटिका में हनुमान को सीता के दर्शन होते हैं, जो शुरू में उन्हें वैसी ही नागिन जैसी दिखाई पड़ती हैं, जैसी ऊपर अपने अपहरण के समय बताई गई हैं. लेकिन सतत शोक के कारण उनकी चमक गायब हो चुकी है. यहाँ से आगे वाल्मीकि ने हनुमान की नजरों से देखी जा रही सीता के लिए ऐसी अद्भुत उपमाओं का प्रयोग किया है कि बाद में शायद ये उपमा-सम्राट कालिदास के लिए भी प्रेरणा का स्रोत बनी हों.
भूमौ सुतनुम् आसीनाम् नियताम् इव तापसीम् I
संसक्ताम् धूम जालेन शिखाम् इव विभावसोःII 5-15-32
ताम् स्मृतीम् इव संदिग्धाम् ऋद्धिम् निपतिताम् इव I
विहताम् इव च श्रद्धाम् आशाम् प्रतिहताम् इवII 5-15-33
स उपसर्गाम् यथा सिद्धिम् बुद्धिम् सकलुषाम् इव I
अभूतेन अपवादेन कीर्तिम् निपतिताम् इव II 5-15-34
राम उपरोध व्यथिताम् रक्षो हरण कर्शिताम् I
अबलाम् मृग शाव अक्षीम् वीक्षमाणाम् ततः ततःII 5-15-35
बाष्प अम्बु प्रतिपूर्णेन कृष्ण वक्त्र अक्षि पक्ष्मणा I
वदनेन अप्रसन्नेन निह्श्वसन्तीम् पुनः पुनःII 5-15-36
मल पन्क धराम् दीनाम् मण्डन अर्हाम् अमण्डिताम् I
प्रभाम् नक्षत्र राजस्य काल मेघैः इव आवृताम् II 5-15-37
तस्य संदिदिहे बुद्धिः मुहुः सीताम् निरीक्ष्य तु I
आम्नायानाम् अयोगेन विद्याम् प्रशिथिलाम् इवII 5-15-38
दुह्खेन बुबुधे सीताम् हनुमान् अनलंकृताम् I
संस्कारेण यथा हीनाम् वाचम् अर्थ अन्तरम् गताम्II 5-15-39
(जमीन पर तापसी की तरह स्थिर बैठी वे धुएं के जाल से घिरी लौ जैसी दिख रही थीं. संदिग्ध स्मृति जैसी, परित्यक्त खजाने जैसी, टूटी श्रद्धा जैसी, कुंठित आशा जैसी वे नजर आ रही थीं. ऐसी लग रही थीं, जैसे बाधाओं से घिरी सिद्धि. जैसे कलंकित हुई बुद्धि. जैसे झूठी अफवाह से नष्ट हुई प्रसिद्धि. युवा हिरनी जैसी उनकी आंखें आंसुओं से तर थीं. उनकी तिरछी भौंहें काली थीं और अपने दुखी चेहरे को बेचारगी में इधर-उधर घुमाती हुई वे गहरी-गहरी सांसें ले रही थीं. धूल की एक परत उनपर चढ़ी हुई थी. सजने-संवरने योग्य होते हुए भी वे बिल्कुल सादा थीं और उन्हें देखकर लग रहा था जैसे नक्षत्रों के राजा की प्रभा काले बादलों में छिप गई हो. दोहराए बिना नष्ट हो रहे ज्ञान जैसी सीता को देखकर हनुमान का मन संदेह से भर उठा. उन्हें लगा, बिना अलंकरण वाली यह स्त्री किसी ऐसे वाक्य की तरह है, संस्कृति के अभाव में जिसके अर्थ का अनर्थ किया जा चुका है.)
ये ब्यौरे दर्ज करने का मकसद सिर्फ वाल्मीकि के भाषाई खुलेपन के बारे में बताना है, लिहाजा सुंदरकांड से आगे बढ़कर हम सीधे लंकाकांड में, रावण के दरबार में चलते हैं, जहाँ यह बहस चल रही है कि दुश्मन दरवाजे तक आ गया है, अभी सीता का क्या करना चाहिए. विभीषण कह चुके हैं कि उन्हें राम को वापस करके झंझट खत्म किया जाए. मेघनाद ने शत्रु का गुणगान करने के लिए उन्हें कायर कहा है, पिता को किसी की परवाह न करने की सलाह दी है और उन दिनों की याद की है, जब इंद्र पर चढ़ाई करते समय कुछ ज्यादा ही चिल्ला रहे ऐरावत के उसने दांत उखाड़ डाले थे. कुंभकर्ण ने कहा है कि आपने किया तो गलत लेकिन अब इस स्त्री के साथ जो भी करना है करें, इसके लिए मैं जान देने को तैयार हूं. इसी बीच रावण का एक मंत्री महापार्श्व लंका के भरे दरबार में उससे कहता है-
यः खल्वपि वनम् प्राप्य मृगव्यालनिषेवितम् I
न पिबेन्मधु सम्प्राप्य स नरो बालिशो ध्रुवम्II 6-13-2
ईश्वरस्येश्वरः कोऽस्ति तव शत्रुनिबर्हण I
रमस्व सह वैदेह्या शत्रूनाक्रम्य मूर्धसु II 6-13-3
बलात्कुक्कुटवृत्तेन प्रवर्तस्व महाबल I
अक्रम्याक्रम्य सीताम् वै ताम् भुंक्ष्व रमस्व चII 6-13-4
लब्धकामस्य ते पश्चादागमिष्यति किम् भयम् I
प्राप्तमप्राप्तकालम् वा सर्वम् प्रतिविधास्यतेII 6-13-5
‘हाथियों और सांपों से भरे जंगल में घुस जाने के बाद वहाँ प्राप्त हुआ शहद जो व्यक्ति नहीं पीता, उसे वज्रमूर्ख ही कहना होगा. हे शत्रुओं का नाश करने वाले, ईश्वर का ईश्वर कौन है? शत्रुओं के सिर पर पांव रखकर वैदेही के साथ रमण करें. हे महाबली, मुर्गे की तरह जबरन सीता से बार-बार संबंध बनाएं, उसका भोग करें, उसके साथ रमण करें. इच्छा पूरी कर लेने के बाद जो होगा, उसका भय किसे है? समय बीतने के साथ जो भी होगा, हम देख लेंगे.’
महापार्श्व की इस बात से खुश होकर रावण उसे सीता की सुरक्षा की जिम्मेदारी देता है और दरबार में ही, अपने प्रतापी पुत्र इंद्रजित और बंधु-बांधवों के बीच बताता है कि कुछ समय पहले किसी सुरम्य सरोवर के पास एक गंधर्व कन्या के साथ उसने बलात संबंध बनाया था. फिर कुछ नहीं हुआ, वह देवलोक चली गई. लेकिन जाने से पहले कहती गई कि आगे से मैं अगर किसी स्त्री से उसकी इच्छा के बिना संबंध बनाऊंगा तो मेरी मृत्यु हो जाएगी, सो …
12.
‘शंबूक और आभीर : शूद्र निर्णय
इस ग्रंथ का एक बहुत बड़ा भूगोल है और कहानी में घुटन की जगहें ज्यादा नहीं हैं. लेकिन जो समाज व्यवस्था, बल्कि जो सामाजिक आदर्श इसमें दिखता है, समाज के बहुत बड़े हिस्से को घुटन के सिवाय उसमें शायद कुछ भी नजर नहीं आएगा. उत्तरकांड में एक ब्राह्मणपुत्र की अकाल मृत्यु के बाद कई नामी ऋषियों के बीच इसके कारणों को लेकर लंबी चर्चा चलती है. चर्चा का समापन करते हुए देवर्षि नारद बताते हैं कि समाज संचालन का काम कृतयुग में पूरी तरह ब्राह्मणों के हाथ में था, फिर इसमें क्षत्रिय जुड़े और अब थोड़ी भूमिका इसमें वैश्यों की भी होने लगी है, लेकिन बाप के रहते बेटे के मरने जैसा अनर्थ तो किसी शूद्र के ऋषिकर्म अपना लेने से ही हो सकता है!
सोने और चांदी के सिक्कों का जिक्र रामायण में बार-बार आता है, लेकिन इस टिप्पणी के साथ कि यज्ञ और अन्य धार्मिक कार्य कराने वालों को सोना ही दिया जाए, चांदी की मुद्राएं उन्हें नहीं दी जा सकतीं. बालकांड में हुए दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ में इसका अपवाद मिलता है, जहाँ स्वर्णमुद्राओं के अलावा चांदी की करोड़ों मुद्राएं भी ऋषियों को दी गईं. लेकिन इस व्याख्या के साथ कि ये उस भूमि के बदले में थीं, जिसे राजा दशरथ यज्ञ कराने वालों को पहले ही दक्षिणा में दे चुके थे. लगभग 24 हजार श्लोकों वाले इस ग्रंथ में कहीं भी इन मुद्राओं से होने वाले व्यापार का कोई वर्णन नहीं मिलता. अयोध्या और मिथिला में व्यापारियों की उपस्थिति का अंदाजा केवल इनके शोभा-वर्णन से लगाया जा सकता है. तात्पर्य यह कि रामायण में ब्राह्मण-क्षत्रिय के अलावा वैश्यों का दखल है भी तो सिर्फ नाम का.
उत्तरकांड की उस कथा में आगे चलें तो रामायण के इस अंतिम हिस्से में, जब रामराज्य ठीक से स्थापित हो चुका है, इसके दायरे में ही कहीं पेड़ पर उलटा लटक कर तप कर रहे एक ऋषि से राजा राम उनका नाम, वंश और तपस्या का उद्देश्य पूछते हैं. भवभूति के ‘उत्तर रामचरित’ में इस जगह का जिक्र दंडकारण्य के रूप में ही आया है. शंबूक प्रकरण का समय वहाँ सीता-परित्याग के बाद का है. शंबूक को दंड देने के लिए राम दंडकारण्य जाते हैं, जहाँ वनदेवी वासंती सीता को गर्भवती स्थिति में छोड़ देने के लिए उनकी लानत-मलामत करके उन्हें विकल कर देती हैं.
बहरहाल, उत्तरकांड में राम की पूछताछ के दौरान ऋषि पेड़ से लटके हुए ही अपना नाम शंबूक बताते हुए खुद को शूद्रयोनि में उत्पन्न घोषित करते हैं और तप का उद्देश्य सशरीर देवत्व पाना, स्वर्ग जाना बताते हैं. जवाब में राम ऋषि शंबूक से एक भी शब्द बोले बिना सीधे तलवार से उनका सिर काट लेते हैं. ज्यादा नहीं, सिर्फ तीन श्लोकों में सारा मामला निपट जाता है. फिर इसकी कई गुना जगह देवताओं का धन्यवाद ज्ञापन और उनकी पुष्पवृष्टि घेरती है.
शूद्रयोन्यां प्रसूतोऽस्मि शम्बूको नाम नामतः I
देवत्वं प्रार्थये राम सशरीरो महायशःII 7-76-2
न मिथ्याहं वदे राजन देवलोकजिगीशया I
शूद्रं माम् विद्धि काकुत्स्थ तप उग्रं समास्थितःII 7-76-3
भाषातस्तस्य शूद्रस्य खङ्गं सुरुचिराप्रभम् I
निश्कृष्य कोषादविमलं शिरश्चिच्छेद राघवःII 7-76-4
(‘मैं शूद्रयोनि में पैदा हुआ हूं, शंबूक मेरा नाम है. हे महायशस्वी राम, मैं सशरीर देवत्व के लिए प्रार्थना कर रहा हूं. राजन, मैं झूठ नहीं बोलता. शूद्र होकर देवलोक की इच्छा से हे काकुत्स्थ, मैं उग्र तप में जुटा हुआ हूं.’ उस शूद्र के इतना कहते ही राघव ने अपनी विमल म्यान से सुंदर चमचमाता हुआ खड्ग निकाला और उसका सिर काट लिया.)
क्यों भला? आखिर क्यों? एक राजा को शालीनतापूर्वक अपने सवालों का जवाब दे रहे तपस्वी से थोड़ी बात तो करनी चाहिए थी. नारद ने कह दिया कि शूद्र के तपस्या करने भर से ब्राह्मण का बच्चा मर गया और आपने मान लिया. ठीक है, ऐसी न जाने कितनी अजीबोगरीब मान्यताएं दुनिया में और जगहों पर भी देखी गई हैं. लेकिन एक व्यक्ति अगर इरादतन किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए कोई काम नहीं कर रहा, फिर भी उस काम से किसी का नुकसान हो रहा है तो राजकाज का दस्तूर यही है कि राजा या राज्यकर्मी पहली बार उसको इस गड़बड़ी के बारे में बताकर वह काम करने से मना करे. इसके बाद भी वह न माने तो उसके लिए सजा का प्रावधान हो सकता है.
लेकिन यहाँ तो राजा अपने सवाल का जवाब पाते ही अपनी समझ से एक अच्छे काम में जुटे व्यक्ति की गर्दन उड़ा देता है. बिना उसे बताए कि उसका दोष क्या है! यह तो किसी को उसकी पैदाइश के लिए दंडित करने जैसा है. रामलीलाओं में शंबूक का नाटक नहीं खेला जाता लेकिन लव-कुश वाले हिस्से में दलित खलनायक के रूप में एक धोबी का खेला जरूर होता है, जिसकी बात सुनकर राम ने सीता के परित्याग का फैसला किया. वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई चरित्र नहीं है. उत्तरकांड में राजा राम का गृहस्थ जीवन शुरू होने के साथ ही एक आत्मीय बैठकी में भद्र नाम वाले बचपन के उनके एक मित्र बहुत पूछने पर प्रजा में सीता को लेकर फैली अफवाह का जिक्र करते हैं.
रामायण का नायक अपने सामान्य जीवन व्यवहार में शूद्र या किसी भी वर्ण का विरोधी नहीं है, लेकिन शंबूक की अकारण हत्या राम के चरित्र का अतिक्रमण भी नहीं करती. चारों वर्णों से अपने-अपने धर्म का पालन कराना ग्रंथ की शुरुआत से ही ग्रंथ-नायक का निर्धारित कर्तव्य है, जिसके पालन का मौका उसको राजा बनने के बाद ही मिलता है.
इसका एक बड़ा अपवाद युद्धकांड में मौजूद है, जिसपर शंबूक जितनी तो क्या, बिल्कुल ही बात नहीं होती. राम समुद्र पर तीर ताने खड़े हैं. एक बाण मारा जा चुका है. समुद्र का पानी उबल रहा है, तमाम जलचर मर रहे हैं. दूसरा बाण मारने की तैयारी है, तभी समुद्र हाथ जोड़े प्रस्तुत होता है. इस दलील के साथ कि अगम्य गहराई उसकी प्रकृति है, जिसे वह बदल नहीं सकता. हाँ, सेना के समुद्र पार करने की जगह और इसकी तरकीब वह जरूर बता सकता है. जवाब में राम शांत होते हुए कहते हैं कि वह सब तो ठीक है, लेकिन यह बाण अमोघ है. डोरी पर चढ़ जाने के बाद उतारा नहीं जा सकता. इसका क्या करें? जवाब में समुद्र कहता है कि
‘मेरे उत्तर में द्रुमकुल्य जगह है, जहाँ रहने वाले आभीर (अहीर) मेरा पानी पीते हैं तो मुझे बहुत खराब लगता है. अपना बाण आप उन्हीं पर छोड़ दें.’
अमोघोऽयम् महाबाणः कस्मिन् देशे निपात्यताम् I
रामस्य वचनम् श्रुत्वा तम् च दृष्ट्वा महाशरम्II 6-22-30
महोदधिर्महातेजा राघवम् वाक्यमब्रवीत् I
उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित्पुण्यतरो ममII 6-22-31
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् I
उग्रदर्शनकर्माणो बहवस्तत्र दस्यवःII 6-22-32
आभीरप्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलम् मम I
तैर्न तत्स्पर्शनम् पापम् सहेयम् पापकर्मभिःII 6-22-33
राम तुरंत ऐसा करते हैं. द्रुमतुल्य में उबलते पानी का गड्ढा बन जाता है. इलाका तहस-नहस हो जाता है. अहीरों की गिनती रामायण काल में किस वर्ण में होती थी, नहीं पता. चातुर्वर्ण्य में वे गिने जाते थे या नहीं, इसकी जानकारी भी नहीं है. लेकिन एक अनदेखी बस्ती को अकारण तबाह करने का काम राम ने यकीनन किसी नीति-विचार के बाद या मंत्रियों से सलाह लेकर नहीं, एक ऐसे चरित्र के उकसावे पर किया, जिसपर एक क्षण पहले वे तीर ताने खड़े थे!
अमोघः क्रियताम् राम तत्र तेषु शरोत्तमः I
तस्य तद्वचनम् श्रुत्वा सागरस्य महात्मनःII 6-22-34
मुमोच तम् शरम् दीप्तम् परम् सागरदर्शनात् I
तेन तन्मरुकान्तारम् पृथिव्याम् किल विश्रुतम्II 6-22-35
विपातितः शरो यत्र वज्राशनिसमप्रभः I
ननाद च तदा तत्र वसुधा शल्यपीडिताII 6-22-36
तस्माद्बाणमुखात्तोयम् उत्पपात रसातलात् I
स बभूव तदा कूपो व्रण इत्येव विश्रुतःII 6-22-37
13.
अग्निपरीक्षा, परित्याग और भूमिप्रवेश
राम-रावण युद्ध समाप्त होने के बाद, जब पूरी लंकानगरी तहस-नहस हुई पड़ी है, रावण समेत तमाम राक्षस योद्धाओं की लाशें जल रही हैं और मंदोदरी सहित हजारों राक्षस-स्त्रियाँ विलाप कर रही हैं, लंका के नए राजा विभीषण सीता को आदर सहित लिवाकर राम के पास पहुंचते हैं. वहाँ विजेता वानर योद्धाओं के बीच राम एक विरुदावली सी गाते हैं कि हनुमान और अमुक-अमुक योद्धा की असाधारण वीरता और कौशल से, राक्षस शिरोमणि विभीषण द्वारा अवगुणी रावण के साथ अपने संबंध तोड़ लेने से वे नियति का रास्ता बदलने में सक्षम हुए और रावण जैसी अजेय शक्ति को परास्त किया जा सका. सीता यह कथा सुनकर गदगद हैं.
तभी सीधे उन्हें संबोधित करते हुए राम कहते हैं-
‘तुम्हारा भला हो, लेकिन तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरे मित्रों का और मेरा यह सफल रण-परिश्रम तुम्हारे लिए नहीं किया गया था. यह सब मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचाने और अपने प्रख्यात वंश को अफवाहों से मुक्त रखने के लिए किया. संदेहास्पद चरित्र लिए हुए तुम अभी मेरे आगे खड़ी हो तो मुझे वैसा ही कष्ट हो रहा है, जैसा आंख के दर्द से पीड़ित व्यक्ति को उसके सामने दीया रख देने पर होता है. इसलिए हे जनकपुत्री, दसों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं. जहाँ चाहो वहाँ चली जाओ. तुमसे मुझे कोई काम नहीं है.’
विदितश्चास्तु भद्रं ते योऽयं रणपरिश्रमःI
सुतीर्णः सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतःII 6-115-15
रक्षता तु मया वृत्तमपवादम् च सर्वतःI
प्रख्यातस्यात्मवंशस्य न्यङ्गं च परिमार्जताII 6-115-16
प्राप्तचारित्रसंदेह मम प्रतिमुखे स्थिता I
दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढम्II 6-115-17
तद्गच्छ त्वानुजानेऽद्य यथेष्टं जनकात्मजे I
एता दश दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वयाII 6-115-18
ग्रंथ में यह प्रकरण ठीकठाक लंबा है. राम विस्तार से बताते हैं कि रावण ने तुम्हें अपनी गोद में बिठाया, कुदृष्टि से देखा, तुमसे दूर रहना उसके लिए आसान नहीं रहा होगा. बाद में व्याख्या भी करते हैं कि हनुमान या सुग्रीव के पास चली जाओ. लंकेश्वर विभीषण के पास चली जाओ. लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न में से किसी को अपना लो. राम के ये वचन सीता के लिए वज्रपात जैसे हैं और शुरुआती झटके से उबरने के बाद वे सख्ती से इसका जवाब भी देती हैं. कहती हैं कि
‘रावण के शरीर से मेरा स्पर्श इसलिए हुआ क्योंकि उसे रोकना मेरे वश में नहीं था. यह नियति का अपराध है, अपनी इच्छा से मैंने उसे नहीं छुआ था. शरीर पर तो नहीं लेकिन हृदय पर मेरा वश था, जो आपकी सेवा में रहा.’
बहरहाल, बात बिगड़ चुकी है, लिहाजा सीता अग्निपरीक्षा देने का फैसला करती हैं. लक्ष्मण से अपने लिए एक चिता बनवाती हैं और एक ही बात का हवाला तीन तरह से देती हुई उसमें प्रवेश कर जाती हैं.
‘यदि मैं हृदय से सदैव राघव के प्रति समर्पित रही हूं तो लोक का साक्षी बनकर अग्नि मेरी रक्षा करे. राघव मुझे दुष्टा मानते हैं लेकिन अगर मेरा चरित्र शुद्ध है तो लोक का साक्षी बनकर अग्नि मेरी रक्षा करे. सभी धर्मों के ज्ञाता राघव का अपने प्रति विश्वास यदि मैंने कर्म, मन और वाणी से कभी नहीं तोड़ा है तो अग्नि मेरी रक्षा करे.’
यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात् I
तथा लोकस्य साक्षी माम् सर्वतः पातु पावकःII 6-116-25
यथा मां शुद्धचरितां दुष्टां जानाति राघवः I
तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकःII 6-116-26
कर्मणा मनसा वाचा यथा नातिचराम्यहम् I
राघवं सर्वधर्मज्ञं तथा मां पातु पावकःII 6-116-27
थोड़ी देर में हम सीता को एक बार फिर ऐसी ही कसमें अग्नि के बजाय पृथ्वी को सामने रखकर लेते हुए देखेंगे, लेकिन रक्षा का कोई भाव वहाँ नहीं दिखेगा. जैसा रामायण में अक्सर दिखाई देता है, इस अग्निपरीक्षा के बाद भी काफी धन्य-धन्य होती है. लगता है, सारा मामला निपट गया. रामायण के नए ज्ञाता इसी आधार पर उत्तरकांड को क्षेपक बताते हुए, यह कहते हुए इसे ग्रंथ से ही हटा दे रहे हैं कि अग्निपरीक्षा हो गई तो परित्याग जैसी घटना के लिए गुंजाइश कहाँ रह जाती है. ऐसे सरलीकरण को गंभीरता से लेने के लिए मेरे यहाँ भी कोई गुंजाइश नहीं है.
ऊपर शंबूक प्रकरण में जिक्र आ चुका है कि राम के अयोध्या का राज संभालने के तुरंत बाद मित्रों की एक बैठकी में (जिसे आगे लक्ष्मण ने ‘खुली सभा’ कहा है) राम के बाल-सखा भद्र ने कैसे सकुचाते हुए कहा था कि सीता के चरित्र को लेकर राज्य में तरह-तरह की अफवाहें उड़ रही हैं. किस्से को हम उसी बिंदु से आगे बढ़ाते हैं.
रात का समय है, उस बैठकी से निकलते ही राम अपने भाइयों को बुलाते हैं. उनसे कहते हैं कि अग्निपरीक्षा के बाद भी अयोध्या में सीता के बारे में गंदी बातें कही जा रही हैं, जिसे सुनकर उनका कलेजा छलनी हो गया है. अपयश से ज्यादा बुरी चीज राजा के लिए कुछ भी नहीं हो सकती.
‘कीर्ति के लिए मैं अपना जीवन और आप जैसे पुरुषसिंह भाइयों को भी छोड़ सकता हूं, फिर सीता क्या चीज है!’
फिर वे लक्ष्मण को अगली सुबह ही सीता को कोसल के बाहर, गंगापार छोड़ आने के लिए कहते हैं. इस धमकी के साथ कि इसपर कोई सवाल किया तो रिश्ता टूट जाएगा.
आगे रामायण में वर्णन है कि सीता गंगापार ऋषियों के आश्रम जाने को लेकर बहुत उत्साहित हैं. वहाँ ऋषि पत्नियों को देने के लिए काफी सारे गहने-कपड़े भी उन्होंने रख लिए हैं. लक्ष्मण ने सुमंत्र को तड़के ही रथ ला खड़ा करने को कह रखा है. लेकिन रथ पर चढ़ते ही सीता को अपशकुन होने लगते हैं. वे लक्ष्मण से पूछती हैं कि धरती उन्हें उजड़ी हुई सी क्यों लग रही है? ‘
मेरी तीनों सासें स्वस्थ रहें, आपके भाई प्रसन्न रहें, नगर और देश के लोग प्रसन्न रहें!’
उनकी बिखरी हुई बातें सुनकर भीतर से रोते लक्ष्मण ऊपर से खुश दिखते हुए कहते हैं-
‘आप भी प्रसन्न रहें.’
उन्हे गोमती पार करने में एक दिन लगता है, फिर अगले दिन गंगातट पर पहुंचकर लक्ष्मण का धीरज छूट जाता है और वे कराहने लगते हैं. इसपर सीता कहती हैं-
‘आप इस तरह कराह क्यों रहे हैं? हम जाह्नवी के तट पर पहुंच गए हैं. यहाँ आने की मेरी बड़ी इच्छा रही है. मेरे लिए यह खुशी का क्षण है. आप मुझे दुखी क्यों कर रहे हैं? हे लक्ष्मण, क्या आप दो दिन राम से अलग रहने के कारण इतने कष्ट में हैं? मेरे लिए राम जीवन से भी ज्यादा प्रिय हैं लेकिन मैं तो दुखी नहीं हूं. बच्चों जैसा व्यवहार न करें. आइए हम गंगा पार करें, ऋषियों से मिलें, ये गहने-कपड़े मैं उन्हें दे दूं, फिर लौट चलेंगे. मेरा मन भी सिंह जैसी छाती और कमल जैसे नेत्र वाले राम से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा है.’
विह्वल कर देने वाले इस प्रकरण में वाल्मीकि की कला अपने शीर्ष पर है. गंगा के उस पार पहुंचकर लक्ष्मण को सच्चाई बता ही देनी है. वे कहते हैं-
‘सर्वगुणसंपन्न राम ने मेरे हृदय में एक खूंटा ठोंक दिया है. मेरे लिए आज मर जाना ही बेहतर था. जो काम मुझे सौंपा गया है, दुनिया जिसके लिए मुझपर थूकेगी, उसपर रवाना होने से पहले मौत मुझे उठा लेती तो कितना अच्छा रहता. मुझे क्षमा करें हे दैदीप्यमान राजकुमारी. इसका दोष मुझपर न धरें.’
ऐसा कहकर लक्ष्मण ने सीता को आदरांजलि दी और जमीन पर गिरकर रोने लगे. उन्हें ऐसा करते और बोलते देख सीता चौंक पड़ीं और लक्ष्मण से बोलीं-
‘यह क्या है? मैं कुछ समझ नहीं पा रही? लक्ष्मण आप इतने परेशान क्यों हैं? राजा ठीक तो हैं न? मुझे अपने दुख का कारण बताइए?’
वैदेही का यह प्रश्न सुनकर लक्ष्मण का हृदय क्षोभ से भर गया. उन्होंने सिर झुका लिया और रुंधे गले से बोले-
‘हे जनकसुता, खुली सभा में राम को नगर और देश में आपको लेकर कही जा रही बुरी बातों की जानकारी मिली. जो बातें गुप्त रूप में मुझे बताई गई हैं, उन्हें आपके सामने मैं दोहरा नहीं सकता. हे रानी, मेरी दृष्टि में आप निर्दोष हैं लेकिन राजा ने आपका परित्याग कर दिया है. बात का गलत अर्थ न लें. लोकनिंदा ने उन्हें तोड़ डाला. हे देवी, मुझे आपको इन्हीं पवित्र आश्रमों के पास छोड़ देना है. राजा ने आपकी इच्छा पूरी करने के बहाने यह काम कर डालने का आदेश मुझे दिया है. इस दुख के नीचे बिल्कुल पिस ही न जाएं. महर्षि वाल्मीकि आपके ससुर राजा दशरथ के मित्र हुआ करते थे. उनके चरणों में शरण लें और अपने सतीत्व में प्रसन्न रहें.’
अब हम घूम-फिर कर उसी जगह पहुंच रहे हैं, जहाँ से रामायण की कहानी शुरू हुई थी. वशिष्ठ मुनि, देवर्षि नारद, रामायण रचने का आग्रह, तमसा तट, क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से एक का मारा जाना, पहला श्लोक. लेकिन यह दृश्य उसके जरा पहले का है. लक्ष्मण की बातें सुनकर सीता बेहोश हो जाती हैं. फिर कुछ चैतन्य होने पर कहती हैं-
‘निश्चित रूप से मेरा शरीर दुर्भाग्य के लिए ही रचा गया है. कौन सा पाप मैंने किया था, किसे उसके पति से अलग किया था, जो राजा ने मेरा परित्याग कर दिया. पहले तो मैं जंगल में राम के पीछे-पीछे चलती थी और अपने दुर्भाग्य में संतुष्ट थी. आज जब सबने मुझे छोड़ दिया है और मुझे अकेले ही रहना है, तब अपने ऊपर आ पड़ा यह दुख मैं किसको सुनाऊंगी? ऋषियों को क्या बताऊंगी कि मेरे किस पाप के लिए राघव ने मेरा तिरस्कार कर दिया? मैं तो अभी गंगा में डूब भी नहीं सकती, क्योंकि इससे राजवंश समाप्त हो जाएगा.’
विलाप के अंत में सीता लक्ष्मण से अपने पति के लिए आखिरी संदेश कहती हैं-
‘हे वीर, अपयश के भय से आपने मुझे त्याग दिया. लोकापवाद खड़ा हो जाने पर उसके जवाब में आखिर कहा भी क्या जा सकता है. फिर भी आपको मुझे छोड़ना नहीं चाहिए था, क्योंकि मेरी परम गति आप ही हैं.’
मयि त्यक्ता त्वया वीर अयशोभीरुणा जने.
यंच ते वचनीयं स्याद् अपवाद समुत्थितम्.
मया च परिहर्तव्यम त्वं हि मे परमा गतिःII 7-48-13
इससे आगे के किस्से की भनक शुरू में ही आ चुकी है. गर्भवती स्थिति में गंगा तट पर बैठी एक रानी की खबर पाकर वाल्मीकि का वहाँ पहुंचना. आश्रमवासिनी महिलाओं के साथ सीता के रहने की व्यवस्था करना. जुड़वां बच्चों का जन्म. लव-कुश के रामायण गायन की ख्याति अयोध्या पहुंचना. फिर यह चर्चा भी कि दोनों लड़के असल में उन्हीं के बेटे हैं. अश्वमेध यज्ञ पूरा होने पर राम का वाल्मीकि के पास संदेश भेजना कि वे सीता को लेकर वहाँ आएं. वाल्मीकि का सीता की पवित्रता और दोनों लड़कों के राम की संतान होने की पुष्टि करना. राम भी इसे ठीक मानते हैं और लव-कुश को अपनी संतान के रूप में स्वीकार करते हैं. लेकिन सीता को अभी एक और परीक्षा देनी है.
यथाsहं राघवादन्यं मनसापि न चिंतये I
तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति II 7-97-15
मनसा कर्मणा वाचा यथा रामं समर्चये I
तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति II 7-97-16
यथैतत्सत्यमुक्तं मे वेद्मि रामात्परं न च I
तथा मे माधवी देवी विवरम दातुमर्हति II 7-97-17
माधवी संभवतः पृथ्वी का ही कोई पर्यायवाची है.
‘यदि मैंने राघव के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति का चिंतन न किया हो, मन कर्म और वाणी से राम की ही अर्चना की हो, राम के सिवा किसी और को जानती भी न होऊं, यह सत्य हो तो हे माधवी देवी, मुझे एक विवर (दरार या छेद) दे दो.’
यह वाल्मीकि का ही कमाल है कि उनकी नायिका सिर्फ याद में बचती है. राम पृथ्वी को तत्काल उन्हें वापस करने का हुक्म देते हैं. अतीत में समुद्र को उनका आदेश मानना पड़ा था. पाठक सोच सकता है कि शायद वैसा ही कुछ यहाँ भी हो. लेकिन कुछ नहीं होता. कहानी खत्म हो जाती है.
14.
व्यवस्था और न्याय की कशमकश
ऊपर आए ब्यौरों से कुछ सवाल उभरते हैं, जिनका जवाब खोजने की एक कोशिश यहाँ, लेख के आखिरी हिस्से में जरूर की जानी चाहिए. एक तो यही कि रामायण में ऐसी क्या बात है कि एकाध को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप की लगभग सारी मध्यकालीन और आधुनिक भाषाओं में, साथ ही दक्षिण-पूर्व एशिया की भी लगभग सभी सभ्यताओं में प्रतिभाशाली कवियों ने इसे अपने-अपने ढंग से ढालने की कामयाब कोशिशें कीं? कहानियाँ तो महाभारत में भी लाजवाब हैं. त्रिपिटक और गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ का कहना ही क्या. उनपर आधारित अनगिनत किस्से पूरी दुनिया में फैले हैं. लेकिन इनके मुख्य चरित्रों को शुरू से अंत तक निभाते हुए इन्हें फिर से रचने के प्रयास ज्यादा नहीं हुए.
इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इस महाकाव्य की प्रतिष्ठा एक धार्मिक ग्रंथ जैसी, बल्कि चेन-रिएक्शन की तरह धर्मग्रंथों की एक श्रृंखला जैसी क्यों होती गई? राम एक दिलचस्प कथा चरित्र से ऊपर उठकर एक पूज्य पुरुष और फिर बीसवीं सदी आते-आते भगवान कैसे बन गए? पाठकों और श्रोताओं की नई पीढ़ियों के मन में यह किस्सा समय बीतने के साथ धुंधला पड़ते जाने के बजाय दिनों दिन अधिक से अधिक सघन कैसे होता जा रहा है? ऐसा होने में एक बड़ी भूमिका बीते दो हजार वर्षों में हुई सैकड़ों सत्ताओं की भी रही होगी, लेकिन ग्रंथ में इसके बीज कहाँ हैं?
इन दोनों सवालों का जवाब एकबारगी ‘व्यवस्था की स्थापना’ ही निकलता है. विपरीत परिस्थितियों में घर से लेकर बाहर तक एक स्थिर, व्यवस्थित समाज की चाहना रामायण का मूल तत्व जान पड़ती है और निजी तकलीफों से गुंछी होने के बावजूद यह किताब इस खास मामले में विजेता सिद्ध होती है. एक बच्चे का बचपन छिन जाना, एक स्त्री का जीवन बर्बाद होना, एक-दो समुदायों का तिरस्कृत या बहिष्कृत हो जाना इसके लिए महत्वहीन है. किसी और कवि के लिए ये पक्ष अधिक महत्वपूर्ण हों तो व्यवस्था का अभिनंदन करते हुए वह नई रामायण लिख सकता है. भवभूति, कंबन और तुलसीदास की कथाएं वाल्मीकि रामायण से बहुत अलग हैं, लेकिन हैं वे भी अंततः रामायण ही!
बात थोड़ी और स्पष्ट होनी चाहिए. व्यवस्था की चाहना किस महाकाव्य में नहीं होती? क्या महाभारत में यह नहीं है? जो पक्ष हस्तिनापुर के राज्य का बराबर का दावेदार है, उसका सिर्फ पांच गांव के लिए राजी हो जाना. फिर भी गद्दी संभाल रहे पक्ष की ओर से सूई के नोक बराबर भी जगह न देने की घोषणा के बाद लड़ाई में उतरना क्या कोई व्यवस्था विरोधी बात है? गौर से देखें तो यह धर्मयुद्ध व्यवस्था पर कब्जे की लड़ाई है. अव्यवस्था से व्यवस्था बनाने की नहीं. वनवास के समय ही, या इसके थोड़ी देर बाद कोसल पर राज करने के लिए राम और भरत की सेनाएं आमने-सामने हो जातीं तो रामायण भी अपनी मूल कथा में महाभारत जैसा नजर आता. लेकिन भरत की सद्बुद्धि से वह संभावना खारिज होती है और कोसल के जीवन मूल्यों का विस्तार दंडकारण्य से किष्किंधा तक हो जाता है.
व्यवस्था की चाहना से भी ऊंचा पहलू शायद यह है कि इस ग्रंथ के सारे प्रमुख पात्र अपनी बनावट में ही एक पैर देवत्व में या यूं कहें कि इंसानी दुनिया से ऊपर किसी और दुनिया में रखे हुए हैं. राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान और रावण के बारे में ऐसा बार-बार कहा गया है. महाभारत में पांचों पांडवों और कर्ण के साथ भी ऐसा है. कृष्ण स्वयं एक ईश्वरीय चरित्र हैं. लेकिन महाभारत के चरित्र राज्य और उससे जुड़े सुखों के लिए लड़ते हैं. पांडवों का लंबा समय वन में बीतता है, लेकिन उनका हर पल राज्य की चिंता में गुजरता है. सांसारिक सुखों को सिरे से भूलकर जंगल में आनंद से रहना महाभारत के नायकों की प्रवृत्ति नहीं है. रामायण के पात्रों में इसीलिए एक अलग सी आभा है, जो उनसे हुई गलतियों और आधुनिक मानकों के अनुसार किए गए अपराधों में भी उन्हें कुछ आड़-सी दे देती है.
सबसे बड़ी बात है आस्था के मामले में इस ग्रंथ का लचीलापन, जो समाज में आ रहे बदलावों के साथ ढल जाने में इसकी भरपूर मदद करता है. उदाहरण के लिए, शिव को देखें. रामायण में उनकी भूमिका सीमित है. उनका जिक्र यहाँ सबसे पहले विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण को सुनाए गए एक किस्से में आता है, जो गंगा अवतरण के बारे में है.
पार्वती के साथ बतौर पति-पत्नी उनके रिश्तों का वर्णन इतना खुल्ला, लगभग जुगुप्सापूर्ण है कि एक गुरु इसे अपने शिष्यों को सुना रहा है, यह सोचकर ही अजीब लगता है. यहाँ शिव को ब्रह्मा-विष्णु और सुदूर अतीत के देवता इंद्र से साफ तौर पर अलगाया जा सकता है. शिव पूज्य तो हैं लेकिन ब्रह्मा, विष्णु और इंद्र की तरह यज्ञों में हविष्य लेने नहीं आते. ऋग्वेद में शिव को ब्रात्य देवता बताया गया है. अभव्य वेश-भूषा और रहन-सहन वाला निम्न कोटि का देवता. उनकी प्रतिष्ठा में लगातार ऊपर की ओर गति देखी जाती है और बौद्ध धर्म के उदय के बाद वे शीर्ष पर आ जाते हैं. लगभग एक हजार साल तक भारत में सिर्फ बौद्धों और शैवों का टकराव तिब्बतियों के लिखे इतिहास में दिखता है.
कुछ अपवाद छोड़ दें तो ज्यादातर रामायणें 1100 ईसवी के बाद लिखी गई हैं. उनमें शिव और विष्णु का दर्जा एक सा है. ब्रह्मा पीछे जा चुके हैं और इंद्र खलनायक जैसे दिखने लगे हैं. कहीं-कहीं उनकी प्रेरणा भी वाल्मीकि रामायण से ज्यादा ‘श्रीमद्भागवत’ से आती जान पड़ती है. किस्से नरम होते जा रहे हैं. कई बार लगता है कि कथा भी कुछ ज्यादा ही ईश्वरीय हुई जा रही है. राम-लक्ष्मण वैष्णव पंथ के कार्यकर्ता जैसे दिखने लगते हैं. लेकिन विविध भाषाओं में लिखी गई इन रामायणों में वाल्मीकि की मूल कथा से छेड़छाड़ नहीं की गई है और वे हर कवि के लिए वंदनीय हैं.
बीच के एक हजार साल बौद्ध धर्म के उभार के रहे. न केवल भारत में बल्कि समूचे मध्य एशिया, पूर्वी एशिया और पश्चिम एशिया के भी कुछ हिस्सों में वह छा गया. वर्ण-जाति पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की उसने कई इलाकों में चूलें हिला दीं और कुछ जगहों पर इन्हें पनपने ही नहीं दिया. फिर एक दौर आया जब राजनीतिक हमलों के बीच बुधिज्म अलग-थलग पड़ने लगा और एक उदार सामाजिक धारा अपने पीछे छोड़कर भारत से गायब ही हो गया. फिर तेरहवीं सदी से देश में इस्लाम का तेज फैलाव शुरू हुआ तो बौद्ध धर्म और नाथपंथ को मानने वाला एक हिस्सा उधर चला गया. इतिहास की आम समझ इसे केवल विदेशी आक्रमण की तरह दर्ज करने की है, लेकिन थोड़ा भी तह टटोलने पर उन समुदायों की बेचैनी साफ नजर आती है, जिन्हें इंसान से कमतर मानने का चलन चल पड़ा था.
गौरतलब है कि इस लंबी उथल-पुथल में रामायण की पुकार घटने के बजाय बढ़ गई. भारत की आधुनिक भाषाओं में अकेली पंजाबी है जिसमें कोई रामायण नहीं लिखी गई. कारण यह कि पंजाब में नाथपंथ और सूफिज्म के बाद नानक परंपरा की पकड़ ने समाज को पीछे नहीं लौटने दिया. लेकिन पंजाब से पूरब और दक्षिण की ओर चलें तो रामायण की नई लिखावटें भारत में नहीं, थाईलैंड और इंडोनेशिया तक आती गईं. इससे इस ग्रंथ के मजबूत और कमजोर, दोनों पहलू जाहिर होते हैं. मजबूत इस मायने में कि एक व्यवस्थित समाज की ललक लोगों को रामायण की ओर खींचती रही. और कमजोर इस तरह कि न्याय की इच्छा को दोयम बनाने में यह सहायक सिद्ध होता रहा.
समाप्त
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964)शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ प्रेस में. पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’ प्रकाशनाधीन. भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर पुस्तक ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ सेतु से प्रकाशित. patrakarcb@gmail.com |
इसके दोनों खण्ड बेहद मूल्यवान हैं। लेकिन लेखक ने कुछ मनमाने निष्कर्ष भी निकाले हैं पूर्वधारणा से पोषित हैं। चंद्रभूषण जी ने इधर बौद्ध धर्म की विलुप्ति पर भी विचार किया है जिससे उनकी यह स्थापना महत्त्वपूर्ण हो जाती है :
“पश्चिम एशिया के भी कुछ हिस्सों में वह छा गया. वर्ण-जाति पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की उसने कई इलाकों में चूलें हिला दीं और कुछ जगहों पर इन्हें पनपने ही नहीं दिया”
लेकिन इसके स्पष्ट प्रमाण न तो उन्होंने अपनी किताब में दिए हैं न ही इस लेख में।
इन लेखों में मेहनत ज्यादा है, अंतर्दृष्टि कम।
रमाशंकर जी, शायद किताब पढ़ने के दौरान आपके ध्यान से उतर गया हो, लेकिन गांधार क्षेत्र के भारतीय समाज व्यवस्था का अभिन्न अंग होने के बावजूद वहां जाति व्यवस्था विकसित न हो पाने और इसी वजह से पश्चिम-उत्तर में अवरोध पाकर वर्णाश्रम आधारित शांकर धर्मदृष्टि के मौजूदा भारतीय भूगोल का निर्धारक तत्व बन जाने का निष्कर्ष मैंने वहां तथ्यों के साथ स्थापित किया है। गांधार को शेष भारत से भिन्न बनाने वाली अकेली बड़ी चीज वहां हजार साल जमी रही बौद्ध चेतना ही थी। रही बात मध्य एशिया की, तो वह अपनी प्रकृति में ही एक अस्थिर समाज रहा है, लेकिन इस्लाम के प्रवेश से पहले उसका धार्मिक विमर्श गांधार जैसा ही था। चीन से निकटता के बावजूद ताओइस्ट और कन्फ्यूशियन प्रभाव वहां के पुरातत्व में बिलकुल नहीं दिखते। आपकी आखिरी बात पर इतना ही कहना है कि हमें मेहनत करते रहना चाहिए, क्योंकि उसी पर हमारा अख्तियार है। बादलों में बिजली की तरह उसी में कभी कभी अंतर्दृष्टि भी झलक जाती है।
इस कठिन विषय की रोचक और रामायण के जिज्ञासुओं के लिए अति पठनीय सामग्री के लिए धन्यवाद्! इसका तीसरा खंड भी आना चाहिए।
इसका पहला भाग मैंने नहीं पढ़ा है। लेकिन इस दूसरे भाग में जो पाठ है यह भी स्वतंत्र और सम्पूर्ण लगता है। रोचक और विश्लेषणपरक यह लेख दृष्टिप्रद है। यह रामकथा को जानने और उसके मानवीय और सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और संदेशों के अध्ययन के लिए प्रेरित भी करता है। कथा-विस्तार और विश्लेषणों से गुज़रता यह महत्वपूर्ण लेख जिस निष्कर्ष तक आता है वह मूल्यवान है और संधान-परम्परा को आगे ले जाता है। आज के विमर्श में यह निष्कर्ष सही लगता है कि ” इस ग्रंथ के मजबूत और कमजोर, दोनों पहलू जाहिर होते हैं. मजबूत इस मायने में कि एक व्यवस्थित समाज की ललक लोगों को रामायण की ओर खींचती रही. और कमजोर इस तरह कि न्याय की इच्छा को दोयम बनाने में यह सहायक सिद्ध होता रहा.”
पहला पार्ट भी पढ़ जाएं, इससे बड़ा तो नहीं होगा।
तीसरा खंड तो नहीं बचा है भाई लेकिन चार छह महीने रगड़ मारने के बाद कुछ नया क्लिक कर गया तो दो सौ पेज की एक किताब के लिए कोशिश की जाएगी। इस बहुपठित, बहुलिखित विषय में घुसना टेढ़ा काम है लेकिन जरूरत महसूस होने पर टेढ़े से टेढ़ा काम भी इंसान कर ही डालता है।