| निर्मल वर्मा : स्मरण _____ पत्र और व्याख्यान अनिरुद्ध उमट और मनोज मोहन |
आपका निर्मल
1
प्रिय अनिरुद्ध सिंह जी
भारत भवन, भोपाल
31.3.1988
आप का स्नेहपूर्ण पत्र मिला. पिछले कई दिनों से अनेक कामों में व्यस्त रहना पड़ा, इसलिए उत्तर न दे सका.
आप इन दिनों मेरी कहानियाँ पढ़ रहे हैं, यह चीज स्वयं अपने में मुझे आप के निकट ले आती है. शायद यही परिचय और पहचान का सच्चा सूत्र होता है. यदि मैं दिल्ली में होता, तो आप को अपनी अन्य पुस्तकें भिजवाने की कोशिश करता, किन्तु यहाँ स्वयं मेरे पास अपनी कोई पुस्तक नहीं. शायद फिर कभी ऐसा संभव हो.
आप ने आलोचकों के प्रति अपनी नाराज़गी प्रगट की है. मैं सोचता हूँ, सभी आलोचनाएँ इतनी सतही और बुरी नहीं होती, जितनी दुर्भाग्यवश हिन्दी में लिखी जाती है. वैसे भी हर सुधि पाठक स्वयं अपने भीतर एक सजग और भाव प्रवण “आलोचक दृष्टि” लिए रहता है,
हमें अन्ततः उस की मेधा पर ही विश्वास करना चाहिए. आप का पत्र स्वयं इसका साक्षी है.
सस्नेह
आपका,
निर्मल वर्मा
2
प्रिय अनिरुद्ध जी
14ए/20, डब्ल्यू.ई. ए, नई दिल्ली
01.06.1988
आज ही आप का पत्र मिला. मैं एक महीना पहले भोपाल से लौट आया था. आप का पत्र मुझे वहाँ मिल गया था.
यह पत्र बहुत जल्दी में लिख रहा हूँ. कल ही मुझे लन्दन जाना है. इन दिनों जाने की हड़बड़ी में इतना अवकाश नहीं मिल सका कि आप को पत्र लिख सकूं.
मैं जुलाई के मध्य में दिल्ली लौट आऊंगा, ऐसी आशा है. उस समय अपने प्रकाशक को अवश्य लिख दूंगा कि वे आप के पते पर मेरी कुछ पुस्तकें भेज सकें. आप उन्हें इतने चाव और स्नेह से पढ़ते हैं, कि अफसोस होता है, कि मैं उन्हें शीघ्र आप के पास नहीं भिजवा सका.
वापिसी के बाद यदि कुछ दिन खाली मिले, तो अवश्य बीकानेर आना चाहूँ गा. आप से तो मिलूंगा ही नंदकिशोर आचार्य से मिल कर भी बहुत प्रसन्नता होगी.
आशा है, इतने छोटे से खत के द्वारा मैं अपना स्नेह (जो छोटा नहीं है) आप तक भिजवा सकूंगा.
निर्मल वर्मा
3
प्रिय अनिरुद्ध जी
14ए/20, डब्ल्यू.ई. ए, नई दिल्ली
06.08.1989
आपका पत्र बहुत दिन पहले मिल गया था. इतने गहन उदगारों भरा पत्र– जिस का उत्तर देना शायद असंभव है. पिछले दिनों मैं कुछ निजी कामों में उलझा रहा, कि कई बार आप को लिखने का विचार आता रहा, किन्तु इतना समय नहीं मिल पाया, कि आप को कोई पत्र लिख सकूं.
आप ने अपने पत्र में कुछ ऐसी बातें लिखी हैं, जिन्हें पढ़ते हुए मुझे अपना सुदूर अतीत याद हो आया…कुछ वैसी ही उदास और उद्भ्रांत मनःस्थिति जिस में मैं जीता था. उन्हीं दिनों की वे बातें हैं, जिन्हें आप ने अपने इतने भाव प्रवण वाक्यों में एक तरह से उद्धरित किया है.
इन दिनों आप क्या कर रहे हैं?
क्या पढ़ रहे हैं?
मैं कुछ दिनों के लिए अपने निजी काम से शिमला जा रहा हूँ. इस महीने के अंत तक लौट आऊंगा. आशा है, तब तक आप की कोई खबर अवश्य मिलेगी.
शुभकामनाओं के साथ,
सस्नेह
आपका,
निर्मल वर्मा

4
प्रिय उमट जी
नई दिल्ली. 31.1.1992
आपका, लंबा भाव प्रवण पत्र बहुत पहले मिल गया था, दुर्भाग्यवश इन दिनों मैं काफी लंबी अवधि तक बीमार था. बीमारी अधिक गंभीर नहीं थी, सर्दी के दिनों में अक्सर…… बुखार आ जाता है. कुछ दिनों तक काफी कमजोरी महसूस होती रहती है, यही कारण है कि मैं आप को बहुत संक्षिप्त ही उत्तर दे पाने की स्थिति में हूँ .
आप की जो कहानियाँ “संडे ऑब्जर्वर” में आई है, मैंने पढ़ी है, और वे मुझे अच्छी भी लगी हैं. आप अन्य लेखकों से काफी अलग शैली में लिखते हैं, जो मुझे आकर्षक लगती है, और अनुभूतिपूर्ण भी. मेरी प्रार्थना है, कि आप इसी तरह नियमित रूप से अच्छा लिखते रहें.
दलाई लामा, तिब्बत और भिक्षुणी के साथ इंटरव्यू के बारे में आप को सुन्दर प्रतिक्रिया मैंने गगन जी को बता दी थी. आपको उनकी टिप्पणी और लेख अच्छा लगा, यह जान कर उन्हें काफी संतोष मिला है और वह आपके प्रति अपना आभार प्रगट करती हैं.
इधर हाल में “भारत और यूरोप : प्रतिश्रुति की खोज” के शीर्षक से मेरे निबंधो का संग्रह आया है, राजकमल प्रकाशन ने ही उसे प्रकाशित किया है. बाकी पुस्तकें, कारेल चापेक की कहानियाँ, ईर्षी फ्रीड का उपन्यास “बाहर और परे” शायद आऊट ऑफ प्रिंट है, इसलिए वे आपको ये पुस्तकें नहीं भिजवा सके.
आशा है, आप स्वस्थ होंगे. आप हमेशा सृजनरत रहें, यही मेरी शुभकामना है.
सस्नेह
आपका
निर्मल वर्मा
पुनश्च:
दलाई लामा की आत्म जीवनी अभी संभवतः हिन्दी में नहीं आई है.
5
प्रिय अनिरुद्ध जी
नई दिल्ली_5
27.1.1994
आपका पत्र और दो कहानियाँ मिलीं. उसके कुछ अन्तराल बाद मुझे आप की कुछ और कहानियाँ भी मिलीं… मैं आपको इसलिए पत्र नहीं लिख सका, कि इस बीच छोटे छोटे अंतरालों के बीच मैं उन्हें पढ़ता रहा. सोचा कि सब कहानियों को पढ़ कर मैं समग्रता में आपकी कृतियों के बारे में लिख सकूंगा. किंतु आज ही मुझे अहसास हुआ कि दिन पर दिन बीतते जा रहे हैं और आप शायद मेरे उत्तर की प्रतीक्षा में बैठे होंगे. इसीलिए मैं कुछ जल्दी और चिंता में यह पत्र लिख रहा हूँ, कि आप बेफिक्र रहें. जहाँ तक आपके जैसा सेंसिटिव लेखक “बेफिक्र” रह सकता है. मैं आप की सब कहानियाँ पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया लिखना चाहूँगा…
इस बीच मैने आप की कहानी “आहटो के सपने” पढ़ी, जो मुझे बहुत ही सुन्दर जान पड़ी. लेकिन, “सुन्दर” शब्द मेरी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकता. उस में एक तरह की विकटता है, जो मन को हिला देती है. यदि यह कहानी कहीं और न प्रकाशित हो, तो मैं क्या इसे किसी पत्रिका को भेज सकता हूँ ?
नए वर्ष की शुभकामनाएँ
सस्नेह
आपका,
निर्मल
6
प्रिय अनिरुद्ध जी
नई दिल्ली 17.2.1994
आपका पत्र मिला फोटो भी. फोटो देख कर कुछ चकित रह गया. कहाँ से मिली ये आपको. मुझे अब याद भी नहीं आता, कब, कहाँ और किस मित्र ने इन्हें खींचा था?
आपके पत्रों से आपके अंतर्मन की कुछ झलकें मिल पाती है. शायद जीवन में इतनी गहरी शिद्दत से अंतर्मुखी होना ठीक नहीं. लेकिन दूसरों के बारे में कुछ भी कहना अनुचित जान पड़ता है. आपके पत्रों को पढ़ कर सिर्फ उन पर सोचा जा सकता है. कोई भी उत्तर या प्रतिक्रिया बेमानी जान पड़ती है. वे शायद किसी “उत्तर” के मुह्ताज भी नहीं.
मैने आप की एक कहानी “आहटे..” शानी जी को दी है. शायद आप को मालूम है, वे “कहानी” पत्रिका का पुनर्प्रकाशन कर रहे हैं. प्रथम अंक अभी प्रेस में है, जब कभी उनकी ओर से कोई सूचना मिलेगी, मैं आप तक पहुंचा दूंगा.
पुस्तक मेले में मानवेन्द्र आए थे. उनसे एक बार मुलाकात भी हुई थी.
अपना ध्यान रखेंगे.
सस्नेह
आपका
निर्मल वर्मा
7
प्रिय अनिरुद्ध सिंह जी
नई दिल्ली
(दिनांक रहित)
आप का लंबा पत्र मिला. हमेशा की तरह उसे पढ़ते हुए लगा, कि आप कुछ सोच रहे हैं, और मैं उसे सुन रहा हूँ, जो “सोच” के बाहर आ कर पत्र बन जाता है. अपनी ओर से कुछ भी कहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता, जैसे कुछ कह कर मैं आप को बीच में ही टोक रहा हूँ. पूरा पत्र पढ़ने के बाद कुछ वैसा ही मौन घिर आता है, जैसा किसी अच्छी कहानी या कविता पढ़ने के बाद. कौन उत्तर दे कर उस मौन को तोड़ना चाहेगा?
इस बार कभी दिल्ली आएँ, तो पहले खबर कर दें ताकि आप को दरवाज़े पर ताला न दिखे. वैसे गर्मी के इन दिनों में मेरा बाहर निकलना कम ही होता है. गर्मी का सबसे बड़ा सुख भी शायद यही है, कि वह बाहर जाने के सब बहानों, प्रलोभनों पर ताला लगा देती है!
आप कैसे है? आजकल क्या लिख रहे हैं? क्या आप की कहानी, “कहानी” पत्रिका में प्रकाशित हो गई थी, शानी जी की दुखद मृत्यु के बाद “कहानी” के अंकों के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं …. वरना मैं आप को कोई समाचार दे सकता.
“बुखार” कहानी आप ने पढ़ी, यह जान कर अच्छा लगा. पिछली बार जब मैं किसी कार्यक्रम के लिए भोपाल गया था, तो वहाँ अचानक मानवेंद्र जी से भेंट हो गईं थी, शाह जी के घर हम ने एक अच्छी, सुखद शाम साथ गुजारी थी. वह शायद अब भी भोपाल में हैं.
आप ने जो दिल्ली के बारे में शुभकामनाएँ भेजी हैं, उन की पुकार कभी कभार ही “ईश्वर” तक पहुंच पाती हैं, जब पहुंच जाती है तो भीषण गर्मी में भी आकाश की नीलिमा और चिड़ियों की चहचहाट से मन हल्का हो जाता है.
सस्नेह
आपका
निर्मल

8
प्रिय उमट जी
नई दिल्ली
26.12.95
आप का सुन्दर, स्नेहपूर्ण पत्र मिला. गगन जी को आप जरूर पत्र लिखें, उन्हें बहुत खुशी होगी.
आपको उन की कविताएँ और सारा राय की कहानियाँ पसन्द आई, यह जान कर प्रसन्नता हुई.
कुछ दिन पहले मैं एक व्याख्यान देने भोपाल गया था. जयशंकर जी भी आए थे. उन्हीं से पता चला कि आप उनका एक कथा-संग्रह प्रकाशित करा रहे हैं. यह सचमुच प्रसन्नता की बात है. मुझे उनकी कहानियाँ हमेशा अच्छी लगती रही है.
नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ.
निर्मल वर्मा
9
प्रिय उमट जी
नई दिल्ली
11.9.96
आप का स्नेहपूर्ण पत्र और तीनों कहानियाँ मिल गई थीं. मुझे दुख है, मैं चाह कर भी शीघ्र उत्तर न दे पाया. कहानियाँ पढ़ कर ही मैं आप को लिखना चाहता था.
कहानियाँ बहुत विचलित करने वाली है, सहज वाक्यों और असहज स्थितियों का मेल कुछ इतना अजीब ढंग से होता है कि “तथ्यों” का ब्यौरा बहुत सूक्ष्म और महीन भाव में एक अप्रत्याशित अनुभव से साक्षात् करा देता है. बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कहने की क्षमता उजागर होती है, ऐसी कहानियों में कभी कभी अस्पष्टता का दोष भी खटकता है, जैसे “गुजरते हुए” में, जिसे शायद मैं ही ठीक से पकड़ नहीं पाया. “हंस” में प्रकाशित कहानी को मैंने पहले नहीं पढ़ा था…आज वह अपनी “दुरूहता” में भी एक अजीब सी दहशत की प्रतीति कराती है. आप की कहानियों को आसानी से “सुरियल” कहा जा सकता है हालांकि मैं यह शब्द इस्तेमाल करता हुआ थोड़ा झिझकता हूँ. इन कहानियों का खतरा शायद यही है कि लेखक कभी कभी शॉर्ट कट ले कर एक सुविधाजनक रास्ते से अनुभव के सच से कतरा कर शैलीगत सनसनी के जाल में उलझ जाता है. आप इसकी ओर सतर्क रहेंगे, ऐसी आशा है.
क्या कभी दिल्ली आना होगा? आपने बीकानेर के परिवेश का इतना मनोरम चित्रण किया है कि कभी वहाँ आना हुआ, तो आपको ही हमारा गाईड बनना होगा!
सस्नेह
आपका,
निर्मल
पुनश्च: यह जान कर खुशी हुई कि आप ने एक छोटा उपन्यास पूरा किया है, क्या कहीं प्रकाशन के लिए भेजा है?
10
प्रिय उमट जी
नई दिल्ली
25.11.98
आप का पत्र मिला. इस बीच मैं कुछ अस्वस्थ रहा. अतः शीघ्र आप को उत्तर न दे सका. इतने लंबे अन्तराल बाद आप की हस्तलिपि देख कर बहुत प्रसन्नता हुई.
यह जान कर भी ख़ुशी हुई कि आप अपने दूसरे उपन्यास पर काम कर रहे हैं. आपका कविता संग्रह कब तक आएगा? हम उत्सुकता से उस की प्रतीक्षा कर रहे हैं. “इंडिया टुडे” में आप की कहानी देख कर बहुत प्रसन्नता हुई. इस कहानी की पांडुलिपि आपने भेजी थी, इसलिए मैं उसे प्रकाशन से पूर्व ही पढ़ चुका था.
आपने अपने किसी पिछले पत्र में “काला धागा” के मंचन की तैयारी का उल्लेख किया था, किन्तु इस पत्र में यह नहीं लिखा कि वह दर्शकों को कैसा लगा. क्या आप उसके प्रदर्शन से संतुष्ट थे?
आप मेरी लंबी कहानी “बीच बहस में” का मंचन करना चाहते हैं, यह जान कर खुशी हुई. आपने ठीक ही लिखा है, कि उसे “मोनोलोग” में मंचित करना असंभव है. मैं सोचता हूँ आप को कहानी को मूलाधार बना कर उसे नाट्य विधा में रूपांतरित करना ही होगा, इसमें आप चाहें तो पिता, पुत्र, माँ, भाई, नर्स के बीच कथोपकथन के वे सब वाक्याँश चुन सकते हैं, जिन्हें कहानी में प्रयुक्त किया गया है. कहीं-कहीं नैरेशन का भी प्रयोग कर सकते हैं…. अपनी सूझबूझ के अनुसार कहानी और शुद्ध नाटक के बीच की कोई “सम्मिश्रित” विधा की परिकल्पना की जा सकती है. किन्तु इस तरह के सब निर्णय सफल मंचन को दृष्टि में रख कर करने चाहिए, क्योंकि अन्तिम और बुनियादी रूप से आप के प्रयोग की सार्थकता उसके स्टेज ……के कला कौशल पर निर्भर करेगी.
मैं इतना ही कर सकता हूँ…बाकी जोड़तोड़ करने में आप स्वतंत्र हैं. नंदकिशोर आचार्य जी का नाट्य विधा और मंचन के बारे में गहरा, लम्बा अनुभव है. मुझे लगता है, उनका मार्गदर्शन आपके लिए बहुत उपयोगी होगा.
गगन जी ठीक हैं. अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखें.
सस्नेह
आपका,
निर्मल
11
प्रिय अनिरुद्ध जी
नई दिल्ली 04.2.1999
आपका स्नेहपूर्ण पत्र मिल गया था. बुखार आने के कारण मैं उसका शीघ्र उत्तर न दे सका.
आपने बहुत दिलचस्प और विस्तृत ढंग से “डेढ़ इंच ऊपर” के मंचन के बारे में अपने पत्र में लिखा है. इस बीच आचार्य जी दिल्ली आए और वह भी उस के मंचन से बहुत प्रसन्न और संतुष्ट दिखाई दे रहे थे. मेरी बधाई. स्वीकार करें. आशा है, कभी भविष्य में “बीच बहस में” को मंचित करने का दुस्साहस करेंगे.
आप ने “डेढ़ इंच ऊपर” के संबंध में नाटक के ब्रॉशर में जो कुछ लिखा, वह भी दर्शकों के लिए बहुत उपयोगी रहा होगा. आपके कथ्य में वह एक विचारपूर्ण टिप्पणी है.
कृपया श्री रवि शुक्ला और आलोक सोनी को भी मेरी बधाई और आभार प्रेषित करें.
गगन जी ठीक है. मैं भी अब बुखार से उबर गया हूँ .
शुभकामनाएँ
आपका
निर्मल
12
प्रिय अनिरुद्ध जी
दिल्ली
18.8.2000,
पिछले कई दिनों से आपके सुन्दर, भाव प्रवण पत्र का “उत्तर” देने का प्रयास कर रहा हूँ, पर उस का “उत्तर” क्या हो, जो अपने में एक संपूर्ण, आत्मनिष्ठ, स्वप्नशील “सत्ता” हो, जैसा आप का पत्र है, मैंने इसे अनेक बार पढ़ा है, और हर बार लगा है, कि वह संबोधित भले ही मुझे हो, किन्तु मेरी ओर से किसी “उत्तर” की अपेक्षा नहीं रखता. कुछ कुछ ऐसी स्मृतियों का स्वप्नाभास है, जो मुझ से जुड़ी हैं, किन्तु जिनका अपना एक अलग अस्तित्व है और यह अस्तित्व ही वह “जगह” सृजित करता है, जहाँ पर खड़े हो कर आपने पत्र लिखा है. आप ने ठीक लिखा है:
“पत्रों में मुझे मेरी भाषा मिलती है–नंगी, अनछुई, नीली, कांपती, मुलायम, भीगी, अंधेरी…”
और शायद यह स्वाभाविक भी है, पत्रों में हम सहज रूप से अनजाने में ही, “अन्य” बन जाते हैं, दूसरों को लिखते हुए हम स्वयं से वह कहने लगते हैं, जो शायद बिल्कुल अकेले में कहना, लिखना संभव न हो. इसीलिए काफ्का के पत्र उसकी डायरी से कहीं अधिक खुले, बाहर की ओर उन्मुख होते हुए भी – या शायद उस के ही कारण- अपने प्रति अधिक उत्सुक और जिज्ञासाशील हो जाते हैं, मानो हम किसी ऐसे से बात कर रहे हों, जिसे हम जानते भी हैं, और नहीं भी…. पत्रों में दूसरे की अनुपस्थिति स्वयं हमें अपनी उपस्थिति के प्रति अधिक सचेत और ईमानदार बना देती है.
आप ने “रिल्के का खत” पढ़ी, और उस के संबंध में जो प्रतिक्रिया लिखी, वह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. उस आत्मपरक लेख में मैंने पहली बार अपनी जीवनी के बाहर से पढ़ने का प्रयास किया था.
आशा है, कभी आप दिल्ली हमारे इस नए आवास स्थल में भी आएँगे. यह करोलबाग के घर से बहुत अलग है. इसका परिवेश, वातावरण, पड़ोस, पेड़ पौधे सब एक नए शहर की रचना करते हैं, जो करोलबाग की दिल्ली से बहुत अलग है.
आपका नया उपन्यास पढ़ने की प्रतीक्षा है. इस महीने के अन्त मे नंदकिशोर आचार्य पर केंद्रित “मधुमति” के अंक का विमोचन होगा. क्या आप उस समारोह में आएँगे?
गगन ठीक हैं. आजकल अपने काम में व्यस्त रहती हैं.
सस्नेह
आपका
निर्मल
व्याख्यान
साहित्य की अकेली आवाज़
निर्मल वर्मा
बहुत साल पहले मैं रायपुर आया था. भोपाल में तब मैं निराला सृजन पीठ में था. कारंत जी मेरे सहयोगी थे और एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि चलो बस्तर में हम नाटक करने जा रहे हैं. तुम बहुत दिनों से बस्तर आने की इच्छा प्रकट कर रहे थे, हमारे साथ आना चाहोगे. तब मुझे क्या मालूम था कि बस्तर की लालच में मुझे बोनस में रायपुर भी मिल जाएगा.
आप सबके बीच में आकर मैं सचमुच एक गहरी प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ. बोलने का मुझे कोई बहुत अभ्यास नहीं है. आदमी बोलने से बचने के लिए ही लिखता है और फिर, उसका दुर्भाग्य देखिए, कि उसे लिखने पर ही बोलने को विवश होना पड़ता है.
मैं जो कुछ आप से कहूँगा वो न तो एक समीक्षक और न व्यावसायिक आलोचक, नहीं एक ऐकेडेमिक प्रोफ़ेसर की दृष्टि से, बल्कि एक लेखनकर्मी के तौर पर, जिसके लिए पिछले चालीस-पचास वर्षों से साहित्य एक संरक्षण, एक सुरक्षा-स्थल, और पीड़ा के क्षणों में बड़ी शांति और सान्त्वना का शरणस्थल रहा है. अमरीकी लेखक फॉकनर ने एक बार कहा था कि वे लोग जो ज़िन्दगी को जीना जानते हैं, वे जीते हैं, और जो जीना नहीं जानते, वे उसके बारे में लिखते हैं. मैं उनमें से हूँ.
हर कलाकार कमोबेश वही था जो लाखों साल पहले गुफा में बैठा रहा करता था, जबकि बाक़ी लोग शिकार खेलने जाया करते थे और वो स्वप्न देखा करता था. हो सकता है वो पंगु रहा हो, कोई विकलांगता रही हो, बीमार रहा हो, लेकिन आज जब हम उन लाखों वर्षों की गुहाओं को देखते हैं, गुहा-चित्रों को देखते हैं तो हमें इन्हीं गुहावासियों की स्मृतियों दीवारों पर उकेरी हुई साक्षात् हो जाती हैं. हम उनसे अनुमान लगा पाते हैं कि उन दिनों बीहड़ जंगलों में रहने वाले लोगों का जीवन कैसा रहा होगा.
आप शायद कुछ हैरान होंगे इस व्याख्यान का शीर्षक सुन कर साहित्य की अकेली आवाज. इसमें एक विरोधाभास तो स्पष्ट ही झलकता है. साहित्य और अकेलापन ये दोनों दो बिलकुल एक-दूसरे की विरोधी चीज़ें हैं.
साहित्य शब्द ही सहयोग, साथ रहने का जो एक साझा अनुभव है, उसे एक-दूसरे को देने का माध्यम हमेशा से रहा है. फिर अकेली आवाज़ कैसी? दुर्भाग्यवश वही साहित्य जो हज़ारों वर्षों से हमारे देशवासियों के बीच में जीने की दृष्टि, सत्य और झूठ का विवेक, अन्तरात्मा की आवाज़ देता रहा है, वही आज धीरे-धीरे नक्कारख़ाने में तूती की आवाज बनता जा रहा है.
कोई भी आकर आपसे पूछ सकता है कि मास-मीडिया के युग में टेलीविजन और अख़बारों में धुआँधार घटाटोप के नीचे इस बेचारी कविता, उपन्यास, कहानी का आख़िर क्या मूल्य रह गया है?
अकेली न भी हो. क्या वो सचमुच उपेक्षित आवाज़ तो नहीं बन गई है?
अंग्रेज़ी में एक शब्द है ‘ऑब्सोलीट’— जो चीज़ मर जाती है, ख़त्म हो जाती है. क्या हम इसका शव उठाये हुए अपने कन्धों पर ही तो नहीं चल रहे हैं? हमें कितनी बार सुनने में आता है कि इक्कीसवीं शताब्दी में किताबें ही लुप्त हो जायेंगी. इन्टरनेट पर आप कुछ भी सीख सकते हैं, देख सकते हैं, पढ़ सकते हैं. मन में प्रश्न उठता है कि अगर ऐसा होता है तो हमारा जीवन कितना जर्जर और कितना सूखा हो जाएगा.
हमारे जीवन के कई कोने, कई स्थल ऐसे हैं जिन्हें न तो राजनीति, न धर्म प्रतिष्ठान, न सामाजिक विचारधाराएँ स्पर्श कर पाती हैं. मेरा ये पूरा विश्वास है, हालाँकि शायद आप में से कोई सहमत नहीं कर पाएगा मुझे- कि मनुष्य अपने स्वभाव से ही, अपने मनुष्यत्व के भीतर ही काफ़ी हद एक एकान्तजीवी रहा है. यह ठीक है कि उसका अपना परिवार होता है, वह शायद किसी विश्वविद्यालय में काम करता है, ऑफिस में आठ घंटे काम करता है, लेकिन ज़रा कल्पना कीजिए वह अपने साथ कितना अधिक रहता है और ये अपने साथ रहने की जो घड़ियाँ हैं, इसमें उसके दिवास्वप्न, उसके भय, उसकी आशंकाएँ, उसकी स्मृतियों, मरे हुए लोगों की यादें, अपने पुराने बिछड़े प्रेम, आकांक्षाएँ— ये सारी की सारी सम्पदा जो परिभाषित नहीं होती, जिन्हें केन्टीन में बैठकर वह दोस्तों से साझा नहीं कर पाता. ये वो क्षण है जिन्हें साहित्य पढ़ते समय आप चुपचाप अपने जीवन में जीने लगते हैं.
साहित्य की सबसे बड़ी दो विशेषताएँ हैं, जो मैं आपके सामने रखना चाहूँगा. एक ये कि वो किसी एक रूप में मनुष्य के मनुष्यत्व को वर्गीकृत नहीं करता. आपने अरस्तू की बहुत ही प्रसिद्ध परिभाषा सुनी होगी मनुष्य के बारे में, कि वह ‘सामाजिक जन्तु’ है, या कई लोग उसे राजनीतिक या सामाजिक खाँचो में बांटने लगते हैं. मनुष्य को किसी एक खास रूप में रिड्यूस करना ही उसके समृद्ध व्यक्तित्व को विपन्न बनाना है.
मनुष्य को हम किसी एक परिभाषा में अवमूल्यित कर ही नहीं सकते. साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि वो हर अनुशासन के दरवाज़े को खटखटा कर उसके भीतर जाता है और उसी अनुशासन के घेरे में उसके समस्त कार्यकलाप को अपनी वाणी देता है. ये एक बड़ी बात है. साहित्य में समाजशास्त्र भी है. जीवन भी है. यथार्थ भी है. इतिहास भी है. राजनीति भी है. लेकिन वो किसी एक का गुलाम नहीं है. वह मनुष्य के समूचे अस्तित्व के भीतर जलती हुई लौ में बीतते हुए जीवन को देखना चाहता है.
जब मैं सम्पूर्ण अस्तित्व की बात करता हूँ तो शायद यह साहित्य की सबसे सुन्दर और सबसे अपरिभाषित परिभाषा है. क्योंकि मनुष्य की समग्रता को कभी कोई माप नहीं सकता. उसमें हम किसी तरह का भेद नहीं कर सकते. टॉलस्टाय ने कहा था कि मनुष्य को ‘बांटना’ उतना ही मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद है जैसे कोई समुद्र के लहराते हुए विस्तार को अपनी छड़ी से नापने की कोशिश करे.
क्या समुद्र को अलग-अलग टुकड़ों में विभाजित किया जा सकता है?
और देखा जाए तो हमारा जीवन, हम में से सबका जीवन, एक तरह से इसी विभाजित न होने वाले विस्तार में फैला हुआ है. लेकिन इसी में हम साहित्य में जीवन के सत्य से साक्षात् करते हैं. और मुझे लगता है कि सत्य का यह विस्तार न तो टेलीविजन और न अख़बार और न मास-मीडिया का कोई भी सशक्त माध्यम हमें दे सकता है.
ज़रा कल्पना कीजिए, क्या सिनेमा, टेलीविज़न ‘अन्ना केरनिना’ के उस अंतिम दृश्य का वर्णन कभी कर सकता है जबकि वह आत्महत्या करने जा रही है? असम्भव है, क्योंकि उन दो-तीन पृष्ठों में वो अपने समूचे अतीत, अपने प्रेम की दुखद गाथा, अपने जीवन की गहरी हताशा, जो उसे प्रेम से मिली है और वो प्रेम, जिसके कारण और जिसके लिए उसने अपने समूचे जीवन को उत्सर्ग कर दिया है— क्या यह किसी सिनेमाई बिम्ब में बाँधा जा सकता है? यह शब्दों का जादू है कि उनके ख़ास पैटर्न और व्यवस्था के भीतर ही पूरे जीवन की गाथा सामने उद्घाटित होती है. और इन शब्दों में से एक को आप दूसरे शब्द में बदल नहीं सकते, वर्ना वह सारा ताना-बाना बिखर जाएगा.
मैंने यह एक बात कही थी, लेकिन दूसरी बात इसी से जुड़ी है, वो यह कि साहित्य का कोई ‘सॅब्स्टिट्यूट’ या पर्याय इसलिए नहीं है, क्योंकि भाषा के साथ उसका रूप, उसका गठन, उसकी काया, उसकी प्राणवत्ता संचारित होती है. आप कहेंगे इसमें क्या हैरानी की बात है? भाषा में तो बहुत-सी चीज़ें व्यक्त होती हैं. अख़बार भाषा में लिखे जाते हैं. चिट्ठियाँ भाषा में लिखी जाती है. राजनीतिज्ञ अपने व्याख्यान भाषा में देते हैं. साहित्य की भाषा में क्या इतना अनोखापन है? और ये प्रश्न जायज़ भी है. लेकिन आपने कभी पूछा है कि साहित्य की भाषा किस अर्थ में इन सब माध्यमों से अलग है? क्योंकि उसमें साहित्य का मर्म स्पंदित करता है.
अन्तर ये है कि किसी साहित्यिक कृति को पढ़ने के बाद किसी कविता या उपन्यास का सत्य चुक नहीं जाता, उसमें हमेशा कुछ बचा रहता है. जो हमेशा हमें पूरी तृप्ति या पूरा सुख नहीं दे पाता. हमें लगता है कि जब तक इसे हम दुबारा तिबारा नहीं पढ़ेंगे, हम उसी तरह के अनुभव से नहीं गुज़र सकते.
कविता का सत्य कविता के शब्दों के भीतर ही है, कहीं बाहर नहीं. हम कई बार उस कविता के पास जाते हैं और न केवल आनन्द प्राप्त करते हैं, बल्कि कभी-कभी लगता है कि हमारे जीवन के जितने वर्ष बीच में गुज़रे हैं और उसमें जो अनुभव जुड़ा है, उसकी आँखों से मैं उस कविता का एक दूसरा अर्थ प्राप्त कर रहा हूँ, जो अजीब चीज़ है, क्योंकि कविता वही रहती है, कवि बरसों पहले मर चुका है. उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, लेकिन आपका अन्तस बदल गया है, आपकी लेने की शक्ति व सामर्थ्य में परिवर्तन आ गया है. जिससे कविता के सत्य का विस्तार हुआ, उसमें वृद्धि हुई.
आप आज का अख़बार पढ़ने के बाद उसे फेंक देते हैं, क्योंकि उसमें भाषा केवल सूचना को ग्रहण करने का माध्यम है. एक बार आपने सूचना ग्रहण कर ली. उसकी उपयोगिता समाप्त हो गयी. डॉक्टर ने प्रिस्क्रिप्शन लिखा, वह भी भाषा में ही है और आप केमिस्ट की दुकान में गये, दवाई ख़रीदी और प्रिस्क्रिप्शन की उपयोगिता ख़त्म हो गई. लेकिन क्या कविता और कहानी की भाषा के साथ ऐसा होता है? और तब हम एक अजीब निष्कर्ष पर पहुँचते हैं— कि साहित्य में भाषा सिर्फ माध्यम नहीं होती. केवल कहीं पहुँचने का साधन नहीं होती. कई अर्थों में वह साध्य होती है. उसका अपना एक स्वायत्त सत्य होता है कि जो आपको केवल उस कविता, उस कहानी में ही मिल सकता है.
इमरजेन्सी के दिनों में आपको शायद याद होगा कि कई चीज़ें उसकी बुरी थी, निन्दा करते थे, लेकिन एक नारा मुझे हमेशा आकर्षित करता था, शायद संजय गांधी ने ही उसका आविष्कार किया था. और वो था— देयर इज नो सॅब्स्टिट्यूट फॉर हार्ड वर्क. मेहनत का कोई पर्याय नहीं. यह बसों के पीछे लिखा रहता था, इश्तिहारों में लिखा हुआ आता था. मुझे वह बहुत ही आकर्षित करता था कि सचमुच ही मेहनत की जगह कोई नहीं ले सकता. और तब मुझे ध्यान आया कि इसके साथ में ये भी जोड़ना चाहिए कि साहित्य का भी सच में कोई सॅब्स्टिट्यूट नहीं है— वह उसके भीतर ही पाया जा सकता है.
जिस भाषा में बँधे हुए साहित्य की प्राणवत्ता की बात मैं कह रहा हूँ, उसे किसी भी दूसरे माध्यम में ढाल कर हम झूठा बना देंगे और उससे जिस गहन सत्य को आप प्राप्त करते हैं, उसको आप विपन्न बना देंगे. उसको कुत्सित कर देंगे. आपने मेक्सिकन लेखक मार्क्वेज़ का नाम सुना होगा. जिनकी बहुत ही प्रसिद्ध पुस्तक ‘हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड’ बहुत चर्चित रही है. उस पर उन्हें नोबल प्राइज़ भी मिला. हालीवुड के प्रोड्यूसर्स ने कहा, उनसे प्रार्थना की, आप हमें इस उपन्यास पर फ़िल्म बनाने का अधिकार दे दीजिए, और वे लाखों डॉलर भी देने के लिए तैयार थे. लेकिन उन्होंने मना कर दिया. एक पत्रकार ने इन्टरव्यू में पूछा कि इतने उपन्यासों की फ़िल्में बनती है आप ही मना क्यों करते हैं.
उनका उत्तर बहुत शिक्षाप्रद था. उन्होंने कहा कि आज दुनिया के लाखों लोगों के दिमाग़ में मेरी किताब के पात्रों के चित्र बसे हुए हैं. उन चित्रों की अपनी बहुस्तरीय गरिमा है. वह किसी एक छवि या एक बिम्ब में नहीं समा सकते. हर पाठक का अपना एक बिम्ब है, उन नायक-नायिकाओं के बारे में जो उस किताब में उसने पढ़े हैं, लेकिन एक बार अगर उसकी फ़िल्म बन जाती है तो ये सारी जो विविधता है, यह सब कम होकर, एक ख़ास बिम्ब, एक ख़ास छवि, एक ख़ास तस्वीर में सिकुड़ कर रह जाएगी और ये मैं नहीं चाहता.
अतः न केवल अकेलेपन बल्कि साहित्य की विशिष्टता की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए क्योंकि जब मैंने कहा था—’साहित्य की अकेली आवाज़’, तो इसका मतलब था साहित्य की विशिष्ट आवाज़, ऐसी विशिष्टता जो हमारे समूचे अस्तित्व को आप्लावित करती है. मेरे विचार से वह सबसे अधिक हमें महाकाव्यों में मिलती है.
आल्डस हक्सले का एक बहुत सुन्दर निबन्ध था- ‘एपिक एँड द होल ट्रूथ‘ (महाकाव्य और संपूर्ण सत्य), मैं अभी आपसे जीवन की समग्रता के बारे में बात कर रहा था. क्या मतलब है इसका? हमारे जीवन का कोई पक्ष चाहे कितना ही घिनौना, कितना ही गंदा, कितना ही निर्मम, क्रूर, भयानक क्यों न हो, वह साहित्य के लिए अछूता नहीं. सबसे बड़ी बात कि साहित्य में अस्पृश्यता नहीं है. साहित्य में छूआछूत चल ही नहीं सकती. साहित्य में सुन्दरता का मतलब ही ये है कि उसमें जो नवरस है, वीभत्स रस भी उसमें शामिल होता है. सब रस उसमें शामिल होकर ही एक समग्र जीवन का चित्र उपस्थित कर पाते हैं.
ज़रा कल्पना कीजिए इससे ज़्यादा भयानक चित्र क्या हो सकता है कि भीम दुःशासन के पेट की अंतड़ियों फाड़ कर उसके ख़ून से द्रौपदी के बाल रँगता है. क्योंकि द्रौपदी ने ये प्रण किया था कि जो व्यक्ति मेरे बालों को खींच कर लाया है, दरबार में जब तक मैं उसका ख़ून नहीं देख लूँगी, मैं समझूँगी मेरे सारे पति नाकारा हैं.
महाभारत इसलिए रोमांचित करता है कि वो हमें किसी कटु सत्य से आँखें चुराने का मौक़ा नहीं देता. दुर्योधन ने अपने अंतिम समय में, जबकि उसे सरोवर से बाहर निकलने के लिए कहा जा रहा है, तब उसने कितना कृष्ण को फटकारते हुए कहा है कि तुमने कितना छल-कपट करके कितना झूठ बोल कर यह युद्ध जीता है, तुम जो अपने आपको धर्म का अवतार समझते हो.
क्या कर्ण और कुन्ती का संवाद पढ़कर आप कह सकते हैं कि कर्ण दोषी है या कुन्ती? एक महान कलाकृति किसी को जज नहीं करती, आपको बाइबिल में ईसू मसीह का वो कथन याद होगा ‘जज नॉट, अदरवाइज़ यूअर सेल्फ विल बी जज्ड’.
एक महान कलाकृति यह नहीं कहती कि कौन दोषी है, कौन निर्दोष? यही कारण है कि महाभारत में धर्म इतना बहुअर्थीय रहता है कि उसकी परिभाषा नहीं की जा सकती और तब मैं साहित्य की तीसरी विशिष्टता पर आता हूँ.
जब तक एक लेखक या साहित्यकार चरम स्थितियों को प्रस्तुत करने का दुस्साहस नहीं कर पाता, तब तक वह जीवन के अर्थ तक नहीं जी पाएगा. हम साहित्य को ‘यथार्थवादी माध्यम’ मानते हैं, इससे ज्यादा भ्रान्तिपूर्ण कोई चीज़ नहीं. साहित्य में हम जिस यथार्थ को जीते हैं वह बड़ा औसत क़िस्म का है, उस यथार्थ’ में सैकड़ों समझौतों के पैबन्द लगे हैं. साहित्य इन सब पैबन्दों के भीतर से ऐसी चरम स्थिति उत्पन्न करता है, जहाँ पर हम अपने झूठों को छिपा कर रखते हैं, वे नंगे हो जाते हैं.
जिन अतिरेक की स्थितियों में महाभारत या दुनिया के उत्कृष्ट उपन्यास मानव जीवन को व्यक्त कर पाते हैं, उसी में हमारे औसत जीवन का झूठ सत्य छिपा रहता है. यह कुछ विरोधाभास है जिस पर आपको सोचना चाहिए कि हमें वही कृतियाँ, वही पुस्तकें, काव्य, उपन्यास, सबसे अधिक झिंझोड़ते हैं जो हमारे औसत यथार्थ से बहुत दूर निकल जाते हैं. उसका कारण ये है कि हमारा जीवन वही नहीं है जो कि चौबीस घंटों में बीतता है, बल्कि वह भी है जिसको हम नहीं कर पाते— अपनी विवशता के कारण, अपनी कायरता के कारण, अपनी सीमाओं के कारण.
हम जीते एक ज़िन्दगी हैं. किन्तु उसमें वे ज़िन्दगियों भी शामिल हैं, जो हमने छोड़ दी हैं, जो हमारे भीतर दबी हुई हैं. राबर्ट फास्ट की कविता का एक वाक्य था— “मैंने एक सड़क का मोड़ लिया लेकिन दूसरी का छोड़ दिया और मुझे मालूम नहीं, दूसरी सड़क कहाँ जाती थी.” पता नहीं ऐसी कितनी सड़कें हमारे भीतर है, जहाँ हम नहीं गये, किन्तु वे हमारे भीतर मौज़ूद हैं.
साहित्य में हम अपने भीतर की अनेक दबी हुई ज़िन्दगियों को जीने का अवसर पाते हैं. क्या इक्कीसवीं शताब्दी में ये सम्भव हो पाएगा, जब इन सब पहेलियों को, इन सब रहस्यों को, मनुष्य अपने जीवन से अलग कर देगा ?
मुझे लगता है कि भारतवर्ष में एक भारतीय लेखक को, एक भारतीय बुद्धिजीवी को, इस ओर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए. हमारा एक लम्बा इतिहास रहा है वाचिक परम्परा का. सिर्फ़ लिखित पुस्तकों में हमारे संस्कार परिपुष्ट नहीं हुए हैं. वो तो एक बहुत छोटा हिस्सा है. आज भी हिन्दुस्तान के गाँवों में दक्षिण से लेकर उत्तर तक ज्ञानवान अनुभवों की बड़ी सम्पदा इसी वाचिक परम्परा में संचित है.
संवेदनशील व्यक्ति सिर्फ़ वे लोग नहीं हैं जो युनिवर्सिटी से पढ़े हैं, जिन्हें कीट्स और बायरन और सुमित्रानन्दन पंत याद है, बल्कि वे हैं जिनके संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी रामायण और महाभारत जैसी कथाओं से पोषित होते आए हैं. उससे अपने जीवन की परम्परा को पहचान पाते हैं. साहित्य के संस्कार पिछली अनेक शताब्दियों से अनवरत हमारी धमनियों में स्पन्दित होते रहे हैं. इसलिए मैं एक और विरोधाभास की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूँगा और वह यह कि यद्यपि साहित्य की आवाज़ अकेली होती है लेकिन उसमें झंकृत होती अनुगूँजें अनेक परम्पराओं तक फैली हुई होती हैं.
यह कुछ उस बच्चे की तरह है जिसका जन्म होता है और माँ कहती है कि इस बच्चे का नाक-नक़्श तो बिल्कुल दादा पर गया है, और जब वह बड़ा होने लगता है तो कोई कहता है कि इसकी चाल तो बिल्कुल चाचा पर है और फिर थोड़ा बड़ा होता है तो कुछ लगता है कि उसकी आँखों का रंग तो मामा पर आया है. धीरे-धीरे उसके सारे नाक-नक़्श, चाल-ढाल, उसका हँसना, उसका रोना अलग-अलग परिवार के सदस्यों की याद दिलाते हैं. लेकिन करामात देखिये कि बच्चे का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व है, जो सबकी याद दिलाता है, लेकिन अपना अलग स्वरूप क़ायम रखता है.
साहित्य की यही विशेषता है. वह साहित्य क्या जिसमें हमें पुरखों की अनूगूँजें सुनाई न दें. अगर निराला की कविता को पढ़ते हुए हमें तुलसीदास न सुनाई दें तो निराला बहुत छोटे कवि होते हैं. हमें हर नया कवि, पुराने कवि की याद दिलाता है. और इस तरह परम्परा को अपनी भाषा में साहित्य के द्वारा कायम रखता है.
परम्परा कोई शव नहीं है जिसे सिर पर रख कर हम चलते हैं. एक जीवन्त रूप में वह हमारे साहित्य में प्रवाहमान रहती है. हालाँकि हर कविता अपने में अनूठी और अद्वितीय है. उसमें हमें अनेक तरह के बिम्ब, स्वर, ध्वनियों संयोजित करनी पड़ती हैं, जो हमने अपने पिछले कवियों से ग्रहण की हैं. अगर हम कुछ अपने पिछले कवियों से ज़्यादा दे पाते हैं तो इसलिए कि हम उनके कंधों पर बैठ कर दुनिया को देख रहे हैं.
अंत, में सिर्फ इतना कह कर मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा कि साहित्य को बचाने का दायित्व आज हम केवल साहित्यकार पर नहीं छोड़ सकते. जिस अर्थ में मैं साहित्य को बचाने की बात कर रहा हूँ वो सामाजिक अर्थ में है, जहाँ पर एक समाज के भीतर एक कविता, एक कहानी, एक उपन्यास, इस तरह का हस्तक्षेप कर सकें कि वो हम सबकी जो बँधी-बँधाई दुनियाएँ हैं, उन्हें विचलित कर दें, उन्हें हिला दें और ये तभी हो सकता है जबकि युनिवर्सिटी के प्राध्यापक, विश्वविद्यालय की पत्रिकाएँ, साहित्यिक पत्रिकाएँ, ये सब एक समुदाय के रूप में, उन संस्कारों को क़ायम रख सकें, जिनसे एक कविता और एक उपन्यास सम्प्रेषणीय बन पाता है.
मैं लिखता एकान्त में हूँ, हर व्यक्ति एकांत में ही लिखता है, लेकिन उसकी कहानी और कविता की अनुगूँज बहुत दूर तक जाती है. जितना ही हमारा समाज अधिक शिक्षित, अधिक संवेदनशील, अधिक संस्कारयुक्त होगा, उतना ही साहित्य की आवाज़ मनुष्य के जीवन में एक गहरा संशोधन करने का प्रयास कर पाएगी. साहित्य कुछ बदलता नहीं है, लेकिन वो हमारी संचेतना के आकाश को विस्तृत कर देता है. ये कुछ वैसा ही है जैसा कि आप किसी मीनार पर चढ़ रहे हैं. आप पहली मंज़िल पर चढ़ते हैं तो आपको एक परिदृश्य दिखाई देता है. झाड़ियाँ, घास, लॉन, भागते हुए बच्चे. आप सोचते हैं कि यह परिदृश्य है.
लेकिन जब आप दूसरी मंज़िल चढ़ते हैं तो आप कुछ और देखने लगते हैं, क्योंकि कुछ और परिदृश्य उसके साथ जुड़ गया है. और जो जुड़ गया है वो उसको भी बदल देता है, जो आपने पहली मंज़िल से देखा था.
तीसरी मंज़िल पर चढ़िये तो दृश्य पुराना दृश्य नहीं रहता है. कुछ और लोग जुड़ जाते हैं और आप धीरे-धीरे देखते हैं कि वही दृश्य हर मंज़िल पर कुछ बदल जाता है.
साहित्य में ये चीज़ बहुत महत्त्वपूर्ण है कि हर महान पुस्तक, हर महान कवि, आपके देखने के परिदृश्य को विस्तृत कर दे. वो ये नहीं बताता कि झूठ क्या है, सच क्या है, एक राजनीतिज्ञ या उपदेशक की तरह आपको कोई कसौटी नहीं देता, लेकिन ग़लत और सही कहने के विवेक के अवकाश को बढ़ा देता है, ताकि आप समझ सकें कि इस सारे परिदृश्य में अपनी चेतना के स्तर पर आप सिर्फ़ उसी के द्रष्टा नहीं हैं जो आप देख रहे हैं, बल्कि कुछ और भी हैं, जो उसके परे और बाहर है.
साहित्य हमेशा आपको विनम्र बना कर छोड़ता है. आपकी झूठी कसौटियाँ, भ्रम, भ्रांतियाँ, धारणाएँ एक नए परिदृश्य में आकर भरभराकर टूटी हुई जान पड़ती है और ये एक तरह से आप कह सकते हैं तो साहित्य की निषेधात्मक भूमिका है. साहित्य की ये निषेधात्मक भूमिका उस भूमिका से कहीं ज़्यादा सकारात्मक है, जो कहती है कि ये क्रांति का रास्ता है, सत्य का रास्ता है, कल्याण का रास्ता है, जबकि ये सब रास्ते हमें एक अंधी गली में जाकर छोड़ देते है.
अगर हम जान जायें कि अँधेरा कहाँ है, तो हम रोशनी को ढूँढने लायक़ हो जायेंगे. विचारधाराओं के घटाटोप में, धार्मिक अनुष्ठानों, साम्प्रदायिक नारों के बीच साहित्य की अकेली आवाज़ ही है जो आपको कुछ नहीं सिखाती, सिर्फ़ इसके कि सीखने के लिए जिस चेतना और जिस संवेदनशीलता की ज़रूरत है, उसे वह अधिक सूक्ष्म, अधिक परिष्कृत, अधिक व्यापक बनाकर छोड़ देती है.
(विपाशा पत्रिका के प्रति आभार व्यक्त करते हुए)
| अनिरुद्ध उमट
‘अँधेरी खिड़कियाँ’ पर राजस्थान साहित्य अकादेमी, उदयपुर का ‘रांगेय राघव स्मृति सम्मान’ उन्हें मिला है.
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मनोज मोहन
मनोज मोहन वरिष्ठ पत्रकार व लेखक. वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमानः समय समाज संस्कृति के सहायक संपादक.इन दिनों सीएसडीएस की आर्काइव परियोजना के अंतर्गत आज़ादी से दशक भर पहले से लेकर सातवें-आठवें दशक की हिंदी पत्रिकाओं के आलेखों, कविताओं और कहानियों के दस्तावेज़ीकरण जैसा महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं. manojmohan2828@gmail.com |


28 अगस्त, 1964 को बीकानेर में जन्मे अनिरुद्ध उमट के अब तक दो उपन्यास, दो कविता-संग्रह, एक कहानी-संग्रह एवं एक निबंध-संग्रह प्रकाशित हैं. राजस्थानी कवि वासु आचार्य के साहित्य अकादेमी से सम्मानित कविता-संग्रह ‘सीर रो घर’ का हिन्दी में अनुवाद.



बहुत सुंदर अंक है. निर्मल जगत के संकोची और मूल्यवान स्पर्श से युक्त.
ख़तों वाला हिस्सा पढ़ लिया है।
क्या ही कहूँ?
निर्मल जी के मुझे लिखे ख़तों को निकालकर पढ़ती हूँ। उन्हें छपवाने की कभी सोची ही नहीं। . . . है डगर पनघट की !!!
ताज्जुब होता है वे अपनी किताबों को युवा लेखकों को भेजने को अपना दायित्व समझते थे।
ख़तों में ख़तों के बारे में निर्मल जी जो लिखा है वह वाक़ई बेशकीमती है:
💐पत्रों में हम सहज रूप से अनजाने में ही, “अन्य” बन जाते हैं, दूसरों को लिखते हुए हम स्वयं से वह कहने लगते हैं, जो शायद बिल्कुल अकेले में कहना, लिखना संभव न हो. इसीलिए काफ्का के पत्र उसकी डायरी से कहीं अधिक खुले, बाहर की ओर उन्मुख होते हुए भी – या शायद उस के ही कारण- अपने प्रति अधिक उत्सुक और जिज्ञासाशील हो जाते हैं, मानो हम किसी ऐसे से बात कर रहे हों, जिसे हम जानते भी हैं, और नहीं भी…. पत्रों में दूसरे की अनुपस्थिति स्वयं हमें अपनी उपस्थिति के प्रति अधिक सचेत और ईमानदार बना देती है.💐
वह करोल बाग की…बरसाती … हमारी स्मृतियों में बसी हुई!! वह न होती तो हिन्दी में कुछ लेखन तो वुजूद में भी न आया होता।
अनिरुद्ध अपनी रचनाओं को निर्मल जी को भेज पाया। मैंने कभी हिम्मत न की। निर्मल जी मेरी कविताओं को चुपचाप पढ़ लेते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा था, ” तुम्हारे सँग्रह *लो कहा साम्बरी* को पढ़ते हुए मुझे तुमसे ईर्ष्या होती है”.
मनोज मोहन जी के स्नेहिल सहयोग से जो समालोचन को मिला है उसे दिन में पढ़ती हूँ।
ख़तों का माहौल कुछ देर बना रहे।
पत्रों में मुझे मेरी भाषा मिलती है–नंगी, अनछुई, नीली, कांपती, मुलायम, भीगी, अंधेरी…” यह वाक्य अपने आप में वह जवाब है जिसकी लालसा इस लेख से घण्टे भर से बांधे रही, अदभुत है यह। शुक्रिया💐
इस दृष्टि संपन्न व्याख्यान को यहां साझा करने के लिए मनोज जी और आपका शुक्रिया।निर्मल जी हमेशा ही संपन्न समृद्ध करते हैं । नई तरह से ।और यह आज भी हुआ
आज निर्मल जी की पुण्यतिथि है। निर्मल जी को मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता, उनकी रचनाओं का पाठक हूं। मुझे लगता है, जैसे उनका जन्म मेरे और मेरे जैसे उनके अनेकों पाठकों को एक अलग ही संसार में विचरण कराने के लिए हुआ था। उनकी कहानियां, उपन्यास और यात्रा संस्मरण पढ़ते हुए मैं और मेरे जैसे उनके पाठक एक अलग ही लोक में प्रविष्ट हो जाते हैं। वह एक दूसरी ही दुनिया है जहां धुंध तो है मगर कहीं खो जाने का डर नहीं होता । निर्मल उस कोहासे और रहस्यमय चुप्पी में भी आपका हाथ थामें रहते हैं। वहां आप रोमांचित होते हैं किंतु भयभीत नहीं। किसी भरोसे की खुशबू आपके आसपास तैरती रहती है जिजीविषा, उम्मीद आपकी लड़खड़ाहट और ढह जाने की आशंका को मज़बूती से थामें रहती है। उस दुनिया से जब आप वापस लौटते हैं तो आपके पास बहुत कुछ ऐसा होता है जो आपकी हिम्मत आपके हौसले और जीने के संकल्प को मज़बूत करता है मुझे यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि जिन दो लेखकों ने अपने लेखन से मुझे जीवन जीने का तरीका सिखाया, उनमें से एक निर्मल जी हैं। उनकी कहानियों में और उनके उपन्यासों में जो कथानक, जो कहानी होती है; उससे इतर मेरे लिए उनके पात्रों के उस कथानक को जीने का अंदाज़ या उन स्थितियों परिस्थितियों से निपटने की ज़िद उन दुरूह रास्तों पर चलने का उन रास्तों से गुज़रने का तरीका ज्यादा आकर्षित करता है। ज्यादा प्रभावित करता है। और इस तरह सबसे ज़्यादा , बहुत कुछ सिखाता भी है।
उनके लिखे हुए को मैं बारंबार पढ़ता हूं पर मन नहीं भरता। “एक चिथड़ा सुख” और “अंतिम अरण्य” तो मैं कभी भी कहीं से भी पढ़ने लगता हूं।
यह मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और मुझे निर्मल जी को पढ़ते हुए जैसी अनुभूति होती है वह, अपने प्रिय लेखक को याद करते हुए आपसे साझा कर रहा हूं ।
जिस तरह किसी व्यक्ति की उपस्थिति या उससे रिश्ता हर व्यक्ति का भिन्न होता है, इस तरह यह मेरे लिए निर्मल जी से मेरा रिश्ता है।
उन्हें मैं एक विद्वान ‘गाइड’ और शुभचिंतक की तरह महसूस करता हूं। उनके लिखे हुए का ऋणी हूं।
उन्हें सादर विनम्र श्रद्धांजलि।
निर्मल जी के पत्र अनिरुद्ध जी को संबोधित होते हुए भी हमारे भीतर के अंधेरों को विरल कर रहे हैं। एक युवा लेखक के एकांत को, चुप को शब्द देते हुए निर्मल जी उन्हें उनसे परिचित भी करा रहे हैं, एकान्त को सुरक्षित रखते साथ भी खड़े दिखते हैं। Anirudh दादा, निर्मल जी का यह आत्मीय साथ हमसे साझा करने के लिए आपका और समालोचन का आभार व्यक्त करती हूं। इन पत्रों को कई बार पढूंगी।
निर्मल वर्मा के अन्तिम अरण्य में विचरण करते हुए भाषा के संगीत में डूबना एक आह्लादक अनुभव है। यद्यपि आज कविता भी भाषा का स्वप्न नहीं देखती, भाषा में स्वप्न को अपदस्थ होते हुए देखती है। निर्मल जितने बड़े कथाकार हैं, उससे भी बड़े चिन्तक और निबन्ध – लेखक हैं। अतीत के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए वे आज के ऐतिहासिक चेतना से लैस युग में मिथकों के आलोक मंडल के बुझ जाने पर वे व्यथित होते हैं। उनका ज्ञानपीठ काफी प्रशस्त है और पाश्चात्य साहित्य के अनुभवों ने उनकी भारतीयता को और पुष्ट किया है। प्रगतिशील साहित्य सृजन के दौर में साहित्य की स्वायत्तता की घोषणा करने वाली यह एक अकेली आवाज है और उनका सरलीकरण सम्भव नहीं है। चित्त के निर्मलीकरण के लिए समालोचन को साधुवाद!
निर्मल वर्मा के पत्रों को अनिरुद्ध उम्मट ने जिस तरह प्रस्तुत किया है, वह तृषा जगा देने जैसा है। उनके पत्र हिन्दी की एक थाती हैं। हिन्दी का पत्र साहित्य बहुत ही समृद्ध रहा है; लेकिन निर्मल जी और अन्य प्रमुख साहित्यकारों के पत्र साहित्य को लेकर इन वर्षों पर वैसा कुछ नहीं हुआ, जो सारिका आदि पत्रिकाओं ने किसी समय किया था। अनिरुद्ध उम्मट को लिखे निर्मल जी के पत्र अपनेपन के भावों से लबरेज़ हैं और वे निर्मल जी के भीतर की चेतना और बाहर की सजगता को रेखांकित करते हैं। आपने निर्मल जी पर जो कुछ भी प्रकाशित किया है, वह श्रमसाध्य और बहुत ही उपयोगी काम है। उल्लेखनीय तो है ही। निर्मल वर्मा के बारे में आलोचक भले कुछ भी कहें और उनके पुराने समकालीन कुछ भी सोचें; लेकिन वे हिन्दी की नई पीढ़ी में अब भी चेतन गति और एक रोमांचकारी आकर्षण वाले लेखक हैं। मैंने निर्मल वर्मा, विनोदकुमार शुक्ल और मुक्तिबोध जैसे जटिल कवि के प्रति युवाओं में जो अति-अपनाव पाया है, वह अन्य के प्रति दुर्लभ है। आपको, अनिरुद्ध उम्मट साहब और हिन्दी की उच्चाकांक्षी परियोजना में जुटे मनोज मोहन साहब को बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।
बहुत धन्यवाद त्रिभुवन जी। इस भावना को समझने के लिए। जीवन के रंग कुछ बीतने के बाद ज्यादा जीवनदाई महसूस होते है। आज यह आपसी सहजता, आत्मीयता लगभग लुप्त है। आप ने बहुत सही लिखा।
अरुण जी को भी बहुत धन्यवाद उन्होंने इन्हें पाठकों तक पहुंचाया।
निर्मल वर्मा मेरे प्रिय साहित्यकारों में से एक हैं उनका लिखा और उन पर लिखा गया हमेशा समृद्ध करता है।