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Home » नवीन सागर: अशोक अग्रवाल

नवीन सागर: अशोक अग्रवाल

नवीन सागर (29 नवम्बर, 1948-14 अप्रैल, 2000) की रचनात्मक दुनिया में कविताएँ, कहानियां, बाल साहित्य और चित्र आदि शामिल हैं. उनकी सृजनात्मक उत्तेजना और अ-थिर जीवन के साथी रहे वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल का यह संस्मरण नवीन सागर के आत्म की एक तरह से यात्रा है. देखे और सुने को लेखक ने ख़ास शिल्प में प्रस्तुत किया है, उसमें वह भी जाने अनजाने शामिल हो गया है. समृद्ध और रचनात्मक संस्मरण. प्रस्तुत है.

by arun dev
May 24, 2022
in संस्मरण
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नवीन सागर: अशोक अग्रवाल
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नवीन सागर
अपने भूले रहने की याद में जीवन

अशोक अग्रवाल

 

दो बारिशों के बीच कोई जगह ऐसी होती है
जहाँ पिछली सारी बारिशों की स्मृतियों
के अर्थ बदल जाते हैं
उस जगह पिछली बारिश में उगी झाड़ियों
पर फूल खिलने लगते हैं
(राजेन्द्र धोड़पकर)

नवीन सागर का एक पत्र

 

प्रिय अशोक,

इधर की तुम्हारी कहानियां की भाषा में जो बदलाव आया है उसका सम्बन्ध तुम्हारी नई व्यस्तता से हो शायद, लेकिन यह परिवर्तन मुझे बहुत अच्छा लगा. तुम्हारी कहानियों की भाषा का आवेग- यह- आवेग मुझे अक्सर दिक्कत देता था. इधर भाषा में एक तरह का सर्जनात्मक घनत्व, जिसमें अन्तःस्तरी पर गहरी प्रक्रियाओं का बेआवाज़ जाल होता है.

अब एक वज्रपात!

मैं पिछले तीन वर्षों से लगातार कविताएँ लिखता रहा हूँ. कुछ छपवाई भी हैं. अब इतनी हो गई हैं कि उनमें से छाँटकर एक कविता पुस्तक बन जाए. मैं पाण्डुलिपि तैयार कर रहा हूँ. अगर तुम मुझ जैसे अनाम अज्ञात कवि का संग्रह छापने की, यानी नुकसान उठाने की स्थिति में हो, तो पत्र द्वारा सूचित करो. मैं पाण्डुलिपि फौरन भेज दूँगा. तुम देखकर ये भी बता देना यदि तुम छापने में असमर्थ या समर्थ हो तो भी ये छपाने योग्य है कि नहीं. राजेश जोशी और कुछ अन्य मित्रों का कहना है कि संग्रह छपाया जाना चाहिए, फिर भी तुम्हारी राय मेरे लिए जरूरी है.

आशा है पत्र दोगे.

पिछले दिनों भोपाल होकर चले गये और मुझे पूछा तक नहीं इस बेरुखी से मुझे कष्ट हुआ. पत्र जरूर दोगे.

तुम्हारा
नवीन सागर
मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, रविन्द्रनाथ टैगोर मार्ग
भोपाल.

 

20 अप्रैल 2022 के दिन यह पत्र पुराने कागजों में दुबका सामने चला आया. इस पत्र में दिनांक नहीं लिखी गई है. अनुमान से यह वर्ष 1985 के आस-पास का कोई एक दिन रहा होगा. वर्ष 2000 में नवीन सागर का आकस्मिक निधन हुआ था. हिंदी मासिक कथा देश में नवीन सागर पर केंद्रित अंक में मेरा एक स्मृति आलेख प्रकाशित हुआ था.

इस पत्र नें सुप्तावस्था में पड़े उस अनोखे किस्सागो की अनेक अधूरी और अनलिखि दास्तानों को जागृत करना प्रारंभ कर दिया. इस आलेख को बीस वर्ष पहले लिखी स्मृति के उत्तरार्ध की तरह भी पढ़ा और देखा जा सकता है.

नवीन सागर की किस्सागो का अंदाजे-बयां सम्मोहक और जादुई था. उसकी स्मृति की पोटली में असंख्य चरित्र धड़कते रहते और जिन्हें वह जब चाहता जागृत कर अपने श्रोता को उनकी दुनिया में चहलकदमी कराने ले चलता. किस्सागोई की यह अद्भुत शैली हर किसी को सिद्ध नहीं होती. इस किस्सों और चरित्रों को शब्द-बद्ध करने का विचार उसके मन में आता रहता और स्थगित होता रहता. जीवन की कशमकश ने उसे वह वांछित अवकाश उपलब्ध नहीं कराया जिसकी उसे प्रतीक्षा रही होगी. ऐसी ही अधूरी अनलिखि रह गई उसकी कुछ दास्तानें सुनाने की एक झिझक भरी कोशिश उसका यह श्रोता कर रहा है.

 

रफीक मियां की जादुई पतंग, जिसे देख आसमान भी दंग रह गया

रफीक मियां का पतंग बनाने का धंधा पुश्तैनी था. खूँटियों से लटकी रंगबिरंगी पतंगों के बीच इस धरती पर आँखें खोलने से पहले उन्होंने अब्बू जान को अपने कान में फुसफुसाते सुना- ‘मेरे बच्चे एक दिन आसमान भी तुम्हारी पतंग को देख तुमसे रश्क करेगा.’

रफीक मियां पंद्रह साल के रहे होंगे जब अब्बू खुदा को प्यारे हो गये. रुख़सत होने से पहले अपने इकलौते बेटे-शागिर्द की नाजुक उंगलियों में पतंग बनाने के सारे हुनर सहेज गये.

गृहस्थी के जंजाल में रफीक मियां ने कब बुढ़ापे की दहलीज़ में कदम रखा उन्हें पता न चला. जब कभी फुर्सत पाते तो एक खास रंग की साफ-सफ़ाक़्क पंतग उठा उस पर अनदेखे पहाड़, घाटियाँ, नदियां, झरने और भांति-भांति की तितलियाँ और परिंदे नक्श करना शुरू कर देते. पूरे बरस में वे ऐसी दो-तीन पतंगे तैयार करते और सबकी नजर से दूर एक अलमारी में छुपा कर दख देते.

रफीक मियाँ उम्र के उस पड़ाव पर आ गये जब मोटे लैंस के चश्मे के बावजूद धुंधला दिखाई देने लगा. इकलौता बेटा पास के बड़े शहर में जूते बनाने के कारखाने में नौकरी करने लगा और अपनी गृहस्थी भी उसी शहर में बसा ली. रफीक मियाँ के पास उनकी एक बेवा लड़की आकर रहने लगी.

रफीक मियाँ अपने जीवन की आखिरी पतंग बनाने में पूरी तरह खो गये. न खाने का होश रहा और न खुदा की नियमित इबादत करने का. उस रात के आखिरी पहर जब उन्होंने ब्रुश से पतंग को आखिरी बार छुआ उसी समय उनकी रूह खुदा के भेजे दूत के आने से ठीक एक पल पहले पतंग पर झिलमिला रहे सितारे में छिपकर बैठ गई. रफीक मियाँ की रूह ने खुदा के भेजे दूत को भी चकमा दे दिया.

अगली सुबह उनकी बेवा बेटी ने तो देखा अब्बू के रूई के सफेद फाहों जैसी मुलायम उंगलियों में फँसी पतंग को खरौंच तक न आई थी. मुँह से रुलाई का सोता फूटे उससे पहले उसने कानों में फुसफुसाहट सी सुनी- ‘अब्बू जान का आखिरी तोहफा समझ इस पतंग को अलमारी में सहेजकर रख दो.

उसी कस्बे में अल्ताफ़ नाम का एक कबूतरबाज रहता. जामा मस्जिद के वक़्फबोर्ड द्वारा आवंटित पुश्तैनी घर उसे विरासत में मिला था. गृहस्थी बसाने की बजाय उसने कबूतरों की सोहबत को तरजीह दी. झऽक़ सफ़ेद कबूतरों के समूह में कुछ चितकबरे कबूतर गुटरगूँ करते अपनी गर्दन फुलाए रहते. बाजरे के दाने और कबूतरों की बींट पिंजरों के भीतर और बाहर छितराई रहती. उनके साथ गुफ्तगू करते कब सुबह से शाम हो जाती उसे पता तक न चलता. शाम के समय वह पिंजरे खोलता और अपनी हथेली पर बैठा उन्हें आसमान की ओर उड़ा देता. अंधेरा होने से पहले उसके मुंह से तेज सीटी की तरह एक ध्वनि आसमान की ओर उठती. यह उन परिंदों के घर लौटने का इशारा होता. दूसरी छतों पर टकटकी लगाए छोटे-छोटे बच्चों की अचंभित आंखें परिंदों को उसकी हथेली पर उतरते देखतीं. कस्बे में अल्ताफ कबूतरबाजों का खलीफ़ा के नाम से पुकारा जाता.

अल्ताफ का दूसरा शौक पतंगबाजी था. बसंत पंचमी के विशेष दिन कस्बे के पतंगबाजों के बीच घोषित प्रतिस्पर्धा होती. पतंगबाजी के दीवानों और उनके शार्गिदों की तेज किलकारियों, चीखों और भांति-भांति की गूंजों से घरों की छतें डगमगाने लगतीं. आसमान रंग-बिरंगी पतंगों से छा जाता. अल्ताफ साल-दर-साल पतंगबाजी के चैम्पियन खिलाड़ी का ताज सुशोभित करते रहे.

पिछले दो साल से इस स्पर्धा में वह लगातार शिकस्त पा रहे थे. शिकस्त का जख़्म ऐसा नासूर बन गया जो हर पल रिसता रहता. इस बार बसंत पंचमी के पहले की रात उन्हें इलहाम हुआ कि उनके चैंपियन बने रहने की असली वजह रफीक मियाँ की पतंगे थीं. रफीक मियां जिस दिन से खुदा के घर रुखसत हुए उसके बाद शिकस्त उनके नसीब में लिख दी गई.

दरवाजे की ठक-ठक ने रफीक मियाँ की बेवा बेटी की नींद में खलल डाला. दरवाजा खोला तो सामने पस्त हाल अल्ताफ को देख सन्नाका खा गई.

‘मुआफ़ करना आपा जान जो सुबो-सुबो आपको तकलीफ देने चला आया. महरूम रफीक मियाँ की कोई पतंग मुझे मिल सकेगी?’ वह उसे खाली हाथ लौटाने ही वाली थी कि उसने कान में अब्बू की फुसफुसाहट सुनी. उसे अलमारी में रखी उनकी आखिरी पतंग की याद हो आई.

अल्ताफ की उंगलियों ने उस पतंग को छुआ तो उनके जिस्म का रोंया-रोंया सिहरन से भर गया. पतंग के आसमानी फलक पर बिखरे कुदरती नजारों के रूहानी जादू की गिरफ्त में वह ऐसा मदहोश हुआ कि लौटते हुए आपा जान का शुक्रिया अता करना भी भूल गया.

बसंत पंचमी के दिन अपनी-अपनी छतों पर मुस्तैद पतंगबाजों, शार्गिदों और दर्शकों की भीड़ ने अचंभित आंखों से देखा कि सभी पतंगों को चकमा देती एक आसमानी रंग की पतंग सितारों सी झिलमिल करती सभी पतंगों को पछाड़ती ऊँची और ऊँची उठती जा रही है. सभी की हैरत भरी निगाहें अल्ताफ की ओर टिक गईं जो उस आसमानी पतंग की डोर थामे सिर्फ आसमान की ओर देख रहा था.

पतंग अब अल्ताफ के काबू में न रही थी. डोर का आखिरी छोर उसके हाथ में आया. तब ही खुली आँखों ने खुदाई करिश्मा देखा. पतंग ने डोर से अपने को अलग कर लिया था, फिर भी डोर हवा में उसी तरह तनी थी. उसे पतंग पर सवार रफीक मियाँ दिखाई दिए जो उसकी ओर देखते अलविदा का हाथ हिला रहे थे.

पतंग पर सवार रफीक मियां की रूह अनोखे आनंद से सराबोर उस सितारे की ओर उड़ रही थी जहाँ आज तक किसी के कदम नहीं रखे गये. आँधी, तूफान, बारिश और विशालकाय आकाशचारी जीवों को चकमा देती वह नन्ही पतंग ऊँची और ऊँची जा रही थी. उस छोटी पतंग का यह करिश्मा देख उस दिन आसमान भी दंग रह गया.  ऐसा उसने करोड़ों साल में कभी नहीं देखा.

उस दिन के बाद अल्ताफ को किसी ने नहीं देखा. मुहल्ले वाले उसकी खोज खबर के लिए उसके घर की छत पर आए. बाजरे के चंद दाने और परिंदों की बीट के निशान के सिवाय वहाँ कुछ नहीं था. पिंजरों के दरवाजे खुले हुए थे. 

नवीन सागर: चित्र: राम कुमार तिवारी के सौजन्य से

इंसोमनिया की चपेट में आया किस्सागो

मैंने एक बूढ़े कुत्ते को
गरमियों की रात में
इतना निस्पृह देखा
कि जितना चाँद निस्पृह था.
और जितने तारे टिमटिमा रहे थे
(नवीन सागर)

उन दिनों किस्सागो भोपाल की प्रोफेसर कालोनी के एक छोटे क्वार्टर में रहता था. खंडहर सी दिखती बाउंडरी के सिरे का गेट मुश्किल से टिका था. किस्सागो का यह क्वार्टर रेनेसॉ काल के प्रकृतिवादी चित्रकार के भू दृश्य सरीखा लगता. ऐसा ही कोई चित्रकार किस्सागो के अर्न्तलोक में वटवृक्ष की अदृश्य जड़ों की तरह अपना डेरा जमाए था. ग्रंथ अकादमी के छोटे कक्ष में अपनी मेज के इर्दगिर्द शहर के शायर, कवि और कथाकारों के जमावड़े के बीच उसकी अंगुलियाँ सामने रखे कागज पर पेंसिल, काली स्याही की बारीक निब के पैन या पैंसिल से अपने कल्पना लोक के भूदृश्यों को आकार देने में मशगूल रहती.

उन उदास रातों के सूक्ष्म ब्यौरे बयान करती किस्सागो की शिशु जैसी आँखों की पवित्र रोशनी और चेहरे की स्थायी मुस्कान यथावत बनी रही.

‘न जाने उन दिनों  आँखों की नींद कहां छूमंतर हो गई थी. कोई आहट या मेरे जागे रहने का कोई संकेत करीब सोए पत्नी और बच्चों की सुखी नींद में विघ्न न पहुँचाये इसका ख्याल रख बाहर बरामदे में चला आता. गेट के पास लालू गर्दन झुकाये बैठा होता. लालू की पीठ सहलाता तो धीरे से आँखें खोल गुर्राता और फिर पीछे-पीछे चलता बरामदे की सीढ़ियों पर मेरे नजदीक बैठ जाता.’

‘ईंट जैसी उसकी रंगत देख बच्चों ने पहले ही दिन उसका नामकरण किया— लालू. लालू की पुकार सुन वह दौड़ा चला आता. छोटे कद की श्यामा उसकी संगिनी साथ बनी  रहती. इस किस्सागो का घर उस लेन में उनका पसंदीदा डेरा बन गया था.’

‘दूसरी गली का एक दबंग कुत्ता अक्सर उस ओर आ निकलता. उसकी संगिनी पर हक जमाता गुर्राते हुए लालू को चुनौती देता लालू उससे उन्नीस ठहरता. मेरी उपस्थिति उस दबंग को गुर्राने के अलावा कुछ और अधिक करने के उसके मनसूबों में विघ्न उत्पन्न करती और वह एक टाँग उठा मूत्र विसर्जित कर मेरी ओर घूरता और वापिस लौट जाता.’

‘पूरे परिवार की अनुपस्थिति में एक दिन वह दबंग कुत्ता आया और लालू की संगिनी का अपहरण कर चलता बना. जख्मी और शिकस्त खाया लालू झाड़ी में छिपा कराहता रह गया.’

‘उस दिन के बाद लालू गमगीन दिखाई देने लगा. देखते-देखते उसकी सारी शरारतें, एक पुकार पर दौड़कर चले आना, उसके जीवन के सारे वसंत जैसे पतझड़ में बदल गये, उसके दांत भी कमजोर हो चले थे. एक बार में आधी रोटी से अधिक न खा पाता. शेष रोटी को वहीं मिट्टी में दबा देता. उन्हीं दिनों मुझे उसकी क्रियाएँ देख मुझे पहली बार एहसास हुआ कि उसका देखना भी कमतर हो गया है. सूँघने की शक्ति भी क्षीण हो चली थी. जब उसे भूख सताती तो मेरे पास से उठकर मिट्टी में दबी रोटी को जगह-जगह पंजों से गड्ढा खोद तलाशता रहता कभी रोटी मिल जाती तो मुंह में दबाए मेरे पास लौट आता और असफल रहने पर निस्पृह भाव से उसी तरह गर्दन झुकाए बैठ जाता, कुछ देर बार फिर वैसा ही प्रयास करता और इस बार हाथ में छोटी खुर्पी लिए मैं भी उसकी रोटी की तलाश में सहायक की भूमिका में स्वयं को ले आता.’

‘लालू के दो-तीन बार असफल रहने पर एक उपाय सूझा. रसोईघर से रात की शेष बची रोटी लेकर मैं लोटा और लालू को ओट में रख उसे मिट्टी में दबा दिया, फिर देर तक उसके साथ रोटी की तलाश के अभिनय में जुटा रहता. सीधे-सीधे उसे रोटी पकड़ाना पता नहीं क्या मुझे उसके स्वाभिमान और संघर्ष को ध्वस्त करने जैसा लगता जब वह मेरी दबाई रोटी ढूँढने में कामयाब हो जाता तो जैसे मेरे भीतर भी उमंग और नये जीवन का संचार होने लगता.’

किस्सागो ने अपनी बात को विराम लगाते कहा- ‘लालू उस्ताद का शुक्रिया कहने का हक तो बनता ही है. जिसने उन अनेक आती-जाती ऋतुओं की अंधेरी और तारों भरी लम्बी रातों के सफर को आसान बनाया. किस्सागो के पास उसके कर्ज से मुक्त होने के लिए एक कविता के सिवाय और भला क्या हो सकता है!’

चित्र: राम कुमार तिवारी के सौजन्य से

चित्रकूट के शरारती बंदर

ग्रंथ अमादमी की ओर से चित्रकूट में पुस्तक प्रदर्शनी आयोजित करने का दायित्व किस्सागो को मिला तो उसकी खुशी का ओर-छोर न रहा.

‘पहला काम बाजार से बढ़िया कागज के दस्ते, नया पैन और पेंसिल जुटाने का किया. दफ्तर के बासी माहौल से निकलने का मौका मिला. सोचा यही कि वहाँ ढेर सारा अवकाश उपलब्ध होगा और मन में बसी कहानियों, कविताओं और चित्रों की अनसुनी आवाजें वहाँ इत्मीनान से सुन पाऊँगा.

‘मंदाकिनी नदी के रामघाट स्थित धर्मशाला की ऊपरी मंजिल के कमरे में बसेरा जमाया. हवादार बालकॅनी और सामने बहती नदी. नदी तट के जिंदगी की धड़कनों और रंगों से भरे दिलकश नज़ारे और उनके बीच  स्वछन्द घूमते बंदरों की ठिठौलियाँ.

‘मेरे देखते-देखते रामचरितमानस की चौपाई का गायन करते भक्ति भाव में डूबे उस निरीह प्राणी के गाल पर एक झर्राटेदार तमाचा पड़ा और जब तक वह अपने इस अपमानित होने का आभास पाते कपीशजी महाराज अपनी कारीगरी  दिखाते  उनकी जेब में रखे चश्मे की डिबिया ले उड़े, रामचरितमानस की चौपाइयों की जगह जिस तरह उनके कंठ से जिन अद्भुत शब्दों और वाक्यों का निस्तारण हुआ वह शब्दकोश में से दर्ज होने का अधिकार रखते थे. कपीशजी महाराज उनकी पहुँच से दूर दूसरी इमारत के शिखर पर खीं-खीं की ध्वनि के साथ उनका मखौल उड़ाते रहे. शिकस्त पाए उन महाशय को अपनी लापरवाही के लिए दो केलों का प्रसाद उनकी सेवा में अर्पित करना हुआ. कपीशजी महाराज ने निस्पृह भाव से उनकी झोली में उनके चश्मे को टपका दिया.

‘दूसरी सुबह मेज पर कुछ खाली कागज और पैन रख कुछ देर के लिए बाथरूम गया. लौटा तो देखा खाली कागज हवा में नाच रहे थे. एक छोटा वानर शिशु मेरा पैन हाथ में उठाए बालकॅनी की मुंडेरी पर बैठा उसे बड़े गौर से उलट पलट रहा था. सुबह बाजार से लाए केले से मुसकुराते हुए मैंने उसका अभिनंदन किया तो केला उठाने से पहले वह पैन को अपने कान में अटकाना न भूला. उसका यह करतब देख यह किस्सागो भी मुसकुरा उठा. इस बीच उस वानर शिशु के तीन चार साथी भी वहाँ चले आये और किस्सागो को उन सभी का उसी तरह स्वागत करना हुआ.

‘कुछ दूरी पर बैठे एक वयोवृद्ध विशालकाय कपीश जी जो उनके पितामह रहे होंगे छिपी नजरों से उनकी अठखेलियों की चौकसी कर रहे थे. दूसरा कोई वानर उस ओर आने की चेष्टा करता तो एक घुड़की से उसे डपत देते. मेरा पैन अभी भी उस वानर शिशु के कान में फसा था. पैन के प्रति मेरी उदासीनता देख उसका भी उत्साह जाता रहा. उसने उसे वहीं बालकॅनी में टपका दिया.

‘उन वानर शिशुओं के चले जाने के बाद देखा कि छोटा वानर शिशु अभी भी एक कोने में दुबका बैठा था. उसकी पिछली दो टांगें निर्जीव थीं. आगे की दो टांगो के सहारे वह बड़े मेंढक की तरह उचकता चल रहा था. उसके पिछड़ने का कारण यही रहा होगा. उसके हिस्से का केला बचाए न रख पाने का मलाल उस समय दूर हुआ जब बिस्किट का पैकेट हाथ लगा….

‘अपने कमरे में लौटते हुए तो उसके झोले में केलों के अलावा चने और मुरमुरे भी लाना न भूलता. दो टांग वाले शिशु का तो जैसे मेरे कमरे की बालकॅनी स्थायी डेरा बन गया था. मेरे दरवाजा खोल बालकॅनी में आता तो वह वहाँ पहले से उपस्थित होते.

किस्सागो मुस्कराए-

‘एक-एक कर वे सात दिन कैसे बीत गए पता न चला. कोरे कागज जैसे साथ आए उसी तरह वापिस लौट गए…. कोई अहमक कवि ही ऐसा रहा होता जो इन जीवन से स्पंदित प्राणियों और दृश्यों को अनदेखा-अनसुना कर कोई कविता या किस्सा या चित्र रच रहा होता.

‘कभी-कभी उस दो टांग वाले वानर शिशु का आज भी स्मरण हो आता है. चित्रकूट से वापिस लौटने के बाद भी उससे विलग होने का दुख दिनों तक बना रहा, उसका ऋण अभी तक शेष है.’

नवीन सागर की पेंटिंग. सौजन्य से राम कुमार तिवारी

गाँवों में एक गाँव चिरगाँव

झाँसी से तीस किलोमीटर की दूरी पर बेतवा के तट पर बसा छोटा कस्बा चिरगाँव किस्सागो की यादों में अक्सर धड़कता रहता. नगर के बीच का किला, कई प्राचीन तालाब, एक परिसर में मंदिर और मस्जिद, किशोर उम्र के लँगोटियाँ दोस्तों की अजब-अजब कारगुजारियाँ और सबसे अधिक अपना ननिहाल.

‘देश के अधिकांश कस्बों की तरह चिरगाँव भी अनचिन्हा रह जाता यदि यहाँ उस कवि का अवतरण न हुआ होता जिसे राष्ट्रपिता ने ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि से नवाज़ा. देखते-देखते एक मामूली कस्बा देश भर में ख्यात हो आया. आजादी के बाद राज्य सभा के सम्मानित सांसद के बतौर दो बार उन्हें मनोनीत किया गया. कोई अलंकरण ऐसा न रहा होगा जिससे उन्हें विभूषित न किया गया हो. समूचा चिरगाँव उन्हें ‘दद्दा’ से सम्बोधित करता.

राष्ट्रकवि की चर्चा करते हुए किस्सागो उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर मुंशी अजमेरी लाल का स्मरण करना न भूलता जो अपनी उपस्थिति उस कस्बे में राष्ट्रकवि से पहले दर्ज करा चुके थे.

उस छोटे कस्बे में राष्ट्रकवि ने अपना निजी मुद्रणालय स्थापित किया. जो उनके रचे विपुल साहित्य को देश भर में प्रचारित-प्रसारित करता.

‘जब मेरा ननिहाल जाना होता तो दूरी से उन्हें देखा करता. आराम कुर्सी पर विराजे मस्तक पर चंदन का टीका लगाये दद्दा धीर-गम्भीर भाव से मुसकुराते चरण स्पर्श करते आगन्तुकों को अपना आशीर्वाद बाँट रहे होते. वह दूसरी दुनिया के प्राणी महसूस होते. उनके नजदीक जाने में हिचक महसूस होती. ननिहाल के सभी सदस्य दद्दा के इन्द्रधनुष से कभी स्वयं को मुक्त नहीं रख सके. 1964 में दद्दा के स्वर्गवासी होने के बाद भी जैसे उनकी छाया में सिमटे रहे.

‘एक मामा का स्मरण आता है. उनके दिवंगत होने के बाद उनकी अलमारी खोली गई तो किस्सागो यह देख विस्मित रह गया कोई आठ-दस रजिस्टरों में  अपने सुन्दर हस्तलेख में उन्होंने राष्ट्र कवि के सर्वाधिक ख्याति प्राप्त महाकाव्य ‘साकेत’ की प्रतिलिपियाँ तैयार की थीं. शायद उनका विश्वास रहा होगा कि एक समय ऐसा आयेगा जब न मुद्रणालय शेष रहेंगे और न पुस्तकालय. काल का पहिया घूमता हुआ उस काल में चला जायेगा जिन दिनों गुरुकुल में महर्षियों के शिष्य उनके द्वारा सृजित ग्रंथों कीं प्रतिलिपियां निर्मित किया करते.

‘उनका जो भी विश्वास रहा हो किस्सागो का विश्वास है कि वह ताजिंदगी राष्ट्रकवि की परछाई से स्वयं को मुक्त न कर सके. सभी महापुरुषों की संतति के साथ यही एक किस्सा बार-बार दोहराया जाता है,’ किस्सागो एक उच्छवास् भरते बोला.

 

नवीन सागर की पेंटिंग. सौजन्य से राम कुमार तिवारी

बाहर निकला तो घर का रास्ता भूल जाऊँगा

‘ननिहाल में सभी उन्हें काका कहकर सम्बोधित करते. बच्चों से लेकर बड़े तक. माँ का कहना था जब वह इस घर में आए दस-बारह साल के किशोर रहे होंगे. .अभी कुछ साल पहले तक गाँव से उनका कोई भतीजा चार-पांच माह के अंतराल से आया करता और काका इस बीच जो पूंजी जोड़ते उसे पकड़ा देते. उनका अपना कोई खर्चा न था और जो भी उनके हाथ पर रखा जाता वह उसी भतीजे के लिए रख छोड़ते.

‘‘काका को जब देखा वह अपनी प्रौढ़ उम्र पार वह अपनी वृद्धावस्था के चरण में कदम रख चुके थे. राष्ट्र कवि के आँखें मूंदने के साथ ननिहाल के अच्छे दिनों पर धीरे- धीरे छाया पसरने लगी. आर्थिक दबाव के चलते ननिहाल के किसी वरिष्ठ सदस्य ने काका से कहा-

‘कितने बरस हो गये आपका दो दिन के लिए भी गांव जाना न हो सका. नाते-रिश्तेदार याद करते होंगे. आपका मन चाहे तो आप गांव लौट जाएँ.’

‘यह सुन काका अवाक् रह गये. भर्राये कंठ से सिर्फ इतना निकला,

‘घर से सब्जी मंडी और सब्जी मंडी से घर. यही एक रास्ता अपने जीवन में देखा है. बाहर निकला तो भीड़ में खो जाऊँगा. लौटने का रास्ता याद न रहेगा.’

उस दिन के काका को ऐसा सदमा लगा कि उन्होंने मौन धारण कर लिया माह बीतते-बीतते उनके प्राण-पखेरू उड़ गये.

मैंने देखा किस्सागो की आंखों में नमी उतर आई थी.

 

सुरेन्द्र राजन की अनलिखि कहानियां

भोपाल आना एक अंतराल बाद हुआ था. किस्सागो ने नेहरू नगर कालोनी में रहने के लिए नया ठिकाना बना लिया था. नया घर पहले की अपेक्षा अधिक खुला, हवादार और ऊपरी मंजिल पर बना था.

सुबह चाप पीने के दरम्यान किस्सागो ने यह कहते हुए विस्मित कर दिया-

‘इन दिनों एक किताब लिखने की तैयारी कर रहा हूँ. पूरी रूप रेखा बन गई है. डेढ़ सौ पन्नों के आस-पास का कहानी संग्रह होगा. शीर्षक होगा—‘सुरेंद्र राजन की कहानियाँ’. दस अध्याय होंगे. प्रत्येक कहानी के प्रमुख किरदार सुरेंद्र राजन. होंगे उन्हीं की जुबानी सारे किस्से सुनाये जायेंगे. हर किस्सा एक दूसरे से भिन्न लेकिन सभी एक सूत्रता में बंधे हुए. एक उलझन अभी बनी है कि मेरा नाम बतौर लेखक छपना चाहिए या उन कहानियों के प्रस्तुतकर्ता के बतौर करता. वास्तविक अनुभव और कहानियां तो सुरेंद्र राजन की ही हुईं, इसलिए….’’

सुरेद्र राजन से मेरा उड़ता-उड़ता सा परिचय था. इतना कि दो दिन के लिए वह बाबा नागार्जुन के साथ हापुड़ आए थे. अधिकांश समय कैमरे से आस-पास की छवियाँ उतारते रहे. उदय प्रकाश के पहले कविता-संग्रह ‘सुनो कारीगर’ के शीर्षक को अधिक अर्थ वान बनाने में आवरण पर मुद्रित सुरेंद्र राजन के श्वेत-श्याम छायांकन का भी योगदान कम न रहा होगा. छायांकन और पैंटिंग्स में कुछ नया और अर्थपूर्ण अन्वेषित करने की बैचेनी से भरे थे. उनका सम्बन्ध बुदेलखण्ड के पन्ना जिले के अजय गढ़ से था. उनकी मित्रता के सूत्र में बुंदेलखण्ड की भी भूमिका रही होगी.

किस्सागो ने अपनी बात को विस्तार देते कहा- ‘उपेक्षित स्थलों, दृश्यों और आसपास की कोमल अनुभूतियों को इतनी संवेदना से रेखांकित करने वाला कोई दूसरा कलाकार मेरी नजर में नहीं आया….

‘सोलह साल तक वह देश-विदेश के सुदूर स्थलों की यायावरी करते रहे. उसी यायावरी के अनोखे अनुभवों और चरित्रों से जुड़े हैं वे किस्से. सुरेंद्र राजन पारंगत किस्सागो भी हैं, लेकिन अपने फक्कड़, निस्पृह और उदासीन स्वभाव के चलते वह कभी उन्हें दर्ज नहीं करेंगे. वे अनोखे किस्से कहीं खो न जाएँ इसीलिए मैं उन्हें अपनी किताब में लिख देना चाहता हूँ.’

उस लिखी जाने वाली किताब  की एक दास्तान जो किस्सागो ने कुछ यूं बयान की-

‘उस दिन सुबह सुरेन्द्र राजन गंगटोक (सिक्किम) से 23 किलोमीटर दूर घने जंगलों से घिरे पहाड़ी पर स्थित रूमटेक मठ पहुंचे. तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद तिब्बत के ग्यालवा कारमापा के 16वें अवतार अपने कुछ भिक्षुओं के साथ यहां आए. चौग्याल ने रूमटेक के इस क्षेत्र को उन्हें तोहफे में दिया. सुरेंद्र राजन रूमटेक मठ और आस-पास बसी बस्तियों में दिन भर भटकते रहे. मुख्य मार्ग पर वापिस आए तो गंगटोक जाने वाली बस कभी का छूट चुकी थी. मठ में भी टिकने की अनुमति नहीं मिली. सर्द रात में ठिठुरते सड़क किनारे बैठे थे कि एक औरत पास आई. उसने मठ के पिछवाड़े की बस्ती की ओर इशारा करते कहा— ‘मेरा पति गंगटोक गया हुआ है. रात के लिए तुम्हें ठहरा सकती हूँ. सुबह अंधेरे घर छोड़ निकल जाना होगा. किसी की नजर गई तो बदनामी होगी’

‘उस समय करूणा से भरी वह औरत सुरेन्द्र राजन को भगवान बुद्ध का कोई अवतार महसूस हुई. उसके निर्देशों का उन्होंने अनुपालन किया. अगली सुबह अंधेरे में निकल लिए. बस का इंतजार करने की बजाय पदयात्रा करना अधिक सुखद लगा. रूमटेक मठ कई किलोमीटर पीछे छूट गया. पानी की बोतल खाली हुई तो घाटी में दिखाई दे रहे घरों की ओर चल दिए. बोतल में पानी भर कर वापिस लौटते हुए  पत्थरों से निर्मित एक विशाल गेट पर नजर गई. उसके ऊपर चित्रलिपि जैसा उत्कीर्ण था. सुरेंद्र राजन उसके सम्मोहन में बंधे भीतर प्रवेश कर गए. वहां विचरण करते हुए कितना समय बीता उन्हें स्मरण न रहा. वह एक खाली घरों का नगर था जो किसी समय काग्युवंश के राजा की राजधानी रहा होगा. परम्परागत विश्वास का अनुपालन करते राजा के निधन के पश्चात राजवंश के सभी सदस्य और प्रजा के साथ उसे खाली कर नये स्थल की ओर प्रस्थान कर गये होंगे. जर्जर और खस्ताहाल होने के बावजूद खाली घरों में जैसे अभी भी अदृश्य ध्वनियाँ और आकृतियाँ उसाँसें भर रही थीं. घरों के आसपास ऊँचे-ऊँचे गोलाकार फैले पेड़ों पर भरपूर मात्र में सुगंधित हरे-लाल सेब लटके थे. नीचे भी बड़ी मात्र में बिखरे हुए थे.

‘सुरेंद्र राजन ने रात्रि वहीं व्यतीत करने का चयन किया. खाने के लिए भरपूर सेब. बोतल का पानी खत्म होने पर घाटी में बसी बस्ती से पानी ले आते.

किस्सागो ने इस किस्से का समापन करने हुए कहा-

‘सुरेंद्र राजन चार दिन तक वहीं ठहरे रहे. अभी सिर्फ उस किस्से के ऊपरी-ऊपरी ब्यौरे सुनाए हैं. उस वीरान नगर में रहते जो सूक्ष्म अनुभूतियाँ और अनुभव उन्हें हुए इसका अहसास पाठक तभी कर पायेगा जब उसे शब्दबद्ध कर लूंगा.’

किस्सागो की यह किताब भी अन्य दास्तानों की तरह अनलिखि रह गई.

किस्सागो की उस अधूरी किताब के मुख्य चरित्र सुरेंद्र राजन के बारे में कोई दो साल पहले सुनने-पढ़ने को मिला कि अस्सी पार की उम्र में रूदप्रयाग जिले के हिमालय के आखिरी गांव खुन्नू में सारी हलचलों से दूर पत्थरों से बने एक घर में रह रहे हैं. जरूरी वस्तुओं के लिए दो-तीन माह में 17 किलोमीटर पहाड़ उतर पास के कस्बे में चले आते हैं. पानी की व्यवस्था झरने कर देते है. नजदीक एक पहाड़ी नदी बहती है.

श्रोता का विश्वास है कि संयोग से उनसे मुलाकात हो गई होती और उसने किस्सागो की उस अधूरी रह गई किताब के बारे में बताया होता तो शायद निस्पृह भाव से मुसकुराते हुए इतना भर कहा होता— ‘इस बेपनाह मुहब्बत के साथ अपने दोस्त को याद करने के लिए किस्सागो का शुक्रिया. हर प्राणी के रोजमर्रा के जीवन की आवृत्तियों और मामूली हलचलों से भिन्न उनकी उन दास्तानों में कुछ ऐसा नहीं जिसका दर्ज होना जरूरी होता.’

पास प्रवाहित झरने की ओर देखते इतना भर और जोड़ा होता- ‘अधूरी इच्छाओं के साथ जीवन का सफर पूरे करने का अभिशाप तो मनुष्य जाति के साथ सृष्टि के आरंभ से चला आ रहा है.’

किस्सागो ने ये दास्तानें सुनाते मूल में कितना घटाया और कितना जोड़ा कहना उतना ही मुश्किल और संदिग्ध जितना इस श्रोता ने किस्सागो की दास्तान में कितना घटाया और कितना जोड़ा. जब तीसरा कोई इन किस्सों को बयान करेगा उस समय भी कुछ मूल का छूट जायेगा और कुछ उसका अपना निजी जुड़ जायेगा. किस्सों का शाश्वत सत्य यही है कि हर बार उसमें कुछ जुड़ता और घटता चला जाता है.

आखिरकार ब्रह्मांड के असंख्य जीव-जंतुओं की तरह किस्सागो का जीवन भी एक किस्सा ही तो ठहरा!

 

वरिष्ठ कथाकार अशोक अग्रवाल की सम्पूर्ण कहानियों का संग्रह ‘आधी सदी का कोरस’ तथा ‘किसी वक्त किसी जगह’ शीर्षक  से यात्रा वृतांत ‘संभावना प्रकाशन’ हापुड़ से प्रकाशित है.

मोब.-८२६५८७४१८6

Tags: 20222022 संस्मरणअशोक अग्रवालनवीन सागर
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Comments 20

  1. विष्णु नागर says:
    1 year ago

    अशोक अग्रवाल तो बहुत अच्छे संस्मरणकार हैं ही।उनके इधर का शायद ही कोई संस्मरण मुझसे छूटा हो।जहाँ तक नवीन का सवाल है,वह अद्भुत रचनात्मक व्यक्तित्व था।कहानी,कविता, बच्चों के लिए लिखा,सब अविस्मरणीय है।चित्रकारी भी।उसके संस्मरण सुनाने का अंदाज अनोखा था।आप घंटों सुन सकते थे और ऊबते नहीं।बहुत जिंदादिल आदमी था।उसका जाना भोपाल को सूना कर गया।वैसे भोपाल के पानी में किस्सागोई का रस छुपा है।राजकुमार केसवानी भी अद्भुत किस्सागो था।राजेश के पास भी किस्सागोई की कला है।रामप्रकाश त्रिपाठी में भी यह गुण है।विनय दुबे में भी था।शरद जोशी से भी आमनेसामने बैठकर उन्हें सुनना आनंददायी था।

    Reply
  2. कुमार अम्बुज says:
    1 year ago

    नवीन सागर पर यह कोलाज, यह स्मृति लेख आत्मीय और सुंदर है, विचलित भी करता है। भाई, अशोक अग्रवाल जी को धन्यवाद।
    और बधाई।

    Reply
  3. Vanshi Maheshwari says:
    1 year ago

    नवीन सागर को लेकर अशोक जी ने अतीत का दरवाज़ा खोल दिया . नवीन से पहली बार सागर में ही मिलना हुआ उस समय मैं हिन्दी से
    एम. ए. ( अंतिम वर्ष) का विद्यार्थी था
    ( वैसे विद्यार्थी तो आज भी हूँ) उन दिनों मेरी कविताएँ लगभग कई पत्रिकाओं में छपती रहती थी.
    हम सभी नवीन, बृजेश कठल, गोविंद द्विवेदी, केवल जैन इत्यादि की ये मित्र मंडली गाहे-बगाहे मिलते-जुलते रहते थे . कविता सहित कई-कई प्रसंगों को लेकर बातचीत और ठहाके शामिल रहते थे
    नवीन की बातें और बतियाने का जो ढंग था वह आज भी स्मृतियों में मिश्री की तरह घुला है. बातों ही बातों में तल्ख़ प्रहार और कमेंट करना उसके लिये आम प्रसंग था, वही गंभीर और गझिन होना उसके बहुआयामी व्यक्तित्व की ख़ास पहचान रही ( है ).
    अशोक जी के संस्मरण सवाक चल-चित्र हैं.
    जिस गहराई और आत्मिकता से नवीन को हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है वह सदा नवीन है.

    अशोक जी ने विदिशा के ( अशोक माहेश्वरी) कलात्मक फ़ोटोग्राफ़र का जो संस्मरण ( समालोचन) था उसके बरकस नवीन का ये संस्मरण भी कभी न भुलाये जाने वाला हो गया है.
    नवीन को स्मरण करते हुए-
    वंशी माहेश्वरी.

    Reply
    • Shampa Shah says:
      1 year ago

      अशोक जी, क्या आप विश्वास करेंगे कि मैं वर्षों से इंतज़ार में थी कि कोई नवीन सागर उर्फ़ तिलिस्मी किस्सागो के उन किस्सों को सुनाएगा जो उनके मुंह से एक सोते की तरह कल– कल बहते थे– एक ही साँस में विश्वसनीय और अविश्वसनीय☘️
      आज समालोचन पर आपके इस संस्मरण और कुछ किस्सों को उनकी–आपकी ज़ुबानी सुनना अद्भुत है☘️ विश्वास सा नहीं हो पा रहा अपनी इस खुशकिस्मती पर☘️
      आभार से बेहतर शब्द जल्द ही खोजूँगी ☘️
      पुनश्च: क्या आपको मन्नू जेब कतरे का क़िस्सा भी आता है?

      Reply
  4. जीतेश्वरी says:
    1 year ago

    अभी तक के मेरे पढ़े संस्मरणों में यह बेहद अद्भुत संस्मरण है। अशोक अग्रवाल जी ने इसे एक ऐसी जादुई भाषा में सिरजा है जिसका असर न जाने कब तक दिलों दिमाग में छाए रहेगा। यूं इस तरह के किस्से बहुत कम पढ़ने को मिलते हैं। भाषा की रवानगी ने मुझे ऐसा जकड़ा कि बिना इसे समाप्त किए छोड़ना मुश्किल हो गया। इस सुंदर किस्सागोई को हम सब पाठकों तक पहुंचाने के लिए ‘ समालोचन ‘ बधाई के पात्र हैं। खूब बधाइयां।

    Reply
  5. M P Haridev says:
    1 year ago

    मुझे यह क़िस्सागोई पसंद आयी । रफ़ीक और अल्ताफ़ के क़िस्से ने रुलाया । पतंग की डोर क्या छूटी कि मानो मेरी ज़िंदगी की डोर छूट गयी हो । सभी निःस्पृह रह सकते हैं और रहते भी हैं । मगर मुझसे नहीं रहा जाता । कहानी पढ़ते हुए आँखें नम हो गयीं ।
    बाक़ी कोलाज अच्छे हैं । कपीश मुनि नाराज़ न हो जायें । यह मुल्क पहले से ही गफ़लत में जी रहा है ।
    क्या सुरेंद्र राजन वही हैं जिन्होंने एक मूवी में गांधी का अभिनय किया था । तथा बाल्की के विज्ञापन में एक टाँग कटे हुए चमार का । जब अपने नज़दीक रखे हुए ट्रांजिस्टर पर राष्ट्रगान बजा तो वे बैसाखी का सहारा लेकर उठ खड़े हुए । मोटे लेंस की ऐनक डाली हुई थी । साथ बैठे दो बच्चे पहले बाबा (सुरेंद्र राजन) को देखकर हँसने लगे । लेकिन राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े हो गये ।

    Reply
  6. Diwakar muktibodh says:
    1 year ago

    क्या खूब लिखा है आपने। बहुत जबरदस्त लेखन शैली। आपके स्मृति लेख एक अलग दुनिया में ले जाते हैं जहां केवल दो लोग रहते हैं – एक लेखक और दूसरा पाठक।

    Reply
  7. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    1 year ago

    अशोक भाई बेजोड़ संस्मरणकार है ,उनके कहन का अंदाज निराला है । नवीन सागर की स्मृतियों को उन्होंने सघनता के साथ बुना है ।

    Reply
  8. राजाराम भादू says:
    1 year ago

    अशोक जी के संस्मरणों में यह स्मृति- चित्र कुछ अलहदा है- अपनी शैली और संरचना में। नवीन सागर की मेधा और सृजनात्मक प्रयोगशीलता की सराहना तो और लोग भी करते हैं लेकिन किन्ही खास चीजों को रेखांकित नहीं करते। इस संस्मरण के किस्से नवीन सागर की क्षमता और संभावना की ठोस बानगी हैं। एक अलग तरह की शख्सियत पर अनूठी रचना, जो अशोक जी द्वारा ही संभव थी। आभार समालोचन !

    Reply
  9. Priyanka Dubey says:
    1 year ago

    नवीन सागर की कविताओं से मेरा परिचय उनके समर्पित पाठकों से द्वारा हुआ था . उनको पढ़ने वाला एक कमोबेश सीमित niche वर्ग है लेकिन उनके पाठकों में उनको लेकर ग़ज़ब का commitment है. यह लेख बुक मार्क कर लिया है – जल्द ही पढ़ूँगी

    Reply
  10. Sudeep Sohni says:
    1 year ago

    नवीन सागर गए कहाँ, यहीं हैं अपने लिखे और कहे में। उन्हें कितने मार्मिक और करुणा से याद किया अशोक जी ने। शुरुआत के पत्र ने एकदम से चौंकाया भी। संस्मरण ऐसा कि शुरू से आख़िर तक नवीन सागर के ‘होने’ से बिंधा हुआ। मैंने पहली बार जाना कि वे पेंटिंग भी करते थे। लाजवाब संस्मरण .. शुक्रिया अशोक जी, समालोचन।

    Reply
  11. प्रकाश मनु says:
    1 year ago

    अद्भुत, अद्भुत… और अद्भुत! और क्या कहूँ, अवाक हूँ और शब्द साथ नहीं देते।.एक ऐसे अनुभव से गुजरने सरीखा कि हाथ-पैर कंपित से, और भीतर एक थरथरी सी।…कैसे बताऊँ वह, नहीं जानता।

    शुरू में कुरुक्षेत्र में ब्रजेश कठिल, जो नवीन के बड़े भाई हैं और आजकल ब्रजेश कृष्ण नाम से कविताएँ लिखते हैं, से नवीन के बारे बहुत सी बातें सुनीं–उसके कुछ सदाबहार किस्से भी और रोमांचित हुआ। फिर कुछ अरसे बाद रहा न गया तो उन्हीं बूँद-बूँद यादों और किस्सों को जोड़कर एक लंबी कहानी लिखी, ‘तुम कहाँ हो नवीन भाई? फिर इसी नाम से एक कहानी संग्रह भी निकला जो चर्चित हुआ। पर नवीन पकड़ में आकर भी कभी पकड़ में आया नहीं, जैसे कि आज।

    भाई अशोक अग्रवाल ने जैसे भीतर से जगा दिया। उन्हें और भाई अरुण जी को इस लाजवाब संस्मरण के लिए बथाई।

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

    Reply
  12. Yadvendra Pandey says:
    1 year ago

    अवाक् हूँ – एक मित्र दूसरे मित्र को इस तरह भी याद कर सकता है। अशोक जी की स्मृति में अभी भी कितने सूक्ष्म विवरण दर्ज हैं और वे किसी कुशल संगीतकार की तरह रंग रंग की बंदिशें रच कर उनसे बोलते बतियाते रहते हैं।
    समालोचन को ऐसी सामग्री उपलब्ध कराने के लिए शुक्रिया।
    — यादवेन्द्र

    Reply
  13. लीलाधर मंडलोई says:
    1 year ago

    नवीन के साथ 1990 में अंदमान से लौटकर अगले 6-7 साल उसकी यारी में रहा। हम देर रात तक अपने अपने
    स्कूटर खड़े कर क़िस्सों में डूब जाते।इतना तिलिस्मी सम्मोहन
    होता कि हाथ के गिलास की दारु फ्रीज़ हो जाती।बस सुनते
    जाने को अवश।सभी क़िस्से सही हों और विश्वास हो जाए
    ऐसा भी नहीं लेकिन वे सच लगते।
    नवीन की संगत के आशिक़ों में नरेंद्र जैन,मुकेश वर्मा, अखिल पगारे, महेंद्र गगन ,बलराम आदि देर रात की पाली
    वाले होते।शाम की पाली में राजेश,रामप्रकाश भी होते।लेकिन उनके क़िस्से रात में ही जवान होते।उनमें रंगत.आती।
    उसके क़िस्सों में तब चित्र ,ध्वनियां, रंग ,अंधेरा ,उजाला ं
    और भाषा में बुंदेली की गमक होती।बुंदेली लोकगीतों और
    लोक कथाओं की रह रहकर चमकने वाली कांति होती।सुरेंद्र
    राजन उन्हें इसलिए प्रिय थे कि वे नवीन के आवारा अदब
    के मास्टर थे।उनकी आवारगी का दायरा पन्ना (बुंदेलखंड) से
    दुनिया जहान में फैल गया।काकू अफ़सानों के उस्ताद हैं।
    नवीन के कई कई क़िस्से हैं।कवि, कथाकार,चित्रकार, संगीत
    रसिक आदि।उन पर लिखने के लिए अशोक अग्रवाल सी क़लम हो।भाषा में नवीन का संश्लिष्ट वजूद लाने वाला अशोक हो।संस्मरण सुनाने की वो सलाहियत और हुनर हो।
    अपुन ने एक लंबी सी कविता लिखकर समर्पण कर दिया।
    कथा कहने का वो सलीक़ा लाएं कहां से।होता तो कहानी
    लिखते।हां नवीन पर कहानी लिखने का परास्त सा मन है।

    Reply
  14. Girdhar Rathi says:
    1 year ago

    बहुत खूब!

    Reply
  15. deven mewari says:
    1 year ago

    अद्भुत स्मृति चित्र है ‘अपने भूले रहने की याद में जीवन’। दो दिन से इस चित्र के सम्मोहन में बंधा-बिंधा हूं, कानों में दोनों किस्सागो के उच्चरित तिलिस्मी शब्दों की गूंज-अनुगूंज सुन रहा हूं। चकित हूं कि किस तरह शब्दों की कूंची को नवीन सागर की स्मृति के रंगों में डुबो कर दूसरे किस्सागो ने चित्र रच दिया और उसमें आवाज़ें भी भर दीं। आम मुहावरे में कहूं तो कमाल है।
    अशोक जी की क़लम का मुरीद हूं। उनके जितने भी संस्मरण जब और जहां मिले, मन से पढ़ता रहा हूं। इस बार उन्होंने शिल्प की एक नई बुनावट में इसे पेश किया है जो चकित और सम्मोहित करती है।
    संस्मरणों और कहानियों की एक जीवंत दुनिया है उनकेभीतर, जिनके पात्र लगता है उनसे निरंतर संवाद करते रहते हैं। कितनी बारीक नज़र से उन्हें देखते और सुनते हैं अशोक जी, कि हैरानी होती है। यही गुज़ारिश है उनसे कि वे उन पात्रों से मिलाते रहे हमें ताकि हमें भी एहसास होता रहे कि हमारी इसी दुनिया में, हमारे आसपास जीवन संघर्ष करते ऐसे भी लोग हुए हैं।
    समालोचना एक गम्भीर साहित्यिक पत्रिका है। अशोक जी का यह अनोखा संस्मरण पढ़ाने के लिए अरुण देव जी का तहेदिल से आभार।

    Reply
  16. रामकुमार तिवारी says:
    1 year ago

    अनोखे किस्सागो नवीन सागर को किस्सागोई के ही किसी खास शिल्प में स्मरण किया जा सकता है ।किस्सा सुनाने वाला जब स्वयं किस्सा हो जाता है तब किस्सा की निरंतरता के लिए कोई दूसरा किस्सागो हीउसे सुनाता है।
    अशोक जी ने नवीन सागर को स्मरण करने के लिए संस्मरण विधा को नया अंदाज दिया है।
    यह अंदाज इतना सजीव है कि पढ़ते हुए सुनते हैं और सुनते हुए देखते हैं। कब स्वंय किस्सा की दुनिया में प्रवेश कर पात्रों से संवाद करने लगते हैं पता ही नहीं रहता।यही इस संस्मरण का जादू है,जो लगातार छाया हुआ है।
    कभी बीच-बीच में चित्रकूट के दो टाँग वाले वानर शिशु की सूनी आँखें किस्सागो को ढूंढती हुईं आँखों में कौंध जातीं हैं तो कभी किस्सागो का विलग होने का दुख ‘ऋण अभी शेष है’ की सांस के साथ गहरे उतर जाता है।कभी लालू उस्ताद (बूढ़ा कुत्ता जिसकी देखने,सूंघने की शक्ति चली गई है)के स्वाभिमान और संघर्ष की गरिमा के ख्याल में डूबा किस्सागो लालू के साथ घूरे में दबी हुई रोटियों को खोजता हुआ दिख जाता है।
    संस्मरण पढ़ने के बाद अशोक जी की डोर से संस्मरण रफीक मिंया की पतंग की तरह उड़ी जा रही है,जिसे देख जीवन भी आसमान की तरह दंग है।किस्सागो की रूह ,रफीक मिंया की रूह के साथ पतंग पर बैठी सितारा बनने के लिए – – – -किस्सा बनने के लिए।
    बिना किस्सों के यह जीवन-जगत अल्ताफ की छत पर पिंजरों के खुले दरवाजे की तरह ही रह जायेगा- – – – – उनमें कबूतर नहीं होंगे।
    अशोक जी का बहुत-बहुत आभार!अरुण जी का भी आभार!

    Reply
  17. कुंकुम गुप्ता says:
    1 year ago

    ब्रजेश चाचा का धन्यवाद इतनी बढ़िया पोस्ट भेजने हेतु,/ अशोक अग्रवाल जी ने नवीन चाचा के संस्मरणों के विविध पहलुओं को अपनी विशिष्ट शैली से संवारा है l नवीन सागर का घटनाओं को सुनाने का रोचक अंदाज हम सभी बच्चों को इतना प्रभावी लगता था कि समय का पता ही नहीं चलता और उनकी बातें ख़त्म नहीं होतीं l अब तो केवल यादें शेष है l
    स्मृतियाँ व्यक्ति को कभी बीतने नहीं देतीं l घटनाओं के माध्यम से पुनः हम उनके करीब होते है उनको पतंग उडाने, मंजा बनाने और पुस्तकालय से किताबें लाकर ओढ़ने जा बहुत शौक था l हम सभी को भी अच्छी किताबें पढ़ने के लिए प्रेरित भी करते थे l चिरगांव क़ी सुधियां कभी भूलती नहीं l
    “चिरगांव अनचीन्हा रह जाता यदि वहाँ दद्दा का अवतरण न हुआ होता ” यह सही बात है l चिरगांव से नवीन चाचा और बृजेश चाचा का लगाव ननिहाल के कारण बहुत रहा l
    “गाँवो में गाँव चिरगांव ” शीर्षक बहुत अच्छा लगा l ऐसे स्नेहिल मित्रों को धन्यवाद जो खूबसूरत यादों में मित्र को अपनी स्मृति में संजोये हैं l

    Reply
  18. कुंकुम गुप्ता says:
    1 year ago

    पचास के दशक में चिरगांव किसी साहित्य तीर्थ से कम नहीं था l वृन्दावनलाल वर्मा, महादेवी वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, पुरुषोत्तम दास टंडन, रायकृष्णदास, आदि को हम लोगों ने बचपन में देखा है ज़ब उनके व्यक्तित्व से बालमन अनजान था l

    Reply
  19. सुरेंद्र राजन says:
    12 months ago

    आपके ज़रिए नवीन को याद करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मेरी अश्रु ग्रंथियां अभी तक मुरझाई नहीं हैं!!

    Reply

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