थोड़ी देर में अपने कागज-पत्तर समेटकर मैं उठ खड़ा होता हूँ. नामवर जी मुझे दरवाजे तक छोड़ने आते हैं.
“आज तक मेरे कई इंटरव्यू हुए हैं, लेकिन इतनी देर तक मैं कभी नहीं बोला. …जो लंबे इंटरव्यू हुए हैं, वे कई किस्तों में हुए हैं. ” नामवर जी सहजता से कहते हैं.
उस दिन नामवर जी के घर की सीढ़ियाँ उतरकर जब मैं फरीदाबाद की बस पकड़ने के लिए बढ़ रहा था तो अचानक हवा के तेज झोंके के साथ बहुत-कुछ पुराना ढह जाने और नए और विश्रांतिकारी अहसास से लबालब भर जाने जैसा कुछ महसूस हुआ. मेरा मन एकदम हलका और मुक्त था, और मैंने धीरे से फुसपुसाकर अपने आप से कहा, ‘आज का दिन एक बड़ी और आश्चयर्जनक उपलब्धि के रूप में मेरी जीवन कथा में हमेशा दर्ज रहेगा, क्योंकि आज मैंने नामवर जी से बातें की हैं!’
यों इसके बाद भी नामवर जी से बहुत मुलाकातें हुईं, उनकी स्मृतियाँ भी भीतर दर्ज हैं. शायद कभी लिखी जाएँ. पर उनसे हुई उस पहली जीवंत मुलाकात का असर कभी फीका नहीं हुआ. खासकर उनकी सहज आत्मीयता नहीं भूलती, जो पल भर में दूसरे को अपना बना लेती है, और निर्भय होकर एक अनौपचारिक संवाद के लिए न्योतती है. यहाँ तक कि बीच-बीच में दो-तीन बार उन्होंने कहा कि प्रकाश जी, ये बातें आज पहली बार इस बातचीत के क्रम में ही मुझे सूझी हैं. यह उनकी उदारता और बड़प्पन था, जिसने मुझे अभिभूत कर लिया.
और सबसे बड़ी बात तो यह कि नामवर जी बड़े, बहुत बड़े हैं. उनके नाम का आतंक ही बहुत था, पर एक पल के लिए भी उन्होंने मुझे लघुता का अहसास नहीं होने दिया. इसके बरक्स उन्होंने जिस तरह पहली मुलाकात में ही अपना हृदय मेरे आगे खोला और एक आत्मचेतस आलोचक के रूप में अपने असंतोष और चिंताओं में मुझे शामिल किया, वह मेरे जीवन के सबसे दुर्लभ और मूल्यवान अनुभवों में से है. उनकी सहज बतकही में भी एक आलोचक के रूप में उनकी अपार तेजस्विता और विद्वत्ता छिप नहीं पा रही थी, जिसे मैंने लगातार महसूस किया.
आज जब नामवर जी नहीं हैं, उनका होना कहीं ज्यादा समझ में आता है. एक आलोचक के रूप में हर क्षण रचना के साथ चल पाने की चुनौती और लगातार वाद-विवाद-संवाद के बीच बार-बार खुद को पुनर्नवा करने का उद्यम नामवर जी ऐसी खासियत है, जिसे भूल पाना असंभव है. और एक बड़े आलोचक के रूप में उनकी यह चिंता जितने उत्कट रूप में थी, और जीवन के आखिरी चरण तक रही, वैसा उदाहरण शायद ही कोई और मिले. नामवर जी यहाँ अन्यतम हैं और इसीलिए उनसे खुले संवाद का आनंद ही कुछ और था.
इस समय, जब ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, उनसे हुई बातें ही नहीं, उनके पान रँगे होंठों पर खेलती सहज मुसकान और भंगिमाएँ, कभी-कभी असंतोष, उदासी या व्यंग्य भी—और इस सबके बीच में बिजली की कौंध की तरह प्रकट होती तेजस्विता बार-बार मेरी स्मृतियों में उभरती है—किसी जीवंत फिल्म की तरह, और मैं एक क्षण के लिए अवाक सा रह जाता हूँ!
नामवर जी आज भले ही न हों, पर एक बड़े आलोचक की सहज आभा और वाग्मिता के साथ वे मेरी स्मृतियों में बसे हैं, और हमेशा रहेंगे.
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प्रकाश मनु (12 मई, 1950 को शिकोहाबाद, उत्तर प्रदेश में)लगभग ढाई दशकों तक बच्चों की लोकप्रिय पत्रिका ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे. अब स्वतंत्र ![]() कहानियाँ : अंकल को विश नहीं करोगे, सुकरात मेरे शहर में, अरुंधती उदास है, जिंदगीनामा एक जीनियस का, तुम कहाँ हो नवीन भाई, मिसेज मजूमदार, मिनी बस, दिलावर खड़ा है, मेरी श्रेष्ठ कहानियाँ, मेरी इकतीस कहानियाँ, 21 श्रेष्ठ कहानियाँ, प्रकाश मनु की लोकप्रिय कहानियाँ, मेरी कथायात्रा : प्रकाश मनु, मेरी ग्यारह लंबी कहानियाँ. कविता : एक और प्रार्थना, छूटता हुआ घर, कविता और कविता के बीच. हिंदी के दिग्गज साहित्यकारों के लंबे, अनौपचारिक इंटरव्यूज की किताब ‘मुलाकात’ बहुचर्चित रही. ‘यादों का कारवाँ’ में हिंदी के शीर्ष साहित्कारों के संस्मरण. देवेंद्र सत्यार्थी, रामविलास शर्मा, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र तथा विष्णु खरे के व्यक्तित्व और साहित्यिक अवदान पर गंभीर मूल्यांकनपरक पुस्तकें. साहित्य अकादेमी के लिए देवेंद्र सत्यार्थी और विष्णु प्रभाकर पर मोनोग्राफ. सत्यार्थी जी की संपूर्ण जीवनी ‘देवेंद्र सत्यार्थी : एक सफरनामा’ प्रकाशन विभाग से प्रकाशित. इसके अलावा ‘बीसवीं शताब्दी के अंत में उपन्यास : एक पाठक के नोट्स’ आलोचना में लीक से हटकर एक भिन्न ढंग की पुस्तक. बाल साहित्य की सौ से अधिक पुस्तकें, जिनमें प्रमुख हैं— प्रकाश मनु की चुनिंदा बाल कहानियाँ, मेरे मन की बाल कहानियाँ, मेरी संपूर्ण बाल कहानियाँ (तीन खंड), मैं जीत गया पापा, मेले में ठिनठिनलाल, भुलक्कड़ पापा, लो चला पेड़ आकाश में, चिन-चिन चूँ, मातुंगा जंगल की अचरज भरी कहानियाँ, मेरी प्रिय बाल कहानियाँ, इक्यावन बाल कहानियाँ, नंदू भैया की पतंगें, कहो कहानी पापा, बच्चों की 51 हास्य कथाएँ, चुनमुन की अजब-अनोखी कहानियाँ, गंगा दादी जिंदाबाद, किस्सा एक मोटी परी का, चश्मे वाले मास्टर जी, धरती की सब्जपरी, जंगल की कहानियाँ, अजब-अनोखी शिशुकथाएँ (तीन खंड), बच्चों का पंचतंत्र, ईसप की 101 कहानियाँ, तेनालीराम की चतुराई के अनोखे किस्से, (कहानियाँ), प्रकाश मनु के संपूर्ण बाल उपन्यास (दो खंड), गोलू भागा घर से, एक था ठुनठुनिया, चीनू का चिड़ियाघर, नन्ही गोगो के कारनामे, खुक्कन दादा का बचपन, पुंपू और पुनपुन, नटखट कुप्पू के अजब-अनोखे कारनामे, खजाने वाली चिड़िया, अजब मेला सब्जीपुर का (उपन्यास), मेरी संपूर्ण बाल कविताएँ, प्रकाश मनु की बाल कविताएँ, बच्चों की एक सौ एक कविताएँ, हाथी का जूता, इक्यावन बाल कविताएँ, हिंदी के नए बालगीत, बच्चों की अनोखी हास्य कविताएँ, मेरी प्रिय बाल कविताएँ, मेरे प्रिय शिशुगीत, 101 शिशुगीत (कविताएँ), मुनमुन का छुट्टी-क्लब, इक्कीसवीं सदी के बाल नाटक, मेरे संपूर्ण बाल नाटक (दो खंड), बच्चों के अनोखे हास्य नाटक, बच्चों के रंग-रँगीले नाटक, बच्चों को सीख देते अनोखे नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ सामाजिक नाटक, बच्चों के श्रेष्ठ हास्य एकांकी (बाल नाटक), विज्ञान फंतासी कथाएँ, अजब-अनोखी विज्ञान कथाएँ, सुनो कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की, अद्भुत कहानियाँ ज्ञान-विज्ञान की (बाल विज्ञान साहित्य). हिंदी में बाल साहित्य का पहला बृहत इतिहास ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ लिखा. इसके अलावा ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’, ‘हिंदी बाल साहित्य के शिखर व्यक्तित्व’, ‘हिंदी बाल साहित्य के निर्माता’ और ‘हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ’ पुस्तकें भी. संस्मरण, साक्षात्कार, आलोचना और साहित्येतिहास से संबंधित विचारोत्तेजक लेखन. कई महत्त्वपूर्ण संपादित पुस्तकें और संचयन भी. कई पुस्तकों का पंजाबी, सिंधी, मराठी, गुजराती, कन्नड़ समेत अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद. पुरस्कार : बाल उपन्यास ‘एक था ठुनठुनिया’ पर साहित्य अकादमी का पहला बाल साहित्य पुरस्कार. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के ‘बाल साहित्य भारती पुरस्कार’ और हिंदी अकादमी के ‘साहित्यकार सम्मान’ से सम्मानित. कविता-संग्रह ‘छूटता हुआ घर’ पर प्रथम गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार. पता : 545, सेक्टर-29, फरीदाबाद-121008 (हरियाणा), मो. 09810602327 |
नामवर जी को याद करना हिंदी साहित्य के एक दौर को याद करना है।
बहुत सुंदर. प्रिय अरुण देव जी, आप बहुत ही सार्थक और गंभीर साहित्यिक कार्य कर रहे हैं. मैं नियमित पढ़ता रहता हूँ. नामवर सिंह से संबंधित मेरे अनुभव बिल्कुल अलग तरह के हैं. उनको संचित कर रहा हूँ. समालोचन का कोई सानी नहीं. बधाई हो.
बहुत सार्थक बातचीत है,,लगभग हर पहलू पर,,साधुवाद
प्रकाश जी का नामवर सिंह जी पर केन्द्रित ख़ास तौर से उनके जन्मदिन पर जो लेखांकित संस्मरण है उसमें नामवरसिंह को लेकर उनका सम्मानीय दृष्टिकोण के
साथ-साथ कुछ अनसुलझे,अनछुये पहलुओं को भी रेखांकित किया है. गौरेतारीफ़ है.
नामवर सिंह से मेरी मुलाक़ात ( खड़े-खड़े ) राठीजी ने करायी,जेएनयू का परिसर था.उनकी कँटीली मुस्कान और कटाक्ष आज भी याद है ‘ महाकवि जा रहे हैं ‘ कवि का नाम विस्मृत हो गया लेकिन लहजा याद है.बहरहाल
अशोकजी का ‘फ़िलहाल ‘ सहित कई आलोचनात्मक किताबें आई, और साहित्य में छाये घनघोर रजत-श्याम बादलों से आच्छादित आकाश को, विस्तीर्ण धुन्ध को साफ़ किया है.
प्रकाश जी ने बेबाक़ी के साथ जो उल्लेख किये हैं, वे सच के साथ नामवर जी को आत्मसात् करते हैं. रामविलास जी को उद्धृत करते हुए उनके मन को खंगालना, दुर्भावना नहीं बल्कि सहजता थी.
प्रकाश जी को पढ़ते हुए उनसे बातचीत करना अच्छा लगता है.
वंशी माहेश्वरी.
नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में अपने आलोचना कर्म के बारे में कहा था कि मैं गया तो था कविता के मंदिर में पूजा का थाल लेकर लेकिन मंदिर की गन्दगी देख झाड़ू उठा लिया और बुहारने लगा। आलोचक की वही भूमिका होती है जो सेना में ‘सैपर्स एंड माइनर्स’ की होती है।सेना को मार्ग दिखाते, पुल-पुलिया बनाते वही आगे आगे चलता है और सबसे पहले मारा भी वही जाता है। यह भी कहा था कि आलोचक न्यायाधीश नहीं, मुकदमे के बचाव पक्ष (डिफेंस) का वकील होता है और वह भी इतना ईमानदार वकील कि मुव्वकिल से केस के संबंध में कुछ छुपाता नहीं। साफ साफ बता देता है कि तुम्हारा केस कमजोर है। फिरभी, जिरह करेंगे जीतने के लिए।वह साहित्य का सहचर है। प्रकाश मनु और नामवर सिंह के बीच का यह विशद संवाद ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए।इसमें कई महत्वपूर्ण बातें उभरकर आती हैं।उन्हें एवं समालोचन को बधाई !
आभारी हूँ भाई अरुण जी।
नामवर जी पिछले कोई पैंतालीस बरसों से मेरे मन और चेतना पर छाए हुए हैं। उन्हें खूब पढ़ा। उनके लिखे एक-एक शब्द को लेकर खुद से और अपने भीतर बैठे नामवर जी की छवि से अंतहीन बहसें कीं, यह एक अंनंत सिलसिला है।
लेकिन साथ ही मैंने उन्हें अपने गुरु के आसन पर बैठाया। ऐसा गुरु, जो शिष्य से यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ, वह मान लो। इसके बरक्स वे मेरे ऐसे गुरु थे, जो शिष्य को बहस के लिए न्योतते थे।
वे यह नहीं चाहते थे कि शिष्य ‘जी…जी’ करता उनके पास आए, बल्कि वे इस बात के लिए उत्तेजित करते थे कि आप उनके पास सवाल लेकर जाएँ। और सवालों के उस कठघरे में बैठकर जवाब देना उन्हें प्रिय था। एक चुनौती की तरह वे प्रसन्नता से सवालों का सामना करते थे।
शायद इसीलिए मेरे मन में उनके लिए इतना आदर और इतनी ऊँची जगह है, जहाँ कोई दूसरा नहीं आ सका।
और इससे भी बड़ी बात थी, उनका आत्म-स्वीकार या कनफेशन, जहाँ वे खुद अपने काम से असंतोष जताते हैं, और मानो एक तीखी आत्मग्लानि के साथ कहते हैं कि वे इससे कुछ बेहतर कर सकते थे, या कि उन्हें करना चाहिए था।
नामवर जी की इस ईमानदारी ने मुझे उनका सबसे ज्यादा मुरीद बनाया। कम से कम मैंने अपनी निसफ सदी की साहित्य यात्रा में ऐसा कोई दूसरा लेखक या आलोचक नहीं देखा, जिसने अपने काम से इस कदर असंतोष जताया हो या इतनी ईमानदारी से कनफेशन किया हो।
इसीलिए आत्मकथा लिखते हुए नामवर जी पर लिखना मेरे लिए सबसे ज्यादा चुनौती भरा था। वह लिखा गया, और ‘समालोचन’ के जरिए मेरे बहुत सारे मित्रों और सहृदय पाठकों तक पहुँचा। इसके लिए भाई अरुण जी और ‘समालोचन’ का साधुवाद।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
नामवरजी को या तो बहुत प्रशंसा भाव से देखा गया (उनके आगे-पीछे उनके शिष्यों की एक बड़ी जमात थी ) या फिर अपने पूर्वाग्रहों के कारण अति निंदाभाव से। लेकिन उनकी साहित्यि समारोहों में उपस्थिति अनिवार्य थी। ।वे एक कद्दावर व्यक्ति थे और प्रखर वक्त थे। उन्हें सुनना स्वयं को समृद्ध करना था मेरे लिए।