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Home » नेहल शाह की कविताएँ

नेहल शाह की कविताएँ

नेहल शाह, फ़िजिओथेरेपिस्ट हैं, भोपाल में रहती हैं. कविताएँ लिखतीं हैं और कला के क्षेत्र में रुचि रखती हैं. उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
April 19, 2022
in कविता
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नेहल शाह की कविताएँ
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नेहल शाह की कविताएँ

 

1)

चलो
आज ढूंढ लें,
कोई प्रेम का घर.

वे कहते हैं,
कि अब दिखाई नहीं देते,
प्रेम के घर
अदृश्य हो गए हैं,
इच्छाओं के बीच.

वे कहतें हैं
कि इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं.
जिनके पूरे होने
का वरदान
कई बार
मिला हमें,
हमारी तपस्या से,
पर अधूरी ही रहीं वे
और अतृप्त रह गए हम.

तो चलो
आज डूब जाएँ स्वयं में यूँ
कि कोई इच्छा ही न रहे,
और इच्छाओं के अथाह प्रवाह
के विपरीत तैर कर,
प्रेम के तिनकों
से ही पूछ लें
प्रेम का घर.

चलो
आज ढूंढ लें,
कोई प्रेम का घर.

 

2)

(चेखव की थ्री सिस्टर्स प्ले पर आधारित)

वे तीन चिड़िया,
अलग-अलग पिंजरे में बंद,
देखती हैं एक दूसरे की ओर,
दुःख से भरी,
कभी स्वयं के,
कभी एक दूसरे के.

वे देखती हैं दूर तक,
पिंजरे के बाहर,
अनेक रंगों से सजी हुई पृथ्वी,
और देखती हैं वे
दूर स्वच्छ नीला आकाश.

उनके मन की आकुलता
दिखती है
उनके फड़फड़ाते पंखों में,
जो टूटते हैं
कई बार,
उड़ने की होड़ में.

वे देखती हैं मुक्ति की आस से
एक उड़ती हुई चिड़िया की ओर,
जो कुछ ही क्षण में
आ बैठती है,
उनके ही वृक्ष पर,
ढँक कर स्वयं को आवरण से.

वे रोकना चाहती हैं उसे,
हटाना चाहती हैं उसका आवरण,
देखना चाहती हैं मुक्त उसे,
स्वयं के साथ.

अब वे देखती हैं
अपने मन के दुःख की छाया,
अपने पास पड़ी पृथ्वी के चेहरे पर
और दुःख,
बहते हुए पृथ्वी की आँखों से,
महसूस करती हैं
आँसुओं की गर्म आँच से,
अपने आस पास
दिन और रात झुलसते हुए,
वे लौट आती हैं
अपने ही मन के भीतर के शांत कोने में,
टटोल कर दुःख के कुछ शांत क्षण
बैठ जाती हैं पंख पसार कर
कभी न उड़ने के लिए.

 

3)

और कहो
तुम कैसे हो?

अच्छा बताओ,
क्या तुम्हारा हरा रंग भी,
मेरे हरे रंग जैसा ही है,
ये लाल, पीला, सफेद,
तुम महसूस करते हो
मुझ सा ही,

अच्छा यह सब छोड़ो,
यह कहो कि-

बारिश की बूंदें
जब तुम्हारे तन पर गिरती हैं,
तो तुम्हारा मन भी भीगता है?
मेरी तरह,

चलो जाने दो-
तुम बस इतना कह दो
कि जब तुम मेरे पास होते हो,
तब तुम कहीं भी
और नहीं होते,
मेरी तरह-

अच्छा मत कहो कुछ,
बस यूँ ही बैठे रहो,
तुम और में,
इस खिड़की से,
बाहर झाँक कर,
उस वृक्ष को देखते हैं,

वह वृक्ष हमें,
देख लेगा,
एक साथ देख लेगा.

 

4)

मैंने अपनी रातों को मापना छोड़ दिया है,
मापने से रातें कभी लंबी, कभी छोटी पड़ जाती हैं.
कभी कोई सुकून की रात मिलती नहीं,
जो माप में एकदम सही बैठे, जरा भी छोटी बड़ी न हो.
मेरी रातें तो वैसे भी दिन की खूंटी पर टंगी टंगी,
व्यस्तताओं के बोझ से दब कर किसी सिकुड़ी सिमटी कमीज़ सी मिलती है,
जिन्हें न तो देखा ही जाता है, न ही अनदेखा किया जाता है,
बस किसी तरह झाड़ झटक कर पहन लिया जाता है,
बस ऐसे ही किसी तरह मैं अपनी रात को झाड़ झटक कर सो जाती हूँ,
बिन मापे, बस काटती जाती हूँ किसी तरह,
क्या पता कब तक रहेगी ये रात भी काटने के लिए?

 

5)

घाट की देह की भीतर,
बहती है नदी.

बहती है नदी
लेकर हर भाव,
घाट के जीवित मन का.

पर नहीं छोड़ती,
अपना स्वभाव.

कितने ही शव लेकर
वह शव नहीं होती.

बहती है नदी
घाट के भीतर तब भी,
जब घाट सो जाते हैं,
और तब भी जब,
कोई ध्यान नहीं होता,
घाट का नदी पर.

और जब घाट,
जीर्ण हो समाप्त होते हैं,
तब बहती है नदी,
समुद्र की गहराई में,
बहुत आहिस्ता से,
होती है
शांत और गंभीर,
अपने मृदु स्वभाव को
जानती हुयी,
नदी रहती है,
चिरकाल तक,
समुद्र के अंतस्थ में.

Dr. Nehal Shah,
BPT, MPT(Cardiothoracic), PhD
(Faculty of Health Sciences)
Physiotherapist
Department of Physiotherapy
Bhopal Memorial Hospital and Research Centre
nehalravirajshah@gmail.com
Tags: 20222022 कविताएँनेहल शाह
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Comments 12

  1. Sanjeev+buxy says:
    1 month ago

    नेहल शाह की सुंदर कविताएं हैं बहुत प्यारी हैं और बिल्कुल नए ढंग से लिखी गई कविताएं हैं इसमें नयापन है और एक सुंदर सोच है बहुत-बहुत साधुवाद

    Reply
  2. M P Haridev says:
    1 month ago

    1. प्रेम का उद्गम स्थल हमारा मन है । इसलिये दूसरे व्यक्ति से प्रेम की आकांक्षा नहीं की जानी चाहिये । हम स्वयं से प्रेम करें । पृथ्वी के अंत:स्थल से झरने फूटते हैं और पृथ्वी में समा जाते हैं । यह अलग बात है कि दूसरों को झरनों से सुख मिलता है । डॉ नेहल शाह यूँ भी आप दूसरों को सुख देती हैं । आपके भीतर का प्रेम आपको सुख देगा ।

    Reply
  3. M P Haridev says:
    1 month ago

    2. चिड़ियों या तोतों को पिंजरे में बंद करने का विचार मनुष्य के मन में क्यों उठता है । ऐसे व्यक्तियों को क़ैद करके जेल के क्यूबिक सेल में बंद कर दिया जाये । क्या मनुष्य ने ऐसी कल्पना की है । थरथरा देने वाली पीड़ा । क्यों मनुष्य ने तीन चिड़ियों को अलग-अलग पिंजरों में बंद कर दिया । चिड़ियों की चहचहाहट छीन ली । क्या व्यक्ति के मन व्यथित नहीं हुआ । किसी भी पक्षी को पिंजरे में बंद करने का विचार भयानक है । कवयित्री ने लिखा है कि तीन अलग-अलग पिंजरों में बंद चिड़ियाँ आपस में देखकर तसल्ली कर लेती हैं । आकाश में उड़ने की चिड़ियों की चाहत में उनके पंख कट गये हैं । क्या चिड़ियों को आज़ाद कराने की कोई कीमिया नहीं है । यह कविता पाठकों के दिलों को झकझोर देती है ।

    Reply
  4. M P Haridev says:
    1 month ago

    3. इस कविता में शब्दों की जादूगरी और छुपा-छुपी की भावनाएँ हैं । फ़िल्म डोर में गुल पनाग ज़ीनत का किरदार निभा रही है । उसका होने वाले शौहर को काम के सिलसिले में साउदी जाना है । इसलिये वह ज़ीनत से कहता है कि तुम मुझसे शादी कर लो । ज़ीनत कहती है कि तुम्हें डर है कि मेरी आँखें न बहक जायें । मैं तो हूँ ही तुम्हारी । इस कविता का कदाचित यही सार है ।
    यहाँ भी एक-दूसरे का हो जाने के बाद भी एक-दूसरे की स्वतंत्रता देने की बात मान रहे हैं । डॉ नेहल शाह ने कविता में स्त्री का किरदार निभाते हुए दूसरे को आश्वस्त किया है । कितने जतन से बताया है । चलो यह नहीं यह मान लो; यही सही । आख़िरी दो पहरों में लिखा है:
    अच्छा मत कुछ कहो,
    बस यूँ ही बैठे रहो
    .
    .
    वह वृक्ष हमें,
    देख लेगा,
    एक साथ देख लेगा.
    यहाँ यज्ञ की अग्नि को नहीं वृक्ष को साक्षी माना गया है ।
    फिर से फ़िल्म का गीत
    कुछ न कहो
    कुछ भी न कहो
    जो सुनना है; जो कहना है
    आने वाला पल जाने वाला है’
    मुझ पर विश्वास करो और निश्चिंत होकर रहो ।

    Reply
  5. M P Haridev says:
    1 month ago

    4. युवावस्था में हम अपने मानक बना लेते हैं । मानक बनाना व्यक्ति की अंतर्रनिर्मित प्रवृत्ति पर निर्भर करता है । आपकी कविता मेरी युवावस्था में बनाये गये मानक मुझे तंग कर रहे हैं । मैं चप्पलें पहनकर दस क़दम भी घर से बाहर नहीं निकल पाता । पाँवों पर पड़ने वाली धूल मेरे लिये शूल हैं । अत: दस क़दम बाहर रखने से पहले जुराबें पहननी पड़ती हैं । अपने बनाये गये मापदंड बुढ़ापे में परेशान करने लगे हैं । ऋतुएँ रात्रियों को छोटा-बड़ा करती हैं । परंतु मैं पैंट और क़मीज़ छोटी या बड़ी नहीं पहन सकता । पहले कपड़े सिलवाता था । दर्ज़ी ने ख़ासतौर पर क़मीज़ को तंग सील दिया उसे नहीं पहना । परिवार में या किसी दोस्त को नई-निकोर क़मीज़ तोहफ़े में दे देता हूँ । अगस्त महीने तक दिनों के छोटे होने का आभास नहीं होता । ज्यों ही पितृपक्ष आता है तब अहसास होने लगता है । हमारी और वस्तुओं की छाया लंबी दिखने लग जाती है । शीत ऋतु का संकेत मेरी जान निकाल देता है ।
    हर हाल में आपने रहना सीख लिया है । जिस प्रकार शिशु सर्दियों में नंगे पाँव दौड़ जाते हैं और बालक बिना गर्म कपड़े पहने । अभी यहीं तक ।

    Reply
  6. Hari Bhatnagar says:
    1 month ago

    अच्छी कविताएं। कवित्त से भरपूर। चेख़व की कहानियों में जो उदासी है,इनमें नज़र आती है मुक्ति की आकांक्षा लिए। शानदार। बधाई –हरि भटनागर

    Reply
  7. दया शंकर शरण says:
    1 month ago

    कविता प्रकृति और मनुष्य के बीच एक रागात्मक संबंध रचती रही है। प्रकृति का मानवीकरण और मनुष्य का प्रकृति में रूपांतरण कविता में ही संभव होता रहा है।कालिदास के मेघदूत से लेकर अबतक यह निर्बाध रूप से भारतीय भाषाओ के साहित्य की एक समृद्ध परंपरा और पहचान रही है। इन कविताओ में भी प्रकृति और जीवन का रसायन मौजूद है। कवयित्री को बधाई एवं शुभकामनाएँ !

    Reply
  8. M P Haridev says:
    1 month ago

    5. मेरी देह की नदी घाट के उस पार बहती है । मेरे भीतर अविरल नदी का जल बह रहा है । मेरे मन की आर्द्र भूमि से स्मृतियों के पौधे अनवरत उगते हैं । क्या बाह्य संसार इसे देख सकेगा । जिस प्रकार शरीर की रक्त कोशिकाएँ और धमनियाँ रक्त को निर्मल बनाती हैं वैसे ही मेरे हृदय की नदी । यदि नदी शव हो गयी तो उससे पहले हम शव बन जाएँगे । समुद्र का जल नमकीन होता है । उसका खारापन मेरे नयनों से बहते हुए आँसुओं ने किया है ।

    Reply
  9. हेमंत देवलेकर says:
    1 month ago

    भोपाल की कला साहित्य जगत की युवा प्रतिभा (जो पेशे से चिकित्सक हैं) नेहल शाह की कविताओं का प्रतिष्ठित समालोचन पत्रिका पर स्वागत है। कवि को बधाई , अरुण जी को आभार। नेहल जी की कविताओं में सूक्ष्म संवेदना है, मानवीय मूल्य हैं जिनमे किसी भी भाव या विचार को पिरोकर कविता में ढाल देती हैं। चेखव के नाटक थ्री सिस्टर्स के तीनों पात्रों के अकेलेपन , उनके स्वप्न और संघर्ष पर दृष्टि जाना और अपनी संवेदना उनको सौंपना एक तीव्र भावचेतन हृदय ही कर सकता है। उनकी प्रेम कविताओं में एक दुर्लभ होता जा रहा भोलापन है। वे अपनी आत्मपीडा को सुंदर, कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त कर जाती हैं। उसमे निहित मार्मिकता और निखर उठती है। नेहल जी की सृजन यात्रा अबाध जारी रहे। वे पेंटिंग्स भी खूब बेहतरीन बनाती हैं। उनकी चित्र और शब्द की साधना के लिए शुभ कामनाएं।

    Reply
  10. Anonymous says:
    1 month ago

    Very nice …touching to the heart …
    Best wishes

    Reply
  11. Alind Upadhyay says:
    1 month ago

    नेहल शाह की कविताएं समग्र रूप में उदासीनता के साथ कहीं कहीं आस जगाती हैं। पहली कविता “चलो ढूंढ ले प्रेम का घर” के बजाय “चलो ढूंढ ले घर में प्रेम” आधार बनाकर लिखी जा सकती तो शायद बेहतर कविता होती….मैने अपनी रातों को मापना छोड़ दिया है, कविता अंत तक आते आते सामान्य लगने लगती है, उदासीनता है लेकिन आत्म केंद्रित, कविता व्यापक केनवास तक जा सकती है, लेकिन ऐसा नहीं हो पाता है। घाट की देह के भीतर कविता में एक लय महसूस होती है, जो उम्मीद जगाती है! शुभकामनाएं

    Reply
  12. Alind Upadhyay says:
    1 month ago

    अभी बेहतरी की काफी गुंजाइश है। लिखने से ज्यादा पढ़ना आवश्यक है। शुभकामनाएं

    Reply

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