कुमार अम्बुज से अरुण देव की बातचीत मज़ाक़ कहानी संग्रह पर केन्द्रित |
1.
कविता में आने से ऐसा क्या रह जाता है जिसे रचने के लिए कवि कहानियाँ लिखते हैं? रचनाकार वैसे तो अलग-अलग विधाओं में लिखते रहे हैं, कुछ हैं उनमें से जो कई विधाओं को साध पाते हैं. आप इस दिशा में किस तरह गए?
एक विधा में काफ़ी कुछ आ सकता है और काफ़ी कुछ छूट भी सकता है. तथाकथित विधाओं के बीच अनेक दरवाज़े हैं, खिड़कियाँ, रोशनदान हैं. वहाँ यातायात निर्बाध है. उसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता. लेखक आवाजाही या प्रवास न करना चाहे तो यह उसका चुनाव है. मेरी निगाह में प्रत्येक विधा एक सर्जनात्मक ख़ाली जगह भी है, जिस पर एक ख़ास विधागत नाम की पर्ची लगा दी गई है लेकिन वह तंग जगह नहीं है. वह जैसे मुझे ‘स्पेस’ और चुनौती देती है कि उसे किसी नयी सर्जना से भर दिया जाए. इस पुकार में आकर्षण है. किसी एक विधा में कुछ रह जाने या छूट जाने का मसला विधा से कहीं अधिक रचनाकार की रुचि, शक्ति, सीमा का हो सकता है. उसके भाषा सामर्थ्य, आकांक्षा या आवेग का भी. तमाम लेखकों के पास इन विभिन्न विधा नामक जगहों में एक साथ विचरण करने या न करने के अपने सूक्ष्म, ज्ञात-अज्ञात कारण हो सकते हैं. इसकी कोई एक वजह जान सकना, बता सकना कठिन है. यह लेखक की रचना-प्रकिया का अजाना अव्यक्त हिस्सा, कोई अधूरापन हो सकता है. या एक असंतोष. ज़ाहिर है कि अपनी परम्परा में उपस्थित लेखन प्रेरित करता है.
अन्य ठोस और स्थूल वजहों की खोज भी की जा सकती है. जैसे मैंने लगभग बीस बरस पहले कहानियाँ इसलिए लिखीं क्योंकि मैं उस समय अधिसंख्य कहानियों के गद्य से निराश हो चुका था. वहाँ विन्यस्त कृत्रिमता, अतिनाटकीयता, उबाऊ इतिवृत्तात्मकता, विवरणात्मक स्थूलता की विद्रूपता, काम-चित्रावली, सूचनाओं और ठस बौद्धिकता से मैं, अपनी तरह का पाठक थक गया था. उनमें से अनेक बहुत से शब्दों से बनीं विशाल, लोकप्रिय, बड़बोली कहानियाँ थीं जिन्हें लिखनेवाला किसी उच्चतर जगह पर बैठा था.
उनमें सब कुछ था बस सहजता, जीवन का कोई सत्व, सच्ची हताशा, अपराधबोध और वह अवसाद ग़ायब था जो चारों तरफ़ व्याप्त था. वहाँ मामूली चीज़ें, रोज़मर्रा की आपाधापी और तकलीफ़ों की व्यग्र कर देनेवाली आवाज़ें लगभग अनुपस्थित थीं. उनमें गद्य के सुंदर, मार्मिक, विचलित करते हुए विचारमग्न करनेवाले दो-चार पैराग्राफ़ भी बमुश्किल मिलते थे. प्रसंगों और घटनाओं के लिए ढर्रे में लिखा, चौंकाने की कोशिश करता हुआ एक विपुल बासी गद्य.
उस वक़्त उदय प्रकाश, अखिलेश, संजय खाती जैसे कुछ अपवाद छोड़ दूँ तो भीतर तक धँस जानेवाले किसी जीवनसिक्त वाक्य, ज़रूरी उत्साह, अवांछित के अस्वीकार, विडंबनाओं की हास्यास्पदता या प्रकाशित हवा की सरसराहट से भरे गद्य के लिए मुझे प्राय: ज्ञानरंजन, श्रीकांत वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल जैसे कथाकारों के पास जाना पड़ता था. या और पीछे जहाँ प्रेमचंद एवं उपरांत कथाकारों का एक नक्षत्र मंडल विद्यमान है. शायद यह मेरी अपनी पाठकीय दिक़्क़त थी. इसे मैं शिकायत की तरह रखना चाहता था. लेकिन किसी आलोचक की तरह यह काम करने में असमर्थ था. तब मेरे पास यही उपाय शेष रहा कि जैसी मेरी आकांक्षा और अपेक्षा है, तदनुरूप कहानी लिखूँ. एक प्रतिवाद की तरह. प्रस्ताव की तरह. या किसी नाकाम कोशिश की तरह.
2.
कविता मितव्ययी विधा है. कहानियाँ थोड़ा विस्तार चाहती हैं, भाषा और विवरण दोनों उन्हें चाहिए. ऐसे में कवि-कथाकार को अपनी भाषा से जूझना पड़ता होगा. कवि-कथाकारों की कहानियाँ अलग से दिखती हैं. क्या कवि-कथाकार जैसा कोई वर्गीकरण ठीक रहेगा या उन्हें कथाकार ही कहा जाए?
मितव्ययिता गद्य में भी चाहिए. वह हर जगह मूल्यवान है. अतिरिक्त शब्द प्रत्येक विधा के लिए नुक़सानदेह हैं. एक कहावत है, जिसे मैं अकसर दोहराता हूँ- ‘रिमूवल ऑव एक्सेस इज़ ब्यूटी’. अतिरिक्त को हटाना सुंदरता है. विवरण या विस्तार का अर्थ अतिरिक्त नहीं होता. ‘कवियों की कहानियाँ’ कहकर उन्हें किसी अलग कोटि में रखना, बातचीत की सुविधा तक तो ठीक है लेकिन मेरा आग्रह है कि कहानी को कहानी के विकासक्रम में, बदलते आस्वाद की तरह, उसमें किए जा रहे हस्तक्षेप की तरह देखा जाए. भौतिक विज्ञान के एक उदाहरण से कहूँ तो अन्य विधा में रचनारत लेखक दूसरी विधा में अपने भाषिक व्यवहार से, अपनी अन्य विधा के अनुभव से एक अपवर्तन और सर्जनात्मक विक्षेप पैदा कर सकता है. इस ‘रिफ्रैक्शन’ से संभव होता है कि प्रिज़्म और इंद्रधनुष के नये अनुभव हमारे समक्ष घटित हो सकें.
बँधी-बँधाई चौखट से बाहर जाते ही अकादेमिक विधागत चौहद्दियाँ टूट जाती हैं. वे विधा के जड़ अनुशासन की दासता से बाहर निकल जाती हैं. ऊर्जस्वित हो जाती हैं. इसमें विखंडन और पुनर्संयोजन की क्रिया समाहित है. यह विधाओं को भी संपन्न और पुष्ट करना है. उन्हें कई दिशाओं में विस्तृत करना है.
परिचय के रूप में कवि-कथाकार कहना ठीक है लेकिन कहानियों को कवि की कहानी, चित्रकार की कहानी, पत्रकार की कहानी, वैज्ञानिक की कहानी इत्यादि कहकर अतिरिक्त ध्यानाकर्षण, छूट, रियायत या अनुदान की ज़रूरत नहीं. वे अपने आप में कैसी हैं, क्या कहती हैं, क्या उत्पात, निर्मिति या ध्वंस करती हैं, वहीं से उनका निर्णय हो. रचनाशीलता में अराजकता भी एक मूल्य है, बशर्ते वह सर्जनात्मक हो. कभी कोई आलोचक, उपन्यासकार या कहानीकार कविता लिखे तो उसे आलोचक की, उपन्यासकार या कहानीकार की कविता की तरह नहीं, महज़ कविता की तरह देखा जाना उचित होगा.
3.
नयी सदी की पहली चौथाई तक आते-आते आधुनिकता के मूल्यों और उपकरणों में बहुत टूट-फूट हुई है. ‘शार्ट स्टोरी’ को हिंदी में कहानी कहा गया जो एक बैठकी में पढ़ी जा सकती थी और यथार्थ के बोध और यथा लेखन से जुड़ी थी, उसमें इधर बदलाव हुए हैं. हिंदी में एक तो वे लम्बी हुईं हैं, उत्तर-यथार्थ की शैलियों जैसे जादुई यथार्थवाद आदि का भी उनमें विन्यास दिखता है. तेज़ी से बदलते और जटिल होते समय को देखने की कहानी की यह अपनी चुनौती है. कथाकार के रूप में अपने समय को बूझते और उससे जूझते हुए आपको भी अपनी कहानियों के शिल्प में बदलाव करने पड़े होंगे.
यथार्थ को व्यक्त करने की चुनौतियाँ लेखक के सामने हमेशा रहेंगी. यह असमाप्य आत्मसंघर्ष है कि अपने समय को, प्रस्तुत बहुरूपी यथार्थ को कैसे देखें, कैसे निशानदेही करें, कैसे व्यक्त करें. पिछले एक-डेढ़ दशक को मैंने ‘ब्लैक ह्यूमर’ और ‘सामाजिक-राजनीतिक त्रासदी’ की तरह भी समझने की कोशिश की है. और तदनुरूप अभिव्यक्त करने की. यह प्रहसन और त्रासदी हमारे जीवन के सभी कोनों-किनारों में पैवस्त है. परंपरागत शैलियाँ विच्छिन्न-अविच्छिन्न ढंग से निश्चित ही लेखक की सहायता करती हैं. विचार संगति के साथ भाषा की अविराम गतिशीलता निर्णायक हो जाती है. कोशिश करता हूँ कि वाक्य अपने भीतर की शब्द शक्तियों के साथ अधिक अर्थपूर्ण बने रह सकें. और जहाँ ज़रूरी हो वहाँ भाषा कैमरे का काम भी कर दे.
बड़े आकार की कहानियाँ जिनमें विशद समय का वर्णन हो अथवा कई वर्षों का विस्तार हो, दीर्घ अथवा अनेक जीवन वृत्तांत हों वे शायद उपन्यास के दायरे में आएँ. बाक़ी महज़ आकार के आधार पर कहानी का कोई अन्य वर्गीकरण मुझे औचित्यपूर्ण नहीं लगता. छोटी या लंबी, कहानी कहानी है.
4.
अम्बुज जी आपकी कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि इस सदी में हम पिछली सदी का ध्वंस पढ़ रहे हों, खंडहर में घूमते हुए जो उदासी तारी होती है वैसा कुछ महसूस होता है. संग्रह की पहली कहानी है ‘गुम होने की जगह’. चमक-दमक से भरी दुनिया में कोई गुम होने की, ग़ायब होने की जगह तलाश रहा है. यह अपने में ही उदास हो जाने के लिए पर्याप्त है और बीच में अंदर तक बेधते कुछ वाक्य जैसे कि “परसों मैं शहर के बीचोबीच एक ऐसी बेहद सार्वजनिक पुलिया पर बैठा हुआ था जिसका अभी निजीकरण बाक़ी था” आते हैं. यह कहानी बेचैन करती है और हतप्रभ भी. यह सभ्यता का जैसे प्रतिपक्ष हो. यह कहानी कैसे सूझी?
अरुण जी, यहाँ सदी का ध्वंस भी है और पिछले बरस का भी. अभी गुज़र गए कल-परसों का. संप्रति भी यह जारी है. अगर इससे कोई बेहतरी, कोई निर्माण संभव हो रहा होता तो फिर यह आलोच्य नहीं रह जाता, चिंतित और व्यथित नहीं करता. तब यह उतना शोकाकुल नहीं बनाता. अब यह कथन लगातार स्पष्ट होता जा रहा है कि नयी सभ्यताओं के समानांतर नयी बर्बरताएँ भी अस्तित्व में आती हैं. प्रकृति और प्राणियों के लिए समान रूप से घातक. सामान्य जन के इत्मीनान को, उनके एकांत, उनकी निजी स्वतंत्रता, उनके सहज मानवीय अधिकारों को ख़त्म किया जा रहा है. यह घातक है और बारीक़ है. आदमी को इस तरह अकेला कर देना है कि वह असमय ही नष्ट हो जाए. भारी हथौड़ा मारकर किए जा रहे ध्वंस को नक़्क़ा़शी बताया जा रहा है. इससे कहीं अधिक हताशा, असुरक्षा और भय प्रसारित होता है. यह जीवन को अधिक विपदाग्रस्त और असहनीय बना देता है. यह नागरिकता सहित तमाम संकटों से जुड़ जाता है, हमारे सपनों और नींद में विघ्नकारी जगह बना लेता है.
आप एक जगह से गुज़रते हैं तो पाते हैं कि हरियाली के बीच में से कंक्रीट डालने की आवाज़ें आ रही हैं और कहीं ऐसी जगह नहीं है जहाँ मीलों तक आप सभ्यता के कोलाहल से बचकर बैठ सकें. परिपत्र निकालकर दाएँ हाथ को बताया जाता है कि बायाँ हाथ तुम्हारा नहीं है. फ़ुटपाथ पर चल नहीं सकते, सार्वजनिक बैंच पर बैठ नहीं सकते, हर जगह मनाही है, चेतावनी है या एक कठिन समय-सारणी है, उसके बाद वहाँ चलना-उठना-बैठना सीआरपीसी का विषय है. धारा एक सौ चौबीस-ए है. कहीं भी आपका चालान कट सकता है. तेज़ बारिश, धूप से बचने के लिए किसी इमारत के बरामदे में खड़े नहीं हो सकते. हर ख़ाली जगह पर लिखा है, सावधान! यह जगह निजी है और वहाँ एक कुत्ते के भौंकने की आवाज़ है तो इसकी चिंता किसी भी संवेदनशील आदमी को होगी. लेखक को तो ज़रूर ही. कितनी और किस शिद्दत से होगी, किस परिप्रेक्ष्य में होगी, यह फ़र्क़ हो सकता है. कई बार घबराहट और निराशा जकड़ लेती है और लेखक से काम कराती है, जैसे उबारने के लिए. यह कहानी किसी विशेष सूझ से नहीं, रोज़मर्रा की ऐसी ही चिंताओं और व्याकुलताओं के इकट्ठा होते रहने से मुमकिन हो गई. बाक़ी कहानियों की भी यही कहानी है.
5.
एक कहानी का ज़िक्र करूँगा जो इस संग्रह की आख़िरी कहानी है. कहानी में कथा-तत्व की अनुपस्थिति कोई नयी बात नहीं है, जैसे यहाँ है. कहानी सुन्दरता से शुरू होती है, सपनों से होती हुई बारिश तक जाती है. यह कविता हो सकती थी, इसका अंत कविता से ही होता है. यह कुछ प्रेम कथा जैसी भी है, ख़ासकर जब स्त्री कहती है- “जब अपने ही सपनों को मैंने विस्मृत कर दिया तो अब किसी के सपने में मैं कैसे आ सकती हूँ.‘’ यह कविता और कथा का मेल लगता है. यह कथा विमोहित करती है.
दरअसल, यह सत्रह बरस पहले लिखी ‘बारिश’ कहानी का एक दूसरा सिरा है. गुज़र गई बारिश को स्वप्न की तरह देखने का. यह बीत चुके का वर्तमान सपना है. आवेग और प्रेमिल वेदना ने मिलकर शायद इसे वैसा बनने दिया जैसी कि वह है. ‘बारिश’ की शुरुआत एक कविता से होती है और यहाँ अंत में कविता है. दोनों के बीच एक खुली सुरंग है. आप एक सिरे से चलकर दूसरे सिरे तक पहुँच सकते हैं या एक ही जगह में रह सकते हैं.
एक अच्छी कविता की आकांक्षा में गद्य और एक अच्छे गद्य की आकांक्षा में कविता निवास करती है. उनका ढंग अलग हो सकता है. कभी-कभी कविता और कहानी मिलकर भी एक सहजीवन बना सकते हैं. तब उनके पार्श्व में संगीत रहने लगता है. कहानियाँ और कविताएँ किसी एक ही तरीक़े से नहीं लिखी जातीं. वे कुछ ख़ास तरीकों की मोहताज भी नहीं होतीं. इस रोज़-रोज़ के अप्रत्याशित जीवन में वे वैविध्यपूर्ण और अनपेक्षित होंगी ही. औचक. किसी नयी भूषा और भाषा में अपनी कथा कहती हुईं. अरुण जी, आप ख़ुद एक कवि हैं, इसे बेहतर समझ पा रहे हैं.
6.
अम्बुज जी आपकी लगभग हर कहानी आघात से शुरू होती है, चोट करती है. पहला वाक्य पढ़कर ही इच्छा सताने लगती है कि कुछ समय के लिए कहीं एकांत में स्थिर रहा जाए. मार्खेज़ कहते हैं कि किसी कहानी का पहला वाक्य कथा को नियंत्रित करता है. क्या पहले वाक्य पर आप बहुत मेहनत करते हैं.
नहीं. पहले वाक्य पर मेहनत नहीं करता. कभी-कभी उसकी प्रतीक्षा करता हूँ. कि सब कुछ है लेकिन वह एक वाक्य नहीं है जो एकदम प्रेरित कर दे. नींद में से उठा दे. उसके आते ही कहानी मुमकिन हो जाती है. कभी यह एक साथ, पहली बार में सहजता से हो जाता है. और कभी अपना समय लेता है. कोई एक वाक्य, जो रचना के मध्य में भी हो सकता है लेकिन वह वहाँ बैठकर भी निदेशक और नियंत्रक हो सकता है. उस कहानी के विचार, दु:ख, बेचैनी, सुख, संकट और अवधारणा का भार वह वाक्य सहर्ष उठा लेता है. नींव के पत्थर की तरह. या कभी बंद तालों की सर्वकुंजी की तरह. वैसा एक वाक्य दिमाग़ में आते ही मानो सुप्त पड़े सर्जना के रसायन सक्रिय और सहयोगी हो जाते हैं. लेखन का ऐसा कोई नियम नहीं है लेकिन मेरी रचना प्रक्रिया में संभवत: यह अंतर्निहित है. अकथनीय रूप से शामिल है.
7.
‘पंचतन्त्र’ शीर्षक कहानी सभ्यता में ‘अपमान’ की अनिवार्यता और प्रकारान्तर से मनुष्य की विडम्बना पर टिकी है. अपमान पर जैसे कोई शास्त्र ही यहाँ आकार ले रहा है, हालाँकि यह कथा आकार में छोटी है. “हर शब्द में यदि एक के लिए सम्मान है तो उसीमें उसी वक़्त दूसरे का अपमान छिपा है. बल्कि उजागर है. चमकता हुआ.” अपनी सामाजिक व्यवस्था में ही अपमान की हिंसा शास्त्रबद्ध है. विचार के स्तर पर यह कहानी मानस में बदलाव की सूत्रपात कर सकती है. इसे पढ़ते हुए पाठक सचेत होता जाता है कि उससे किसी का अपमान न हो. मैं समझता हूँ कहानी की इससे बड़ी सफलता और क्या हो सकती है. इसमें कथा के विस्तार की भी संभावना अभी है.
आपने काफ़ी कुछ डिकोड कर दिया है. आगे कहूँ तो जैसे न्याय करने में अन्याय छिपा रहता है. इसलिए ज़ोर इस पर रहे कि अन्याय न हो. इसी में सच्चा न्याय होगा. यही सम्मान के बारे में कहा जा सकता है. किसी का अपमान न करने में ही वास्तविक सम्मान निहित है. समानता और स्वतंत्रता को भी इसी तरह अप्राप्य और दुर्लभ बनाया जाता रहा है. जबकि सीधा तरीक़ा है कि आप असमानता न करें, न लागू होने दें. किसी को किसी भी तरह से परतंत्र न बनाएँ. यह सीधा तरीक़ा है. समाज में इसका विपरीत, अतिरेकी और अभिनयमूलक हो सकता है. धोखादेह भी.
शक्ति संरचना का एक अनिवार्य उत्पाद अपमान है. हर कोई इसे देख, समझ सकता है. भुगतता भी है. रचनाकार की तरह यह स्थिति मुझे परेशान करती है. इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. कहानी विस्तार संबंधी अपनी बात ऊपर कह चुका हूँ.
8.
असहमति और विरोध को अब सत्ताएँ अपने लिए ख़तरा मानने लगीं हैं जबकि लोकतांत्रिक समाज में यह व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक होता है. जैसे जो असहमत हैं वे दुश्मन हैं. उनकी जगह न्यूनतम कर दी गई है. उनकी ख़बर तक नहीं बनती है. ऐसे में ‘अनशन की जगह’ कहानी में कहा जाता है कि शहर से दूर वह चिह्नित जगह में ही अनशन कर सकते हैं. कथा के अंत का यह वाक्य परेशान करता है- “अनशन करने इतनी दूर कैसे जाएँ और क्यों जाएँ.” जिस देश ने औपनिवेशिक सत्ता से अपनी आज़ादी अनशन करके हासिल की आज वहीं अनशन के लिए कोई जगह नहीं है.
भाई, आपकी चिंताएँ ठीक हैं. इस कहानी में जितनी नागरिक अधिकार की चाह शामिल है उससे कहीं अधिक जीवनाधिकार की. यहाँ पीड़ा के निस्तार की माँग है. क्योंकि उसे और कोई रास्ता नहीं दिया जा रहा है. जबकि यह लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की चाहत है. और व्यथा की वह चेतावनी भी जो अन्यथा एक दिन आक्रोश में बदलने के लिए विवश होती है.
यह कहना कि आप मीलों दूर जाकर अपना सत्याग्रह, अनशन या धरना दीजिए, इसका क्या मतलब है? यही कि आप उनका मज़ाक़ बना रहे हैं. उन्हें मनुष्य के रूप में स्वीकार नहीं कर रहे हैं. आप आँसू गैस छोड़ने, लाठी मारने, गोली चलाने तैयार हैं, लेकिन उन मुसीबत-ज़दाओं की बात सुनने के लिए नहीं. उनकी शिकायत दूर करने के लिए नहीं. कठोर सत्ताओं का यही चरित्र है, असहिष्णुता है, क्रूरता है. ‘आयरन हील’ है. और आपके सीने पर है. क्या करें, कहाँ जाएँ, ये यक्ष प्रश्न सदैव वंचित, विपन्न, निर्बल, शोषित जन और विस्थापितों के सामने मुँह बाये खड़े हैं. इसलिए कहानी के अंत में यह प्रश्नवाचकता एक बार फिर एक प्रासंगिक है. ज़रूरत है. राह है. असहायता है. और प्रतिरोध भी.
9.
बाज़ार, व्यापार, उद्योग, पूँजी, साम्राज्यवाद और उत्तर-साम्राज्यवाद आदि यहाँ तक पहुँचते हुए हम यह लगभग भूल ही गए हैं कि मनुष्य के उपभोग की आवश्यकताओं की पूर्ति के क्रम में ये विकसित हुए. अब ये ख़ुद मनुष्य के लिए कृत्रिम आवश्यकताएँ पैदा करते हैं और खरीदने के लिए विवश भी. तमाम ऐसी चीज़ों से हम लदे हुए हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं है. ऐसे में जिन चीज़ों में मुनाफ़ा कम है उसे बाज़ार बेचने में रुचि नहीं लेता. इस संग्रह में दो कहानियाँ हैं- ‘वस्तु-बाज़ार’ और ‘जीभी’. पहली कहानी भविष्य के बाज़ार की छवि प्रस्तुत करती है जिसमें व्यक्ति के क्रय क्षमता से उसकी इज़्ज़त निर्धारित होती है और उसके समक्ष वही चीज़ प्रदर्शित होती है जिसे वह ख़रीद सकता है. ‘बनावटी मेधा’ का यह खेल अब प्रत्यक्ष ही है. यह सब समकालीन अब है. यह कहानी 2005 में लिखी गई. जबकि ‘जीभी’ आठ साल बाद 2013 में, जिसमें कथा नायक को लकदक बाज़ार में ‘जीभी’ जैसी चीज़ नहीं मिलती. ऐसा लगता है पहली कहानी थियरी है और दूसरी उसका उदाहरण प्रस्तुत करती है. स्थितियाँ विकट तो हैं पर रास्ता भी क्या बचता है? फ़ुटपाथ पर ठेले भी कब तक बचेंगे?
इस प्रश्न में कुछ उत्तर भी हैं. देखिए, शरीर की तरह समाज में भी कैंसर एक सूक्ष्मतम गाँठ या घाव से शुरू होता है. प्रारंभ में लक्षण एकदम प्रकट और विकट नहीं होते. सावधानियाँ, सचेत निगाह कुछ मदद कर सकती है. सजग साहित्य और कलाएँ यह कोशिश करती हैं. बहुत छोटी चीज़ों की अप्रत्याशित उपस्थिति या उनकी अकस्मात् अनुपस्थिति हमें आगामी बड़े संकट की सूचना देती है किंतु उसकी उपेक्षा घातक रुग्णता की तरफ़ ले जाती है. यही बात हम बाज़ारवाद, जो पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का एक आधुनिक औज़ार है, के बारे में कह सकते हैं.
इस बाज़ारवादी साम्राज्यवाद को वाल्टर बैंजामिन ने बहुत पहले ‘आरकेड्स प्रोजेक्ट’ में इंगित कर दिया था. बीस बरस पूर्व ‘संसार के आश्चर्य’ शृंखला अंतर्गत कहानियाँ इस उधेड़बुन भरी आशंका में लिखी थीं कि अब पुनरुत्थानवाद, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, अस्मिता संघर्ष, वर्चस्ववाद, और राजनीतिक शठता को चमत्कारों में वर्गीकृत करते हुए इन्हें आश्चर्य का विषय बनाया जा सकता है ताकि वे मानवीय, सहज स्वीकार्य और उपलब्धिमूलक लगने लगें, कि मनुष्यता के श्मशान और क़ब्रें बनाकर उन्हें पर्यटन की जगहें बना दी जाएँ. इनके आगे बाक़ी आश्चर्य तो फीके ही रह जाएँगे. अब बाज़ारवाद के खुले चमकदार गलियारे सब जगह हैं. अपने उत्पादों के लिए जनता का अनुकूलन करते हुए. शार्क की तरह तमाम दूसरी छोटी मछलियों को निगलते हुए. इसके प्रभाव का छोटा-सा रूपक ‘जीभी’ में नमूदार है. यह कब तक चलेगा? इसका उत्तर ‘ऑपरेटिंग सिस्टम’ के बदलाव में हो सकता है. केवल ‘सॉफ्टवेयर’ बदलने से कुछ नहीं होगा. अब हम कार्पोरेटी ऑक्टोपस के शिकंजे में भी हैं. ख़तरनाक आश्चर्यों से भरी यह एक नयी दुनिया है.
10.
अम्बुज जी, आपकी लगभग सभी कहानियों में निराशा का तत्व है. यह आपके नये कविता संग्रह ‘उपशीर्षक’ में भी लक्षित किया जा सकता है. शोक और निराशा. ऐसा लगता है नयी सदी के ये बीज वाक्य हैं. इसके पीछे क्या कारण है? आप प्रतिबद्ध रचनाकार हैं, कुछ दशकों पहले तक व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद थी और संघर्ष भी था. इधर तो जैसे बस ‘न्याय’ की उम्मीद ही बाक़ी रह गई है. दीगर सामाजिक संघर्षों में भी पस्ती का आलम है. ऐसे में कोई रचनाकार कर ही क्या सकता है? आपके ही शब्दों में कहूँ तो-
“जैसे ही कोई संकट आता है
आप विचित्र तरह से अकेले हो जाते हैं.”
जिसे आप निराशा कह रहे हैं दरअसल वह हमारे वक़्त की विडंबनाओं, त्रासदियों और विश्वासघातों का समुच्चय है. एक मज़ाक़. इसे हमारे समय का दुःख भी कह सकते हैं. यह हर काल में होता है, इसकी पहचान हर काल में करना पड़ती है. अनवरत. जानेंगे तो उसका उपाय दिखेगा. सामाजिक-राजनीतिक कारणों से संघर्ष के रूप बदलते रहते हैं. जनसंघर्षों के सामने मुश्किल वक़्त भी आता है. इस सबके बावजूद यदि कहानी के पात्र जीवित हैं, विचारशील हैं, जिजीविषा से भरे हैं तो दरअसल वे निराश नहीं हैं. न शोकग्रस्त. वे झूठी आशाओं पर पड़े हुए परदे हटा रहे हैं. वे ठोस यथार्थ के सामने हैं और वायवीयता के झाँसे में नहीं हैं. वे वास्तविक लोग हैं, हमारे घरों में, शहरों, गाँवों में हैं. इसी दुनिया के हैं. और प्रस्तुत सच्चाइयों को, जैसी वे हैं, कारणों सहित समझने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें उनकी सहनशीलता, जद्दोजहद, मुहिम और प्रतिरोध शरीक है. वे प्राय: हर मुश्किल से अपने ईजाद तरीक़ों द्वारा लड़ने की कोशिश करते हैं. दलदल में फँसने के बाद भी अपना हाथ ऊपर उठाकर रखते हैं और निरुपायता के आगे आत्मसमर्पण नहीं करते.
यह निराशा की नहीं, उस सात्विक और जीवनदायी अवसाद की कहानियाँ हैं जिसके बारे में रिल्के और तमाम मनोविज्ञानियों ने कहा है कि यह स्पंदित और संवेदनशील लोगों की मदद करता है. यह अवसाद जिस लेखक में नहीं है, उस पर संदेह किया जा सकता है. ब्रेष्ट की जग प्रसिद्ध पंक्ति है कि जो हँस रहा है, उस तक अभी बुरी ख़बर नहीं पहुँची है. या जो हँस रहा है, उसकी हँसी का चरित्र रघुवीर सहाय की कविता में है. संसार में कोई भी उल्लेखनीय कथा समेकित और व्यापक दु:ख के बिना मुमकिन नहीं हुई है.
विचारवान निराशा सकर्मक आशा की तरफ़ ले जाती है. परिस्थितयों पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करती है और बदलाव की इच्छा जगा सकती है. हालाँकि इस वर्णन में कई नामाक़ूल आशाएँ और हास्यास्पद स्थितियाँ अपनी जगह बना लेती हैं. जिन पंक्तियों को आपने प्रसंगवश उद्धृत किया है, वे इस वस्तु-केंद्रित सभ्यता में बढ़ते अकेलेपन, एलिअनेशन के शिकार होते समाज से ही प्रसूत हैं.
11.
कवि का कहानी लिखना एक बात है और कविता तथा कहानी के कोरों को घिसकर उन्हें एक दूसरे में मिला देना दूसरी बात है. मतलब कहानियाँ पढ़ते हुए कभी कविता जैसा अहसास हो तो कभी कविता में कहानी आकार लेने लगे. देखें तो इसकी समृद्ध वाचिक परम्परा भी है. किस्सागो बीच-बीच में शेर या दोहे प्रयुक्त करते रहें हैं. नाटक ख़ासकर पारसी थियेटर यही करता था और इसका असर आज भी हिंदी फ़िल्मों पर है, इस महाद्वीप की सिने संस्कृति में हैं. तो हम लोग तो इसे एक साथ साधने वाले लोग हैं. ऐसे में जब विधाओं के बीच की दूरी घटी है इस तरह की रचनात्मकता की उम्मीद क्या की जा सकती है, एक रास्ता तो आपके कथा संसार से भी होकर निकलता है.
ये सहधर्मी कलाएँ और विधाएँ कई मायनों में मिलकर एक वंशवृक्ष बनाती हैं. यह भी याद करना दिलचस्प हो सकता है कि बॉदलेयर दो सौ बरस पहले ऐसी कविता लिखते हैं जिसे आप गद्य की तरह, कहानी की तरह भी पढ़ सकते हैं. होर्खे लुईस बोर्खेस और कामीलो ख़ोसे सेला की कई कहानियाँ ‘संसार के प्रतिनिधि कविता संचयनों’ में संकलित हैं. उन्होंने विधागत बागड़ों को बहुत पहले ही रौंद दिया है. सेला का उपन्यास- ‘मिसिज काल्डवेल स्पीक्स टू हर सन’, क़रीब दो सौ छोटे गद्य के टुकड़ों में लिखा गया है. इसके अनेक हिस्से पाठकों, आलोचकों, संपादकों, लेखकों के बीच कविताओं की तरह स्वीकृत हैं. इसी तरह एदुआर्दो गेलिआनो की कुछ किताबें जो गद्य को कविता के स्तर तक ले जाती हैं.
नये फ्रैंच लेखक मेथिहास एनार्ड के उपन्यास ‘टेल देम ऑव बैटल्स, किंग्स एंड एलिफेंट्स’ सहित जैसी अनगिन कृतियों की भरमार है. हिंदी में भी कथा में कविता या कविता में कथा के उदाहरण कुँवर नरायण, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे आदि के लेखन से बाआसानी देखे-समझे जा सकते हैं. कुछ अलग ढंग से निराला से लेकर मुक्तिबोध तक भी. आठवें, नवें दशक के अनेक कवियों, कथाकारों ने इसे अपनी-अपनी तरह से अग्रसर किया है. यहाँ सूची देना उद्देश्य नहीं है, बस एक ध्यातव्य उपस्थिति के प्रति ध्यानाकर्षण है.
यह विधाओं का अतिक्रमण नहीं, संविलयन है. दरअसल, विधा के सीमांकनों को लगातार रद्द किया जाता रहा है. जैसे तुक या छंद अपने आप में कविता नहीं है, उसी तरह प्रवाही मार्मिक वाक्य भी गद्य में आकर महज़ कविता नहीं. या बोलचाल की भाषा कविता को निरा गद्य नहीं बना देती. इनसे नये रसायन बनते हैं. जिसके अवयव पहचाने जा सकते हैं लेकिन वह कहानी, कविता होते हुए एक नयी संरचना भी है.
इसलिए रचना को समग्रता में देखना चाहिए. कविताओं, कहानियों में अब विभाजनकारी विधागत कठोर सांप्रदायिकता का न केवल निषेध है, बल्कि एक समावेशी दख़ल है. नवोन्मेषी उत्कर्ष है. जहाँ ये विधाएँ एक-दूसरे से पीठ टिकाये, एक-दूसरे के कंधों पर हाथ रखकर, कोहनी से कोहनी मिलाकर उपस्थित हैं. प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष ढंग से. वे एक-दूसरे को ताक़त देती हैं, उन्हें अधिक व्यंजक, अग्रगामी बनाती हैं. यह भाषा व्यवहार में अनवरत विकसित होती सृष्टि है. मैं इस राह का हामीदार हूँ. इस रास्ते में उगी झाड़ियों, खरपतवार के बीच इस पर चलने की कोशिश में अपनी पगडंडी बनाते हुए. हालाँकि साहित्य परिसर में सक्रिय पुनरुत्थानवादियों और सामंतवादियों की अपनी असहमतियाँ और मुश्किलें हैं. लेकिन वे प्रेरणाएँ भी तो हैं.
12.
एक कहानी है ‘स्फटिक’. छपी तो इसकी बहुत चर्चा रही. माना जाता है कि कलाएँ मनुष्य को उदात्त बनाती हैं, वह संवेदनशील बनता है और हिंसा आदि से दूर रहता है. इस कहानी का नायक, वैसे उसे नायक कहना भी अब तक के कथा नायकों का अपमान होगा, कलाओं का प्रेमी दिखने के साथ-साथ अधिकतम हिंसक है. यह ठंडी हिंसा जो अक्सर किसी शुद्धतावादी वैचारिकी के पीछे छिपी रहती है इधर उभार पर है. कथा में एक डौक्यूमैंट्री का ज़िक्र है जिस पर यह आधारित है. कौन था यह आदमी?
आप समाज में तथाकथित नायकों या आदर्शों (?) के साथ, खलनायकों, अपराधियों, क्रूर और नृशंस लोगों की उपस्थिति को नजरंदाज नहीं कर सकते. और ऐसे राजनीतिक शक्तिमानों को भी नहीं जो इनके प्रतिनिधि, संरक्षक या उपादान हैं. कलाएँ संवेदनशीलता प्रसारित करती हैं लेकिन वे ‘डाइअग्नोसिस’ करते हुए, शल्य क्रिया करते हुए यह काम करती हैं. उनकी प्रक्रिया में रोग-निदान अंतरंग है. व्यवस्थित हिंसा एक विचार है, जैसे नस्लवाद. जातिवाद. जातीय गौरव. श्रेष्ठिभाव. तानाशाही. इनकी हिंसा के अनंत मुखौटे हैं. कैमफ़्लाजिंग हैं. वह आधुनिकतम ढंग से अपना काम कर सकती है. उसके पास तकनीक और साधन कहीं अधिक हैं. ताक़त का अपना एक तर्क है, असीम ताक़त को किसी तर्क की ज़रूरत नहीं, जो मनुष्यों को वस्तुओं की तरह, उपयोगी-अनुपयोगी की तरह देखती है. वह तमाम तरह की हिंसाओं से लबालब है. इसके बरअक्स साहित्य की चुनौतियाँ अपरिमित हैं. उसे अपने आसपास हज़ार आँखों से देखना पड़ेगा. इस हेतु कई तरह के स्रोतों के पास जाना पड़ सकता है. विभिन्न कलारूपों के क़रीब जाएँगे तो प्रतिरोध का, निदान प्रक्रिया का एक सहयोगी समानांतर उपक्रम जारी देखा जा सकता है.
यह कहानी क़रीब साठ बरस पहले, सुहार्तो के इंडोनेशिया में हुए नरसंहार पर है. इस पर केंद्रित वृत्तचित्र ने मुझमें अनिद्रा और बेचैनी पैदा कर दी थी. लेकिन मैं इसे केवल एक देश से जोड़कर नहीं देख पा रहा था और न ही अपने वर्तमान से अलग करके. इसमें कई तरह के हिंसक पात्र हैं. वे हिंसा और हत्या का वर्णन इतने गौरवशाली ढंग से करते हैं कि दहशत होती है. और यह फंतासी में नहीं है, वास्तव में हुआ है. ये पात्र साधारणजन हैं. इन हादसों, नरसंहार के मुख्य पात्र की तरह के उत्तरदायी पात्र हर समाज में, हर देश में हैं. जो सत्ता के रथ में बैठे रहते हैं और अपने अनुयायियों को बैलों और अश्वों की जगह जोत देते हैं. नानाप्रकार की रथ-यात्राओं में. इस डौक्यूमैंट्री के पात्रों को आज भी अपने आसपास महसूस किया जा सकता है.
इधर सभ्यता का एक प्रलयंकारी विकास यह हुआ है कि उत्तरोत्तर मनुष्यों को मारने के आधुनिकतम तरीक़े खोजे गए हैं. कम से कम व्यय में, कम से कम संसाधन में अधिकतम मनुष्यों को मारने के तरीक़े. मारने के लिए ‘प्रति व्यक्ति न्यूनतम व्यय’ का अनुसंधान किया गया है. रिसर्च एंड डिवेलपमैंट. अभी भी किया जा रहा है. विज्ञान को इसी काम में लगा दिया गया है. या तो वह असीम लाभ कमाकर दे और कम से कम ख़र्च में अधिकतम प्रकृति को, अधिकतम मनुष्यों को नष्ट कर सकने की प्रविधियाँ ईजाद करें. इन तरीक़ों को अगर क्रमबद्ध दर्ज किया जाए तो एक लोमहर्षक इतिहास सामने आ सकता है. लेकिन आख़िरी शब्द लिखे जाने तक दो-चार और नयी विधियाँ विकसित हो चुकी होंगी.
‘काम लेकर मारो’, ‘काम कराकर मारो’ की सैद्धांतिकी भी व्यवहार में आ चुकी है. ठंडी नहीं सुनियोजित, तार्किक, स्वीकार्य हिंसा. बात सिर्फ़ घटनाओं की नहीं है, इस वृत्तचित्र के कलारूप में में उन्हें जिस तरह रखा है, उससे समाज और सत्ता में व्याप्त कर्क रोग को जैसे चिह्नित किया है, वह महत्त्वपूर्ण है. यह कला की भूमिका है और ताक़त है, वही हमें ऐसी स्थितियों के प्रति आगाह और संवेदित कर सकती है. और ये पुराण कथाएँ नहीं हैं, सब अभी की बातें हैं जो आज भी कहीं न कहीं जारी हैं. ध्यान से देखें तो हमारी नाक के ठीक नीचे भी. एक कला दूसरी कला को प्रेरित करती है.
13.
इस संग्रह की एक कहानी है ‘मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा’. इस पर टिप्पणी करते हुए वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने लिखा था कि यह ‘हमारे समय की सर्वाधिक विश्वसनीय कथा जो हमारा आत्मविश्वास हमें वापस देती है.’ आलोचक राकेश बिहारी के अनुसार यह ‘विश्वास की सुनियोजित हत्या और अविश्वास की ताजपोशी की विश्वसनीय कथा है.‘ कवि कृष्ण कल्पित ने माना कि ‘कविता अब कहानी है, कहानी अब निबंध है, निबंध अब रिपोर्ताज़ है. यह भविष्य का साहित्य है.’ ऐसा लगता है आपने हमारे समय के रूपक के रूप में इसे रच दिया है. जैसे ट्रैफ़िक समस्या का रूपक ‘घोंघों को तो कोई भी खा जाएगा’ में समा गया है. और वह हमारे समाज के नागरिक पराभव, सत्ता के जनविरोधी चरित्र को भी अपने घेरे में लेती है.
या शीर्षक कहानी ‘मज़ाक़’ को ही लें, कई बार यह विडम्बना का स्थानापन्न लगता है. इसमें हँसी-मज़ाक़ का हलकापन नहीं, विडम्बना और व्यंग्य की गहराई है. स्क्रित्सोफ्रेनिया से पीड़ित पिता अपनी कल्पना के अस्तित्व में रह रहे हैं, उन्हें एक काल्पनिक बंदूक़ के लाइसैंस का नवीनीकरण कराना है, वे कुछ हत्याएँ करना चाहते हैं और दो करोड़ रुपये रखे हुए किसी थैले की माँग करते हैं. उन्हें लगता है कि उनके इलाज का ख़र्चा ‘प्रधानमंत्री जी’ उठा रहे हैं जबकि ख़ुद उनकी पेंशन पर संकट है. जैसी कि आपकी शैली है, अंत तक पहुँचते-पहुँचते कई बार विस्फोट जैसा कुछ होता है- ‘आयुर्वेद कहता है यह तीन हज़ार साल पुराना रोग है. शायद यही सच हो. इतनी नाराज़गी, इतना संक्रमण, इस क़दर नाउम्मीदी और यह लाइलाज हालत किसी तीन हज़ार साल पुरानी बीमारी से ग्रस्त दुनिया का ही परिणाम हो सकती है.’ शायद इसीलिए इसे आपने कहानी-संग्रह का शीर्षक दिया होगा.
अरुण जी, बदलते हुए समाज और जीवन की, विपथगामी राजनीति की सूचनाएँ हमारी दिनचर्या की बेहद छोटी घटनाओं, दृश्यों, बातचीत, भंगिमाओं में, यहाँ तक कि हँसने-बोलने-चलने में भी उजागर ढंग से छिपी रहती हैं. सबसे ज़्यादा दमित इच्छाओं में. या महत्त्वाकांक्षाओं की प्राथमिकताओं में. एंटीनायुक्त लेखकों की तरह मैं इनका संज्ञान लेने की कोशिश करता हूँ. वातावरण में व्याप्त रेडियो फ्रीक्वेंसियों, बारीक़ संकेतों की आवृत्ति को ग्रहण करने की आदत डालना पड़ती है. लेखक को सड़क पर, गलियों में ड्रोन की तरह भी गुज़रना होता है. और एक अदृश्य दूरबीन और सूक्ष्मदर्शी उसके पास हमेशा रहता है. इनके ज़रिये देखी-समझी अत्यंत छोटी-मोटी घटनाओं की प्राथमिकी उसे अपने लिखने में दर्ज करना पड़ती है. यह उसका काम है.
कहानी में, कविता, निबंध, लेख में या इन सबके समवेत रजिस्टर में वे अपनी तरह से दर्ज की जाती हैं. ख़ुद के खो जाने की, अपने भरोसे के नष्ट होने की, ख़ुशी के अपहरण की, अपनी अबोधता पर हुए बलात् क्रिया की एफ आई आर भी इसमें शामिल है. अंतर की, घर की, बाहर की, देश-दुनिया की, हमारे सुख-चैन की, संतोष और आश्वस्ति सहित तमाम चीज़ों की चोरियों और एक असहाय आदमी के लुटने की, उसकी जेब कटने, ग़रीब के घर सेंधमारी की, वैधानिक धोखों की, दूसरों के जीवन की परवाह न करने की, किसी के दु:ख से निगाह फेर लेने या वर्षाकाल के आसमान में बहुत दिनों तक बादल न दिखने की, गरमी में हिमपात की, सड़कों पर फैले धुएँ, प्राणवायु की कमी की, एक सार्वजनिक दीवार से ईंटें ग़ायब होने, सरेआम थर्ड डिग्री की, गुलाब में गेंदे के फूल उगने की, सपनों में रेत झरने जैसी आदि-इत्यादि हज़ारों-लाखों तरह-तरह की विचित्र घटनाएँ रोज़ घटती हैं. भू-स्खलन से पहले छोटे-छोटे पत्थर लुढ़कना शुरू होते हैं.
ये मामूली संकेत, सब छोटी-मोटी, उपेक्षणीय लगने वाली वारदातें आने वाले भीषण संकटों की सूचनाएँ भी हैं. सक्रिय, संवेदित लेखक, कलाकार कंदराओं में समाधिस्थ लोग नहीं हैं, वे इस जीवन में अपनी तरह के सिपाही हैं, वादी हैं, साक्षी हैं. जिनके शब्द एक लोक-अदालत में रहेंगे. फिर हम देखते हैं ये प्राथमिकियाँ, यह उमस, यह असमय का शीत, ये अचरजकारी अनुभव, तमाम बड़ी भौतिक घटनाओं से पुष्ट होते चले जाते हैं. इसलिए ये बयान अपने युग की रचनाएँ, कहानियाँ और कृतियाँ बन जाते हैं. जैसे लू शुन के विक्षिप्त पात्र की डायरी की तरह. शायद सबसे अधिक चेखव की कहानियों की तरह.
एक पीछे लगा हुआ विचार जो घेर लेता है, उसकी भी एक कहानी होती है. और वे ख़याल जो आशाओं, आशंकाओं, विडंबनाओं और परंपरा की विकृतियों से निकलकर आते हैं. और हमारे साथ किए जा रहे विषादपूर्ण मज़ाक़. इस समय के लिए, इन कहानियों के लिए इससे बेहतर शीर्षक भला और क्या हो सकता है. लेखक चारों तरफ़ के जीवन में यह सब देखता है और उसके अनुभव ठोस आकृतियों या परछाइयों में, भाषिक संरचनाओं में, कुछ कहने की कोशिश में बदलते चले जाते हैं. रचना का कथ्य, उसकी गति किसी स्थिर परिभाषा में सीमित नहीं की जा सकती. कलाकृतियाँ अपने वे फ्रेम तोड़ देती हैं, जिनमें उन्हें जड़ा गया था. हर समय में सजग पाठक, लेखक और साहित्यिक इन्हें पहचानते आए हैं. अपने को नत्थी करते हुए. उनमें से जिन कुछ नामों का आपने यहाँ ज़िक्र किया. उनके प्रति आभार, यह मेरे लिए ताक़त और आश्वस्ति की बात है.
14.
कुछ दशक पहले तक शिल्प सजगता को कलावाद कहा जाता था और कलावादी होना समाज निरपेक्ष और यथास्थितिवादी जैसा कुछ होना होता था. आपकी कविताएँ या कहानियाँ भी शिल्प सजग हैं. इस संबंध में कुछ बताएँ.
महज़ शिल्प सजगता कलावाद नहीं है. कलावाद संबंधी विमर्श पर्याप्त उपलब्ध है. कुछ बातें स्पष्ट हैं. जिनमें ‘कला कला के लिए’ (Art for the art’s sake) वाक्य मशहूर है, सटीक है. शिल्प की नवीनता, भाषा का नवाचार, कहन के प्रयोगशील तरीक़े, अभिव्यक्ति में अलंकार इत्यादि साहित्य सौंदर्य शास्त्र के अनिवार्य हिस्से हैं. विचारणीय यह होगा कि शिल्प सजगता से, भाषा की भंगिमाओं से, इस कुल संयोजन से काम क्या लिया जा रहा है. साहित्य अंततः एक कलारूप है. अस्तु कला तो चाहिए लेकिन कलावाद नहीं. कलावाद भाषा में भाषा के खेल से, शिल्पवादी या रूपवादी होने की आत्म-मुग्धता के साथ समाज के प्रति निरपेक्षता, अपने समय के प्रति उदासीनता और यथार्थ को वायवीय, आध्यात्मिक ढंग से देखने की आकांक्षा से प्रेरित है.
मूल फ़र्क़ समाज से उसके ‘कंसर्न’ का है. कलावाद लौकिक को भी अलौकिक बनाने की कोशिश करता है. जबकि यथार्थवादी-समाजोन्मुख दृष्टि अलौकिकता को भी लौकिकता में समझने की कोशिश करती है. यह दृष्टि केवल व्योमचारी नहीं, उसका धरती और जन-जीवन से अटूट संबंध रहता है. उसकी पतंगें कोई ईश्वर नहीं उड़ाता. वह व्यक्तिगत और समाज के सुख-दु:ख को कार्य-कारण से, सामूहिकता में देखती है. वह कभी विस्मृत नहीं होने देती कि कला साधन है, साध्य नहीं.
अरुण जी, आपके सवालों से ज़ाहिर है कि आपने कहानियों का संलग्न, आकुल और उत्सुक पाठ संभव किया है. यह मेरे लिए बहुत प्रसन्तादायक खुलासा है. हार्दिक धन्यवाद.
अम्बुज जी, अपना मूल्यवान समय देने के लिए शुक्रिया.
कुमार अम्बुज का यह नवीनतम कहानी संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
कुमार अम्बुज
छह कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह, तीन गद्य पुस्तकें आदि प्रकाशित मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, श्रीकान्त वर्मा पुरस्कार, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, केदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि से सम्मानित |
अरुण देव तीन कविता संग्रह और दो संपादित पुस्तकें प्रकाशित एक दशक से समालोचन का संपादन devarun72@gmail.com |
बहुत ही समसामयिक और अर्थपूर्ण संवाद।रचनात्मकता के विविध आयाम, इस संवाद में देखे जा सकते हैं। विधाओं के अंतर्संबंध और उनके वैशिष्ट्य पर यह संवाद स्मरणीय जो चला है। कुमार अंबुज के लेखन की यह विशिष्टता है कि वे समकालीनता की रचनात्मक खोज को अपने लेखन का विषय बनाते हैं। यह खोज यथास्थिति के बरक्स संघर्ष भी है, और अति प्रोयोगधर्मिता के चालू और फैशनेबुल जुमलो से मुक्त भी। इस संवाद में भी उनकी चिंताएं स्पष्ट हैं। बातचीत पुस्तक के प्रति जिज्ञासा बढ़ाती है।
अरुण देव जी और समालोचन के प्रति साधुवाद।
अंबुज जी की कहानियों के बहाने आज की संकटग्रस्त सभ्यता और समय पर बहुत अंतर्दृष्टि पूर्ण चर्चा की गई है। आज की उभरती नई सभ्यता बनाम नयी-नयी बर्बरताओं का ज़खीरा बातचीत में उभरता है। आज शब्दों के अर्थ किस तरह बेमानी किए जा रहे हैं। शक्ति का इतना क्रूर नाच हो रहा है कि कमजोर आदमी कदम कदम कर अपमानित होने के लिए अभिशप्त है। यह बातचीत अंबुज जी की कहानियों को पढ़ने और आज के समय के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती है। आभार समालोचन – – हरिमोहन शर्मा
सार्थक संवाद बहुत सारे जरूरी सवालों पर जिनके सरोकार
मानवीय हैं।विधाएँ संप्रेषण के साधन हैं इसलिए इनके बीच
आवाजाही होनी ही चाहिए। इन दिनों कथात्मक कविताओ
का आना समकालीन साहित्य में अकारण नहीं है।अरूण जी
एवं अम्बुज जी को साधुवाद!
बहुत बढ़िया प्रश्न पूछे आपने ख़ासकर मुझे जिनके प्रति उत्सुकता थी वो कथा और कविता के मध्य अंतर को परिभाषित करने की दिशा में जो पूछे गए।
एक प्रश्न श्री कुमार अंबुज सर से पूछना चाहूँगा यदि वो इसका उत्तर दे सकें।
किस कविता को बेहतर कहा जाए ,जो सत्य या वास्तविकता को नग्न रूप में प्रस्तुत करती हो या वो जो जटिल बिंबों से गढ़ी बहुत कुछ स्पष्ट न कहते हुए कहती हो?
कविता सरल ,सपाट और सादा हो या कठिन तत्सम शब्दों से भिन्न रूपकों या पुराकथाओं के प्रतीक चिह्नों से गुम्फित होते हुए आगे बढ़ती हो? जो जन जन के समझ आए वो या जो मात्र साहित्यकारों या उसी क्षेत्र के मर्मज्ञों द्वारा ही समझी और सराही जा सके? यदि उत्तर दे सकें तो बहुत आभारी रहूँगा
सारगर्भित और सुचिंतित बातचीत।
अपने समय को परखने की गहरी नज़र देता यह साक्षात्कार बहुत कुछ सीखने, समझने को उत्प्रेरित करता है। बड़ी ही संवेदना और समझबूझ से पूछे गए सवालों के बेहद सजग और संश्लिष्ट उत्तर पाठक को समृद्ध करते हैं। आप दोनों को हार्दिक धन्यवाद।
कहीं इंगित नहीं पर गद्य की तरतीब सबकी एक जैसी नहीं होती । मोहक और चासनी से सना गद्य भी आपको देखने मिलेगा , व्यंग्यो से भरा भी और अपठनीय भी । यह मेरी व्यक्तिगत रुचि हो सकती है कि मैं किसे पसंद करता हूं ! मैं अनेक उदाहरण दे सकता हूं कि जिनका गद्य मुझे पसंद नहीं वे अतिप्रिय गद्यकार हैं , बेहद लोकप्रिय हैं , उनकी किताबों की बड़ी सेल होती है ।
बेहतरीन बातचीत। न केवल कहानियों को बल्कि अन्य सभी साहित्य रूपों के पढ़ने और सृजन हेतु एक नई दृष्टि, नई समझ देती हुई। कुमार अंबुज जी को सार्थक बातचीत के लिए और अरुण देव जी को इसे हम तक पहुंचाने के लिए हार्दिक आभार ।
एक बहुत परिपक्व वार्ता जो अब हिंदी में अक्सर नहीं देखने में आती। अंबुज भाई और आपका आभार।
अनेक परतों वाली अर्थपूर्ण वार्ता!
साहित्य की दो प्रमुख विधा — कहानी और कविता तथा उनमें रचनाकार की आवाजाही को लेकर बहुत ही ज़रूरी जैसी एवं आधारभूत बातचीत.
ललित कार्तिकेय ने एक साक्षात्कार में जब मंगलेश डबराल से पूछा कि आपने तो गद्य भी लिखा है और कहानियां भी तो फिर कहानी लिखना क्यों छोड़ दिया तो मंगलेश जी ने मार्केस के ‘ वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सोलीट्यूड ‘ और रघुवीर सहाय की ‘ विजेता ‘ कहानी का उदाहरण देते हुए एक पते की बात बताई, कुछ अहम स्थापना जैसी भी दी कि गद्य के लिए आपको फुल टाइमर होना चाहिए. उसके लिए जीवन के महासागर में बड़े धैर्य के साथ ख़ुद को छोड़ देना पड़ता है. .…
कुमार अंबुज जब इधर की कहानियों में जीवनसिक्त वाक्यों, आवश्यक उत्साह और प्रकाशित हवा के लोप के चलते एक शिकायत के तौर पर कहानी रचने लगे तो वह निरा प्रतिवाद, प्रस्ताव या किसी नाकाम कोशिश का रिजल्ट भर नहीं है अपितु जीवन के व्यापक फलक में अपनी रचनात्मकता को और भी विस्तृत करना है.
मुझे अपेक्षा थी कि किसी रोज़ अरुण देव जी कुमार अंबुज जी के नये कहानी संग्रह मज़ाक़ पर बातचीत करेंगे । वार्तालाप को पढ़ने की एकाग्रता चाहिये ।
भारतीय समाज में ही नहीं विश्व समाज में व्यक्ति के, प्रकृति के और संसाधनों पर संकट गहरा रहा है । जीभी जैसी साधारण वस्तु बाज़ार से ग़ायब है । स्टील की परंपरागत जीभी नहीं मिल रही । जीभी बिंब मात्र है लेकिन वस्तुओं का न मिलना बेचैनी पैदा करता है । मैं ख़ुद जीभी का इस्तेमाल करता हूँ । पहले स्टील की परंतु अब प्लास्टिक की एक हाथ से पकड़कर जीभ को साफ़ करता हूँ ।
भूमिका में लिखी गयी कहानी में सम्मोहन है । पुलिया पर बैठने का, पार्क के बैंच पर बैठने का आतंक याद है । सब कुछ याद नहीं लेकिन बातचीत सार्थक है ।
अरुण जी की कुमार अम्बुज से यह बातचीत बेहद मानीखेज है।आप दोनों को शुभकामनाएं। समालोचन साहित्यिक पत्रकारिता का गंभीर और मूल्यवान मंच है।
यह बातचीत कवि अरुण देव और कुमार अम्बुज के भीतर एक विचारक-आलोचक की मौजूदगी का भी साक्ष्य है.
कहानियों पर बात करते हुए उठाए गए सुचिंतित सवाल और उनके तर्कसम्मत जवाब से गुजरते हुए कविता और कहानी ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण रचनात्मक साहित्य को समझने के लिए एक नई दृष्टि मिलती है.
यह बातचीत आलोचना के जीवंत गद्य का उदाहरण है.
सृजन और समीक्षा में बड़बोलेपन के हमारे इस समय में यह बातचीत हिंदी पाठकों में थोड़ा ठहरकर मुद्दों को धीरज के साथ समझने की सलाहियत पैदा कर सकने में समर्थ है. अरुण जी और अम्बुज जी को साधुवाद.
Excellent interview.Incisive questions.Detailed answers full of insights on the craft of storywriting.The opening sentence of a story does set the tone for what is to follow.And then,if that sentence is perfect, what follows ,follows naturally,almost inevitably. Kumar ji says that he waits for the right sentence to come to him.In the process he must have been blessed with the moments which can be described as ‘ serendipitous.’ Marathi poetess (I am not sure whether the word ‘ poetess’ has already gone out of currency like the word ‘ actress’) Shirish Pai writes –
You must have owed some debt to me
For you send these words.
(My loose translation ).
Arun ji,too, deserves accolades for making this beautiful interview possible.
कुमार अम्बुज से आपका संवाद पढ़ कर, देर तक ख़ामोशी तारी रही.वैचारिक उत्तेजना के तवील वक़्फ़ए के बाद मीर के दो अश् आर कौंध गए:
रहे फिरते दरिया में गिर्दाब से
वतन में भी हैं हम, सफर में भी है…
हम इस राह- ए – हवादिस में, बसान्- ए – सबज़ा वाकेअ हैं
कि फुर्सत सर उठाने की नहीं टुक, पायमाली से
बहुत बढ़िया है। अम्बुज जी विद्वान् और मौलिक हैं। आपके प्रश्न लिखित रहे हों तो भी धारदार हैं। लिखित न रहे हों तो क्या कहने!
आपकी बातचीत पढ़कर नई भाषा पद्धति और नये विचार -गुल्म से गुजरने जैसा है। पिछले कुछ वर्षों से यह सुनता चला आ रहा था कि कवि ही अच्छी कहानी लिख सकता है। प्रेमचंद कवि नहीं थे। मगर उन्हें सबसे ज्यादा पसंद किया गया। लेकिन यह भी सच है कि अज्ञेय, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, विनोद कुमार शुक्ल, वर्मा, धर्मवीर भारती, राजेश जोशी आदि कवि ही हैं, जिनकी कहानियां पढ़कर हम समृद्ध होते हैं। कुमार अम्बुज प्रतिबद्ध कविता के विशिष्ट और प्रगतिशील कविता के पसंदीदा कवि हैं। उनकी कहानियां पहली में छपी हैं शायद। लोगों की पसंदगी की उन पर मुहर लगी और चर्चित हुई। कुमार अम्बुज के साथ कवि और समालोचन के संपादक अरुण देव की यह बातचीत बहुत महत्वपूर्ण है। इसे बार-बार पढ़ा जाना चाहिए। यह किसी पत्रिका में भी छपे तो और भी अच्छा। बधाई और शुभकामनाएं।
बेहतरीन बातचीत. यह बातचीत भी अपने आप में वैचारिकता और तार्किकता से युक्त संवाद की मिसाल है. दोनों का आभार.
अक्सर साक्षात्कार में होता है कि पाठक का सारा ध्यान जवाब ऊपर होता है लेकिन इसे पढ़ते हुए जवाब से भी अधिक मैंने प्रश्नों को बार-बार पढ़ा। और यह भी सच है कि सवालों के ऊपर ही जबावों का वितान खुलना निर्भर करता हैं कि वे कितने विश्वसनीय हो सकते हैं। अंबुज जी हमारे प्रिय कवि हैं और कथाकार भी है। संग्रह का स्वागत है। यह बातचीत उस संग्रह के पूरी कथ्य, बुनावट और मंशा को खोल देने वाली है।
अरुण देव के साथ हुई बातचीत बेहतरीन है. इतने विविध मुद्दों पर इतनी विचारोत्तेजक टिप्पणियाँ हैं कि पढकर दंग रहा गया. बहुत खूब!
– जय प्रकाश सावंत,
प्रसिद्ध मराठी लेखक।