अपने वतन, वजूद और भाषा की खोज करती कविताएँ वैभव सिंह |
सविता सिंह का नया काव्य संग्रह है – ‘वासना एक नदी का नाम है’. कुल इकसठ कविताओं का यह संकलन दर्शाता है कि अब स्त्रियों की कविताओं का संसार भावनात्मक रूप से जितना सघन है, बौद्धिक रूप से भी उतना ही समृद्ध भी है. स्त्री-कविताओं का आकाश अधिक विस्तृत होता गया है. सविता की कविताएँ भी हमें पृथ्वी, आकाश, विषमता और स्वप्न के कई रूपों से अवगत कराती हैं. ये कविताएँ शब्दों की उथलपुथल के बीच बैठी स्त्री की कविताएँ हैं जिसके पास मौजूद शब्द ही अब हथियार है, सुईधागा है, यूटोपिया है और अभिव्यक्ति का साधन है.
मलयालम तथा अंग्रेजी की कवि कमलादास ने अपनी एक कविता ‘वर्ड्स’ में लिखा था- ‘आल राउंड मी आर वर्ड्स, एंड वर्ड्स एंड वर्ड्स.’ उन्होंने शब्दों की कुटिलता से सावधान भी किया था पर यह भी लिखा था कि वे उनके प्रति भावुक भी है. वे लिखती थीं कि शब्द इस प्रकार मुझमें उगते हैं जैसे वृक्षों पर पत्तियाँ, वे मेरे मौन में आते हैं, मेरे भीतर से आते हैं. नई चेतना के निरंतर उन्मेष में यह हैरानी की बात नहीं है कि स्त्रियों ने अब केवल वाचिक नहीं बल्कि लिखित रूपों में शब्दों को अधिक साधा है, उसकी क्षमता को अधिक सराहा है. स्त्रियों की कविताएँ भाषा व उसके मुहावरों की दृष्टि से अधिक कलात्मक व सघन हैं. वे हर क्षण किसी सही शब्द की खोज में हैं, शब्दों के सही प्रयोग को अधिक महत्त्व देती हैं.
सविता की कविता में भी आवेग, ऐंद्रिकता, प्रकृति के राग-रंग, उसके विविध अप्रस्तुत विधान व बिंबधर्मिता सभी के पीछे एक गहरी शब्द चेतना है. उनकी समूची काव्य दृष्टि में काव्यभाषा, उसकी लय, तुक, व्याकरण व प्रवाह के प्रति संवेदनशीलता है जोकि स्त्री विमर्श के दबाव में कई बार उपेक्षित रह जाती है.
एक चीज जो उनकी कविताओं को विशेष महत्त्वपूर्ण बनाती है, वह है प्रकृति के भावपूर्ण प्रतिचित्र गढ़ना. प्रकृति को वे सजीव-साकार ताकत में बदलती चलती हैं. उसमें वनस्पतियों की गंध है, सारस और हरिल की उड़ान है. अपनी कविता ‘मन जंगल’ में वे लिखती हैं-
‘कुछ दिन पहले ही तो पहाड़ों में थी
उनकी ऊबड़खाबड़ पीठ देखती रही थी
वहाँ बची वनस्पतियों की गंध से अब भी भरी हुई हूँ.’
ये पंक्तियाँ जितनी प्रकृति से जुड़ी हैं उतनी स्त्री की वैयक्तिकता के विस्तार का दर्पण है.
कविता और प्रकृति के संबंधों की हिमायत करने वाले लोग जानते हैं कि कविता में चित्रित प्रकृति का सौंदर्य वास्तव में प्रकृति के वास्तविक सौंदर्य से कहीं अधिक महान, बहुस्तरीय व असाधारण हो सकता है. वजह यह है कि प्रकृति के वास्तविक सौंदर्य का अनुभव कर रहा साधारण मन प्रकृति के कई सौंदर्यचिंत्रों व सौंदर्यबोधक पक्षों के अनुभव से वंचित रह जाता है. पर एक उन्मत्त तथा भावपूर्ण कवि मन प्रकृति के सौंदर्य का मानवीय भावों से गहन कलात्मक संबंध स्थापित कर उस प्रकृति को साधारण भौतिक सत्ता से ऊपर उठाकर एक असाधारण कलात्मक कृति के रूप में रूपांतरित कर सकता है. वह प्रकृति को मानव मन का संगी-साथी बनाकर प्रकृति के सूक्ष्म पर्यवेक्षण व उसके प्रति आत्मीयता की स्वाभाविक मानवीय चाह को गरिमापूर्ण बना सकता है.
इस प्रकार कविता में अंकित प्रकृति चित्र तभी सफल होते हैं जब वे साधारण इंद्रियों व साधारण दर्शन से प्रकृति के ग्रहीत सौंदर्य की तुलना में कहीं अधिक सौंदर्यमय होते हैं और उनकी यह सौंदर्यमयता प्रकृति के माध्यम से उदात् मानवीय विचारों व भावों की अभिव्यक्ति की प्रणाली से जन्म लेता है.
सविता की कविताओं में भी प्रकृति रोशनी प्रदान करने वाली संरचना में बदलती है. ऐसी संरचना जिससे प्रकृति भी रोशन है और वे भाव भी जो उसके माध्यम से प्रस्तुत किये जाने हैं. उनकी कविताओं में कुछ मूलगामी शब्द हैं और उन्हीं शब्दों में ‘हवा’ भी है. हवा के बहुत मार्मिक अनुभव व चित्र उनकी कविताओं का हिस्सा हैं. वे हवा का इरोटिक बिंब की तरह भी प्रयोग करती है और अपनी कविता ‘दारुण समय’ में कहती हैं-
‘पौ फट चुकी है
हवा देह से अब भी लिपटी है
प्रेम उसी के आलिंगन में
अलसायी थिरायी शिथिल.’
एक अन्य कविता ‘बचे रहना’ में लिखती हैं-
‘ऐसे ही ठंडी हवा चलती रहे
जीती रहूँ ऐसे ही सुखी
कौन चाहेगा यह तादात्म्य टूटे
हवा और स्त्री के बीच का.’
विचार करने पर लगता है कि बहती-झकझोरती हवा से उनके स्त्री-मन के संबंध का कारण संभवतः यह है कि हवा भी स्वाधीन है, आसपास है, और जीवन का आधार है. हवा की स्वाधीनता और उसका जीवन का आधार होना किसी स्त्री के लिए सहज ही उसके प्रति आकर्षण को पैदा कर सकता है, जो उनकी कविताओं में भी दिखता है. कविता में प्रकृति तथा प्रकृति से जुड़े आनंद को सविता की कविताएँ बेझिझक उभारती हैं. वे प्रकृति के प्रांगण में आनंद को खोजने जाती हैं, उसकी स्मृतियों व अनुभूतियों का कोष तैयार करती हैं. इसलिए पाठक को भी प्रकृति का ताजा स्पर्श अनुभूत होता है और यदि प्रकृति से कविता तो काट दिया जाए तो ऐसी कविता मनुष्य की भी अधूरी छवि गढ़ती है. रामचंद्र शुक्ल का पुराना कथन बरबस याद आता है कि ‘मनुष्य शेष प्रकृति के साथ अपने रागात्मक संबंधों का विच्छेद करने से अपने आनंद की व्यापकता को नष्ट करता है.’
सविता की कविताओं में स्त्री कामुकता, कामवासना व ऐंद्रियता का भी घना संसार है. इस विविध आयामी के सौंदर्य को केवल वही समझ सकता है जो यह जानता है कि स्त्रियों की कविता ने पिछले कुछ दशकों में लंबी यात्रा की है. अब जिस संवेदना को वे प्रकट करती हैं, उसे किसी बासी प्रतिमानों और रूढ़िवादी काव्यशास्त्रीय ज्ञान से नहीं जांचा जा सकता है. कविता में कामवासना की अभिव्यक्ति को कभी गलत नहीं समझा गया है. कालिदास से लेकर विद्यापति तथा रीतिकालीन कविता तक कामवासना की विविध अभिव्यक्तियाँ हुई हैं. उनके केंद्र में स्त्रियों को लेकर विरक्ति, आकर्षण व भोग के भाव मौजूद थे.
स्त्री देह का वस्तुकरण भी होता था और उसका जो ‘फैलोसेंट्रिक’ आधार था, वह स्त्रीवादी आलोचना में विश्लेषित हुआ है. लेकिन स्त्री भी जब कविताओं में कामेच्छा, संभोग, देह, यौन आदि को खुलकर प्रकट करती है तो वह वर्तमान कविता का अधिक स्वाभाविक यथार्थ है. अगर ‘रेडिकल कामुकता’ इस प्रकार व्यक्त न हों तो आज की कविता यथार्थ से अधिक दूर प्रतीत होगी. जो स्त्री संवेदन बदल गया है, या जो स्त्री मन निर्मित हो चुका है, उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति ही अब यथार्थ को प्रकट करने के लिए अनिवार्य है. इसलिए सविता की कविताएँ इरोटिक बिंबों व इमेजरी को गढ़ती हैं, उन्हीं से कविता में एक सहज सौंदर्यात्मक आवेग पैदा करती हैं. उनकी कविताओं में संभोग शब्द भी कई बार आता है और इस किस्म के शब्द कविता में केवल मांसल संप्रेषण नहीं पैदा करते बल्कि स्त्री चेतना के ऐतिहासिक विकास व उसकी नई भंगिमा प्रकट करते हैं. संभोग से जुड़ी रतिक्रिया, कामना व दैहिक आवेग उनकी कविता में प्रायः पुरुष केंद्रित न होकर प्रकृति के संग एकाकार हो जाते हैं. वे बहुत गरिमावान ढंग से स्त्री के अस्तित्व के प्रतीक में ढल जाते हैं. अपनी कविता ‘संभोगरत’ में वे रात, सांझ, सुबह, महुवे आदि के उद्दीपनों के साथ किसी दृश्य की कल्पना करती हैं और कहती हैं-
‘सब एक-दूसरे से मिलना चाहते हैं
सब संभोगरत हैं नहीं जानते
आखिर यह हुआ कैसे.’
यह संभोग-दृश्य किसी रूपक तथा सादृश्यता जैसा है जो प्रकृति और स्त्री मन को नजदीक लाता है, पर जिसमें स्त्री का अवचेतन प्रमुख होता है. अपनी एक अन्य कविता ‘पुनर्जन्म की इच्छा’ में भी वे ऐसा ही दृश्य कल्पित करती हैं जहाँ सारे बंधन समाप्त हो गये हैं. जहां स्त्री-मन को उन्मुक्त होना है, वह एकांत परिवेश है. वहाँ मौन व वन हैं. पुरुष लगभग अनुपस्थित है. लगता है कि पुरुष को स्त्रियों ने अपने देश से बाहर कर दिया है. प्रकृति का एकांत ही स्त्री अवचेतन की इच्छाओं व गांठों को खोलने में प्रयोग किया जाता है. वे लिखती हैं-
‘सांझ उतर आयी है पेड़ों के बहुत पास
अभी पृथ्वी पर कुछ और होना बाकी है
पत्तों का पत्तों के संग
फूलों का भँवरों के संग
समुद्र का लहरों के संग
संभोग बाकी है. ‘
ध्यान देने की बात है कि स्त्री अपनी कामवासना में अधिक सहज व आत्मोन्मुखी है. वह न तो आक्रामक है और न काम की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया में ‘अन्य’ के दमन को आवश्यक मानती है. यह वह प्रेम है जो संसार से न मिल सके प्रेम के कारण स्वयं को प्रदत्त प्रेम है, यानी सेल्फ-लव.
स्त्री की देह तथा उसमें उठने वाली कामनाओं के आधार पर पहले भी स्त्रियों ने कविताएँ रची थीं. उन्होंने देह को आखेट-सामग्री के बदले प्रतिरोध की वस्तु बनाया है. मध्यकाल की अक्का महादेवी का नाम इस संदर्भ में याद आता है. बताते हैं कि बारहवीं सदी की इस कन्नड़ कवयित्री ने प्रतिरोध स्वरूप अपनी देह के सारे वस्त्र त्याग दिये थे और देह को ढँकने के लिए केशों का उपयोग करती थीं. इसीलिए उनका एक नाम ‘केशाम्बरी’ भी था. आज की सृजनशील स्त्रियाँ भले निजी जीवन में पहले जैसी यातना का सामना न करती हों पर अपनी कविताओं में देह न उसकी लालसाओं को गौरवपूर्ण भाव की तरह पेश कर रही हैं. बदलते इतिहास ने उनकी कविताओं में नई बात यह जोड़ी है कि अब वे केवल खीज अथवा कर्कश विरोध तक सीमित नहीं हैं बल्कि अधिक ग्रेस व आत्मसम्मान के साथ अपनी वैयक्तिकता को कविता में प्रकट कर रही हैं.
सविता ने इस संकलन में बहुत प्रत्यक्ष राजनीतिक कविताएँ नहीं शामिल की हैं, हालांकि जो कविताएँ ऊपर से नितांत भावपूर्ण वैयक्तिकता से भरी लगती हैं, उनमें भी उनकी समाज व सृष्टि के बारे में खास आलोचना-दृष्टि व राजनीतिक परिपक्वता झलकती है. ऐसे में उनकी उन कविताओं पर अधिक ध्यान जाता है जिनमें बेलाग लपेट विश्व की परिस्थितियों के बारे में राजनीतिक चिंताएँ जताई गई हैं. उनमें एक ऐसी ही कविता है ‘फिलीस्तीन एक जगह है’. यह कविता संसार के कई कोनों में जारी भीषण नरसंहार की खबर देती है जिसमें सपाट प्रतीत होता गद्य-रूप भी संवेदना की बुनावट से झकझोरने वाली कविता में बदल जाता है. इस कविता की पंक्तियाँ हैं-
‘लो अब फिर शुरू हो गयी है बमबारी
चांद निढाल सा पृथ्वी के सूखे होंठों पर आ टिका है
सबकुछ रुक गया है मौत के सिवाय
जिसकी बारिश हो रही है.’
इस कविता के अलावा उनकी एक अन्य कविता ‘सुहेर हम्माद’ भी संकलन में शामिल है जो मध्यपूर्व में विस्थापन व नस्लीय दर्प के विरोध में लड़ रहे कवियों से सविता के संवेदनात्मक जुड़ाव की गवाही देता है. सुहेर हम्माद फिलस्तीन के विषयों से जुड़ा साहित्य लिखती रही हैं और वर्तमान में अमेरिका में रहती हैं. उनके पिता फिलस्तीन से आए शरणार्थी थे और उन्हीं के साथ वे पांच साल की उम्र में अमेरिका आ गई थीं. लेकिन उन्होंने जब कलम थामी तो फिलस्तीन पर विस्तार से लिखा. उन्हीं पर रचित कविता में सविता जैसे उनकी भाव-संवेदना के बहाने शरणार्थी कवियों की मनःस्थिति को लिखती हैं-
‘मैं एक देश थी
जिसका वजूद एक समय सहरा था
बाद में जिसके कई टुकड़े किये गये
कई दुःखों में वह बँटा
एक उसमें फिलीस्तीन हुआ
मैं इस टुकड़े का एक जर्रा, सुहेर हम्माद
उठाती हूँ आजकल कविता में
अपने देश में बिखरी बच्चों की अस्थियाँ.’
भारत में रहने वाली एक कवयित्री की फिलस्तीनी संघर्ष से जुड़ी कवयित्री से संवेदनात्मक एकजुटता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है.
आज कविता की एक प्रमुख भूमिका किसी भी प्रकार की संकीर्णता से मोर्चाबंदी करना है. संस्कृति, लैंगिकता व देश से जुड़ी संकीर्णता का बाजार बहुत बड़ा है और कई बार लगता है कि जैसे पहले उदार विचारों के लिए अधिक स्थान था, उसी प्रकार अब संकीर्णता की व्याप्ति व खपत अधिक होती जा रही है. हमारी फिल्मों, मनोरंजन से लेकर साहित्य व कलाओं तक पर खोखले अहं व संकीर्णता का असर बढ़ा है. ऐसे समय में सविता की कविताएँ हमें फिर से याद दिलाती हैं कि कवि का काम उदात्त व विराट की खोज के बगैर नहीं चल सकता है. उसका विस्थापन व अकेलापन इस खोज का परिणाम हो सकता है, पर यही उसका सभ्यता के प्रति सबसे बड़ा दायित्व भी है.
वह शोभायात्रायों तथा शासकों के शौर्य के बखान करने के लिए नहीं बना है, बल्कि आत्मसंघर्ष की जमीन पर खड़ा रहकर उदात्त मूल्यों के सृजन की जिम्मेदारी निभाता है. यानी किसी ऐसे समाज से कभी कवि का समझौता नहीं हो सकता जो युद्ध और विषमता को बनाए रखना चाहता है. यदि किसी दुर्भाग्य या अन्य कारणों से ऐसे समाज में उसे रहना भी पड़े तो वह किसी ऐसी अनथक यात्रा पर जाना चाहता है जहाँ वह स्वयं को संघर्ष करता हुआ महसूस करे. निजी संघर्ष का ताप ही उसकी कविता को ताप प्रदान करता है. इस विडंबना व उससे जुड़ी सार्थकता पर सविता की ये पंक्तियां प्रकाश डालती हैं-
‘मैं चल रही हूँ इसी तरह थकी
हवा संग
नदियों को लाँघती
पहाड़ों पर चढ़ती
मैं कितने ही पहाड़ पार कर चुकी हूँ
सोचती रहती हूँ
मैं कहाँ हूँ अभी
कहाँ है मेरा अपना वतन.’
ये पंक्तियाँ वर्जीनिया वुल्फ की पंक्तियों का भी स्मरण कराती हैं जिसमें वे कहती है- बतौर एक स्त्री मेरा कोई देश नहीं है. सारा संसार ही मेरा देश है.
वैभव सिंह ई-मेल : vaibhv.newmail@gmail.com |
रचती-खोजती कविताएँ और उतना ही सारगर्भित विश्लेषण.
वैभव सविता सिंह की कविता के अन्तःप्रदेश में प्रवेश करते हैं, तब जाकर कविता के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हैं। कवयित्री सविता सिंह और आलोचक वैभव सिंह को बहुत बहुत बधाई।
सविता सिंह ने ऐंद्रिकता और प्रकृति को मिलाकर संभोग को नये आयाम दिये हैं । हवा बदन को छूती है और गहरे तक ले जाती है ।
वैभव सिंह द्वारा किया गया शब्दों का चयन दृढ़ विश्वास जगाता है कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को सरल बनाया जा सकता है । सभी को बधाई । अपने पिता के साथ अमेरिका में बसने चली गयी ५ वर्ष की आयु की लड़की [नाम भूल गया] ने फ़िलिस्तीन की सहरा में देश के अस्तित्व के बने रहने की कामना को शिद्दत से लिखा है ।