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समालोचन

Home » मणिपुर: एक प्रेम कथा: रीतामणि वैश्य

मणिपुर: एक प्रेम कथा: रीतामणि वैश्य

मणिपुर में मैतै और कुकी समुदाय के बीच अभी जो जातीय हिंसा हुई है, उसमें रिश्ते भी लहूलुहान हुए हैं. जो प्रत्यक्ष है उसकी ख़बर बनती है पर जो दिल टूटे हैं उनकी पहचान कौन करेगा. साहित्य यही करता है, करता आया है. पूर्वोत्तर की लेखिका रीतामणि वैश्य असमीया और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखतीं हैं. संवेदनशील ढंग से मणिपुर की संस्कृति और इस घटना को समझने का प्रयास करती यह कहानी प्रेम से शुरू तो होती है पर इसे जल्दी ही अविश्वास निगल लेता है. प्रस्तुत है.

by arun dev
June 6, 2023
in कथा
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मणिपुर: एक प्रेम कथा: रीतामणि वैश्य
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मणिपुर
एक प्रेम कथा
रीतामणि वैश्य

लिनथोइङम्बी छत के ऊपर से उड़ते हुये हवाई जहाज को देखती रही. आज सुबह से कम से कम पचास हवाई जहाज यहीं से गुजरे हैं. पचास आए हैं तो पचास गए भी हैं. मणिपुर को लेकर इतनी खलबली पहले कभी नहीं मची. वह जब भी हवाई जहाज की आवाज सुनती, निकल आती और उसके ओझल होते ही नीचे उतर आती. पाँच-दस मिनटों के बाद दूसरे जहाज की आवाज आती और वह फिर छत पर चढ़ जाती. सुबह से लेकर रात तक आज यही उसकी दिनचर्या रही. सीढ़ियों से उतरती हुयी वह बोली- ‘यह ठीक नहीं हो रहा है.’

‘क्या ठीक नहीं होने की बात कर रही है?’ पति गोर्क्रोव ने नीचे उतरती हुयी लिनथोइ की तरफ देखकर बरामदे से पूछा.

‘जो भी हो रहा है, ठीक नहीं हो रहा है.इतने लोग मारे गए हैं! कुछ हो नहीं सकता क्या?’

‘हम-तुम क्या कर सकते हैं? यह तो सामूहिक मसला है.’

‘अब तो सरकार को ही कुछ करना होगा.’

‘हाँ. इसीलिए तो सेना आ रही है.’

‘हमारे नेता क्या कर रहे हैं?’

‘क्या करेंगे? जिन लोगों ने मैतै, कुकी, नागा सबकी लड़कियों से शादी कर रखी हैं, वे किसकी ओर से बोलेंगे ? मैतै की तरफ से बोलेंगे तो कुकी बीबी नाराज होगी और कुकी की तरफ से बोलेंगे तो मैतै बीबी की नाराजगी का क्या होगा? सबके साथ समभाव रख रहे हैं.’

‘लोग बेमौत मारे जा रहे हैं?’

‘उनका क्या आता-जाता है?’

‘मूल बात तो कुर्सी की है. कुर्सी के लिए सब उठक-बैठक लगा रहे हैं.’

‘खाना खा ले लिनथोइ. सुबह से कुछ नहीं खाया.’ गोर्क्रोव ने पत्नी से कहा.

‘खाना कैसे खाया जाएगा? तू खा ले.’

बात करते हुये दोनों पति-पत्नी अंदर के कमरे तक पहुँच गए. गोर्क्रोव ने चार्जर से मोबाइल निकाला और ‘मैं अभी आया’ कहता हुआ वहाँ से निकलने लगा. ‘देर मत करना, जल्दी आना’ कहकर लिनथोइ बिस्तर पर लेट गयी. उसने आँखें मूँद लीं. मानो आँख मूँद लेने से बाहर हो रही घटना रुक जाएगी. हवाई जहाज की आवाज उसे तंग कर रही है. उसने तकिये को दोनों हाथों से मोड़कर कानों को बंद करने की कोशिश की. नहीं…आवाज आ रही है. ज़ोरों से आवाज आ रही है.

पिछले कुछ दिनों से मणिपुर के कुकी और मैतै लोगों में संघर्ष चल रहा है. मणिपुर कई संप्रदायों का आवासस्थल है, जिनमें मैतै और कुकी प्रमुख हैं.जनसंख्या के साथ राजनीतिक आधिपत्य का सवाल जुड़ा हुआ होता है. मणिपुर के स्थानीय मैतै जो संख्या में बहुत अधिक हैं, वे इम्फ़ाल की छोटी-सी समतल जमीन पर बसे हैं और उसकी चारों ओर के विस्तृत पहाड़ी क्षेत्र कुकी लोगों का है. म्यांमार, बांग्लादेश और भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा के आसपास अन्य कुछ जनजातियों के साथ कुकी लोगों की टुकड़ियाँ फैली हुयी हैं. मणिपुर में कुकी को जनजाति की मर्यादा दिये जाने से उन्हें समभूमि के साथ-साथ पहाड़ों पर बसने का अधिकार मिला. वे लोग अंग्रेजों के जमाने से ही निरंतर म्यांमार के वर्तमान के चीन प्रदेश से प्रव्रजन करते रहे हैं. निरंतर हो रहे आग्रासन से उनकी संख्या बढ़ती गयी. बताया जा रहा है कि अस्वाभाविक रूप से हो रही संख्या की वृद्धि के चलते मैतै लोगों ने जनजाति की मर्यादा की मांग की. इसमें कुकी ने भारी आपत्ति जताई. इसी के फलस्वरूप मणिपुर में दोनों संप्रदायों के बीच आग सुलग रही है.

पास से आई गोलीबारी की आवाज से लिनथोइ की नींद टूटी. वह झटपट उठी. आवाज बढ़ने लगी तो वह बाहर की ओर लपकी. गोर्क्रोव आँगन में टहल रहा था. दहलीज पर दोनों एक दूसरे से टकराये.

‘कहाँ भागी जा रही है? मरना है क्या? अंदर चल.’ पत्नी का हाथ पकड़कर गोर्क्रोव ने उसे रोक लिया.

‘बाहर क्या हो रहा है?’ हाथ को पति से छुड़ाने की कोशिश करती हुयी लिनथोइ ने बाहर की ओर देखा, ‘गोली चली है क्या?’
‘हाँ.’

‘इतनी ज़ोरों की आवाज हुयी! लगातार गोली चली ! कोई नया हथियार होगा. यह जरूर कुकी की हरकत…..’

बात को आधे में ही उसने छोड़ दिया. गोर्क्रोव की पकड़ लिनथोइ पर ढीली पड़ गयी. ‘मैतै तो जैसे दूध के धुले हैं’ कहकर वह अंदर की ओर चला. लिनथोइ गोर्क्रोव के पीछे-पीछे घर के अंदर आई.

‘मेरा मतलब वह नहीं था.’

‘क्या था?’

‘यही कि जब भी यह सब चलता है आम लोग मारे जाते हैं.’

गोर्क्रोव चुप रहा. लिनथोइ गोर्क्रोव के स्वभाव से भलीभाँति परिचित है. कुकी को लेकर एकाएक उसके मुँह से निकली यह बात  निश्चित रूप से उसे बुरी तरह चुभी होगी. उसने परिवेश को सामान्य बनाने के लिए गरमागरम चाय गोर्क्रोव के सामने परोस दी. चाय की चुस्की लेते हुये वह बोला-‘घर में नाश्ता है न!’

‘हाँ है. दिया है न.’

‘नहीं, मेरे कुछ दोस्त आ रहे हैं.’

‘इतनी गोलीबारी के बीच?’

‘हाँ.’

‘कितने आएंगे?

‘पंद्रह-बीस.’

‘इतने? इतने दोस्त कहाँ से हुये तेरे?’

‘मुहल्ले से.’

‘मुहल्ले में तो तेरा एक भी दोस्त नहीं है.’

‘आपदा के समय अपने लोग तो मिलेंगे ही न !.’

‘मुहल्ले के सारे लोग अब तेरे दोस्त बन गए! यहाँ बैठक होने वाली है ! और तूने मुझसे बताया क्यों नहीं !’

‘सब कुछ अचानक से हो गया. मैतै और कुकी के बीच जो भी चल रहा है, उसे जल्दी खत्म करना है. इसी को लेकर बैठक है.’
गोर्क्रोव की बातों से उसे तसल्ली मिली. बोली- ‘बिस्किट है. और कहो तो सूजी भी बना लूँ.

‘ठीक है. सूजी घी से बनाना. काजू और किशमिश भी डालना.’

शाम को उनलोगों के आँगन में मुहल्ले के लोग भर गए. सब पुरुष. बूढ़ों ने अपनी-अपनी कुर्सियों पर अपना कब्जा जमा लिया था. कुछ लोग दरी पर बैठ गए. नौजवान खड़े होकर बैठक की शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगे. गोर्क्रोव अंदर से कुछ जलती हुयी अगरबत्ती के टुकड़ों के साथ बाहर आया. उसके हाथ से एक युवा ने अगरबत्तियों के टुकड़े ले लिए. गोर्क्रोव को जगह देने लिए एक पुरुष खिसक गया और वह दरी पर बैठ गया.

‘यह अस्मिता की लड़ाई है. जैसे भी हो हमें आगे बढ़ते जाना है.’ मुखिया थंगलुंग हाओकिप की इस उक्ति के साथ बैठक शुरू हो गयी.
‘मैतै का शोषण हम सहन नहीं करेंगे.’ दूसरे ने कहा.

‘पहले बता कि आज की ताजा खबर क्या है? बाहर गोली चली थी ! ’ गोर्क्रोव ने जिज्ञासा जाहिर की.

‘हाँ. पर घबराने की कोई बात नहीं है.’ किसी ने कहा.

इसी बीच गोर्क्रोव का बेटा आँगन  में आ पहुँचा. एकाएक सब चुप हो गए. उसके आने से इस गंभीर चर्चा में बाधा पहुँची थी. विरक्त भाव से एक बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा- ‘तू यहाँ क्या कर रहा है. अंदर चल.’

उसे वहाँ रहना अच्छा लग रहा था. वह वहाँ से नहीं गया. बेटे को वहाँ खड़ा देख गोर्क्रोव ने कहा-‘अंदर जा बोइपु. तू अभी छोटा है. हमारी बातें नहीं समझेगा.’

गोर्क्रोव के आठ साल का बेटा है बोइपु. यह नाम गोर्क्रोव का दिया हुआ है. आबुङो नाम उसे लिनथोइ ने दिया है. वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे वहाँ से क्यों जाने के लिए कहा गया है. पहले भी उनके यहाँ अड़ोस-पड़ोस के लोग आते हैं, बातें करते हैं. उन बातों में वह शरीक होता है. अधिकतर बातें उसके सर के ऊपर से उड़ जाती हैं. फिर भी वह वहाँ रहता है. कोई उसे वहाँ से भगाता नहीं है. बाबा के कहने बाद वह अंदर चला गया.

लिनथोइ रसोईघर में बिस्किट और सूजी परोस रही थी. ‘बाहर क्या बात हो रही है?’ पॉकेट से बिस्किट निकालकर प्लेटों पर रखती हुयी लिनथोइ ने पूछा.

‘नहीं जानता.’

‘कुछ तो सुना होगा?’

‘हाँ.’

‘क्या सुना?’

‘कुछ समझ नहीं पाया.’

‘तू बता दे, मैं समझा दूँगी.’

‘लड़ाई, मैतै, शोषण…. ये ही मुझे याद हैं.’

‘तू जा न बाहर. जो भी बातें होती हैं, आकर मुझसे बताना.’

‘बाबा ने मुझे वहाँ से भगा दिया.’

‘क्यों?’

‘कहा कि मैं अभी छोटा हूँ.’

यह बात लिनथोइ को भी समझ नहीं आयी. बाहर बैठक चल रही थी. हाओकिप मुखिया बोल रहा था-‘हम सैकड़ों साल पहले से यहाँ रह रहे हैं. यह जमीन हमारी है. हम वर्षों से यहाँ के जंगलों की सुरक्षा करते आ रहे हैं. यहाँ के जल, थल, पशु,पक्षी पर हमारा एकाधिकार है और रहेगा. संपत्ति, शिक्षा, नौकरी पर मैतै लोगों ने अपना अधिकार जमा लिया है. अब वे हमारा हक छीनना चाहते हैं. यह नहीं होगा.’

‘अब हम क्या करेंगे?’ अन्य एक पुरुष ने पूछा.

‘सबको सर पर कफन बांधकर आगे बढ़ते जाना है. अपनी लड़ाई खुद को ही लड़नी पड़ती है.’

बैठक से सब लोग उठने लगे. गोर्क्रोव ने कहा- ‘चाय बन गयी है. लिनथोइ लाती ही होगी.’

‘हमें नहीं पीनी. तुम भी उससे थोड़ी सावधानी बरतना.’ हाओकिप मुखिया के कथन से बैठक समाप्त हुयी.

मुखिया सहित मुहल्ले के सब बड़े-बुजुर्ग बैठक में आए थे. चाय बन जाने के बाद लिनथोइ ने अलमारी से नयी फनेक निकाल ली. माँ ने पिछले लाइ हराओबा में घर जाते समय उसे यह फनेक देते हुये कहा था- ‘यह गुलाबी फनेक तुझ पर बहुत फबेगी. मौका मिलने से कभी कभार पहन लेना.’ उसने माँ को याद करते हुये फनेक पहन ली और आईने के सामने खड़ी हो गयी. फिर बिखरे बालों में कंघी की और रसोईघर की ओर चली. चाय के साथ बिस्किट और सूजी लेकर लिनथोइ दहलीज तक आ चुकी थी. उसने हाओकिप मुखिया की बात सुन ली. उसके अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ. जो आदमी हमेशा बेटी-बेटी कहकर सुबह शाम चाय पीता है, आशीर्वाद देता है, वह आज क्या कह रहा है? गोर्क्रोव को उससे किस तरह की सावधानी बरतने की बात कर रहा है ? वह वहाँ खड़ी की खड़ी रह गयी. गोर्क्रोव लोगों को विदाकर अंदर की तरफ आया तो दहलीज में ही लिनथोइ के साथ उसका सामना हुआ. वह लिनथोइ से नजरें नहीं मिला पाया. वह अंदर चला गया. लिनथोइ भी उसके पीछे-पीछे अंदर चली. गोर्क्रोव मसहरी  बिस्तर की खुटियों में लगाने लगा. मसहरी टाँगकर उसे तोचक के नीचे खोंस रहा था. लिनथोइ बोली- ‘तू भी चाय नहीं पिएगा क्या?’

‘नहीं.’
‘चाय-बिस्किट का क्या करूँ?’

गोर्क्रोव ने कुछ नहीं कहा. वह मसहरी को ठीक तरह से टाँगने में अपना पूरा ध्यान लगा रहा था. लिनथोइ रसोईघर संभालने चली और कुछ देर बाद वह भी सोने के लिए आई. गोर्क्रोव बिस्तर पर चुपचाप लेटा था. लिनथोइ के मन में भावों का समंदर उमड़ रहा था. पति को सोते देखकर उसने उससे बात करना ठीक नहीं समझा. वह करवट बदलती रही.

‘नींद नहीं आ रही?’ गोर्क्रोव ने निश्चल भाव से पूछा.

‘तू नहीं सोया?’ लिनथोइ ने पलटकर पूछा.

‘बोइपु ने कुछ खाया?’

‘खाने के लिए कहा था.’

‘और तूने?’

लिनथोइ की आँखें भींग आयीं.

‘कुछ खा लेती.’ गोर्क्रोव ने उसकी कमर पर हाथ रखकर प्यार से कहा.

लिनथोइ उसका साथ न देते हुये पूछती है- ‘हाओकिप मुखिया क्या कह रहा था मेरे बारे में?’

‘कुछ नहीं.’

‘मुझसे तुझे खतरा है?’

गोर्क्रोव उठ बैठा- ‘क्या बोलती है?’

‘जो सुना.’

‘कहने से कुछ नहीं होता. मुझ पर भरोसा रख.’

‘एक तेरे भरोसे ही तो मैं हूँ…..तूने हाओकिप से कुछ कहा क्यों नहीं?’

‘वह मुखिया है.’

‘और मैं? मैं कुछ नहीं लगती तेरी?’

‘तू मेरी जिंदगी है. सबकुछ…’ कहकर गोर्क्रोव ने लिनथोइ को सीने में समा लिया.

‘दरवाजा खुला है. आबुङो जग जाएगा.’

गोर्क्रोव ने पत्नी को अपने बंधन से मुक्त कर उसे धीरे से सुला दिया.

‘तू मेरे साथ है न!’ उसने पति पर रहे अपने विश्वास पर मुहर लगाना चाहा.

गोर्क्रोव ने फिर से उसे बाँहों में भर लिया. फिर धीरे से उसकी पीठ सहलाकर कहा- ‘मुझ पर विश्वास रख. विश्वास की नींव पर ही संसार चलता है. दुनिया के लिए मैं कुकी हूँ और तू मैतै. हमारे लिए तो हम पति-पत्नी हैं. हमारा एक सुखी परिवार है. एक बच्चा है.’

‘आबुङो क्या है? कुकी या मैतै?’ लिनथोइ ने गोर्क्रोव का मन टटोलने के लिए यह सवाल किया.

‘जो भी हो क्या फर्क पड़ता है?’

‘फिर भी…’

‘वह कुकी है.’

‘कैसे?’

‘मैं कुकी हूँ.’

‘नहीं. वह मैतै है.’

‘कैसे?’

‘मैं मैतै हूँ.’

पर कुकि समाज बाप पर चलता है.’

‘तू सच्ची में ऐसा सोचता है?’ धीमी रोशनी में अचरज भरी निगाहों से लिनथोइ ने गोर्क्रोव का चेहरा पढ़ने की कोशिश की.
‘तू सच्ची में ये सब पूछ रही है?’ भावहीन मुद्रा में गोर्क्रोव ने कहा.

‘मैंने तो यों ही पूछ लिया.’

‘तो यों ही बोल गया.’

 

दो

इन बातों से गोर्क्रोव ऊब चुका था. रात के इस एकांत में प्रसंग बदलने के लिए वह अपने होठों से लिनथोइ के होठ चाटने लगा. गोर्क्रोव का आलिंगन लिनथोइ को फंडा सा लगने लगा. उसने अपने को उससे मुक्त कर लिया. गोर्क्रोव उसे दिलासा दे रहा था, पर उस दिलासे में लिनथोइ को विश्वास का अभाव महसूस हो रहा था. इससे पहले जब भी परेशानी आती थी, लिनथोइ गोर्क्रोव के सीने से लिपट जाती थी. गोर्क्रोव उसे संभालता था. तब पति के हर एक शब्द से वह आश्वस्त होती थी. यह अविश्वास की भावना उसके मन में पहली बार पनपी थी.
लिनथोइ कॉलेज के दिनों तक चली गयी. पंद्रह साल पहले की बात है. वह इम्फ़ाल के कॉलेज में पढ़ती है. गोर्क्रोव थ्लंगवाल भी उसी कॉलेज में पढ़ता है. दोनों में प्यार हो गया. पर लिनथोइ के परिवार ने इस रिश्ते को मंजूर नहीं किया. उसके बाबा गंभीर चुङ्खम का खानदान बहुत बड़ा है. मणिपुर में सब इज्जत की नजर से उन्हें देखते हैं. गंभीर चुङ्खम ने अपने पारिवारिक प्रतिष्ठा के अनुकूल खुद को गढ़ा है. मणिपुर सरकार में बड़े अधिकारी के रूप में वे कार्यरत थे. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था- ‘असंभव.’

अगले दिन गोर्क्रोव ने लिनथोइ से पूछा था-‘तूने बाबा से बात कर ली?’

‘हाँ.’ कॉलेज के केंटीन में गोर्क्रोव के सामने बैठकर लिनथोइ ने कहा था.
‘बाबा क्या बोला?’

‘यही कि तू हमारी जात-बिरादरी का नहीं है. कुकी है, ट्राइबल है, क्रिस्टन है.’

‘तूने क्या कहा?’

‘क्या कहती? बात तो सच है.’

‘तुझे पहले पता नहीं था ये सब?’

‘था.’

‘तो?’

‘समझ नहीं आ रहा क्या करूँ.’

‘मैं बोलूँ?’

‘हाँ, बोल.’

‘हमें भागना होगा.’

‘अरे, तुझे क्या लगता है कि भागूंगी तो मेरे घरवाले मान जाएंगे? कभी नहीं. मैं अपना घर-बार, माँ-बाबा,परिवार छोड़कर नहीं रह पाऊँगी.’

मणिपुर में प्रेमियों का भागना आम बात है. वहाँ सिर्फ प्रेमी जोड़े ही नहीं, अरैंज मेरीज के जोड़े भी भागते हैं. शादी तय होने के बाद उनके भागने का मतलब यह संदेश देना होता है कि वे अब अपनी दुनिया बसाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं. वे भागते हैं तो घरवाले उनकी शादी कर देते हैं और दोनों परिवारों में उनको स्वीकार किया जाता है. पर अगर लड़का या लड़की को लेकर किसी एक परिवार या दोनों परिवारों में भारी आपत्ति होती है, तो यह शादी नहीं करायी जाती. लिनथोइ को पता था कि उसका बाबा कभी भी इस रिश्ते को मंजूर नहीं करेगा.

‘और मुझे छोड़कर रह पायेगी?’ गोर्क्रोव ने भावुक होकर पूछा था.
‘वही तो.’

‘देख लिनथोइ. जीवन में साथी का होना बहुत जरूरी है. हमें हक है कि अपने मनचाहे साथी के साथ जीवन जिये. तू मेरे साथ जैसे चाहे वैसे रह सकती है. मैं कभी तुझे किसी चीज के लिए मना नहीं करूंगा.’

‘सच्ची?’

गोर्क्रोव ने लिनथोइ के सर पर हाथ रखकर कहा-‘हाँ, मैं सच बोल रहा हूँ. मुझे तेरी कसम.’ लिनथोइ ने अपने सर से उसका हाथ उतारकर उसे चूम लिया था. वह फिर से बोलने लगा था- ‘तू जैसे मायके में है, मेरे साथ भी वैसे ही रहेगी. तू मैतै बनकर रहना, हिन्दू बनकर रहना. अपना पूजा-पाठ करना, अपना खाना खाना. मेरे और तेरे बीच हमारे धर्म,जाति और रीति-रिवाज को कभी आने नहीं दूंगा. अगर तुझे मंजूर है तो हम भागते हैं. नहीं तो हमें सब कुछ सपने की तरह भूल जाना होगा. फैसला तुझे करना है. तू जो भी कहेगी मैं मान लूँगा.’

‘मुझे तेरा साथ चाहिए.’ लिनथोइ ने कहा था. उसी रात वह गोर्क्रोव के साथ भागी थी. लिनथोइ के बाबा ने अनाड़ी बेटी को कुकी के चंगुल से बचाने के लिए पुलिस भेजी थी. उन दोनों ने पहाड़ी के पॉपी खेत में पूरे एक महीने काटे थे. छुपने के लिए ये पॉपी खेत सबसे सुरक्षित जगह. वहाँ पुलिस की पहुँच नहीं होती. जरूरत पड़ने से वहाँ से म्यांमार भी भागा जा सकता है. कुछ ही महीने बाद लिनथोइ की गोद भर गयी. इकलौती बेटी के जीवन की इस बड़ी खुशी ने बाबा का दिल पिघला दिया. गंभीर चुङ्खम ने गोर्क्रोव को सगे-संबंधियों के साथ भोज खाने के लिए बुलाया. दामाद ने भी ससुराल के सारे लोगों का चरण स्पर्श करते हुये आशीर्वाद लिया. तब से लिनथोइ का मायका आना-शुरू हो गया था. कुछ दिनों बाद गोर्क्रोव और लिनथोइ के परिवार को रोशन करते हुये एक बेटे ने जन्म लिया.

गोविंद जी के मंदिर की घंटी के साथ ही मणिपुर में सुबह मानी जाती है. घंटी बजते ही लिनथोइ बिस्तर से उठी. उसने घर आँगन में झाड़ू बुहारी की, रात की सूजी पिछवाड़े में फेंक दी. एक कप चाय के साथ वह गोर्क्रोव के पास गयी-

‘उठ जा. चाय पी ले.’

‘उठ गयी?’ ऊँघते हुये गोर्क्रोव ने पूछा.

‘मैं माँ के घर जा रही हूँ.’

चौंककर वह बिस्तर पर बैठ गया था- ‘क्या?’

‘घबरा मत. शाम तक आ जाऊँगी.’

‘ओह. मैं तो…पर ऐसे माहौल में जाना ठीक होगा?’

‘मुझे जाना है.’

‘कभी भी कर्फ़्यू लग सकता है.’

‘लगने दे.’

‘बोइपु को छोड़ जाना.’

‘मेरे आने तक आबुङो तेरे हवाले रहेगा.’ कहकर लिनथोइ कमरे से निकल गयी.

दोपहर को लिनथोइ मायका पहुँची. उसको लेकर वे लोग बड़े परेशान थे. उसे देखते ही उसके भाई ने कहा-

‘बड़ा अच्छा हुआ दीदी कि तू आ गयी. आबुङो कहाँ है?’

‘छोड़कर आई हूँ.’

‘ले आती तो अच्छा होता. फिर वापस वहाँ जाने की जरूरत ही नहीं होती.’

‘नहीं इबोहल. मैं ऐसे कैसे आ सकती हूँ? मुझे पता है कि मैं यहाँ सौ गुना आराम से रह सकती हूँ. पर नहीं, अगर मैं वहाँ गयी तो मुझे वहाँ रहना है. मन बेचैन हो रहा था. तुमलोगों को देखने के लिए तरस रही थी तो चली आई.’

‘तू आराम कर. हम बैठक में जा रहे हैं.’

‘कौन-सी बैठक?’

‘कुकी के साथ भिड़ने की.’

‘कहाँ हो रही है?’

‘मुखिया चाचा के घर.’

‘मैं भी चलूँ?’

‘चल न!’

लिनथोइ बाबा और भाई के साथ पड़ोसी के घर चली. पड़ोसी रोहलुना चिङ्ग्सुबम गाँव का मुखिया है. अपने बैठकखाने में वह कुछ लोगों से घिरा हुआ था. वहाँ कुछ अनौपचारिक चर्चा चल रही थी. लिनथोइ को देखते ही वह सकुचाने लगा तो इबोहल ने कहा-‘यह अभी भी मैतै है. इसीलिए तो हमारी खबर करने आई है. घबराने की कोई बात नहीं है.’

गंभीर चुङ्खम के कुर्सी पर बैठ जाते ही चिंतित मुद्रा में मुखिया चिङ्ग्सुबम ने बैठक शुरू की-‘विकट स्थिति है. एक सुपरिकल्पित योजना के तहत यह सब किया गया है. कुकी के जातीयताबोध की चेतना बहुत प्रबल है. वे अत्यधिक संवेदनशील हैं. भारत, बांग्लादेश और म्यांमार की सीमा को वे नहीं मानते. वे इस सीमा को पीड़न का प्रतीक मानते हैं. अंतरराष्ट्रीय सीमा को मिटाकर  देश और जाति का पुनर्गठन उनका सपना है. वे जब तब इस सीमा का उल्लंघन कर सामाजिक रूप से जुड़े रहते हैं. उनको सुनियोजित तरीके से काबू करना होगा.’

‘हाँ, उन्हें काबू में रखना ही होगा. हम यहाँ उनको पनाह दे रहे हैं. अब वे हमारी जमीन पर कुकी लैंड की मांग कर रहे हैं. मेरी ही बिल्ली और मुझी से म्याऊँ?’ बैठक में शामिल एक वयस्क व्यक्ति ने कहा.

‘फिलहाल हम क्या करें? जो कुछ हो रहा है,हमसे देखा नहीं जाता.’ एक नवयुक बोला.

‘सरकार पर भरोसा रखना है. हर दिन इतनी सेना आ रही है. वे यों ही नहीं लायी गयी होगी. एक-दो दिन देख लेते हैं. हम फिर जल्द ही मिलते हैं.’

दोपहर को लिनथोइ ने माँ-बाबा के साथ खाना खाया. बाबा ने पूछा-‘अब क्या क्या सोचा है?’

‘मुझे लौटना है. आबुङो को छोड़ आई हूँ. ऐसे भी इस माहौल में जल्दी घर पहुँचना ठीक होगा.’

‘कैसे जायेगी?’ माँ ने पूछा.

लिनथोइ जब भी मायके आती है, माँ कहा करती है-‘रहना है कि जाना है? अगर रहना है तो रह जा. अगर जाना है तो कैसे जायेगी? गोर्क्रोव लेने आएगा तो कोई बात नहीं और अगर नहीं आ रहा है तो शाम होने से पहले चली जा.’ आज माँ ने गोर्क्रोव का नाम नहीं लिया.
‘जैसे आई थी वैसे ही जाना होगा.’ लिनथोइ बोली.

‘वह तुझे लेने नहीं आ रहा? ऐसे कैसे आने दिया तुझे?’ बाबा ने आक्षेप किया.

‘मैतै के मुहल्ले में वह कैसे आता?’ पति की रक्षा करती हुयी वह बोली.

‘जैसे तू कुकी मुहल्ले में रह रही है’ दीदी के सवाल का जवाब बाबा की ओर से इबोहल ने दिया. लिनथोइ कुछ बोल न पायी. वह जाने लगी तो भावुक होकर बाबा बोला- ‘जाना चाहती है तो जा. यह हमेशा याद रखना कि यह घर तेरा था और है. जब भी तुझे लगे कि तुझे इस घर में आना है, बेझिझक चली आना. घर का दरवाजा तेरे लिए हमेशा के लिए खुला रहेगा.’

‘बाबा, मेरी डोली तो यहाँ से नहीं उठी, पर यह चाहती हूँ कि मेरी अरथी पति के घर से उठें.’ आँसू छिपाने की कोशिश करती हुयी लिनथोइ ने कहा.

इबोहल उसे छोड़ने गया. पतली गली छोड़कर वे मूल सड़क पर चढ़े तो लिनथोइ बोली-‘नहीं भाई. तू इससे आगे मत चल. नहीं तो लौटना मुश्किल हो सकता है. मैं नहीं चाहती मेरे कारण तुझे तकलीफ पहुँचे. यहाँ तक मैं अपनी मर्जी से चली हूँ. आगे भी मुझे अपना रास्ता खुद तय करना है. तू घर जा.’

दीदी को विदा करते समय इबोहल ने एक भारी थैली उसके हाथों में थमाते हुये कहा- ‘दीदी,मुझे तुझ पर पूरा भरोसा है. तू अपनी लड़ाई खुद लड़ सकती है,जीत सकती है. यहाँ कुछ आरामबाइ हैं,रख ले. पता नहीं ये कब काम आ जाये. आरामबाइ सदियों से हमारी रक्षा करते आए हैं. अगर तुझे किसी कारण भागना पड़े तो इन्हें पीछे की तरफ फेंकते हुये भागना. कोई तेरा पीछा नहीं कर सकेगा. कोई करेगा तो इनके वार से मारा जाएगा. ऐसे भी सबको पता है कि मैतै का पीछा करने का मतलब है बेमौत मारा जाना.’

लिनथोइ के घर पहुँचने तक मणिपुर में कर्फ़्यू की घोषणा हो चुकी थी. मोबाइल में दोनों संप्रदायों के साथ घटी करुण गाथाएँ शेयर होने लगीं. वाइरल हुई आगजनी, अत्याचार, बलात्कार आदि के समाचार और विडियो से मणिपुर जलने लगा तो एकाएक इन्टरनेट और टीवी के कनेक्शन बंद कर दिए गये गया. स्कूल,कॉलेज, यूनिवर्सिटी, ऑफिस बंद घोषित कर दिये गए. दूसरे राज्यों के लोगों को अपनी-अपनी सरकारें निकाल ले जा रही थीं.

फोन और टीवी के बिना लिनथोइ भी बाहरी दुनिया से अलग हो गयी. गोर्क्रोव सुबह निकल जाता था और शाम को आता था. लिनथोइ अधीर होकर शाम तक उसका इंतजार करती, उससे कुछ खबर सुनने की अपेक्षा रखती. पर नहीं, गोर्क्रोव ने मानो अपने मुँह पर ताला लगा लिया था. लिनथोइ अक्सर पूछती है-

‘कहाँ रहा दिन भर?’

‘रिलीफ़ केंप में.’ हमेशा उसका यही उत्तर होता था. फिर भी कुछ नयी खबर पाने की ललक से लिनथोइ ने यह पूछना नहीं छोड़ा था.

‘वहाँ की हालात कैसी है?

‘बहुत बुरी. लोग भूखे मर रहे हैं. पॉपी के सारे खेत खदेड़ दिये गए. पता नहीं, लोग क्या करेंगे?’

‘मेरे माँ-बाबा की कुछ खबर मिली?’

गोर्क्रोव चुप रहता है.

‘कहीं से खबर ला न!’

हफ्ते भर बाद टीवी का कनेक्शन दिया गया, पर इन्टरनेट तब भी नहीं आया. लिनथोइ की जान में मानो जान आयी. पता नहीं कुछ दिन हुये लिनथोइ का फोन खो गया था. कहा गया वह समझ नहीं पा रही थी. शाम को उसने गोर्क्रोव के फोन से भाई को फोन लगाया-

‘हेल्लो, कैसा है इबोहल? माँ-बाबा कैसे हैं? सब सही सलामत तो है?’

‘हम ठीक हैं. तू कैसी है दीदी?’

‘मैं ठीक हूँ. मुझे तुम लोगों की चिंता खाये जा रही है. इन दिनों क्या हो रहा है?’

‘होना क्या है! दिन भर सेना भर-भरकर हवाई जहाज आते रहे. उम्मीद थी कि हम न सही सेना उन्हें काबू करेगी. पर नहीं. सब मिलीभगत है. सेना के सामने उन लोगों ने हमारे लोगों पर गोलियाँ चलायी. सेना देखती रही. कहा- यहाँ से कोई गोली मत चलाओ. समाचार में आया है कि हमारे दो लोग जख्मी हो गए. क्या केवल दो ही लोग जख्मी हुये होंगे? खबर मिली है कि दो सौ से तीन सौ लोग मारे गए, अलग से हजार लोग जख्मी हुये. बात दबाई गयी है. हमारे गाँव के गाँव जलाए जा रहे हैं.’

‘सरकार क्या कर रही है?’

‘कहा है कि कुकी और मैतै दोनों के साथ न्याय करेंगे.’

‘कैसे?’

‘पता नहीं. कई सारे नेताओं ने दल और सरकार से इस्तीफा दी है.’

इसी बीच गोर्क्रोव कमरे के अंदर दाखिल हुआ. उसने पत्नी को परेशान देखकर कहा-‘मोबाइल दे. मुझे किसी से जरूरी बात करनी है.’
उधर से फोन रख दिया गया. भाई के साथ पूरी बात न कर पाने से वह तड़प उठी. उसने भड़ककर कहा-‘तुझे फोन करना है या मैतै से बात करना तुझे अच्छा नहीं लगता?’

‘लिनथोइ, तेरा मायका मेरा ससुराल है. तेरे उनसे बात करने में मुझे भला क्यों एतराज होने लगा?’

‘तुझे कैसा लगता है मैं अच्छी तरह समझती हूँ. दुनिया भर के लोगों की खबर ले रहा है. पिछले एक हफ्ते से रात-दिन तू सबकी खबर रख रहा है,पर मेरे माँ-बाबा की नहीं.’ कहते हुये उसका गला रुँध आया.

उसके हाथ से मोबाइल लेकर ‘तेरा कुछ नहीं हो सकता’ कहता हुआ गोर्क्रोव घर से निकल गया. उसके जाने के बाद लिनथोइ हिलककर रोने लगी. बेटा माँ के पास आया और पूछने लगा- ‘क्या हुआ माँ?’

‘तू यह बता कि तू कुकी है या मैतै?’

‘क्या?’ बेटे को कुछ समझ में नहीं आ रहा था.

‘यह बता कि तू कुकी का बेटा है या मैतै का?’

‘मैं क्या जानूँ?’

‘कोई तेरा नाम पूछे तो आबुङो बताना. कुकी लोग अच्छे नहीं होते.’

गोर्क्रोव और लिनथोइ अपने बेटे को प्यार से किसी भी नाम से पुकारते थे. अब कुकी और मैतै के इस संघर्ष के बाद गोर्क्रोव ने उसे बोइपु कहकर पुकारना शुरू किया था और लिनथोइ को उसे आबुङो कहकर पुकारना सुखद लग रहा था.

मायके की किसी खबर की अपेक्षा से लिनथोइ ने टीवी का रिमोट दबाया. स्थानीय न्यूज पोर्टल पर खबर आ रही थी-‘जल रहा है मणिपुर. कुकी और मैतै के संघर्ष के कई दिन हो गए हैं. कुकी क्षेत्र के मैतै लोग बेघर हो रहे हैं. इसी तरह मैतै क्षेत्र के कुकी लोग भी बेघर होने लगे हैं. बाहर से आ रहे ट्रक से राशन लूटा जा रहा है. पॉपी खेत और ड्रग्स के मोबाइल लैब्रटॉरी के खदेड़ने से ड्रग्स माफिया को भारी नुकसान का सामना करना पड़ रहा है. इसी आक्रोश में सरकार को गिराने के लिए वे स्थिति को अस्थिर कर रहे हैं. एक सूत्र से मिली खबर के मुताबिक इस संघर्ष को चलाये रखने के लिए सीमापार से अरबों रुपये आ रहे हैं. आइये आपको विस्थापित मैतै लोगों के पास ले चलते हैं. उनकी कहानी उनकी जुबानी सुनिए.’

बूम के सामने कई लोग इकट्ठे हो गए.

हमें मत मारो. शांति से रहने दो. हमें जीने दो. हम भी मनुष्य हैं.’ एक बुढ़िया हाथ जोड़कर रो रही थी.

‘अगर सरकार हमारी रक्षा नहीं कर सकती, हम अपनी रक्षा खुद करेंगे. हमें हथियार दो. अपनी लड़ाई हम खुद लड़ेंगे.’ बीस-बाईस साल का एक युवक उबल रहा था.

यह खबर खत्म हुयी तो लिनथोइ ने चेनल बदला. दूसरे चेनल में मणिपुर के इस तनावपूर्ण माहौल को लेकर कई विशिष्ट लोगों की परिचर्चा दिखायी जा रही है. एक बोल रहा था -‘गत 30 अप्रैल को मणिपुर उच्च न्यायालय ने स्थानीय मैतै संप्रदाय को जनजाति की मर्यादा देने के लिए विचार करने को कहा था. मणिपुर के इक्यावन प्रतिशत लोग मैतै हैं, जो सामाजिक-आर्थिक रूप से आगे हैं. पर अब भी उन्हें उन तमाम सुविधाओं से वंचित किया जा रहा था, जो जनजाति होने के नाते कुकी को मिल रही थी. उच्च न्यायालय के इस परामर्श से कुकी लोगों की नाराजगी बढ़ी. इसी बीच ड्रग्स के अड्डों पर सरकार ने हथियार चलाये. ऐसे ही कुछ कारणों से कुकी और मैतै में दूरियाँ बढ़ती गयीं. मैतै राजनीतिक रूप से ताकतवर हैं. अब इन लोगों ने जनजाति की मर्यादा की मांग की है. इससे कुकी लोग शंकित हो गए कि जो सुख-सुविधाएँ कुकी लोगों को वर्षों से मिल रही हैं, वे अब उनसे वंचित हो जाएंगे……’ इसी बीच बिजली चली गयी तो टीवी बंद हो गया. शाम हो गयी थी. लिनथोइ दीया जलाने चली. उसने सनामही के सामने सिर नवाते हुये प्रार्थना की-‘हे सनामही, हम सबकी रक्षा करना.’

 

तीन

जब से गोर्क्रोव ने लिनथोइ के साथ बात करना कम कर दिया, तब से लिनथोइ अलग कमरे में सोने लगी थी. उसके मन में अस्थिरता थी, अधीरता थी. उस मानसिक हालत में वह गोर्क्रोव के साथ एकात्म नहीं हो पाती थी. बेटा कभी माँ और कभी बाप के साथ सोता था. बिजली आयी तो लिनथोइ फिर से समाचार देखने लग गयी. घर और बाहर की मौजूदा हालत में उनका बेटा यतीम-सा हो गया था. उसकी खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं था. वह ऊब चुका था. उसने माँ से कहा- ‘माँ, स्कूल कब खुल रहा है?’
‘पता नहीं.’

‘स्कूल खुला ही था कि बंद हो गया. नया ड्रेस, नए जूते, नयी किताबें, नए बेग सब ऐसे ही पड़े हैं. मुझे स्कूल जाने का बड़ा मन कर रहा है. वहाँ मैदान में खेलना इतना अच्छा लगता है!’

‘हाँ.’

‘चल न माँ लूडो खेलते हैं.’

‘अभी खेलने का समय नहीं है.’

‘ठीक है. मुझसे बात तो कर.’

‘अच्छा, तू लूडो खेल. मैं समाचार देख रही हूँ.’

‘मैं अकेले कितना खेलूँ? बाबा और तुम मुझे पसंद ही नहीं करते. बात भी नहीं करते,खेलते भी नहीं.’

आबुङो के कारण लिनथोइ पूरा समाचार सुन नहीं पा रही थी. तुनककर वह बोली- ‘अकेले खेल नहीं सकता, पढ़ तो सकता है. जा, नींद नहीं आ रही है तो पढ़ अभी.’

माँ से मिली झिड़की से वह तुरंत किताब ले आया- ‘यहीं पढ़ूँगा. अंदर मुझे डर लगता है.’ लिनथोइ मना नहीं कर पायी. माँ को बेटे की पढ़ाई से कुछ भी मतलब नहीं था और बेटे को माँ के समाचार से. आबुङो समाजशास्त्र की किताब निकालकर ज़ोर-ज़ोर से पढ़ने लगा-‘भारत एक गणतांत्रिक देश है. यहाँ सब लोगों का समान अधिकार है. यहाँ अनेक जाति-जनजाति के लोग सदियों से रह रहे हैं. उनमें भाईचारे की प्रबल भावना है. वे मिलजुलकर रहते हैं, एक दूसरे की मदद करते हैं….’

उसने अचानक से किताब बंद कर दी और माँ से कहा- ‘मैं नहीं पढ़ूँगा.’

‘क्यों?’

‘किताब में झूठी बात लिखी है?’

‘क्या?’

‘लोग मारकाट करते हैं. लिखा है कि मिल जुलकर रहते हैं.’

दिनभर की मेहनत के बाद गोर्क्रोव पूरी तरह थक चुका था. वह सोने गया था. माँ को टीवी में व्यस्त देखकर बेटा बाबा के साथ सोने गया. उसने बाबा से पूछा- ‘बाबा, ये सब क्या हो रहा है?’

‘कुकी और मैतै में गलतफहमी हुयी है.’

‘कुकी लोग अच्छे नहीं होते?’

‘किसने कहा?’

‘माँ ने.’

‘कुकी लोग अच्छे हैं. मैतै अच्छे नहीं होते. बदमाश होते हैं.’

‘क्या किया मैतै लोगों ने?’

‘क्या नहीं किया? अब वे हमारी जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं. हम पर अपनी बात थोपना चाहते हैं. तुझे पता है चुड़ाचाँद कौन था?’

‘नहीं.’

‘चुड़ाचाँद मैतै राजा था. हमारी जगह का नाम उनलोगों ने अपने राजा के नाम पर रख दिया. यह बस्ती कुकियों की है. कितने मैतै हैं यहाँ? मुट्ठी भर. तो हमारे किसी कुकी आदमी के नाम से बस्ती का नाम होना था न?’

‘हाँ….’

‘अब से कोई तेरा नाम पूछे तो बोइपु बताना.’

बेटा उलझन में पड़ गया. अब तक उसने घर में ऐसी स्थिति नहीं देखी थी. माँ और बाप एक ही बात कहते थे, वही सच होता था. उसके मन में जिज्ञासा हुयी कि कौन अच्छा है और कौन बुरा? पेशाब करने के बहाने से वह माँ के पास गया. माँ बिस्तर लगा चुकी थी. वह माँ के पास सो गया. माँ ने पूछा-

‘यहाँ सोएगा?

‘हाँ.’

‘अच्छा बच्चा मेरा. आ जा. बता बाबा से क्या बात हुयी? कुछ बताया?’

‘यही कि मैतै लोग गलत हैं. उनलोगों ने कुकी बस्ती का नाम चुड़ाचाँद रखा.’

‘अच्छा उसने यह नहीं बताया कि चुड़ाचाँद कौन था?’

‘वह मणिपुर का राजा था.’

‘और क्या बताया?’

‘कुछ नहीं.’

‘राजा चुड़ाचाँद ने कुकी लोगों को यहाँ बसाया था. कुकी लोगों ने अपनी मर्जी से राजा के सम्मान में इस बस्ती का नाम चुड़ाचाँदपुर रखा. हम लोगों ने कुकी लोगों को यहाँ पनाह दी. हमने उन पर दया दिखलायी और अब वे हमारे सर पर ही सवार हो गए.’
बेटा फिर से बाबा के पास जाकर लेट गया. उसने पूछा-

‘कुकी को मैतै ने पनाह दी. तो वे क्यों मैतै के सर पर सवार हो रहे हैं?’

गोर्क्रोव समझ गया कि सवाल लिनथोइ का है. उसने जवाब दिया -‘कुकी लोगों ने मैतै की मदद ही की है. उनलोगों ने नागा के अत्याचार से बचने के लिए कुकी लोगों को नागा के आसपास बसाया था. कुकी नहीं होते तो आज मैतै भी नहीं होते.’

बेटा माँ के पास चला आया और बोला-‘मैतै को तो कुकी ने मदद ही की है.’

‘मदद हमने उनकी की है. पहले तो हमने उन्हें रहने के लिए जगह दी. बाद में जब नागा उन्हें खत्म कर रहे थे, हम लोगों ने उन्हें बचाया.’
‘मुझे और चिट्ठी मत बना माँ. मैं बाबा से कहने और नहीं जाऊँगा. मुझे नींद आ रही है.’

माँ ने उसे छाती से लगा लिया. बेटे ने पाया कि माँ की आँखों से आँसू बह रहे हैं. उसने आँसू पोंछ दिये और कहा-‘ तू चिंता मत कर माँ. मैं बाबा को आज रात समझाऊँगा कि कुकी गलत कर रहे हैं…’ वह उठने लगा तो लिनथोइ ने उसके हाथ थाम लिए और कहा- ‘तेरे बिना मुझे चैन नहीं आता. यहीं सो जा.’

लिनथोइ प्यार से उसका शरीर सहलाने लगी. तंदुरुस्त बेटा दुबला हो गया है. पिछले कई दिनों से लिनथोइ का ध्यान मणिपुर में हो रहे संघर्ष पर टिका था. पहले घर के काम में जो शांति उसे मिलती थी, वह अब नहीं रही. मजबूरन उसे घर संभालना पड़ रहा था. वह समय पर खाना तो पकाती थी, पर ग्रोक्रोव के घर में न होने से खाना खाया नहीं जाता था. कभी अगर वह होता भी था तो परोसना भूल जाती थी. खाने को लेकर न ग्रोक्रोव की रुचि थी, न लिनथोइ की. इसी बीच बेटा उपेक्षित रहने लगा. कभी लिनथोइ उसे खाना परोसती थी, तो कभी खुद परोसकर खाने के लिए कहती थी. उसने खाया कि नहीं, खाया तो क्या खाया, कब खाया और कितना खाया खबर नहीं रखती थी. माँ और बाप के तनाव का असर बेटे पर हो रहा था. दो महाशक्तियों के टकराहट का दुखद परिणाम हमेशा आम आदमी को ही भुगतना पड़ता है. उसे ग्लानि हुयी. वह रात भर सो नहीं पायी.

 

चार

सुबह उठकर ही लिनथोइ ने टीवी का स्विच ऑन किया. ऐसे वह देश-विदेश की खबर को लेकर सचेत नहीं रहती. पति और बेटे को लेकर ही उसका जीवन-चक्र घूमता था. कभी कभार वह सिनेमा या गाना देख लेती थी. गोर्क्रोव नियमित रूप से समाचार देखता था. इस समय गोर्क्रोव को टीवी देखने का समय नहीं मिल रहा था और लिनथोइ टीवी के समाचार में अपने को व्यस्त रख रही थी. मणिपुर की स्थिति को लेकर बाहर रह रहे मणिपुरी लोग उद्विग्न हो रहे थे. अपने लोगों के लिए कुछ करने के लिए गुवाहाटी में चार मैतै संगठनों ने एक साथ प्रेस मीट दिया था. न्यूज रिडर पढ़ रहा था-

‘गुवाहाटी में मणिपुरी संगठनों ने राज्य में जारी अशांति के शांतिपूर्ण समाधान का आह्वान किया. इन संगठनों ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में बसे सभी मैतै समुदाय की ओर से मणिपुर में बसे मैतै समुदाय की दुर्दशा पर दुख और अप्रसन्नता व्यक्त की. उन्होंने कहा कि समय आ गया है कि हम एक मैतै समुदाय के रूप में वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी को आसन्न खतरे से बचाने लिए योजना बनाएँ. हम विनम्रतापूर्वक देश के बाकी हिस्सों के लोगों को सूचित करना चाहते हैं कि मैतै भारतीय संविधान के ढांचे का पालन करते हुए लोकतांत्रिक तरीके से अपने जनजातीय अधिकारों की मांग करता है. हमारी समस्याओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया जाएँ ताकि दुनिया को हमारे दावों और चिंताओं का पता चल सकें. वर्तमान मणिपुर में चल रहे संघर्ष बहुत जटिल है और कुछ लोग इसे हिंदू बनाम ईसाई और मैतै बनाम आदिवासी  के रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और घाटी के सदियों पुराने संबंधों को अपूरणीय क्षति पहुँचा रहा है. हम विनम्रतापूर्वक मौजूदा अवांछित जातीय संघर्ष के लिए एक रणनीतिक और त्वरित स्थायी समाधान का अनुरोध करते हैं.’

कुछ दिन और बीत चुके थे. संघर्ष बढ़ता ही रहा. गोर्क्रोव के आँगन में फिर से कुकी लोग जम गए. हाओकिप मुखिया बोल रहा था-‘बुरी खबर है. हमने नागाओं से बैठक की. उनको हमारे साथ देने का आग्रह किया. पर नहीं. वे बोले कि यह ईसाई और हिन्दू की लड़ाई नहीं है. यह कुकी और मैतै की लड़ाई है. हम मैतै लोगों के खिलाफ नहीं जा सकते. यह उम्मीद बुझ गयी तो हमें दुगनी ताकत से लड़ना होगा.’
‘अब क्या योजना है?’ बैठक में से किसी ने पूछा.

‘योजना की क्या कहें? योजना बनाने से पहले योजना बनाने की योजना पर विचार करना जरूरी हो गया है.’

‘क्या मतलब?’ एक युवक ने जिज्ञासा जाहिर की.

‘हम जो भी योजना बनाते हैं, उन तक पहुँच जाती है. हममें से कोई है जो यहाँ की खबर वहाँ पहुँचा रहा है. हमें गैरों पर भरोसा नहीं करना चाहिए.’

बैठक में सबकी जुबान बंद हो चुकी थी. सबकी नजरें गोर्क्रोव पर टिकी थीं.

‘लिनथोइ को कुकी बनाना होगा. कुकी रीति-रिवाजों का पालन करते हुये उसे यहाँ रहना होगा.’ मुखिया ने घोषणा की.

गोर्क्रोव किसी अवांछित घटना की संभावना से अंदर से हिल गया. बोला-‘मेरा यकीन मानिए, लिनथोइ ने ऐसा कुछ नहीं किया. पिछले कुछ दिनों से वह कहीं नहीं गयी है. उसके पास फोन भी नहीं है. उससे हमें कुछ भी खतरा नहीं होगा.’

‘हमारे लड़के कौन कहाँ जाते हैं, क्या ले जाते हैं, ये खबरें हमारे यहाँ से तो जाती होंगी न गोर्क्रोव?’

‘मुझे थोड़ा समय दीजिये. मैं उसे कहीं भेजने का बंदोबस्त करता हूँ.’ हाथ जोड़कर गोर्क्रोव बोला.

‘एक मैतै के लिए तू अपनी बिरादरी भूल रहा है. हमें खदेड़ने में तो उनलोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. हम तो मौका दे रहे हैं. या तो लिनथोइ कुकी बने नहीं तो….’

गोर्क्रोव ने बीच में ही बात काट दी- ‘मुझे सबकुछ मंजूर है. वह कुकी बन जाएगी.’

गोर्क्रोव अंदर चला. लिनथोइ खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर हो रही बातें सुनने की कोशिश कर रही थी. गोर्क्रोव बोला-‘तूने तो सुन ही लिया है. तैयार हो जा.’

‘यह तू क्या कह रहा है?’ लिनथोइ आँखें फाड़कर गोर्क्रोव को देखती रही.

‘सबने चाहा है. यही समाज का फैसला है. कोई चारा नहीं है अब.’ गोर्क्रोव ने दृढ़ता से कहा.

कुकियों का सामाजिक बंधन बहुत मजबूत होता है. वे सामूहिक निर्णय को बड़ी इज्जत के साथ स्वीकार करते हैं. मुखिया की बात शास्त्र की वाणी की तरह होती है. कोई भी उसे नकार नहीं सकता. उसके सामने किसी की भी नहीं चलती.

‘मुझको लेकर फैसला किया जा रहा है और मुझसे एक बार भी पूछा नहीं गया? मैं क्या चाहती हूँ तूने भी नहीं पूछा?’

‘तेरी तरफ से मैं बोला हूँ.’

‘क्या बोला तू मेरी तरफ से? यही कि मैं तेरी बीबी हूँ, तू जो चाहे मेरे साथ कर सकता है. तू पति है मेरा, मालिक नहीं. यह मेरी जिंदगी है, मेरा भी एक मन है, अपनी इच्छा है मेरी…’

‘अब तक तो हम ऐसे ही चलते रहे. अब माहौल ऐसा बना है कि इस तरह अलग-थलग नहीं रह सकते. सामाजिक रूप से भी हमें एक होना होगा.’

‘तो तू मैतै बन जा.’

‘तेरा दिमाग खराब हो गया है? क्या बक रही तू तुझे पता भी है? यह कैसे हो सकता है?’

‘जैसे तू मेरे लिए कर रहा है…’

‘मैं मैतै बनकर क्या करूँगा? कहाँ रहूँगा?’

‘मेरे घर में.’

‘तुझे पता नहीं लिनथोइ, तेरा मुहल्ला जलकर राख़ हो गया है. लोग बेघर हो चुके हैं. और तेरे माँ-बाबा…..’

‘क्या? क्या किया तुमलोगों ने उनके साथ?’ उसने गोर्क्रोव की कमीज के कलर को पकड़कर उसे अच्छी तरह से झकझोरा. वह रो नहीं रही थी, चिल्ला रही थी. उसकी आँखें लाल हो गयी थीं, जिनसे पानी की धारा लगातार बहने लगी थी.

‘शांत हो जा लिनथोइ. समझने की कोशिश कर. मान जा. ये सब हो जाने के बाद हम आराम से रह सकेंगे. हमारे भविष्य के बारे में सोच.’

‘मेरा आज नरक बन रहा है और तू कल का सपना दिखा रहा है मुझे. याद है भागने के समय तूने मुझसे क्या कहा था? मेरे माँ, बाबा, भाई…’ वह बिलखने लगी. बाहर लोग लिनथोइ को विधिवत कुकी बनाने की तैयारी कर रहे थे. अंदर गोर्क्रोव लिनथोइ को मना रहा था.

आँगन से लोगअंदर की घटना का जायजा ले रहे थे. अपने कुकी साथी को मैतै कुछ कर न दे, इस आशंका से वे कमरे में दाखिल होने ही वाले थे कि गोर्क्रोव बाहर निकल आया. मुखिया ने कहा-

‘क्या वह मानी नहीं?’

‘हम ऐसा नहीं होने देंगे. कोई मैतै अब से यहाँ नहीं रह सकेगा.’ दूसरे ने कहा.

‘हम उसे ऐसे नहीं रहने देंगे.’ तीसरे ने कहा.

गोर्क्रोव लोगों को संभालने की कोशिश कर रहा था. पर कोई कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. यह मामला वैयक्तिक या पारिवारिक न रहकर सामाजिक बन चुका था; लिनथोइ कोई व्यक्ति न थी,न वह गोर्क्रोव की पत्नी थी, वह कूकियों के बीच की एक मैतै थी. अब इस विषय पर समाज का अधिकार था. भीड़ अंदर की तरफ बढ़ी. लिनथोइ ने इबोहल के दिये हुये आरामबाइ की थैली पिछवाड़े में गाढ़ रखी थी. बिजली की गति से वह पीछे के दरवाजे से बाहर निकली और एक ही खींच से केले के सूखे पत्तों में लेपेटकर रखे आरामबाइ की थैली निकाल ली और थैली को गले में लटका लिया. वह तेजी से दौड़ती हुयी रास्ते पर पहुँच गयी.

‘अरे उसे मत छोड़. भागी जा रही है.’ किसी से चिल्लाकर कहा.

‘ग्रोक्रोव, कैसा मर्द है तू? एक औरत को संभाल नहीं पाया?’ भीड़ में से किसी की आवाज आई.
लोग कुछ इसी तरह से चिल्लाने लगे थे. कुछ युवक उसके पीछे-पीछे भागने लगे तो किसी ने कहा- ‘उसका पीछा मत कर. आरामबाइ फेंक रही है. मारा जाएगा.’

‘बहुत चालाक हैं ये मैतै लोग. पता ही नहीं चला कि कब आरामबाइ का इंतजाम कर लिया.’ किसी ने कहा.

‘भागकर कहाँ जाएगी? सामने से पकड़ी जाएगी.’ भीड़ में से किसी ने कहा.

‘गोर्क्रोव, अच्छा हुआ कि तू बच गया.’ मुखिया बोला.

गोर्क्रोव बोइपु को संभाल रहा था. वह ‘माँ मुझे छोड़कर मत जा, मत जा’ कहकर रो रहा था. लिनथोइ को कुछ सुनाई नहीं दिया. वह आरामबाइ फेंकती हुयी जली बस्तियों, उजड़े घरों, लूटे खलिहानों, जलती गाड़ियों, टूटी सड़कों, सुरक्षा में तैनात पुलिस और सेना की टुकड़ियों को पीछे छोड़कर भागती रही.

31 मई, 2023/ गुवाहाटी

पूर्वोत्तर की रीतामणि वैश्य असमीया और हिन्दी, दोनों भाषाओं में लेखन कार्य करती हैं. मृगतृष्णा ( हिन्दी कहानी संकलन) लोहित किनारे (असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों का हिन्दी अनुवाद), रुक्मिणी हरण नाट, असम की जनजातियों का लोकपक्ष एवं कहानियाँ (असम की ग्यारह जनजातियों का विवेचन एवं सोलह जनजातीय कहानियों का हिन्दी अनुवाद), हिन्दी साहित्यालोचना (असमीया), भारतीय भक्ति आन्दोलनत असमर अवदान (असमीया), हिन्दी गल्पर मौ-कोँह (हिन्दी की कालजयी कहानियों का असमीया अनुवाद), सीमांतर संबेदन (असमीया में अनूदित काव्य संकलन), प्रॉब्लेम्स एज दीपिक्टेद इन द नोवेल्स ऑफ नागार्जुन (अँग्रेजी) आदि उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं. उन्हें असम की महिला कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों के  अनुवाद ‘लोहित किनारे’ के लिए सन् 2015 में केंद्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिंदीतर भाषी हिन्दी लेखक पुरस्कार से तथा सन् 2022 में नागरी लिपि परिषद का श्रीमती रानीदेवी बघेल स्मृति नागरी सेवी सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. सम्प्रति गौहाटी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की सह आचार्य हैं.
ritamonibaishya841@gmail.com

Tags: 2023२०२३ कहानीKukiMeiteiकुकीमणिपुर एक प्रेम कथामैतैरीतामणि वैश्य
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Comments 26

  1. रतनपाल सिंह says:
    2 years ago

    मैं तो समालोचन की रेंज देख कर दंग रहता हूँ. अखिल भारतीय ही नहीं सच में वैश्विक पहुंच है इसकी. घटना की आग अभी बुझी नहीं और उसपर वहीं से यह कहानी लिखी गयी है और छप भी गयी. यह है नई सदी की साहित्यिक पत्रिका. गर्व है कि हिंदी में ऐसी पत्रिका का मैं पाठक हूँ.

    Reply
  2. बजरंग बिहारी says:
    2 years ago

    रीतामणि वैश्य की कहानी दस्तावेज़ी महत्व की है। मणिपुर में जो कुछ घट रहा है, घटने दिया जा रहा है वह बहुत तकलीफदेह है। कुकियों के बीच मैती लिनथोइ सशक्त चरित्र बनकर उभरी है। गोर्क्रोव और लिनथोइ की पहली संतान एक लड़की थी। उसका क्या हुआ। आठ वर्षीय बेटे को कुछ समझ नहीं आ रहा। उसका विभ्रम, उसकी आकुलता पाठकों के भीतर उतरती जाती है।
    कहीं-कहीं कहानीकार को विशिष्ट शब्दों का अर्थ स्पष्ट कर देना चाहिए था। ‘आरामबाइ’ ऐसा ही शब्द है।
    जो हो, इस सामयिक और मार्मिक कहानी के लिए रीतामणि जी को साधुवाद।

    Reply
    • रीतामणि वैश्य says:
      2 years ago

      गोर्क्रोव और लिनथोइ का एक ही बेटा है। ‘फनेक’ मैतै महिलाओं की मेखला है। ‘सनामही’ मैतै लोगों के आराध्य हैं। ‘लाइ हराओबा’ मणिपुर का एक त्योहार है। ‘आरामबाइ’ तीर की तरह एक हथियार है,जिसे मैतै लोग युद्ध के समय व्यवहार करते हैं। इसके आगे का हिस्सा लोहे का बना हुआ होता है। आपके सुझाव के लिए आपका हार्दिक आभार।भविष्य में आपके सुझाव का ध्यान रखा जाएगा।

      Reply
  3. चितरंजन भारती says:
    2 years ago

    बहुत बढ़िया बहन

    Reply
  4. रीतामणि वैश्य says:
    2 years ago

    4 मई,2023 से मणिपुर में चल रहे सांप्रदायिक संघर्ष पर आधारित ‘मणिपुर:एक प्रेम कथा’ कहानी को ‘समालोचन’ में प्रकाशित कर मणिपुर के मैतै और कुकी लोगों के जीवन की जटिलताओं को राष्ट्रीय ही नहीं वैश्विक पटल पर ले जाने के कारण मैं संपादक महोदय को हार्दिक धन्यवाद देती हूँ।
    गोर्क्रोव और लिनथोइ की एक ही संतान है और वह लड़का है।
    ‘आरामबाइ’ तीर की तरह एक हथियार है,जिसे मैतै लोग युद्ध के समय व्यवहार करते हैं। भविष्य में आदरणीय बजरंग बिहारी जी के सुझाव का ध्यान रखा जाएगा।
    आप सबने ‘मणिपुर:एक प्रेम कथा’ पढ़ी। सबका आभार।

    Reply
  5. गीताश्री says:
    2 years ago

    प्रिय रीता जी

    आपकी कहानी समालोचन पर पढ़ी. मैंने फ़ेसबुक पर भी लगाया. आज सुबह सुबह पढ़ने के बाद बहुत उदास हो गई. बहुत बढ़िया कहानी लिखी है. दोनों समुदायों के बीच के संघर्ष और जटिलताओं को बखूबी पिरोया है कथा में. दुखद ये है कि दो जातियों और धर्मों का संघर्ष दो दिलों के बीच दीवार बन कर खड़ा हो जाता है.
    प्रेम के लिए कोई स्पेस नहीं. प्रेम की कोई जगह नहीं, कोई आदर नहीं. जातीय अस्मिता ही सबसे बड़ी चीज. प्रेम और संबंध सब धूल धूसरित.
    ये भयानक सच है… और ये बात कसकती है मेरे भीतर.
    आपकी नायिका के साथ -साथ मैं भी भाग रही हूँ… अपने पीछे बम फेंकते हुए…
    मन बहुत व्यथित भी, क्रोधित भी.
    हम प्रेम को बचा नहीं सकते. सबको अपनी जातीय पहचान और अस्तित्व की चिंता. कैसा समाज है.
    मनुष्यों के जान की कोई क़ीमत नहीं.
    आपने कथा में सबकुछ कह दिया. बहुत दर्दनाक है उससे गुजरना.
    अभी इतना ही…. तकलीफ़ कम हो तो फिर बात होगी.

    सादर

    गीताश्री

    Reply
    • Anonymous says:
      2 years ago

      ‘मणिपुर एक प्रेम कथा ‘ अपने आप में एक अति संवेदनशील समालोचना।

      Reply
      • Ashish says:
        2 years ago

        मार्मिक और सम्वेदनशील…आभार समालोचन

        Reply
  6. राजाराम भादू says:
    2 years ago

    एक ज्वलंत विषय पर मार्मिक कहानी।‌ इसे एक वृहत रूपक की तरह भी पढा जा सकता है। कथा के दंपति ने पहले एक बालिका को जन्म दिया था। लेकिन आगे उसका कोई संदर्भ नहीं आता। उनका बेटा सामुदायिक हिंसा से सबसे ज्यादा पीड़ित होने वाले कमजोरों का प्रतिनिधित्व करता है। अस्मिता आधारित विभाजन किस तरह वैयक्तिक स्वतंत्रता का अपहरण कर लेते हैं, कहानी इस विद्रूप को सामने लाती है।
    भारतीय संविधान में स्वतंत्रता और समानता के साथ बन्धुत्व भी एक मूल्य के रूप में शामिल है। लेकिन इसकी सर्वाधिक उपेक्षा हुई है। नतीजतन देश के विभिन्न भागों में हम सामुदायिक तनाव, विद्वेष और हिंसा की घटनाएं देख रहे हैं।
    बहरहाल, रीतामणि जी को बधाई और समालोचन का आभार !

    Reply
  7. लतिका जाधव says:
    2 years ago

    रीतामणि जी,
    जिज्ञासा से मैं कहानी पढ़ने लगी। आज का मणिपुर का वास्तव वहां की आबादी को इतना भयभीत कर देगा यह कहानी मे सहजता से उभरकर सामने आया है।
    बहुत अच्छी कहानी है। मनुष्य पर आधुनिक युग में हावी होता जातिवाद चिंता का विषय है।

    Reply
  8. कश्मीर उप्पल says:
    2 years ago

    मणिपुर की प्रेमकथा एकदम ताजगी और ताप से एकदम झुलसा गई।भारतीय गणतंत्र की प्रयोगशाला के सबक पूरे देश के लिए सबक हैं कि अतिराष्ट्रवाद अंततः अंधेरी गुफा में ले जाता है जिसमें आपसी सम्बन्ध भी खो जाते हैं हाथ से जीवन भी पीछे कहीं छूट जाता है। यह कहानी लेखन को एक दिशा देती है यही इस समय का लेखन धर्म है।

    Reply
  9. DR. Rekha Shekhawat says:
    2 years ago

    बहुत -बहुत बधाई मैम ,कथा संसार में नवीन दिशा बोध हेतु
    प्रासंगिक पथ प्रदर्शन। प्रेम पर जातिवाद ने अमूमन विजय ही प्राप्त की है।पीड़ा एवं खामियाज़ा हमेशा स्त्रियों के हिस्से में ही आता है। ये हमारे समाज की सबसे बड़ी देन है।

    Reply
  10. Jainendra Chauhan says:
    2 years ago

    मैम, आपने कथा का प्रारम्भ बहुत ही बेहतरीन ढंग से किया है. परिणामस्वरूप पाठक शुरूआत से ही कहानी के साथ बंध जाते हैं और कथा से अंत तक जुड़े रहते हैं. कथा में जो वेदना है, वह दिल को झकझोर देती है तथा प्रेम भाईचारे को चरितार्थ करता है. वास्तव में, यह कहानी उत्तर आधुनिकता के विविध पक्ष को यथार्थ रूप से दर्शाती है.
    सादर
    जैनेन्द्र

    Reply
  11. Dr. Chanderkala says:
    2 years ago

    एक दस्तावेज के रूप में ही नहीं विभिन्न खानों में बटने वाले लोग प्रेम को भी उसी तरह बाँट कर उसका वर्गीकरण करते हैं. लडाई कहीं से भी शुरू हो उसका समापन प्रेम की ह्त्या पर ही होता है चाहे देश काल बदल जाए लेकिन यह सत्य कम ही बदलता है. कितने प्रेमी जोड़े ठीक इसी तरह अलग हुए होंगे और उनके बच्चों का भविष्य इसी प्रकार खंडित वर्तमान पर तय होगा. मन को बेचैन करने वाली कहानी.

    Reply
  12. Priyanka kalita says:
    2 years ago

    सर्वप्रथम मैं मैम को धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ कि उन्होंने ‘जातीय हिंसा’ पर लेखनी चलाकर धधकते हुए मणिपुर को कागज़ पर उकेरा । तथ्यात्मक पहलुओं के साथ-साथ उन्होंने यहाँ दो प्रेमियों ‌के मध्य हुई भावनात्मक हलचल को भी महसूस किया है । ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि लिनथोइ और गोर्कोव का प्रेम जातीय हिंसा की आग में धधक रहा हो । दोनों पक्षों के विचारों का संतुलित रूप प्रस्तुत करते हुए कथाकार ने सृजनशीलता का परिचय दिया है । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऐसे विवादित विषय पर कलम चलाना उनकी साहसिकता को दर्शाता है । मैं आशा करती हूँ कि भविष्य में यह कहानी हिन्दी साहित्य जगत में समुचित स्थान प्राप्त करेगी ।

    Reply
  13. रमण कुमार सिंह says:
    2 years ago

    मैंने आपकी कहानी समालोचन वेबसाइट पर पढ़ी। बहुत सुंदर और शानदार कहानी है। अभी मणिपुर में जो चल रहा है, उसका जीवंत चित्रण है। कैसे कुछ लोगों के सुनियोजित षड्यंत्र में व्यक्तिगत रिश्ते की मिठास में कड़वाहट घुल जाती है, इसे बताने में यह कहानी पूरी तरह से सफल रही है। और सबसे अंत में उस बच्चे की अनसुनी चीख रुला देती है। इतनी सुंदर कहानी गढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आपके लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं। उम्मीद करता हूं कि जल्दी ही मणिपुर में फिर से प्रेम के गीत गाए जांएंगे और फिर से शांति एवं सौहार्द्र का वातावरण बनेगा।-

    Reply
  14. DR. SANJIB MANDAL says:
    2 years ago

    पूर्वोत्तर भारत की सही और प्रामाणिक छवि को दुनिया के सामने लाने वाले साहित्य की हिंदी भाषा में कमी खटकती है । रीतामणि वैश्य जी की यह कहानी इस कमी को पूरा करने की दिशा में एक अहम कदम है । धधकते मणिपुर की करुण कथा कहने वाली यह कहानी अपने आप में विशिष्ट है । मणिपुर की वर्तमान हिंसा पर हिंदी में लिखी गई कोई सृजनात्मक कृति मेरी नजर में नहीं आई है । पूर्वोत्तर की बेटी ने अपने घर स्वरूप इस पूर्वोत्तर की कहानी जिस स्नेह और सहानुभूति के साथ कही है कदाचित ही कोई और कह पाता । प्रेम और घृणा दो विपरीत ध्रुवों पर अवस्थित मनोभाव हैं । लिनथोइ और गोर्क्रोव की प्रेम कहानी मैतै और कुकी इन दो संप्रदायों की घृणा की आग में जलकर राख हो जाती है । पर जिस प्रकार कामदेव राख में से पुन: रूप प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार कहानी की नायक-नायिका की प्रेम कहानी भी राख में से पुन: आकार लेगी । क्योंकि दोनों के बीच का सेतु उनका बेटा उनके बीच की डोर को टूटने नहीं देगा । एक मैतै बेटी लिनथोइ एक कुकी बस्ती में रहती है । सांप्रदायिक हिंसा के दौरान सभी उस पर प्रहार करना चाहते हैं । पर उसका पति गोर्क्रोव अंत तक उसे प्यार करता है और उसकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए ही उसे कुकी बनने के लिए कहता है । लिनथोइ आत्मसम्मान से लबरेज़ है और इसीलिए वह अपने पति के प्रस्ताव को ठुकरा देती है । मणिपुर जरूर शांत होगा और तब लिनथोइ और गोर्क्रोव जैसे प्रेमी युगल के बीच की प्रीति का फूल फिर से खिलेगा । रीतामणि वैश्य जी की कहानियों का अंत बहुत ही अनूठा होता है । इस कहानी का अंत भी बहुत ही आकर्षक है । वैश्य जी की शैली की यह एक खासियत है । इसे रेखांकित किया जाना चाहिए । वैश्य जी की मणिपुर की पृष्ठभूमि पर रची गई एक और कहानी है ‘लोकटाक कब तक!’ । मणिपुर की विश्वप्रसिद्ध विशाल झील ‘लोकटाक’ को घटनास्थल बनाकर प्रदेश के उग्रवाद की समस्या पर लिखी गई इस कहानी को पढ़ा जाना चाहिए । ‘मणिपुर : एक प्रेम कथा’ शीर्षक बड़ा ही आकर्षक है । मात्र शीर्षक को देखकर ही कोई भी व्यक्ति इस कहानी को एक बार पढ़े बिना नहीं रह पायेगा ।

    Reply
  15. विनीता बाडमेरा says:
    2 years ago

    “मणिपुर: एक प्रेम कहानी “दो जातियों के मध्य बढ़ती घृणा ने। आख़िर प्रेम को निगल लिया।
    बहुत ही सुन्दर कहानी बुनी है मैम

    Reply
  16. देवराज says:
    2 years ago

    आदरणीया रीतामणि जी,
    कहानी भेजने के पहले जब आपने मुझे फोन पर मणिपुर की वर्तमान त्रासदी को आधार बना कर लिखने की बात बताई थी, तो मुझे एक अच्छी कहानी की आशा तो थी, लेकिन इतनी अच्छी कहानी की नहीं, जैसी ‘मणिपुर : एक प्रेमकथा ‘ है। आपने बहुत महीन, बहुत बारीक धागों से कथानक बुना है। ये मशीन के नहीं, चरखे पर कते हुए धागे हैं और कथानक मणिपुर के सांस्कृतिक-सामाजिक हथकरघे पर बुना जाकर कहानी बना है। इसीलिए यह प्रेम की लोकताक में पति-पत्नी और अबोध बालक की जीवनेच्छा के संघर्ष का ही नहीं, बल्कि मणिपुर के इतिहास की सबसे भयंकर सामाजिक-सांस्कृतिक त्रासदी का मानवीकरण है। कहानी के बहुत छोटे-छोटे संवाद और आत्मालाप किसी को भी मणिपुर की सामाजिक-देह के अंग-अंग को भस्म करने में जुटी आग के बीच ले जाकर खड़ा कर सकते हैं।
    मैं त्रासदी शुरु होने के दूसरे दिन से ही वहाँ के अपने मित्रों के संपर्क में हूँ। जब भी फोन मिल जाए,फोन करता हूँ और भयावह सूचनाओं से खुद भी उस आग में जलता हूँ— आपकी यह कहानी पढ़ते हुए फिर उसी अनुभव से गुजरा। वहाँ की एक-एक जगह और समाज के सभी वर्गों को निकट से जानने के कारण मैं इस कहानी के साथ कभी इम्फाल में,तो कभी चुड़ाचाँदपुर में, तो कभी सुगनु,मोइराङ, कुम्बी, मयाङ इम्फाल के जलते माहौल में जा खड़ा हुआ और मुझे सभी जगहों पर असंख्य लिनथोइङम्बियाँ, असंख्य गोक्रोंव, असंख्य बोइपु-आबुङो मिले। सब के सब इस त्रासदी की मार झेलते हुए, लेकिन सभी लिनथोइङम्बियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों के बीच अपनी इयत्ता और आत्माभिमान की रक्षा की कोशिश करती हुई। कहना होगा कि आपकी कहानी की लिनथोइङम्बी इन सबकी और सबसे क्रांतिकारी स्त्रियों की प्रतिनिधि प्रतीक है। वह बड़ी कुशलता से अपनी पारिवारिक-सामाजिक त्रासदी से जूझती हुई उन ताकतों को बेनकाब भी कर देती है, जो इतिहास, संस्कृति, धर्मांधता, समुदाय का संवैधानिक अधिकार, स्वायत्त शासन, विदेशी प्रभाव और सेना-पुलिस के प्रति विश्वास-अविश्वास का घोल साधारण मीतै/मैतै और साधारण कुकियों को पिला कर सनालैबाक (स्वर्णभूमि) मणिपुर को नष्ट करने पर तुल गई हैं।
    हाँ, लिनथोइङम्बी से याद आया। पता नहीं, आपने अचानक कहानी की इस केंद्रीय पात्र का नाम रख लिया अथवा इस नाम के चुनाव के पीछे कोई खास कारण है। लेकिन आप जानती होंगी कि मणिपुरी लोक-इतिहास में राजा निङ्थौखोम्बा की रानी का नाम लिनथोइङम्बी था। यह प्रसिद्ध है कि जब अक्ला का राजा मणिपुर पर चढ़ाई करने आया और निङ्थौखोम्बा को सेना के साथ सीमा पर जाना पड़ा, तो अवसर का लाभ लेकर पहाड़ का एक ताङ्खुल सरदार स्वयं राजा बनने के लिए इम्फाल पर हमला करने चल पड़ा। तब राजा और सैनिकों के अभाव में लिनथोइङम्बी ने ही अन्य स्त्रियों का नेतृत्व करते हुए राज्य और स्वाधीनता की रक्षा की थी। उसी समय से मणिपुरी समाज में लिनथोइङम्बी को स्वतंत्रताप्रिय नारी के रूप में देखा जाता है। कहानी पढ़ते हुए मुझे वह इतिहास भी याद आया और लगा कि आपकी इस कहनी में उसी लिनथोइङम्बी का व्यक्तित्वांतरण हो गया है और वह राज्य की स्वाधीनता के बदले स्त्री मात्र के व्यक्तित्व की स्वायत्ता और स्वाधीनता की प्रतीक में बदल गई है। सच क्या है, नहीं पता……….
    जहाँ तक सुझाव का सवाल है, मैं यही कहूँगा कि इसी शैली-शिल्प में और कथानक की ऐसी ही बुनावट में पूर्वोत्तर के यथार्थ पर कहानियाँ लिखती रहिए। जितने प्रामाणिक और ठोस ढंग से उसी परिवेश में रहने वाले लेखक वहाँ की बारीकियों और समाज-सांस्कृतिक अंतर्विरोधों को कहानियों, कविताओं या अन्य कला रूपों में प्रकट कर सकते हैं, वह दूसरों के लिए काफी कठिन है। इस कारण रचनारत रहना आपका ऐतिहासिक दायित्व भी है।
    पत्र काफी बड़ा और उबाऊ हो गया है, लेकिन परसों जिस प्रकार आपसे वार्तालाप हुआ, उसने यह सब लिखने को बाध्य किया। आगे से छोटे पत्र लिखे जाएँगे।
    अपने संघर्ष के बीच भी सक्रिय रहें, यही कामना है।
    आपको मेरी शुभकामनाएँ।
    सादर—
    देवराज

    Reply
  17. अरुण कमल says:
    2 years ago

    आपकी कहानी पढ़कर वहाँ की जटिल सामाजिक-पारिवारिक संरचना तथा संख्या-बल की राजनीति का पता चला।कहानी मार्मिक और यथार्थपरक है।

    Reply
  18. मृत्युंजय कुमार सिंह says:
    2 years ago

    बहुत सत्य है इनकी कथा में। बाहर जिस तरह इसे हिंदू – ईसाई या जाति, जनजाति की लड़ाई आदि कह कर हवा दी जा रही है, वह वहां के ज़मीनी तथ्य से बिल्कुल अलग है। जहां तक नारी के असम्मान का मामला है तो आज ही बंगाल के बर्दवान के इलाके में किसी नारी को डायन करार कर के निर्वस्त्र किया गया; और ऐसी कई घटनाएं देश भर में हुई होंगी। हमें सब्र और चेतना की सूक्ष्म दृष्टि से काम लेना होगा। प्रशासन में हूं इसलिए इस पर बहुत विस्तार से कुछ कहना नहीं चाहता, क्योंकि कई तथ्य हमारे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और सुरक्षा से जुड़े हैं। फिलहाल इस कहानी के द्वारा उद्भासित तथ्य को ही हम सच मानें तो बेहतर है, क्योंकि यह कथा सही में बहुत कुछ कह गई है। साझा करने के लिए धन्यवाद और आभार Arun Dev जी 😌🙏

    Reply
  19. Vandana gupta says:
    2 years ago

    आपकी कहानी ने आज के हालात का दिग्दर्शन करा दिया। बेहद संवेदनशील कहानी।

    Reply
  20. पंकज कौरव says:
    2 years ago

    आदरणीय रीतामणि जी,
    एक सांस में कहानी पढ़ गया। बेहद रोचक साथ ही सरलता से मणिपुर के जातीय संघर्ष को चित्रित करती है यह कहानी। बहुत बधाई आपको इस संवेदनशील और मार्मिक रचना के लिए…
    -पंकज कौरव

    Reply
  21. चंदन पाण्डेय says:
    2 years ago

    जो हो रहा है उससे ठीक उलट यह कहानी बयाँ कर रही है। 4 मई को वह घटना हुई थी जिसमें कुकी महिलाओं पर अत्याचार हुआ था वहाँ के शक्तिशाली मैतई समूह के लोगों द्वारा। आठ या नौ मई तक सबको यह मालूम हो चुका था। आप रोहिन कुमार की रिपोर्ट पढ़ सकते हैं। Rohin Kumar. और यह कहानी जून में छपी है। लेकिन इस कहानी में मैतई समूह की स्त्री प्रताड़ित की जा रही है कुकी समूह के लोगों द्वारा। कहानी में होशियारी से बैलेंस बनाने की कोशिश दिख रही है, दोनों समुदायों के बारे में लिखकर लेकिन आखिरी के बड़े हिस्से में दिखने लगता है कि लेखिका कहीं न कहीं इस लड़ाई में मैतई को बेहतर दिखा रही हैं।

    Reply
  22. सविता पाठक says:
    2 years ago

    अभी पढी कहानी लेकिन ये सब इतना सरल भी नहीं। मैतै समाज की अपनी जटिलताएं थी नेपाली,गोरखाली और बंगाली लोगों के साथ। कुकी और नागा की पुरानी लड़ाई है। लेकिन एक मातृसत्तात्मक समाज किस प्रकार हिन्दूवादी हो जाता है और ऐसी घटनाएँ होती हैं जिनकी कल्पना पूर्वोत्तर में नहीं की गयी थी। मुझे मैते समाज की औरतों का प्रोटेस्ट याद आ रहा था कैसे उन्होंने सेना के खिलाफ नग्न होकर प्रदर्शन किया था। यह कैसा ज़हर बोया गया है,वह समाज कहां पहुंच जाता है, दूसरे एक पूरे समाज की हिंसा को संरक्षण प्राप्त होता है। कहानी एक संतुलन साधना चाहती है बात इतनी सरल तो नहीं है। फिर भी बच्चे के सामने- उन सारे बच्चों के सामने एक चुनौती तो आती ही जा रही है जो जातियों और धर्मों के खांचें नहीं प्रेम की पैदाइश हैं।

    Reply
  23. नंदिता बर्मन says:
    1 year ago

    इस कहानी में आखिर समाज के सामने प्रेम हार ही गया । दो संप्रदाय के बीच होने वाले संघर्ष ने न जाने कितने ऐसे परिवारों को अलग करके रख दिया। धन्यवाद मेम आगुंतक जीवन में और भी कहानियां सुनने की आशा रखती हूं।

    Reply

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