उत्तराखण्ड में नवलेखन-3
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अरुण कुकसाल
‘उत्तराखंड के सबसे ऊंचे पर्वत-शिखर पर बसे विश्व-प्रसिद्ध धाम बाबा केदारनाथ का आवास समुद्र सतह से 3580 मीटर की ऊँचाई और 300-44’-15’ उत्तरी अक्षांश तथा 790-6’-33’ पूर्वी देशांतर के मध्य स्थित है. मंदिर के दायें मेरु, बाएं सुमेरु और पीछे महापंथ हिमालयी शिखर हैं. महापंथ शिखर की तलहटी में चौराबाड़ी ताल (3800 मीटर) है जो मंदाकिनी और सरस्वती नदी का उदगम-स्थल है. मंदाकिनी केदारनाथ मंदिर के दायें, सरस्वती बायीं ओर से प्रवाहित होती है. मंदाकिनी के निकट से ही मधु गंगा और दुग्ध गंगा के उदगम-स्रोत प्रवाहित होते हैं. केदारनाथ से बासुकीताल (4135 मी), 8 किमी की दूरी पर है. बासुकीताल को ‘लैंड ऑफ़ ब्रह्मकमल’ भी कहा जाता है.’
(‘चले साथ पहाड़’, पृष्ठ 162)
पौड़ी गढ़वाल जिले के चामी गाँव में 1959 में जन्मे यायावर-एक्टिविस्ट अरुण कुकसाल की 2021 में अलग ढंग से पहाड़ी जिन्दगी का यथार्थ प्रस्तुत करने वाली किताब आई है ‘चले साथ पहाड़’. हिंदी में पहाड़ी पथों पर लिखे गए यात्रा-वृतांतों की कमी नहीं रही है. हमारे ही पुरखे पंडित नैन सिंह रावत से लेकर राहुल सांकृत्यायन, स्वामी प्रणवानंद और नेत्र सिंह रावत से लेकर शेखर पाठक की 1984 में आयोजित यात्रा-श्रृंखला ‘अस्कोट से आराकोट तक’ से प्रेरित होकर की गई सैकड़ों युवाओं की यात्राएँ इस बात की गवाह हैं कि पहाड़ को युवा कदमों से सहलाने का सिलसिला आज तक जारी है.
पहाड़ के शायद ही कोई उत्साही युवक और युवतियाँ होंगी जिसने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में इसमें भागीदारी न की हो. इसी से उत्साहित होकर प्रदेश के कोने-कोने से अनेक युवाओं ने अपने क्षेत्र और पहाड़ी शिखरों की यात्राएँ की और अपने अनुभवों को यात्रा-पथ के आकर्षक छाया-चित्रों के साथ प्रकाशित किया. अरुण कुकसाल की किताब इस रूप में अलग है कि यह लेखक के गाँव-इलाके से जुड़े उन दुर्गम पहाड़ी-पथों की यात्राएँ हैं जिन्हें लेखक बचपन से लेकर आज के दिन तक लगातार तय करता आ रहा है और बार-बार उसका रचनात्मक अवलोकन करता रहा है.
असल में घुमक्कड़ी और यायावरी जैसे देसी शब्दों की जगह जब से ट्रैकिंग जैसे विदेशी शब्द का आगमन हुआ, युवाओं में अपनी स्मृतियों को लेकर नई तरह की ऊर्जा पैदा हो गई. इसके बाद ज्यों ही डिजिटल मोबाइल कैमरा आया उसने तो इस उत्साह को नए पंख ही दे डाले. प्रकाशन के क्षेत्र में एक नया जनतंत्र उभरा जिसने लेखक, संपादक, प्रकाशक, वितरक के पुराने महिमामंडन को झटके से ख़ारिज कर दिया. हर रास्ते, जंगल, व्यू-पॉइंट और नदी-तालाब के इर्द-गिर्द एक ही वक्त में सैकड़ों रचनाएँ अंकुरित होने लगीं और हर आदमी में अपने यात्रिक होने का छद्म-आडंबर घर करता चला गया. भाषा, सांस्कृतिक अभिरुचि और कलात्मकता के पुराने दायरे भी सिमटते हुए अजीब-सी अराजकता में गायब हो गए.
13 जुलाई, 2018 को लिखे गए डायरी के पन्ने ‘शिव की प्रणयस्थली- मध्यमहेश्वर’ से ‘चले साथ पहाड़’ की शुरुआत की गई है. मंदाकिनी नदी के बाएँ छोर से सटे बांसवाडा, भीरी, काकड़ागाड़ और उसके बाद के कुंड गाँवों को बाँध द्वारा जमींदोज़ करने की व्यथा-कथा को याद करते हुए लेखक कालजयी कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की अपने जन्मस्थान मालकोटी गाँव पर लिखी कविता को गाता हुआ यात्रा का आरंभ करता है:
नदी चली जाएगी, यह न कभी ठहरेगी,
उठ जाएगी शोभा, रोके न रुकेगी,
झर जाएँगे फूल, हरे पल्लव जीवन के,
पड़ जाएँगे पीत, एक दिन शीत मरण से,
रो-रो कर भी फिर न, हरी यह शोभा होगी,
नदी चली जाएगी, वह न कभी ठहरेगी.
1940 के आसपास लिखी इस कविता को याद करते हुए लेखक को 2018 में तहस-नहस अपनी मातृ-सरिता मंदाकिनी को देखकर लगता है कि चंद्रकुंवर की कविता के साथ-साथ इस अवधि में मंदाकिनी को ही नहीं, कवि-स्मृति को ही दफ़न किया जा रहा है.
और यह दर्द एक कवि-हृदय पाठक का नहीं, अपनी धरती के उस टुकड़े के छिन जाने की पीड़ा है जिसके साथ उसकी माँ-पृथ्वी और बचपन की स्मृतियाँ भी जमींदोज़ हो गई हैं. एक साथ तीन स्मृतियों का अतीत बन जाना: पाँवों पर खड़े होकर जीवन देने वाली धरती-माँ की स्मृति, कालिदास से चंद्रकुंवर तक की अनवरत् पहाड़ी पथों पर गाई जाती रही कवि-कल्पनाओं की स्मृति और विशाल बांधों के जरिए समूची धरती को प्राणदान देने वाली सरिताओं की साँसों को आधुनिकता के क्रूर-निर्मम बुलडोजर द्वारा पहाड़ी पथों को थर्राते हुए मार डालने की स्मृति.
कुकसाल की यह किताब यात्रा के बहाने अपने इलाके का परिचय-मात्र नहीं है, न अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक गौरव-गाथा. हिंदी में लिखे गए अधिकांश यात्रा-वृतांत इन्हीं दबावों में सामने आते रहे हैं. लेखक की भाषा में अलग किस्म का व्यंग्य है जो आत्म-व्यंग्य भी है, विडंबना-बोध भी है, आदमी और प्रकृति के संघर्ष में से बचे-खुचे उन दोनों की कुचली स्मृतियों के अवशेष भी हैं और सत्ताधारियों और आम आदमी के रिश्तों में पैदा होती चली जा रही खाई का विसंगति-बोध भी.
व्यंग्यात्मक भाषा की यह शैली शुरू से ही पाठक को अपनी पकड़ में बांध लेती है और खास बात यह है कि एक कलात्मक व्यंग्य-बोध की तरह यह भाषा सिर्फ हँसाती-रुलाती ही नहीं, गुदगुदाती भी नहीं; पाठक के अन्दर घुसकर उसे आत्मान्वेषण के लिए विवश करती है. 207 पन्नों की यह किताब यात्रा-पथ के शब्द-चित्रों के साथ-साथ उन स्थानों के आकर्षक छायाचित्रों को भी दिखाती चलती है और खुद के साथ पाठक को भी अपना अन्तरंग सहयात्री बना लेती है.
यात्रा के दौरान के इस विवरण का एक चित्र
“केदारनाथ मंदिर के दर्शन के बाद बायीं ओर की पहाड़ी धार पर दो किलोमीटर दूर स्थित भैरवनाथ मंदिर हम जा रहे हैं. उस ओर का रास्ता केदारनाथ मंदिर के पीछे से घूमकर जाता है, केदारनाथ मंदिर के पीछे पत्थर की विशाल शिला है, जिसे आपदा के बाद दिव्य शिला नाम दिया गया है. ये माना गया कि इस शिला के बीच रास्ते में आने से मंदिर क्षतिग्रस्त होने से बच गया था. इसी दीवार में एक जगह पर 16 जून, 2013 की आपदा को ‘हिमालयी सुनामी’ कहा गया है. उस समय इस इलाके में 375 प्रतिशत से भी अधिक बारिश हुई थी. अचानक आये इस जल-प्रवाह में 197 लोगों की तत्काल मृत्यु, 236 लोग घायल और 4029 लोग लापता हो गए थे जिन्हें बाद में मृत मान लिया गया था. इस स्थल के पास ही एक ध्वस्त हेलिकॉप्टर का कंकाल पड़ा है जो कि उस समय की भयावहता की निशानी है.”
दस अध्यायों में बंटी किताब को लेखक ने अपने दोस्तों – भूपेन्द्र नेगी, सीताराम बहुगुणा, उमाशंकर नैनवाल, राकेश जुगराण, ललित कोठियाल, अजयमोहन नेगी, प्रदीप टम्टा, रतन सिंह असवाल, राजेश जुआंठा, महेश कांडपाल, विजयपाल रावत, हरीश ऐंठानी, ललित फर्स्वाण, उमेश जोशी, देवेन्द्र परिहार, मदन मेहता, शेखर लखचौरा, प्रशांत जोशी, तरुण टम्टा, रग्घू तिवारी, दीना कुकसाल, आशीष घिल्डियाल, इन्द्रेश मैखुरी, नीतू घिल्डियाल, हिमानी कुकसाल आदि के बतियाते, शरारतें करते, शोध अध्ययन की सामग्री जुटाते तय की है.
अध्यायों के शीर्षक भी खासे रोचक और लेखक के मंतव्य को पूरे प्रभाव के साथ उजागर करते हैं:
1. शिव की प्रणयस्थली – मध्य महेश्वर; 2. कहो, कैसे हो रानीखेत; 3. दुनिया सरनौल तक उसके बाद बडियाड़ है; 4. शिव का रौद्ररूप – रुद्रनाथ; 5. यात्रा दरियादिल दानपुर की; 6. हिमशिखरों का अनुपम सौन्दर्य – सुन्दरढूंगा ग्लेशियर; 7. देवाधिदेव केदारनाथ; 8. शिव-पारवती को निहारते कार्तिकेय; 9. श्रीनगर से अल्मोड़ा वाया सोमेश्वर;; 10. तुंगनाथ: दिनिया में सबसे ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिर.
‘चले साथ पहाड़’ दरअसल केदारनाथ या किन्हीं धार्मिक स्थलों या खूबसूरत पर्यटन-स्थलों के बारे में नहीं है, इसके उलट उत्तराखंडी लोक जीवन के खूबसूरत मेहनतकश लोगों की बानगी है जो घोर विपत्ति के बीच भी अपने व्यक्तित्व के खूबसूरत पक्ष, उसके सौन्दर्य को सुरक्षित रखे हुए हैं.
सुन्दरढुंगा गाँव का एक दृश्य: 12 अक्टूबर, 1990
“खूबसूरत 11 साल की बच्ची के नियंत्रण में हैं दो सौ के करीब भेड़ें, बकरी, गाय और मोटा झबरा-सा बड़ा कुत्ता. उसके साथ 6-7 साल का छोटा भाई भी है. भाई के दोनों हाथ की गिरफ्त में भेड़ का एक प्यारा छौना है.
मैंने पूछा, ‘पढ़ती हो?’
खित्त-सी हँसी… छू छू छू… भेड़ों की ओर देखकर नज़र चुरा ली उसने. कौन कहेगा उससे पढ़ने को? इजा को खेती-बाड़ी व बापू को पीडब्लूडी की लेबरी से फुरसत नहीं है. फिर घास, लकड़ी, पानी, खाना, जानवरों की देखभाल, ये ढेर सारे काम हैं उसके जिम्मे. छोटा भाई भी उसके साथ रहेगा दिन भर. हमसे बातचीत में वह मशगूल है लेकिन भेड़-बकरियों पर पैनी नज़र भी है उसकी. हल्की सीटी के साथ अपने गूढ़ इशारों से वह भेड़ों को दूर जाने से रोक लेती है. वह मोटा झबरा कुत्ता दूर की ढलान पर भेड़-बकरियों से आगे ज़मीन पर चित्त लेता है. पर वह भी अपनी इस ड्यूटी पर मुस्तैद है कि कहीं कोई जंगली जानवर मालिक की भेड़-बकरियों को न दबोच ले.
भेड़ों के 15-20 दिन पहले जन्मे बच्चे हमारे आस-पास ही हैं. सबके नाम रखे हैं उसने – गप्पू, चूनी, मूनी, तबी, गेड़ी, मुस्ती, नानू और ढेर सारे प्यारे नाम. विदा लेने के बाद ढाल की धार से पीछे देखता हूँ, भाई-बहनों को. मेरे देखने भर से ही दोनों के हाथ हवा में झूलते हैं. प्रत्युत्तर में मेरे हाथ भी उठ जाते हैं, उनसे विदा लेने.
दयाल सिंह दानू राजकीय इंटर कॉलेज, सोराग में 12वीं का छात्र है. सोराग से सरनी गाँव 5 किलोमीटर है. रोज घर से कॉलेज पैदल आना-जाना 10 किलोमीटर है. वैसे 4 किलोमीटर पर खाती में भी इंटर कॉलेज है. पर साइंस के चक्कर में ज्यादातर लड़के सोराग ही जाते हैं. लड़कियों को यदि इंटर करना हुआ तो खाती इंटर कॉलेज ही जा पाती हैं. इधर के इलाके के 6 से 12वीं क्लास तक के लगभग 60 बच्चे सोराग और 40 खाती कॉलेज में पढ़ने जाते हैं. रास्ते उबड़-खाबड़ हैं और जंगली जानवर घात लगाए अक्सर मिलते हैं.
खष्टी दानू (23 वर्ष) इसी उच्च माध्यमिक विद्यालय, सरनी में प्राइवेट तौर पर अध्यापिका है. वह बच्चों को मुख्यतया हिंदी,संस्कृत और सामाजिक विषय पढ़ाती है. खष्टी इसी गाँव की है, यानी उसका मायका सरनी है. ससुराल मल्ला गाँव की सबसे ऊपरी धार में है. मल्ला गाँव पिंडर नदी के पार यहाँ से 4 किलोमीटर की एकदम खड़ी चढ़ाई पर है. वह ससुराल से ही रोज स्कूल आती-जाती है. आने-जाने में पूरे तीन घंटे लगते हैं. विकट चढ़ाई और उतार जो है. घर पर एक साल की बच्ची और पति हैं. सबको देखना होता है. उसके पति पहले रुद्रपुर में किसी प्राइवेट कंपनी में काम करते थे. कंपनी बंद होने को हुई तो उनको वेतन मिलना बंद हो गया. महीनों बिना वेतन के काम करते रहे. और जगह काम मिलना संभव न हुआ. घर आये तो खष्टी ने उनको गाँव में ही रोक लिया. “गाँव में ही मिलजुलकर कुछ-न-कुछ कर लेंगे, मैं हूँ ना”, खष्टी ने कहा तो उसके पति ने बात मन ली. अब वे खेती-बाड़ी, पशुपालन, घर की देखभाल और भी कई काम करते हैं.
खष्टी कहती है, ‘कष्टों में भी मज़े की है ज़िंदगी हमारी.’
मैंने पूछा – ‘इतना काम कैसे कर लेती हो?’
तपाक-से बोली और बोलती रही नॉनस्टॉप – ‘सरजी, जीवन में कुछ हासिल करने के लिए बहुत कुछ खोना और ढोना पड़ता है. खोने और ढोने की परवाह किये बिना जो थोड़ा-बहुत हमारे लिए बचा या प्राप्त होता है उसी से ख़ुशी-ख़ुशी जीवन को जिया जा सकता है. ये मैंने जीवन से सीखा है. फिर, मैं अकेली कहाँ, यहाँ तो सभी लोग जीवटता का जीवन जी रहे हैं. 10 से 12 साल के छठी, सातवीं और आठवीं के 15 लड़के-लड़कियाँ स्कूल के बाद मेरे साथ 4 किलोमीटर की तीखी चढ़ाई चढ़कर घर जायेंगे और वापस फिर कल स्कूल ठीक समय पर आएंगे, पढ़ने के लिए. रोज-रोज के बदलते मौसम और परिस्थितियों के हिसाब से भूख, प्यास, थकान, बरसात, गर्मी और जाड़ा तो अपनी जगह है, जंगली जानवरों का डर अलग से. घर में आर्थिक तंगी तो है ही. घर पहुंचे तो तमाम काम हम सबके इंतजार में मुँह ताकते नज़र आते हैं. यह हाईस्कूल हो जाये तो लड़कों से ज्यादा लड़कियों का भला हो जायेगा सरजी.’
पहाड़ी शिखरों की विडंबना कहें या पहाड़ का सौन्दर्य! एक ओर केदारनाथ मंदिर के पीछे खड़ी विशाल छाता की तरह दिव्य शिला है जिसने 16 जून, 2013 की सुनामी में भारत के उच्चतम शिखरों में एक में हजारों साल से स्थित हमारी पुरातात्विक धरोहर को बचाया था, देश के प्रधान मंत्री ने इस शिला का पूजा-अर्चन किया और समय-समय पर यहाँ आकर घंटों योग-साधना करते रहे हैं. उसी दिव्य छाता के नीचे तो रहते हैं सुन्दरढुंगा, मौलिखर्क, डिंगाड़ी, सरनौल, गंगताड़ी, भराड़ीसैण, डोटियाल, पुंग वगैरह गाँवों के अनाम मेहनतकश लोग जो अभावों के बीच भी किसी तरह पलायन की सुनामी को किसी तरह थामे हुए हैं.
पुंग की छानियों (जानवरों के लिए घर) से काफी दूर तक समतल घास के ढलान हैं. लगातार बारिश और लोगों के आने-जाने से रास्तों में फिसलन है. अब तक थमी बारिश फिर शुरू हो गई है. पोंग के आखिरी कोने से एकदम खड़ी चढ़ाई है. बांज-बुरांस के जंगल का घनापन और गहराने लगा है. समय का तकाजा है कि हम अपनी चाल में तेजी लाएँ. तभी अँधेरा होने से पहले मौलिखर्क पहुँच पाएंगे. पर लगातार चढ़ाई और बारिश के साथ ऐसी हालत में तेज चलने की भी एक सीमा होती है. शाम की धुंधलाहट भी तेजी से बढ़ रही है. एक ही धार से कैंचीनुमा चढ़ाई का रास्ता , बारिश की किच-पिच और दोनों ओर बद-बद तेजी से बहते गधेरों के शोर ने शरीर की बोझिलता बढ़ाई है. परन्तु ‘रुक जाना नहीं तू कहीं हार के’ का मंत्र इस समय हमारे मन-मस्तिष्क में है….
मोबाइल टॉर्च की रौशनी में हम चुपचाप आगे बढ़ रहे हैं. चढ़ाई और मोड़ का अंत होते तो दीखता नहीं है. पर रस्ते के ऊपरी ओर कि गुर्राहट और छिड़-बिड़ाहट जब बिलकुल पास और तेज होने को हुई तो हम तीनों जड़वत हो गए हैं. रास्ते के पहाड़ वाले हिस्से से एक साथ चिपक गए हैं. कमबख्त मोबाइल की टॉर्च भी जल्दी बंद नहीं हो रही है. ये तो निश्चित है कि कोई बड़ा जानवर उसी ओर है, जिस रस्ते हमें जाना है. बाघ की ही गुर्राहट है. छिड़-बिड़ाहट कई जगहों से आ रही है. यक़ीनन बाघ एवं बाघिन परिवार गश्त पर हैं. बहुत तेज़ बघ्याण (बाघ से आने वाली गंध) आ रही है. मैं अपने अनुभव और ज्ञान को जाहिर करने के लिए बताना चाह रहा था कि यह बघ्याण है. पर आवाज हो तो बोल पाऊँ. उल्टा गले में आई बात को वहीं दफ़न करने की कोशिश में खांसी जो होने को है. टोपमार कर तीनों ऐसे बुत बने हैं कि जैसे बाघ हमको नहीं देखेगा तो वह हमें नहीं खाएगा. हम निश्चित हो गए हैं कि हमारी तो जीवन-लीला खत्म होने ही वाली है.” (पृष्ठ 99-100)
2 सितम्बर, 2017
“सुबह के सात बजे हैं और मौलिखर्क में बारिश की रुण-झुण जारी है. परन्तु मेरे लिए ख़ुशी की बात यह है कि कि वर्षों बाद रात को फसोरकर (बेसुध) बचपन वाली नींद आई. वो ऐसे कि प्रेम सिंह की टीन वाली छत की छानी में रात को ठीक सोते वक्त 50 साल पहले अपने जोशीमठ वाले घर की याद जो आ गई थी…”
पहाड़ी जीवन के अंतर्विरोध, जो लगातार हमारे तथाकथित सभ्य होते चले जाने के साथ ही लगातार गहराते जा रहे हैं, महसूस करने के लिए अरुण कुकसाल की किताब ‘चले साथ पहाड़’ को जरूर पढ़ा जाना चाहिए. यह शीर्षक मेरे मित्र मशहूर विज्ञान कथाकार देवेन्द्र मेवाड़ी के द्वारा दिया गया है जो खुद भी अपनी धरती के अद्भुत चितेरे और यायावर हैं.
शम्भू राणा
बाबा केदार तो हमारे आध्यात्मिक पिता हैं और लोक जीवन में उनके संरक्षण के लिए आज भी उसी तरह दुहाई दी जाती है जैसे बौद्ध, जैन या शंकर के काल में. जिसे राष्ट्र का प्रधान सेवक अपना पिता मानकर आज भी उनके दर्शन के लिए इतनी लम्बी यात्रा करता हो, आम आदमी भला उसे क्यों नहीं अपना पालनहार मानेगा.
मगर इस पृथ्वी पर हमारा एक जैविक पिता भी होता है, सनातन काल से हर प्राणी का. जैविक पिता का नए युग के अनुसार एकदम नया रूप सामने रखा है हमारे दौर के अद्भुत व्यंग्यकार 1969 में देहरादून में जन्मे शम्भू राणा ने अपनी संस्मरणात्मक कृति ‘माफ़ करना हे पिता’ में जो 2013 में नैनीताल मुद्रण एवं प्रकाशन सहकारी समिति से प्रकाशित हुई है.
“पिता का मेरा सम्बन्ध लगभग 32 वर्षों तक रहा, लगभग मेरे जन्म से उनकी मृत्यु तक. माँ का साथ काफी कम और वह भी किस्तों में मिला. पिता के साथ यादों का सिलसिला काफी लम्बा है. सबसे पहले दिमाग में जो एक धुंधली-सी तस्वीर उभरती है वह यूँ है – गर्मियों के दिन हैं, पिता बेहद हड़बड़ी में दोपहर को घर आते हैं. शायद दफ्तर से बिना इजाज़त लिए आए हैं. मैं बीमार हूँ. मुझे कम्बल में लपेटकर दौड़े-दौड़े डॉक्टर के पास ले जाते हैं. डॉक्टर मुझे सुई लगाता है. पिता लौटकर माँ से कहते हैं – ‘डॉक्टर कह रहा था कि आधा घंटा देर हो जाती तो बच्चा गया था हाथ से.’ उस दिन तो बच्चा हाथ आ गया पर फिर उनके हत्थे नहीं चढ़ा.”
‘माफ़ करना हे पिता’ लेखक की आत्मकथा है, और बहुत साफ तरीके से एक आत्म-व्यंग्य. स्मृति जब व्यंग्य बनकर उभरती है, वही सही अर्थों में रचना को जन्म दे सकती है. ज्यादातर लेखक उनका इस्तेमाल अपनी छवि-निर्माण के लिए करते हैं जिसका रचना और उसके पाठक से कोई लेना-देना नहीं होता. स्मृति जब अतीत से जन्म लेकर वर्तमान से टकराकर अपना हक मांगने लगती है तो जीवन की वास्तविक विसंगति सामने आती है.
“माँ की मौत के साल बीतते-बीतते पिता जब्त नहीं कर पाए और दूसरी शादी की बातें होने लगीं. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण मुझे बताया गया कि मेरी देखभाल कौन करेगा. घर, खेती-बाड़ी सब बीरान हो जायेंगे. यह सब बहाना था, बकवास था. पिता साफ झूठ बोल रहे थे. कारण शुद्ध रूप से शारीरिक था, इतनी समझ मुझमें तब भी थी (बाकी आज भी नहीं), पिता अपने निजी, क्षणिक सुख के लिए शादी करना चाह रहे थे. मुझे देखभाल की ऐसी कोई जरूरत नहीं थी और खेती-बाड़ी ऐसी माशाअल्लाह कि आम बोकर भी बबूल न उगे. पिता ने बड़ा ही अराजक किस्म का जीवन जिया था. अपनी जवानी का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा हरिद्वार, मुरादाबाद, बिजनौर जैसी जगहों पर किसी छुट्टे सांड सा बिताया था. बाद में उनके जीजाजी ने पकड़-धकड़ कर उनकी शादी करवाई थी. उनकी शादी उस समय के हिसाब से काफी देर में हुई थी. पिता मुरादाबाद के किसी भांतू कॉलोनी का ज़िक्र अक्सर किया करते थे कि गुरू, हम वहाँ शराब पीने जाया करते थे. बाद में मेरे एक दोस्त ने भांतू कॉलोनी के बारे में जो मोटा-मोटा बताया, उसे मैं जानबूझकर नहीं कह रहा. क्योंकि हो सकता है कि बात गलत हो और भांतू कॉलोनी का कोई शरीफजादा मुझ पर मुकदमा लेकर चढ़ बैठे. पिता कहते थे कि हमने अपना ट्रांसफर बिजनौर या देहरादून से इसलिए करवाया ताकि हम जौनसार की ब्यूटी देख सकें. देखी या नहीं, वही जानें.”
तो पिता ने दूसरा विवाह कर लिया
“मेरे लिए पिता की दो छोटी-सी ख्वाहिशें थीं- एक तो मुझे किसी तरह चार-छह बोतल ग्लूकोज़ चढ़ जाये. जिससे मैं थोड़ा मोटा हो जाऊं. मेरा दुबलापन उनके अनुसार सूखा रोग का लक्षण था. ग्लूकोज़ चढ़ने के बाद मैं बकौल उनके ‘बम्म’ हो जाता.और दूसरी ख्वाहिश थी कि अनाथालय से मेरी शादी हो जाये. और जाहिर सी बात है कि मैंने हमेशा की तरह यहाँ भी उन्हें सहयोग नहीं किया और नतीजतन इतना दुबला हूँ कि मेरी उम्र मेरे वजन को पीछे छोड़ चुकी है.”
पिता तो प्रस्थान-बिंदु है, जहाँ से शम्भू अपनी स्मृति-यात्रा शुरू करते हैं; जैसे पिता से ही संसार है, उसी तरह समूचा परिवेश भी तो स्मृति से ही बनता है. जैसे चाहे उसे याद कर लो. यादों का यह चक्रानुक्रम उन विडम्बनाओं को जन्म देता है जिनकी वजह से हमें कुछ खास लोग ही याद करने लायक लगते हैं. शम्भू राणा ने पिता के अलावा ऐसे दर्जनों लोगों को इस किताब में याद किया है, जो लेखक की आवाज बन कर सबकी यादों में छा जाते हैं. ये सभी लोग गली-मोहल्ले के मामूली लोग हैं, जिनका अन्यथा कोई नाम नहीं होता. लेखक ने भी उन्हें अनाम ही पकड़ा था और फिर अपनी संवेदना से प्यार करने लायक नाम दे दिया.
शम्भू की रचनाओं की खासियत, जो उन्हें दूसरों से अलग करती है, उनके पात्रों का चयन है. कह नहीं सकता कि यह चयन है या उनकी जिंदगी में अनायास दाखिल हो गए लोग; मगर सभी चरित्र उन्हीं की तरह के अभागे, विसंगतियों को एन्जॉय करने वाले टेढ़े-मेढ़े लोग हैं. दूसरी, और ज्यादा उल्लेखनीय बात यह है कि वह चरित्रों के माध्यम से उनका कैरिकेचर नहीं खींचते, उसके जरिये अपने समाज की व्यापक विडम्बनाओं के बीच हमें ले जाते हैं. यह खासियत हर बड़े व्यंग्यकार की होती है, शम्भू पर हमारा ध्यान विशेष रूप से इसलिए ठहरता है क्योंकि वह हमारे परिवेश को लेकर पहली बार हमारे बीच आते हैं. शायद इसीलिए उन्हें उनके प्रशंसक अपने बीच का परसाई कहते हैं. उनके विषय बहु-आयामी और बहु-स्तरीय हैं मगर सारी रचनाएँ अंततः आदमी की विसंगति में जाकर ठहरती हैं.
क्रमश:
बटरोही जन्म : 25 अप्रैल, 1946 अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँवपहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास ’गर्भगृह में नैनीताल’ का प्रकाशन, ‘हम तीन थोकदार’ प्रकाशित अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित. इन दिनों नैनीताल में रहना. |
बहुत सुन्दर सर …. लेखकों को भी बधाई !