मणि कौल
|
मणि कौल स्पेस और टाइम के फ़िल्मकार हैं. उनकी फ़िल्में देखने के लिए धैर्य चाहती हैं. वे खुद इस ‘देखना’ पर हमेशा तवज्जो देते रहे. पर उनके लिए कभी भी सिनेमा दृश्य माध्यम नहीं रहा बल्कि वो इसे ‘टेम्पोरल मीडियम’ कहते थे. जो समय के सापेक्ष चल रहा. दृश्यों में, ध्वनि में, गति में, लय में और अपने परिवेश में- जिसमें तात्कालिकता पूरी स्वच्छंदता के साथ उपस्थित रह सकती है. इस विचार के आसपास भी अगर हम कुछ चहल-कदमी करें तो जटिल लगने वाली और समझ में न आने वाली मणि की फ़िल्मों के भीतर जाने का दरवाज़ा यहाँ से खुलता है. इस पूरे विचार में ही ‘समझ’ के दायरे को ‘अनुभव’ के आकाश में खुलने वाली खिड़की के सूत्र मौजूद हैं. मणि कौल सिनेमा के इस अनुभव को जीने, महसूस करने वाले फ़िल्मकार थे. उनका सिनेमा अपने आसपास मौजूद चीज़ों को ‘देखने’ और ‘महसूस’ करने के बीच लंबा सफ़र तय करता है जहाँ से वो विश्व सिनेमा के उन अग्रणी मौलिक फ़िल्मकारों की फेहरिस्त में शामिल हो जाते हैं जिन्होंने सिनेमा माध्यम को समृद्ध किया.
ज़्यादातर हम घटना प्रधान, नाटकीय और चारित्रिक किरदारों वाले सिनेमा को देखने के आदी हैं. अगर विश्व सिनेमा में हम देखें तो अमेरिकन सिनेमा जहाँ एक ओर घटना प्रधान है वहीं यूरोपियन सिनेमा तकनीक प्रधान. भारतीय समानान्तर सिनेमा ने ‘रियलिज़्म’ को पकड़ा. मगर इसके इतर मणि कौल और कुमार शाहानी ने सिनेमा माध्यम के विस्तार और संभावनाओं को टटोलते, खोलते हुए अपनी कला को उसमें खुलने का अवसर दिया. विचार से संपृक्त यह सिनेमा कथा, चरित्र, किरदार और संवाद को केवल सहायक के रूप में इस्तेमाल करता है, उस पर आश्रित नहीं रहता. इस मामले में मणि कौल तो चमत्कृत करते हैं. उनकी सिनेमा भाषा बिलकुल ही अपनी तरह की है. ‘मिनिमलिज़्म’ उनका ‘सिग्नेचर’ तो है ही. बिलकुल बारीक, महीन मगर सपाट अर्थों तक पहुंचाने का काम उनका सिनेमा करता है. यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि मणि कौल ने अधिकतर सिनेमा साहित्य में ही ढूँढा. मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ और नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’; विजय दान देथा की कहानी ‘दुविधा’, गजानन माधव मुक्तिबोध का संग्रह ‘सतह से उठता आदमी’; फ़्योदोर दोस्तोएव्स्की की कहानी ‘द मीक वन’ पर आधारित ‘नज़र’ और ‘ईडियट’; विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ आदि पर आधारित फिल्में साहित्य और सिनेमा के उनके नज़रिये को बताती है.
ख्यात लेखक मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ पर इसी नाम से बनी मणि कौल की फ़िल्म भारतीय कला सिनेमा की ‘मास्टरपीस’ मानी जाती है. मणि कौल की यह पहली फीचर फ़िल्म थी. कला सिनेमा या ‘पैरेलल’ सिनेमा आंदोलन की शुरुआती तीन फ़िल्मों (मृणाल सेन निर्देशित ‘भुवन शोम’, बासु चटर्जी निर्देशित ‘सारा आकाश’ अन्य दो) में से एक ‘उसकी रोटी’ के साथ ही भारतीय सिनेमा में एक नया अध्याय जुड़ता है. भारतीय फ़िल्म संस्थान, पुणे के छात्र रहे मणि के सिनेमा को एक फ़िल्म के ज़रिये खोजना आसान नहीं. उस पर उनकी पहली फ़िल्म अपने समय में जिस तरह से सिनेमा माध्यम की तकनीक और कहानी कहने के सारे आम-फहम तरीकों को ध्वस्त करती है, उस पर बात करना ज़रूरी है.
उदयन वाजपेयी से बातचीत पर आधारित पुस्तक ‘अभेद आकाश’ में मणि ने अपने बचपन और सिनेमा की बेचैनी का ज़िक्र किया है. मुझे लगता है पहली फ़िल्म बनाने के बहुत पहले ही उनके भीतर यह तैयारी शुरू हो चुकी थी. अपनी पहली ही फ़िल्म में मणि कौल सिनेमा की एक पुस्तक की तरह दर्ज हैं. यूँ मणि कौल के सिनेमा को स्वीकारना और देख पाना बिलकुल भी आसान नहीं. आम दर्शकों के लिए इसीलिए भारत में उनकी फ़िल्मों ने वह पहचान अर्जित नहीं की. इस मामले में उनकी फ़िल्में दर्शकों की बजाए सिनेमा के रसिकों से थोड़ी अपेक्षा ज़रूर करती हैं. मेरा स्वयं का अनुभव भी उनकी फ़िल्मों को लेकर यह रहा है. शुरुआत बिलकुल आसान नहीं थी. इस तरह यह कहानी न होकर एक तरह का ‘एक्सप्लोरेशन’ ही है जो दर्शकों से स्वयं के अनुभवों को खोजने और उन्हें ‘इंटरप्रेट’ करने की मांग करता है.
‘उसकी रोटी’ सन 1969 में बनी थी. अपनी जटिल संरचना और ‘मिनिमलिस्ट अप्रोच’ के कारण तब यह फ़िल्म रीलीज़ भी हो सकी थी या नहीं, इस पर संशय है. मगर मणि अपनी पहली फ़िल्म से ही विशिष्ट फ़िल्मकार के तौर पर ख्याति अर्जित कर चुके थे. फ़िल्म की बात करने से पहले केवल सुविधा के लिए अगर उन कुछ जानकारियों को संक्षेप में दुहरा लिया जाये जो ज्ञात हैं ही तो यह विमर्श के लिए एक तरह से प्रवेश द्वार की तरह होंगी.
महान फ़िल्मकार ऋत्विक घटक के शिष्यत्व में मणि कौल ने फ़िल्म संस्थान में निर्देशन की पढ़ाई की. कुमार शाहानी और जॉन अब्राहम (केरल) जैसे फ़िल्मकार उनके सहपाठी थे. फ़िल्म संस्थान में आने के पहले ही फ़िल्म बनाने की अपनी बेचैनी का ज़िक्र स्वयं उनके हवाले से कई बार मिलता भी है. ऋत्विक घटक के प्रिय शिष्यों में रहे मणि के बारे में वे शुरू से ही आश्वस्त थे और अपने अन्य दो प्रिय शिष्यों पर भी उनका भरोसा था. सत्यजित राय वो पहले फ़िल्मकार थे जिनके ‘रियलिज़्म’ वाले सिनेमा से मणि कौल का जुड़ाव हुआ. मगर जल्द ही यह विचार टूटा. घटक ने जैसे उनके सोचने-समझने को तरीकों को बदल दिया. यथार्थवाद से मणि का पलायन होने लगा. और सिनेमा का विचार, उसकी शैली, उसके अनुभव आदि ने कथ्य की जगह ली.
सिनेमा का अनुशासन क्या है, यह हमें मालूम नहीं है.
सिनेमा क्या है? यह मालूम नहीं है
लेकिन हमें यह मालूम है कि यह नाटकीय है. हमें यह मालूम है कि
ये चित्रकलात्मक (पेंटरली) है, यह सांगीतिक है यह साहित्यिक है.
तो ये चीज़ें बाहर रखो. शायद जो बचा-खुचा है, वह सिनेमा है.
इससे कम से कम शुरुआत तो हो सकती है कि यह सिनेमा है.
घटक के मेलोड्रामा ने उनके राय के यथार्थवाद से मोहभंग में मदद की. मगर उन्हें घटक का यही मेलोड्रामा सिनेमा में पसंद नहीं था. और फिर इन्स्टीट्यूट में ही फ्रेंच फ़िल्मकार रॉबेअर ब्रेसों की फ़िल्म ‘पिक पॉकेट’ ने उन्हें जैसे एक नई दिशा दी.
मैं ब्रेसों की फ़िल्म देखकर जब बाहर आया तो एक ऐसी मुग्ध अवस्था थी, अजीब-सी कि मैं आपको बता नहीं सकता. मैं बैठा था और पत्ता हिला तो मुझे वह नज़र आया.
ऐसा देखने का तरीका बदला. ऐसा झटका लगा मुझे.
मणि कौल का सिनेमा यहाँ से शुरू होता है. उन्हें पूरी तन्मयता से देखना भी अपने आप में कला है. वैसे यह बात कई और निर्देशकों पर भी लागू होती हैं. मसलन, रूस के आन्द्रेई तारकोव्स्की या हंगरी के बेला टार. इनके यहाँ कथ्य उतना महत्त्वपूर्ण नहीं, न ही उसका सेट अप.
‘उसकी रोटी’ के बारे में मणि कौल अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि वे ‘रियलिज़्म’ से बचना चाहते थे ताकि इसे किसी चित्रकार की तरह रच सकें. भारतीय सिनेमा की यह एक बड़ी क्रान्ति थी क्योंकि सिनेमा का मनोरंजन वाला विचार यहाँ से ध्वस्त होता है और सिनेमा में कला की खोज की शुरुआत यहाँ से होती है. गीत, संगीत, संवाद, नाटकीयता, अभिनय जैसे तत्त्व इस फ़िल्म में कहीं नज़र नहीं आते. मणि कौल हमेशा से ही नाटकीयता के विरुद्ध रहे हैं और उनके अपने शब्दों में रंगमंचीय तत्त्वों से उन्हें परहेज रहा है. सिनेमा माध्यम किसी भी कला को कितना ‘स्पेस’ प्रदान करता है उसके लिए हम किसी भी आम फ़िल्म का सहारा लेकर उसे समझ सकते हैं. चूंकि यह एक आश्रित कला है जिसमें अन्य कलाओं का समावेश होता है, इसलिए सिनेमा कला का दायरा बढ़ जाता है. साथ ही ज़िम्मेदारी भी. गणित के ‘पर्म्यूटेशन कॉम्बिनेशन’ की तरह ही कई संचय बन सकते हैं. मणि कौल का प्रभाव वही है कि वे अपनी फिल्मों में हर उस संभावना को नकारते हैं जो आसान है. मसलन, अगर कोई नाटकीय प्रभाव अभिनय से ‘अचीव’ किया जा सकता है तो वे उसे ख़ारिज कर देते हैं. कोई प्रभाव संवाद अदायगी से आएगा तो उसे ख़ारिज कर देते हैं. यही बैकग्राउंड, सेट, चरित्र, ड्रामा, कहानी, संवाद हर जगह लागू होता है. उनके लिए दृश्य अहम हैं, उसकी अंतर-ध्वनि और ज़्यादा अहम. कम से कम चीजों के प्रयोग से कैसे गुणवत्ता और प्रभाव उत्पन्न किया जाए, उनका सिनेमा यही रचता और खोजता है.
यह किसी वैज्ञानिक के आविष्कार की तरह ही है. ऐसा नहीं कि जैसा मणि कौल बता रहे हों वही सिनेमा है. लेकिन अपने आप में यह नया और अनूठा है. जिसे वो केवल एक फ़िल्म तक सीमित नहीं रखते बल्कि फ़िल्म दर फ़िल्म खोजते रहते हैं. यह आप मणि कौल की हर फ़िल्म में पाएंगे. कोई भी ऐसा ‘टाइप’ नहीं होगा जो हर फ़िल्म में एक समान है. भारतीय और खासकर हिन्दी सिनेमा में अ-नाटकीयता का उनका यह प्रयोग अपने आप में आश्चर्यजनक ही था. न केवल तब बल्कि जब तक वे फिल्में बनाते रहे तब तक यह विलक्षणता उनकी फिल्मों में रही.
मोहन राकेश जैसे हिन्दी के कथाकार-नाटककार की उपस्थिति शब्द और विचार के रूप में यहाँ कम दिखाई देती है. राकेश को हिन्दी रंगमंच के आधुनिक इतिहास का पुरोधा माना जाता है और उनकी भाषा ही आधुनिक हिन्दी रंगमंच को समृद्ध करती है. इस लिहाज से भाषा और नाटकीयता के विचार को अपनी पहली ही फ़िल्म में ख़ारिज कर देना मणि कौल की विलक्षणता का उदाहरण है. आगे चलकर मणि कौल स्वयं इस बात को कहते हैं कि फ़िल्म की भाषा जैसी कोई चीज़ नहीं होती. मगर इसके ठीक उलट मोहन राकेश की कहानी को चुनना भी अपने आप में अनूठा है क्योंकि कथ्य और परिवेश के फैलाव में ‘उसकी रोटी’ एक विशिष्ट कहानी है जिसमें से सूत्र मणि कौल ने लिए हैं. राकेश की यह कहानी भाव और कला पक्ष के किसी भी बने-बनाए तरीकों पर नहीं चलती. इस कहानी का फैलाव भी बेतरतीबी से सिमटा हुआ है. न कोई परंपारगत आरंभ और न ही अंत. यह किसी भी तरह के संदेश पर भी आधारित नहीं. एक लंबी लघुकथा के तौर पर अगर इसे देखा जाये तो मणि कौल ने इसमें से फ़िल्म बनने की संभावना को बहुत अलग ढंग से भाँपा है.
यह कहानी बालो की है जो अपने ड्राइवर पति सुच्चा सिंह के लिए रोज़ घर से दो मील दूर चलकर आती है और उसे खाना देती है. सुच्चा सिंह नकोदर-जालंधर बस का ड्राइवर है. एक रोज़ बालो को आने में देर हो जाती है और दिन के खाने में हुई देरी की वजह से सुच्चा सिंह गुस्से में वापसी में बगैर रोटी लिए जाने लगता है. बालो उसे बताना चाहती है कि गाँव में जंगी नाम के आदमी ने उसकी बहन जिंदाँ के साथ छेड़छाड़ की मगर सुच्चा सिंह कुछ सुनना नहीं चाहता. बालो की वफादारी के ठीक उलट सुच्चा सिंह स्वतन्त्रतापूर्वक और अय्याशी से अपना जीवन जीता है और हफ्ते में केवल एक दिन घर आता है. सुच्चा सिंह की इस बेरुखी, अपने भय और कई तरह के ख़यालों के बाद बालो देर रात की बस के आने तक का इंतज़ार करती रह जाती है.
मणि कौल की फ़िल्म का सार यही आखरी पंक्ति है- इंतज़ार. यह फ़िल्म पूरी तरह से इंतज़ार का अनुभव ही है. परंपरागत ढाँचे में कहानी कहने का कोई भी अंदाज़ इस फ़िल्म का नहीं और केवल एक लंबा इंतज़ार या समय ही ‘उसकी रोटी’ का हासिल है. एक दर्शक के लिए इस फ़िल्म के किसी भी सिरे को पकड़ना मुश्किल है क्योंकि न केवल कहानी बल्कि अदायगी भी नदारद है. मणि कौल ने पटकथा को ‘नॉन-लीनियर’ रखा है जिसमें स्पष्ट रूप से कोई भी आरंभ, मध्य या अंत नहीं. कैमरा एंगल भी ‘बैकग्राउंड’ के बदले ‘फोरग्राउंड’ में किरदारों को दिखाते हैं जिसमें मुख्य रूप से हाथों के दृश्य, क्लोज़-अप हैं. सम्पादन का ढंग भी नया है जिसमें ‘कट’ सामान्य स्थान पर होने की अपेक्षा कुछ क्षण बाद है. साथ ही एक ही किरदार या उसके ‘एक्शन’ को कई ‘शॉट्स’ में लिया गया है. दो किरदारों की क्रिया-प्रतिक्रिया का स्थान भी ‘एडिटिंग’ में कुछ देर बाद आता है. कहानी कहने के अंदाज़ में भी किरदार एक परिस्थिति में जो सोच रहा है (और जो घट नहीं रहा), वह दृश्य भी ठीक एक के बाद एक गूँथे हुए हैं. ये सब चीज़ें मिल कर एक जटिल फ़िल्म की रचना करते हैं जिसे सामान्य समझ से देखा नहीं जा सकता. यहाँ तक कि सिनेमा देखने की विशिष्ट समझ के बाद भी इन हिस्सों को एक साथ ग्रहण करना अपने आप में श्रम साध्य है.
सिनेमा को चित्रकला या रंगमंच या संगीत की तरह कला का दर्जा दिया जाना चाहिए या माना चाहिए, यह विचार सिनेमा बनाने वालों ने नहीं किया. मणि कौल के आते यानी 1895 से 1969 के दौरान लगभग 75 सालों में फ़िल्मकारों की दृष्टि कथा के सम्पूर्ण नाटकीय तत्त्वों के आसपास ही रही. मगर इस दौरान जापान में यासूजिरो ओज़ू, इटली में फ़ेदेरिको फेलिनी, फ़्रांस में रॉबेअर ब्रेसों जैसे फ़िल्मकार सिनेमा में कला को ढूँढने-खोजने का उपक्रम करते रहे. ख़ासकर यूरोपियन सिनेमा में, जहाँ मूक फिल्मों के दौर में पेटिंग के वाद (एक्सप्रेशनिज़्म, रियलिज़्म, सुरियलिज़्म आदि) खोजे गए.
अमेरिका ने हॉलीवुड के माध्यम से व्यावसायिक सिनेमा की राह पकड़ी और दुनिया को दिखाई. महंगी होने के कारण सिनेमा कला एक उद्योग में तबदील हो गई और आज तक यह औद्योगिकीकरण जारी है. मणि कौल इसलिए भी ज़रूरी हो जाते हैं कि भारत जैसे कला के देश में, जहाँ सिनेमा को छोड़कर लगभग हर तरह का विचार/कलाएँ सदियों से पनप रही थीं और अपने आधुनिक रूप में समृद्ध थीं; वहीं सिनेमा को रस और विचार से अलग केवल ‘एक्सप्लोर’ करने और ‘इंटरप्रेट’ करने का मौका देने के बावजूद वह आम दर्शकों द्वारा नकार दिये गए. ‘उसकी रोटी’ भी रस या विचार के खाँचे में नहीं बैठती बल्कि समय, गति, लय के रूप में दर्शक के भीतर के आस्वाद को टटोलती है.
इस आलोक में मणि कौल की फ़िल्में देखना एक चमत्कारिक अनुभव बन जाता है.
सुदीप सोहनी साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, संगीत, फ़ोटोग्राफी, पत्रकारिता |
मणि कौल के सिनेमा दर्शन पर
(विनोद कुमार शुक्ल से पीयूष दईया का संवाद )
बहुत ही सधा हुआ लेख,जो कम शब्दों में मणि कौल के बहाने समांतर सिनेमा के विकास की कहानी कहता है।लेखक को बधाई तथा इसी श्रृंखला में और लेखों की आवश्यकता महसूस करते हुए ,समालोचन को साधुवाद
बहुत डुबकर लिखा है… सर…!
पढ़ने के लिए वही इत्मीनान चाहिए…जिसका जिक्र …वे आलेख में करते हैं…
इस बेहतरीन ख़ोजी आलेख के लिए आप दोनों को तहेदिल से शुक्रिया कहता हूँ…!!!
सुदीप सोहनी को पढ़ना मतलब कुछ पाना है. सिनेमा पर उनकी पकड़ बहुत मजबूत है. समालोचन और सुदीप सोहनी को बधाई. शोधकर्ताओं के लिए आवश्यक लेख.
सुदीप ने अच्छा लिखा है। सिनेमा पर उनके लिखे को मैं पसंद करता रहा हूं। मुझे लगा था कि मणि कौल पर बात करते हुए वे उनकी फिल्म ‘द क्लाउड डोर’ पर भी बात करेंगे। मलिक मोहम्मद जायसी के पद्मावत पर आधारित इस ‘इरोटिक’ फ़िल्म पर एक जर्मन प्रोड्यूसर ने पैसा खर्च किया था। हिंदुस्तानी सिनेमा में सेक्स को बहुत सतही, कामुक ढंग से और अगर कहें कि बहुत हद तक कुंठित तरीके से दिखाया जाता है, तो मेरे ख्याल से गलत न होगा। मणि कौल इसे तोड़ते हैं और भारतीय संदर्भों के सहारे ही न्यूडिटी को किसी आर्ट की तरह पेश करते हैं।
सुदीप अमेरिकन सिनेमा को घटनाओं का सिनेमा कहते हैं। एक हद तक यह बात ठीक जान पड़ती है, लेकिन मुझे लगता है कि जब फिल्मकार अपने को सरोकारों से जोड़ता है तो घटनाओं का वही सिनेमा मुद्दों का, इश्यूज का सिनेमा बन जाता है। तब वह एक कथा होता है। दुनिया के बड़े हिस्से को युद्ध और युद्ध जैसे हालात में झोंके रखने वाला अमेरिका एक है और एक है उस मुल्क का लेखक, फिल्मकार जिसने युद्ध को केंद्र में रखकर बहुत मानवीय फिल्में बनाईं। ‘सिंडलर्स लिस्ट’ और ‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड’ जैसी फिल्में हमें घटनाएं याद नहीं दिलातीं, दुख याद दिलाती हैं। घटनाओं के सहारे अमेरिका रेसिज्म के खिलाफ बार-बार बात इसलिए करता है, क्योंकि अब भी वहां कोई जॉर्ज फ्लॉयड मारा जाता है। ‘द ट्रायल ऑफ द शिकागो 7’ पिछले साल ही आई थी, इसी दौरान जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या होती है और इसके बाद अमेरिका ‘शिकागो 7’ की बात को ही पिछले दिनों आई ‘जुडास ऐंड द ब्लैक मसीह’ के मार्फ़त फिर से याद दिलाता है। भारतीय सिनेमा में ऐसी घटनाओं को सिनेमा में कहने का और कथा बना देने का हुनर तमिल फिल्मकार मणि रत्नम के पास ही है।
Very comprehensive article on mani kaul.
2001 या 2002 की सर्दी में मणि क़ौल कोर्नेल यूनिवर्सिटी आये थे , वहाँ साउथ एशिया विभाग ने ऋत्विक घटक की तीन फ़िल्में (Meghe Dhaka Tara ; Komal Gandhar; and Subarnarekha ) दिखाई थी, और हर रात एक फ़िल्म देखने के बाद मणि क़ौल कुछ फ़िल्म पर बोलते थे और फिर कुछ देर सवाल जबाब का सिलसिला चलता था. मणि क़ौल की उस बातचीत की मुझे जितनी याद है, उसमें कोई स्पार्क नहीं था. लेकिन एक बात जो उन्होंने कही वह महत्वपूर्ण थी. किसी सवाल के जबाब में उन्होंने कहा कि भारत का समांतर सिनमा जितना भी बना वह फ़िल्म्ज़ डिविज़न और अन्य सरकारी अनुदान से बनाना सम्भव हुआ. अक्सर समांतर सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्में अपने कथ्य में इतनी बग़ावती लगती थी कि एक सामान्य दर्शक के लिए यह बात चौकाने वाली थी कि ऐसी अभिव्यक्ति के लिये भी सरकारी अनुदान मिल सकता है. हम तो उसे क्रांतिकारी काम समझते थे. भारत के लोकतंत्र को पहचानने का यह भी एक मौक़ा रहा.
2001 या 2002 की सर्दी में मणि क़ौल कोर्नेल यूनिवर्सिटी आये थे , वहाँ साउथ एशिया विभाग ने ऋत्विक घटक की तीन फ़िल्में (Meghe Dhaka Tara ; Komal Gandhar; and Subarnarekha ) दिखाई थी, और हर रात एक फ़िल्म देखने के बाद मणि क़ौल कुछ फ़िल्म पर बोलते थे और फिर कुछ देर सवाल जबाब का सिलसिला चलता था. मणि क़ौल की उस बातचीत की मुझे जितनी याद है, उसमें कोई स्पार्क नहीं था. लेकिन एक बात जो उन्होंने कही वह महत्वपूर्ण थी. किसी सवाल के जबाब में उन्होंने कहा कि भारत का समांतर सिनमा जितना भी बना वह फ़िल्म्ज़ डिविज़न और अन्य सरकारी अनुदान से बनाना सम्भव हुआ. अक्सर समांतर सिनेमा की बेहतरीन फ़िल्में अपने कथ्य में इतनी बग़ावती लगती थी कि एक सामान्य दर्शक के लिए यह बात चौकाने वाली थी कि ऐसी अभिव्यक्ति के लिये भी सरकारी अनुदान मिल सकता है. हम तो उसे क्रांतिकारी काम समझते थे. भारत के लोकतंत्र को पहचानने का यह भी एक मौक़ा रहा.
अरूण जी आप विश्वास नहीं करेंगे । सतह से उठता आदमी की शूटिंग करने मणि जी राजनांदगांव, भिलाई आए थे और किस्मत से चार दिन हम दोनों पति पत्नी लोकेशन ढ़ूंढने में उनके साथ थे । रायपुर का बूढ़ातालाब की एक खास जगह मुझे पसंद थी । भिलाई के मैत्री बाग में पैडल बोट में फरीरूद्दीन डागर और दूसरा नाम याद नहीं आ रहा ( ऑस्ट्रिया से आए थे ) बन्धुओं के साथ ध्रुपद गायन , विमलेन्दु मुखर्जी के घर का उनका कन्सर्ट । रविन्द्र जैन को भी सुना था ।
दरअसल प्लांट वालों की गाड़ी में वो अपने साथियों को बैठाते और हमारे साथ खुद । ये ड्राइव करते करते दोनों गूढ़ चर्चा , कहीं भी रूक जाना । यह पहली मुलाकात थी ।इस मुलाकात में चन्द्रखुरी की छत्तीसगढ़िया चमड़े की चप्पल खरीदी गईं थी ।उन्हें बहुत पसन्द थीं
विनोद जी की कहानियों पर फिल्म बनाने फिर आए थे मणिकौल जी । इस बार रायपुर में रूके थे । हम मिले तो शूटिंग के लिए बताया कि आप लोग दुर्ग लौटते समय 5/6 बजे के करीब पुल पर रूककर शूटिंग देख सकते हैं । उस समय आसमान के धुंधलके में सिगड़ियों का उठता धुआं मिलकर अलग ही माहौल रचता है ।मुझे अच्छी तरह याद है कि विनोद जी कहानी ” भोज ” और ” पेड़ पर कमरा रहता है ” पर फिल्म बना रहे थे ।
अचानक उनकी बीमारी और — सुना तो स्तब्ध रह गए।
वे फिल्में तो शायद विनोद जी ने भी नहीं देखीं
मणि कौल देखने को विस्तार देते हैं. हमारी अपनी दुनिया को देखने का तरीका बदलने को कहते हैं. उनकी फिल्मों को गहराई से देखने के बाद चराचर को देखने का तरीका बदल ही जाएगा. उनकी माटी मानस भी एक उल्लेखनीय फिल्म है, जिस पर कभी लिखा जाना चाहिए.
मणि जी ने हिंदी सिनेमा को बहुत मान सम्मान दिलाया पर मुझ जैसे पाठक दर्शक को “उसकी रोटी” कहानी जितना आर्द्र और बेचैन करती है,फिल्म नहीं। मानता हूं हम उस तरह से सिनेमा साक्षर न हो पाए।
वैसे सुदीप को पढ़ना मुझे हमेशा से पसंद है।
– यादवेन्द्र
मुझे गर्व है मणि कौल जैसे निर्देशक पर
वो भी जोधपुर में उसी बाईजी का तालाब नाम के मुहल्ला में जन्में जहां मेरा जन्म हुआ था