अपनी जगह की असमाप्त खोज
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एक पक्षी असमाप्य नीलिमा में उड़ रहा है. ऊपर आकाश की नीलिमा में. नीचे देखो तो समुद्र की नीलिमा में. एक साथ. उसे दोनों को पार करना है. एक को अपनी काया से, दूसरे को अपनी छाया से. गंतव्य और आकांक्षा ज़मीन है. जहाँ पाँव टिकाये जा सकें. सबको जीवनाधिकार चाहिए. इसी धरती पर, जहाँ जन्म लिया वहाँ रहने का अधिकार. मनुष्य का पहला नैसर्गिक हक़. जीने के लिए अपनी जगह का अधिकार. जीवन की एक असमाधेय अनिवार्यता है: उसमें रहकर जीना पड़ता है. और रहने के लिए जगह चाहिए.
इस धरती पर पहला अधिकार किसका है? कौन है सर्वोपरि? किसी देश का प्रमुख, सर्वाधिक अमीर, कोई विश्व विजेता या सबसे निचले पायदान पर खड़ा मनुष्य? कौन ज़्यादा ज़रूरतमंद है. चारों तरफ़ देखें, इतिहास देखें, वर्तमान पर निगाह डालें तो पता चलता है कि जिसके पास सब कुछ है, वही तो सबसे ज़्यादा ज़रूरतमंद है. धरा पर यही विडंबना विशाल होती चली हो गई है कि जो शक्तिशाली है, संपदा संपन्न है वह हरदम कमज़ोर को, विपन्न को हकालता रहता है. महाभारत जैसे उदाहरणों के बावजूद कोई किसी को सूई की नोक भर ज़मीन नहीं देना चाहता. बल्कि हर जगह उस से कहा जाता है कि तुम यहाँ से जाओ. तुम यहाँ नहीं रह सकते. तुम यहाँ के निवासी नहीं. जिधर धकेला जाता है, उधर कहा जाता है तुम हमारे नहीं. तुम कहीं और जाओ. उत्तरी ध्रुव जाओ या दक्षिणी ध्रुव पर. लेकिन आदमी ध्रुवीय भालू नहीं है, पेंगुइन भी नहीं है. उसे अन्य मनुष्यों के साथ, मनुष्यों की तरह रह सकने लायक़ ज़मीन पर जीवित रहना है. उसे जगह चाहिए. यह न्यूनतम ज़रूरत है. कोई विस्थापित कहाँ जाएगा. जब हर तरफ़ बाड़ है. परकोटा है. बंदूक़ है. पीछे खाई है, आगे कुआँ. विगत एक बंद दरवाज़ा है. आगे कोई दरवाज़ा नहीं.
पीछे बँधे हैं हाथ मगर शर्त है सफ़र.
(दो)
हम विस्थापित हैं. क्योंकि युद्ध हुआ. दंगा हुआ. नरसंहार किया गया. क्योंकि कुछ लोगों ने हमसे नफ़रत की. क्योंकि कुछ लोगों को हमारी संपत्ति चाहिए थी. कुछ को सत्ता. कुछ लोगों को असीम जगह चाहिए थी. क्योंकि हम सुदूर स्थानों पर चुपचाप अपना जीवन जीते थे लेकिन वे हमें किसी तौर पर मनुष्य मानने के लिए तैयार नहीं हुए. इसलिए हमसे दूसरे आदमी ठीक तरह बात नहीं करते. हम अवांछित घोषित किए जा चुके हैं और तय कर दिया गया है कि हमसे अब केवल सेना या पुलिस बात करेगी. निबटेगी. मगर जो हथियारबंद होते हैं उनके पास बात करने लायक़ कोई भाषा नहीं बचती. जिनके पास अस्त्र-शस्त्र होते हैं उन्हें निर्बल, निहत्थे मनुष्यों से संवाद की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती. बातचीत के लिए धाँय के अलावा उनके पास कोई और तरीक़ा नहीं.
क्या हुआ जो हम बीमार हैं. बच्चे हैं. बुज़ुर्ग हैं. तकलीफ़ों से घिरी औरतें हैं. हमसे एक ही अपेक्षा है, एक ही आदेश है: पन्नी या झोले में अपना सामान भरें और जाएँ यहाँ से. पैदल जाएँ. नाव में. तैरकर या घिसटते हुए. पीछे पुलिस है, आगे सेना मिलेगी. बीच में दलाल हैं. वे इस नरक से निकालकर उस नरक में ले जाने का वचन देते हैं. और आश्वासन भी कि वहाँ यहाँ से बेहतर होगा. बिचौलिए अब दुसाध्य साधन हैं. ऐसा सहारा जो बाक़ी के सहारे भी छीन लेते हैं. लोग मुहावरे में कहते हैं कि जीवन चलने का नाम है. हम इसे अति-यथार्थ में समझ पा रहे हैं कि थक जाएँ तो भी बैठा नहीं जा सकता. थमे या बैठे तो गोली लग जाएगी. हमारा चलना हमारी विवशता है. यह अविराम है. हमें हमारी मंज़िल का नहीं पता. यह बंदूक़ की नोक पर चलना है.
एक शब्द में हमारा परिचय : हम परित्यक्त हैं. हमें नदी-नाले, पथरीले रास्ते, पठार, कीचड़, खेत, जंगल, आश्वस्तियों को पार करके उधर जाना है जिधर कोई नहीं, सिर्फ़ वीरानी है. उस वीराने में भी सैनिक तैनात हैं. कटीले तारों की ऊँची बाड़ है. हमारे लिए हर तरफ़ रोक है. हम सीमाओं पर सीमाओं के खुलने की प्रतीक्षा में खड़े हैं. प्लेटफ़ार्म पर हैं, पटरियों पर, अँधेरों में. सन्नाटे में, बोगियों में, सड़कों पर, बंबों में. कहीं नहीं के इंतज़ार में. पेड़ के नीचे, खुले आसमान तले, तंबुओं के साये में. मौसमों के शिकार. बारिश में भीगे. धूप से दग्ध. शीत हमारे फेफडों में जम चुका है. हमारे पिंजर जर्जर है. ‘नो मेन्स लैंड’ में हम एक गिलास पानी, एक रोटी, एक कप सूप के लिए बरसों से ऐसी कतारों में लगे हैं जो बढ़ती ही चली जा रही हैं. उम्मीद बस इतनी है कि सारे मनुष्य नफ़रत करनेवाले नहीं हो सकते. सारे देशों के मुखिया इतने अमानवीय और क्रूर नहीं हो सकते. इसलिए हम अपनी कथा कह पा रहे हैं या फिर किसी न किसी के मन में बसी संवेदना हमारी कहानी कह देती है.
हमारी समस्या घृणा की राजनीति है. इसलिए हम हर जगह से निष्कासित हैं. हम आसमान से नहीं टपके हैं, इसी धरती के रहवासी हैं लेकिन हमें एक मनमाने कानून ने शरणार्थी बना दिया. एक इकतरफ़ा दलील ने और कई बार छोटे-से वक्तव्य ने. एक भाषण ने. हम परजीवी नहीं थे लेकिन हमें परजीवी कहकर ही परजीवी बनाया गया. वे हमें विस्थापित करते हैं, हमारे घरों, मवेशियों और हमारी संपत्ति को नहीं. यह राजनीति की हड़प नीति है. वे कहते हैं कि आप उधर पूरब में जाइए या पश्चिम, वहीं आपकी जगह है. हम तस्करों के भरोसे हैं. हम मनुष्य नहीं तस्करी का सामान हो गए हैं. उस तरफ़ पहुँचकर पता चलता है कि वहाँ के कानून भी अचानक बदल गए. तब हमें किसी सामान की तरह ज़ब्त कर लिया जाता है.
हम ज़मीन पर चले तो चलते-चलते मारे गए. पानी के रास्ते चले तो बीच धार में डूब गए. आकाश मार्ग से केवल हमारी इच्छाओं ने सफ़र किया. हम जहाँ पहुँचे, आधे-अधूरे पहुँचे. हज़ार चले तो ढाई सौ पहुँचे. खंडित होकर, सब कुछ गवाँकर पहुँचे. जो बिछुड़ गए वे हमारी नींद में हैं और हमारे सपनों की अनिद्रा में बने रहते हैं. उन्हें वापस पाया नहीं जा सकता. जो हमारे पास बचे रह गए हैं, उन्हें हम खोना नहीं चाहते. इतना ही संघर्ष है लेकिन हमें हर जगह दुत्कारा गया. न हमें जन्मात्री रखती है, न विमाता. तमाम तरह के राष्ट्रपिताओं ने हमें मातृहीन कर दिया है.
यह मज़ाक़ नहीं हैं, नियति नहीं है. राजनीति की अमानवीयता है. षडयंत्र है. हम एक विशाल चलित अनाथालय में रहने के लिए अभिशप्त हैं. इस आकाश के नीचे हमारे लिए केवल तीन, चार या छह मौसम नहीं हैं. एक मौसम में कई तरह के असहनीय मौसम हैं. सप्ताह में सात दिन नहीं, अनगिन दिन हैं. महीने में सैंकड़ों महीने और एक बरस में कई बरस हैं. हम वे तालाब हैं, झरना हैं जिन्हें एक प्याले में समेट दिया गया है. जहाँ जाते हैं, वे देश कहते हैं कि हम कितने शरणार्थियों को जगह देंगे. हमारी भी सीमा है. उनका कहना सही है. फिर ग़लत कौन है? हम अपराधी हैं तो हम पर मुक़दमा चलाओ, हमें सज़ा दो. और अपराधी नहीं है तो हमें रहने की जगह दो. कहीं तो दो.
(तीन)
जब जीने के लिए कोई देश नहीं तो हमसे कहा गया है कि जाओ, मरने के लिए कोई दूसरा देश चुन लो. हमारे पास तो वैसा चुनाव करने की हैसियत नहीं. हम अपनी इस वसुधैव कुटुंबकम की धरती पर चलते चले जाते हैं, चलते हैं तो बीच में कोई न कोई देश आ जाता है. बच्चे तो बच्चे हैं, जब तक उनके माँ-बाप हैं वे शरणार्थी होना नहीं समझते. वे हर जगह अपने खेल खोज लेते हैं और खेलते रहते हैं: काग़ज़ से, पॉलीथीन से, टेंट की रस्सी से, मिट्टी से, कीड़ों से. ज़मीन की घास से, आसमान के बादलों से. रात में सितारों से या चाँद से या अँधेरे से. परछाइयों से. शरणार्थी भी आख़िर हैं तो मनुष्य. जहाँ रहेंगे, वहाँ मानवीय गतिविधियाँ शुरू हो जाती हैं. नित्यकर्म की तरह. साँस लेने की तरह.
यह एक साधारण देश है. लेकिन हमारे लिए असाधारण. यहाँ की राजकुमारी के विचार सुनिए: हम शरणार्थियों को सताये हुए, वंचित, दु:खी और निरपराध मानते हैं. हम उन्हें मनुष्य होने का गौरव देना चाहते हैं, तरस भरी दया नहीं. हम जानते हैं कि कई देश अपने लोगों, अपने ही नागरिकों को शरणार्थी बनाते हैं. जैसे उनका काम शरणार्थियों का उत्पादन हो. हमारा जितना वश चलेगा, हम उतने लोगों को अपने यहाँ जगह देंगे. उन्हें सुविधाएँ देंगे. और आशा करेंगे कि उनके देश एक दिन उन्हें वापस बुलाएँ. या संसार के देश मिलकर उनके लिए समाधान खोजें. हो सकता है वे आगामी कई वर्षों तक विस्थापित ही बने रहें लेकिन उनके प्रति मानवीय स्वीकार्यता ज़रूरी है. मनुष्य की मनुष्य द्वारा निर्मित आपदाओं के प्रति कोई संवेदनहीन है तो यह ख़तरनाक है, अमानुषिकता है, क्रूरता है. वैश्विक रूप से हम सामाजिक प्राणी हैं और दूसरों की तकलीफ़ों से न तो मुँह मोड़ सकते हैं और न कोई बहाना बना सकते हैं.
ऐसे ही कुछ देशों, आदमियत से भरे लोगों, मानवाधिकारी संस्थाओं या निजी प्रयासों के सहारे हम अनेक विस्थापित, निष्कासित जन जीवित बने हुए हैं. एक मारता है, एक जिलाता है. मारनेवाला ताक़तवर कहलाता है. बचानेवाला कमज़ोर. यह कैसे परिभाषा उलट गई है. अपना ही देश शत्रु हो जाता है. एक दूसरा समाज आगोश में लेता है. इस दरमियान लाखों लोग अपना सब कुछ खो देते हैं. यदि बचा रहता है तो टूटा-फूटा, कटा-पिटा जीवन और आशा का चीथड़ा. इसमें कुछ भी दैवीय नहीं है, बस, यह संसार सुंदर-असुंदर विचित्रताओं से बनता चला गया है, जिसमें किसी के असीम लालच की कामना असंख्य लोगों को संकट में डाल देती है.
वे हमें बहुत दूर तक धकेलते हैं. हाँककर ले जाते हैं जैसे हाका करके. रास्ते में हमारी स्त्रियों, बच्चियों के साथ बलात्कार होना सबसे वहशी लेकिन सबसे मामूली घटना है. उधर चलो, वहाँ जगह मिलेगी. वे बंदूक़ की नली से इशारा करते हैं. फिर बिचौलिए ग़ायब हो जाते हैं. उस तरफ़ पहुँचकर पता चलता है कि अब किसी शरणार्थी को स्वीकार नहीं किया जा सकता. तारों की बाड़ें ऊँची कर दी गई हैं. एक पक्षी उस बॉर्डर के नुकीले तारों के जाल में फँस गया है. वह तड़प रहा है और मर रहा है. हम उसे देखते हुए ख़ुद को देख रहे हैं. सरीसृप, कीड़े-मकोड़े हमारे साथ रह सकते हैं लेकिन यह कैसी घृणा है, कौन-सी राजनीति जो मनुष्यों को बर्दाश्त नहीं करती. हमसे कहीं अधिक एक कुत्ता सम्मानित है. कुत्ते हमारा पीछा करते हैं. कुत्ते हमारा न्याय करते हैं. कुत्ते इसलिए ही प्रशिक्षित हैं. अब हमें डिपोर्ट किया जाएगा. मुनादी है: ख़ुद जाओ या गिरफ़्तार करके हम भेजेंगे. हम कहाँ जाएँ? हम महीनों से भटक रहे हैं. हमें यतीमख़ाने ही भेजना है तो वहाँ भेज दो.
यह पॉलीथीन का, पन्नियों का घर है. हम कचरे के बीच रहते हैं. हमारे भीतर भी ख़ून दौड़ता है, एक हृदय है, एक यकृत, दो किडनी हैं. हम भी साँस लेते हैं. दो हाथ हैं, जिनसे श्रम करते आए हैं. अब हमें इस वसुधा का कचरा मान लिया गया है. लेकिन आप ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि आप हमारे मलबे पर बैठे हैं. और किसी मुहावरे में नहीं, अब आसमान ही हमारी छत है. हवाएँ हमारी दीवारें हैं. और ज़मीन हमारा स्वप्न. हम एक ऐसे खुले में हैं जहाँ हमारा खाना, पीना, रोना, हँसना, दिन-रात सब कुछ खुले में है. प्रागैतिहासिक लोगों के पास तो गुफाएँ थीं, पत्थरों की ओट थी, हमारे पास उतना भी नहीं. हमारे पक्ष में कुछ नहीं है. हम पर बाक़ी तमाम लोगों की शर्तें लागू हैं, हमारी कोई शर्त नहीं. यदि हमारे हिस्से की सौ वर्ग फ़ुट जगह भी है तो वह कहाँ है? हम तो उजाड़-सी, अनुपयोगी जगह में भी नहीं रह सकते. वहाँ खरपतवार उग सकती है, घास लहरा सकती है, कीट-पतंगे रह सकते हैं, बस निराश्रित नहीं रह सकते.
(चार)
आप ठीक कह रहे हैं- शरणार्थी होने के लिए भी काग़ज़ लगता है. क्या आपने कभी इस वजह से पासपोर्ट तस्वीर खिंचवाई है कि आप शरणार्थी की तरह ज़िंदा रह सकें? तो फिर आप यह कैसे समझेंगे कि यदि काग़ज़ नहीं है तो उसी क्षण शरणार्थी के रूप में भी जीवित रह सकने की अनुज्ञाएँ, अधिकार, सारी आशाएँ नष्ट हो जाती हैं. दया, सांत्वना और कृपा की सरकारी मीनारें गिर जाती हैं. बिना इसके कहीं कोई छोटा-मोटा काम भी नहीं मिल सकता. हमारी कोई दूसरी पहचान बची नहीं है. हम किसी समाज की जनसंख्या में, फलन में, योग में, गणना में शामिल नहीं. हम विभाजक रेखाओं पर खड़े हैं. यह इस सभ्यता का नया अंकगणित है, नया बीजगणित. नयी ज्यामिति. हमारा निवेदन है कि अब कम से कम कचरे के इस ढेर को यहाँ से मत हटाइए. हम इसी घूरे से जीवित हैं. जो तुम्हारे लिए विष है, हमारे लिए अन्न है. हमारे लिए सत्य केवल एक जो कि दु:खों का क्रम है.
एक वर्ग किलोमीटर में हम एक लाख लोग रहते हैं. हमें उतनी जगह, उतना प्रकाश, उतनी हवा भी हासिल नहीं जो एक छोटे-से गमले में पाँच पौधों को मिल जाती है. हम एक क़दम भी आगे बढ़ाते हैं तो हमारे रहने की जगह ख़त्म हो जाती है. फिर याद दिलाएँ कि हम महामारियों, राजनीतिज्ञों, धार्मिकों, सैनिकों और कार्पोरेटी पूँजीपतियों द्वारा भगाए गए लोग हैं. हम घृणा, ईर्ष्या, द्वेष के सहउत्पाद हैं. हम आपकी तथाकथित सभ्यता द्वारा नष्ट किए गए हैं. हमें अपने जगंलों में और पूर्वज चट्टानों के बीच भी नहीं रहने दिया गया. अब बताया जा रहा है कि हम घुसपैठिए हैं, चोर हैं, नाकारा हैं. जिस बस्ती के पास रहेंगे वहाँ के लिए ख़तरा हैं. हर जगह अवांछित हैं जबकि हम तुम्हारी लिप्सा की संतानें हैं. तुम्हारी वासना, असहिष्णुता और अमानवीयता की. लेकिन तुम हमें अवैध घोषित कर चुके हो. हम भोजन-पानी सहित तमाम न्यूनतम सुविधाओं में जी रहे यानी मर रहे हैं, यह इतना कठिन नहीं है जितना यह कि अब हम बिना उम्मीद के रहने लगे हैं. कहने को हम शरणार्थी हैं मगर हमें कोई शरण में नहीं लेता. क्या यह पृथ्वी शरणदाताविहीन हो गई है? हम भुजा उठाकर कहते हैं कि किसी को विस्थापित कर देना सबसे बड़ी क्रूरताओं में से है. यह एक साथ उजाड़ना, लूटना, असहाय और संज्ञाहीन कर देना है.
हमारे पास भविष्य नहीं है लेकिन अतीत तो रहा है. हमारे घरों को आग लगा दी गई, हर तरह से बेइज़्ज़त किया गया और खदेड़ दिया गया. यह समर्थ समझा जानेवाला संसार हमारी तरफ मुँह बाये खड़ा है. जैसे हम कोई अचंभा हैं. जबकि अजूबे और अचंभे तो आप हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ है. तमाम देश हैं. महान संस्कृतियाँ हैं. ये उपदेशक हैं. इधर हमारा भूगोल, हमारी संस्कृति स्मृति में भी क्षीण होती चली जा रही है. अब हम जैसे किसी बुलबुले में रहते हैं. वह क्षण भर में फूट जाता है. फिर हम एक दूसरे बुलबुले में रहने लगते हैं. वह भी अगले पल फूट जाता है. हर क्षण नष्ट होते हुए बुलबुलों पर कोई सतरंगी मरणशील छाया भी नहीं बन पाती. फिर पता चलता है कि वे बुलबुले भी हम ही हैं. धार्मिक किताबों, झूठे इतिहास के कु़तुबनुमाओं से शरणार्थियों के लिए जगहें तामीर की जाती हैं. हर देश में एक गाज़ा पट्टी बना दी जाती है. उनके नाम भाषाओं में कुछ भी हों मगर वह एक अमर गाज़ा पट्टी ही होती है. उनका धर्म कुछ भी हो, उसके नाम पर दूसरे धर्म के लोगों को विस्थापित कर दिया जाता है. इसलिए संसार में हर धर्मों के शरणार्थी पाये जाते हैं. ये कंक्रीट की दीवारें हैं, ये लोहे के कपाट हैं, यह काँटों से लबरेज़ खाइयाँ हैं, ये सब घृणा के रूपाकार हैं. बिंब हैं. रूपक हैं. इन्हें आप कैसे मिटाएँगे. असमाप्य घृणा उन्हें फिर बना देगी. यही कारण है कि एक ताक़तवर सिपाही अपनी नफ़रत में आम नागरिक के जूतों में पेशाब करता है तो मौक़ा देखकर वह नागरिक उस सिपाही की चाय में. घृणा का दुष्चक्र होता है. फिर वह पूरी दुनिया में एक ‘ऑटो इम्यून’ बीमारी में बदल जाती है.
(पाँच)
यह दुनिया इसलिए सुंदर नहीं बन पा रही है क्योंकि अपने ताज़ा इतिहास से भी कोई शिक्षा नहीं लेता. जैसे क्षमाभाव नहीं, प्रतिकार ध्येय है. जिन्होंने नस्लीय अत्याचार सहे, जो प्रताड़ित रहे, वे भी अंतत: अत्याचारी हो जाते हैं. वे भी धर्माधारित, जातीय भेदभाव करने लगते हैं. देखो, ये खिलखिलाती हुईं दस लड़कियाँ हैं. ये गाज़ा नामक पिंजरे में बंद हैं. या कहें अघोषित खुले कारागार में. इनके लिए कोई अपनी सीमाएँ खोलने तैयार नहीं. न ईसाई, न मुस्लिम, न यहूदी. जिन यहूदियों ने अभी-अभी प्राणांतक दु:ख सहे, वे अब उसी तरह के अमानवीय, नृशंस कृत्य फ़िलीस्तीन के साथ कर रहे हैं. ये लड़कियाँ जानती हैं कि उनका कुछ भी कहना, कुछ भी करना ईशनिंदा की परिभाषा में चला जाएगा. ये सुंदर, सक्षम पक्षी हैं, ये उड़ना चाहती हैं, इनके पास पंख हैं मगर इनके पास आकाश नहीं है. इनके आसमान में पाबंदियाँ हैं. मिसाइलें हैं, बमवर्षक विमान हैं. बारूद है. ये दुनिया घूमना चाहती हैं, जीवन में एक बार क्रूज़र में बैठना चाहती हैं लेकिन एक ध्वस्त संसार में रहने के लिए अभिशप्त हैं. ये बिना पापकर्म किए, निरपराधी नरकवासनियाँ हैं. ये फिर भी हँस रही हैं, चहक रही हैं लेकिन इस हँसी में शरणार्थी होने की विवश पीड़ा झंकृत है. इस चहचहाट के पीछे वेदनासिक्त श्वासें है. टीस उठाती हुईं उज्ज्वल मुस्कराहटें. जिजीविषा से भरी. इन्हें देखकर किसी को भी अपने घर-परिवार, पुरा-पड़ोस की लड़कियाँ याद आएँगी. महाविद्यालयीन पढ़ाई के बाद अब ये एक साथ, आख़िरी बार मिल रही हैं. ये सहपाठी सहेलियाँ हैं. यह इनका अंतिम ग्रुप फ़ोटो है. क्या यह हमारी शताब्दी का भी ख़ुशनुमा आखि़री ग्रुप फ़ोटो है?
ज़मीन पर खिले रंगबहुल इंद्रधनुष की अंतिम तस्वीर?
शुक्ल पक्ष में इनके जीवन की रात चाँद के भरोसे कटती है. कृष्ण पक्ष में सितारों की टिमटिमाहट के सहारे. तुमने इन्हें मार दिया है, बस, ये लोग तुम्हारी तरह मरना भूल गए हैं. तुम जीवित रहकर भी जीवित आदमी की तरह नहीं रहते हो, यह मरकर भी नहीं मरते हैं. गाज़ा पट्टी के ये दृश्य उदाहरण भर हैं. संसार में सब तरफ़ ऐसे दृश्य बिखरे पड़े हैं. अधिकांश जगहों पर वीभत्स.
उधर रेगिस्तान की तरफ़ शरणार्थी चले गए हैं, यह सोचकर कि यह मरुप्रदेश है, यहाँ शायद कोई नहीं रोकेगा. शरणार्थी को किसी मरुथल में रहना पड़े तो वह अपनी नियति को जैसे बेहतर ढंग से चरितार्थ करता है. रेत के बगूले इनका पीछा करते हैं. यह उड़ती रेत का समंदर है. बारीक़ धूल इनके साथ एकाकार है. ये भी उसके साथ बने रहते हैं. ज़्यादा ज़ोर की आँधी उठती है तो ये रेत के ढूहों की तरह रेगिस्तान के किसी दूसरे हिस्से में उड़कर एक नये ढूह में बदल जाते हैं. सभ्यता की दुनिया का कोई नख़्लिस्तान इनके लिए नहीं है. इनके हिस्से में मरीचिका है. मरुभूमि से भी ये खदेड़े जा रहे हैं.
(छह)
सूखा, बाढ़, जलवायु परिवर्तन, बीमारियाँ, अकाल तो पशुओं, पक्षियों का भी विस्थापन कर देते हैं. विस्थापित आदमियों को जिन देशों ने भी मानवीय आधारों पर शरण दी, वे ही एक दिन अपनी आंतरिक राजनीति के कारण इन्हें बाहर कर देते हैं. वर्षों तक रहने के बाद अब आप अपना सामान ट्रकों में रखो. अपने हाथों से अपने अस्थायी घरों को गिराओ, मिट्टी को मिट्टी में मिलाओ और उन जगहों की तरफ़ जाओ जो तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रही हैं. हम आपको आपके मूल देश की सीमाओं तक छोड़कर आएँगे. फिर आप असीम हो जाएँगे. जाओ, कि वही तुम्हारा मूल निवास रहा है. तुम जानते हो कि तुम कहीं नहीं के मूल निवासी हो. यहाँ तुम इतने बरस रह लिए कि तुम्हारे बच्चे पैदा हुए, बड़े हुए, उनके भी बच्चे हुए. अब तीन पीढ़ियों से एक साथ कह रहे हो, जाओ अपने मूल निवास में जाओ. यहाँ रहना है तो चार पीढ़ी पुराने काग़ज़ लाओ. यह असंभव है. लेकिन तुम्हें जाना होगा. यह निष्कासन है. जिधर जा रहे हो, उधर प्रेम मिलेगा, करुणा, दया या घृणा, पता नहीं. गोलियाँ भी मिल सकती हैं. यह संसार राइफ़लों, टैंकों, बमों, रॉकेटों और रैकेटों के भरोसे चल रहा है. घिसट रहा है. मार रहा है और मर रहा है.
इसी धरती के इन बेवतनों का सड़कों पर कारवाँ चला जा रहा है. ये धूल का ग़ुबार हैं. ये कहीं के नहीं हैं. इनकी कोई मातृभूमि नहीं है. ये बंजारे नहीं. ये घुमंतू भी नहीं है. ये दरअसल एक संभ्रम हैं, यूटोपिया हैं- रहने को घर नहीं, कहने को यह सारा जहान हमारा है. ये बताते हैं कि अब हम अपने चेहरों से ज़्यादा मील के पत्थरों पर लिखी संख्याओं को पहचानते हैं. हमें तर्जनी से राह नहीं दिखाई जाती, संगीनों से इशारा किया जाता है. उधर. उस तरफ़. हाँ, उसी दिशा में, जिधर कोई पगडंडी भी नहीं दिखती.
हमें हर महाद्वीप, हर देश उजाड़ता है. मेयर, सांसद, तानाशाह उजाड़ता है. उद्योगपति, बिल्डर, ठेकेदार उजाड़ता है. जो भी शक्तिसंपन्न हो जाता है, वही हमें विस्थापित कर देता है. फिर हमसे हर कोई पूछता है कि हम उजड़ क्यों गए. कैसे उजड़ गए? हम क्यों हिंसक हो गए. हम क्यों जाहिल हैं? हमारे पास जवाब इतना ही है कि हम ग़रीब हैं. हम शिकार हैं. हम कई बार विस्थापित हुए क्योंकि हमने हर बार विस्थापन का विरोध किया. अब हम कुछ नहीं हैं, शरणार्थी हैं. यही एक शब्द सभी बातों का उत्तर है. कोई हमारा विश्वास नहीं करता. निर्बल पर कौन विश्वास करता है. और जो एक बार विस्थापित हो जाता है फिर वहाँ वापस भी जाये तब भी विस्थापित ही बना रहता है. लोग अपने गाँव लौटकर देखते हैं कि उनकी ज़मीन, घर और उनकी धूप, पानी, हवा को दूसरे लोगों ने आपस में बाँट लिया है. ये प्रवासी पक्षी भी नहीं हैं कि उड़कर किसी दूसरी जगह चले जाएँ. वे जीवन भर एक चीज़ खोजते हैं, उसके लिए भटकते हैं: नागरिकता. वही उन्हें नहीं मिलती. उन्हें दूसरों के युद्ध ने, दूसरों की महत्त्वाकांक्षाओं, अप्रबंधित आपदाओं, रातों-रात बनाये कानून ने, एक अध्यादेश ने, मिथकीय व्याख्याओं, सरकारी संरक्षण में काटे गए जंगलों और खोद दिए गए पहाड़ों ने, विशाल बाँधों ने विस्थापित कर दिया है. एक पंक्ति की नीति लाखों लोगों के लिए अनीति हो जाती है.
यह विकास का प्रमेय है: अप्रमेय.
(सात)
आपके पास यहाँ तक भी हम दरारों से, सुरंगों से, कोहरे से निकलकर आए हैं. रक्षकों को, नेताओं को, सीमांत के ग्रामवासियों को अपना बचा-खुचा पैसा, माल-असबाब देकर आए हैं. नंगे हाथ, भारी हृदय और ख़ाली आशा लिए. प्रबिसि नगर कीजे सब काजा. लेकिन हमारा कोई काज सफल नहीं होता. हम इस धरती के चीथड़े हैं. हिलते-डुलते लत्ते. चलते-फिरते. अब इस न्यूनतम उम्मीद के साथ कि अगले दिन के सूरज के साथ कुछ तो हमारा भी हिसाब होगा. अभी हम बीच वैतरणी में हैं, यह हमारे ही ख़ून, हमारे घावों के रिसते पदार्थों से बनी है. ये घाव हमारे हैं लेकिन दूसरों द्वारा दिए गए हैं. हमारे पक्ष में कितने चार्टर, नियम, अधिनियम, अनुशंसाएँ और अंतर-राष्ट्रीय कानून बनाए गए, लाखों लोग हमारे नाम पर नौकरी कर रहे हैं, चंदा वसूल रहे हैं लेकिन हम यहाँ हैं जहाँ बस्तियों से रसोई बनाने का धुआँ नहीं उठता, आदमियों को आग के हवाले कर दिए जाने का धुआँ उठता है.
यहाँ त्वचा जल रही है या गल रही है.
अब तो और तरीक़े चलन में आ गए हैं. क्रेन आ गई हैं, भीड़ आ गई है, बुलडोज़र आ चुके हैं. उनके जबड़ों में फँसे हुए टपरे हैं, फ़सलें हैं, दुकानें हैं, मकान हैं. हर नगर में भागती हुई, पिटती हुई बदहवास एक आबादी है जिसके लिए अनामिका रखने भर के लिए कोई ज़मीन नहीं. यदि अपने अधिकार माँगेंगे तो मुक़दमा हो जाएगा. धाराएँ लग जाएँगी. मौक़े पर वारदात हो जाएगी यानी अंतिम फ़ैसला हो जाएगा. संसार में जितने चौधरी, सरपंच, न्यायाधीश की भूमिका निबाहनेवाले हैं, लड़ाई-झगड़ा सुलझाने का दम भरनेवाले हैं, खनिज खोदनेवाले, ओजस्वी राष्ट्राध्यक्ष हैं वे ही शरणार्थियों के, विस्थापितों के जनक हैं. उनके क़रीब मैदानों में लाशें पड़ी रहती हैं, आसमान उन्हें देखता है. बादल काले पड़ते चले जाते हैं लेकिन धरती के ये लोग उन लाशों के बग़ल से गुज़रते हैं और उज्ज्वल बने रहते हैं. किसी को उजाड़ देने का उत्सव मनाता है. हज़ारों लोगों को एक साथ वनवास दिया जा चुका है, उस वनवास की कोई अवधि नहीं है. दुंदुभि बज रही है. जो पीड़ित है, निराश्रित है, उसे अपराधी घोषित कर दिया गया है. यही उन्नत निज़ाम है. हासिल है. प्रगति है. सूचकांक है.
लोमड़ियों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोंसले परंतु मानव पुत्र के लिए सिर छिपाने को भी अपनी कोई जगह नहीं. (-सन्त मत्ती, 8:20)
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यथास्थान प्रयुक्त ताज़ भोपाली, नारायण सुर्वे, मुक्तिबोध, नाज़िम हिकमत, नासिर इब्राहिम, साहिर लुधियानवी, तुलसीदास और बाइबिल की पंक्तियों के लिए आभार.
Movie/Documentary: Human Flow, 2017/ Director: Ai Weiwei
कुमार अम्बुज जन्म: 13 अप्रैल 1957, ग्राम मँगवार, ज़िला गुना
प्रकाशित कृतियाँ-कविता संग्रह: ‘किवाड़’-1992, ‘क्रूरता’-1996, ‘अनंतिम’-1998, ‘अतिक्रमण’-2002, ‘अमीरी रेखा’-2011, ‘उपशीर्षक’- 2022. कविताओं का चयन ‘कवि ने कहा’-2012, किताबघर से. राजकमल प्रकाशन से ‘प्रतिनिधि कविताएँ’- 2014.कहानी और अन्य गद्य: ‘इच्छाएँ’-2008.‘थलचर’- 2016.‘मनुष्य का अवकाश’-2020.कहानी संग्रह: ‘मज़ाक़’ और चयनित फ़िल्मों पर निबंधों का संकलन ‘आँसुओं का स्वाद’ शीघ्र प्रकाश्य.‘वसुधा’ कवितांक-1994 का संपादन. गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’- 2002 का नियोजन एवं संपादन. अनेक वैचारिक बुलेटिन्स और पुस्तिकाओं का भी प्रकाशन, संपादन. हिन्दी कविता के प्रतिनिधि संकलनों एवं कुछ पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल. साहित्य की शीर्ष संस्थाओं में काव्यपाठ, बातचीत तथा वक्तव्य. कविताओं के कुछ भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद तथा संकलनों में कविताएँ चयनित.कवि द्वारा भी कुछ चर्चित कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित. ‘विश्व सिनेमा’ से कुछ प्रिय फ़िल्मों पर अनियत लेखन. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार(1988), माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,(1992), वागीश्वरी पुरस्कार(1997), श्रीकांत वर्मा सम्मान(1998), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान(1998), केदार सम्मान(2000). संप्रति निवास- भोपाल. kumarambujbpl@gmail.com |
कुमार अम्बुज का यह आलेख मनुष्य होने के सारे दावे और ‘अहंकार’ को चकनाचूर करता है। इस लेख को बेहतरीन कविता की तरह भी पढ़ा जा सकता है। विस्थापन के दंश को उसके पीड़ादायक हिस्से को बहुत ही करीब से देखकर साझा किया गया है। श्रृंखला के सारे आलेख एक से एक हैं और सबमें एक चीज जो समान है- मनुष्यता की पुकार।
कुमार अंबुज के “ह्यूमन फ्लो” फ़िल्म का सहज हिन्दी में पुनर्पाठ दिमाग़ में एक छायाचित्र की तरह उभरता है और फिर अचेतन की अतल गहराई में एक प्रागैतिहासिक भय उभरता है जब आदिम युग में किसी मानुष का न कोई घर था न कोई देश तो फिर इस तपती धूप में चलता पंखा भी सिहरन भर देता है , और मैं शरणार्थी हो जाता हूं ,यूनिवर्स में भटकता हुआ । लेख की ये लाईन तो अद्भुत है 👉👉घृणा का दुष्चक्र होता है. फिर वह पूरी दुनिया में एक ‘ऑटो इम्यून’ बीमारी में बदल जाती है.😔😔🙏🏼🙏🏼
पेइचिंग में उतरते ही मैंने इंटरप्रेटर से पूछा कि आई वेईवेई यहां से कितनी दूर रहते हैं? उसने जवाब दिया कि दो करोड़ लोग इस शहर में रहते हैं, सिर्फ आई वेईवेई ही तो नहीं रहता यहां!
विस्थापन के त्रास और अमान वीय करण की इस दुनिया का दिल और दिमाग को सुन्न कर देने वाले इस आलेख में आदमी की बेइंतहा मज़बूरी के साथ संवेदना की गहनता तो है ही दुख से उपजी विवेक दृष्टि भी है.कुमार अम्बुज की कविता ही नहीं, गद्य भी गिरफ्त में लेता है.ताज भोपाली के शेर के मिसरा -ए -सानी से अपनी बात पूरी करूँ :
किससे कहें कि कांटा निकाल दे…
अद्भुत. ग़ज़ब का बयान है. पूरी मानव सभ्यता ही विस्थापन के त्रास से गुज़र रही है. जहाँ भी विकास है, वहीं विस्थापन है.
An ultra marathon,where there is no finish line,no reward and no winner.
An oeuvre of pandora box (migration).
Perfect articulation .
Excellent sir.
इस बार महान लेखन कहते-कहते रुक रहा हूँ। इसे मनुष्य लेखन कहना चाहता हूँ। बल्कि मनुष्यता की आकांक्षा, प्रार्थना और उम्मीद। मनुष्यों को या किसी को भी शरणार्थी बनाये जाने के पीछे दिग्विजयी महानता कम योगदान नहीं। क्या चिड़िया घर दूसरे प्राणियों को शरणार्थी या बंदी बनाना नहीं?
कुमार अम्बुज जी ने लेखक होना पा लिया है। यह उनकी कला-कृतज्ञता ही होगी कि उन्होंने फ़िल्मों को अपने लेखन का बहाना बना लिया है। लेखन के लिए बतौर लेखक पीछे रहना यह मेरे जानते हिंदी में पहला उदाहरण है। समीक्षक तक तो रियासत बना लेते हैं। यह बिल्कुल वैसा ही है कि मनुष्य प्रेम करे और प्रेम को चिट्ठी बनाकर पोस्ट करे।
अश्रुपूरित निःशब्द रह जाना ही इस लेखन का असर है। लेकिन नृशंस राजनीति समय में टूटती सी मनुष्य पुकार टूट ही न जाये इसलिये प्रतिक्रिया विवश हूँ। क्या पता इसी से एक दो लोग और पढ़ पाने को बढ़ सकें।
प्रसंगवश याद आता है कि इप्टा इंदौर की ओर से विनीत तिवारी और जया मेहता ने एक नाटक तैयार किया था, धीरेन्दू मजूमदार की माँ। अविभाजित भारतीय उपमहाद्वीप के बलिदानी पुत्र की एक क्रांतिकारी माँ के बँटते-बँटते तीनों देश (भारत- पाकिस्तान-बांग्लादेश) में रिफ्यूजी बन जाने की वह दास्तान आज तक दिल-दिमाग़ पर अंकित है। तभी लगा था यह दर्द वैश्विक है। यह प्रश्न मनुष्य प्रश्न ही है कि मनुष्य शरणार्थी क्यों हो? सबका देश कहाँ है? लेकिन तभी लोलुप प्रतियोगी ईर्ष्यालु विवेचनाओं से भी पाला पड़ा ही था। दुःखी भी हुआ था जिसे बहस पर उतर आना समझ लिया साबित कर दिया जाता है। जिन्होंने नाटक देखा था वो भावप्रवण ही थे लेकिन जो फैसला कर सकते हैं वो भावी प्रबंधन पर उतर आए थे। बाद में सुना इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलन झारखंड में उस नाटक की मुकम्मल उपेक्षा या हत्या ही की जा सकी। खैर,
संवेदना सृजन के हश्र बड़े तोड़ने वाले होते हैं। कितना अच्छा हो कि ऐसी फ़िल्म, फ़िल्म पर लेखन और नाटक लोगों तक अधिक से अधिक पहुँच सकें।
इस दुआ के लायक ही ख़ुद को पाता हूँ।
शशिभूषण,
उज्जैन
रहने को घर क्या जमीन का कोई टुकड़ा नहीं, सारा जहाँ हमारा। अनंतिम दुखों की दास्तान। ताकत ही एकमात्र सत्य। गरीब कमजोर का कोई ठिकाना नहीं। अंबुज जी ने संवेदना को उंडेल दिया है, दिल निकाल कर रख दिया है शब्दों में। यही तो हमारे चारों तरफ हो रहा है और हम अपने में मस्त! कैसे चलेगी यह तथाकथित सभ्यता? वाकई क्या यह सभ्यता है? पढते हुए यह बार बार गूंजता है।शुक्रिया अंबुज जी। – – – हरिमोहन शर्मा ।
🙏
यह हम सबका संकट है।
इसका समाधान अच्छी, मानवीय राजनीति में है।
सामुहिक प्रतिरोध में है।
बहुत मार्मिक.. यह वैश्विक व्यथा है .. मनुष्य होने की
अद्भुत, अद्भुत और अद्भुत! किसी फिल्म और फिल्मकार की समूची टीस को, और साथ ही हमारे वक्त की विभीषिका और इंसानियत की महा त्रासदी को ऐसी रचनात्मक भाषा में कह पाने की कूवत हमारे दौर में सिर्फ और सिर्फ कुमार अंबुज के पास है।
असल में तो विश्व सिनेमा के पुनर्पाठ की यह पूरी शृंखला ही बहुत दुर्लभ और मूल्यवान है। किसी असंभव उपलब्धि सरीखी। इसके लिए भाई अंबुज के साथ ही, अरुण भाई और ‘समालोचन’ का भी बहुत-बहुत आभार!
स्नेह,
प्रकाश मनु