इसी सिलसिले में मुझे याद आया कि नामवर जी ने कहीं जिक्र किया है कि वे हिंदी में आलोचना की प्रस्थान-त्रयी पर कुछ लिखने का सोच रहे हैं. क्या इस दिशा में उन्होंने काम शुरू कर दिया है. इस बारे में खुद नामवर जी से बेहतर भला कौन बता सकता था. लिहाजा मैंने उनसे पूछ लिया, “हिंदी में आलोचना की प्रस्थान-त्रयी पर आप लिखना चाहते थे. आपने कहीं जिक्र किया है?”
नामवर जी ने मेरी बात से सहमति जताई. बोले,
“जी…! अब भी मेरा इरादा है कि मैं वह काम करूँ. इसी तरह उपन्यास लगभग छूट ही गया. इतने महत्त्वपूर्ण उपन्यास इस बीच आए हैं कि उन्होंने उपन्यास के पूरे ढाँचे, उपन्यास की पूरी परिकल्पना को ही बदल दिया है. मैं उन पर लिखना ही चाहता हूँ. इसी तरह कहानियों पर फिर से लिखना चाहता हूँ. कुछ इतनी अच्छी लंबी कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं कि मुझे लगता है कि वे जैसे आलोचना के लिए चुनौती दे रही हों, जबकि दुर्भाग्य से आलोचकों ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया. इसी तरह ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ पूरा नहीं तो उसके कुछ हिस्सों, कुछ कालखंडों के बारे में ही विस्तार से और व्यवस्थित ढंग से कुछ लिखूँ, यह मैंने सोचा है…जैसे कि कई बार गोष्ठियों में, कार्यक्रमों बोला हूँ. उस पर लगातार सोचता भी रहा हूँ, लेकिन लिखना नहीं हो पाया. …तो संतोष यह है कि मैं गंभीरता से और कुछ योजना बनाकर इस काम में जुटा हूँ. देखिए, कब तक हो पाता है?”
फिर कुछ रुककर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए नामवर जी ने कहा, ज्यादा व्यवस्थित ढंग से न लिख पाने का एक बड़ा कारण तो यह है, कि उनकी इतनी ऊर्जा विश्वविद्यालय के कामों में खर्च हुई है, जिसे किसी ने समझने की कोशिश नहीं की. जब आप उसका पूरा रंग-ढंग ही बदल रहे हैं और आपको न सिर्फ अपने विश्वविद्यालय में, बल्कि जगह-जगह जाकर अपनी बात समझानी भी हो तो उसकी गंभीरता और मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है. लिहाजा उन्होंने अपने भाषण और वक्तृताओं में भी यही बात लोगों को समझानी चाही कि अब शिक्षा-दीक्षा का पूरा ढंग बदल दिए जाने की जरूरत है. फिर अपनी बात का समाहार करते हुए उन्होंने बहुत भावुक होकर कहा—
“तो एक छोटा सा विनम्र योगदान मेरा इसमें है कि हमारे विश्वविद्यालय में साहित्य पढ़ाने का ढंग बदला..और निश्चय ही यह काम मेरे अकेले के बस का नहीं है. मुझे इतने अच्छे सहकर्मी मिले और उनका उनका इतना बढ़िया साथ और सहयोग मिला कि हम लोग मिलकर यह काम कर सके और यह ऐसा काम है कि मैं जानता हूँ कि कहीं भी, किसी भी इतिहास में दर्ज नहीं होगा. हाँ कुछ इक्का-दुक्का लोग हो सकता है, मेरे इस योगदान की चर्चा करें, और प्रकाश जी, जब इतना समय और ऊर्जा खत्म हो चुकी है और बाकी बचे, अनकिए या अधूरे कामों को देखता हूँ तो जो तीव्र असंतोष मन में पैदा होता है, उससे भी बच नहीं सकता. ”
नामवर जी ने अपनी बात पूरी स्पषटता और ईमानदारी से मेरे आगे रख दी थी. वे इस तरह हृदय खोलकर मुझसे बात करेंगे, मुझे इसकी उम्मीद न थी. और यह बातचीत जो सवाल-जवाब वाले अंदाज में शुरू हुई थी, अब एक गझिन भावनात्मक संवाद, बल्कि निर्मल सहधारा में तब्दील हो चुकी थी.
एक आलोचक के रूप में नामवर जी की निसफ सदी की यात्रा मेरे समने थी. अनेक चकित करने वाली घटनाओं से भरी, बेहद समृद्ध यात्रा. बार-बार उसकी ओर मेरा ध्यान जा रहा था. हम सबके लिए एक आलोचक के रूप में नामवर जी की यह विकास-यात्रा बड़ी रोमांचक थी, और प्रेरक भी. कुछ-कुछ आतंकित करने वाली भी. पर खुद नामवर जी उसे किस तरह देखते हैं, यह जानने की जिज्ञासा मन में थी.
उसे जानने की गरज से मैंने पूछा,
“नामवर जी, आपके खयाल से आपके आलोचक का सबसे बड़ा हासिल क्या है और सबसे बड़ी मुश्किल क्या है, जिससे आपको बार-बार टकराना पड़ा हो?”
प्रश्न सुनकर नामवर जी कुछ असमंजय में पड़े गए. “हासिल…!” अपने भीतर झाँककर, कुछ सोचते हुए से वे बोले, “यह तो नहीं जानता—कम से कम अभी तक. ”
“लेकिन एक आलोचक के रूप में आप अपने आलोचक को कैसे देखते हैं या उसकी उपलब्धि क्या मानते हैं, यह तो बता ही सकते हैं…!” मैंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.
इस पर नामवर जी बोले,
“ठीक है..तो ऐसा है प्रकाश जी, साहित्य-सृजन के क्षेत्र में जो भी नया और सार्थक काम सामने आए, उसको दूसरी चीजों से अलगाकर पहचानना, रेखांकित करना और उसमें यानी उसकी मूल्यांकन की प्रक्रिया में दूसरों को शामिल करना, यह काम पूरी ईमानदारी और संवेदनशीलता के साथ मैंने करना चाहा. कितना सफल हुआ या नहीं, कह नहीं सकता, लेकिन इसी अनुभव को अपना हासिल मानना चाहूँगा.”
नामवर जी ने एक सच्चे और गंभीर आलोचक की बुनियादी चिंता मेरे सामने रख दी थी. साथ ही अपने काम करने का ढंग और तौर-तरीका भी. लेकिन मेरे प्रश्न का दूसरा हिस्सा तो अभी अनुत्तरित था. उसकी ओर नामवर जी का ध्यान खींचते हुए मैंने पूछा, “और सबसे बड़ी मुश्किल?”
इस पर नामवर जी का उत्तर मेरे लिए एकदम अप्रत्याशित था. अपने भीतर कुछ गहरे उतरते हुए वे बोले,
“पूर्व निर्धारित संस्कार!…मुझे खास तरह का साहित्य पढने से बने हुए पूर्व-निर्धारित संस्कारों से निरंतर लड़ना पढ़ा. यह लड़ाई मेरे लिए सबसे मुश्किल और पीड़ादायक थी…क्योंकि मेरा मानना है कि किसी व्यक्ति के साहित्यिक संस्कार या साहित्यिक अभिरुचियाँ बीस-पच्चीस वर्ष की आयु तक बन जाती है. उसके बाद यह प्रक्रिया काफी कुछ रुक जाती है- यानी प्रयास करके उसका निरंतर विकास तो किया जा सकता है, लेकिन यह बहुत स्वाभाविक नहीं है. उसके लिए निरंतर अपने आप से लड़ना पड़ता है. ”
कुछ रुककर बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा,
“मेरे साहित्यिक संस्कार भी जो हैं प्रकाश जी, वे सन् 50 से 60 के बीच जो साहित्य पढ़ा गया, उससे बने हैं- मसलन जो उपन्यास, जो कविताएँ उस दैरान मैंने पढ़ीं, उनका असर अब तक कहीं गहरे बना हुआ है और उसी से मेरी साहित्यिक अभिरुचियाँ भी बनी हैं. इससे पहले का जो साहित्य था, उससे लड़-झगड़कर कैसे नए साहित्य ने अपनी जगह बनाई, यह मैंने खुद देखा है और उससे मैं मुग्ध भी हुआ हूँ. लेकिन उसके बाद जो नई चीजे आईं, मसलन सन् 60 के बाद जो कविता आई, जो कहानियाँ लिखी गईं, उसमें भाषा को लेकर, काव्य और संवेदना को लेकर इतने बड़े प्रयोग हुए कि उससे कविता-कहानी की काया आमूलचूल बदल गई. आप कह सकते हैं, साहित्य का यह एक बिल्कुल नया कायाकल्प था और उसकी एप्रीशिएट करने के लिए आलोचक के लिए भी अपनी अभिरुचियों से निरंतर झगड़ते रहने और अपना नया कायाकल्प करने की चुनौती थी!…”
फिर एक आलोचक के रूप में अपनी तकलीफ और चुनौतियों, दोनों की एक साथ चर्चा करते हुए उन्होंने बड़ी साफगोई के साथ कहा,
“अकसर मैं देखता हूँ कि रचना की तुलना में आलोचना बहुत ठस है तो मुझे बहुत कष्ट होता है. अगर रचना में शिल्प और अनुभव के स्तर पर इतनी क्रांतिकारी तब्दीलियाँ आ गई हैं, तो आलोचना वही बाबा आदम के जमाने की भाषा में कैसे लिखी जा सकती है?…इस मामले में शास्त्र का अनुचर हो जाने को भी मैं कोई बहुत अच्छी चीज नहीं मानता. शास्त्र के लिए मन में सम्मान हो सकता है, लेकिन शास्त्र क्या सिर पर ढोने की चीज है? मेरे गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने मुझे यह दोहरी दृष्टि दी शास्त्र के प्रति…यानी दर्शन की परंपरा का आप सम्मान भी कर रहे हैं, लेकिन उससे आक्रांत भी नहीं हैं. उसका उपयोग और काम हो गया तो उसे पानी में फेंक दीजिए. ढोने से कोई फायदा नहीं, बल्कि उलटे डूबने का खतरा है. …”
तभी अचानक नामवर जी को अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के सीधे-सहज और बेबनाव व्यक्तित्व के साथ ही उनकी असाधारण विद्वत्ता, साहित्य और वाङ्मय का स्मरण हो आया. उन्होंने बड़े भावनात्मक लहजे में कहा—
“स्वयं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का सारा लेखन इस बात का गवाह है. उनसे ज्यादा शास्त्रों का ज्ञाता कौन था और उनसे ज्यादा सहज और रसात्मक वाक्य किसने लिखे? किसी चीज को भीतर पचाकर कोई आसान बात कहना ज्यादा मुश्किल है…असली पांडित्य तो यह है! ऐसे ही राहुल सांकृत्यायन को लें तो उनसे बड़ा पंडित कौन था? लेकिन उनकी रचनाएँ उठाकर आप देख लीजिए, कितनी सहज, सुबोध भाषा में वे जनता के लिए लिखते रहे. इसी तरह चंद्रधर शर्मा गुलेरी इतने बड़े पंडित थे, लेकिन उनकी एक ही कहानी ‘उसने कहा था’ उन्हें कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है. कितनी सरस और कलात्मक रूप में ऊँची कहानी है कि हिंदी साहित्य का इतिहास उसका जिक्र किए बगैर लिखा ही नहीं जा सकता!…तो मेरा तो सूत्र-वाक्य यह है कि शास्त्र को अपने ऊपर सवारी मत करने दो, शास्त्र पर सवारी करो- फिर चाहे वह भारतीय काव्य-शास्त्र हो या पश्चिमी काव्य-शास्त्र!”
कहते-कहते नामवर जी खुलकर हँसे तो मेरे लिए भी अपनी हँसी को रोक पाना मुश्किल हो गया.
मैंने पूछा, “आपने नामवर जी, ‘कल्पना’ के अपने एक लेख का जिक्र किया था जो रूप और वस्तु के द्वंद्व की समस्या पर था. आपकी पस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ को पढ़ते हुए भी मुझे लगा था कि इसके पीछे की आपकी मुख्य चिंता रूप और वस्तु का द्वंद्व ही है. इसमें मुझे यह भी लगा कि कभी आपका पलड़ा रूप की और कभी अंतर्वस्तु की ओर झुक जाता है. आपने अपने इंटरव्यू में कई जगह कहा भी है कि अब कलावाद नए तौर से संगठित हो रहा है तो इसका मुकाबला करने के लिए अंतर्वस्तु पर जोर देना ज्यादा जरूरी है. …कहीं-कहीं इसका उलटा भी मेरे खयाल से हुआ है, जैसे ‘कविता के नए प्रतिमान’ में श्रीकांत वर्मा तो बहुत महत्त्व पा गए हैं, लेकिन केदारनाथ अग्रवाल की लगभग चर्चा ही नहीं है. रामविलास जी के यहाँ मुक्तिबोध इसलिए उपेक्षित हैं कि वहाँ रूप का झमेला है और आप केदारनाथ अग्रवाल को इसलिए एक किनारे कर देते हैं कि ये सीधे-सादे कवि हैं, इनमें कोई उलझाव नहीं है. …तो क्या इस पूरे चक्कर में कवियों के साथ कुछ खामखा बेइंसाफी नहीं हो जाती?”
सवाल सुनकर नामवर जी एक क्षण के लिए रुके. फिर कुछ सोचते हुए से बोले,
“केदारनाथ अग्रवाल के बारे में मैं आपको बताऊँ, प्रकाश जी, कि मैं उनकी कविताओं का प्रशंसक रहा हूँ. मेरी जो किताब ‘आधुनिक हिंदी साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ’ हैं, उसमें प्रगतिवाद वाले खंड में केदारनाथ अग्रवाल की प्रमुखता से चर्चा है. वे मेरे बहुत पुराने मित्र हैं और उनसे मेरा लगातार पत्र-व्यवहार भी चलता रहा है. …मेरी यह इच्छा भी रही है कि उन पर मैं अलग से स्वतंत्र रूप से एक निबंध लिखूँ. वह अभी तक लिखा नहीं गया, यह अलग बात है. …मैं मानता हूँ, केदारनाथ अग्रवाल की उपेक्षा बहुत हुई है, लेकिन साथ ही यह भी तय है कि उनकी गलत ढंग से या गलत कारणों से प्रशंसा भी बहुत हुई है. …उनकी जिन कविताओं की ज्यादा प्रशंसा हुई, जिनमें सीधे-सीधे वक्तव्य या प्रगतिवाद का स्थूल रूप है, उसके बजाय मैं उनकी दूसरी कविताओं को ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानता हूँ…”
“प्रकृति की कविताएँ..? मैंने पूछा. फिर प्रश्न को और स्पष्ट करने की गरज से कहा, “उनके संग्रह ‘फूल नहीं, रंग बोलते हैं’ में प्रकृति—खासकर केन नदी को लेकर लिखी गई कुछ कविताएँ अद्भुत हैं…!”
नामवर जी ने मेरी बात से सहमति प्रकट की. बोले, “जी, प्रकृति को लेकर उनकी कुछ बहुत अच्छी कविताएँ हैं- केन नदी को लेकर अनूठी कविताएँ उनके यहाँ है. प्रेम को लेकर भी उन्होंने लिखा और अच्छा ही लिखा है…उन पर मैं अलग से एक स्वतंत्र लेख लिखना चाहता हूँ और यह काम जल्दी ही होगा. उसमें मैं ये सभी बातें उठाऊँगा—यानी आलोचनात्मक ढंग से उनके कवि-व्यक्तित्व, उसकी शक्ति और सीमाओं की परख की यह एक कोशिश होगी—एक अलग ढंग की कोशिश. …मेरी बेहुत सी आकांक्षाओं में से एक यह भी है. ”
नामवर जी को याद करना हिंदी साहित्य के एक दौर को याद करना है।
बहुत सुंदर. प्रिय अरुण देव जी, आप बहुत ही सार्थक और गंभीर साहित्यिक कार्य कर रहे हैं. मैं नियमित पढ़ता रहता हूँ. नामवर सिंह से संबंधित मेरे अनुभव बिल्कुल अलग तरह के हैं. उनको संचित कर रहा हूँ. समालोचन का कोई सानी नहीं. बधाई हो.
बहुत सार्थक बातचीत है,,लगभग हर पहलू पर,,साधुवाद
प्रकाश जी का नामवर सिंह जी पर केन्द्रित ख़ास तौर से उनके जन्मदिन पर जो लेखांकित संस्मरण है उसमें नामवरसिंह को लेकर उनका सम्मानीय दृष्टिकोण के
साथ-साथ कुछ अनसुलझे,अनछुये पहलुओं को भी रेखांकित किया है. गौरेतारीफ़ है.
नामवर सिंह से मेरी मुलाक़ात ( खड़े-खड़े ) राठीजी ने करायी,जेएनयू का परिसर था.उनकी कँटीली मुस्कान और कटाक्ष आज भी याद है ‘ महाकवि जा रहे हैं ‘ कवि का नाम विस्मृत हो गया लेकिन लहजा याद है.बहरहाल
अशोकजी का ‘फ़िलहाल ‘ सहित कई आलोचनात्मक किताबें आई, और साहित्य में छाये घनघोर रजत-श्याम बादलों से आच्छादित आकाश को, विस्तीर्ण धुन्ध को साफ़ किया है.
प्रकाश जी ने बेबाक़ी के साथ जो उल्लेख किये हैं, वे सच के साथ नामवर जी को आत्मसात् करते हैं. रामविलास जी को उद्धृत करते हुए उनके मन को खंगालना, दुर्भावना नहीं बल्कि सहजता थी.
प्रकाश जी को पढ़ते हुए उनसे बातचीत करना अच्छा लगता है.
वंशी माहेश्वरी.
नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में अपने आलोचना कर्म के बारे में कहा था कि मैं गया तो था कविता के मंदिर में पूजा का थाल लेकर लेकिन मंदिर की गन्दगी देख झाड़ू उठा लिया और बुहारने लगा। आलोचक की वही भूमिका होती है जो सेना में ‘सैपर्स एंड माइनर्स’ की होती है।सेना को मार्ग दिखाते, पुल-पुलिया बनाते वही आगे आगे चलता है और सबसे पहले मारा भी वही जाता है। यह भी कहा था कि आलोचक न्यायाधीश नहीं, मुकदमे के बचाव पक्ष (डिफेंस) का वकील होता है और वह भी इतना ईमानदार वकील कि मुव्वकिल से केस के संबंध में कुछ छुपाता नहीं। साफ साफ बता देता है कि तुम्हारा केस कमजोर है। फिरभी, जिरह करेंगे जीतने के लिए।वह साहित्य का सहचर है। प्रकाश मनु और नामवर सिंह के बीच का यह विशद संवाद ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।इसमें कई महत्वपूर्ण बातें उभरकर आती हैं।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
आभारी हूँ भाई अरुण जी।
नामवर जी पिछले कोई पैंतालीस बरसों से मेरे मन और चेतना पर छाए हुए हैं। उन्हें खूब पढ़ा। उनके लिखे एक-एक शब्द को लेकर खुद से और अपने भीतर बैठे नामवर जी की छवि से अंतहीन बहसें कीं, यह एक अंनंत सिलसिला है।
लेकिन साथ ही मैंने उन्हें अपने गुरु के आसन पर बैठाया। ऐसा गुरु, जो शिष्य से यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ, वह मान लो। इसके बरक्स वे मेरे ऐसे गुरु थे, जो शिष्य को बहस के लिए न्योतते थे।
वे यह नहीं चाहते थे कि शिष्य ‘जी…जी’ करता उनके पास आए, बल्कि वे इस बात के लिए उत्तेजित करते थे कि आप उनके पास सवाल लेकर जाएँ। और सवालों के उस कठघरे में बैठकर जवाब देना उन्हें प्रिय था। एक चुनौती की तरह वे प्रसन्नता से सवालों का सामना करते थे।
शायद इसीलिए मेरे मन में उनके लिए इतना आदर और इतनी ऊँची जगह है, जहाँ कोई दूसरा नहीं आ सका।
और इससे भी बड़ी बात थी, उनका आत्म-स्वीकार या कनफेशन, जहाँ वे खुद अपने काम से असंतोष जताते हैं, और मानो एक तीखी आत्मग्लानि के साथ कहते हैं कि वे इससे कुछ बेहतर कर सकते थे, या कि उन्हें करना चाहिए था।
नामवर जी की इस ईमानदारी ने मुझे उनका सबसे ज्यादा मुरीद बनाया। कम से कम मैंने अपनी निसफ सदी की साहित्य यात्रा में ऐसा कोई दूसरा लेखक या आलोचक नहीं देखा, जिसने अपने काम से इस कदर असंतोष जताया हो या इतनी ईमानदारी से कनफेशन किया हो।
इसीलिए आत्मकथा लिखते हुए नामवर जी पर लिखना मेरे लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा था। वह लिखा गया, और ‘समालोचन’ के जरिए मेरे बहुत सारे मित्रों और सहृदय पाठकों तक पहुँचा। इसके लिए भाई अरुण जी और ‘समालोचन’ का साधुवाद।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
नामवरजी को या तो बहुत प्रशंसा भाव से देखा गया (उनके आगे-पीछे उनके शिष्यों की एक बड़ी जमात थी ) या फिर अपने पूर्वाग्रहों के कारण अति निंदाभाव से। लेकिन उनकी साहित्यि समारोहों में उपस्थिति अनिवार्य थी। ।वे एक कद्दावर व्यक्ति थे और प्रखर वक्त थे। उन्हें सुनना स्वयं को समृद्ध करना था मेरे लिए।