नरकज्ञान चन्द बागड़ी |
सुबह कोई आठ बजे थे कि सेठों का ट्रक झुग्गियों में आकर खड़ा हो गया. चारों तरफ चिल्ल-पों मची हुई थी. सभी को उनके हिसाब का कच्चा माल लिखवाया जा रहा था.
तेरा हो गया भाई सुल्तान?
हां जी मेरा हो गया.
हां भाई शंकर बोल तेरा कितना लिखना है ?
मेरे छह सैकड़े लिख दो मुनीम जी.
छह के बजाय चाहे दस ले ले शंकर लेकिन माल खराब नहीं होना चाहिए.
नहीं दे दो मुनीम जी, आपको कोई शिकायत नहीं होगी.
मुनीम जी ने छह सैकड़े दीवड़े शंकर के नाम लिख दिए.
देश में आपातकाल लगने के कोई दो बरस पहले रोजगार की तलाश में शंकर अपने बाल-बच्चों को लेकर दिल्ली आ गया था. उसके तीन भाई पहले ही ज़खीरा की झुग्गियों में रहते थे. शंकर के आठ बच्चे थे तो उसने भी भाइयों के पड़ोस में बाँस- बल्लियां गाड़कर दो झुग्गियां बना ली. दीवारों के नाम पर प्लास्टिक या बोरियां टांगी जाती थी तो आपस में कोई गोपनीयता नहीं रह पाती थी. कोई बर्तन भी गिरता था तो बगल की झुग्गी में पता लग जाता था कि पड़ोस में क्या हो रहा है. झुग्गी के बाहर कोयले की सिगड़ी पर बीच रास्ते पर ही सब खाना बनाते थे तो सबको पता होता था कि किसके यहां क्या बन रहा है.
शंकर के साथ रहने वाले कुल मिलाकर तीन-चार सौ झुग्गियों में सभी लोग मूल रूप से पूर्वी राजस्थान या दक्षिणी हरियाणा के रहने वाले थे और ठेके पर चमड़े की रंगाई का काम करते थे. लगभग सभी में आपस में कोई ना कोई रिश्तेदारी थी. इनकी झुग्गियां कर्मपुरा के गन्दे नाले के ऊपर थी और नाले के किनारे पर ही सभी ने चमड़ा पकाने के अपने-अपने कुण्ड बना रखे थे. पानी की जरूरत के लिए नाले के पास ही सबकी अपनी गन्दे पानी की कुईयां थी. भेड़ की खाल के चमड़े को तैयार करने के लिए उसे सड़ाया जाता था. सड़ाने के लिए बेगर का इस्तेमाल किया जाता था जिसे आकड़े के दूध और आटे की लोई को गर्म करके रबड़ी बनाकर खाल में लगाया जाता था और चमड़े को कुण्ड में कई दिन सड़ाया जाता था. यह बेगर जहरीले पदार्थ की तरह होता था जो चमड़े के बालों के नीचे से उन्हें चमड़े से हटा देता था. शंकर को पानी में खालों को दबाने के लिए पूरे हाथ गन्दे कुण्ड में देने होते थे जिसमें एक-एक इन्च लम्बे कीड़े तैर रहे होते थे. कई बार चमड़े को दबाने के लिए उसे कुण्ड में भी उतरना भी पड़ता था. कुण्ड पर एक परत बन जाने से बदबू कुछ दब जाती थी लेकिन जब बेगर फटती थी यानी कि पानी के ऊपर की पर्त हटाकर चमड़ा बाहर निकालते थे तो कम से कम दस किलोमीटर तक बदबू फैल जाती थी. चमड़े को तैयार करने में शंकर की पत्नी बनारसी भी साथ देती थी. कद – काठी में हट्टी-कट्टी बनारसी उसका बराबर हाथ बंटाती थी. चाहे कुण्ड हो या चमड़े को धूप में फैलाकर सुखाने का काम, वह शंकर के लिए बहुत बड़ी मदद होती थी.
इन कुण्डों के कारण तो वहां दमघोटू बदबू रहती ही थी ऊपर से नाले के दूसरी तरफ सरेस की एक बड़ी फैक्टरी थी जिसके कारण उस क्षेत्र में दूर तक हमेशा बदबू रहती थी. कोई भी नया आदमी मुंह पर कपड़ा डाले बिना उधर से नहीं निकल सकता था. उन दिनों लकड़ी को चिपकाने के लिए फेविकॉल जैसे उत्पाद तो थे नहीं इसलिए बड़े जानवरों की हड्डियों को गलाकर उन्हें पीसकर भूरे रंग का सरेस बनाया जाता था जो लकड़ी को जोड़ने के काम आता था. सरेस की यह फैक्टरी बहुत बड़ी थीं और इसमें कोई चार-पांच सौ मजदूर काम करते थे.
शंकर जिन झुग्गियों में रहता था वहां सार्वजनिक शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं थी तो सभी नाले के पास ही शौच के लिए जाते थे. पीने के पानी के लिए बरमें लगे थे जिनमें खारा पानी आता था. गन्दे नाले के कारण इतने मच्छर होते थे कि रात काटना मुश्किल हो जाता था. वहां रहने वालों को इस बदबू की इतनी आदत हो जाती थीं कि वे आराम से वहां खाना बनाते-खाते थे.
शंकर और दूसरे लोग सैकड़े के हिसाब से करोलबाग के व्यापारियों के लिए चमड़ा तैयार करते थे और सप्ताह – आठ दिन में इन्हें खर्चा लेने करोलबाग रेगरपुरा की गली नम्बर अस्सी जाना पड़ता था. एक बजे के आस पास शंकर अपनी पत्नी से कहता कि- दुफेर हो गई, रेगरपुरा जाना है खर्चा लेने.
खाना तो ये सभी लोग सुबह जल्दी ही खा लेते हैं. बस कपड़े बदलकर शंकर करोल बाग के लिए चल देता.
करोलबाग के लिए कर्मपुरा से गुरुद्वारा रोड़ के लिए बस मिलती थी. एक दिन बैसाख महीने के गर्मी के दिन थे और सूरज आग बरसा रहा था. शंकर बस में बैठकर करोलबाग जा रहा था. उन दिनों शहर में इतनी भीड़ नहीं होती थी और गर्मी के दिनों में बस में से भी खुले क्षेत्र से आसपास कमेड़ी जैसे पक्षियों की घूधू घू घूधू घू की आवाज साफ सुनाई देती थी. आजकल तो पुल बन गया लेकिन पहले शादीपुर डिपो और पटेल नगर के बीच एक रेलवे फाटक था. उस दिन उस फाटक पर जाम लग गया. गर्मी में बस खड़ी रही तो शंकर को पशीना आने से बस में बदबू फैलने लगी. लोग चिल्लाने लगे –
” बस में चूहा मरा हुआ है, कितनी बदबू आ रही है.
किसी ने कहा चूहा नहीं घूंस है. चूहे में इतनी बदबू कैसे आ सकती है ?”
देखते – देखते सारी सवारियों ने बस खाली करदी. उधर कण्डक्टर भी परेशान था क्योंकि उसने बस की सभी सीटों के नीचे झांककर देख लिया. वहां उसे कुछ नज़र नहीं आया . वह भी आश्चर्य से कहने लगा कि –
“समझ नहीं आ रहा कि बदबू कहां से आ रही है.”
शंकर के अलावा जिनको जरूरी जाना था केवल पांच – छह सवारियां ही बस में रह गई. उन्होंने शंकर को देखकर अनुमान लगाया कि हो ना हो बदबू इस इंसान में से ही आ रही है. सभी शक की निगाहों से उसे ही घूर रहे थे लेकिन शंकर को किसी की परवाह नहीं थीं और वह निश्चिंत होकर बस में बैठा था. दरअसल उसे अपने शरीर से आने वाली बदबू का कोई अंदाज़ ही नहीं था. शंकर का काला रंग, चेहरे पर चेचक के दाग और देखने में भी वह राक्षस ही लगता था. वे सवारियां उसे छोड़कर आगे ड्राइवर के पास बैठ गई. थोड़ी देर में बस के चलने से हवा लगी तो बदबू कम हो गई.
करोलबाग पहुंचकर कण्डक्टर ने शंकर को हाथ जोड़े कि महाराज उतरो , आज तो मरवा ही दिया होता.
ये बात खुद शंकर ने शराब पीकर बड़प्पन में सभी को बताई थी. गन्दी गाली देते हुए उसने कहा कि ” भाण चो मैंने सालों की सारी बस खाली करवा दी. शराब ये लोग खुद भी बनाते थे और लोग अवैध रूप से हरियाणा और राजस्थान से फुटबाल की ट्यूब में भरकर भी लाते थे. लगभग प्रतिदिन ही शाम को शराब की महफिलें जमती थीं और खूब हंसी – ठट्टा होता. वहीं पर आपसी पुराने रिश्तेदारों के विवाद निपटाये जाते और नए रिश्तों की नींव भी डाली जाती. कई बार तो भायलेचारे में शराब पीकर आपस में कोख में ही बच्चों के रिश्ते भी तय कर दिए जाते थे.
शंकर नहाता भी नहीं था. दूसरे लोग नहाते भी थे और बाहर जाने पर सेंट इत्यादि लगाते थे क्योंकि उन्हें पता था कि उनके शरीर से बदबू आएगी लेकिन बदबू फिर भी नहीं जाती थी.
रेगरपुरा में भी चमड़े की टेंडरियां थी. लोग प्रशासन से उनकी बदबू की शिकायत करते थे लेकिन उनके पास ब्रिटिशकाल के टेंडरी के लाइसेंस थे तो उनको हटाया नहीं गया. जब भी उनके कुण्डों से बेगर फाड़ते थे तो आसपास के क्षेत्र में सांस लेना दूभर हो जाता था.
सेठ शंकर को हमेशा समझाते थे कि- अरे भले आदमी कम से कम यहां आया करें उस दिन तो नहा लिया कर. देखता नहीं दूसरे लोग कहीं बाहर निकलते हैं तो नहा – धोकर सेंट लगाकर निकलते हैं.
शंकर ने उनकी इस सलाह को कभी ध्यान से नहीं सुना. उसका ध्यान तो इसी बात पर रहता कि जल्दी से उसे खर्चे के पैसे मिलें तो उसका बखत खोटी होने से बचे. उसे यह भी डर लगा रहता था कि सेठों को दिखता रहेगा तो पिछले तैयार माल में कोई ना कोई कमी निकाल ही देंगे. सेठों ने कभी भी उनकी मेहनत के पूरे पैसे नहीं दिए. हमेशा माल में कोई ना कोई कमी निकाल कर उनके हिसाब से जरूर पैसे काटे जाते थे. पैसे भी बिना कई चक्कर कटवाए दे दिए तो फिर सेठ ही कैसा. लोगों के पास कोई विकल्प नहीं था, मजबूरी में समझौता करना ही पड़ता था.
बरसात के दिनों में इन झुग्गियों की हालत और भी खराब हो जाती थी. कीड़े सड़कों पर आ जाते थे और उनके ऊपर से ही चलना पड़ता था. नाले पर लोग शौच के लिए जाते तो बरसात में फिसलकर कई लोग डूब जाते थे. शंकर के ताऊ का लड़का भी नाले में डूबने से मर गया था.
मच्छरों के कारण रात में सोना मुश्किल था. लोग बोरी जलाकर धुँवा करते और उसके पास खाट डालकर सोते थे. बोरी के कोने को पानी से भिगो दिया जाता और वह सूखता हुआ धीरे-धीरे सुलगता रहता. मच्छरों के काटने से बच्चे बिलबिलाते रहते.
कई बार कुछ लोग मच्छरों से बचने के लिए पास के मिलन सिनेमा में रात का शो देखने चले जाते थे कि कम से कम बारह बजे तक तो आराम मिलेगा. सिनेमा में एसी, पंखे चलने से इनमें बदबू नहीं आती थी. एक दिन शो के बीच में बिजली चली गई और जनरेटर में भी कोई खराबी आ गई. इन झुग्गियों के सात-आठ लोग वहां बैठे थे. गर्मी के कारण जैसे ही उनमें बदबू आने लगी सारा सिनेमा हॉल खाली हो गया.
वोटों के लालच में एक निर्दलीय उम्मीदवार पंखेवाले ने दूर से लाइन लेकर एक नल लगवा दिया तो इन लोगों को साफ पानी पीने को मिला. इनके पास बहुत बर्तन तो होते नहीं थे तो अपने नंबर को सुनिश्चित करने के लिए ये कोई लौटा या गिलास नल के आगे रख देते थे. पानी के लिए नल पर औरतों में खूब झगड़ा होता था और आये दिन उनमें चोटी-झोटा होता ही रहता था. सुबह-शाम नल पर इतनी गालियां सुनी जा सकती थीं कि उतनी तो दुनिया के किसी भी शब्दकोश में भी नहीं होंगी. झुग्गियां बढ़ गई थी तो ये लोग चुनाव के समय जो भी नेता वोट मांगता उससे यही कहते कि आप नल लगवा दो, सारे वोट आपको ही देंगे. वोटों के लालच में कई पार्टियों ने नल लगवा दिए तो पानी की समस्या खत्म हुई.
बगल में एक नगर निगम का स्कूल था तो बच्चे पढ़ने जाने लगे. शंकर का बड़ा लड़का पढ़ने में बहुत होशियार था और वह अपने भाई-बहनों की भी पढ़ाई में मदद करता था.
भेड़ के इस चमड़े का उपयोग किताबों की जिल्द बनाने तथा जैकेट बनाने में होता था. चमड़े का निर्यात भी खूब होता था. रेक्सीन के आ जाने से इस धन्धे में कमी होने लगी थीं. रेक्सीन सस्ता तो था ही उसमें रंग भी बहुत उपलब्ध थे. गन्दगी के कारण काम करने वाले भी कम हो गए. पूर्वी पंजाबी बाग़ में कोठियां बन गई तो इनकी शिकायत होने लगी. शिकायत के नाम पर अब पुलिस ने भी वसूली शुरू कर दी थी.
बदबू के कारण कर्मपुरा और आसपास के लोग इन झुग्गीवालों से बहुत नफ़रत करते थे. आए दिन कर्मपुरा और पंजाबी बाग में इनके बच्चों को अकेला देखते ही लोग पीट देते थे. पुलिस का भी यही रवैया रहता था.
हमेशा गन्दगी के पास रहने से शंकर को टीबी (क्षयरोग) हो गई और उसने खटिया पकड़ ली. छूत की बीमारी होने के कारण उसकी खाट एक अलग झुग्गी में डाल दी गई और बच्चों को उससे दूर रखा जाने लगा.
इसी समय शंकर के बड़े बेटे महेन्द्र ने अपने छोटे भाई को साथ लेकर साइकिल रेहड़ी पर घरों में घूम – घूम कर सब्जी बेचने का काम शुरू किया. एक दिन ये दोनों धूम रहे थे कि पुलिस वालों ने दोनों की जमकर पिटाई कर दी. चेतावनी देते हुए उन्हें भगा दिया कि आज के बाद इधर दिखाई मत देना . घरों में बीमारी फैलाओगे.
कोई पन्द्रह दिन बाद दोनों भाईयों ने फिर से प्रयास किया. कर्मपुरा की रिहायशी कॉलोनी में सब्जी बेच रहे थे कि उनको दो पुलिस वाले आते हुए दिखाई दिए. उन्होंने तो अपनी रेहड़ी को लेकर भागना शुरू किया. भागते हुए रेहड़ी से एक तरफ आलू जी गिर रहे थे तो दूसरी तरफ बैंगन महाराज. आख़िर में दोनों ने रेहड़ी को वहीं छोड़कर ऐसी दौड़ लगाई कि अपनी झुग्गियों में जाकर ही दम लिया. उसके बाद कभी भी सब्जी बेचने का खयाल उनके दिमाग में नहीं आया. दोनों भाई हंस हंसकर रेहड़ी से उस दिन आलू- बैंगन गिरने की बात अपनी मां को बताते थे और मां हमेशा कहती की भगवान एक दिन सबके लेखे लेगा बेटा और फिर आसमान की तरफ हाथ जोड़ पुलिसवालों को बद्दुआ देती.
शंकर के लिए कुछ भी करना मुश्किल हो गया क्योंकि उससे चारपाई से उठना भी दूभर हो गया. पत्नी के लाख समझाने पर भी बीमारी की इस हालत में उसने अपना पीना नहीं छोड़ा. मजबूरी में कुण्ड का सारा काम तो उसकी पत्नी बनारसी ने संभाल लिया लेकिन खर्चे और दूसरे हिसाब के लिए उसे कॉलेज की छुट्टी कराकर अपने बड़े बेटे महेन्द्र को करोलबाग भेजना पड़ता.
धीरे-धीरे शंकर की तबियत बिगड़ने लगी और उसके खखार में खून की गिट्टियां आने लगी. बेटे को करोलबाग जाते देखकर वह अपने आप पर बहुत झुंझलाता और उसकी आंखें भर आती. मरने से पहले एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा कि – महेन्द्र की मां तेरे आगे हाथ जोड़ता हूं मेरे बच्चों को इस नरक के काम से दूर रखना.
बच्चों के भाग्य में भी शायद यह नरक नहीं लिखा था क्योंकि शंकर का बड़ा बेटा नगर निगम के स्कूल में सरकारी अध्यापक लग गया. वैसे भी बाजार में रेक्सीन के कारण चमड़े की मांग कम हो गई थीं और दूसरा पंजाबी बाग एक महंगी रिहायशी कॉलोनी बन रहा था. लोगों की लगातार शिकायत के कारण एक दिन प्रशासन ने इन कुण्डो को बंद करने और चमड़े के काम पर रोक लगाने के आदेश दे दिए. हां, बनारसी को अभी भी इस नरक से छुटकारा नहीं मिला क्योंकि वही अपने पति की टहल करती थीं तो जाते – जाते शंकर उसे भी अपनी टीबी की बीमारी दे गया.
इन बातों को आज पैंतालीस वर्ष हो गए हैं.. वक्त ने महेन्द्र से उसकी मां को भी छीन लिया और वह अपनी नौकरी पूरी करके एक माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त होकर एक एन. जी. ओ. के लिए काम कर रहा है.
अपने ऑफिस में महेन्द्र के हाथ बहुत तेज चल रहे हैं क्योंकि उसे जल्दी से आज का काम निपटाकर समय पर पालम हवाई अड्डे पहुंचना है. संगठन की वार्षिक बैठक के लिए हैदराबाद से आने वाले अपने राष्ट्रीय संयोजक बी.वी.राव को वहां से लेकर उन्हें होटल छोड़कर बैठक की तैयारियों से अवगत कराना है .
उसे कुछ देर तो हो गईं थी लेकिन ट्रैफिक ने उसका साथ देकर कुछ समय बचा दिया और समय पर राव साहब को लेकर वे लोग होटल के अपने कमरे पर थे. होटल में राव साहब के व्यवस्थित होने पर महेन्द्र ने दो कप कॉफी तैयार की ओर कल की मीटिंग की तैयारी के विषय में राव साहब को संक्षिप्त में सब बता दिया. इसके बाद महेन्द्र के मोबाइल की घंटी बजी तो जरूरी फोन होने के कारण राव साहब से माफ़ी मांगकर वह बात करने लगा.
हैल्लो वकील साहब !
बस आपको ही फोन करने की सोच रहा था.
कल के लिए याद दिलाना था कि वो शकूरबस्ती वाले केस की तारीख है. मैं कल सारा दिन मीटिंग में रहूंगा तो आपको ही सब देखना है.
वकील साहब को अगले दिन की तारीख के लिए ठीक से समझाकर महेन्द्र माफ़ी मांगकर फिर से राव साहब से जुड़ गया.
कैसा केस है महेन्द्र जी ? राव साहब ने पूछा.
आपको शकूरबस्ती में झुग्गियों को उजाड़े जाने के विषय में बताया था ना साहब.
उन्हें हटाते हुए साधू महतो नाम के एक मजदूर के बारह साल के बच्चे की मौत हो गई थी. उस समय तो यहां की सारी सियासी पार्टियों में होड़ लग गई थी और इस बच्चे की मौत पर खूब सियासत हुई थी. मीडिया वालों की तो ऐसी खबरों में कभी दो दिन से अधिक दिलचस्पी कहां रहती है. उस समय तो पार्टियों ने इन झुग्गियों को उजाड़ने पर संसद भवन परिसर में गांधी की प्रतिमा के सामने धरना दिया और इस मुद्दे को संसद में जोर – शोर से उठाने के दावे किए गए थे. उसके बाद किसी ने इधर लौटकर झांका भी नहीं. सुबह – सुबह ही इनकी झुग्गियों को बुलडोजर से जमींदोज़ कर दिया था और कई रात बेचारे हजारों लोगों ने ठिठुरती ठंड में खुले आसमान के नीचे बिताई. उनके लिए अब सब कुछ अपना ऑफिस ही देख रहा है.
अभी सर्वोच्च न्यायालय ने भी तो रेलवे पटरियों के किनारे बसी झुग्गियों को हटाने के निर्देश दिए हैं ?
हां सर ; भारतीय रेलवे ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि दिल्ली-एनसीआर में रेलवे लाइन के साथ झुग्गीवासियों का जो अतिक्रमण है, वहां से झुग्गियां हटाई जाएं.
इनके पुनर्वास की क्या योजना है सरकार की ?
फ़िलहाल तो सारा ध्यान इनको हटाने पर ही है लेकिन कहा जा रहा है कि छह महीने तक इन्हें दो हज़ार रुपया प्रति माह का भुगतान करने की जिम्मेदारी दी जाए. कोर्ट ने अनुमति दी है कि रेलवे झुग्गीवासियो को बेदखली नोटिस दे. बेदखल लोगों से कहा है कि स्थानीय प्राधिकरण या प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पुनर्वास का प्रयास करें.
लेकिन अभी तो बस इन पर आपराधिक कार्रवाई ही हो रही है.
कुछ भी तो नहीं बदला इतने बरसों में महेन्द्र जी. राव साहब ने लंबी सांस ली.
लोग स्वर्ग और नरक की बात करते हैं लेकिन स्वर्ग और नरक कैसा होता है ये तो कोई नहीं जानता क्योंकि ऊपर जाकर कभी कोई यह बताने नहीं आया. इस बारे में केवल इनकी कल्पनाएं ही हैं. दूसरी बात है कि दुनिया में स्वर्ग और नरक सच में हैं भी या नहीं इसके बारे में भी दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन धरती पर नारकीय जीवन को जरूर हम अपनी खुली आँखों से देख सकते हैं.
बरसों पहले भी सब कुछ आज की तरह ही था. कुछ भी तो नहीं बदला. आज भी जैसे सब मेरी आंखों के सामने है, एकदम आज जैसा ही नारकीय जीवन.
यह पचहत्तर वर्षों से चल रही दुःखद कहानी है. हम अगले वर्ष आजादी के 75 वें वर्ष का जश्न मना रहे हैं. बताओ तो सही की क्या बदल गया ? जो कुछ बदला भी है, क्या वह सब पर्याप्त है ? झुग्गियां जखीरे से सरक कर सराय रोहिल्ला, शकूरबस्ती, दयाबस्ती, पटेल नगर या दिल्ली छावनी पहुंच गई हैं. आपके पिता शंकर की कहानी थी वह किसी राम सिंह या हरिया की हो गई होगी. सरकार और कोर्ट को कर दाताओं के पैसे की तो चिन्ता है लेकिन आजादी के इतने वर्ष बाद भी ये लोग नरक का जीवन जीने को क्यों मजबूर हैं, असली सवाल तो यह है. क्यों दिल्ली को विदेशी मेहमानों से इस सच्चाई को छिपाना पड़ता है. बोलते- बोलते राव साहब की सांस फूलने लगी.
महेन्द्र ने राव साहब को पानी का गिलास दिया और उनके सामान्य होने पर यह कहते हुए उनसे जाने की इजाजत मांगी कि कल मीटिंग से पहले वह उन्हें लेने आ जाएगा.
ज्ञान चंद बागड़ी विगत 32 वर्षों से मानव-शास्त्र और समाजशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन.उपन्यास , कहानी, यात्रा वृतांत और कथेतर लेखन के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखन, मासिक पत्रिका ”जनतेवर” मे स्थाई स्तंभ ”समय-सारांश” वाणी प्रकाशन, दिल्ली से ”आखिरी गाँव” उपन्यास प्रकाशित. एक यात्रा वृतांत और दूसरा उपन्यास , अंग्रेजी- हिन्दी में छपने हेतु प्रकाशनाधीन.सम्पर्क : १७२ , स्टेट बैंक नगर, मीरा बाग, पश्चिम विहार, नई दिल्ली – ११००६३ gcbagri@gmail.com/मोबाइल : ९३५११५९५४० |
हमेशा की तरह एक बेहतरीन कहानी पढ़ने को मिली । लगा मानो ये सब नज़रों के समक्ष घटित हो रहा हो। एक फ़िल्म सी चल रही हो। लेखक को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।
कथा नरक की कहानी को पढ़कर मेरी कुछ धुंधली यादें ताजा हो गई..बहुत पहले की बात है मैं मेरी जीजी के साथ हमारे गाँव के हाशिए वाले हलके में गया था जहाँ पुराने गहरे गड्ढे बने हुए थे, हालांकि वहाँ हम स्कूल के दिनों में क्रिकेट भी खेला करते थे। तो जिज्ञासावश मैंने पूछ लिया कि ये गड्ढे किसके बने हुए हैं तो उन्होंने कहा कि रैगर(एक दलित जाति) लोग इनमें जानवरों की खाल को सड़ाकर चमड़ा तैयार करते थे जिनसे जूतियाँ, चड़स इत्यादि निर्मित हुआ करते थे। उस वक्त उन्होंने भी अपने हिसाब से ठीक ठाक समझाया था । तब पहली बार इस नरक की दास्तां से परिचय हुआ। मगर आज पहली बार उनके जीवन पर कोई रचना पढ़ी, पढ़कर चमकीले चमड़े का पूरा विज्ञान अच्छे से समझ पाया हूँ। किस तरह वे लोग बहुत साधारण जीवन के लिए भी असाधारण नारकीय जीवन जीते थे, लेखक ने जीवन के इस पक्ष को बड़ी मार्मिकता एवं संवेदनशीलता के साथ यथार्थ रूप में सामने लाने का प्रयास किया है, बताया कि कहानी का नायक शंकर किस तरह सड़ी खाल में सड़ा रहकर गन्धहीन हो गया था, उसकी अपनी कोई महक नहीं बची थी। पर उसने ये सबकुछ भोगकर भी अपनी संतान को पढ़ाया लिखाया और मनसूबे में सफल भी रहा। इस तरह कहानी समस्यात्मक होने के साथ समाधान भी प्रस्तुत करती चलती है। विषय नवीन न होने पर भी कहानी में नवीनता है। बात को कहने का सलीका लेखक का अपना है, जो शहर के वातावरण को गँवई अंदाज में सजीवता तथा जीवटता के साथ अभिव्यक्त करता है। इस कहानी में दलित चेतना के साथ अम्बेडकर का प्रभाव भी दिखाया गया है जो लेखक की विविधता को दृष्टिगत करता है। कहानी में यह भी बताने का प्रयास किया है कि बदलाव होकर भी बदलाव नहीं हो पाया है, आज भी दलित को मूंछें रखने पर मौत के घाट उतार दिया जाता है। उसे घोड़ी पर बैठने नहीं दिया जाता है। कहानीकार की चिंता इस बात की है कि आखिर कुछ भी तो नहीं बदला। ये स्थिति कब बदलेंगी? कहानी का कथ्य जितना मनमोहक है वैसे ही शिल्प भी बहुत सजा धजा है, उसमें एक तरह की परिपक्वता है, भाषा सरल एवं रोचक है। हाँ कहानी के अंत में थोड़ी व्याख्या की गई है जो अनावश्यक सी मालूम पड़ती है चूँकि वह कहानी के कथानक की पठनीयता में दखल देती नजर आती है,उसके बगैर भी कहानी ने अपना काम कर दिया था। एक नवोन्मेष एवं बेहतरीन कहानी हेतु ज्ञान चंद जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
आपका अनुज
g.c. bagdi जी की कहानी पढ़ी ,अच्छी लगी | एक ऐसे यथार्थ से यह कहानी परिचित कराती है जिससे हम अनजान हैं |हम हमने कभी सोचा भी नहीं था कि जिस leather जैकेट को पहन कर घूम रहे हैं उसकों बनाने वाले कैसा नारकीय जीवन जी रहे हैं | कहानी की भाषा सहज है और कथ्य में बागड़ी जी की अनुसंधान परक दृष्टि नज़र आती है | एक और बात मुझे अच्छी लगी कि कहानी पठनीय है | शिल्प मुझे थोडा कम प्रभित करता है |
मैं इस कहानी की डिटेलिंग से चमत्कृत और अभिभूत हूं. ज़्यादातर कहानी कार अपने परिवेश को लेकर इतनी सजगता नहीं बरतते हैं और इससे उनकी कहानी प्रामाणिक बनते बनते रह जाती है. यह कहानी हमें विचलित कर देती है, और यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है. बधाई.
बहुत ही बेहतरीन कहानी लिखी है। सभी पात्र एक नाटक के रूप में दिखाई दे रहे थे। चमड़े के सामान किस प्रकार बनते है और उन्हें किस तरह नर्क भरी जिंदगी जीनी पड़ती है। बहुत रिसर्च करके इस कहानी को लिखी है आपने क्योंकि दिल्ली में रहते हुवे मुझे भी यह पता नहीं था तो सच में कहानी बहुत ही उम्दा है। बहुत-बहुत बधाई आपको और शुक्रिया की आप इतनी अच्छी कहानी हमारे सामने लाते है जो सच्ची होती है।
कहानी पढ़ी। पढ़ते हुए लगता है कि मेहनत से लिखी गई है। चमड़े की रंगाई का काम करनेवाले झुग्गी वासियों के जीवन की बारीकियाँ उस माहौल को साक्षात् कर देती हैं जिसमें पाठक खुद को उस काम और वैसे काम करने को विवश लोगों के बीच पाता है। समय बीतने के साथ झुग्गीवासियों की जिंदगी में जो नगण्य बदलाव दिखते हैं, वे विकास की इच्छा से हुए बदलाव नहीं हैं बल्कि झुग्गीवालों का फायदा उठाने के लिए हैं। कहानी इस तथ्य को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। कहानी में शंकर के बेटे महेन्द्र जैसे लोग उम्मीद की तरह नज़र आते हैं, अतः कहानी निराशावादी होने से बच जाती है। पिछली सदी से लेकर इस सदी के दूसरे दशक तक के लंबे समय और इसमें शहर के निम्नतम तबके के जीवन की गति को संतुलन के साथ रेखांकित किया गया है। अच्छी लगी कहानी।
कहानी इसी समाज की है, बांधे रखती है ..
You took out the world from the person who has seen poverty and laid it out bare!! You pinpointed the problems from alcoholism to them being brave enough to do the work that we can’t even smell!! You also proved even though it can take generations you come of poverty!! You pointed the female perspective doing equal work but still the guy going always to take the pay!!
हम गर्व से कहते हैं ये प्योर लैदर का मंहगा पर्स /बैल्ट/जैकेट/ चप्पल है। इनके निर्माण में इस्तेमाल चमड़ा किस तरह से परिष्कृत करके हमारे हाथों में आता है ।चमड़ा व्यवसाय में कार्यरत मज़दूर इंसानों को किन जानलेवा -विपरीत परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है।दिल दहला देने वाला मार्मिक चित्रण लेखक ने अपनी इस कहानी में किया है। इन मज़दूरों के जानवरों से बदतर हालात देखकर मन विचलित हो गया साथ ही व्यवस्था-मालिकों की पोल खोलती यह कहानी झुग्गी वासियों की दुर्दशा ब्यां करती मार्मिक कहानी है।लेखक को अतिशय साधुवाद!
बागड़ी जी, यह अच्छी कहानी है. अन्त तक बाँधें रखती है ,लेकिन अन्तिम पैरा से पहले राव साहब से आपने बहुत ज़्यादा एक्सप्लेन करवाया ,जो लंबा खिंच गया है और अनावश्यक सा लग रहा है,खटक भी रहा है मुझे. जबकि उसका संकेत आप एक लाईन ऊपर कर चुके है. पाठकों पर भरोसा रखिए और उनके लिए भी थोड़ा मानसिक श्रम छोडें. बाकी कहानी में ओवर ऑल डिटेलिंग सुंदर है. बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आपको
शानदार जबरदस्त जिंदाबाद 👍 सर
बहुत ही सुंदर रचना।रचना पाठकों को बांधे रखती है यही रचनाकार की खूबी है।आदरणीय बागड़ी जी को हार्दिक शुभकामनाएं।
आदरणीय बागड़ी जी का मार्मिक लेखन के लिए आभार,
आपके चिंतन व कथानक में दिल्ली के सलम्स एरिया में भारत के विभिन्न कोनो- कोनो से रोजगार के लिए आ बसे गरीब व वंचित वर्गों के अधिवास, चमडे़ का धंधा व पैशा का बडी़ बारीकी से प्रदर्शन किया है। ठीक इसी प्रकार के कई तथाकथित नरक भारत के कई भागो में अभी भी जीवित है। जो भारत की 75 वर्षों की विकास यात्रा पर सवालिया निशान खड़ी करती है। बहरहाल मोदी के नए भारत में विकास, गरीबी और रोजगार की
उम्मीद करना शंकर के लिए स्वच्छ रहने की उम्मीद करना जैसा है।
बेहतरीन कहानी….खांटी यथार्थ से रची हुई…
ज्ञानचंद जी की इस कहानी में मेहनतकश वर्ग की स्थितियों का लगभग पूरा खाका खिंचा हुआ लगता है | चर्मशोधन का जो कार्य आम समाज में गंदा और बदबूदार लगता है वह करते हुये भी शंकर अपने जीवन संघर्ष में सफल रहता है | हालांकि वह और उसकी पत्नी कहानी में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं लेकिन अगली पीढ़ी को शिक्षित बना कर वे बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं | डॉ.अम्बेडकर के शिक्षा विषयक विचार कहानी में अमूर्त रूप स्पष्ट झलकते हैं | नरक के स्वर्ग में बदलने में शिक्षा महत्वपूर्ण अस्त्र है |
समालोचन को यह कहानी प्रकाशित करने हेतु साधुवाद |
ज्ञान चंद बागड़ी जी के ‘द्वारा चित्रित नरक ‘ से होकर गुजरना मर्मान्तक पीड़ा दे गया. पीड़ा के इस सफल चित्रण के लिये बागड़ी जी बधाई के पात्र हैं.
बागड़ी सर आपने बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है।