नेहा नरूका की कविताएँ |
सोलह खसम
सोलह सोमवार की तरह ही होते हैं सोलह खसम
एक दिन इनका भी उद्यापन करना होता है
आज वही आख़िरी और ख़ास दिन है
इस विशेष दिन में आप सभी लोगों का निमंत्रण है
आइये आकर पहले प्रसाद ग्रहण कीजिए
फिर कथा सुनाऊँगी
‘पहले पेट पूजा फिर काम दूजा’
तो सुनो,
मेरे रिश्तेदार मुँह मटकाकर कहा करते थे:
अरे उनके, उनके तो सोलह खसम होंगे…
मुझसे पहले मेरी सहेलियों को मालूम हो गया था कि मेरा करैक्टर सर्टिफिकेट फलां-फलां तारीख़ को पूरे नगर में बंटा है
मेरे पड़ोसियों के लड़के, घर से बाहर पढ़ने जाते थे और मैं जाती थी जूते वाले को, ट्रैक्टर वाले को, गहने वाले को, टिक्की वाले को अपना अगला मोहरा बनाने
मुझे शतरंज का प्रसिद्ध खिलाड़ी बनना था
मैं घर से बाहर सोलह खसम करने के लिए एक बार निकल गई, तो बस निकल ही गई, लौटी तो उन खसमों के आदर्शों के साथ
मेरे साथ के लड़के रात-रातभर पढ़ते थे, और मैं रात-रात भर फिरती थी खसमों की चौखटों पर, इसलिए वे लड़के बदले पुण्यात्मा में और मैं बदली पापात्मा में
मेरा साहस देखिए कि मैंने ख़ूब लूटा अपने खसमों को, बेशुमार छला उन्हें फिर भी वे सालों रहे मेरे आशिक
मेरे सामने तालियां बजाते रहे वे मेरी कविताओं को कहकर बोल्ड
हक़दार बताते रहे मुझे भारतभूषण सम्मान का
और मेरी पीठ पीछे ख़ंजर लिए वार करते रहे मेरे चेहरे पर,
व्यभिचारिणी हूँ, वेश्या हूँ, महत्वाकांक्षी हूँ, अहंकारी हूँ…
सोचती हूँ उनमें और मेरे रिश्तेदारों में क्या फ़र्क़ है
तो जवाब मिलता है सिर्फ़ भाषा का फ़र्क़ है
मेरे रिश्तेदार गाली सीधे देते थे और मेरे सोलह खसम इस्तेमाल करते हैं शानदार प्रतीक चिह्न
और इस तरह वे पूरी भाषा का पवित्रीकरण करते जाते हैं
सोलह खसम जैसे मुझे मिले, वैसे सबको मिलें
जैसे मेरी कामनाएं पूरी हुईं, वैसी सबकी हों.
सब सुखी हों, सब निरोगी रहें, सबका कल्याण हो.
अब अपने-अपने घर जाइए
और यह अद्भुत, चमत्कारी खसम-कथा सबको सुनाइए.
बिच्छू
(हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि अज्ञेय की ‘साँप’ कविता से प्रेरणा लेते हुए)
तुम्हें शहर नहीं गाँव प्रिय थे
इसलिए तुम सांप नहीं,
बिच्छू बने
तुम छिपे रहे मेरे घर के कोनों में
मारते रहे निरंतर डंक
बने रहे सालों जीवित
तुमसे मैंने सीखा:
प्रेम जिस वक़्त तुम्हारी गर्दन पकड़ने की कोशिश करे
उसे उसी वक़्त औंधे मुँह पटक कर, अपने पैरों से कुचल दो
जैसे कुचला जाता है बिच्छू
अगर फिर भी प्रेम जीवित बचा रहा
तो एक दिन वह तुम्हें डंक मार-मार कर अधमरा कर देगा.
पुत्रकथा
मैं उसके गले लगी और वह मेरे
वर्षों बीत गए हम लगे रहे एक-दूसरे के गले
जब हम गले लगे थे-
तब वह चार का था और मैं तीस की
आज वह तीस का है और मैं छप्पन की
मगर लग रहा है जैसे कल ही की तो बात है
वह घूमता छोटे से आँगन में, गाता कोयल की तरह कुहुक
रचता दो कमरों की दीवारों पर मोनोलिसा-सी मुस्कान
लग रहा है वह कुहुक, वह मुस्कान किसी आततायी ने कुचल दी
ये जो गले लगा है, ये कोई दूसरा ही है!
इसका मुख किसी जंगली जिनावर ने काट लिया है
मुख की जगह उग आए हैं नुकीले दाँत जिनपर मेरा ख़ून लगा है
पार्वती ने एक गुफ़ा में निर्वासन का समय काटकर जैसे गणेश बनाए थे
वैसे ही मैंने बनाया था अपने पुत्र को अपने मैल में अपना बूँद-बूँद ख़ून सानकर
सुंदर स्वप्न की तरह अथक प्रयास से सत्य में बदला था मैंने उसे
मेरे शापित पुत्र के पास अब बस एक धड़ है, दो हाथ हैं, दो पैर हैं, एक पेट है, एक लिंग है
पर वह स्नेहिल मुख नहीं जिसे मैंने निर्मित किया था कभी
उसके पास अब एक मनुष्यभक्षी मुख है, उसके पास मुझे देने के लिए हैं अनेक क्रूर भय हैं
मेरे पास उसे देने के लिए किसी शिशु हाथी का कोमल मुख नहीं
इसलिए अब वह मेरा मुख काट रहा है
वह मेरे गले लगे-लगे एक कु-योजना पर कार्य कर रहा है
वह धीरे-धीरे मेरे मुख को मेरे धड़ से जुदा कर रहा है
पुत्र के सामने; मेरा मातृत्व, मेरी दुर्बलता बनकर मौन खड़ा है.
कपड़े
हर साल दीपावली की अमावस वाली रात तन पर वही पुरानी सिंथेटिक साड़ी लपेटते हुए मैं सोचती थी काश मैं पहन सकूँ
रेशम की कढ़ाई वाला बनारसी दुपट्टा
आज वह बनारसी दुपट्टा अलमारी के एक अंधेरे कोने में पड़ा एक दीपक खोज रहा है
उसमें एक अजीब-सी बदबू आती है
मैंने जब-जब उसे खोलकर देखा तो पाया हजारों रेशमी कीड़ों की लाशें उसके भीतर बंद हैं
वे कीड़े धीरे-धीरे मेरी नींद खा रहे हैं.
२.
बैसाख-जेठ की चटक धूप में लखनऊ का चिकनकारी कुर्ता पहनकर काम पर जाते हुए
मुझे याद आती हैं, घरों में बंद वे अजनबी हुनरबाज़ औरतें
जिन्हें अपने काम के मुताबिक कभी अपना वेतन नहीं मिला
न जाने वे क्या-क्या बकती रहती हैं मेरे कुर्ते में छिपकर
शायद गालियाँ बकती हैं.
3.
जाड़ों के घने कोहरे में उत्तर भारत के सबसे पसंदीदा कश्मीरी स्वेटर, कश्मीरी टोपे और महँगी पश्मीना शॉल
मेरे एक फ़ौजी रिश्तेदार कश्मीरी कपड़े की बड़ाई करते नहीं थकते
जाड़ों में अब की बार जब बक्सा खोला, कपड़ों को धूप दी तो, तो एक कश्मीरी सलवार-कुर्ता देखकर वे कश्मीरी दुकानदार याद आ गए
पिछले साल जिनकी दुकानें मेले में जलाने गए थे कुछ हुड़दंगी सफ़ेदपोश लोग
और उन दुकानदारों में से एक ने कहा था मुझसे- ‘अब यहाँ नहीं आएंगे बहन जी’
4.
मेरे देश के राजा को जरूर पता होगा
कि उसकी प्रजा में कितने लोग महंगे कपड़े खरीदने की हैसियत रखते हैं
पर उसे ये पता नहीं होगा
कि उसकी प्रजा में कितने लोग ऐसे हैं
जो उतरन पहनते हैं
और कितने ऐसे हैं जो नंगे घूम रहे हैं
उसे नहीं मालूम
ऐसे लोग बारिश में भीग कर मर जाते हैं
ऐसे लोग गर्मी में लू से मर जाते हैं
ऐसे लोग सर्दी में ठंड से मर जाते हैं
ऐसे लोगों की मौतें उनसे भयानक होती हैं
जो अच्छे कपड़ों के लिए तरस कर मर जाते हैं
सबसे सरल मौत तो राजा के सम्बन्धियों को आती है
वे अक्सर कपड़ों में दबकर मर जाते हैं
फिर वे कपड़े चाहे खादी के हों या पॉलिएस्टर के…
शालभंजिका
बबूल के पेड़ से लिपटी खड़ी थी वह
देह पर था मैले-फटे-पुराने वस्त्रों का अंबार
चेहरे पर ऐसा भाव जो वीभत्स था
मगर उसके प्रिय को वो पेड़ शाल का दिखा
देह दिखी संगमरमर जैसी
चेहरे पर शृंगारक का भाव
उसने उसकी देह को स्पर्श किया
और कहा: शालभंजिका!
शालभंजिका नाचने लगी
बबूल के काँटे उसके पैरों में चुभ गए
मगर वह फिर भी नाचती रही
समय बीतता रहा
अपने प्रिय के साथ वह क़िलों की यात्रा पर निकली…
एक राजा के क़िले में शालभंजिका अपने प्रिय के साथ कुछ दिन तक रही
सूखे में जन्मी शालभंजिका ने किया सुरापान
पानी के लिए तरसी शालभंजिका ने किया दूध से स्नान
पुष्पों से दूर रही शालभंजिका ने की सुंगधित तेल से मालिश
अकाल में जन्मी शालभंजिका ने ग्रहण किए छप्पनभोग
उसे लगा जैसे वह देवी है…
प्रिय ने कहा: देवी शालभंजिका!
अब कहाँ की यात्रा पर निकलें?
शालभंजिका ने कहा: चंबल!
फिर वे दोनों चंबल के बीहड़ों में भटकने लगे
भटकते-भटकते शालभंजिका की देह और अधिक सख़्त और खुरदरी हो गई
कई भाव उसके मुख से आने-जाने लगे
नृत्य की और कई मुद्राएं उसके पैरों से निकलकर बीहड़ की रेतीली भूमि पर सूखे कटीले पत्तों की तरह सरसराने लगी
चंबल के घड़ियाल नदी से निकलकर शालभंजिका के लिए तड़पने लगे
प्रिय घड़ियालों के लिए भोजन खोजकर लाया
शालभंजिका ने अपने खुरदरे-सख़्त हाथों से उन घड़ियालों को भरपेट भोजन खिलाया
प्रिय ने कहा: शालभंजिका मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ
शालभंजिका ने कहा: मैं भी…
दोनों ने मिलकर निर्णय लिया अब वो हिमालय की यात्रा पर चलेंगे
चंबल की भूमि पर वह उनकी अंतिम रात थी
बंजर-रेतीली-उबड़खाबड़ भूमि पर शालभंजिका प्रिय के साथ उस रात मैथुनरत थी
तभी वहां कंटीली झाड़ियों में छिपा क़िले का राजा दिखा
उसने कंधे पर बहुत सारे तीर झूल रहे थे और चेहरे पर क्रूरता
उसने एक तीर निकाला और शालभंजिका की आंख पर चला दिया
शालभंजिका भूमि पर गिरकर तड़पने लगी
उसका प्रिय भागकर चंबल से एक अंजुरी जल भर लाया
इससे पहले वह जल शालभंजिका के मुख में जाता
एक और तीर चल गया
इस बार प्रिय की जांघ पर…
घड़ियाल शालभंजिका के लिए कुछ देर तक रोते रहे
घड़ियालों ने फिर आपस में बात की,
कोई स्वार्थी निर्णय लिया और नदी में कूद गए
प्रिय ने पूरी शक्ति लगाकर पूछा: शालभंजिका अब कहाँ की यात्रा पर चलें ?
शालभंजिका बोली-एकांत की यात्रा पर…
हमें खेद है कि…
खेद के साथ उन्होंने मेरी कविताएं वापस कर दीं और कहा मैं इन्हें कहीं भी भेजने के लिए स्वतंत्र हूँ.
इस पूरे वाक्य में मुझे जिस शब्द ने सबसे अधिक आकर्षित किया, वह था: स्वतंत्र.
चलो कम से कम कविताओं के मामले में तो मैं स्वतंत्र हूँ.
मुझे बचपन से स्वतंत्र होने की बड़ी चाह थी
इस चाह को मुक़म्मल करने के लिए मैंने कविताएँ लिखीं और अपने मन की कविताएं लिखीं.
मैंने इन कविताओं को कहीं छपने नहीं भेजा.
इन कविताओं को मैंने फेसबुक वॉल पर पोस्ट किया और तरह-तरह की लोलुप समीक्षाएं भी प्राप्त कीं.
मुझे पढ़कर बहुत से कवियों ने कहा कि मैं महत्वपूर्ण कवि हूँ. मुझे पता है उन्होंने कहने के लिए कह दिया, जबकि मुझे पता था मैं बहुत साधारण कवि हूँ. इतनी साधारण कि मैं न किसी को आश्चर्यचकित करती. न कोई मेरी कविताओं की चोरी करता. न कोई मेरी तरह कविता लिखना चाहता.
मेरी तरह के बहुत से कवि हर समय में होते हैं. समय बदल जाता है, ये कवि मर जाते हैं. हम कवियों में भीड़ बढ़ाने वाले कवि होते हैं.
हम कवि हैं, हमारे घर में ही ये बात कोई नहीं जानता. पड़ोसी हमें थोड़ा सनकी समझते हैं, दोस्त थोड़ा असामान्य. परिचित थोड़ा घमंडी, रिश्तेदार स्वार्थी.
मुझे अच्छा लगा कि जब पत्रिकाओं ने मेरी कविताएं अस्वीकार करके, मेरी स्वतंत्रता की परवाह की.
सिललोढ़ा
कोई भी शब्द सिर्फ़ अर्थभर नहीं होता
कई शब्दों की ध्वनियों में चीखती हैं कई क्रूर कहानियां
ऐसी ही एक कहानी याद आ रही है जिसका शीर्षक है ‘सिललोढ़ा’
देश की राजधानी में रहने वाली लाड़ो को
रात बारह बजकर पांच मिनट पर
उसके देवर ने सिललोढ़े पर मसाला पीसने को कहा
और लाड़ो ने साफ़ मना कर दिया.
तब उसके देवर ने गुस्से से पागल होकर लोढ़ा भाभी के माथे पर दे मारा
और लाड़ो की हत्या कर दी
इस तरह मसाला न पीसने की मामूली-सी ‘न’
लाड़ो की हत्या की वज़ह बन गई
बैठक की तरफ़ से छापे गए प्रश्नपत्रों में ऐसी क्रूर कहानियों की निम्नलिखित व्याख्याएं हुईं-
रसोई में सिलबट्टे से मसाला पीसने के उपरांत बहुत स्वादिष्ट सब्ज़ी का निर्माण होता है
इतनी स्वादिष्ट कि इस सब्ज़ी को खाकर युद्ध, चुनाव और बहस तीनों एक साथ जीते जा सकते हैं
इतनी लाभदायक कि इस सब्ज़ी को खाते हुए सूचना तकनीकी के क्षेत्र में नए-नए अविष्कार किए जा सकते हैं
और साथ में परम्पराओं पर नतमस्तक भी हुआ जा सकता है
रसोई की तरफ़ से छापे गए प्रश्नपत्र में सिर्फ़ एक सवाल आया-
‘सिललोढ़ा’ कहानी से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
उत्तर में कुछ नई परिभाषाएं जोड़ी गईं-
रसोई: वह स्थान जहां स्त्रियों के शव गाड़े जाते हैं
सिललोढ़ा: वह हथियार जिससे स्त्रियों की हत्या की जाती है
मसाला: वह घोल जिससे दो प्रकार के प्रश्नपत्र छापे जाते हैं.
नेहा नरूका पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ आदि प्रकाशित सम्प्रति: शासकीय श्रीमंत महाराज माधवराव सिंधिया महाविद्यालय कोलारस में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर |
आक्रोश, साफगोई, अपने आप से मुंह चुराने लगते हैं,आखिर तक।
‘बिच्छू’ कविता विशेष और नयी जान पड़ी। भाषा और शिल्प तो यक़ीनन अच्छे हैं। वैचारिकी प्रचलित और सतही स्त्रीवाद से परे है। यह और भी अच्छा है।
बहुत अच्छी कविताएं अरुण देव जी। नया कथ्य, नये मुहावरे और भाषा में सृजित कविताएं। नेहा नरूका की कविताओं को अलग से पहचाना जा सकता है। मैंने इन्हें पहली बार पढ़ा है लेकिन इनका मुरीद हो गया।
आपने भाषा, शिल्प और कथ्य के नयेपन की ओर सटीक संकट किया| बदलाव, बेचैनी, विकलता और बेधड़कता स्पष्ट दिखाई देती है|
पहली बार पढ़ रहा इन्हें। पुत्रकथा और शलभांजिका ने गहरे छुआ!
पुरुषवादी वर्चस्व की बुनियाद हील रही है। स्त्रियाँ आप से तुम पर आ गयी हैं। एक उद्धरण कहीं पर लिखा हुआ था-“मुझे आप नहीं, तुम कहो”, प्रलय की शुरुआत इसी वाक्य से होती है। नेहा की कविताएँ ‘स्त्री अस्मिता’ का एक अपना साहसिक मुहावरा गढ़ने में सफल रही हैं।उन्हें बधाई !
बिच्छू,पुत्रकथा, शालभंजिका और सिललोढ़ा ने यकायक ध्यान खींचा है। स्त्री स्वतंत्रता पर बखूबी उम्दा कविताएँ हैं नेहा जी की।
बहुत बधाई !
मार्मिक कविताएँ। नेहा को पढ़ती रही हूँ। इनकी बेधड़क स्पष्टता बहुत आकर्षक और आश्वस्तिदाई है। निश्चय ही ये भीड़ बढ़ाने वाली कवियों में नहीं हैं, बल्कि अलग से नज़र आने वाली कवि हैं। नेहा को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। ‘समालोचन’ को बहुत धन्यवाद।
कमाल की अभिव्यक्ति है 💜
बिच्छू तो बेमिसाल है, नेहा को पढ़ना, खुद को ढूंढना भी है
पहली बार पढ़ा…अलग आस्वाद की कविताएं हैं।
नेहा पहले भी वे अच्छी कविताएँ लिखती रही हैं। अपने सांद्र अनुभवों को बेचैनी, असहमति और प्रतिवाद के साथ रखती हुईं ये कविताएँ दृष्टव्य हैं। बेलाग और प्रभावी।
बधाई।
पहली बार नेहा की कविताएँ ध्यान से पढ़ सका। समालोचन में आने के कारण। मुझे लगा नेहा में अपार संवेदना है जो कविता बनाती है। कथ्य की बनावट थोड़ी सी अटपटी है। अंत की ओर कविता बढ़ती पीछे छूटती है। मुझे लगता है संवेदना की वैचारिकता नेहा को वहाँ तक भी पहुँचा देगी। इन कविताओं में कुछेक कविताएँ सुंदर बन पड़ी हैं। नेहा को आत्मीय बधाई !
पहली कविता कन्फ्यूज़्ड है और लगभग वही सब करती नज़र आ रही है जिसके मख़ौल की मुद्रा में गढ़ी गई है। सिवा चौंकाने के उसका कोई विशेष प्रयोजन नज़र नहीं आता।
कवि इन अतिरेकी प्रशंसाओं से बच कर अपनी डगर बना सकेगी, ऐसी शुभकामनाएं।
पहली कविता की विरूपता लावा की तरह फूटी है।अन्य कविताएं बेहतर गुंजाइश बना रही हैं।रूपम मिश्र की कविताएं कहीं ज्यादा हमारी संवेदनाओं को झकझोर रही हैं
अच्छी कविताएं! अरुण जी आपके माध्यम से कवि नेहा नरुका तक शुभकामनाएं पहुंचे।
शानदार ! पहली कविता यथार्थ का चित्रण है ! साहसिक भी और सत्य के साथ ! अलहदा ! सभी कविताएँ विचारणीय भी हैं !
लीक से हटकर। सोचने कर लिए आमंत्रित करती कविताएँ। कवयित्री को बहुत बहुत बधाई
नेहा नरूका की ये कविताएं अंदरूनी और बाहरी जद्दोजहद की डायरी का अंश हैं कि परिदृश्य का ऐसा फौरी अंकन जो फुर्सत से बाद में लिखे जाने वाले किसी आख्यान के लिए बतौर कच्चा माल सहेज कर रख लिया गया हो.
समकाल की कविताओं में इधर जो मैसेज आखिर में दिए जाने का चलन बढ़ा है, उसके बरअक्स इनकी कविता का हर हिस्सा कुछ संदेश देता सा है और इसीलिए असल दुनिया की भड़भड़ाहट के बीच भी कुछ सुकोमल आशायें इन कविताओं को पढ़ते हुए मन में व्याप्त रहती हैं.
अलग और नयी कविताएँ …
पहली बार आपको पढ़ा। बेहतरीन कविताएं हैं