उच्चतम न्यायालय में वर्षाताई बनाम महाराष्ट्र शासन के मामले में उर्दू विवाद पर न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और के. विनोद चंद्रन का निर्णय.
हिंदी अनुवाद : ऐश्वर्य मोहन गहराना |
यदि आप कानून के गंभीर छात्र हैं तो आपको बताया जाता है, कानून और संविधान को समझने को दिल में उतार लेने का एक ही तरीका है संवैधानिक न्यायालयों (उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों) के संबन्धित निर्णय पढ़े जाते रहें. इस क्रम में आपका सामना ऐसे बहुत से निर्णय से होता है जहाँ भाषा, भाषा शास्त्र, शब्दोत्पत्ति आदि पर विचार विवेचन होता है. समय-समय पर भाषाओं के आपसी झगड़े भी उठकर खड़े होते रहते हैं और संवैधानिक न्यायालयों तक पहुँचते हैं.
हाल में उच्चतम न्यायालय में वर्षाताई बनाम महाराष्ट्र शासन[1] के मामले में उर्दू विवाद का मुद्दा थी. निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने हिन्दी और उर्दू को भाषाई तौर पर अलग मानने पर प्रश्न उठाते हुए उसे भाषाई नहीं संवैधानिक वास्तविकता बताया है. इस पीठ की ओर से निर्णय न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने लिखा है और [2] न्यायमूर्ति क. विनोद चंद्रन ने सहमति जताई है.
मैं इस निर्णय के संबन्धित अनुच्छेदों का सरल हिन्दी में अनुवाद करने जा रहा हूँ, जो आम हिन्दी–उर्दू भाषियों व अन्य सभी भाषा विवादों में फंसे लोगों को समझने चाहिए. ऐसा करते हुए मैं सरकारी हिन्दी का प्रयोग करने नहीं जा रहा हूँ, जो मेरे लिए भी कठिन हो जाती है. संवैधानिक न्यायालयों में और उनके निर्णय को पढ़ते और उद्धृत करते समय “वज़न डालने/ज़ोर देने” (Emphasis provided) की एक लंबी परंपरा है. मैं उच्चतम न्यायालय द्वारा “वज़न डाले” गए भागों पर वह दिया गया वज़न बरकरार रखूँगा.
मोटे तौर पर इस मामले में एक साधारण घटना क्रम है. भूतपूर्व नगर पंचायत सदस्य वर्षाताई के अनुसार पातुर नगरपालिका के सभी काम मराठी भाषा में होने चाहिए और उर्दू का कोई प्रयोग नहीं होना चाहिए. परंतु नगर पालिका के साथी सदस्यों ने उनकी बात नहीं मानी बल्कि यह प्रस्ताव भी पारित कर दिया कि मराठी के साथ उर्दू का प्रयोग पूरी तरह न्यायोचित है. इस क्रम में वर्षाताई जिलाधिकारी, संभागीय आयुक्त, उच्च न्यायालय की एकल पीठ और फिर खंडपीठ से होते हुए इस बार दूसरी बार उच्चतम न्यायालय में अपनी बात रख रहीं थीं. मुझे लगता है, उर्दू विरोधियों को उनकी इस निष्ठा की सराहना करनी चाहिए.
अब इसके आगे मैं उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के अनुच्छेद सोलह से अनुवाद प्रारम्भ करता हूँ:
ऐश्वर्य मोहन गहराना

हमारे सामने एक साथी नागरिक हैं जिन्होंने इस मामले को दो बार उच्च न्यायालय और दो बार इस न्यायालय में लाने का कष्ट उठाया है. जो भी यह अपीलकर्ता सोचती हैं वह हमारे बहुत से साथी नागरिकों की सोच भी हो सकती है. इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है.
अपनी सोच स्पष्ट कर दें. भाषा धर्म/संप्रदाय नहीं है. भाषा धर्म का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती है. भाषा समुदाय की होती है, क्षेत्र की होती है, लोगों की होती है, और धर्म की नहीं होती.
भाषा संस्कृति है. भाषा समुदाय और इसके लोगों के सभ्य होते जाने को मापने का पैमाना है. ऐसी ही उर्दू है, जो कि गंगा-जमुनी तहज़ीब और हिंदुस्तानी तहज़ीब की सबसे अच्छी बानगी है जो कि उत्तरी और केन्द्रीय भारत के मैदानों का साझा लोकाचार है. लेकिन भाषा के विद्वता का साधन बनने से पहले, इसका सबसे पहला और प्राथमिक उद्देश्य सदा संवाद ही रहेगा.
अपने मामले पर वापिस आते हैं, जिसमें उर्दू के प्रयोग का उद्देश्य केवल संप्रेषण है. सभी नगर पालिकाएँ प्रभावी संप्रेषण करना चाहती हैं. यह भाषा का प्राथमिक उद्देश्य है, जिस पर बंबई उच्च न्यायालय ने ज़ोर दिया था.
हमें अपनी सारी भाषाओं सहित अपनी विविधता का सम्मान करना चाहिए और इनका आनंद लेना चाहिए. भारत की सौ से अधिक मुख्य भाषाएँ हैं. उसके बाद, सैकड़ों की संख्या में बोलियाँ अथवा मातृभाषाएँ कही जाने वाली अन्य भाषाएँ है. 2001 की जनगणना के अनुसार, 122 भाषाएँ, जिन में 22 अनुसूचित भाषाएँ शामिल है, और कुल जमा 234 मातृ भाषाएँ है. उर्दू भारत की छठी सबसे अधिक बोले जाने वाली अनुसूचित भाषा है. तथ्य है, शायद पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़ कर, सब राज्यों और केंद्र-शासित क्षेत्रों में जनसंख्या का कम से कम एक भाग उर्दू बोलता है. 2011 की जनगणना में, मातृभाषाओं की संख्या बढ़कर 270 हो गई. तब भी, यह ध्यान देना चाहिए, कि संख्या की यह वृद्धि दस हजार से अधिक लोगों की मातृभाषाओं का संज्ञान में लेने के कारण हुई है. इस प्रकार, यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में मातृ भाषाओं की संख्या हजारों में जाती है. यह भारत की अपार भाषाई विविधता है!
भारत का संविधान अपनी आठवीं अनुसूची में बाईस भारतीय भाषाओं का उल्लेख करता है, जिनमें मराठी और उर्दू दोनों शामिल हैं, और महत्वपूर्वक, अंग्रेजी आठवीं अनुसूची में उल्लिखित नहीं है क्योंकि यह भारतीय भाषा नहीं है. इस भाषाई विविधता के साथ, भारत विश्व का सर्वाधिक बहुभाषी देश है. ऐसे देश में, संप्रेषण और देश भर में प्रयोग करने के लिए क्या भाषा होनी चाहिए, और क्या राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए, संविधान सभा की चर्चा के दौरान विचारणीय प्रश्न बन गए थे. हमें ध्यान रखना चाहिए, भाषा मात्र भाषा नहीं है, संस्कृति की प्रतिनिधि है. यह (बात), भाषा चर्चा को संवेदनशील और नाजुक दोनों, और यह वह (बात) है जहाँ संविधान के मुख्य मूल्य “सहिष्णुता” को भी प्रयोग में आना चाहिए. हम, भारत के लोग, केंद्र में भाषा के प्रश्न को सुलझाने का बहुत श्रम कर चुके है, जैसा कि हम बार-बार दोहरा रहे हैं, भाषाई विविधता के राष्ट्र में अद्वितीय उपलब्धि है. ऑस्टिन[3] के अनुसार, राष्ट्रीय भाषा और भाषा के समाधान के समय संविधान सभा तनाव-बिन्दु[4] तक पहुँच गई थी. अन्ततोगत्वा, संविधान सभा के सदस्य संविधान के लागू होने की तिथि से पंद्रह वर्षों के समय के तक के लिए अंग्रेजी प्रयोग बनाए रखने के साथ “हिन्दी” को “राजभाषा”, यानी कि भारतीय संघ की आधिकारिक भाषा बनाने पर सहमत हुए, जबकि संसद को (अंग्रेजी प्रयोग के) इस समय को बढ़ाने की अधिकार दिया गया.
संविधान का सत्रहवाँ भाग आधिकारिक भाषा पर है. अनुच्छेद 351 हिंदुस्तानी और आठवीं अनुसूची की अन्य भारतीय भाषाओं के रूप, शैली और अभिव्यक्तियों और जहाँ जरूरी हो, मुख्य रूप से संस्कृत और गौण रूप से अन्य भाषाओं से आवश्यक और इच्छित शब्दावली को आत्मसात कर हिन्दी भाषा को बढ़ावा देने और विकास करने पर ज़ोर देता है.
हमें अब अनुच्छेद 345 का संदर्भ देना चाहिए जो राज्य की आधिकारिक भाषा से संबन्धित है:
-
-
- राज्य की राजभाषा और राजभाषाएँ[5]
अनुच्छेद 346 और 347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए किसी राज्य के विधान-मण्डल, विधि द्वारा, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं को या हिन्दी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों ले किए प्रयोग की जाने वाली भाषा अथवा भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा:
- राज्य की राजभाषा और राजभाषाएँ[5]
-
परंतु जब तक राज्य का विधान-मण्डल, विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उस शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले प्रयोग किया जाता रहा था.
-
-
- राज्य की आधिकारिक भाषा और भाषाएँ[6]
अनुच्छेद 346 और 347 के प्रावधानों के अधीन रहते हुए किसी राज्य का विधान-मण्डल, कानून बनाकर, उस राज्य में प्रयोग होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अधिक भाषाओं या हिन्दी को उस राज्य के सभी या किन्हीं शासकीय प्रयोजनों ले किए प्रयोग की जाने वाली भाषा अथवा भाषाओं के रूप में अंगीकार कर सकेगा:
- राज्य की आधिकारिक भाषा और भाषाएँ[6]
-
परंतु जब तक राज्य का विधान-मण्डल, कानून बनाकर, अन्यथा प्रावधान न करे, तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा जिनके लिए इस संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले प्रयोग किया जाता रहा था.
यह अनुच्छेद राज्य विधान-मंडलों को हिन्दी अथवा उस राज्य में प्रयोग हो रहीं अन्य भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर स्वीकार करने की शक्ति देता है.
उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन बनाम उत्तर प्रदेश शासन[7] में पाँच न्यायाधीशों की पीठ, जब उर्दू उत्तर प्रदेश राज्य में उर्दू को दूसरी भाषा के तौर पर स्वीकार किया था, आधिकारिक भाषा से संबन्धित संवैधानिक प्रावधानों पर विचार कर चुकी है. उत्तर प्रदेश आधिकारिक भाषा अधिनियम वर्ष 1951 में पारित किया गया था और इसने हिन्दी को राज्य की आधिकारिक भाषा बनाया था. 1989 में एक संशोधन लाकर उर्दू को राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित किए जा सकने वाले उद्देश्यों के लिए[8] दूसरी आधिकारिक भाषा बनाया गया. 1951 अधिनियम में 1989 संशोधन द्वारा दी गई शक्ति के अनुसार पर राज्य सरकार ने 7 अक्तूबर 1989 को कतिपय उद्देश्यों के लिए उर्दू को दूसरी भाषा अधिसूचित किया. उसमें अपीलकर्ता ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष 1951 अधिनियम में 1989 संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी. खंडपीठ, जिसने मामले को सुना, खंडित फैसला दिया. परिणामतः, तीसरे जज को मामला सौंपा गया जिन्होंने निर्णीत किया कि 1951 अधिनियम में 1989 संशोधन कोई अदृढ़ता नहीं रखता और असंवैधानिक नहीं था. अपीलकर्ता ने इस न्यायालय में, उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध विशेष अनुमति याचिका दायर[9] की, जिसमें पाँच न्यायाधीशों की पीठ को मामला संदर्भित हुआ, और उर्दू को दूसरी भाषा के तौर पर जोड़ने को उचित निर्णीत किया गया.
उसके अपीलकर्ता के अनुसार, अनुच्छेद 345 राज्य को दो विकल्प देता है: राज्य में प्रयोग हो रही एक या अधिक भाषाओं को स्वीकार करना, अथवा हिन्दी को आधिकारिक भाषा स्वीकार करना. अतः, उत्तर प्रदेश शासन जब पहले ही हिन्दी को 1951 अधिनियम द्वारा आधिकारिक भाषा स्वीकार कर चुका है, किसी दूसरी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता. दूसरे शब्दों में, एक बाद को आधिकारिक भाषा स्वीकार करने के बाद कोई अन्य भाषा एक और आधिकारिक भाषा के तौर पर नहीं जोड़ी जा सकती. इस तरह, अपीलकर्ता के अनुसार, अनुच्छेद 345 को पढ़ा जाना चाहिए. इस न्यायालय ने उनका यह तर्क नहीं माना और निर्णीत किया कि अनुच्छेद 345 राज्य द्वारा हिन्दी का आधिकारिक भाषा स्वीकार करना मात्र राज्य विधान-मण्डल को अन्य भाषा को आधिकारिक भाषा स्वीकार करने से नहीं रोकता है. अतः, यह देखा गया:
’23. संविधान का भाग 17 अपनी व्यवस्था में अनुग्राही है. आखिरकार, भाषा नीतियाँ निर्मित है और उनमें समय के साथ बदलाव होता है.
-
-
- अनुच्छेद 345 का साधारण पाठ, जो की राज्य विधान-मण्डल को समय-समय पर एक या अधिक भाषाओं को राज्य में कानून बनाकर प्रयोग के लिए स्वीकार करने की शक्ति देता है, कोई संदेह नहीं छोड़ता. अनुच्छेद 345 के साधारण पाठ से कोई दूसरा इरादा व्यक्त नहीं होता है. हम ऐसा कोई इरादा नहीं पाते कि राज्य विधान-मण्डल मात्र एक बार ही यह शक्ति प्रयोग कर सकता है और हिन्दी को आधिकारिक भाषा स्वीकार करने के साथ राज्य विधान-मण्डल की यह शक्ति समाप्त हो जाएगी. हमारे विचार में, राज्य विधान-मण्डल समय समय पर कतिपय उद्देश्य के लिए अनुच्छेद 345 प्रदत्त विवेक प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र है. हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता कि एक बार अनुच्छेद 345 के अंदर हिन्दी को राज्य की आधिकारिक भाषा स्वीकार करने के बाद, राज्य विधान-मण्डल की शक्ति चुक जाती है…”
-
यह निर्णीत हुआ कि भाषा विशेष, जैसे हिन्दी, के विधान-मण्डल द्वारा आधिकारिक भाषा स्वीकार होने से, अनुच्छेद 345 द्वारा किसी अन्य भाषा(ओं) को आधिकारिक भाषा नामित करने पर कोई रोक नहीं लगती. अपीलकर्ता का तर्क था कि जब एक राज्य में एक से अधिक भाषाएँ प्रयोग में है, तब उस राज्य विधान-मण्डल केवल हिन्दी या उस राज्य कि उन एक या अधिक भाषाओं को अपनी भाषा स्वीकार कर सकता है. फिर भी, यह न्यायालय अनुच्छेद 345 की इस व्याख्या को स्वीकार नहीं करता.
व्यावहारिक आवश्यकता का ध्यान रखते हुए, बहुत से राज्यों ने एक और भाषा को अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल करने की मांग पर प्रतिक्रिया की है. भारत में निम्न राज्यों और केंद्रीय-क्षेत्रों एक से अधिक आधिकारिक भाषा हैं या कतिपय उद्देश्यों के लिए एक से अधिक भाषा प्रयोग की अनुमति देते हैं:
क्रमांक | राज्य/केंद्रीय-क्षेत्र | आधिकारिक भाषा(एँ) | अन्य आधिकारिक भाषा(एँ)/आधिकारिक प्रयोग के लिए अनुमत भाषा(एँ) |
1 | आंध्र प्रदेश | तेलगू | उर्दू, अंग्रेजी |
2 | असम | असमिया | बंगाली, बोड़ो, अंग्रेजी |
3 | बिहार | हिन्दी | उर्दू |
4 | छत्तीसगढ़ | हिन्दी | छत्तीसगढ़ी |
5 | गोवा | कोंकणी | मराठी, अंग्रेजी |
6 | गुजरात | गुजराती, hindi | |
7 | हरियाणा | हिन्दी | पंजाबी, अंग्रेजी |
8 | हिमाचल प्रदेश | हिन्दी | संस्कृत |
9 | झारखंड | हिन्दी | मगही, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, भूमिज, उर्दू, संथाली, मुंडारी, हो, संथाली, खाड़िया, कुरुख, कुरमाली, खोरथा, नागपुरी, पंचपरगनीय, बंगाली, ओड़िया |
10 | कर्णाटक | कन्नड़ | अंग्रेजी |
11 | केरल | मलयालम | अंग्रेजी, तमिल, कन्नड़ |
12 | महाराष्ट्र | मराठी, | अंग्रेजी |
13 | मणिपुर | मणिपुरी (मैतैलान) | अंग्रेजी |
14 | मेघालय | अंग्रेजी | ख़ासी, गारो, |
15 | मिज़ोरम | मिज़ो | अंग्रेजी |
16 | ओड़िसा | ओड़िया | अंग्रेजी |
17 | पंजाब | पंजाबी | अंग्रेजी |
18 | राजस्थान | हिन्दी | अंग्रेजी |
19 | सिक्किम | अंग्रेजी, नेपाली, भूटिया, लेपचा | लिम्बू, सुनुवर, तामाङ, भुजेल, नेवारी, राय, गुरांग, मंगर, शेरपा, |
20 | तमिलनाडु | तमिल | अंग्रेजी |
21 | तेलंगाना | तेलगु | उर्दू, अंग्रेजी |
22 | त्रिपुरा | बंगाली, कोकबोरोक | अंग्रेजी |
23 | उत्तर प्रदेश | हिन्दी | उर्दू |
24 | उत्तराखण्ड | हिन्दी | संस्कृत |
25 | पश्चिम बंगाल | बंगाली | उर्दू, हिन्दी, ओडिया, पंजाबी, संथाली, नेपाली, कुरुख, कामतापुरी, राजबंशी, कुरमाली, तेलगु, अंग्रेजी |
26 | अंडमान निकोबार द्वीप समूह | हिन्दी | अंग्रेजी |
27 | दादर व नगर हवेली व दमन व दिव | हिन्दी, अंग्रेजी | गुजराती |
28 | दिल्ली | हिन्दी | उर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी |
29 | जम्मू और कश्मीर | कश्मीरी, डोगरी, हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी | |
30 | लद्दाख | हिन्दी | अंग्रेजी |
31 | पुडुचेरी | तमिल | तेलगु, मलयालम, अंग्रेजी |
उर्दू के विरुद्ध पूर्वाग्रह की जड़े गलतफ़हमी में हैं कि उर्दू भारत के लिए विदेशी है. यह राय, हम चिंतनीय रूप से समझते हैं, उर्दू के लिए गलत है, जो कि मराठी और हिन्दी की तरह भारतीय-आर्य भाषा है. यह वह भाषा है जो भारत की इस भूमि में जन्मी है. उर्दू भारत में उन विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के लोगों की आपसी विचार-विमर्श और संप्रेषण की आवश्यकता के कारण विकसित और निखरित हुई है. शताब्दियों में, इसने अधिक परिष्कार पाया है और बहुत से नामी शायरों कि पसंदीदा भाषा बनी है.
भाषा के इर्द-गिर्द बहस नई नहीं है. तथ्य है, यह स्वतंत्रता से पहले प्रारम्भ हुई और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारतीय भाषाओं के अधिक प्रयोग की आवश्यकता उत्पन्न हुई. बड़ी संख्या में भारतीय मानते है कि जो भाषा विभिन्न भारतीय भाषाओं, जैसे हिन्दी, उर्दू और पंजाबी, के सम्मिलन का उत्पाद है “हिंदुस्तानी” कहलाती हैं, वह ही इस देश के आम जनसमुदाय द्वारा बोली जाती है. अपने 1923 के कोकनाडा (काकीनाड़ा) सत्र में, भारतीय राष्ट्रीय परिषद (काँग्रेस) ने अपने संविधान में संशोधन करते हुए माना कि काँग्रेस अपनी कार्यवाही में हिंदुस्तानी, अंग्रेजी और प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग करेगी. प्रस्ताव का संबन्धित भाग यह है:
“अनुच्छेद 33[10]
काँग्रेस की कार्यवाही, जहाँ तक संभव हो, हिंदुस्तानी, अंग्रेजी और प्रादेशिक भाषा में की जाएगी.“
इस सत्र में, यह माना गया कि विभिन्न समुदायों में एक दूसरे के उद्देश्य और इरादे पर आपसी संदेह के कारण (आपसी) सहयोग की कमी भारत में स्वराज की प्राप्ति में एक रोड़ा है. इस कठिनाई उबरने के लिए विभिन्न समुदायों ने अपने प्रतिनिधियों के मार्फत सभी समुदायों का लक्ष्य स्वराज मानते हुए भारतीय राष्ट्रीय समझौते (Indian National Pact) पर हस्ताक्षर किए. यह समझौता हिंदुस्तानी को भारत की राष्ट्र भाषा मानता था. इस समझौते का संबन्धित भाग इस प्रकार है:
“(3) हिंदुस्तानी भारत की राष्ट्र भाषा होगी. इसे उर्दू या देवनागरी दोनों लिपियों में लिखे जाने की अनुमति होगी.“
- 1934 के काँग्रेस संविधान में एक प्रावधान शामिल था जिसके अनुसार काँग्रेस की सारी कार्यवाही हिंदुस्तानी में होगी और आज के भारतीय संविधान की ही तरह, काँग्रेस संविधान में भी एक प्रावधान था कि जिस किसी वक्ता को हिन्दी बोलने में असमर्थता है और काँग्रेस अध्यक्ष अनुमति देते हैं तो वह अंग्रेजी या अन्य भारतीय भाषा का प्रयोग कर सकते हैं. इस काँग्रेस संविधान का अनुच्छेद सत्रह इस प्रकार है:
“अनुच्छेद 17 भाषा[11]
-
-
- काँग्रेस, अखिल भारतीय कॉंग्रेस कमेटी और कार्यकारी समूह की कार्यवाही आम तौर पर हिंदुस्तानी में होंगी; यदि वक्ता हिंदुस्तानी बोलने में असमर्थ है और अध्यक्ष अनुमति देते हैं तो अंग्रेजी या अन्य प्रादेशिक भाषा का प्रयोग हो सकेगा.
-
(ब) प्रादेशिक काँग्रेस कमेटी की कार्यवाही समान्यतः संबन्धित प्रदेश की भाषा में होगी. हिंदुस्तानी का भी प्रयोग हो सकता है.
31.
यह प्रस्ताव देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा लिखित एक निबंध में भी परिलक्षित होता है जहाँ वह लिखते हैं:
“भाषा पर भारत को असंख्य भागों में बाँटने का आरोप लगा है. जनगणना हमें बताती है कि भारत में 222 भाषा या बोलियाँ हैं. मैं समझता हूँ कि संयुक्त राज्य (यूनाइटेड स्टेट्स) की जनगणना बहुत अधिक संख्या में भाषाएँ उल्लिखित करती है और मैं समझता हूँ, जर्मन जनगणना, साठ से अधिक का उल्लेख करती है. परंतु इनमें से अधिकतर लोगों के छोटे समूह द्वारा बोली जातीं है या बोलियाँ हैं. भारत में, जन शिक्षा के अभाव ने बोलियों की वृद्धि को बढ़ावा दिया. तथ्य के तौर पर, जहाँ तक भाषाओं की बात है, भारत एक विलक्षण एकीकृत क्षेत्र है. कुल मिलकर भारत के बड़े क्षेत्र में, दर्जन भाषाएँ है और वह एक दूसरे से निकटता से जुड़ी है. उनके दो समूह हैं – उत्तर, मध्य और पश्चिम की भारतीय आर्य भाषाएँ तथा पूर्व और दक्षिण की द्रविड़ भाषाएँ. भारतीय आर्य भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं और जो कोई उनमें से एक को जानता है दूसरी को सीखना सरल पाता है. द्रविड़ भाषाएँ अलग है, परंतु उनमें से हरेक के पचास प्रतिशत या अधिक शब्द संस्कृत से हैं. भारत में प्रमुख भाषा है: हिंदुस्तानी (हिन्दी और उर्दू) जो बारह करोड़ लोग बोलते हैं और करोड़ों अन्य लोग थोड़ी बहुत समझते हैं. यह भाषा, बिना किसी प्रादेशिक भाषा को हटाए मगर अनिवार्य द्वितीय भाषा के रूप में, संप्रेषण का अखिल भारतीय माध्यम अवश्य बनेगी. राज्य की ओर से जन शिक्षा के साथ यह कठिन नहीं होगा. पहले ही फिल्मों और रेडियो के कारण, हिंदुस्तानी का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है. इस आलेख के लेखक को सारे देश में बड़ी जनसमूह को संबोधित करने के मौके मिले हैं और लगभग हमेशा, दक्षिण को छोड़ कर, वह हिंदुस्तानी प्रयोग करता है और समझा जाता है. लेकिन भारत में सुलझाने के लिए बहुत सी कठिन समस्या हैं, भाषा उनमें से एक नहीं है. यह पहले से ही सुलझने की ओर है.
(ज़ोर/वज़न दिया गया)
नेहरू स्वीकारते हैं कि हिंदुस्तानी संप्रेषण का अखिल भारतीय माध्यम अवश्य बनेगी, क्योंकि यह देश में बड़ी संख्या में लोगों द्वारा बोली जाती है. साथ ही, वह प्रादेशिक भाषाओं का महत्व मानते हुए ज़ोर देते हैं कि प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी से विस्थापित करने का इरादा नहीं है. अतः, वह हिंदुस्तानी को अनिवार्य द्वितीय भाषा बनाने का विचार रखते हैं.
उपरोक्त घटनाक्रम के आधार पर, यह स्पष्ट है की देश स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा मानने की ओर बढ़ रहा था. यहाँ तक की संविधान सभा के प्रक्रिया नियमावली में तय किया गया कि सभा की कार्यवाही हिंदुस्तानी या अंग्रेजी में होगी. पुनः, वर्तमान संविधान[12] के समान वही परंतुक जोड़ा गया था कि यदि कोई सदस्य अपनी बात हिंदुस्तानी या अंग्रेजी में रखने में अक्षम हों तो वह अध्यक्ष कि अनुमति से अपनी मातृभाषा में बोल सकेंगे.[13]
तब क्यों हिंदुस्तानी को संघ की आधिकारिक भाषा नहीं माना गया? यह स्पष्ट है कि मुख्य कारण 1947 में देश का विभाजन और पाकिस्तान द्वारा उर्दू को अपनी राष्ट्र भाषा घोषित करना था. अंतिम पीड़ित हिंदुस्तानी थी.
ऑस्टिन विशेष रूप से संविधान सभा में और सामान्यतः भारत में भाषा के मुद्दे पर चले विमर्श को विस्तार से बताते हैं. अपनी पहली किताब[14] के बारहवें अध्याय में इस विवादास्पद और नाजुक राष्ट्रीय मुद्दे पर काफी रोशनी डालते हैं. यह स्वतन्त्रता उपरांत राष्ट्रीय नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों का बहुमत का प्रगतिशील विचार था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा बनने कि बहुत रोशन संभावना रखती है. संविधान सभा की प्रारम्भिक बहसो में दोनों पक्षों के कट्टरवादियों में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी तथा उर्दू के उदार मिश्रण हिंदुस्तानी पर समझौते की संभावना बनी. लेकिन तभी भारत के विभाजन के रूप में बड़ी टूटन आई और उसके बहुत से दुष्परिणाम में से एक उर्दू और हिंदुस्तानी पर बड़ा प्रहार था. ऑस्टिन यहाँ कहते हैं:
“… विभाजन ने हिंदुस्तानी को मार दिया और संविधान में अंग्रेजी और प्रादेशिक भाषाओं को खतरे में डाल दिया. यदि विभाजन नहीं होता तो हिंदुस्तानी, बिना शक, राष्ट्रीय भाषा होती”, के स्वामीनाथन मानते है, “लेकिन मुस्लिम विरोधी आक्रोश उर्दू विरोधी हो गया. सभा के सदस्यों ने, द हिंदुस्तान टाइम्स के एक आलेख के अनुसार, महसूस किया कि “मुस्लिमों द्वारा देश के विभाजन के बाद राष्ट्रीय भाषा के पूरे मामले को पुनः देखना चाहिए”. उर्दू (हिन्दुस्तानी) भाषियों के “विश्वासघात” द्वारा विभाजन से एकता का सपना चूर-चूर होने के बाद, हिन्दी कट्टरपंथियों हिन्दी और उसके माध्यम से राष्ट्रीय एकता पाने के प्रति अधिक दृढ़ता से प्रतिबद्ध हो गए. हिन्दी-वालों का मानना था प्रादेशिक भाषाओं के बोलने वाले हिन्दी सीखें और क्षेत्रीय भाषाओं का मामला बाद में देखा जाए. इसके साथ उर्दू की तरह अंग्रेजी भी जानी चाहिए. क्या दोनों गैर – भारतीय नहीं थीं?[15]
जैसा हो सकता था, अब यह तथ्य है कि संविधान के अंतर्गत हिंदुस्तानी आधिकारिक भाषा नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 343 के अंतर्गत हिन्दी आधिकारिक भाषा है, जबकि पंद्रह वर्ष के समय के लिए अंग्रेजी का प्रयोग आधिकारिक उद्देश्यों की अनुमति दी गई. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की हिंदुस्तान और उर्दू समाप्त हो गईं. संविधान निर्माताओं का यह इरादा नहीं था. संविधान सभा में भाषा के मुद्दे पर जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय भाषा यानी हिन्दी उर्दू शब्दों को शामिल कर-कर समृद्ध होगी. उनके शब्द थे:
“… हम पाते हैं कि कतिपय विषयों को हम हिन्दी में बेहतर कह पाते हैं और अन्य विषयों में उर्दू अच्छी रहती है; यह उस विषय की गंभीरता के लिए थोड़ा बेहतर है. मेरी दलील है कि दोनों साधन है जो हिन्दी को मजबूत बनाते हैं जो हमारी आधिकारिक और राष्ट्रीय भाषा बनने जा रही है. आइये लोगों के संपर्क में रहें…”[16]
अनुच्छेद 351 में यह भावना मौजूद है, जो कहता है:
“351. हिन्दी भाषा के विकास के लिए निर्देश
संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे.“
नेहरू और गांधी दोनों हिंदुस्तानी के बड़े समर्थक थे. मृत्यु के कुछ माह पहले गांधी लिखते हैं:
यह हिंदुस्तानी न तो संस्कृतनिष्ठ हिन्दी होनी चाहिए न फारसीदाँ उर्दू, पर दोनों का अच्छा मिश्रण हो. जब भी जरूरी हो तो वह विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं से शब्दों को सरलता से शामिल करे और विदेशी भाषाओं से भी शब्दों को आत्मसात करे, यदि वह अच्छे और सरलता से हमारी राष्ट्रीय भाषा में घुलमिल जाएँ . इस प्रकार हमारी राष्ट्रीय भाषा मानवीय विचारों और भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए समृद्ध और शक्तिशाली भाषा में विकसित होनी चाहिए. सिर्फ हिन्दी या उर्दू में सीमित होना बौद्धिकता और राष्ट्रीयता की भावना के विरुद्ध अपराध होगा.[17]
आज भी, देश के आमजन की भाषा उर्दू शब्दों से भरी हुई है, भले ही वह इस से अवगत न हों. यह कहना गलत नहीं होगा कि उर्दू शब्दों या उर्दू से लिए गए शब्दों के बिना कोई हिन्दी में रोज़मर्रा की बातचीत नहीं कर सकता. शब्द ‘हिन्दी’ खुद फारसी शब्द ‘हिंदवी’! से आता है. यह शब्दावली का दो-तरफ़ा लेनदेन है क्योंकि उर्दू में बहुत से शब्द संस्कृत सहित अन्य भारतीय भाषाओं से लिए गए हैं.
दिलचस्प तौर पर, उर्दू शब्दों का नागरिक (दीवानी) और आपराधिक (फ़ौजदारी) अदालती वार्तालाप में बहुत प्रभाव है. ‘अदालत’[18] से ‘हलफ़नामा’[19] से ‘पेशी’[20], भारतीय न्यायालयों में उर्दू का प्रभाव बहुत बड़ा है. उस मामले में, जबकि संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है, फिर भी बहुत से उर्दू शब्द आज तक इस न्यायालय में लगातार प्रयोग होते हैं. जिनमें ‘वकालतनामा’[21], ‘दस्ती’[22] आदि शामिल हैं.
दूसरे दृष्टिकोण से देखते हैं, उर्दू भाषा भारत के बहुत से राज्यों और केंद्रीय-क्षेत्रों ने संविधान के अनुच्छेद 345 के अंतर्गत दूसरी भाषा के तौर पर स्वीकार की है.[23] जिन राज्यों में उर्दू एक आधिकारिक भाषा है वह हैं, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल, जबकि केन्द्रीय क्षेत्र जो इस परंपरा को मानते हैं, दिल्ली और जम्मू व कश्मीर हैं.
संविधान के दृष्टिकोण से भी, भाषा का आधिकारिक उद्देश्य से प्रयोग किसी कठिन सूत्र के हिसाब से नहीं है. उदाहरण के लिए, संविधान का अनुच्छेद 120 हिन्दी और अंग्रेजी को संसद की आधिकारिक भाषा निर्धारित करता है, लेकिन इस अनुच्छेद का परंतुक सदन के पीठासीन अधिकारी को किसी सदस्य को, यदि वह हिन्दी या अंग्रेजी न जानते हो, उनकी मातृभाषा में अपनी बात रखने अनुमति देने का अधिकार देता है. समान सिद्धान्त राज्य विधान-मण्डल में संविधान के अनुच्छेद 210 के मार्फत लागू होता है.
यह जानना भी समान रुचि की बात है कि जब हम उर्दू की आलोचना करते हैं, हम एक तरह हिन्दी की भी आलोचना करते हैं क्योंकि भाषा शास्त्रियों और साहित्यिक विद्वानों के अनुसार, उर्दू और हिन्दी दो नहीं, एक भाषा हैं. सत्य है, उर्दू मुख्यतः नस्तालिक़[24] और हिन्दी देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन फिर लिपि भाषा नहीं बनाती. भाषाओं को जो अलग बनाता है, वह उनका वाक्यविन्यास, उनका व्याकरण और उनकी ध्वन्यतमकता है. उर्दू और हिन्दी इन सभी कसौटियों पर व्यापक समानताएं रखतीं हैं. प्रसिद्ध उर्दू विद्वान ज्ञान चंद जैन पत्रिका हिंदुस्तानी ज़ुबान (जनवरी-अप्रैल 1974) में उर्दू, हिन्दी या हिंदुस्तानी में लिखते हैं:
“यह पूरी तरह स्पष्ट है की उर्दू और हिन्दी दो अलग भाषाएँ नहीं हैं. उन्हें दो भाषाएँ कहना भाषा शास्त्र के सभी सिद्धांतों को झुठलाना है तथा अपने और दूसरों के साथ धोखा करना है… जबकि उर्दू अदब और हिन्दी साहित्य दो अलग और स्वतंत्र साहित्य हैं, उर्दू और हिन्दी दो अलग भाषाएँ नहीं हैं… भारतीय संविधान में उर्दू और हिन्दी को दो अलग भाषाएँ मानना राजनीतिक सुविधा है, भाषा शास्त्रीय वास्तविकता नहीं.“[25]
प्रोफ़ेसर ज्ञान चंद जैन हमारे संविधान में उर्दू और हिन्दी को दो अलग भाषाएँ मानने का ध्यान रखते हैं पर कहते हैं, यह “राजनीतिक सुविधा है, भाषा शास्त्रीय वास्तविकता नहीं”. अमृत राय के अनुसार, “… संविधान में उनको दो अलग भाषाएँ मानना भाषा शास्त्रियों को उनके अलगाव की वैज्ञानिक वैधता पर प्रश्न उठाने से नहीं रोक सकता”[26].
42.
प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान रामविलास शर्मा, जो हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के प्रबल समर्थक हैं, अपनी पुस्तक भारत की भाषा समस्या में लिखते हैं:
“हिन्दी उर्दू दो भाषाएँ नहीं है; वह मूलतः एक ही हैं. उनके सर्वनाम, क्रिया, और मूल शब्दावली एक अहि. दुनिया में कोई भी अन्य दो भाषाएँ नहीं है जिनके सर्वनाम और क्रियाएँ सौ प्रतिशत समान हैं. रूसी और उक्रेनी एक दूसरे से बहुत एक जैसी हैं पर वह भी इतनी एक जैसी नहीं हैं.[27]
एक अन्य असाधारण उर्दू विद्वान और उर्दू आंदोलन के नेता, अब्दुल हक़ अपनी किताब क़ादिम उर्दू में कहते हैं:
“यह स्पष्ट तथ्य हैं और किसी और स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं हैं कि भाषा जो हम आज ‘उर्दू’ नाम से बोलते और लिखते हैं हिन्दी से निकली है और हिन्दी से निर्मित है.[28]
अगर वहाँ असमानताएँ हैं तो हिन्दी और परिष्कृत हिन्दी में बहुत हैं, साथ ही उर्दू और परिष्कृत उर्दू में भी हैं. लेकिन जब वह बोली जातीं हैं हिन्दी और उर्दू में निकट समानताएँ हैं. एक बार फिर हम ज्ञान चंद जैन के पास चलते हैं, जो लिखते हैं:
“… यह तथ्य है कि सामान्य उर्दू लेखन और सामान्य हिन्दी लेखन में कोई इतना बड़ा फर्क नहीं है जो सामान्य उर्दू और कठिन उर्दू या हिन्दी और कठिन हिन्दी के बीच न हो. हर भाषा के साहित्य में, चाहे उर्दू हो या हिन्दी अंग्रेजी, कोई भी शब्दों के प्रयोग से कई स्तर की भाषा पा सकता हैं – एक तरफ रोज़मर्रा की एक दम सरल भाषा और दूसरी ओर समझने में कठिन शास्त्रीय और विदेशी भाषा के शब्दों से बोझिल…”[29]
यह उर्दू के उत्कर्ष और निकष पर विस्तार से चर्चा का अवसर नहीं है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि हिन्दी और उर्दू दो भाषाओं का यह संगम दोनों ओर के शुद्धतावादियों के अवरोध का सामना कर रहा है और हिन्दी अधिक संस्कृतनिष्ट और उर्दू अधिक फारसीदाँ हो रही है. औपनिवेशिक ताकतों ने मतभेदों का प्रयोग कर दो भाषाओं को धर्म के आधार पर बाँट दिया. आज हिन्दी हिंदुओं की भाषा समझी जाती है और उर्दू मुस्लिम की, यह वास्तविकता से, अनेकता में एकता और विश्व बंधुत्व के विचार से दयनीय भटकाव है.
इस (विचाराधीन) मामले पर आते हैं, यह कहना चाहिए कि नगर पालिका क्षेत्र के स्थानीय समुदाय को सेवा देने और उनकी दैनिक आवश्यकता को पूरा करने के लिए है. यदि नगर पालिका के क्षेत्र में लोग या लोगों का एक समूह उर्दू जानता है, तो कम से कम नगरपालिका के नाम पट्ट पर आधिकारिक भाषा मराठी के साथ, उर्दू लिखे होने पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. भाषा विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है जो विभिन्न विचारों और विश्वासों के लोगों को पास लाता है और यह विभाजन का कारण नहीं होना चाहिए.
और यह हमारे भारत के पूर्व मुख्य मुख्य न्यायाधीश एम. एन. वेंकटचालियाह के शब्द है, जो दिल्ली में एक सेमिनार में बोलते हुए उर्दू संरक्षण के लिए यह उत्कट निवेदन करते है:
“उर्दू भाषा भारत में विशेष स्थान रखती है. उर्दू भाषा रहस्यवाद की उत्कृष्टता से लेकर रूमानी और सांसारिकता, सौहार्द की खुशबू, संगीत और जीवन की उदासी और मानवीय रिश्तों की एक पूरी शृंखला तक गहरी भावनात्मक भावनाओं और विचारों का जादू उत्पन्न है और प्रेरित करती है. इसका समृद्ध साहित्य और ज्ञान जीवन की जटिलताओं पर उन्नत विचारों का भंडार है. उर्दू भारत की केवल एक भाषा नहीं है. यह अपने आप में संस्कृति और सभ्यता है… लेकिन आजकल इस महान सभ्यता को बनाए रखने के लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है… उर्दू संस्कृति की समृद्धि के पुराने वैभव को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता है.“[30]
हमारी गलत अवधारणाओं, शायद किसी भाषा के प्रति हमारे पूर्वाग्रहों को भी साहस और सत्यनिष्ठ के साथ वास्तविकता पर जाँचा जाना चाहिए, जो कि हमारे देश की महान विविधता है: हमारी ताकत कभी कमजोरी नहीं बन सकती. आएं, हम उर्दू और हर भाषा के दोस्त बनें. अगर उर्दू खुद बोल सकती, वह कहती:
“उर्दू है मिरा नाम मैं ‘ख़ुसरव’ की पहेली
क्यूँ मुझ को बनाते हो तअस्सुब का निशाना
मैंने तो कभी ख़ुद को मुसलमाँ नहीं माना
देखा था कभी मैंने भी ख़ुशियों का ज़माना
अपने ही वतन में हूँ मगर आज अकेली
उर्दू है मिरा नाम मैं ‘ख़ुसरव’ की पहेली”[31]
एक और भाषा का दर्शाया जाना, अपने आप में, 2022 अधिनियम के प्रावधान का उलंघन नहीं कहा जा सकता. उच्च न्यायालय ने इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले कानून के संबन्धित प्रावधानों का ध्यान रखा था. हम पूर्णतः उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए तर्कों से पूरी तरह सहमत हैं कि 2020 अधिनियम या किसी अन्य कानून में उर्दू के प्रयोग पर कोई प्रतिबंध नहीं है. अपीलकर्ता का पूरा मामला हमारे विचार से कानून की नासमझी पर आधारित है. यह अपील ख़ारिज करने योग्य है और यह इस तरह ख़ारिज की जाती है.
लंबित प्रार्थनाएँ, यदि कोई हैं, निपट जाती हैं.
(सुधांशु धूलिया)
(के. विनोद चंद्रन)
नई दिल्ली
अप्रैल 15, 2025
वर्षाताई बनाम महाराष्ट्र शासन के मूल निर्णय को आप उच्चतम न्यायालय के इस पते से प्राप्त कर सकते हैं: |
संदर्भ
[1] MRS. VARSHATAI W/o. SH. SANJAY BAGADE Versus THE STATE OF MAHARASHTRA THROUGH ITS SECRETARY, MINISTRY OF LAW AND JUDICIARY, MANTRALAYA, MUMBAI AND ORS. ETC. दिनांक 15 अप्रैल 2025
[2] संवैधानिक न्यायालयों में पीठ के साथी न्यायमूर्तियों को आपस में भ्राता/बहन कहने की परंपरा है.
[3] भारतीय संविधान के प्रमुखतम विशेषज्ञ
[4][4] See GRANVILLE AUSTIN, Language and the Constitution – the half-hearted compromise, THE INDIAN CONSTITUTION: CORNERSTONE OF A NATION, Oxford University Press (2000) at pp. 265- 307.
[5] अनुच्छेद का आधिकारिक हिन्दी रूप.
[6] अनुच्छेद का मेरे द्वारा सरल हिन्दी अनुवाद जिसमें मामूली अंतर है जो इस निर्णय में इस अनुच्छेद पर की गई टीका को स्पष्ट करता है.
[7] Uttar Pradesh Hindi Sahitya Sammelan v. State of Uttar Pradesh (2014) 9 SCC 716
[8] निर्णय में यह वाक्यांश तिरछा लिखा है जो दर्शाता है कि इसे अधिनियम से यों का त्यों उठाया गया है.
[9] यह उन मामलों में दायर की जाती है जहां उच्च न्यायालय किसी पक्ष को उच्चतम न्यायालय जाने की अनुमति नहीं देता. यह अनुमति उच्च न्यायालय तब देता है जब कानून या संविधान के किसी प्रश्न पर अन्य उच्च न्यायालयों से उसका मत अलग हो या उसे लगे कि इस मामले में संवैधानिक प्रश्न बरकरार है. आजकल अधिकतर मामलों में विशेष अनुमति याचिकों के रास्ते ही अपील उच्चतम न्यायालय तक जाती है. प्रायः माना जाता है अधिकांश मामलों में उच्चतम न्यायालय इस अपील को सुनवाई के लिए स्वीकार नहीं करता. जाँचने के लिए, किसी भी सोमवार की वाद सूची और उसपर आए आदेशों को देखा जा सकता है.
[10] A.M ZAIDI, THE ENCYCLOPAEDIA OF INDIAN NATIONAL CONGRESS-VOL-8: 1921-1924: INDIA AT THE CROSS-ROADS at p. 635.
[11] A.M ZAIDI, THE ENCYCLOPAEDIA OF INDIAN NATIONAL CONGRESS-VOL-10: 1930-1935: THE BATTLE FOR SWARAJ at p. 442.
[12] See Articles 120 and 210 of the Constitution of India
[13] GRANVILLE AUSTIN, THE INDIAN CONSTITUTION: CORNERSTONE OF A NATION, Oxford University Press (New Delhi; 2000) at p. 274.
[14] GRANVILLE AUSTIN, THE INDIAN CONSTITUTION: CORNERSTONE OF A NATION, Oxford University Press (New Delhi; 2000)
[15] GRANVILLE AUSTIN, THE INDIAN CONSTITUTION: CORNERSTONE OF A NATION, Oxford University Press (New Delhi; 2000) at pp. 277-278
[16] Constituent Assembly Debates, Vol IX at p. 1415.
[17] GRANVILLE AUSTIN, THE INDIAN CONSTITUTION: CORNERSTONE OF A NATION, Oxford University Press (New Delhi; 2000) at p. 272.
[18] न्यायालय
[19] शपथपत्र
[20] उपस्थिति
[21] इसका कोई अंग्रेजी शब्द भी प्रयोग नहीं होता, हिन्दी शब्द भी.
[22] ‘by hand’, हस्तगत इसका निकटतम हिन्दी शब्द होगा,
[23] Please refer to the previous paragraphs of this judgment.
[24] Urdu written in Perso-Arabic script in calligraphic style is called ‘Nastaliq’.
[25] Our source for this extract is AMRIT RAI, A HOUSE DIVIDED: THE ORIGIN AND DEVELOPMENT OF HINDI/HINDAVI, Oxford University Press (1984) at p. 3.
[26] AMRIT RAI, A HOUSE DIVIDED: THE ORIGIN AND DEVELOPMENT OF HINDI/HINDAVI, Oxford University Press (1984) at p. 3
[27] Our source for this extract is AMRIT RAI, A HOUSE DIVIDED: THE ORIGIN AND DEVELOPMENT OF HINDI/HINDAVI, Oxford University Press (1984) at p. 6.
[28] Our source for this extract is AMRIT RAI, A HOUSE DIVIDED: THE ORIGIN AND DEVELOPMENT OF HINDI/HINDAVI, Oxford University Press (1984) at p. 6.
[29] See AMRIT RAI, A HOUSE DIVIDED: THE ORIGIN AND DEVELOPMENT OF HINDI/HINDAVI, Oxford University Press (1984) at pp. 8-13 and 285-289.
[30] See Danial Latifi, Urdu in UP, Economic and Political Weekly, Vol. 36, No.7 (Feb 17-23, 2001), pp. 533-535 at p. 535.
[31] Extract from a Nazm by poet Iqbal Ashhar
aishwaryam_gahrana@yahoo.com |
मूलत: साहित्यिक पत्रिका के लिए यह अभिनव सामग्री है। इसै वैविध्य और नवाचार के लिए भी रेखांकित किया जाना चाहिए। यह मसला संप्रेषणीय ढंग से समक्ष करने के लिए ऐश्वर्य मोहन गहराना जी और अरुण देव को बधाई। धन्यवाद।
आपका बहुत बहुत आभार, धन्यवाद।