हिरणी का विनय पत्र !
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(एक)
राम अभी बालक हैं
कई ऋतुएं देख चुके हैं केश उनके
खिलौनों से खेलने वाली वय में आ गए हैं!
बोलते नहीं शब्द, मात्र मुस्काते हैं
संकेत से प्रकट करते हैं अपना सुख दुःख
संकेत से आनंद व्यथा बताते हैं!
ठुमक ठुमक कर चलते हैं
अपने पिता अवध के महाराज दशरथ के आंगन में
बजती हैं पैरों में पैंजनिया!
दशरथ ने राम को एक ढपली दी है
हिरण के चमड़े से मढ़ी
चंदन के काठ की बनी
सोने की छोटी छोटी घंटियां लगी हैं उसमें!
राम वह ढपली बजाते हुए खेल रहे हैं!
वह ढपली राम का प्रिय खिलौना है!
ढपली के स्वर से गूंज रहा है राज भवन!
ढपली के डिम डिम से भरता जाता है
सरयू का तट
राज कुंज अशोक वनिका!
राम के सांवले हाथों की छोटी अंगुलियों
और लघु करतल की थपकी से
बजती ढपली की आवाज़
जाती है गूंजती हुई समीप के वन तक भी!
(दो)
वन जहां से मार कर उस हिरण को
लाए थे दशरथ
जिसका चमड़ा सिझा कर
मढ़ा गया ढपली पर
राज कुंवर राम के लिए!
उस वन में अभी भी रहती है
मारे गए हिरण की हिरणी
और उसके छोटे छोटे छौने!
वे सभी सुनते हैं
हिरण के चमड़े से बनी ढपली की आवाज़
जब राम बजाते हैं राज भवन में!
आवाज़ वैसी
जैसे वह मृग स्वयं बोलता हो अपने मृत चमड़े में.
बजा रहे हैं बाल राम
राज भवन में जहां तहां खेलते हुए!
चमड़े की जो ध्वनि मन बहलाती है
राम और महारानी माताओं का
महाराज दशरथ का
राज कुमारों का
मंत्रियों सेनापतियों
धनुर्धारी अहेरियों का
वही आवाज़ मथ जाती है मन
विवश हिरणी का
उसके छोटे अबोध छौनों का!
जो दशा एक का मन बहलाती है
वही स्थिति दूसरे के मन में हाहाकार मचाती है!
सोचती है हिरणी!
(तीन)
मारे जाने से लेकर चमड़ा उतारे जाने और ढपली
में बांधने और बजाने तक
कुछ का मन हुलास से भरा हुआ है
कुछ का मन यातना से मरा हुआ है!
व्यथित मन से हिरणी ने सुना अपने पति
साथी हिरण के चमड़े का बजना
उस बजने में सुनाई दिया मृत मृग का रोना!
उसके चमड़े का व्यथित होना!
बाण लगने पर चीखना भागना गिरना फिर मरना
जीवित मृग से मांस और चर्म होना!
राज कुल के मनोरंजन ने उस मोहक मृग को
मांस और चमड़े में परिवर्तित कर दिया.
वह एक बहुत उदास संझा थी
हिरण और हिरणी के लिए
वही संझा कौसल्या और दशरथ के लिए
चर्म उतारने वालों के लिए
ढपली बनाने वालों के लिए
अबोध बालक राम के लिए एक सुंदर संध्या थी
उपलब्धियों भरी!
कुछ राज सेवकों ने तो कहा भी
हिरण ने कार्य सिद्ध कर दिया राजकुमार का
और राम के काज आकर उन सेवकों का जीवन भी सुफल हुआ
हिरण जैसे ही!
अब राम वही ढपली बजा रहे हैं!
(चार)
उस शिकार कर लिए गए
हिरण के छोटे छौने इतने छोटे हैं
हिंसा नहीं समझते!
आखेट नहीं जानते
मृगया के लिए सम्राटों का प्रस्थान नहीं समझते
किंतु हिरणी समझती है बाण लगने का दुःख
वह जानती है सहचर के मारे जाने का दुःख
वह समझती है मृगया का मर्म!
वह अरज करने आती है रानी कौसल्या के पास!
हिरणी राजा नहीं रानी के पास आती है
यह सोच कर स्त्री समझेगी स्त्री का दुःख.
वह हिरणी चाहती है
उसके हिरण का चमड़ा बजाया न जाए
उसे लौटा दिया जाए उसको और
उसके छौनों को.
सुनती हुई साथी के मृत चमड़े को ध्वनि
हिरणी ने किया निवेदन रानी से
“राज कुमार की ढपली का चमड़ा खोल लिया जाए
ढपली रहे न रहे उसके हिरण का चमड़ा लौटा दिया जाए
हत्या के बाद भी उसके मीत की छाल को
क्यों पीटा जाए?”
हिरणी बोलती रही उदास रानी कौसल्या से
“कुंवर राम को खेलने के लिए कुछ और दिया जाए
मेरे हिरण का चमड़ा खिलौना नहीं बना रह सकता
उसे मारा राजा ने
हमारे वन में घुस कर
जब वह अपने छौनों के साथ खेल रहा था!”
“वह वन हिरण का है
वे जीते थे अपना जीवन
अपने बच्चे अपना सुख क्षण
अपनी भूख क्षुधा पल्लव तृण
सब छीना राजा दशरथ ने बाण मार!”
(पांच)
महारानी कौसल्या ने हिरण के
मारे जाने की कथा सुनी हिरणी से
देखा हिरणी का द्रवित मुख
आंखें नम
नम्र भाव
शब्द कंपित
किंतु इस व्यथा में कुछ नया नहीं था रानी के लिए
यह घटना वह कथा रूप में जान चुकी थी
अपने महाराज दशरथ से!
जब रथ में लाद कर लाया गया था हिरण
राम के ढपली निर्माण के लिए!
चमड़ा उतार कर
मांस रांधा गया
उत्तम मसाले के साथ
गाय के घृत में पकाया गया उसे
राज रसोई में!
कौसल्या को स्मरण हो आया
उस हिरण के बड़े सींगों का
जो सजाए जाने के लिए रखे हैं राजभवन में!
अपनी बात कह कर हिरणी खड़ी रही
रानी कौसल्या के सम्मुख
उसने देखा
उसके सामने ही कंचन खम्भ से लग कर खड़े
बजाते थे ढपली डिम डिम
लघु करतल से
पांवों में सोने की पैंजनिया पहने
सांवले से राम!
(छह)
रानी कौसल्या ने भी देखा अपने राज कुंवर को
अपने कोख जाए छौने को
डिम डिम बजाते ढपली.
देखने में भेद इतना अधिक था
महारानी और हिरणी की दृष्टि में
कौसल्या को
हिरणी के हिरण का चमड़ा नहीं दिखा
दिखा तो अपना अनोखा राजकुमार
कंचन खम्भ से उठंगा
छोटी अंगुलियों और लघु करतल से
ढपली बजाता!
हिरणी सुनती थी
सुनने से अधिक देखती थी
अपने हिरण का चमड़ा बज रहा है.
दुःख की लय गति ताल सुनी हिरणी ने
राज भवन के बाहर खड़ी रही आहत मन
अपने प्रिय हिरण का मृत चमड़ा वापस पाने के लिए
किंतु महारानी कौसल्या उसकी
सारी व्यथा सुनकर चली गईं
अपने खेलते राज कुंवर की ओर
ममता से भारी था उनका हृदय
द्रवित था पोर पोर!
(सात)
छोटे से राम के हाथों में सुवर्ण घंटियों से रुनक झुनक
की मिश्रित ध्वनि में डिम डिम करती
छोटी थापें लिए बजती थी ढपली!
जैसे राम की अप्रकट वाणी
जैसे शब्द सीखने की अकुलाहट
वह डिम डिम वैसा ही कुछ!
अपने सुख में महारानी भूल गईं हिरणी का संताप
क्या यही न्याय था रानी कौसल्या का
एक निबल फरियादी के लिए?
याचक अक्सर अपना पक्ष
नहीं रख पाता
उसके विनय को अस्वीकार करना सहज भी होता है
सत्ता के लिए.
जिनके पास शस्त्र नहीं
उनके शोकाकुल विलाप सुने नहीं जाते
ऐसा ही चल रहा है न जाने कब से!
हुआ कुछ ऐसा
कौसल्या भूल गईं हिरणी क्यों आई थी
उनसे क्या दुखड़ा रोने?
उसके सारे रुदन को विस्मृत कर
वे अपने राम के रूप में अरुझ गईं!
(आठ)
बाल राम खोए थे अपने उस नए खिलौने में
जो उनके छूने से हल्की तुतलाहट सा ध्वनि करता था!
उस वादन में रुद्र के डमरू का भयोत्पादक नाद नहीं
एक स्नेह की पुकार उपजती जाती थी!
इस स्नेह सुख ध्वनि में
मुख्य भूमिका है हिरणी के हिरण की छाल की
कौसल्या को स्मरण रहा इतना भर.
हिरणी के प्रति भाव से भर गईं महारानी
उसी क्षण उन्होंने सेविका से कहा बुलवाओ
राजकीय सुवर्णकार को
इस व्यथित हिरणी के खुरों को सोने से मढ़ाऊंगी
इसे यही रखूंगी पोस कर
राज भवन की शोभा बढ़ाऊंगी
इस हिरणी से राज उपवन सजाऊंगी
इसके हिरण का चमड़ा मन बहलाता है राम का
यह जीवित मन बहलाएगी मेरे कुंवर का!
दौड़ते आएं सुवर्णकार
सज्जित करें इस हिरणी को
राज भवन की शोभा योग्य!
इसके खुरों में वन की मलिनता हो जो छुपी
उसे धो पोंछ कर
बनाएं सुघड़ सुंदर
राज सुवर्णकार!
उसी क्षण आए धाये सब गुणवंत
छाल उतारने वाले भी
खुर सज्जित करने वाले भी
सींग सुघर करने वाले भी!
हिरणी आस लिए उपस्थित है अभी भी
राज भवन आंगन में!
(नौ)
वहां आए तभी अवध के महाराज दशरथ
उन्होंने खेलते राम लल्ला को देखा
राम की क्रीड़ा रत सुघर छवि देखते खड़े रहे वे
जैसे सुवर्ण स्तंभ स्वयं हो राजा!
सोने के तार खचित वस्त्र
सोने के वलयों से सज्जित मुकुट
उपानह सुवर्ण मंडित
कटि मेखला सुवर्ण की!
महाराज को
अपने शब्द वेधी बाण संधान पर गर्व हुआ
फिर पुत्र राम से लेकर बजाने लगे ढपली स्वयं
ताल बेताल की चिंता किए बिना!
अबकी वाद्य हुआ कठोर
नाद रुद्र के डमरू सा
भयोत्पादक!
सुन कर भिन्न भाव ढपली का
जुट गया दरबार वहीं जहां थे राजा राज कुंवर
पुरोहित मंत्री सेनाधिप
सैनिक अहेर सहायक
सिद्ध आखेटक
चर्मकार और बढ़ई
ढपली बनाने वाले गुणवंत सब
संगीतज्ञ रसिक जन जुटे तत्काल!
रानियां अन्य
कैकेई सुमित्रा मंथरा वशिष्ठ जाबाली सुमंत्र
सभी दरबारी चाटुकार सब जुटे अदेर!
(दस)
सभी भाव विमुग्ध देखते क्रम से
राजा और कुंवर को
राजा लखते ज्येष्ठ कुंवर को
रानी कौसल्या खोई सी देख रहीं थी निज विभव
और
सौभाग्य को!
सब अहो ओह करते कहते:
“खिल खिल है यह क्षण
मोहक और मनोहर है कण कण”
एक मात्र हिरणी थी दुःख में खोई
न्याय आस में निरखती थी रानी मुख.
किंतु अपने सुख में खोई रानी ने
दुहरायी अपनी इच्छा
उस हिरणी के चारों खुरों को सोने से मढवाने की
जिसके हिरण के चमड़े से बनी ढपली को बजा बजा कर हर्षित थे राज कुंवर राम!
हिरणी ने रानी का संकल्प सुना
राज भवन से निकलने का विकल्प चुना
वह भागी वन की ओर
जहां उसके छौने उसे खोजते बिलप रहे थे
उपवन उपवन!
रही खोजती अपने छौने वह हिरणी जो न्याय की अभिलाषा लेकर गई थी राज भवन
महारानी कौसल्या के पास!
वह गई अगले से अगले वन
दूर का वन और दूर का महावन
न मिले छौने कहीं किसी वन में!
नहीं मिली अपने छौनों की परछाईं भी
संध्या से रजनी रजनी से उषा
प्रभात तक दौड़ी वह मारी मारी दुखियारी.
अपने मृत हिरण की स्मृति सी वह
बजती दुःख सी स्वयं.
(ग्यारह)
हिरणी का संताप भूल
लगे हैं सब रामलीला में
राम जो अभी बालक हैं
नन्हीं अंगुलियाँ लघु करतल वाले राम
बजाते हैं ढपली
वह आवाज़ सुन कर सहम जाती है वन की हिरणी
उसके हिरण का चमड़ा बजा कर खुश होते हैं राज कुंवर!
दंडक वन तक सुनाई पड़ती है
ढपली की आवाज़ महाविलाप सी
एक विपन्न के रोदन सी!
जहां नहीं पहुंचती सत्ता की धमक थाप
वहां भी पहुंचती है शासकीय शस्त्रों की तीक्ष्ण घाप
शायकों की अदृश्य तेज नोक वेधती रहती है.
रक्त बहता न दिखे
घाव वृहत्तर होता न दिखे
पीड़ा का आभास न हो
किंतु मरण दुःख मिटता नहीं
लुप्त रह कर संघात करता मिटाता है वह
सत्ता से आशा रखने वाले निहत्थों को!
(बारह)
महारानी कौसल्या की मनोकामना सुन कर विकल हुए वृद्ध महाराज
उस निर्मल आकांक्षा को पूर्ण करने के लिए
दशरथ ने राज आज्ञा दे दी!
आखेटक खोजने दौड़ पड़े हिरणी को
घेरा डाला जाने लगा वन के सीमांत पर
पकड़ना है उस हिरण की हिरणी को
जिसकी छाल ने मढ़ी है कुंवर रघुनंदन राम की ढपली!
सोने से मंडित किया जाना है हिरणी के खुरों को!
उनकी महानता को सहन नहीं हुई मृदुता हिरणी की
वह आई थी राम को देखने
उनका संसर्ग पाने
अपना जीवन सुफल बनाने
तो उसे राज्य आश्रय मिलना ही चाहिए!
महारानी का मन कितना उदार है
बतियाते हैं सेवक शिकारी आखेटक
किसी का ऋण नहीं रखती स्वयं पर
महारानी कौसल्या कभी भी
फिर निबल हिरणी का ऋण कैसे रखें!
हाहाकार है राज भवन से निकट वन तक
निकट वन से महावन तक
खोजो हिरणी को
पाओ हिरणी को
लाओ हिरणी को!
इसी क्रम में पकड़े गए अनेक मृग
अनेक अन्य हिरणी हिरण
छौने कई कई!
सबको रानी के समक्ष प्रस्तुत किया गया
रानी ने सबकी आखों में झांक झांक कर देखा
मारे गए हिरण की
हिरणी वाली उदास नम्रता नहीं दिखी किसी भी
अन्य मृग की आंखों में!
(तेरह)
हिरणी की खोज में विकल हैं राजकीय सेवक
चाकर नौकर आखेटक
रानी की इच्छा होती है राजा की इच्छा.
हिरणी भागी भागी फिरती है
वह नहीं चाहती मढ़वाना अपने प्रिय हिरण के हत्यारों द्वारा अपने खुर
वह राज्य संरक्षण में बंध कर रहना नहीं चाहती
नहीं चाहती अपने खुरों से वन की मिट्टी का धोया जाना
नहीं चाहती अपना श्रृंगार.
वह यह भी नहीं चाहती बजे चमड़ा
उसके मृत हिरण का
हत्यारों के राज भवन में
हत्यारों के मनोरंजन में!
वह नहीं चाहती किंतु उसके साधन हीन जीवन में
चाहने के अतिरिक्त और कोई शक्ति नहीं!
राज्य की शक्ति में डूबा कौन देखता सुनता है निरीह की व्यथा!
हिरणी नहीं चाहती खोएं उसके छौने
छिने उसके छौनों से उनका वन
हिरणी नहीं चाहती उनके छौनों का चमड़ा छीला और उतारा जाए
मढ़ा जाए किसी की ढपली में!
सींगों को राज कक्ष में सजाया जाए.
(चौदह)
सहृदय आकांक्षा से उत्पीड़न कहां रुका है
त्रेता युग बीते बरस अनेक हुए गत
विनय निवेदन से कब सत्ता का मद चुका है
कब राज भवन झुका है!
हिरणी अपने हिरण और छौनों को रोती एक वन वन भाग रही है
वह त्रेता से अब तक अपने प्रिय हिरण का चमड़ा मांग रही है!
और रानी की आकांक्षा पूरी करने के लिए
सिद्ध आखेटक
खुर सज्जा में निपुण सुवर्णकार
खोजते दौड़ रहे हैं
इच्छित हिरणी को
निकट वन से दूर वन
दंडक वन से
महावन तक!
त्रेता युग हुआ कब का गत
हिरणी भाग रही है
मृत हिरण की स्मृति सी आहत!
“छापक पेड़ छिउलिया त पतबन गहबर हो” छापक पेड़ छिउलिया त पतवन गहबर हो मचिया पे बइठी कोसिल्ला रानी, हरिनी अरज करे हो |
वन में हरे भरे पत्तों वाला वह पेड़ छिउल का मचिया के ऊपर बैठी हैं कोसिल्या रानी कोसिल्या कहती हैं “हिरनी, अपने वन जाओ, जब खंझड़ी बजती है, हिरनी चुपचाप सुनती है भाव अनुवाद: बोधिसत्व |
बोधिसत्व 11 दिसम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के सुरियावाँ थाने के एक गाँव भिखारी रामपुर में जन्म. प्रकाशन- सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात(2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं. लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) तारसप्तक कवियों के काव्य सिद्धांत ( शोध प्रबंध) ( 2016) महाभारत यथार्थ कथा नाम से महाभारत के आख्यानों का अध्ययन (2023) संपादन- गुरवै नम: (2002), भारत में अपहरण का इतिहास (2005) रचना समय के शमशेर जन्म शती विशेषांक का संपादन(2010). प्रकाशनाधीन- कविता का सत्संग (लेख,समीक्षा और व्याख्या) अब जान गया हूँ तो ( पांचवाँ कविता संग्रह), महाभारत के अर्धसत्य ( महाभारत का अगला अध्ययन) गोरखनाथ की सौ “सबदी” का काव्य अनुवाद “गोरख बोध” नाम से. अन्य लेखन- शिखर (2005), धर्म( 2006) जैसी फिल्मों और दर्जनों टीवी धारावाहिकों का लेखन. जिनमें आम्रपाली (2001), 1857 क्रांति(2002), महारथी कर्ण (2003), रेत ( 2005) कहानी हमारे महाभारत की (2008), देवों के देव महादेव (2011-14), जोधा अकबर ( 2013-15) चंद्र नंदिनी ( 2017) जैसे बड़े धारावाहिकों के शोध कर्ता और सलाहकार रहे. इन दिनों रामायण पर बन रही एक बड़ी फिल्म के मुख्य रचनात्मक सलाहकार और शोधकर्ता हैं. साथ ही अनेक ओटीटी प्लेट फॉर्म के पौराणिक धारावाहिकों के मुख्य शोधकर्ता और सलाहकार हैं. हाल ही में स्टार प्लस चैनल पर एक धारावाहिक “विद्रोही” का निर्माण किया. सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान(1999), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान (2001), संस्कृति सम्मान (2001), हेमंत स्मृति सम्मान (2002), फिराक गोरखपुरी सम्मान (2013) और शमशेर सम्मान (2014) प्राप्त है जिसे वापस कर दिया. अन्य- कुछ कविताएँ देशी विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं. कुछ कविताएँ मास्को विश्वविद्यालय के स्नातक के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती है. दो कविताएँ गोवा विश्व विद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल थीं.
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आज भी उत्पीड़ित है हिरणी। राजसत्ता का मद, सनक और दर्प आतंक का रूप धर कर आता है प्रजा तक – इतिहास साक्षी है। बोधिसत्व की कविताएँ हमेशा की तरह मन को छू गई हैं।
मन द्रवित हो आया, आँखे भर आईं, हिरणी की पीड़ा को बोधिसत्व जी ने मुझे महसूस करवा दिया। यह त्वरित टिप्पणी है। विस्तार से शीघ्र ही लिखूंगी।
मन भीग गया इसे पढ़कर
अद्भुत और अनिवार्य कविता
एक बात जो आपने परिचय में कही उसने मेरे मर्म को छुआ कि जिसे शास्त्र कहने में हिचकते हैं, उसे लोक गाता है। इस पंक्ति के लिए आपका आभार
इस मार्मिक लोककथा को मेरी माँ भी सुनाती थी। बोधिसत्व जी ने खुल कर इसकी व्याख्या की है। हिरनी आज भी घूम रही है और आखेटक उसकी तलाश में हैं। यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है।
बोधि सत्व ने लोकगीत की आत्मा से तद- आत्म होकर यह कविता लिखी है.मैंने यह लोक गीत सुना है, सचमुच मर्म को विदीर्ण कर देता है.बोधि सत्व को बधाई
लोकगीत को कविता रूप में ढालना सहज नहीं. बोधिसत्व जी ने स्तुत्य कार्य किया है. हिरणी की पीड़ा का हृदयविदारक प्रस्तुतीकरण मन को द्रवीभूत कर देता है. सत्ता का चेहरा कितना क्रूर होता है उसका दर्शन इस कविता के माध्यम से तो होता ही है अपितु कई जगह लगता है जैसे वर्तमान भी इस कविता में सहज ही परिलक्षित हो रहा है.
इस कविता को पढने के उपरान्त मेरे मन में कुछ भाव उपजे और लगा जैसे यही वो हिरणी थी जिसने सीता को आकर्षित किया और राम को उसे मारकर लाने को प्रेरित किया. मानो इस रूप में उसने अपने हिरण का प्रतिशोध ले लिया, अपने जीवन की आहुति देकर, कैसे अपने साथी के बिछोह की पीड़ा होता है, मानो उसी का अहसास राम को कराना चाहती थी. साथ ही यदि मारीच को मारने का प्रसंग है तो वह भी इससे जुड़ता है. कौशल्या ने खोजकर उस हिरणी को राजमहल में मंगवाया, स्वर्णमंडित न केवल खुरों को अपितु सम्पूर्ण देह को करवाया, केवल राम के मनोरंजन हेतु. जब राम बड़े हो गए, विद्याध्ययन हेतु गए, एक दिवस, अवसर पाकर हिरणी वन में भाग गयी और मारीच को मिल गयी. उसका रूप देख मारीच ने उसे अपने आश्रम में स्थान दिया. रावण सीता हरण हेतु इसी कारण मारीच के पास आता है क्योंकि उसके पास स्वर्णमृग है. स्त्री स्वाभाविक स्वर्ण के प्रति आकर्षित होती है, उसका लाभ उठाने हेतु हिरणी का चारा बनाया. मारीच साथ इसलिए गया ताकि उसकी रक्षा कर सके किन्तु जब राम हिरणी का वध कर देते हैं तब मारीच को अत्यंत पीड़ा होती है क्योंकि हिरणी से उसे मोह हो गया था अतः सम्मुख आकर युद्ध करने लगता है और अंततः मारा जाता है.
ये मेरा काल्पनिक दृष्टिकोण है. हम सभी जानते हैं स्वर्णमृग नहीं होते. अब यदि तर्क के दृष्टिकोण से देखें तो यही प्रतीत होता है जो लोकगीत बने हैं, वो बिना कारण नहीं बने. वाल्मीकि ने जो लिखा वो राम के जीवनकाल में लिखा अतः सत्ता से विमुख नहीं लिख सकते थे. क्या संभव नहीं, जो वनवासी हों, उन्होंने ये सब देखा हो और गीतों में पिरो दिया हो जो समयानुसार रूप परिवर्तित करता गया हो.
इस कविता में और लोकगीत में बहुत सी संभावनाएं खुलती हैं. ये कल्पना और यथार्थ का मिश्रण भर हो. जैसा कि हम सब जानते हैं. फिर भी जब ऐसे नए रूप सम्मुख आते हैं तब कल्पना स्वयमेव उड़ान भरने लगती है.
एक बेहतरीन कविता हेतु बोधिसत्व जी को साधुवाद.
यह लोकगीत मैं पढ़ता रहा हूँ। बोधिसत्व जी की कविता अच्छी है। लेकिन मैंने महसूस किया कि अत्यधिक विस्तार की चाह में, सबकुछ कह देने की इच्छा में, कविता का प्रभाव कुछ कम हो गया है। लोकगीत में बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया गया, उसी अनकहे से टीस उपजती है। वह अनकहा ही अतिप्रश्न की जमीन तैयार करता है कि आख़िर क्यों ऐसा हुआ?
भाई भगिनी अज्ञात
आप जो कह रहे हैं वह संभव था। संभव तो यह भी था कि मात्र अनुवाद करके छोड़ दिया जाता।
लेकिन जो अनकहा है वह कब तक अनकहा रहे। यह एक कल्पना मात्र है कि क्या क्या हुआ होगा!
कितना कम कितना अधिक है यहां वर्णन यह आकलन करूंगा कभी। आपके सुझाव पर! 🙏🙏
यह भूली-बिसरी लोक कथा साहित्य की अमूल्य धरोहर है। इसमें जो करूणा की व्याप्ति है वो मर्माहत करती है।इसे आधार बनाकर फिर से रचने के लिए बोधिसत्व जी को
साधुवाद!
हिरणी की पीड़ा का अद्भुत वर्णन ।
ये कविताएं कवि की सम्वेदना का परिचय देती हैं
बधाई हो कवि जी
मेरी माँ भी गाती हैं हिरणी वाला यह सोहर। यह गीत (सोहर) या इसके बारे में जब भी कुछ सुनती/पढ़ती हूँ, हर बार मेरा चित्त हर्सोल्लास के उत्सवों के बीच हिरणी की पीड़ा से बिंधे उस अनाम कवि की चेतना पर ठहर जाता है जिसने इसकी रचना की। समय चाहे कोई भी भी हो, सत्ता और निर्बल के बीच के मर्मान्तक सम्बन्ध में कोई बदलाव नहीं आया है। बोधिसत्व जी ने इसका महत्वपूर्ण पुनार्गान किया है। उन्हें साधुवाद।
बोधि के यहाँ हमेशा लोक समकालीन सन्दर्भ से जुड़ कर आता है l और अंडरटोन बहुत मार्मिक कविताएं हैँ लोक लय को साधे हुए जो की इन कविताओं का प्राणतत्व है l बधाई इन कविताओं के लिए l
बोधि में एक गहरी संवेदना है,यह सिर्फ इस कविता में ही नहीं उनके पूरे कवि कर्म में देखी जा सकती है।वे सिर्फ कविता का उत्पादन करने वाले कवि नहीं हैं।इसकी भाषा भी बहुत अच्छी है
क्या ही कहा जाय । यह दुखांत विरह । बचपने में आजी से इस लोक कथा को सुनते थे । बोधि भाई की लेखनी से यह जनमानस में चली आ रही श्रुत कथा अपने उत्कर्ष पर पहुंच गई ❣️
बोधिसत्व की इन कविताओं को पढ़ते हुए सहसा उनकी ही ‘कमलादासी सीरीज की कविताएं’ और ‘एक आदमी मिला मुझे’ याद आ गई।वे करुणा को किस तरह कविता में बदल देते हैं यह उनकी कविताओं को पढ़ते हुए अक्सर एहसास होता है।इन कविताओं में हिरणी का दुःख अंत तक आते आते इतना विराट हो जाता है कि लगता है वही कराह इस ब्रह्माण्ड में फ़ैल गई हैं। एक तरफ राजा की ताकत और जिद है दूसरी तरफ एक अकेली हिरणी।आज भी कुछ नहीं बदला है।इन कविताओं के लिए आप दोनों को हार्दिक आभार।
यों तो ऊपरी तौर पर यह, हमारे अवध इलाके की लम्बे
समय से बहुत लोकप्रिय कथा का काव्य रूपांतरण भर है जिसे खड़ी बोली में किया गया भावानुवाद कह सकते हैं।पर इसमें गुम्फित हमारे समय के तमाम सवालों को शामिल कर बोधिसत्व ने इसकी मौलिक मार्मिकता में सत्ता को प्रश्नांकित कर इसका विस्तार किया है।हिरण की खाल पाने के साथ हिरणी के खुरों को स्वर्ण जड़ित करवाने,हिरणी का वन में भागते घूमने आदि की व्यंजना ने इसे तलस्पर्शी बना दिया है, वहीं जनता के खिलाफ सत्ता के आखेटक चरित्र ने इसे समसामयिक संदर्भ से जोड़ दिया है। बहुत बढ़िया, बधाई व शुभकामनाएं भाई!
शिष्ट साहित्य अभिजात है.लोक साहित्य भदेस है.याद कीजिए,मैला आंचल में रेणु का समर्पण.
मैं खुद को भी लोक से ज्यादा जुड़ा हुआ पाता है. इस सोहर का जिक्र नामवर जी भी ख़ूब करते थे. लोकगीत हमारे थाती हैं.इसे सहेजना होगा.
खूब मोहब्बत समालोचन और बोधिसत्व जी को.
सही कहते हैं, लोक सहज ही मार्मिक है।बहुत शानदार कविताएं हैं। पीड़ा है। दंभ से भरी सत्ता पर भारी कटाक्ष है, राम बजाते हैं… इसमें कोई दो राय है,इस कविता के लिए बोधिसत्व याद किए जाएंगे। बहुत आभार इतनी बढ़िया कविताएं पढ़वाने के लिए 🙏
मार्मिक कविताएँ , पीड़ा ने कविताओं में विराट स्वरूप पाया है , हृदयस्पर्शी !!
आभार समालोचन
हत्या के बाद भी उसके मीत की छाल को क्यों पीटा जाए?
निर्मम संसार का यही रिवाज़ है। शोषण, अत्याचार जैसे शब्द बार बार इस्तेमाल से भले ही पिट गए हो लेकिन उनके अर्थ अभी भी संसार मे घट रहे हैं। और ममता? सबसे ज़्यादा बदकिस्मत शब्द क्योंकि ममता तो सिर्फ रानी की है, हिरनी की नही। राम से प्यार का हक कौशल्या को है, हिरनी के अनाथ छौने किसी के मन मे करुणा या ममता नही जगाते। अन्याय के प्रतिरोध की भावना जगाना तो दूर की बात है।
लोकगीतों की खासियत यही होती है कि वे सत्ता की प्रतिष्ठित संरचनाओं के खिलाफ प्राणी मात्र के मन की व्यथा रखते हैं और ऐसे सवाल उठाते हैं जिनके जवाब देने की बजाय सत्ता उस प्राणी का वंश ही खत्म कर देती है।
और स्त्री मन की व्यथा? सारी जिंदगी स्त्री पुरुष के खिलाफ अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ती है, लेकिन दूसरी औरत को उसके अधिकार नही देती।
बोधि, आपने अद्भुत काम किया है। इस लोक गीत के शब्दों और पंक्तियों के बीच कई उप पाठ छिपे हैं। कविता अपने पाठकों के लिए उन उपपाठों की ओर संकेत करती है। इस गीत की यह पुनर्रचना में हमारे समय के अन्तर्द्वन्द्व छिपे हैं जिनसे पाठकों का सामना होता है। लोकतंत्र की नाभि में तीर मारती सत्ता की हिंसा को उजागर किया है आपने। स्नेह!