मंगलेश डबराल के छह कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं- ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘आवाज़ भी एक जगह है’, ‘नये युग का शत्रु’ और ‘स्मृति एक दूसरा समय है’. सभी संग्रहों को दृष्टि में रखते हुए आलोचक ओम निश्चल ने मंगलेश डबराल के कवि-कर्म को समझने की इस आलेख में कोशिश की है. प्रस्तुत है.
मैं शब्दों में नहीं, कहीं अलग से आती ध्वनियों में हूँ
ओम निश्चल
मंगलेश डबराल : (16 मई, 1948- 9 दिसंबर, 2020)
मंगलेश डबराल के न होने से कविता की एक बड़ी आवाज़ जैसे हमारे बीच से ओझल हो गई है. मंगलेश डबराल हमारे समय के उन विरल कवियों में हैं,जिनकी कविताओं का सादा और सरल चेहरा वास्तव में उतना सरल नहीं है,जितना वह अपने पाठ में दिखायी देता है. इसीलिए उनकी कविताएँ शब्दों की स्फीति पर आश्रित रहने वाले और विवरणात्मकता से लदे-फँदे कवियों के उद्यम के आगे कहीं प्रयत्न-लाघव से बनी-बुनी लगती हैं. उनकी कविताओं के बारे में यह कहना बिल्कुल ठीक है कि इनमें जो शिल्पहीनता है वह शिल्प की जटिलता में से आयी है और जो सरलता सतह पर प्रकट होती है उसका जन्म गहरे अनुभव की सघनता से हुआ है. उनकी कविताएं आवाज की सघनता और अनुभव की तरलता का प्रमाण हैं.
अपनी कविताओं के बारे में मंगलेश का यह कथन गौरतलब है कि :
जो कुछ भी था जहाँ-तहाँ हर तरफ
शोर की तरह लिखा हुआ
उसे ही लिखता मैं
गीत की तरह
(प्रतिकार,आवाज़ भी एक जगह है).
बेशक, मंगलेश की अब तक की कविता चर्या बताती है कि उन्होंने समय और समाज के शोरीले वातावरण को अत्यंत सुरीलेपन से व्यक्त करने की चेष्टा की है. बल्कि कहा जाये तो जीवन, समय और समाज से लगातार खत्म होते जा रहे संगीत को कविताओं में बचाकर सहेज लेने और वापस समाज को लौटाने की पेशकश ही जैसे मंगलेश का कवि-स्वभाव बन गया है. पर सवाल यह है कि समाज और समय या कि मनुष्य जिसे खुद ही खो देने पर आमादा हो, उसे पुन: वह चीज कैसे लौटायी जा सकती है. मंगलेश की कविताएँ इस चिंता को हम सबसे शेयर करती हैं–वे कभी हमें अपने अतीत और व्यतीत के वृत्तांत सुना कर , कभी हमारे अपने आसपास के देखे-पहचाने से चरित्रों से मुलाकात कराकर, कभी अपने ही अनुभव वृत्तों के भीतर धड़कती काव्यात्मकता से जोड़कर जीवन से विदा लेते संगीत को सहेजने का आग्रह-सी करती जान पड़ती हैं.
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मंगलेश डबराल की कविताओं में यह जो शोर को संगीत में बदलने की ख्वाहिश है, यह उनकी रचना प्रक्रिया में अभिन्नता से शरीक रहा है. याद करें तो उनके पहले ही संगह ‘पहाड़ पर लालटेन‘की पहली ही कविता में वसंत ढलानों पर स्मृति बन कर उभरता है- ठंड से मरी इच्छाओं को पुनजीर्वित करता- कविता के कारुणिक अंत में कवि आवाज को चिड़िया की तरह लहूलुहान महसूस करता है. यह आवाज कविताओं में अपने समय की निःशब्द चीख बन कर उभरी है :
‘हमारी चीख से कितनी दूर मार दिये जाते थे वे किसी मोड़ पर’ (आते जाते),
‘उस पार कोई चीखता है बर्फ पर उसकी आवाज फैलती है
जैसे खून की लकीर’ (गिरना),
‘कभी कभी एक आवाज सुनायी देती है रेत से’ (यहाँ थी वह नदी),
‘कितने कीचड़ कितने खून से भरी
रात होगी उसके भीतर अगले दिन’ (अगले दिन ),
‘सपनों की जगह जली हुई जमीन थी
जहाँ सुन पड़ती थी उसके माँ-बाप के रोने की आवाज़’ (बच्चा),
‘आधी रात खंडहरों से राख उड़ती है हमारी हड्डियों पर’ (थकान),
‘दरारों से सब कुछ उठता है आर्तनाद की तरह’ (गाथा),
‘एक निर्गंध मृत्यु और वह सब जिससे तुम्हारा शरीर रचा गया है,लौटता है रक्त में फिर से चीखने के लिए’ (अंतराल), तथा
‘जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएँ दाँत पैने कर रही हैं पत्थरों पर’ (पहाड़ पर लालटेन)
जैसी पदावलियों में कवि की मानवीय विकलता की सुदृढ़ उपस्थित महसूस की जा सकती है. एक चीज और जो इन कविताओं में अधिकांशत: मौजूद है, जमती हुई या पिघलती हुई बर्फ के बिम्ब का अनेकार्थी आशयों में प्रयोग. पहाड़ के जटिल जीवन में जमती और पिघलती हुई बर्फ के अपने-अपने निहतार्थ हैं. ध्यान देने योग्य बात यह है कि आवाज भी एक जगह है शीर्षंक उनके नये संग्रह तक पहुँचने के लिए तेज आँख की तरह टिमटिमाती पहाड़ पर लालटेन की आग और अंधकार में से आते संगीत पर गौर जरूरी है क्योंकि यही वह संगीत है, वह आवाज है जो मंगलेश के प्रौढ़ कवि-मस्तिष्क में अभी भी एक जादू की तरह विद्यमान है. तभी उनके लिए यह कहना संभव हो सका कि–
“कविता दिन भर थकान जैसी थी और अंत में नींद की तरह
सुबह पूछती हुई क्या तुमने खाना खाया रात को?”
(कविता).
यह आकस्मिक नहीं हैं कि ‘पहाड़ पर लालटेन‘ में स्त्रियों की वेदना को भी कवि ने बखूबी पहचाना है और अनेक कविताओं में उसकी शिनाख्त़ मौजूद है. कहना न होगा कि एक स्त्री में स्त्री की परवशता और पांरपरिक छवि का जो खाका मंगलेश ने ‘पहाड़ पर लालटेन‘में खींचा था, वह ‘आवाज भी एक जगह है‘ में तुम्हारे भीतर कविता तक पूरी कृतज्ञता के साथ बरकरार है. मंगलेश की कविता के साथ एक खूबी यह भी है कि एक सीमा तक पहुँच कर वे आलोचक का काम खत्म कर देती हैं. एक स्त्री के कारण एक स्त्री बची रही तुम्हारे भीतर- इसे समझने के लिए आलोचक से ज्यादा व्यक्ति का भावक होना, पाठक होना जरूरी है.
स्त्री प्रत्यय मंगलेश डबराल की कवि-चेतना को अपनी ओर लगातार खींचता रहा है. इसके कई हवाले उनकी डायरियों, निंबधों व उनसे की गयी बातचीत में मिलते हैं. इस बारे में अपनी डायरी में एक जगह उन्होंने लिखा है : स्त्रियाँ मुझे पानी पेड़ हवा जैसे जीवन-तत्वों की तरह लगती हैं. उनके भीतर अथाह जलराशि है,कई जंगलों की निविड़ता है या वे हवा का घर हैं. उनके भीतर छिपी स्त्री के कारण ही स्त्रियों के प्रति उनकी संवेदना इतनी तरल और द्रवीभूत होकर प्रकट हुई है. शायद इसीलिए उनका यह स्वीकार गौरतलब है कि
“सच्चाई यह है कि मेरा जीवन मेरी सारी संवेदना स्त्रियों से गहरे जुड़ी है.”
‘घर का रास्ता‘में चौराहे पर, वहतथा ‘ हम जो देखते हैं‘ में संरचना, चेहराऔर माँ की तस्वीर जैसी कविताएँ स्त्री की आभा से संप्रेषित होकर ही रची गयी हैं.
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मैं भूल नहीं जाना चाहता था घर का रास्ता– लिख कर मंगलेश ने अपने भीतर के कवि को सदैव अपने परिवेश से प्रतिकृत रखने का ही उपक्रम किया है. ध्यान से देखें तो उनकी कविताओं की संरचना ब्रेख्त, रोजेविच,आक्तेवियो पाज़ एवं पाब्लो नेरुदा की कविताओं की याद दिलाती है. बचा ले आए हैं हम रोटी में नमक बराबर जीवन में ब्रेख्त जैसे कवियों के अनुभव की-सी आभा और परिपक्वता दिखती है. घर का रास्ता में पिता को लेकर दो कविताएँ हैं. बूढ़े होते हुए पिता का चित्रण. पिता से घर का एक बड़ा बिम्ब सृजित होता है. आगे हम जो देखते हैं संग्रह तक आकर पिता की तस्वीर के अलावा माँ की तस्वीर, दादा की तस्वीर,चेहरा, पिता की स्मृति में जैसी कविताएँ घर का रास्ता के ही दायरे को बड़ा कर कवि की निजता और आत्मीयता के पाट को और चौड़ा बनाती हैं. पिता की स्मृति में पिता की मृत्यु के बाद लिखी बेहद कारुणिक और उदास कर देने वाली कविता है. मंगलेश की डायरी में भी इसका मार्मिक जिक्र है. वे इस बात के ख्वाहिशमंद रहे हैं कि बुरे शब्द अच्छे शब्दों को कभी बेदखल न कर पाएँ.
कहना न होगा कि फार्म और तकनीक में उनकी हर कविता दूसरी से भिन्न होते हुए भी मानवीय धरातल पर एक-सी साँस लेती दिखायी देती है. जहाँ पहाड़ पर लालटेन और घर का रास्ता में शामिल उनकी ज्यादातर कविताएँ छोटी और मितभाषी हैं, वहीं हम जो देखते हैं की लगभग एक तिहाई कविताएँ थोड़ी बड़ी और गद्य से लगते प्रारूप में उप निबद्ध हैं–लेकिन अन्तर्निहित किस्सागोई से भरपूर. किन्तु आवाज भी एक जगह है में उनकी कविता का और अनुभवों का भी फलक किंचित वृहत्तर हुआ है.
एक नयी बात यह कि मंगलेश के कलाचेतन मन को भाने वाली दृश्यात्मकता के अलावा यहाँ अमीर खाँ, केशव अनुरागी,गुणानंद पथिक,ब्रेष्ट और निराला तथा चीनी कवि ली पाइ जैसे कला और कवितानुरागियों के चरिताख्यान भी शामिल हैं और हाशिये पर रहने वाले संगतकार और पागलों का वर्णन भी. करुणा-विगलित कर देने का भाव दर्शाने वाली होकर भी उनकी कविता भीतर से एक नैतिक काव्य विवेक से परिचालित होती है. वे जब यह लिखते है कि उसकी कविताओं में उनकी आवाजें है जिनकी कोई आवाज नहीं थी(अपनी छायाएँ) तो यह जगूड़ी जैसे कवि के घबराये हुए शब्द में कहे उस कथन से मेल खाता है जिसमें वे कहते हैं: मेरी कविता हर उस आँख की दरख्वास्त है,जिसमें आँसू हैं.
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मंगलेश के संग्रहों में ‘आवाज भी एक जगह है‘काफी हद तक अलग है. इस संग्रह तक आकर मंगलेश की काव्य साधना उस मुकाम पर पहुँची दिखायी देती थी जहाँ पहुँचना पोयटिक जस्टिस के निकट पहुँचना है. कविता को कथ्य की केंद्रीयता से अनुभव की केंद्रीयता में बदलने की कोशिश उस अटूट साधना के बल पर संभव हुई है जिसने आवाज भी एक जगह है को अनुभव के आकाश का नक्षत्र बना दिया है. इस नक्षत्र की चमक स्वप्न और यथार्थ के सहकार से संभव हुई है और इसे संभव कर पाना उस निरंतरता को साध पाना है जिसके चलते कविता कागज पर मानवीय कृतज्ञता के साथ अपने कदम रखती है. तमाम खूबसूरत (रमणीयार्थ प्रतिपादक के रुप में नहीं) और दूरसंवेदी पंक्तियाँ अभिधा की धूनी रमाये बैठे कवियों के वश के बाहर की बात है.
कविता इतनी साफ, सरल, स्वत:स्पष्ट किन्तु भीतर देर तक गुंजायमान रहने और दूर तक बींधने वाली है जिसकी व्याख्या करना सरोवर के साफ जल को गँदले पैरों से मथना है. एक ऐसी ही विकल कर देने वाली कविता है: खुशी कैसा दुर्भाग्यजो हमारे समाज का आईना है.
मंगलेश ने कई व्यक्तियों संगीतकारों आदि पर चरितमूलक कविताएं लिखी हैं पर ये कविताएँ अपने चरित्र से बहुत ऊपर नहीं उठ पातीं, जैसे कि पृथ्वी का रफूगर में देवीप्रसाद मिश्र अपने बाबा को केंद्र में रखते हुए उसे कड़ियल,कर्मनिष्ठ और व्यवस्था और सत्ता के लिए एक सवालिया निशान बने वरिष्ठ नागरिकों का देशव्यापी प्रतिनिधित्व करते चरित्र के रूप में बदल देते हैं और यह कविता एकाएक एक अकेली निष्ठा की आत्मकथा से ऊपर उठ कर हमारे समय के वंचित समुदाय की गाथा बन जाती है. दूसरी तरफ एक अवसाद और पीड़ा जगाने के सिवाय केशव अनुरागी, अमीर खाँ या गुणानंद पथिक जैसी कविताओं मे उनकी आवाज़ दूर तक न जा कर उन तक ही जैसे सिमट कर रह जाती है. पर संगतकार इन सबसे थोड़ी अलग और विशिष्ट कविता है. इन्हें पढ़ते हुए लगता है कि कहीं न कहीं कवि के मन में मुख्य धारा से छिटक कर दूर जा पड़े अथवा सबाल्टर्न समाज के व्यक्तियों,कलाकारों के प्रति पक्षधरता का भाव विद्यमान है जिसे मंगलेश की जनवादी और कलाचेतन दृष्टि का प्रमाण ही मानना चाहिए.
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मंगलेश डबराल की काव्य-कला गौरतलब है. फल, कहीं मुझे जाना था, चुंबन,घर की काया,सुबह की सड़क पर,राग दुर्गा,सात दिन का सफर,ज्योतिष,रचना प्रक्रिया,पागलों का वर्णन, संगतकार,पर्दों की तरह,दृश्यतथा खुशी कैसा दुर्भाग्य जैसी कविताओं मे यह उत्कर्ष पर है. मंगलेश की कविता में एक अनिश्चयात्मकता बनी रहती है. ‘शायद‘उनका प्रिय शब्द है. ‘आत्मा‘और ‘त्वचा‘का इस्तेमाल भी उनके यहाँ अधिक है. ‘अवसाद‘उनका पसंदीदा रंग है किन्तु यह बात अचरज में डालने वाली है कि मंगलेश की कविता से जो मनुष्य उभरता हुआ दिखायी देता है वह विनम्रता के बोझ से कुछ ज्यादा ही या कहें कि आत्मदया के बोझ से दबा हुआ लगता है. मरणोपरांत कवि में अंतत: कवि को सभा से बाहर जाता हुआ दिखाया गया है. इस कविता में स्वयं मंगलेश की तस्वीर दिखाई देती है.
मंगलेश की कविता शब्दों की नहीं,ध्वनियों की कविता है. ऐसा लगता है जैसे प्रयुक्त शब्दों से अर्थ की अनेक ध्वनियाँ फूटती हों और कहती हों, मुझे अभी आपने ठीक से नहीं पहचाना. मैं शब्दों में नहीं, कहीं अलग से आती ध्वनियों में हूँ. तभी तो उनके यहाँ दरवाजा खोलने पर मनुष्य की-सी आवाज आती है, विस्तर और तकियों के नीचे निवास करते हैं घर के रोग शोक जरा मरण. मंगलेश की कविता-चर्या का सार-समाहार उनकी जिस एक कविता में मुकम्मल ढंग से अंकित है, वह है अंतिम प्रारूप. यह कविता अपनी ध्वनि-संरचना में कुँवर नारायण की कागज़, कलम और स्याहीकी याद दिलाती है. मंगलेश की कविता का ढांचा निश्चित रूप से सरल है परन्तु उसकी ध्वनियाँ दूर संवेदी हैं. इसलिए मंगलेश जिसे परम अभिधा में भी कह रहे होते हैं, उसका निश्चायक अर्थ वहीं हो, यह जरूरी नहीं है.
मंगलेश डबराल की कविताओं में नैराश्य का भाव शुरु से ही विद्यमान रहा है. मोहभंग उनके कवि का स्थायी स्वभाव सा बन गया है. तथापि,‘हम जो देखते हैं’व ‘नये युग में शत्रु‘संग्रह इस बात से प्रथमद्रष्ट्या आश्वस्त करते हैं कि वे कविता की क्रीज पर यथावत् टिके ही नहीं हैं बल्कि वे उसे अनुभव और संवेदना की नई जलवायु से समृद्ध भी कर रहे हैं. ‘आवाज़ भी एक जगह है‘के बाद समय काफी बदला है. बाजार के घटाटोप और बहुराष्ट्रीय निगमों की आक्रामक पैठ ने हमारी चेतना को ढँक लिया है;सत्ता और अर्थव्यवस्था आम आदमी की नियति बदल पाने में निरुपाय दिखती है,उनकी दिलचस्पी अमीर होते जाते लोगों में है. ताकत और तकनीक के गठजोड़ ने इस दुनिया को नई तरह से अपनी गिरफ्त में लिया है. दुनिया अपने में खोई और मशगूल दिखती है. पारंपरिक बैंकों के दिन लद गए हैं. वे हाशिए में हैं तथा नई चाल और तकनीक के बैंक परिदृश्य पर छा गए हैं,जो कर्ज की चार्वाक परंपरा के सूत्रधार-से दिखते हैं और कर्ज-अदायगी में विफल रहने वाले किसानों को आत्महत्या की तरफ धकेल रहे हैं. आदिवासियों को खदेड़ा जा रहा है,न केवल ध्वस्त होती पारिस्थितिकी ने जीवन के लिए जरूरी प्राणवायु पर संकट पैदा किए हैं बल्कि भाषा में भी आक्सीजन लगातार घट रही है. राजनीति ने सांप्रदायिकता और धार्मिकता की बेल को सतत सींचने और संवधित करने का काम किया है. ऐसे में नये युग में शत्रु कवि की उस विक्षुब्ध मन:स्थिति की ओर इशारा करता है जो इसी क्रूर, अमानवीय और पूँजीवादी होते समय की फलश्रुति है.
वे यों ही नहीं कहते कि
”यथार्थ इन दिनों ज्यादा यथार्थ है
उसके शरीर से ज्यादा दिखाई दे रहा है उसका रक्त.”
इस दिशा में वे रघुवीर सहाय स्कूल के कवि होते हुए भी उनसे एक कदम आगे बढ़ते हैं जो यह कहा करते थे: यथार्थ यथास्थिति नहीं. उनकी अनेक रचनाएं अतीत की स्मृति के गोमुख में हमें ले जाती हैं. मां, पिता व बहन की समृति में उनकी कुछ कविताएं हमें उनके कवि की आंतरिक संगति को समझने में सहायता करती हैं. उनकी कविताओं में एक नागरिक की उदासी नजर आती है तो एक सयानी कविदृष्टि भी जो इस जीवन संसार के बेगानेपन को लक्ष्य करती है. कहना न होगा कि धीरे धीरे राजनीति ने आम आदमी के सपनों को कुचला है, आदिवासियों, विस्थापितों, गरीब किसानों और कामगारों की आवाज़ को दबाया है. ‘आदिवासी‘ व ‘यथार्थ इन दिनों‘ जैसी कविताएं सत्ता द्वारा दबाई गयी उस बेजुबान चीख की ओर इशारा करती हैं जिसे न समाज ने सुना न शासनतंत्र ने.
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हालांकि मंगलेश डबराल की कविता किसी राजनैतिक पाठ के लिए अनिवार्य रूप से प्रतिश्रुत नहीं दिखती तथापि उनकी तमाम कविताएं राजनीतिक पाठ के आलोक में पढ़ी जा सकती हैं. उनका मानना है,आदिवासियों के लिए नदियां केवल नदियां नहीं,वाद्ययंत्र हैं,अरण्य इनका अध्यात्म नहीं,इनका घर है. पर आज हालत यह है कि इनके आसपास के पेड़ पत्रहीन नग्नगाछ में बदल गए हैं. उन्हें उनके अरण्य से दूर ले जाया जा रहा है. उनके अपने कोयले और अभ्रक से दूर. वे एक बियाबान होते हरसूद और जलविहीन टिहरी की ओर धकेले जा रहे हैं. उनके वंशी और मादल संकट में हैं. कैसी विडंबना है कि जैसे ही वे मस्ती में अपनी तुरही मांदर और बांसुरी जोरों से बजाने लगते हैं,शासक उन पर बंदूकें तान देते हैं. क्या यह आधुनिकता,उत्तर-आधुनिकता की ओर बढ़ती हुई दुनिया इतनी असह्य हो चली है कि आज भी ‘शिशिर की शर्वरी हिंस्र पशुओं भरी‘है. ‘हमारे शासक‘, ‘यथार्थ इन दिनों‘, ‘नए युग में शत्रु‘आदि कविताओं से ऐसी ही आहट आती है. निरंकुश होते ही शासक अपनी संवेदना खो देता है,जबकि निरंकुश होते ही कवि सचाई का पहरुआ बन जाता है.
कविता सच्ची साधना मांगती है. यह किसी त्रिकाल संध्या की फसल नहीं है जिसे आज लोग फेसबुक पर आठो पहर टॉंक रहे हैं. शब्दों के इस मेले में सच्ची कविता तो आज भी कहीं ठिठकी हुई है. उसे आज भी सच्चा कवि अपने करघे पर किसी एकांत में बुन रहा है. मंगलेश के यहां मनुष्यता को लगातार दुर्बल बनाती हुई सांप्रदायिकता,हिंसा और उसे एक यांत्रिक और परोपजीवी बनाती हुई ताकतों के प्रति गहरा विक्षोभ है. ‘गुजरात के मृतक का बयान‘ अपने समय की चर्चित मार्मिक कविता यहां है तो ‘अंजार‘, ‘भूलने के विरुद्ध‘, ‘पशु पक्षी कीट पतंग‘और ‘राक्षसो क्या तुम भी‘. ‘शहर के एकालाप‘तो जैसे शहरी सभ्यता के बजबजाते नेपथ्य का अनावरण है.
अभी 2020 में उनका नया संग्रह स्मृति एक दूसरा समय है’’आया है. हाल में उभरे सांप्रदायिक परिदृश्य और जनविरोधी सरकारी नीतियों के विरुद्ध उनका आक्रोश कविता में अक्सर व्यक्त होता था. वे इस अर्थ में राजनीतिक कवि थे तथा रघुवीर सहाय की राजनीतिक संवेदना के वाहक भी. एक मार्क्सवादी कवि के रूप में उन्होंने अपनी वैचारिकी को अंत तक साधा तथा अनेक मोर्चों पर जन आंदालनों के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे. कलबुर्गी,पनसारे और अन्य साहित्यकारों की हत्याओं से वे हतप्रभ थे. वे असहिष्णुता के खिलाफ अकादेमी पुरस्कार लौटाने वाले कवियों में भी थे. मुझे उनकी कविता पढ़ते हुए अक्सर विनोद कुमार शुक्ल की कविता का एक बिंब कौंधता था- ‘एक आदमी हताशा में बैठ गया था’. यह हताशा,अवसाद उनकी कविताओं के गुणसूत्र या विधायक तत्व कहे जा सकते हैं. इस अर्थ में वे इस लोकतंत्र में निरंकुशता के मुखर आलोचक व आम आदमी की पीड़ा के सच्चे भाष्यकार थे. उनकी भाषा बोलचाल की भाषा थी इसलिए शिल्प की कोई अतिरिक्त पच्चीकारी उनकी कविता में नज़र नही आती, बोलचाल के वाक्यों में ही कविता संभव होती है. मंगलेश डबराल की कविताओं से गुजरना उस यातना भरे अवसाद से गुजरना है जिससे इस महादेश की ज्यादातर जनता गुज़रती आई है. उनके न होने का अर्थ यह है कि आम जनता की बात करने वाला एक और सहृदय कवि हमारे बीच नहीं रहा.
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