नामवर जी से मेरी यह बातचीत उस समय हुई, जब एक सदी ढलान पर थी और तेजी से अंत की ओर जा रही थी, और दूसरी जन्म के लिए प्रतीक्षारत थी. लगभग दो सदियों का यह मिलन स्थल था. इस मायने में यह एक चुनौती भरा समय था, कुछ रोमांचक और स्तब्धकारी भी.
इसकी चर्चा करते हुए मैंने कहा, “नामवर जी, हम समय के जिस दौर में हैं उससे एक सदी खत्म हो रही है और एक नई सदी जन्म लेने जा रही है. …तो नई सदी के आदमी का चेहरा क्या होगा या नई सदी में साहित्य और कलाओं का रूप आपके खयाल से क्या होगा? इस बारे में आपकी परिकल्पना…?”
इस पर नामवर जी थोड़ी व्यंग्यपूर्ण मुसकराहट के साथ बोले,
“प्रकाश मनु जी, इतिहास मेरे लिए एक कैलेंडर नहीं है कि साल खत्म हुआ और उसे बदल दिया!…तो ऐसा नहीं है कि सन् दो हजार आते ही पिछला सब-कुछ खत्म हो जाए और नया आदमी, नया साहित्य, नई कलाएँ, धरती पर नजर आने लग जाएँ!”
फिर कुछ क्षण रुककर सोचते हुए उन्होंने कहा,
“यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि उन्नीसवीं सदी सन् 1900 में खत्म नहीं हो गई थी, वह खत्म हुई आगे चलकर 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के समय. तो इसी तरह बीसवीं सदी सन् 2000 में नहीं, 21वीं सदी में कही जाकर खत्म होगी. …हो सकता है, उसके दो दशकों बाद खत्म हो. …हो सकता है, इस बीच कोई ऐतिहासिक परिवर्तन लाने वाली घटना घटित हो, जिसके आघात से मनुष्य का विचार, चिंतन, जीवन-पद्धति और नियति ही बदल जाए, तो वह एक नए मनुष्य का जन्म होगा और नई सदी का भी. ”
मैंने कहा, “डॉक्टर साहब, कहा तो जाता है कि पिछले कुछ समय में समय की रफ्तार इतनी तेज हुई है कि जितना परिवर्तन पिछले दो दशकों में हुआ है, उतना पिछले दो सौ सालों में नहीं हुआ!…तो इस लिहाज से जो समय हमारे सामने हैं, उससे आने वाले समय के बारे में हम क्या अंदाजा लगा सकते हैं?”
नामवर जी बोले,
“हाँ, इधर के बीस-पच्चीस सालों में जो परिवर्तन आए हैं और जीवन का रूप और रंग-ढंग जैसे बदला है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि हम एक अतिवादी दौर में जी रहे हैं. और जो लक्षण सामने हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि अभी तो यह अतिवाद रुकता हुआ नहीं दीखता. यानी अभी कुछ समय और हम अतिवाद की ओर बढ़ेंगे और यह अतिवाद जीवन के किसी एक रूप में नहीं, तमाम रूपों में, तमाम शक्लों में फूटेगा. आगे चलकर शायद इन अतिवादों के आपसी संघट्ट से ही इनका शमन भी होगा, कुछ-कुछ वाद-विवाद वाली शैली में. …”
मैंने कहा, “तो नामवर जी, नई सदी को लेकर आपके मन में आशा ही ज्यादा है? या कि आशंकाएँ भी हैं?”
नामवर जी बोले, “नहीं, आशा ही मुझे ज्यादा दिखती है. इस मामले में मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ. अतिवाद आदमी को कभी-कभी खींच तो ले जाता है और उसमें एक दुर्वह आकर्षण भी है, लेकिन अतिवाद में आदमी ज्यादा समय रह नहीं सकता. ”
विषय बदलते हुए मैंने एक बिल्कुल अलग तरह का सवाल उनसे पूछा, “एक सचेत और संवेदनशील लेखक होने के नाते जो समय या मौजूदा दौर हमारे सामने है, उस पर आपकी टिप्पणी?”
कुछ क्षण मौन रहकर नामवर जी बोले, ““एक आग का दरिया है और डूब के जाना है…!” कहते-कहते एक हलकी मुसकराहट नामवर जी के पान रँगे होंठों पर नजर आती है. मैं भी मुसकरा देता हूँ.
नामवर जी को याद करना हिंदी साहित्य के एक दौर को याद करना है।
बहुत सुंदर. प्रिय अरुण देव जी, आप बहुत ही सार्थक और गंभीर साहित्यिक कार्य कर रहे हैं. मैं नियमित पढ़ता रहता हूँ. नामवर सिंह से संबंधित मेरे अनुभव बिल्कुल अलग तरह के हैं. उनको संचित कर रहा हूँ. समालोचन का कोई सानी नहीं. बधाई हो.
बहुत सार्थक बातचीत है,,लगभग हर पहलू पर,,साधुवाद
प्रकाश जी का नामवर सिंह जी पर केन्द्रित ख़ास तौर से उनके जन्मदिन पर जो लेखांकित संस्मरण है उसमें नामवरसिंह को लेकर उनका सम्मानीय दृष्टिकोण के
साथ-साथ कुछ अनसुलझे,अनछुये पहलुओं को भी रेखांकित किया है. गौरेतारीफ़ है.
नामवर सिंह से मेरी मुलाक़ात ( खड़े-खड़े ) राठीजी ने करायी,जेएनयू का परिसर था.उनकी कँटीली मुस्कान और कटाक्ष आज भी याद है ‘ महाकवि जा रहे हैं ‘ कवि का नाम विस्मृत हो गया लेकिन लहजा याद है.बहरहाल
अशोकजी का ‘फ़िलहाल ‘ सहित कई आलोचनात्मक किताबें आई, और साहित्य में छाये घनघोर रजत-श्याम बादलों से आच्छादित आकाश को, विस्तीर्ण धुन्ध को साफ़ किया है.
प्रकाश जी ने बेबाक़ी के साथ जो उल्लेख किये हैं, वे सच के साथ नामवर जी को आत्मसात् करते हैं. रामविलास जी को उद्धृत करते हुए उनके मन को खंगालना, दुर्भावना नहीं बल्कि सहजता थी.
प्रकाश जी को पढ़ते हुए उनसे बातचीत करना अच्छा लगता है.
वंशी माहेश्वरी.
नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में अपने आलोचना कर्म के बारे में कहा था कि मैं गया तो था कविता के मंदिर में पूजा का थाल लेकर लेकिन मंदिर की गन्दगी देख झाड़ू उठा लिया और बुहारने लगा। आलोचक की वही भूमिका होती है जो सेना में ‘सैपर्स एंड माइनर्स’ की होती है।सेना को मार्ग दिखाते, पुल-पुलिया बनाते वही आगे आगे चलता है और सबसे पहले मारा भी वही जाता है। यह भी कहा था कि आलोचक न्यायाधीश नहीं, मुकदमे के बचाव पक्ष (डिफेंस) का वकील होता है और वह भी इतना ईमानदार वकील कि मुव्वकिल से केस के संबंध में कुछ छुपाता नहीं। साफ साफ बता देता है कि तुम्हारा केस कमजोर है। फिरभी, जिरह करेंगे जीतने के लिए।वह साहित्य का सहचर है। प्रकाश मनु और नामवर सिंह के बीच का यह विशद संवाद ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।इसमें कई महत्वपूर्ण बातें उभरकर आती हैं।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
आभारी हूँ भाई अरुण जी।
नामवर जी पिछले कोई पैंतालीस बरसों से मेरे मन और चेतना पर छाए हुए हैं। उन्हें खूब पढ़ा। उनके लिखे एक-एक शब्द को लेकर खुद से और अपने भीतर बैठे नामवर जी की छवि से अंतहीन बहसें कीं, यह एक अंनंत सिलसिला है।
लेकिन साथ ही मैंने उन्हें अपने गुरु के आसन पर बैठाया। ऐसा गुरु, जो शिष्य से यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ, वह मान लो। इसके बरक्स वे मेरे ऐसे गुरु थे, जो शिष्य को बहस के लिए न्योतते थे।
वे यह नहीं चाहते थे कि शिष्य ‘जी…जी’ करता उनके पास आए, बल्कि वे इस बात के लिए उत्तेजित करते थे कि आप उनके पास सवाल लेकर जाएँ। और सवालों के उस कठघरे में बैठकर जवाब देना उन्हें प्रिय था। एक चुनौती की तरह वे प्रसन्नता से सवालों का सामना करते थे।
शायद इसीलिए मेरे मन में उनके लिए इतना आदर और इतनी ऊँची जगह है, जहाँ कोई दूसरा नहीं आ सका।
और इससे भी बड़ी बात थी, उनका आत्म-स्वीकार या कनफेशन, जहाँ वे खुद अपने काम से असंतोष जताते हैं, और मानो एक तीखी आत्मग्लानि के साथ कहते हैं कि वे इससे कुछ बेहतर कर सकते थे, या कि उन्हें करना चाहिए था।
नामवर जी की इस ईमानदारी ने मुझे उनका सबसे ज्यादा मुरीद बनाया। कम से कम मैंने अपनी निसफ सदी की साहित्य यात्रा में ऐसा कोई दूसरा लेखक या आलोचक नहीं देखा, जिसने अपने काम से इस कदर असंतोष जताया हो या इतनी ईमानदारी से कनफेशन किया हो।
इसीलिए आत्मकथा लिखते हुए नामवर जी पर लिखना मेरे लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा था। वह लिखा गया, और ‘समालोचन’ के जरिए मेरे बहुत सारे मित्रों और सहृदय पाठकों तक पहुँचा। इसके लिए भाई अरुण जी और ‘समालोचन’ का साधुवाद।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
नामवरजी को या तो बहुत प्रशंसा भाव से देखा गया (उनके आगे-पीछे उनके शिष्यों की एक बड़ी जमात थी ) या फिर अपने पूर्वाग्रहों के कारण अति निंदाभाव से। लेकिन उनकी साहित्यि समारोहों में उपस्थिति अनिवार्य थी। ।वे एक कद्दावर व्यक्ति थे और प्रखर वक्त थे। उन्हें सुनना स्वयं को समृद्ध करना था मेरे लिए।