लम्बी कहानी निम्फोमैनियाक: एक बयान कबीर संजय |
ll पहला भाग ll
वैसे तो इस बात के खतरे बहुत हैं कि आप मेरी बात सुनें और उस पर हँस दें. मेरा उपहास करें. ऐसा होना जरूर सम्भव है. कई बार जो बात आप कहते हैं, आपके जीवन की परिस्थितियाँ उसकी विरोधाभासी होती हैं. उससे मिलती-जुलती नहीं है. इसीलिए हो सकता है कि यह बात भी डींग जैसी लगे. अब इस पर क्या ही बोलूँ. लेकिन, हर किसी को अपनी कहानी अपने तरीके से कहने का हक है. तो फिर मैं भी बिना किसी हिचक के अपनी तरह से ही कहता हूँ.
मैं बचपन से ही बहुत पढ़ाकू था. घर में कोई भी ऐसी किताब नहीं थी कि जो मैंने बेपढ़े छोड़ दी हो. जब कोई एक किताब खतम हो जाती तो मैं अगली ढूँढ़ने लगता. कई बार तो पहली खतम होती नहीं, उसके अन्तिम कुछ पन्ने बचे होते और अगली के लिए बेचैनी शुरू हो जाती. कई बार, जब कहीं से कुछ नहीं मिलता तो पहले पढ़ी गई किताबों को ही मैं दोबारा पढ़ने लगता.
जरा ठहर जाइए. ऊपर जिस विरोधाभास की बात मैं कर रहा था, वह यहीं पर है. किताबों की दुनिया में मेरे डूबने उतराने से शायद आपने सोचा होगा कि मेरा करियर बहुत ही चमकदार रहा होगा, मैंने कोई बहुत पैसे वाली नौकरी की होगी. तो यह बात गलत है. दरअसल, ऊपर मैं जिन किताबों में डूबे रहने की बात कह रहा था, वे किस्से, कहानियाँ और उपन्यास थीं. उसमें बहुत सारी कहानियाँ किसी के जीवन अनुभव पर बनी हुई थीं. कुछ ऐसी थीं जो किसी के पूरे जीवन और उसके झंझावातों को सामने रख देती थीं. कुछ ऐसी भी थीं जो किसी कातिल द्वारा किए गए कत्ल के रहस्य का पर्दा उठाने वाली थीं. यहाँ पर कातिल कोई एक कत्ल करता था. इसे करने से पहले वह एक फुलप्रूफ प्लान बनाता था. एक ऐसा दोषरहित प्लान जिसके फेल होने की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती थी. जैसे किसी बैंक में डकैती डालने की योजना बनाई जाती. पूरा का पूरा प्लान ऐसा होता कि कभी पकड़े जाने की कोई सम्भावना ही नहीं होती. लेकिन, जब घटना घट जाती, जब डकैती हो जाती, जब कत्ल हो जाता, तब कोई जासूस उस पूरी योजना में छूटे रह गए सुरागों को ढूँढ़ते हुए अपराधी तक पहुँच जाता. इस तरह से जैसे कोई रहस्य परत दर परत खुल रहा हो.
दो)
माँ-बाप अपने बच्चों को जाने-अनजाने बहुत कुछ देकर जाते हैं. आदतें अक्सर ही उन चीजों में शामिल होती हैं जो माँ-बाप अनजाने में अपने बच्चों को देते हैं. आदतें ऐसी होती हैं जो किसी का पीछा नहीं छोड़ती हैं. वे दीमकों की तरह चिपक जाती हैं. कई बार माँ-बाप खुद जिन आदतों से पीछा छुड़ाने की कोशिशें करते रहते हैं, उसे वे धीरे से अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित कर देते हैं. यह हो जाता है और खुद माँ-बाप को भी पता नहीं चलता है.
उस समय मैं यही कोई दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ता था. गर्मियों की दोपहरियाँ बड़ी लम्बी हुआ करती थीं. अक्सर ही बिजली गुल हो जाती. बिजली के आने का कोई भरोसा नहीं होता था. टीवी, फ्रिज और कूलर जैसी चीजों को हमारी जिन्दगी में जगह बनाने में अभी चार-छह साल का वक्त और लगने वाला था. ऐसे समय में जब दो महीने की गर्मियों की छुट्टियाँ हो जातीं तो इसके अलावा कोई चारा नहीं होता कि गर्मियों की दोपहरी मटरगश्ती की जाए. धूप इतनी तीखी और तेज हुआ करती थी कि पूरे शरीर पर घमौरियाँ निकल आतीं. शरीर चुनचुनाने लगता. हम शहर के एक मोहल्ले में रहते थे. इसलिए ऐसा भी नहीं था कि हम पेड़ों और बागों के बीच जाकर उनकी छायाओं में अपनी दोपहरी काट लेते. ऐसे में कहीं मैं दिन भर दोपहर के घाम में भटकता न फिरूँ, मेरे पिता जी मुझे जबरदस्ती पकड़कर अपने बगल में लिटा लेते थे.
वो एक बार हुक्म देते थे. यहाँ लेटो और चुपचाप सो जाओ. मैं छोटा था. पहले तो उनकी आवाज सुनते ही मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती. दूसरे जब वे अपने स्वर को थोड़ा आदेशात्मक बना लेते थे, उस समय तो मेरी हालत देखने वाली होती. जब वे बिस्तर पर चुपचाप पड़ने को कहते हैं तो मैं चुपचाप आँख बन्द कर लेट जाता. कई बार लेटे-लेटे नींद आ जाती. कई बार नहीं भी आती.
बीच-बीच में आँखों की झिर्री से छत को ताकता रहता. बीच-बीच में चोरों की तरह आँख खोलकर देख भी लेता. पूरा खयाल इस बात पर रहता कि पापा की निगाह मेरी हरकतों पर पड़ न जाए. दोपहर के समय अक्सर ही वे भी घर में ही रहा करते थे. मुझे तो डपटकर वे अपने बगल में सुला देते. लेकिन, खुद उन्हें उपन्यास पढ़ने का शौक था. गर्दन के नीचे दो तकिए लगाकर वो किसी न किसी उपन्यास में मन लगा लेते थे. पन्ना दर पन्ना उसे पलटते रहते और पढ़ते रहते. ऐसे में उनकी बगल में सोया हुआ मैं कई बार अपनी आँखों की झिर्रियों से उन किताबों में लिखे हुए शब्दों को पढ़ने लगता.
बता चुका हूँ कि उस वक्त मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ता था. तब से ही मुझे चोरी-छिपे उन शब्दों का चस्का लगना शुरू हुआ. फिर तो मैं उनकी बगल में लेटकर उस किताब के पूरे के पूरे पन्ने पढ़ने लगा. पापा शायद सातवीं या आठवीं तक पढ़े थे. बाद की पढ़ाई उन्होंने छोड़ दी थी या उनसे छूट गई थी. पढ़ाई उनसे साधी नहीं गई लेकिन उपन्यास पढ़ने का चस्का उन्हें पता नहीं कब लग गया था.
वे किताबों को धीरे-धीरे पढ़ते थे. मैं छोटा था. मैं उनसे भी धीरे-धीरे पढ़ता था. मुझे चोरी-छिपे भी पढ़ना था. ऐसे में कई बार मैं पूरा पन्ना पढ़ भी नहीं पाता था और वे उसे पलट देते थे. अगले पन्ने पर पहुँचते ही कहानी के बीच में कुछ खाली स्थान आ जाता. इन खाली स्थानों को मुझे अपनी कल्पनाओं से भरना पड़ता. कई बार वे कल्पनाएँ काम करतीं और कई बार काम नहीं करतीं. इसलिए मेरे लिए कहानी आधी-अधूरी रह जाती.
कुछ दिनों के अनुभव के बाद मैंने इसका भी तोड़ निकाल लिया. मेरे सामने उपन्यास के दो पन्ने खुले रहते थे. पहले पन्ने का ऊपरी हिस्सा तेजी से पढ़ने के बाद मैं सीधे दूसरे पन्ने के निचले वाले हिस्से की तरफ आ जाता था. नीचे का हिस्सा पढ़ लेने के चलते, जब वे पन्ना पलट भी देते थे, मुझे अगले पन्ने के साथ तारतम्य बैठाने में दिक्कत नहीं आती थी. लेकिन, इस चोरी से एक और चीज भी हुई. मेरा पढ़ना बहुत तेज हो गया.
मुझे हर समय इस बात का डर लगा रहता था कि अभी वे पन्ना पलट देंगे, इसलिए मैं उनसे ज्यादा तेजी से पन्ने को पढ़ने की कोशिश करता. धीरे-धीरे मेरी रफ्तार उनसे बहुत ज्यादा तेज हो गई. अब मैं दोनों पन्नों को पढ़कर इन्तजार करता कि वे पन्ना पलटें तो मैं आगे की कहानी की तरफ बढ़ूँ. कई बार मुझे काफी देर सुस्ताना पड़ता.
हो सकता है कि आप सोचें कि एक बाप के बगल में लेटकर उसका बेटा उपन्यास पढ़ रहा है और बाप को पता भी नहीं चल रहा है. मुझे लगता है कि बाद में उन्हें इस बात का आभास जरूर हो गया होगा. लेकिन, उन्हें शायद गर्मी की दोपहरी में मेरे भटकने से यह बेहतर लगा हो. खैर, इस पर अब क्या बात की जाए.
लेकिन, यह लत ऐसी लगी कि फिर छूटी नहीं. जब वे किताब छोड़कर बाहर चले जाते तो मैं किसी कोने-अँतरे में उसे लिए पढ़ रहा होता. घर में मौजूद शायद ही कोई ऐसी किताब हो जो मैंने पढ़ी न हो. वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक, गुलशन नन्दा, रानू, राहुल, राज, केशव पंडित, विक्की आनन्द जैसे न जाने कितने लेखकों के लिखे हुए शब्द मेरी आँखों के सामने गुजरते रहे. बहुत कम उम्र में कभी मैं उन अक्षरों को बुदबुदाते हुए पढ़ता था पर बाद में बस मेरी नजरें उनके आगे से घूमती रहीं और मेरा दिमाग उन शब्दों को पढ़ता रहा.
थोड़ा और बड़ा हुआ तो उस वक्त तक अठन्नी किराए पर उपन्यास आने लगे. मेरे बड़े भाई को भी किताबों की लत पड़ी हुई थी. वो किराए पर उपन्यास ले आता. जब वो पढ़ चुकता तो चोरी-छिपे मैं पढ़ने लगता. कई बार मैंने किताब पूरी पढ़ी भी नहीं होती और वो उसे वापस कर आता. इस डर से कई बार मैं रात भर जागकर पूरी किताब खतम करता.
यह सिलसिला अभी तक खतम होने का नाम नहीं ले रहा है. इसी दौरान मैंने सुरेन्द्र मोहन पाठक की वो किताब भी पढ़ी, जो मुझे लम्बे वक्त तक याद रह गई- निम्फोमैनियाक. यह एक ऐसी औरत की कहानी थी, जो अपने दोनों हाथों में अपना दिल उछालते हुए चलती थी और जो भी सामने पड़ जाता, उसे अपना दिल सौंप देने में उसे गुरेज नहीं था. डिक्शनरी से निम्फोमैनियाक का अर्थ भी दिया गया था – ए वोमेन हैविंग अनकंट्रोलेवल ऑर एक्सेसिव सेक्सुअल डिजायर.
हर किसी को दिल दे बैठने वाले हीरो तो बहुत सारे थे. लेकिन, वो पहली और एकमात्र दिलफेंक नायिका थी, इसलिए हमेशा याद रह गई.
तीन)
कहीं भूगोल के बिना भी कोई इतिहास होता है. हर इतिहास किसी न किसी भूगोल में घटित होता है. कहानी जिस जगह पर शुरू होती है और जहाँ पर खतम होती है, वो जगहें महत्वपूर्ण होती हैं. बल्कि, कई बार कहानी पैदा होने की वजह भी वे जगहें ही होती हैं.
एक दूसरी से जुड़ी हुई आबादियों का यह एक बहुत बड़ा-सा मोहल्ला था. एक बड़ी आबादी के बीच कई छोटे-छोटे मोहल्ले थे. शायद पहले कभी ऐसा वक्त रहा हो जब ये मोहल्ले अलग-अलग रहे हों, इनके बीच में खेत रहे हों. लेकिन, शहर जब विस्तार लेता है तब इन सीमाओं को बरतना भूल जाता है. तो आबादी के सारे गाँव एक-दूसरे से मिल-जुलकर एक हो गए थे. अभी भी उन्हें अलग-अलग नामों से जाना भले ही जाता था लेकिन उनकी सीमाओं के बारे में खास स्पष्टता नहीं थी कि वे कहाँ से शुरू होती हैं और कहाँ पर जाकर खतम हो जाती हैं.
ऐसे ही एक मोहल्ले में मेरा घर था. घर के बगल में बहुत बड़ा-सा पीपल का पेड़ था. उस समय तक मैं आठवीं में आ चुका था. ये वो समय था कि जब मुझे पंतग उड़ाने का शौक सवार हो गया. स्कूल से आने के बाद पहला काम ही लटाई और पतंग लेकर छत पर जाने का होता. एक पुरानी बड़ी-सी लटाई में ढेर सारी सद्दी मैंने लपेटी हुई थी जबकि, आगे वाले सिरे पर मंझा लगा हुआ था. ताकि, अगर कोई पतंग काटने आए तो उससे मुकाबला किया जा सके. हालाँकि, खुद पतंग लड़ाने में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी.
यह पीपल का पेड़ मेरी छत के बाईं तरफ था. इसलिए मेरी इच्छा हमेशा यह रहती थी कि हवा बाईं तरफ की न हो. हवा आगे हो या पीछे हो या फिर दाईं तरफ की. पंतग उड़ाने में परेशानी नहीं होती थी. लेकिन, बाईं तरफ की हवा होने पर पतंग अक्सर ही पीपल की ऊँची डालियों में फँस जाती थी. यहाँ से पतंग को निकालना सम्भव नहीं होता था. जितना खींचों वे और उलझ जातीं. ज्यादा जोर लगाने पर डोर टूट जाती. फिर बहुत देर तक पतंग उन पेड़ों में लटकी हुई मेरा मुँह चिढा़या करती.
तो जब हवा बाईं तरफ की होती तो मैं कुछ दूरी पर ही रहने वाले चाचा की छत पर चला जाता था. पुराने मोहल्ले में हर कोई एक दूसरे को पीढ़ियों से जानता है. चाचा भी कुछ ऐसे ही थे. वे यहाँ पर रहते नहीं थे. उनके घर में कई किराएदार रहते थे. नीचे की ही मंजिल बनी हुई थी. ऊपर बड़ी-सी छत थी. अक्सर ही जब हवा पीपल के पेड़ों की तरफ रहती तो मैं पतंग उड़ाने के लिए उनकी छत पर चला जाता.
ऐसा ही कोई दिन रहा होगा. शायद फरवरी का. सर्दियों के कपड़े उतरने की जल्दी में थे. लम्बे समय तक सर्दियों के कपड़े पहनने के चलते अब जब वे कपड़े उतरे हैं तो उन्होंने त्वचा पर एक खास किस्म की गोराई छोड़ दी है. धूप लगकर कुछ ही दिनों में यह गोराई खतम हो जाने वाली है. लेकिन, फिलहाल तो इसे साफ देखा जा सकता है.
मैं चाचा की छत पर गया. मैंने कुछ ही देर में अपनी पतंग को आसमान में टाँग दिया. पतंग की डोर मेरी उँगलियों के ऊपर से गुजर रही थी. मैंने उसे पकड़ा हुआ था. उस पर हवा का दबाव साफ महसूस हो रहा था. आसमान में सिर्फ मेरी पतंग अपना सीना ठोंकते हुए, ठुनकते हुए शान से उड़ी जा रही थी. कन्ना इतना अच्छा बँधा था कि आसमान में एक जगह पर जाकर पतंग थम गई. न इधर न उधर. इतनी अच्छी हवा और इतने अच्छे आसमान में पतंग उड़ाते हुए मैं और पतंगबाजों के मैदान में न उतरने की दुआ करने लगा.
यह वह दिन था जब मैंने पहली बार उसे देखा था. अचानक ही वो छत पर आ गई. उसने गुलाबी रंग का एक फ्राक पहना हुआ था. जिसकी बाजुओं पर कोई अस्तर नहीं लगा था और वे कुछ झीने थे. इसमें से उसकी बाँहें काफी हद तक उजागर थीं. बाल उसने पोनी किए हुए थे. बालों की एक लट माथे पर झूल रही थी. वो चुपचाप आई और छत के पीछे की तरफ वाली दीवार पर बैठ गई. उसने मेरी तरफ देखा. मैंने भी उसे हैरत से देखा. हालाँकि, मुझे तुरन्त चाचा के नए किराएदार होने का अहसास हो गया. हाल ही में कुछ नए लोग आए थे. मेरी उनसे मुलाकात नहीं थी लेकिन उसे देखते ही मैं समझ गया कि नए किराएदारों में से ही वह होगी.
वो छत की बाउंड्री से टिककर मेरी पतंग को देखती रही. मैं भी अपनी पतंग को देखता रहा. आसमान में पतंग और भी ज्यादा ठुनकने लगी. एक सीध में ऊपर की तरफ तनी. मेरी उँगलियों पर उसका तनाव और ज्यादा बढ़ जाता जब भी हवा थोड़ी और तेज होती.
आप जानते ही हैं कि हमारे यहाँ गुरु शिष्य परम्परा कितनी ज्यादा लोकप्रिय रही है. कोई एक हलवाई भी होता है तो उसके साथ तीन-चार अप्रेटिंस होते ही हैं. बढ़ई और मैकेनिक भी अपने साथ सीखने वाले लेकर चलते हैं. नाई और दर्जी की दुकान पर एक मास्टर होता है. बाकी, उससे सीख रहे होते हैं. ऐसे ही पतंगबाजी का एक छोटा-मोटा गुरु तब तक मैं भी हो चुका था. मोहल्ले के ही तीन-चार छोटे बच्चे मेरे साथ लगे रहते. पतंगबाजी के अलग-अलग कामों में इनका उपयोग भी भरपूर था. उन्हें छुड़ैया देने से लेकर माँझा और सद्दी तक मँगाने और पतंग फट जाए तो उसे जोड़ने के लिए उबले हुए आलू और चावल के लिए भी दौड़ाया जा सकता था.
अब तक मेरे अप्रेंटिस भी छत पर आ चुके थे. पतंग आसमान में टँगी हुई थी. एक ने मेरी लटाई पकड़ ली. ढील देने और खिंचाव को नियंत्रित करने में भी उसकी बड़ी दिलचस्पी थी. एक ने मुझसे थोड़ी देर के लिए डोरी पकड़ा देने की गुजारिश की. मैंने उसे भी पतंगबाजी के बारीक हुनर सिखाते हुए, हिदायतें देते हुए डोर पकड़ा दी. इस बीच कुछ और लोगों की भी आवारा पतंगें आसमान में इधर-उधर मटरगश्ती करने लगीं. मेरी दिलचस्पी तो पेंच लड़ाने में थी नहीं. लेकिन, ज्यादातर पतंगबाजों का यह अनोखा शौक होता है. ऐसे लड़ाकू लोगों के बीच फँसने पर मुझे अपनी पतंग को नियंत्रित करके एक तरफ किनारे करनी पड़ती है. कई बार प्रयासों के बावजूद जब ऐसा नहीं हो पाता है तो मैं अपनी पतंग उतार भी लेता हूँ. जबकि, कई बार उनके चक्कर में फँसकर पतंग कट भी जाती है. आसमान में दूसरी पतंगों के आने के साथ ही एक बार फिर से पतंगबाजी की पूरी बागडोर मैंने अपने हाथ में ले ली. उसे नियंत्रित करने लगा.
मेरे अप्रेंटिस आसमान में पतंग को तकते रहे. या फिर छत की बाउंड्री से इधर-उधर झाँकते रहे. इस बीच उसने मेरे सारे अप्रेंटिसों के नाम पूछ लिए. वे कितने में पढ़ते हैं, यह जान लिया. कहाँ रहते हैं, इसकी जानकारी ले ली.
चार)
फिर यह हर तीसरे-चौथे दिन का सिलसिला ही बन गया. आप जानते हैं, हवा तो बदलती ही रहती है. तो जैसे ही मेरी पतंग की आड़ में पीपल के पेड़ की ऊँची-ऊँची डालियाँ आने लगतीं. मैं चाचा की छत पर पतंग उड़ाने चला आता. यहाँ पर मेरे अप्रेंटिस भी आकर जुट जाते. छत पर हमारे आने के साथ ही वह भी छत पर चली आती. आसमान में पतंग को गुलाटियाँ खाते हुए देखा करती. कभी बाउंड्री पर बैठकर मेरे अप्रेंटिसों से बात करती.
यह पूरी तरह से सच है कि मैंने उससे बात की पहल नहीं की थी. एक दिन वह खुद ही चली आई. उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया और बोली – मेरा नाम रानी है. रानी ठाकुर.
उसके बढ़े हुए हाथ को देखकर मैं अकबका गया. मुझे कुछ सूझा नहीं. ऐसा कभी मेरे साथ हुआ नहीं था. खैर, मैंने भी अपनी घबराहट पर काबू पाते हुए हाथ आगे बढ़ाया और हाथ मिलाते हुए बोला – मैं कबीर हूँ.
उस दिन के बाद से मेरे अप्रेंटिसों में वह भी शामिल हो गई. कभी वह लटाई पकड़ लेती तो कभी थोड़ी देर पतंग की डोर उसके हाथ में देने की मिन्नतें करने लगती. कभी कोई पतंगबाज जब तेजी से मेरी पतंग काटने के लिए बढ़ रहा होता और मैं अपनी पतंग को बचाने के लिए जल्दी-जल्दी डोर को खींच या उसे एक किनारे ले जा रहा होता तो वो मुझसे एकदम सटकर खड़ी हो जाती. मेरी कोहनियाँ उसके शरीर से टकराने लगती. लेकिन, उस क्षण के आवेश से बँधी वह मुझसे और चिपकने लगती. कभी मेरे कन्धों को पकड़कर मुझे बताने भी लगती कि कबीर इधर से ले जाओ.
वो थी भी बहुत बातूनी. हर समय कुछ न कुछ बोलते रहना उसकी आदत में शामिल था. कुछ बातें तो इतनी ज्यादा बकवास होती थीं कि उनका जवाब देना भी मुनासिब नहीं होता था. लेकिन, हर बात के केन्द्र में वो खुद ही रहती थी.
लोग कहते हैं कि अच्छा, तो तुम्हारा नाम रानी है. कहाँ की रानी हो भला. तो मैं उनसे कहती हूँ कि मैं दिल की रानी हूँ. दिलों पर राज करती हूँ.
फिर वे मुझसे पूछते हैं कि अच्छा तो तुम किसके दिल पर राज करती हूँ. तो मैं कहती हूँ कि कोई एक दिल थोड़े ही न है. मैं तो कई दिलों पर राज करती हूँ. मेरा साम्राज्य बड़ा है. मैं बड़े देश की रानी हूँ.
फिर कोई मुझसे कहने लगता है कि अच्छा अगर तुम रानी हो तो तुम्हारा राजा कौन है. तो मैं कहती हूँ कि मैं रानी मधुमक्खी हूँ. मैं ऐसी रानी हूँ, जिसका कोई राजा नहीं होता है. सबकुछ मैं खुद ही हूँ.
और तरह की बकवास बातें वो लगातार करती रहती. अक्सर ही मेरा ध्यान पतंग पर रहता पर वो मुझे इस तरह की तमाम बातों में उलझाए रहती. कभी मुझसे एकदम सटकर खड़ी हो जाती. मेरा ध्यान तो पतंग पर ही रहता और मैं डोर को साधे रखने के प्रयास में ही जुटा रहता लेकिन सच कहूँ तो ऊर्जा का एक प्रवाह उसके शरीर से मेरे शरीर के अन्दर की तरफ होने लगता. मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगता. ऐसी हालत में मैं कई बार अपने किसी अप्रेटिंस को डोर पकड़ा देता. थोड़ी देर बाउंड्री की तरफ घूमकर खुद को संयत करने की कोशिश करता. अपने अन्दर होने वाली इन हलचलों को समझने की कोशिश करता. उनसे बेचैन हो जाता.
एक दिन वो चुपचाप सीढ़ियाँ चढ़ आई. आसमान में मेरी पतंग तनी हुई थी. मैंने डोर को साध रखा था. न इधर न उधर. हवा में एक जगह पर पतंग टँग गई थी. बस कभी-कभी हल्का-सा ठुनकती. यह भी कोई ध्यान लगाने जैसा है. जब सारी एकाग्रता आसमान में टँके हुए उसी तिकोने पर केन्द्रित हो जाती है. वह दबे पाँव आई और उसने पीछे से मेरी आँखें ढाँप लीं. अचानक आँख बन्द होने से मैं अचकचा गया. डोर के तनाव से मुझे लगा कि मेरी पतंग असन्तुलित हो जाएगी. मैंने उसका हाथ पकड़ा. बोला – छोड़ो मुझे.
वह बोली, पहचानों मैं कौन हूँ. अब उसकी इस आवाज के बाद भी कुछ राज रह सकता है भला.
मैंने कहा, तुम हो.
उसने पूछा, तुम कौन?
मैंने कहा, अरे तुम ही तो.
उसने पूछा, अरे तुम ही तो कौन?
मैंने कहा, अरे रानी.
वह बोली, रानी नहीं, रानी ठाकुर बोलो. मैं रानी ठाकुर हूँ. दिल पर राज करती हूँ.
और उसने मेरी आँखों से अपनी उँगलियाँ हटा लीं. आसमान में एक जगह पर टँगी हुई पतंग बुरी तरह से डगमगाने लगी थी. लेकिन, मैंने जल्दी-जल्दी डोर को साधकर उसे स्थिर किया. मेरी हालत देखकर वह खूब जोर-जोर से हँसने लगी. मैं भकुआया-सा उसे ताकता रहा. उसके हाथों की गर्मी अभी भी मेरी आँखों और गालों पर बनी हुई थी और सामने उसका खूब खिलखिलाता हुआ-सा चेहरा था.
पांच)
फिर भी जुल्म उसके कम नहीं हुए. अक्सर ही वो पीछे से आकर मेरी आँखें ढाँप लेती. मेरी पीठ से पूरी तरह से सटी हुई मुझसे पूछती, कौन? मैं कहता, तुम. वो कहती, तुम कौन, मैं कहता, अरे तुम ही तो. वो पूछती अरे तुम ही तो कौन. मैं कहता, अरे रानी. वो कहती नहीं, रानी नहीं, रानी ठाकुर बोलो. मैं रानी ठाकुर हूँ. दिलों पर राज करती हूँ.
यह संवाद बार-बार बोला और दोहराया जाता. लेकिन, खास बात यह है कि अब मेरी आँखों को ढँके हुए उन छोटी-छोटी, पतली और कोमल अँगुलियों का अहसास उतना नहीं होता था, जितना पीठ पर सटी हुई उसकी छातियों का होता था. पूरी पीठ पर एक अजीब-सी सनसनी दौड़ने लगती और मेरे कान गरम हो जाते. मुझे लगता कि जल्दी से यह संवाद पूरा हो जाए और वह मुझसे अलग हो जाए. लेकिन, जब वह अलग हो जाती तो मुझे लगता कि काश कुछ देर और यह संवाद चलता रहता.
अगर तीन-चार दिन बीत जाते और एक बार भी यह संवाद नहीं होता तो वो कुछ अनमनी और बेचैन होती. तो मैं इन्तजार करने लगता कि किसी दिन वह फिर चुपके से सीढ़ियाँ चढ़े और आकर मेरी आँखों को ढँक दे. मुझे इन्तजार रहता कि मेरी आँखों पर उसकी पतली और मुलायम उँगलियों का अहसास हो. मेरी पीठ पर वह सनसनाता मुलायम अहसास फिर से मुझे महसूस हो. खैर, ज्यादा दिन नहीं निकलते. कोई एक दिन होता जब मैं अपना ध्यान पतंग पर केन्द्रित करने की कोशिश करता और वह धीरे से आती और मेरी आँखें ढाँप लेती. मेरी एक-एक कोशिका इस छुअन, इस स्पर्श पर एकाग्र हो जाती. मैं उन्हें महसूस करने लगता. जहाँ-जहाँ से भी उसके शरीर ने मुझे छुआ होता, वहाँ-वहाँ से ऊर्जा की एक रेखा उसके शरीर से निकलकर मेरे शरीर में दौड़ती हुई लगती. उस दौरान भी संवाद तो हमारा वही था. लेकिन, मेरा मन यहीं पर एकाग्र था. अब, खैर पतंग की भी उतनी चिन्ता नहीं थी.
ऐसे ही एक दिन वो दबे पाँव आई. उसने चुपके से मेरी आँखें बन्द कर दीं. पहचान का यह पूरा संवाद एक बार फिर उस वक्त से गुजरा. जब संवाद खत्म हुआ तो उसने मेरे कान में फुसफुसाते हुए कहा कि मैं तुमको कुछ दूँगी.
मैंने, पूछा क्या दोगी.
तो उसने मेरी आँखों से अपनी उँगलियाँ हटा दीं. लेकिन, मेरे पीछे ही खड़ी रही. उसने एक छोटा-सा कागज निकाला. उस कागज को उसने मेरी आँखों के आगे कर दिया. उस पर नीले रंग की स्याही से और बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था, मैं तुम्हें कुछ दूँगी. एक कोने में दिल भी बना हुआ था.
इस कागज की एक झलक उसने मुझे दिखाई. लेकिन, जब तक मैं कुछ समझ पाता या कागज अपने हाथ में लेकर देख पाता, उसने फुर्ती से कागज मेरी आँखों के सामने से हटा लिया और चुपचाप अपने मुँह में डाल दिया.
मैं उससे कहने ही वाला था कि अरे दिखाओ तो. मुझे दो तो. तब तक उसने अपने दाँतों से चबा-चबाकर उस कागज की लुगदी बना दी. फिर उसे दूसरी तरफ थूक दिया. फाउंटेन पेन से लिखी स्याही की नीलिमा उसकी जुबान पर भी कुछ-कुछ दिखाई देने लगी. लेकिन, अब यह कागज पढ़ने लायक नहीं रहा. कागज कुछ दिनों बाद सूख जाएगा. कोई चाहे तो उसे सीधा करने की कोशिश कर सकता है. लेकिन, वे अक्षर अब स्पष्ट नहीं रहते हैं और टूट जाते हैं. अक्षर जब एक दूसरे के साथ सही-सही दूरी पर हों और सही क्रम में खड़े हों तभी कोई अर्थ देते हैं. हाँ, एक दूसरे का हाथ पकड़ना जरूरी है. लेकिन, एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाने, एक-दूसरे में विलीन हो जाने से वे अपना अर्थ खो देते हैं. इसलिए उन्हें फिर पढ़ना सम्भव नहीं होता.
अक्सर ही वो छत पर आती और मेरे भूरे बालों पर हाथ फेर देती. तुम्हारे बाल कितने भूरे हैं. मैं उसकी तरफ चिढ़ते हुए देखता. मेरी माँग तुमने खराब कर दी. इस पर हँसती हुई वो फिर से मेरे करीब आती और मेरे बालों में हाथ फेर देती. फिर बोलती, तुम्हारे बाल कितने भूरे हैं. मैं उसे झिटक देता. दूर रहो मुझसे. मेरे बाल खराब मत करो. इस पर जैसे बाल खराब करने का कोई युद्ध वो ठान लेती. मेरे इर्द-गिर्द किसी चोर की तरह मँडराती रहती और जब भी मेरा ध्यान पतंग की ओर एकाग्र होने को होता, वह दबे पाँव आती और मेरे बालों पर हाथ फिराकर उन्हें बिखेर देती. मैं चिड़चिड़ाते हुए अपनी उँगलियों से अपने बालों को सँभालने की कोशिश करता. वो बोलती, तुम्हारे बाल कितने भूरे हैं. एकदम मुलायम हैं. कितनी चमक हैं इनमें.
उस समय तक मेरे गालों पर भावी कँटीले जंगलों के निशान उभरने लगे थे. गालों पर हल्के काले और भूरे रोएँ बढ़ने लगे थे. मेरी मूँछों की रेख भी दिखने लगी थी. कभी ऐसा भी होता कि वो मेरे गालों को अपनी पूरी हथेलियों में पकड़ लेती और मेरी आँख में आँख डालकर देखती. तुम कितने गोरे हो, कबीर. तुम मुझसे ज्यादा गोरे हो. फिर वो अपने रंग की तुलना मुझसे करने लगती. मेरे हाथों के पास अपने हाथ लाती और कहती हाँ तुम मुझसे ज्यादा गोरे हो. हाथ तो तुम्हारे कम गोरे हैं, लेकिन तुम्हारा चेहरा मुझसे ज्यादा गोरा है. तुम्हारे बाल भूरे हैं. लेकिन, मेरे बाल काले हैं.
उस वक्त तक मैं किशोर वय की झंझटों में उलझा हुआ था. लेकिन, अपने गालों पर अपनी माँ के हाथों का स्पर्श अभी भी मुझे एकदम ताजा था. खासतौर पर जब वो छुटपन में मुझे स्कूल के लिए तैयार करती थीं. बर्तन रगड़ने और घरेलू कामों की वजह से उनके हाथों में एक खुरदुरापन था. उन्हीं खुरदुरी हथेलियों से वे सर्दी के दिनों में बोरोलीन अपने हाथों पर लेकर मेरे गालों पर लगा देतीं. या फिर वे मेरे सिर में ढेर सारा तेल चपोड़कर मेरी ठुड्ढी को कसकर पकड़ लेतीं और मेरे बालों में कंघा करने लगतीं. मैं सिर को इधर-उधर घुमाने लगता तो वे और कस कर पकड़ लेतीं.
माँ के बाद शायद वो पहली थी, जो मेरे गालों पर इस तरह से अपनी पूरी हथेलियाँ रख देती. उसके हाथों की छुअन मेरे गालों में बस जाती. मैं काफी देर तक उसे अपने गालों पर याद करता रहता. इसके साथ ही मुझे अपनी माँ के उस खुरदुरे प्यार की भी याद हो आती. मैं खुद अपने गालों पर हाथ फेरता. उसे महसूस करता. हाँ, माँ का वो प्यार भी अभी वहीं बना हुआ है. उसका वो अहसास भी वहाँ मौजूद है. कहीं गया नहीं है.
छह)
मैं जानता हूँ कि इन रास्तों से गुजरने वाला मैं अकेला नहीं हूँ. आप लोग यह सब कुछ पढ़ रहे हैं, आपने भी जरूर इन्हीं रास्तों से गुजरकर यह उम्र पाई होगी. तब फिर समझ ही सकते हैं कि यहाँ तक आते-आते मेरे आँख-कान भी बहुत तेज हो गए थे. एक तरह की मल्टीटास्किंग शुरू हो गई.
पतंग मेरी भले ही आसमान में टँगी हो लेकिन मेरे कान सीढ़ियों पर आने वाली पदचापों पर अटके रहते. अक्सर ही यह आवाजें मेरे ही किसी अप्रेंटिस की होती थीं. वो आकर लटाई पकड़ लेता और कुछ ही देर में डोर भी थमाने की जिद करने लगता. लेकिन, सीढ़ियों पर आने वाली इन तमाम पदचापों में मुझे उसकी आहट का इन्तजार रहता. यह इच्छा पूरी भी होती.
वो चुपचाप पीछे से आकर मेरी आँखें ढँक देती. मैं जान-बूझकर अनजान बने रहता और उसे अपने करीब आने का मौका देता. और जब वो अपनी हथेलियों को मेरी आँखों पर रख देती तो मैं हल्के से चौंकने का अभिनय भी करता. फिर वही संवाद शुरू हो जाता. वो पूछती – कौन. मैं बोलता – तुम.
तो इस बार संवादों की कड़ी पूरा होने के बाद उसने धीरे से मेरे कान में कहा – तुमको जल्द ही कुछ मिलने वाला है.
मैंने कहा – क्या?
उसने धीरे से मेरे हाथों से अपनी हथेलियाँ हटा लीं. और मेरी आँखों के सामने कागज का एक टुकड़ा कर दिया. कागज पर यही बात मोटे-मोटे अक्षरों में लिखी हुई थी. तुमको जल्द ही कुछ मिलनेवाला है. मैंने कागज पकड़ने की कोशिश की और पूछा कि क्या मिलनेवाला है. बस इतने में ही उसने वह कागज गायब कर दिया. मैं वह कागज देखने के लिए उससे माँगने लगा. उसने अपनी मुट्ठी में उसे छिपा लिया. फिर वो अपनी मुट्ठियों को अपने पैरों के बीच छिपाकर गोल-मोल होकर बैठ गई. मैंने उससे वह कागज छीनने की कोशिश की. लेकिन, यह करना सम्भव नहीं था. उसने अपने पूरे शरीर को अकड़ाया हुआ था और कुछ ही देर की कोशिश के बाद में लगा कि मैं शायद उससे छीन नहीं सकता. इस प्रयास में मेरे नाखून भी उसके हाथों में लग गए. जबकि शायद उसके भी एकाध नाखून मुझे चुभे होंगे.
मैं उसकी मुट्ठियाँ खुलवाने का प्रयास करता, इससे पहले ही उसने एक झटके में कागज अपने मुँह में डाल लिया. फिर दाँतों से उन्हें चबा-चबाकर लुगदी बना दी. अब वे किसी काम के नहीं थे. उनमें लिखे गए अक्षरों का अस्तित्व अब विलीन हो चुका था. वे लुगदी बन चुके थे. मैंने उसे छोड़ दिया.
वह विजयी भाव से खिलखिलाते हुए उठ खड़ी हुई. ऐसी ही विजयी मुस्कान के साथ उसने कहा कि तुम भले ही हार गए हो. लेकिन, तुम्हें कुछ मिलेगा जरूर. मैंने प्रश्नवाचक नजरों से उसे देखा. पर मेरे सवाल के जवाब में भी उसके पास एक मुस्कान थी. गहरी और रहस्यमयी. उसने सीधे मेरी आँखों में देखा. मेरा दिल धक से रह गया. धड़कनें तेज हो गईं. उसकी आँखें खूब काली थीं. लम्बी-लम्बी पलकें और भवें मोटी थीं. वो मेरी तरफ ऐसे देख रही थी कि जैसे उनमें कोई राज छिपा हो. फिर वो दूसरी तरफ देखने लगी.
मेरे मन को भी सन्तोष नहीं था. अपनी असफलता से मन में खीज थी. ऐसा लगता कि जैसे कोई बात अधूरी छूट गई है. इसे आज तो पूरा होना था. लेकिन, नहीं आज यह पूरी नहीं हो सकी. उसने एक कागज दिखाया था. उसकी एक झलक मैंने देखी थी. लेकिन, अब वह कागज कहीं नहीं था. उस पर लिखी इबारतें अब कहीं नहीं थीं. क्या उन इबारतों के मिटाने से वह भी मिट गया जो कि उसमें लिखा हुआ था. नहीं. ऐसा नहीं होने वाला था. वो भौतिक रूप से मौजूद था.
सात)
दिन बीत रहे थे ऐसे ही एक दिन वह चुपचाप छत पर चढ़ आई. मुझे उसके आने का पूरा पता था. लेकिन, मैं जान-बूझकर अनजान था और इन्तजार कर रहा था कि वह आए और चुपचाप पीछे से मेरी आँखों पर अपनी हथेलियाँ रख दें. अब अगर वह ऐसा नहीं भी करती थी तो मैं इसका इन्तजार करता था कि वह अपनी हथेलियों को मेरी आँखों पर रखे. कई बार जब वह ऐसा नहीं करती तो मैं देर तक उसकी उपस्थिति से अनजान बने रहने की कोशिश करता. फिर जब वो पीछे से आकर आँखें नहीं ही बन्द करती तो मैं अचानक ही उसकी उपस्थिति को जाहिर करते हुए कहता, अरे, तुम कब आई. वो खूब गहराई से मुसकुराती. कहती, जब तुम्हारी पतंग आसमान में हिचकोले खा रही थी. जब तुम डगमगा रहे थे.
खैर, ऐसे ही एक दिन वह चुपचाप आई. उसने मेरी आँखें बन्द कर दीं और पूछा कि – कौन. मैंने कहा तुम. उसने कहा, तुम कौन. मैंने कहा कि अरे तुम ही तो हो. वह बोली कि तुम ही तो कौन. मैंने कहा कि रानी. उसने कहा कि रानी नहीं रानी ठाकुर बोलो. मैं रानी ठाकुर हूँ. दिल पर राज करती हूँ. उसने मेरी आँखों से अपनी उँगलियाँ हटाई और बोली, आँखें अभी मत खोलना. फिर उसने मेरे चेहरे के सामने एक कागज कर दिया. बोली, अब आँखें खोलो. इस कागज पर नीली स्याही से बहुत मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था, मैं तुमको एक किस दूँगी. बहुत जल्द. इसमें किस अंग्रेजी के बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था और नीचे एक दिल बना हुआ था.
इसको पढ़ने के साथ ही मेरे हाथों में झुरझरी होने लगी. लेकिन, जब तक मैं कुछ आगे करने की सोचता वह कागज उसके मुँह में जा चुका था. अपने दाँतों से चबा-चबाकर उसने लुगदी बना दी थी.
अब कुछ नहीं हो सकता था. मैं उस दिन का इन्तजार करने लगा. जब मुझे यह इनाम मिलने वाला था. जाड़े की शुरुआत हो चुकी थी. धूप का दम टूटने लगा था और बदन पर स्वेटर आने लगे थे. ऐसे ही एक दिन मैं अकेला ही छत पर पतंग उड़ा रहा था. वह चुपचाप छत पर चली आई. घर के बगल में एक नीम का पेड़ था. जिसकी डालें छत के एक कोने की तरफ झुकी हुई थीं. इसके चलते यहाँ पर एक हल्की आड़ जैसी बन गई थी. वह चुपचाप वहाँ जाकर खड़ी हो गई. उसने मुझे कहा कि यहाँ आओ. मैंने कहा, क्या हुआ. उसने कहा, तुम्हें कुछ दिखाना है. मैंने लटाई वहीं जमीन पर रख दी और डोर को एक ईंट में लपेटकर बाँध दिया.
वहाँ पहुँचा और बोला क्या दिखाना है. वह चुपचाप मेरे करीब आ गई. मेरे इतने पास कि उसकी साँसें भी मुझे अपने चेहरे पर महसूस होने लगी. उसने मेरी तरफ भेद भरी निगाहों से देखा. मैं लम्बा था. वह मुझसे थोड़ा छोटी थी. मेरी तरफ देखते हुए वह थोड़ा और उचकी और उसने मेरे गाल पर एक चुम्मा बैठा दिया. मेरी सारी नसों में खून बहुत तेजी से दौड़ने लगा. उसने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया और मेरी गर्दन के पास अपना मुँह छिपा लिया. यह पक्की बात है कि उस समय कोई मुझसे दो फिट की दूरी पर भी होता तो मेरी धड़कनें उसे साफ सुनाई पड़ जातीं. मेरा पूरा शरीर एक अनजाने अहसास से काँपने लगा. बदन पर थरथरी-सी चढ़ गई. मेरे जीवन का यह पहला चुम्मा था, जो किसी लड़की ने मेरे गालों पर जड़ा था और मुझे जीवन भर यह याद रह जानेवाला था.
पर अब जवाब में मुझे भी कुछ करना चाहिए. मैंने भी उसे अपनी बाँहों में मजबूती से पकड़ लिया और उसके गाल पर एक चुम्मा जड़ दिया. फिर उसके गालों से अपने गाल सटाने लगा. उसकी गर्दन में अपना मुँह घुसाने की कोशिश करने लगा. मेरे हाथ भी उसके शरीर पर इधर-उधर फिसलने लगे.
उसने एक स्वेटर पहन रखा था. उसके नीचे उसकी ट्यूनिकवाली स्कर्ट थी. इसके नीचे कमीज थी. फिर कमीज के नीचे समीज थी और फिर उसके भी नीचे ब्रा मौजूद थी. कपड़े की इतनी परतों के भीतर से मुझे उसका अहसास नहीं हुआ. जो वहाँ पर मौजूद था. वही जिसको छूने, जिसको सहलाने, जिसके पास पहुँचने के लिए किशोर उँगलियाँ बेकरार होने लगती हैं. उसने मेरी इस उलझन को समझ लिया. कपड़ों की ये परतें उसे एक रजाई जैसी मोटाई दे रही थीं. उसने एक नजर चारों तरफ देखा और मेरा मार्गदर्शन किया. उसने धीरे से मेरी हथेलियाँ पकड़ीं और उन्हें रास्ता दिखाया. मैं पढ़ाई में उससे एक क्लास आगे था. किताबें मैं बचपन से ही पढ़ता आ रहा था. लेकिन, मेरी दुनिया किताबी थी. मैं किताबी दुनिया में आगे था. मैंने ऐसे तमाम दृश्य किताबों में पढ़े थे. लेकिन, इनसानी देह का अहसास किसी भी तरह से कागजों से पूरा नहीं हो सकता है. इनसानी देह की छुअन कागजों में कहाँ हो सकती है. वास्तविक दुनिया में वो मुझसे आगे थी. मुझसे ज्यादा सफर वह दुनिया का तय कर चुकी थी.
तो इस बार भी मार्गदर्शन करने का, राह दिखाने का,जिम्मा उसी का था. उसने मेरी उँगलियाँ पकड़ीं और उन्हें पहले तो गले के पास से अन्दर किया. यहाँ पर ट्यूनिक का मोटा कपड़ा आकर मेरे अहसास की बाधा बनने लगा. उसने गले के पास से ट्यूनिक को एक तरफ थोड़ा किनारे किया और उसमें से मेरा हाथ अन्दर डाल दिया. यहाँ पर उसने कमीज की दो बटनें खोली और मेरा हाथ अब उसे छू सकता था. मुझे लगा कि मैं एकदम से उसको छू रहा हूँ. हालाँकि, मेरा हाथ बहुत बे-आराम की हालत में था. उसकी साँसें भी तेज-तेज चढ़ने लगीं. मैंने एक के बाद उसकी दोनों छातियों पर अपनी पूरी हथेली रखीं. उन्हें छुआ. उन्हें सहलाने लगा. उसका दिल भी मुझसे ज्यादा तेजी से धड़क रहा था. बस क्षण भर को. फिर उसने एक झटके से मेरा हाथ ट्यूनिक से बाहर निकाल दिया और मुझसे दूर हो गई. उसने कमीज के दोनों बटन भी झट से बन्द कर दिए और ऊपर से स्वेटर को भी ठीक कर लिया.
वो कुछ देर तक इधर-उधर ऐसे देखती रही जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं हो. जैसे कि अभी-अभी वहाँ पर धरती कुछ पलों के लिए ठहरी ही नहीं हो. फिर उसी राजदार मुस्कान के साथ उसने सीधे मेरी आँखों में देखा. फिर बोली, मैंने कहा था न कि मैं तुमको कुछ दूँगी. मैं अभी तक अकबकाया था. मुझे समझ भी नहीं आया कि अभी-अभी सृष्टि के रहस्यों का जो एक पन्ना मेरे सामने हकीकी तौर पर खुला था, मैं उसके बाद क्या कहूँ. मेरी आँखें हैरतों से फटी जा रही थीं. मन में हलचल थी. चेहरे पर घबराहट के भाव थे. मैं सकपकाई हुई नजरों से आसपास की छतों को देख रहा था. जैसे चोर किसी चोरी के बाद चोर निगाहों से आसपास देखता है. किसी ने देख तो नहीं लिया. चारों तरफ कम से कम एक निगाह में तो कोई दिखा नहीं. छतें सूनी पड़ी थीं और कोई अप्रेंटिस आज आया भी नहीं था.
मेरी निगाह आसमान पर गई तो पतंग वहाँ से नदारद थी. डोर तनी हुई थी और पतंग सामने कुछ दूरी पर मौजूद नीम के एक ऊँचे पेड़ पर फँसी हुई थी. मैंने अपनी साँसें काबू कीं. फिर धीरे-धीरे डोर साधते हुए पतंग को डालों से छुड़ाने की कोशिश की. हल्की-हल्की ठुनकियाँ दीं. पतंग हल्के से काँपती. लेकिन, पेड़ उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं था. पतंग मेरी तरफ नाराजगी भरी नजरों से देख रही थी. जैसे कह रही, देखो तुमने मेरा क्या हाल कर दिया. तुम्हारी वजह से आज मैं इस मुसीबत में फँसी हुई हूँ. वो उलाहना दे रही थी. उस लड़की के लिए तुमने मुझे छोड़ दिया.
मैं दूर से उसे बस देख रहा था. मैंने जोर लगाकर उसे खींचना चाहा तो डोर टू गई. पतंग नीम की उन्हीं शाखों में फँसी रह गई.
अब भी जब कभी हवा चलती है तो वह नीम की शाखों के बीच फँसी हुई ऐसे ही फड़फड़ाती है.
आठ)
कानाफूसियाँ हमारे सूचना संचार को विकसित करती हैं. अक्सर ही हमें अपने पास मौजूद सूचनाओं के स्रोत पता भी नहीं होते हैं. लेकिन, वे हमारे अन्दर मौजूद होती हैं. अगर हम किसी खास सूचना के बारे में सोचने लगें तो हो सकता है कि हमें पता भी नहीं चले कि आखिर यह बात हमारे दिमाग में आई कहाँ से.
किसी के कान में चुपके से कोई बात कह देनी है. किसी के पीठ पीछे उसके बारे में कुछ बता देना है. साथ में हिदायत भी दे दी कि भई हमारा नाम नहीं आना चाहिए. या फिर ये कि मैंने सुना है कि ऐसा-ऐसा है. यानी सूचना देने वाला खुद भी निश्चित नहीं है. वो निश्चित होकर कह भी नहीं रहा है. बस आपके पास एक सूचना छोड़ जा रहा है. अब आप इसे अपने पास रखकर अचार डालिए या फिर उसे प्रसाद की तरह बाँटिए. आपकी मर्जी.
अमरनाथ ठाकुर मध्यप्रदेश के किसी छोटे शहर के रहने वाले थे. लम्बाई उनकी छह फुट के लगभग होगी और कन्धे चौड़े थे. डील-डौल उनका खासा हट्टा-कट्टा था. देखने से भी वे प्रभावशाली लगते थे. बाल राज कपूर की तरह एक तरफ को सलीके से झाड़े हुए और नाक के नीचे मूँछों की हल्की लकीरें भी राज कपूर के जैसी ही थीं. पहली नजर में कोई अजनबी यही मानता कि वो कोई पुलिसवाला है जो कि सादी वर्दी में काम कर रहा है. जब उन्हें उनके काम धन्धे के बारे में पता चलता तो वे कहते कि इतने लम्बे-चौड़े आदमी को तो पुलिस में होना चाहिए.
अमरनाथ ठाकुर ने अपनी किशोरावस्था में थोड़ी उछल कूद की भी थी. वे भी उसी पीढ़ी के सदस्य थे जो रात में चना फुलाकर, सुबह मुट्ठी भर चना खाकर,दौड़ने जाया करती थी. लेकिन, हर दिन सुबह उठना और बहुत ज्यादा दौड़-भाग उनके बस की नहीं थी. तो वे कुछ दिन बाद ही इससे बोर हो जाया करते थे. कुछ दिनों बाद फिर से योजना बनाते, फिर बोर हो जाते थे.
शरीर से लम्बे-चौड़े थे, तो बड़े दिखते थे, तो कम उम्र में ही शादी हो गई. ससुराल पक्ष काफी सम्पन्न था. ट्रांसपोर्ट का कारोबार था. उसी की मदद से अमरनाथ ठाकुर ने भी ट्रांसपोर्ट का कारोबार शुरू किया. लेकिन, इस कारोबार ने उनके जीवन को गति देने में खास मदद नहीं की. लाखों रुपये डूब गए. कारोबार के लिए बाद में भी एक दो बार कोशिश की. लेकिन, कामयाबी नहीं मिली. तो अन्ततः वे एक ट्रैवेल कम्पनी की बस चलाने लगे. कम्पनी का कारोबार कई शहरों में फैला हुआ था और वो कई शहरों से कई शहरों तक यात्रियों को अपनी बसों में ले भी जाती थी. उन्हीं बसों में से कोई एक बस अमरनाथ ठाकुर भी चलाया करते थे. कई बार इन शहरों की दूरी इतनी ज्यादा होती थी कि वे एक दिन अपनी बस लेकर निकलते थे तो दूसरे दिन की शाम को दूसरे शहर पहुँचते थे. वहाँ पर सवारियों को उतारने के बाद उन्हें कुछ घंटों का आराम मिलता था. उसके बाद उन्हें उधर से सवारियाँ लेकर इधर आना होता था. इसमें तीन-चार दिन का समय लग जाता था. इसके अलावा, अक्सर ही बस से कोई टूर जा रहा होता. तीर्थ यात्रियों का कोई समूह या फिर स्कूल का कोई टूर. इस तरह के टूर में वे अपने साथ यात्रियों को लिए-लिए कई-कई दिन तक भटका करते थे. इस तरह के टूर से वापस आने में उन्हें दस-पन्द्रह दिन भी लग सकते थे.
विवाह ने उन्हें कुछ निश्चिंतता दी थी तो कुछ दुश्चिंताएँ भी. ट्रांसपोर्ट के कारोबार और लम्बे-चौड़े खेतों वाले इस परिवार की एक बेटी कुछ ज्यादा शान्त प्रवृत्ति की थी. न किसी से खास बात करती और न ही उसके जीवन में किसी चीज के लिए खास उल्लास दिखाई पड़ता था. बाहरवालों के सामने घरवाले कहते कि बहुत सीधी है. चुपचाप रहती है. किसी से ज्यादा बातचीत नहीं. हमेशा निगाह नीची ही रहती है. घर का काम सारा आता है. लेकिन, घर के अन्दर आमतौर पर उसे बौड़म कहा जाता था. परिवार के लोग जब चिढ़े होते तो बे-बुद्धि और बैलबुद्धि जैसे सम्बोधनों की भी उसके ऊपर झड़ी लगा देते थे. लेकिन, वह सचमुच सीधी थी और किसी बात का खास जवाब नहीं देती थी. एक प्रकार का सूफीपन उसके हर हाव-भाव में था, जैसे जगत से निस्सार हो. उसके अन्दर खुद एक दुनिया हो. जैसे हर समय वह इन्हीं सवालों के जवाब में भटक रही हो कि आखिर यह जीवन मिला क्यों है. इस जीवन में करने क्या आए हैं. इसका आखिर करना क्या है.
दुनियावी चीजों का उसे खास खयाल नहीं था. लेकिन, घर का काम मोटा-मोटी जानती थी. अमरनाथ ठाकुर लम्बे-चौड़े युवक थे. देखने में सुदर्शन भी. बाकी कुछ काम-धन्धा तो कर ही लेंगे. ऐसा ससुराल पक्ष के लोगों का विचार था. जबकि, अमरनाथ को भी अपने होनेवाली पत्नी के बारे में ज्यादा कुछ खासियतें पता नहीं थी. बहु सीधी है तो यह अच्छी ही बात है और घर का काम करती है और खाना बना लेती है, इससे ज्यादा योग्यता की उन्हें खास जरूरत भी नहीं थी.
विवाह के बाद गृहस्थी की गाड़ी डुगुर-मुगुर चलती रही. इस दौरान अमरनाथ ने कारोबार में हाथ आजमाया. लेकिन, इस कारोबार से उन्हें दारू पीने की लत ही हासिल हुई. पैसा डूब गया, सब चला गया, पर वे अपनी इस आदत को किसी तरह बचाकर साथ ले आए. हर वक्त इसकी वे सुरक्षा करते कि किसी तरह से उसकी अकाल मौत नहीं हो जाए.
इसमें वे रात और दिन की भी खास परवाह नहीं करते थे. भई दिन क्या और रात क्या. जब भी जहाँ मौसम बन जाए, वे दारू के कुछ घूँट उतार ही लेते थे. इस बात का उन्हें गुमान था कि वे कितना भी पी लें लेकिन उन्हें खास नशा होता नहीं है. गाड़ी की स्टीयरिंग पर उनके हाथ काँपते नहीं है, इस बात की वे डींग भी हाँका करते थे.
अब तक चार लड़कियाँ इस विवाह का हासिल रही हैं. रानी उसमें सबसे बड़ी है. रानी बड़ी हो गई है, घर के कामकाज में हाथ भी बँटाती है. घर का सौदा-सुलुफ भी ले आती है. इसलिए उसे अपने साथ रखा है. जबकि, अमरनाथ ठाकुर की सूफी बीवी के लिए इतने बच्चों को सँभालना मुश्किल था. सो, ससुराल पक्ष के लोगों ने मदद के लिए बाकी की तीन बेटियों को अपने पास रखा हुआ था. वे वहीं अपने मामा-मामी के पास रहकर पल रही थीं और अलग-अलग कक्षाओं में पढ़ रही थीं. इधर अमरनाथ लम्बे टूर से आने के बाद आनेवाली सम्भावित सन्तान की सम्भावना को ज्यादा से ज्यादा प्रबल बनाने के प्रयासों में जुट जाते थे. हालाँकि, यह तमन्ना कब पूरी होगी, इसके बारे में कोई क्या कह सकता था.
भगवान को तो इसमें जो भी करना था, वो कर ही रहा होगा, लेकिन अमरनाथ अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे. लम्बे टूर से आने के बाद वे जेहनी और शारीरिक तौर पर भी थके हुए होते थे. घर पर उनके लिए खास आकर्षण था नहीं. पत्नी ने पहले दिन से जो सूफी भाव अपनाया हुआ था, वह दूर होने का नाम नहीं लेता था. उनके चेहरे पर वैसा ही वैराग्य बना रहता. सुख और दुख को एक समान भाव से लेना उनकी आदत में शामिल था.
हाँ, कुछ कर्तव्य जरूर थे, जिन्हें पूरा करने की चेतना उनमें पूरी थी. तो तीन-चार दिनों के टूर से आने के बाद जब अमरनाथ अपनी सन्तानोत्पादक कसरत का उपकरण उन्हें बनाते तो वे सीधे होकर चित लेट जाती थीं. सहयोग करतीं. थके हुए अमरनाथ भी कुछ खास करने के काबिल नहीं बचे रहते थे. कई बार तो ऐसी हालत होती कि वे ऊपर रहते थे, कि इसी बीच में उन्हें नींद आ जाती. जब बीवी को लगता कि काफी देर हो गई है और ऊपर से कोई हरकत नहीं है तो वे धीरे से उन्हें खिसकाकर या फिर खुद ही सरककर उसके नीचे से निकलने की कोशिश करने लगती. ऐसे में कई बार अमरनाथ की नींद टूट जाती और एक बार फिर से वे वही सबकुछ करने का प्रयास शुरू कर देते. हालाँकि, इसमें कामयाबी मिलने की सम्भावना बहुत कम थी.
इसके चलते इन कोशिशों को ज्यादा कामयाब बनाने के लिए वे कई बार वीसीआर का सहारा लेते थे. टूर से आने के बाद वे रात में कमरा बन्द कर लेते और उसमें कोई कैसेट चला देते. इन कैसेटों में तमाम विचित्र तरीके से उसी काम को अंजाम दिया जाता था, जिसे वे सिर्फ एक दो तरीके से करने के आदी थे. इस काम में लगे हुए लोगों का उत्साह देखते ही बनता था. वे पूरे मनोयोग से किसी एक टीम की तरह काम करते हुए दिखते. दो लोग. उद्देश्य एक. उनकी सारी इंद्रियाँ उसी उद्देश्य को पाने में जुटी रहतीं. उसमें रत्ती भर भी कोई कमी अपनी तरफ से छोड़ने वाला नहीं होता था. जैसे पर्वतारोही एक दूसरे का हौसला बढ़ाते हैं. जैसे ऊँचे पहाड़ों पर स्थित मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भक्त एक दूसरे को हिम्मत देते हैं. वैसे ही वे दोनों भी एक दूसरे की हौसला-अफजाई में लगे हुए होते. कभी कोई एक थोड़ा थकता हुआ दिखता, तो दूसरा भी अपने कदम धीमे कर देता. इस तरह से धीमे-धीमे कदमों को रखते हुए वह उसको भी फिर से चलने के लिए उत्साहित करता. अपने पास तक आने के लिए प्रेरित करता और जब वो फिर से जोश में आ जाता तो फिर दोबारा से पर्वतों पर चढ़ाई की उसी तरह की उत्साहित कोशिशें शुरू हो जातीं थीं.
एक पव्वा चढ़ाने के बाद अमरनाथ की आँखों से जब यह नजारे गुजरते थे तो उनका जोश भी उछाल मारने लगता था. वे भी उसी तरह के जोश से पहाड़ की चोटी पर चढ़ने की कोशिश करना चाहते थे. पर उनके पास न तो वैसा हुनर था और न ही उनका साथी इतना साथ देनेवाला. खुद उनका हौसला भी बीच में टूट जाता. कई बार वे मंजिल तक पहुँचे बिना ही थककर सो जाते थे. और टेलीविजन चलता रहता था. अँधेरे कमरे में वे सतरंगी रोशनियाँ बिखरती रहती थीं. उसमें से बहुत हल्की रहस्यमयी आवाजें आती थीं.
इन आवाजों में छिपे रहस्य को बूझकर अन्दर से पता नहीं कितनी चीजें कुलबुलाने लगती थीं. कई बार कुछ देर बाद अमरनाथ की नींद टूट जाती और वे उठकर टीवी बन्द कर देते थे. कभी उनकी बीवी अपने ऊपर से उन्हें खिसकाने के बाद इस अवस्था में रहतीं कि जाकर टीवी बन्द कर दें. लेकिन, अगर ये दोनों परिस्थितियाँ नहीं होती तो वो कैसेट खतम होने तक चलता रहता. लेकिन, अब उन्हें देखने वाला कोई नहीं होता. बस अँधेरा कमरा और उसमें बिखरती हुई सतरंगी रोशनियाँ होती.
बगल के कमरे में रानी सोई रहती थी. उसकी निगाहें टेलीवीजन के स्क्रीन तक पहुँचने वाली नहीं थी. लेकिन, दरवाजे की निचली दरारों से उसके पास भी वे सतरंगी रोशनियाँ थोड़ी-थोड़ी पहुँचती थी. कभी-कभी सिसकारी की कोई हल्की-सी आवाज भी. ऐसी हालत में उसका पूरा शरीर एक कान में तब्दील हो जाता. उसे अपने आसपास की बहुत सारी चीजें बहुत साफ-साफ सुनाई देने लगती थी. घड़ी की टिक-टिक ऐसी लगती जैसे वो दीवार पर नहीं बल्कि उसके कान पर टँगी हो. अपने डंक गड़ाने की जगह तलाशने वाली किसी मच्छर के पंखों की आवाज, ऐसा लगता था कि उसके दिमाग में ही घुसी जा रही है. उसे वे सतरंगी रोशनियाँ दिखाई देतीं. बीच-बीच में कुछ हल्की रहस्यमयी आवाजें. बाकी के रिक्त स्थानों की पूर्ति उसे अपनी कल्पनाओं से करनी पड़ती थी. वो अपनी कल्पनाओं से उन अनदेखी तस्वीरों में बहुत सारे रंग भरती थी. कुछ भर पाते थे, कुछ खाली रह जाते थे. और जहाँ से वे रंग खाली रह जाते, वहाँ से उन्हें भरने की तड़प भी बहुत बढ़ जाती थी.
नौ)
फूल से पहले फूल की खुशबू लोगों तक पहुँचती है. फूल भले ही ओझल हो लेकिन, खुशबू दूर तक जाहिर हो जाती है. ऐसे ही रानी से पहले ही रानी की बातें हर कहीं पहुँच जाती थी. इसी इलाहाबाद शहर में जब से पापा की बदली हुई थी, तब से चार मकान बदले जा चुके थे. कहीं पर साल भर रहना हुआ तो कहीं पर दो साल भी. एक जगह तो छह महीना भी निबाह नहीं हो सकी. वैसे भी किराए के मकान में बहुत ज्यादा दिन तक गुजारा हो नहीं पाता.
पिछले मकान से जब वे यहाँ पर शिफ्ट हुए तो रानी की बातों को भी वहाँ पहुँचने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. रानी का उठना-बैठना, बोलना, चालना और चहकना पूरे मोहल्ले की आँखों में गड़ने लगा. कुछ ही दिनों में पिछले मकान की उसकी कारगुजारियों के बारे में भी लोगों ने जानकारियाँ जुटानी शुरू कीं और जाहिर है कि जहाँ पर जानकारियाँ नहीं होती हैं वहाँ पर कल्पनाओं के जरिए तथ्यों की जगह भरी जाती है. इस तरह से हर कोई अपनी एक तस्वीर मुकम्मल कर लेना चाहता है. पिछले मकान में जहाँ रानी रहती थी, उस मकान मालिक के तीन-चार बेटे थे. सबसे छोटा बेटा उसी घर में सबसे नीचे बनी दुकान चलाता था. मकान मालिक का बेटा थोड़ा मुँहफट था. किसी से सीधे मुँह बात करता नहीं था, तो दुकान ज्यादातर खाली ही रहती थी. नहीं तो किराने की दुकान चलाना शायद सबसे ज्यादा आसान काम रहा होता. लोगों का कहना था कि उसी दुकानदार के साथ रानी का चक्कर था.
उसके पहलेवाले मकान में जहाँ वो रहती थी, उसके बारे में भी कुछ किस्से लगातार नुमाया हो रहे थे. गुड्डू सिंह का कभी मैं अप्रेंटिस हुआ करता था. वो पतंग उड़ाते थे तो मैं लटाई पकड़ता था. मुझे वे किशोरावस्था की बहुत आवश्यक चीजें सिखाया करते थे. मैं उनकी सरपरस्ती में था. लेकिन, जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ी, पतंगों में उनकी दिलचस्पी कम हो गई. वे साइकिल लेकर गर्ल्स कॉलेज के इर्दगिर्द मटरगश्ती करते रहते थे. हालाँकि, अभी इसमें उन्हें खास कामयाबी नहीं मिली थी. स्कूल खुलने और बन्द होने के समय पूरे अनुशासन के साथ उसी सड़क पर भटकने के बावजूद अभी तक वे अपना फोकस तय नहीं कर पाए थे. इसके चलते निगाहें भटकती ही रहतीं. जबकि, उन्हें इस बात की जानकारी मिल चुकी थी उनके अप्रेंटिंस का फोकस फिक्स हो गया है.
तो अपनी पुरानी वाली सरपरस्ती एक बार फिर उन्होंने हासिल करने की कोशिश की. एक दिन मुझे किनारे ले जाकर उन्होंने रानी के किस्सों की पोल खोलनी शुरू कर दी. मकान मालिक के बेटे के साथ उसका चक्कर है. बड़े राजदार अन्दाज में उन्होंने मुझसे कहा – अबे, पुराने मोहल्ले में कॉमिक्स की दुकानवाला था. उसने भी इसे फँसा रखा था. जब देखो तब उसी के यहाँ दिखाई पड़ती थी. दोपहर में तो जब भी लोग जाते थे, वो वहीं बैठी दिख जाती थी. मकान मालिक के बेटे के साथ तो फँसी ही हुई थी. ये तो तुम्हें भी पता है कि पूरी निम्फोमैनियाक है. जहाँ ये रहती थी, उस जगह पर हर कोई इसे जानता है.
बेशकीमती समझकर उन्होंने मुझे सलाहें भी दीं – दूर रहो, इससे. तुम हो अभी छोटे. अभी से इसके चक्कर में पड़ जाओगे तो जिन्दगी लुड़िस हो जाएगी. फिर परेशान होते फिरोगे. चूसकर फेंक देगी तुमको.
गुड्डू सिंह ने उस दिन इसी तरह की बहुत सारी बातें साझा की. आगे का रास्ता दिखाने की कोशिश की. मैंने उनकी किसी बात पर खास कान नहीं दिया लेकिन, निम्फोमैनियाक शब्द मेरे कानों में आकर अटक गया. यह सुरेन्द्र मोहन पाठक का एक उपन्यास था. जिसमें एक लड़की का कैरेक्टर था. जो कि बेहद दिलफेंक थी. मैं आपको पहले ही बता चुका हूँ न कि मैंने कितने सारे उपन्यासों में अपना दिमाग खपाया है. ‘निम्फोमैनियाक’ भी उन्हीं में से एक था. निम्फोमैनियाक का सबसे पहला मतलब उसी ने बताया था- ए वुमेन हैविंग अनकंट्रोलेवल सेक्सुअल डिजायर. उसकी सेक्स की इच्छाएँ हमेशा अतृप्त ही रहती हैं.
कुछ भी हो, रानी के लिए मुझे यह सम्बोधन अच्छा नहीं लगा. पर मैंने गुड्डू सिंह से कोई प्रतिवाद नहीं किया न ही उनके साथ कोई बात साझा की. बस चुपचाप उनकी बातें सुनीं और बोला कुछ नहीं.
दस)
मैंने कहा था न कि कानाफूसियाँ कई बार प्रकाश की गति को भी मात देती हैं. वे बेहद तेजी से एक कान से होते हुए दूसरे कान तक पहुँचती हैं. उनकी रफ्तार इतनी ज्यादा तेज होती है कि कई बार वे जब किसी के पास तक पहुँचती है, तब तक उसका मूल स्रोत खो चुका होता है. वे अपने मूल स्रोत से जितना ज्यादा दूर होती जाती हैं, उतना ही ज्यादा खिलती जाती हैं. उतना ही ज्यादा विकराल होती जाती हैं.
छत पर होनेवाली इस पतंगबाजी की तमाम कानाफूसियाँ भी चल रही थीं. सबसे पहले तो मेरे अप्रेंटिस ही जब रानी को देखते तो वे अनायास मुसकुराने लगते थे. जब कभी छत के पीछे वाले हिस्से में नीम की डालियों के बीच हम लोग चले जाते और कुछ बात कर रहे होते तो वे बड़ी जिम्मेदारी के साथ लटाई पकड़ लेते. अगर कोई बड़ा आने वाला होता तो हमें आगाह भी कर देते. खतरों के प्रति भी वे मेरे जितने ही सचेत थे. जैसे कोई एक सामूहिक कर्म है, जिसे हम सब मिलकर कर रहे हैं और उसमें हर कोई, हर किसी को बचाने की कोशिश कर रहा है. किसी को फँसने नहीं देना है.
इसके बावजूद, दीवारों की तरह ही छतों के कान भी होते हैं. आँखें भी होती हैं. जिन सूचनाओं और दृश्यों को वे ग्रहण करती हैं, उन्हें दूसरी जगह पर प्रेषित भी कर देती हैं. मुझे लगता है कि ऐसे ही कई किस्से मेरे बारे में भी प्रेषित हो गए होंगे. हालाँकि, किसी ने मुझसे कुछ कहा नहीं. इस विषय पर बात भी नहीं की पर अचानक ही घरवालों ने मुझे मेरी मौसी के पास भेज दिया. मौसी दिल्ली में रहती थीं. उनके यहाँ जाना मुझे अच्छा लगता था. पर इस बार जाना कुछ अचानक ही हुआ. पापा को मौसी के यहाँ जाना था. बोले, चलो, तुम भी साथ चलो. मैं खुश हुआ. माँ ने पूरा बैग पैक कर दिया. बैग कुछ ज्यादा बड़ा था. कई सारी किताबें और कापियाँ भी उसमें रखी गई थीं. माँ की हिदायत थी कि वहाँ रहने के दौरान भी पढ़ाई का नुकसान नहीं होना चाहिए. तैयारी बहुत सारी थी. पर मुझे कोई सन्देह नहीं हुआ. वहाँ पहुँचा. दो दिन बाद पापा ने वापसी में अपना बैग पैक कर लिया. मौसी ने बहुत प्यार से मुझे रोक लिया. बोली एक सप्ताह तुम मेरे साथ ही रुक जाओ. फिर मौसा को इलाहाबाद जाना है. हम सब लोग साथ चलेंगे. तुम्हें छोड़कर वापस चले आएंगे. मुझे इसमें भी खास परेशानी नहीं थी. मौसी का बड़ा सा फ्लैट था. उनके घर बड़ा सा टीवी था और उसमें ढेर सारे चैनल आते थे. सामने बहुत बड़ा सा पार्क था. जिसमें दिन भर लड़के क्रिकेट खेलते रहते थे.
मैं भी उस क्रिकेट की टीम में शामिल हो गया. जब भी मौका मिलता क्रिकेट खेलने पार्क में भाग जाता. पर जब दोपहर ढलने लगती और पेड़ों की परछाइयाँ लम्बी होने लगती तो मुझे उस छत की याद आने लगती. मैं कल्पना करने लगता कि अभी उस छत पर क्या हो रहा होगा. क्या रानी पीछे की बाउंडरी से टेक लगाकर आसमान में टुकुर-टुकुर ताक रही होगी.
सप्ताह बीतते-बीतते मौसा का अचानक कोई दौरा बन गया. मौसी ने बताया कि मौसा का जाना बहुत जरूरी है. कम्पनी के काम से बंगलौर जाना है. वहाँ पर पन्द्रह-बीस दिन लग सकते हैं. इसलिए जब तक वे नहीं आते हैं, मुझे मौसी के साथ ही रहना है. इस बार मेरी पढ़ाई का नुकसान नहीं हो, इसके चलते ट्यूशन भी लगा दिया गया. मैं जब शाम को क्रिकेट खेलकर आता तो ट्यूशन पढ़ता था. बीस दिनों बाद मौसा लौट आए. उन्होंने ऑफिस ज्वाइन कर लिया. लेकिन, उन्हें ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही थी. फिर जब मौसा के ऑफिस से छुट्टी की सम्भावना बनी तो फिर मौसी की तबीयत खराब हो गई.
इस तरह से करते-करते दोबारा जब मेरी इलाहाबाद वापसी हुई तब तक दो महीने बीत चुके थे. मैं कभी भी इतने लम्बे समय तक घर से बाहर नहीं रहा था. कभी गया भी तो दो-चार दिन के लिए. फिर वापस आ गया. किसी रिश्तेदार के यहाँ ज्यादा पाँव टिकते नहीं. हालाँकि, मौसी के साथ बहुत ज्यादा घुला मिला था. फिर भी इतना ज्यादा समय पहली बार बाहर गुजारना हुआ. वहाँ से लौटा तो इलाहाबाद काफी बदल चुका था.
रानी का परिवार घर खाली करके जा चुका था. उन्होंने किसी और मोहल्ले में मकान ले लिया था. मेरे अप्रेंटिसों के पास मुझे बताने के लिए बहुत सारी बातें थीं. मैं अपनी लटाई और पतंग लेकर छत पर पहुँचा. लेकिन, उस दिन हवा शान्त थी और पतंग उड़ नहीं थी. छत सूनी पड़ी थी. नीम के पेड़ में अटकी हुई मेरी पतंग फटकर चीथड़े-चीथड़े हो गई थी. उसका रंग उतर चुका था. हवा चलती थी तो वह वहीं पर अटकी हुई फर-फर करती थी. छत सूनी थी. रानी वहाँ पर नहीं थी. लेकिन, उस छत के हर कोने पर उसकी यादें मौजूद थीं. मेरे गाल पर वो चुम्मा अभी वैसे ही जड़ा हुआ था. मेरी उँगलियों की पोरों में उसके शरीर की वैसी ही मीठी महक बसी हुई थी. मेरी गर्दन पर अभी भी रानी की गर्म साँसों के निशान थे.
अब मेरा मन नहीं लगता था. पतंग उड़ाने में अब मेरी खास दिलचस्पी नहीं रही. जी उचट गया. मैंने अपनी पतंग और लटाई अपने अप्रेंटिसों को दे दी. सिर्फ पतंग उड़ाने के लिए फिर कभी छत पर नहीं गया.
खुदा की तरह ही पैरेंट्स की लाठी भी कभी-कभी बेआवाज होती है.
हाँ, ये सच है, इन कुछ दिनों में ही मैं बहुत बड़ा हो गया था.
ll दूसरा और अंतिम भाग ll
जाहिर हकीकत है कि जो भी चीज पैदा होती है वो मरती भी है. खतम भी होती है. सबकी उम्र निर्धारित है. किसी के पास वक्त कम है तो किसी के पास ज्यादा. ख्वाबों और यादों की भी अपनी उम्र होती है. वे अपनी उम्र पूरी करके समाप्त हो जाती हैं. मर जाती हैं या किसी अनजाने जहान में गायब हो जाती हैं. फिर किसी को उनकी याद भी नहीं आती है.
पता नहीं नीम के पेड़ पर फँसी वह पतंग कितने दिनों तक फड़फड़ाती रही होगी. कितने दिनों तक उसने अपने रंगों को बचाए रखा होगा. फिर पेड़ों की डालों में फँसी उसकी तीलियाँ पेड़ों की शाखों में विलीन हो गई होंगी. वो कागज भी ऐसी ही किसी शाख से बना होगा. और वे धागे भी किसी पेड़ के ही फूलों के रेशों से बनाए गए होंगे. मिट्टी का तन, मिट्टी में ही मिल जाएगा. लकड़ी की तीलियाँ, कागज और डोरियाँ सब जहाँ से पैदा हुईं, वहीं पर बिला गई होंगी.
मुझे भी ऐसे ही मर जाना था. अपने ख्वाबों और यादों को अपने साथ लिए ऐसे ही चले जाना था. मुझे अपने गाल पर जड़े उन अधूरे चुम्बनों की याद भी नहीं आनी थी. अपनी गर्दन पर गिरी उन गर्म साँसों को दोबारा महसूस भी नहीं करना था. लेकिन, हर बार ऐसा हो, यह भी पक्का नहीं है.
पतंगों की विरासत को अपने अप्रेंटिसों को सौंपे हुए कई साल हो गए. इस बीच में मैंने न जाने कितनी किताबें पढ़ीं. कितनी जगहें घूमी. कितनी छोटी-मोटी नौकरियाँ कीं. कितने लोगों से मिला. कितने लोगों से प्यार किया. कितने लोगों से प्यार मिला. शादी की. बच्चे किए. बच्चों को बड़ा किया. और इसी तरह के रूटीन में मैं बुढ़ापे और मौत की तरफ बढ़ रहा था कि उस नामुराद बीमारी ने पूरी दुनिया और मुझे जकड़ लिया.
शुरू में जब मैं दुनिया के दूसरे हिस्सों और खासतौर पर चीन में आई उस बीमारी के बारे में सुना करता था. तो इस बात का अन्दाजा नहीं था. जब खुद अपने देश में बीमारी की पाबन्दियाँ लगनी शुरू हुईं, तब भी मामला इतना गम्भीर नहीं लगा. बीमारी से ज्यादा वे पाबन्दियाँ ही परेशानी का सबब बनती रहीं.
फिर एक दिन सब कुछ बदल गया. ये मई का महीना था. मेरे चारों तरफ मौत का कोहराम मचा था. हर तरफ चीख-पुकार मची थी. कोई आक्सीजन की तलाश में भटक रहा था. किसी को प्लाज्मा चाहिए था. किसी को अस्पताल में जगह चाहिए थी. किसी को आईसीयू बेड चाहिए था. मेरे आस-पास लोग मर रहे थे. उनके मरने का रुदन और विलाप पूरी फिजाँ में बिखरा हुआ था. लोग एक-दूसरे से बात करने से परहेज करने लगे थे. अर्थियों को कांधा देने वाले भी पैसे देकर बुलाए जा रहे थे. हर कोई डरा हुआ था. लगता था कि मौत हर किसी के दरवाजे पर बैठी है. बिस्तर के सिरहाने पर इन्तजार कर रही है.
सुबह जब मैं फेसबुक खोलता तो किसी न किसी की मौत की खबर मेरा इन्तजार कर रही होती. कोई अपने किसी बहुत ही प्रिय की मौत की खबर देता. कोई अपनी बीमारी और उन भयंकर दुःस्वप्नों की जानकारी देता. जिसका वो शिकार बना रहता. फेसबुक श्रद्धांजलियों, यादों और सहायता के लिए लगाई गई पुकारों से भरा हुआ था. जिन हुक्मरानों पर लोगों ने अपनी जान और जिन्दगियों के लिए भरोसा किया था, उनकी बेजा हरकतों पर लोगों का गुस्सा और भड़ास भी जाहिर हो रहा था.
ऐसी ही एक सुबह मैं जब सोकर उठा तो मुझे लगा कि जैसे मेरा एक कंधा हड्डियों के उन ढाँचों से बाहर आ गया है, जिसमें कि वह फँसा रहता है. कंधा उतर गया है. मुझसे करवट बदलते भी नहीं बन रही है. किसी भी पोजीशन में मुझे आराम नहीं मिल रहा है. कोविड का मेरा टेस्ट पाजिटिव था. मैंने अपने आप को एक कमरे में बन्द कर लिया. आइसोलेशन शुरू हो गया. पैरों में लगता कि जैसे मांसपेशियाँ फटी जा रही हैं. उधर घर में जब कुकर की सीटी बजती थी तो लगता था कि जैसे कुकर के अन्दर किसी ने रबर की नई चप्पलें बन्द करके उबाल दी हों.
पहले यही कुकर की सीटी जब बजती थी तो पूरा घर उसमें पक रहे मसालों की खुशबू से भर जाता था. अब मुझे लगता कि जैसे मैं चप्पलों की किसी दुकान में चला गया हूँ और वहाँ पर मुझे नई-नई रबर की चप्पलों की खुशबुओं ने जकड़ लिया है. मैं किसी भी चीज पर बहुत ज्यादा देर तक फोकस नहीं कर पाता. मन बहलाव का कोई साधन नहीं था. कुछ देर फेसबुक खोलता. फिर घबराकर उसे चुपचाप बन्द कर देता था. पहले समय नहीं मिलता, तब सोचा करता कि अगर कभी बीमार हुआ तो चुपचाप बिस्तर पर पड़े रहकर नेटफ्लिक्स और प्राइम पर ढेर सारी फिल्में और सीरीज देखूँगा. लेकिन, मोबाइल एक तरफ पड़ा रहता और उसकी तरफ देखने की हिम्मत भी नहीं होती.
सोते-सोते कई बार साँस उखड़ने लगती. मैं बार-बार बीमारियों के लक्षणों को याद करता. हाँ, सब ठीक हो जाएगा. बस ऑक्सीजन का लेवल कम नहीं होना चाहिए. अगर ऑक्सीजन का लेवल कम होता है तब भर्ती कराए जाने की जरूरत पड़ेगी. मैं बार-बार अपने ऑक्सीजन का लेवल चेक करता. पेट और कमर पर जमा जिस फैट को कम करने के लिए मैं कितना ढेर सारा पैदल चलता था. फिर भी वो जिद्दी फैट कहीं जाने का नाम नहीं लेती थी. वो वहीं पर जमकर बैठी हुई थी. हर दिन दस हजार स्टेप भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे थे. लेकिन, सिर्फ दो दिन में ही वो गायब हो गई. पूरे शरीर से जैसे किसी ने सारी वसा निचोड़ ली थी और मुझे खुद अपना मुँह भी तुतुही जैसा लगने लगा था.
आप समझ सकते हैं कि जब किसी बीमारी से आपके दोस्त, आपके बुजुर्ग, आपके आसपास के लोग मर रहे हों, तब खुद भी उस बीमारी से पीड़ित रहना कैसा लगता है. बहुत सारे लोगों ने इसे भोगा है, इसलिए इस पर ज्यादा क्या कहूँ.
उन भयावह दिनों में मेरा मन न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहता. अक्सर ही वो माउंट किलीमंजारो के आसपास मुझे मिल जाता. सेरेंजेटी के मैदान दूर-दूर तक फैले हुए हैं. नई ताजी घास की तलाश में विल्डबीस्ट और जेब्रा के झुंड दूर-दूर की दौड़ लगा रहे हैं. उनकी ताक में बैठे शेर, लकड़बग्घे, मगरमच्छ जैसे शिकारी जानवर मौका मिलते ही झुंड से अपना हिस्सा वसूल लेते थे. किलीमंजारो की चोटी पर इस समय बर्फ कम थी. वो एक ज्वालामुखी पहाड़ था. उस पहाड़ का मुँह किसी उथले कटोरे जैसा होना ही था. अफ्रीका में उसे ही एकमात्र ऐसी जगह होनी थी, जहाँ पर बर्फ जमा हो सकने लायक ऊँचाई मौजूद रहती. इसी किलीमंजारो के किनारे भटकते हुए मुझे मसाईमारा का कोई योद्धा भी दिख जाता था. वो अपनी लाल रंग की चादर को खास मसाई तरीके से अपने बदन पर लपेटे हुए है. उसके शरीर उन खास रिवाजों और गोदनों से भरे हुए हैं. उसके छिदे हुए कानों में खास मसाई गहने लटक रहे हैं. वो एक ऊँचा लम्बा मसाई है. रंग उसका चमकदार काला है, बाल बेहद महीन और घुँघराले हैं. उसकी आँखें एक निश्छल चमक से भरी हैं. जब वो हँसता है तो उसके सफेद-सफेद दाँतों की उजली चमक उसके काले रंग के चलते और भी खिलकर बाहर आ जाती है. तभी मेरी नींद टूट जाती है.
मैं जाग जाता हूँ लेकिन मेरी चेतना में किलीमंजारो बना रहता है. क्या मैं कभी वहाँ पर जाऊँगा. उस चोटी पर, जो ज्वालामुखियों के फूटने से बनी हुई है. धरती के अन्दर जमा हुआ लावा पता नहीं कितने लाख सालों तक खदबदाता रहा होगा. फिर अचानक फूट पड़ा होगा. वह धरती पर किसी फोड़े की तरह उगा हुआ था. उसके मुँह से ढेर से सारी पीप और मवाद बहकर बाहर आ रही होगी. और जब अन्दर का सारा मरा हुआ खून बाहर आ गया होगा, जब वो कहीं जाकर शान्त हो गया होगा. अब ऐसे ही शान्त पड़ा है बहुत सालों से. घाव खतम हो गया. बस घाव के निशान रह गए हैं.
थोड़ी भी आँख लगती है तो मुझे खर्राटे आते हैं. इतने ज्यादा कि कई बार मैं खुद ही अपने खर्राटों की आवाज से जाग जाता हूँ. कई बार मैं सोते हुए भी जागता रहता हूँ. खर्राटे खुद मेरे होते हैं और मैं सोचता हूँ कि देखो मेरे बगल में सोया हुआ ये आदमी कितने जोर-जोर से खर्राटे भर रहा है. ऐसे में अगर इस आदमी को करवट दिला दी जाए तो उसके खर्राटे टूट जाएँगे. लेकिन, उसे करवट दिलाए कौन. मैं खुद सोचता कि उसे जगा दूँ. क्या ऐसे पलों में मैं खुद अपने शरीर से अलग होकर खुद को देखता हूँ. बाहर खड़ा होकर, मुझे दिखने लगता है कि ये देखो यह शरीर, यह वहाँ पड़े-पड़े खर्राटे भर रहा है.
इन खर्राटों के साथ-साथ अब नींद में मैं बड़बड़ाने भी लगा हूँ. दोस्तों, आप शायद मेरी इस उलझन को समझ सकें. हर वो आदमी जिसके पास छिपाने के लिए ढेर सारी चीजें होती हैं, वो नींद में बोले गए अपने शब्दों से कितना घबराता है. पता नहीं कौन से शब्द कौन सा भेद खोल देंगे. पर इन सबका आखिर किया क्या जाए. अब तो यह सब कुछ मेरा नसीब बन चुका था.
दो)
नीले आसमान में सफेद-सफेद बादलों के बड़े-छोटे टुकड़े तैर रहे थे. मैदान में घास दूर-दूर तक बिखरी हुई थी. घसियाले मैदानों के बीच-बीच में पेड़ों के कुछ छोटे झुरमुट खड़े थे. इसके बाद फिर दूर-दूर तक घास. मेरे आसपास विल्डबीस्ट और जेब्रा और इम्पाला और गैजेल चर रहे थे. घास को दाँतों से काटने की उनकी कुट-कुट की आवाज पूरे मैदान में चारों तरफ बिखरी हुई थी. वे काटते और फिर उसे चबाते. कानों पर बैठने वाली मक्खियों को वे कानों से ही फटकारते. कभी-कभी अपने पूरे थूथन को ही हवा में इधर-उधर घुमाकर मक्खियों को उड़ाते.
दूर किसी नदी में हिप्पो अपने तालाब और हरम की रक्षा करने के लिए तेज आवाज में हर किसी को वहाँ से दूर रहने की चेतावनी दे रहा था. शेरों का एक झुंड जंगली भैसों के इर्द-गिर्द घेरा काटकर एकत्रित होने लगा था. झुंड के शेरों को पता था कि कैसे भैसों के झुंड में भगदड़ मचानी है, कैसे उनमें से किसी एक को किनारे लाना और कैसे उस पर हमला करना है और कैसे उसकी जान ले लेनी है. वे बेहद सटीक तालमेल वाली किसी फुटबाल टीम की तरह काम करती हैं. जैसे हर खिलाड़ी ने अपनी पोजीशन सँभाली हुई है और इन्तजार कर रहा है कि कब फुटबाल उसकी तरफ आए और उसे अपना हुनर दिखाने का मौका मिले.
दूर क्षितिज में किलीमंजारो खड़ा है. उसकी ऊपरी चोटियों पर हल्की सफेद चाँदनी साफ दिख रही है. वह इतना ऊँचा है कि हर कहीं से दिख जाता है. हमेशा अपने साथ ही लगता है. कभी दूर नहीं जाता है. पर्वत वो सबसे ऊँचा, हम साया आसमाँ का. वो संतरी हमारा. वो पासबाँ हमारा. मैदान में एक छोटे से टीले पर खड़ा होकर एक चीता दूर-दूर तक नजरें दौड़ा रहा है. उसे तलाश है किसी शिकार की. चित्तीदार लकड़बग्घा अपनी माँद से बहुत दूर चला आया है. वो कुछ भी खा सकता है. कोई मरा हुआ जानवर. किसी का मारा हुआ शिकार. और कुछ नहीं मिले तो खुद भी शिकार कर सकता है.
अपनी थूथन से लार टपकाते उसने एक पूरी नजर मेरी तरफ डाली. सीधे मेरी आँखों में देखते हुए वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया. उसकी निगाह सवालिया थी. मेरे यहाँ पर होने की उसे उम्मीद नहीं थी. उसकी निगाहों ने पूछा – अब तुम कौन हो. इससे पहले कि मैं जवाब देता, वह आगे बढ़ गया. ढेर सारी काली-सफेद धारियों का एक झुंड मुझसे कुछ दूरी पर ही मौजूद था. यह धारियाँ खुद में इतनी घुल-मिल गई थीं कि इनमें से किसी एक पर निगाह टिकाना भी सम्भव नहीं लगता था.
मैं उनमें से किसी एक को अपनी निगाह की जद में लेने की कोशिश कर रहा था. लेकिन वो मेरी आँखों से फिसल जाती थीं. तभी किसी ने पीछे से मेरी आँखें ढाँप ली. अचानक ही पूरी तरह से अँधेरा छा गया. पूरे मैदान में खामोशी थी. अब वहाँ पर घास को काटने और चबाने की आवाजें नहीं आ रहीं थी. पक्षी अपने डालों पर चुपचाप बैठ गए थे.
मेरे कानों में एक फुसफुसाती हुई आवाज आई – बोलो कौन?
एक ही झटके में यादों की तमाम रंगतें मेरे सामने बेहद चमकीली हो गईं.
मैंने उसी तरह से जवाब दिया – ये तुम हो.
उसने फिर पूछा – तुम कौन?
अब मुझसे ज्यादा इन्तजार नहीं सहन नहीं होना था – तुम रानी हो. वही रानी जो दिलों पर राज करती है.
अपनी हथेलियों को मैंने उसके हाथों के ऊपर रख दिया. हाँ, ये तुम ही हो. तुम रानी हो. जो दिलों पर राज करती है.
मेरे कानों में बहुत धीमे-से बुदबुदाते हुए उसने कहा, जब मैं कहूँ तब आँख खोलना. अभी एकदम चुप रहना.
ऐसे ही चुप में कुछ पल बीते. फिर उसने कहा, अब आँख खोल दो. मैंने अपनी आँखें खोल दी.
यहाँ पर चारों तरफ ढेर सारा उजाला बिखरा हुआ था. मौसम में धूल थी. आसमान का रंग धूसर था. किसी बड़े शहर का यह एक कस्बा था. सामने एक बड़ी-सी हवेली थी. हवेली के आगे खूब ढेर सारी खुली जगह थी. एक तरफ बैठक थी. एक कोने में लाइन से जानवरों की हौदियाँ लगी हुई थीं. गाय और भैंसें वहाँ पर बँधी हुई थीं.
फ्राक पहनकर उछलती-कूदती एक छोटी बच्ची मेरे सामने से होकर भाग गई. कोने में काका गाय दुह रहे थे. उन्होंने अपने दोनों पैरों में बाल्टी फँसा रखी थी. गाय के दोनों पिछले पैरों में उन्होंने पगहा बाँध दिया था. गाय को दुहने से पहले उसके सामने बछड़ा लाया गया था. बछड़े ने थोड़ी देर तक दूध पिया. एक-एक कर काका ने बछड़े के मुँह में चारों थन दिए. वे अपने हाथों से एक थन हटाकर दूसरा वाला बछड़े के मुँह में डाल देते थे. वो उसी को चूसने लगता था. फिर उन्होंने रस्सी से खींचकर उसे अलग किया और गाय के मुँह के आगे ही बाँध दिया. गाय चुपचाप अपनी चीभ से उसे चाटने लगी.
बाल्टी में रखे पानी से थनों को हल्का-सा धुलने के बाद काका ने दूध दुहना शुरू किया. गाय अपने बच्चे के शरीर पर अपनी जुबान से चाट-चाट कर कंघी कर रही थी. बच्चा मासूमियत और नाराजगी से कभी मुँह फेर लेता तो कभी अपनी माँ के मुँह से मुँह सटाने लगता.
फ्राक पहनी वह छोटी बच्ची वहीं पर जाकर बैठ गई. अपने बछड़े को चाटती हुई गाय को उसने बहुत गौर से देखा. फिर जाकर काका की बाल्टी में झाँकने लगी. काका गाय के थनों से दूध की निचोड़ रहे थे. उनकी मुट्ठियों में फंसे थनों से दूध की धार निकल रही थी. यह धारें इतनी तेज थी कि उनकी आवाजें भी आ रही थीं. वह मंत्रमुग्ध सी होकर उन्हें देखती रही. काका ने एक थन से दूध निचोड़ते हुए उसकी धार उस लड़की के चेहरे की ओर कर दी. लड़की ने मुँह खोल दिया. धार सीधे उसके मुँह में गिरने लगा. कुछ बूँदें नाक और आँख में भी चली गई. उसने अपनी आँखें बन्द कर ली.
जब से वह नानी के घर आई थी. यह उसका रोज का खेल हो गया था. दूध दुहते समय वह चुपचाप आकर वहाँ बैठ जाती. मुँह खोलती और काका दूध की एक धार उसके चेहरे पर छोड़ देते. और वह अपने मुँह में कच्चे दूध का मीठा स्वाद लेकर लौट आती.
गाय-भैसों के लिए हवेली के एक कोने में खपरैल का ओसारा बना हुआ था. रात के समय यहीं पर वे बँधी रहती थीं. दिन में उन्हें बाहर किया जाता. ओसारे में शाम के समय भैंस बाँधने के साथ ही नीम की पत्तियाँ सुलगा दीं जातीं. भैंस अपनी पूँछ को किसी कोड़े की तरह फटकार-फटकार कर शरीर पर बैठी मक्खियों को भगाने में लगी रहती.
वह भैसों की पूँछ को हवा झटकते हुए बड़े गौर से देखा करती थी. एक दिन तो भैंस के खुरों से उसके पैर कुचले जाने से भी बचे. काका ने तुरन्त ही उसे बचा लिया. फिर वे उसे किनारे ले गए.
उन्होंने धीमे से उसके कान में पूछा, तुमने कभी कपड़े में जान देखी है. वो छोटी बच्ची समझ नहीं पाई. उसने इनकार में सिर हिला दिया. काका ने एक बार इधर-उधर देखा और छोटी बच्ची की छोटी हथेलियों को अपने हाथों में लिया और उसे अपने कपड़े पर एक जगह रख दिया. देखो हिल रहा है न. कपड़े में भी जान होती है. बच्चे के नन्हें हाथ उसी समय काँपने लगे. क्या हुआ. उसे कुछ समझ नहीं आया. लेकिन, कोई शरम की बात है. उसे पता था.
वो चुपचाप उठी और वहाँ से भाग आई. दृश्य बदल गया. चहारदीवारी के अन्दर ही नीम के एक पेड़ के तने से काका को बांधा गया था. एक जांघिया को छोड़कर उसके शरीर के सारे कपड़े गायब थे. वह पेड़ के तने से किसी छिपकली की तरह चिपके हुए थे और मामा उसे पीट रहे थे. वो जोर-जोर से चिल्ला रहा था. छोड़ देने की दुहाई दे रहा था. उसके चीखने-चिल्लाने पर मामा का गुस्सा और बढ़ जाता. भैंसों को बाँधने वाले पगहे को अपने हाथों में लपेटकर उन्होंने उसकी पीठ पर नीली-काली धारियों का पूरा जाल बिछा दिया.
घर के अन्दर से ही कई लोग पेड़ से बाँध कर की जाने वाली इस पिटाई को देख रहे थे. एक कोने में वह छोटी बच्ची भी खड़ी थी. उसका पूरा शरीर थर-थर काँप रहा था. उसके चेहरे पर असमंजस के ढेर सारे भाव थे. वह समझ नहीं पा रही थी. कई बार तो उसकी आँखों से भी आँसू उमड़ने को होते. फिर रुक जाते.
उसने धीरे से मेरे कान में कहा. क्या तुमने पहचान लिया. मैं अपने होंठों में ही बुदबुदाया. हाँ मैंने पहचान लिया.
मेरी साँसें रुकने लगी. नींद उचट गई. जैसे सीने पर कोई बोझ रखा हुआ हो. मैं पसीने-पसीने था. हाँ, अभी डोलो खाई थी न. अब पसीना तो आना ही था. घबराहट की उसी अवस्था में मैंने चुपचाप अपनी उँगलियों पर ऑक्सीमीटर लगाया. नहीं, अभी ऑक्सीजन लेवल इतना कम नहीं हुआ है. काम चल सकता है.
मैं चुपचाप लेटे हुए सोच रहा था, अपनी आँखें बन्द करूँ या खोले रखूँ. क्योंकि, दोनों ही अवस्था में उसे कुछ दिखना तो नहीं ही था.
तीन)
दूसरे दिन यह दर्द मेरी हड्डियों में भी घुसने लगा. रीढ़ की हड्डियों में कोई टीस-सी बनी रहती. पूरा शरीर अकड़ जाता. पैरों के जोड़ किसी जंग लगे ताले की तरह जाम हो जाते. उन्हें जरा भी हिलाने-डुलाने पर दर्द जोर पकड़ने लगता. मुझसे उम्मीद की जा रही है कि मैं जल्द ही इससे उबर जाऊँगा. ठीक हो जाऊँगा. मेरे खाने-पीने का खयाल रखा जा रहा है. मुझे भी यह चेतना है. इस वक्त को निकाल देना है बस किसी तरह से. हिम्मत नहीं हारनी है. मानसिक मजबूती अगर हो तो बहुत कुछ का सामना किया जा सकता है. ध्यान लगाने से कुछ फायदा हो सकता है. मन को शान्त रखो.
नींद है या बेहोशी. नींद है या उनींदापन. कोई स्वप्न है कि दु:स्वप्न. मेरे दिमाग में बनने वाली छवियाँ धुँधली पड़ने लगी है. जैसे किसी आईने पर तेल चपोड़ दिया जाए. आभास पूरा होता है. लेकिन, स्पष्ट कुछ नहीं. नामिब रेगिस्तान में दूर-दूर तक रेत उड़ रही थी. ऊँचे टीलों के किनारे से उड़नेवाली रेत आगे जाकर किसी और टीले का निर्माण करती थी. रेत वही थी, लेकिन टीले अपनी जगह हर कुछ साल में बदल लेते थे. दूर कहीं नामिब रेगिस्तान समुन्दर से जाकर मिलता था. समुन्दर के खारे पानी से उठने वाली नमकीन हवाओं से नामिब की रेत भी हल्की नमकीन हो उठती थी. यहीं कहीं पर हाथियों का एक झुंड पानी की तलाश में भटक रहा है. बबून बन्दरों का एक झुंड उनके पीछे है. उन्हें यकीन है कि हाथी जब अपनी एक-डेढ़ मीटर लम्बी नाक का इस्तेमाल कर पानी को सूँघ लेंगे तो बबून बन्दरों को भी इसका फायदा मिलेगा. शेर अपने प्राइड का अस्तित्व बचाने के लिए किसी शिकार की तलाश में है. किसी पेड़ से गिरने वाले फलों पर गुजारा करने के लिए कई सारे हिरण जमा हो गए हैं.
मैं भी भटकते हुए वहाँ पहुँच गया हूँ. गर्मी से मेरी पूरी देह तप रही है. शरीर का पसीना खतम हो चुका है. सिर से सिर्फ गर्मी निकल रही है. रेत उड़-उड़कर मेरे मुँह पर तमाचे जड़ देती और मैं उनसे मुँह-छिपाता बचता हुआ निकलने में लगा हुआ था. रेत के ढेर में जाकर कहीं पर वह पगडंडी गुम हो गई. मैं एक जगह ठिठक गया. आखिर रास्ता किधर है. इतने में ही मुझे पीछे से फिर किसी ने जकड़ लिया.
उसने अपनी उँगलियों से मेरी आँखें बन्द कर दीं. पहचाना. हाँ, पहचाना. मैं कौन हूँ. तुम, तुम हो. तुम कौन. ओह, बाबा, तुम रानी हो. वही रानी जो दिलों पर राज करती है. मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहती हूँ. अब क्या दिखाना है. बस अपनी आँखें बन्द करके रखना और जब मैं कहूँ तो खोल देना. अपने होठों में ही बुदबुदाते हुए मैंने कहा, ठीक है.
कुछ पलों का वक्त लगा होगा. फिर उसने मेरी आँखों से अपनी उँगलियाँ हटा लीं. अब देखो. मैंने आँखें खोली. सामने नजारा बदला हुआ था. वो पार्क देख रहे हो. हाँ. वहाँ पर एक दुकान है. हाँ, है. उसे गौर से देखो.
पार्क के एक कोने में एक दुकान थी. दुकान में बच्चों की दिलचस्पी की बहुत सारी चीजें थीं. कुछ एक आलमारी में बहुत सारे खिलौने सजे थे. जबकि, कॉमिक्स के ढेर लगे हुए थे. नई कॉमिक्स को एक डोरी में बाँधकर, उन्हें लटकाकर सजाया गया था. ताकि दूर से ही उनके चमकीले कवर दिखाई पड़ सकें. पचास पैसे किराए पर वो कॉमिक्स घर ले जाने के लिए मिलती थी. चौबीस घंटे बाद उन किताबों को वापस करना होता था. ऐसा नहीं करने पर किराया डबल हो सकता था. वो बच्ची किराए पर कॉमिक्स लेने आई है. अब वो कुछ बड़ी हो चुकी है. उसकी फ्राक भी बड़ी हो चुकी है. दुकानदार उसके गालों पर चिकोटी काटते हुए और बातों में मिठास घोलते हुए पूछ रहा है, कौन सी कॉमिक्स तुम्हें सबसे अच्छी लगती है. सुपर कमांडो ध्रुव वाली. और नागराज. वो भी अच्छी है. डोगा भी.
दुकानदार अब उसके कन्धों पर हाथ फिराने लगता है. हाँ, नई कॉमिक्स आने वाली है. लेकिन, घर ले जाने के लिए नहीं मिलेगी. तुम चाहो तो यहाँ पर बैठकर पढ़ सकती हो. यह कहकर दुकानदार ने काउंटर का पटरा उठा दिया. लड़की अन्दर चली गई. दुकान अन्दर से दो भागों में बंटी हुई थी. पार्टीशन के अन्दर बहुत सारी चीजें भरी हुई थी. वहाँ पर एक स्टूल भी रखा हुआ था. दुकानदार ने एक कॉमिक्स उसके हाथ में पकड़ा दी. अन्दर बैठकर पढ़ लो. पूरी दोपहर वो वहीं बैठकर कॉमिक्स पढ़ती रही.
अगले दिन फिर वो आई. दुकानदार ने कॉमिक्स का ढेर उसके आगे कर दिया. बोला छाँट लो. वो कॉमिक्स छाँटने लगी. इतने में उसने लड़की हाथ पकड़ लिया. उसकी पतली-पतली, छोटी-छोटी अँगुलियों को अपनी हथेलियों में जकड़ते हुए उसने पूछा, तुम कहाँ रहती हो. उसने बताया कि पीछे की तरफ एक मकान है. उसने उसके हाथों को छोड़ा नहीं. किस क्लास में पढ़ती हो. तीसरी कक्षा में. अरे फिर तो तुम्हारे बहुत सारे दोस्त होंगे. फिर उसने किसी राजदार की तरह कहा, सुपर कमांडो ध्रुव की नई किताब आई है. लेकिन, घर ले जाने के लिए नहीं मिलेगी. अन्दर आकर पढ़ लो. लड़की चुपचाप अन्दर चली आई.
अन्दर के पार्टीशन में एक कुर्सी भी मौजूद थी. राज कॉमिक्स की कई किताबें वहाँ थी. किताबों से ताजे प्रिंट की महक उठ रही थी. वो खुद कुर्सी पर बैठ गया. दुकानदार ने लड़की को एक साथ चार-पाँच कॉमिक्स पकड़ा दी. लो पढ़ लो. कहता हुआ वह खुद भी कुर्सी पर बैठ गया. लड़की कॉमिक्स हाथ में लेकर इधर-उधर ताक रही थी कि कहाँ बैठे. इतने में ही उसने कन्धे से पकड़कर उसे अपनी तरफ खींच लिया. आओ, मेरी गोद में बैठकर पढ़ लो. उसने खींचकर उसे अपनी गोद में बैठा लिया. लड़की सहम गई. वह अपने शरीर को सिकोड़ने लगी. कॉमिक्स का लालच भी था. उसने पन्ने पलटने शुरू किए. एक तरफ सुपर कमांडो ध्रुव दुनिया को बचाने की मुहिम में निकला हुआ था. वो कुछ देर इस मुहिम में उसकी साझी रही. एक तरफ नागराज की कलाइयों के कोरों से विष उगलते हुए साँप निकल रहे थे. दूसरी तरफ, उसे अपनी पीठ और कन्धे पर दुकानदार की उँगलियाँ महसूस हो रही थीं. वो कभी उसके सिर पर हाथ फेरने लगता तो कभी वो उसके गालों को छूता. उसका नाम पूछता. अपनी गोद में और अच्छी तरह से बैठने के लिए एडजस्ट करता.
कुछ ही देर में लड़की का चेहरा फीका पड़ गया. वो काँपने लगी. कुछ शर्म वहाँ मौजूद थी. वो चुपचाप वहाँ से उठ गई. उसने कॉमिक्स एक किनारे रख दी. दुकानदार ने पूछा, क्या हुआ पढ़ोगी नहीं. वो कुछ नहीं बोली. उसकी निगाहें नीचीं थी. वो चुपचाप वहाँ उठकर दुकान से बाहर आ गई.
बाहर सबकुछ सामान्य था. दिन के समय पार्क वैसा ही सूना पड़ा हुआ था. उसने इधर-उधर देखा. किसी को उसकी परवाह नहीं थी. वो चुपचाप, मरे हुए कदमों से अपने घर की ओर जा रही थी.
वो मेरे कानों में बुदबुदाई. क्या तुमने पहचान लिया.
हाँ, मैं अपने होंठों में ही बुदबुदा रहा था. हाँ, मैंने पहचान लिया. मैंने उस दुकानदार को भी पहचान लिया. उस दुकान को भी मैं जानता हूँ. मेरी बड़बड़ाहट तेज होती जा रही थी. बगल के कमरे से मेरे घरवाले दौड़ते हुए चले आए. हड़बड़ी में वे मास्क पहनना भी भूल गए थे. यह नियम था. मेरे कमरे में पहली बात तो किसी को आना नहीं था. कोई आए भी तो मास्क पहनकर आना था. फिर कमरे से निकलते ही उसे अपने आप को अच्छी तरह से सैनीटाइज करना था.
वे मेरे पलंग से थोड़ा दूर ठिठक गए. क्या हुआ. क्या हुआ तुम्हें. मेरी नींद खुल गई. मेरा पूरा शरीर पसीने से भरा हुआ था. आँखें खोलने के बाद भी मुझे कुछ समय लगा. मेरे चेहरे पर अपमान का एक स्वाद भरा हुआ था. आँखें नीची थी.
मैंने कहा, कुछ नहीं, बस लगता है कि सो गया था.
चार)
उन पाँच दिनों में मेरा मन अफ्रीका के जंगलों में भटकता रहा. किलीमंजारो की चोटी को मैंने मैदान के अलग-अलग कोण से देखा. मैं कभी उससे सौ किलोमीटर दूर मौजूद होता. तो कभी उसके एकदम पास आकर उसकी तलहटी में खड़ा हो जाता. ऊपर चढ़ने की कोशिश करता तो मेरी साँसें फूलने लगतीं. ठंड से उँगलियाँ ठिठुर जाती और शरीर काँपने लगता.
अचानक ही कहीं पर मैं हैरत से ठिठक जाता. फिर वो मेरी आँखें बन्द देती. फिर मैंने कई सारे दृश्य उसकी आँख से देखे. मेरी आँखों को बन्द कर-करके, फिर मेरी आँखों खोलकर वे सारे दृश्य उसने मेरे सामने उजागर कर दिए. वे छिपे हुए नहीं थे. बस दिख नहीं रहे थे.
यह भी उसी ने मुझे दिखाया था. इलाहाबाद के किसी मोहल्ले में यह एक किराए का मकान था. पापा घर पर नहीं थे. उनके दोस्त मिलने आए थे. सोफे पर बैठे थे. अपने हाथों में उन्होंने चॉकलेट पकड़ी हुई थी. चॉकलेट आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा – मेरी गुड़िया चॉकलेट खाएगी.
वो छोटी बच्ची पहले तो उसे आशंकित नजरों से देख रही थी. फिर उसने चॉकलेट लेने के लिए हाथ आगे किया. इस पर उन्होंने चॉकलेट वाला हाथ पीछे कर लिया. छोटी बच्ची सहमकर पीछे हट गई. फिर उन्होंने आवाज को बहुत दोस्ताना बनाते हुए कहा – मेरी गुड़िया, चॉकलेट खाएगी. छोटी बच्ची उसे लालच से देखती रही. लेकिन, उसने खुद को चॉकलेट से दूर रखना ही बेहतर समझा.
लेकिन, अंकल ने फिर से उसके आगे चॉकलेट बढ़ा दी. इस बार फिर उसने चॉकलेट पकड़ ली. अंकल ने आगे से उसका हाथ पकड़ लिया. फिर खुश होते हुए उठा लिया. उन्होंने उसके हाथ में चॉकलेट पकड़ा दी. फिर उसे अपनी गोद में बैठा लिया.
मेरी गुड़िया को चॉकलेट कैसी लगी. लाओ मैं इसका कागज फाड़ देता हूँ. उन्होंने उसे गोद में बैठाए हुए ही कागज निकाला और चॉकलेट उस छोटी बच्ची को पकड़ा दी. अपनी गोद में बैठाकर वो उसे प्यार करते रहे. इसी में कभी अंकल की दाढ़ी भी उस छोटी बच्ची के कन्धों पर गड़ने लगी. वो गोद में कसमसाती हुई जब उतरने की कोशिश करती तो अंकल की पकड़ थोड़ी सख्त हो जाती. फिर माँ चाय बनाकर ले आई. अंकल की गोद में कसमसाती हुई बच्ची उनकी गोद से कूदकर, छिटककर दूर जा खड़ी होती है. उस समय भी उसके चेहरे पर आशंका, अपमान और शर्म के कुछ भाव आ-जा रहे थे. माँ पहले की ही तरह अपने आप में गुम रहने वाली थी. वो चाय देकर वहीं सामने बैठ गई.
इस दुनिया में वो किसी मेहमान की तरह थी. उसे कुछ भी परवाह नहीं थी. बस कुछ दिन बिताकर चले जाना है. वो तो अपने कपड़ों तक की सँभाल नहीं कर पाती थी. कभी आँचल ढलक जाता था. कभी ब्लाउज के हुक भी पूरे नहीं लगे हुए होते थे. या फिर ऊपर-नीचे लगे होते. ऐसे में किसी की निगाहें कहाँ से फिसलते हुए, कहाँ पर जाकर, क्या ढूँढ़ते हुए टहलती रहती थीं, इसकी भनक भी शायद उन्हें नहीं लगती थी. लेकिन, वो छोटी बच्ची इसे भाँपने लगी थी. वो इसे समझ गई थी.
पांच)
कोविड मेरी जान लेने पर तुला था. उसने मेरी भूख छीन ली. मेरा स्वाद छीन लिया. मेरी गन्ध छीन ली. अक्सर ही मंडी हाउस पर मेट्रो बदलते हुए एक कोने में फूड स्टाल पर बटर में पकते हुए भुट्टे के दानों की खुशबू बिखरी रहती थी. मुझे बटर पसंद नहीं है. लेकिन, मैं देर तक उस गन्ध में डूबा रहता था. मेरे ऑफिस की इमारत के बगल में जब सलीम उस छिछले फ्राइंग पैन में मक्खन की टिक्की डाल देता और अपने गिलास में तैयार- प्याज, मिर्च, अदरक और खूब मिलाकर फेंटे गए अंडे और मसाले को उस फ्राइंग पैन में डाल देता तो उसके आसपास ऑमलेट पकने की भीनी-भीनी खुशबू छा जाती थी. मैं कई बार खाता उबले अंडे था. लेकिन, उसकी दुकान पर बैठे-बैठे उस ढेर सारी खुशबू को चुरा लेता था और उसे पता भी नहीं चलता था. इसके पैसे भी मुझे चुकाने नहीं पड़ते थे.
ठेले पर जब कोई मूँगफली भूनता, तो उस भुनी मूँगफली की खुशबू भी मुझे अपनी ओर खींच लेती थी. लेकिन, कोविड मुझसे वो सारी गन्ध छीन ले गया. हर चीज से मुझे बस रबड़ की नई चप्पलों जैसी गन्ध आती. खासतौर पर जब कुकर की सीटी बजती या कुकर को खोला जाता तो हर बार ऐसा ही लगता कि जैसे इन रबर की चप्पलों को किसी ने कुकर में डालकर उबाल लिया है. उसकी गन्ध से पूरा घर भर जाता. लगता कि जैसे अन्दर ही अन्दर मेरी मौत हो जाएगी.
मैं चुपचाप पलंग पर लेटे इन दिनों को काटने में लगा हुआ था. कुछ देर के लिए फेसबुक खोलता तो वहाँ मची चीख-पुकार को सुनकर, घबराकर वापस लौट आता. क्या मैं भी लोगों को अपना दुख बताऊँ. लोगों को बताऊँ कि मैं भी इसी परेशानी से जूझ रहा हूँ. मुझे भी कोविड ने जकड़ रखा है. क्या होगा उससे. दुख और पीड़ा के इस समुन्दर में अपना भी एक गिलास उड़ेलने में आखिर रखा क्या है.
चुपचाप अपने बिस्तर में पड़े हुए मैं एक बार फिर से अफ्रीका के सवाना में अपना मन लगाने लगा. मेरे लिए यहाँ पर बहुत कुछ था. दूर कहीं पर बबूल के एक पेड़ को हाथी अपने पैरों और सिर की ताकत से गिराने में लगा हुआ था. चित्तीदार लकड़बग्घों ने एक भैंस को चारों तरफ से घेर लिया था. वे बहुत बेरहम कातिल थे. शेरनियाँ अपने शिकार की गर्दन पकड़कर उसका दम घोंट देती है. शिकार का दम टूटने लगता है और वह जमीन पर गिर जाता है. लेकिन, वे उसकी गर्दन को नहीं छोड़ती हैं और कुछ ही देर में शिकार की मौत हो जाती है. जब शिकार मर जाता है तब वे उसे खाना शुरू करती हैं. कहीं दूर से शिकार होता हुआ देखकर झुंड का मुखिया शेर अपने अयालों को लहराता हुआ चला आता है. शिष्टाचारवश शेरनियाँ दूर हो जाती हैं. सबसे पहले मुखिया शेर को खाना खाना है.
पर चित्तीदार लकड़बग्घे शिकार को ज़िन्दा ही खाना शुरू कर देते हैं. झुंड के बीच फँसी भैंस एक तरफ से उन्हें भगाने की कोशिश करती कि पीछे से कोई उसे काट जाता. वो थक चुकी थी. सहायता के लिए वो अपने झुंड को आवाज दे रही थी. लेकिन, झुंड उसके करीब नहीं था. पता नहीं उनके पास तक उसकी आवाज पहुँच भी रही थी या नहीं.
यह दृश्य बहुत ही जुगुप्सा पैदा करने वाला था. लकड़बग्घे पूरी तरह से भैंस पर हावी हो गए थे. उसमें से किसी एक ने उसके पेट के पास लगातार हमले करके उसे फाड़ दिया था. वो जमीन पर गिर पड़ी थी. चारों तरफ से घेरकर उन लोगों ने उसे खाना शुरू कर दिया. वो बीच-बीच में हाथ पैर फेंकने लगती. चिल्लाती भी. पर कौन उसकी पुकार सुनता.
मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं. फिर किसी ने उस पर अपनी उँगलियाँ रख दीं. मैंने तुरन्त पहचान लिया. इससे पहले कि वो पूछे, मैंने बोलना शुरू कर दिया. तुम रानी हो. तुम वही रानी हो जो दिलों पर राज करती हो. बोलो ठीक है या नहीं.
हाँ, तुमने एकदम ठीक पहचाना. उसने अपनी उँगलियों को मेरी आँखों पर और भी तेजी से कस दिया. अभी आँखें मत खोलना. मुझे कुछ दिखाना है.
मेरी आँखें बन्द करके उसने मुझे घुमा दिया. फिर उसने कहा कि अब आँखें खोलो. मैंने अपनी आँखें खोल दीं. अरे, इस जगह को तो मैं पहचानता हूँ. मुझे इसका एक-एक कोना याद है. मोहल्ले से गुजरते हुए यह सड़क गंगा जी तक जाती है. गंगा की तरफ जाने के चलते एक ढलान बनी हुई है. वहीं पर एक मकान दिखा मुझे. इस मकान में कई सारे किराएदार रहते हैं. मकान मालिक के एक बेटे ने एक किराने की एक दुकान खोली हुई थी.
मकान को किराएदारों के रहने के हिसाब से ही बनाया हुआ था. यहीं पर दो कमरों के एक सेट में वो रहती थी. अपने माँ-बाप के साथ. उसकी तीन छोटी बहनें नानी के यहाँ पल रही थीं. पिता एक भाई के लिए अथक प्रयास कर रहे थे. अपने अथक प्रयासों में कई बार इतने ज्यादा मशगूल और एकाग्र हो जाते कि वीडियो प्लेयर में से कैसेट निकालना भी भूल जाते. ऐसे में उन वीडियो में मौजूद रहस्यों की हल्की और महीन झलक उसे मिल चुकी थी. लेकिन, इसका पूरा खुलासा होना अभी बाकी थी.
मकान मालिक के दुकानदार बेटे ने एक दिन उसे वीडियो गेम खेलने के लिए बुलाया. उसके कमरे पर कोई नहीं था. रानी के पिता जी का भी टूर लगा हुआ था. माँ अन्दर सोई हुई थी. वो धीरे से अपने कमरे से निकल गई. गलियारा पार करते ही वह उसके कमरे में पहुँच गई. उसने टीवी की आवाज म्यूट कर दी. दोनों वीडियो गेम खेलने लगे. कोई भाग रहा था, कोई दौड़ा रहा था. जीतने पर कुछ ईनाम मिलने थे. हारने पर मौत मिलनी थी. इसलिए कोई हारना नहीं चाहता था.
इतने में ही मकान मालिक के दुकानदार बेटे ने धीरे से वीडियो प्लेयर में एक दूसरा कैसेट लगा दिया. इस वीडियो में लोग बिना कपड़ों के मौजूद थे. वे कुछ ऐसी क्रियाओं में लगे हुए थे, जिनके बारे में उसे आभास तो था, लेकिन टुकड़े-टुकड़े में. उसके पूरे शरीर पर थरथरी दौड़ने लगी. वह चुपचाप उठी और बाहर जाने लगी. मकान मालिक के बेटे ने उसका हाथ पकड़कर उसे बैठा लिया. उसके चेहरे पर परेशानी और शर्मिंदगी के भाव देखकर उसने तुरन्त ही वीडियो बन्द कर दी. उससे माफी माँगने लगा. बोला, अब ऐसा नहीं होगा. तुम तो मेरी अब दोस्त बन गई हो.
वह चुपचाप वहाँ से चली आई. लेकिन, इस सिलसिले को रुकना नहीं था. कुछ दिनों बाद दोबारा उसने वीडियो गेम खेलने के लिए बुलाया. कहा कि अब वैसा नहीं होगा. वह चली गई. लेकिन, इस बार उससे ज्यादा हुआ. उसने चुपचाप वीडियो चला दी और उसके पास आकर बैठ गया. उसने उसके हाथों को अपने हाथों में पकड़ लिया. उन हथेलियों को सहलाने लगा. फिर उसने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया. रानी ने अपने पूरे शरीर को कड़ा कर लिया. वो झुककर दोहरी होने लगी. अपने मुँह को आगे बढ़ाकर उसने उसके गालों को चूम लिया. फिर गर्दन के पास अपना मुँह गड़ाने लगा. उसके हाथ शरीर पर इधर-उधर भटकने लगे. जब वे छातियों तक पहुँचे तो रानी काँप उठी. उसका पूरा शरीर कसमसाने लगा. उसने पूरा जोर लगाया. वहाँ से उठने की कोशिश की. लेकिन, उसने उसे छोड़ा नहीं. उसने कुछ बोलना चाहा. लेकिन, मकान मालिक के दुकानदार बेटे ने अपने हाथों से उसका मुँह बन्द कर दिया.
पूरी जोर-जबरदस्ती से वो उसके ऊपर चढ़ गया. रानी लकड़बग्घों के बीच में फँसे हुए किसी शिकार की तरह सहमी हुई थी. उसे अपनी पुकार किसी के सुने जाने की उम्मीद नहीं थी. फिर भी वो किसी को मदद के लिए पुकारना चाहती थी. लेकिन, कौन. वहाँ पर कोई नहीं था. खैर, कुछ देर में उसने उसे छोड़ दिया. तूफान गुजर गया था. वो माफी भी माँगने लगा. बोला, अब ऐसा नहीं होगा. लेकिन, इस सिलसिले को बन्द कहाँ होना था. वो अगर उससे कुछ दिन बात करना बन्द कर देती तो वो कहता कि फिर वो सब लोगों को बता देगा. हर कोई जान जाएगा. रानी चुप रह जाती.
वो अक्सर उसके कमरे में भी चला आता. मकान मालिक का बेटा था. घर तो उसी का था. चेष्ठा भले ही उसकी अनधिकार थी. लेकिन, वह पूरे हक के साथ बैठा रहता.
सिलसिला, तब थमा, अमरनाथ को इसका आभास हुआ. जब उन्होंने घर बदल लिया.
छह)
ये पता नहीं कौन सी जगह थी. इसकी दीवारें और छतें भी किसी अजनबी की तरह मुझे घूर रही थीं. इसके एक बिस्तर पर मैं चित लेटा हुआ था. बिस्तर के सिरहाने एक तरफ ऑक्सीजन का सिलेंडर लगा हुआ था. इसका मास्क मेरे मुँह पर था. पतली छोटी नलियों से ऑक्सीजन आ रही थी और मेरे फेफड़े उस ऑक्सीजन को छानकर उसके छोटे-छोटे कणों को पूरे शरीर में पहुँचा रहे थे.
अजीब-सा अहसास हो रहा था. एक तरफ माथे पर पसीने की बूँदें थीं. सिर पसीने से तर था. बाल पसीने से भीगे हुए थे. लेकिन, पीठ पूरी तरह से ठंडी थी. ऐसा लगता था कि पीठ ठंड से अकड़ गई है. वहाँ तक कोई गरमाहट नहीं पहुँच रही है. अँगुलियों के पोर भी एकदम ठंडे लगते और काले पड़ते जा रहे थे. नाखून जो हमेशा अपनी रक्तिम आभा देते थे, इस समय काले बैंगनी हो रहे थे.
रात का कोई वक्त रहा होगा. शायद एक या दो बजे होंगे. या फिर तीन. अचानक से मेरी नींद टूट गई. ऐसा लगा कि कोई मेरे बालों में हाथ फेर रहा है. मैंने चुपचाप आँखें खोली. मेरे सिरहाने पर वो बैठी थी. मेरे बालों पर अपनी उँगलियों से कंघी करते हुए. पहले कभी वो मेरे बालों को बिखेर देती थी.
उसने कहा – पहले तुम्हारे बाल भूरे थे न.
मैंने कुछ चिढ़ते हुए कहा – हाँ, कभी हुआ करते थे.
वो बोली – तुम अब बालों को कलर क्यों नहीं करते. ऐसे ही छोड़ दिया है. इतनी कम उम्र में बुड्ढे लगने लगे हो.
यह सवाल मुझसे पहले भी कई लोग पूछ चुके थे. मेरे होठों के कोनों पर एक व्यंग्य भरी क्षीण सी मुस्कान आई – अब क्या करना है बाल काले करके. जिस उम्र में जो बालों का रंग होता है, उन्हें वैसा ही होना चाहिए.
वो कुछ नहीं बोली. बस बालों पर हाथ फिराती रही. मेरे बाल भीगे और चिपचिपे थे. वो बोली – तुम्हारे बाल पहले भी कितने मुलायम थे.
मुझे अब कुछ चिढ़ सी हो रही थी – आखिर तुम मुझसे चाहती क्या हो. क्यों आ जाती हो, तुम हमेशा.
उसके चेहरे पर नाराजगी नहीं थी – तुम वो पहले थे, जिसे मैंने छुआ था. तुम वो पहले थे, जिसे मैंने चाहा था कि वो मुझे छुए. बाकी, उससे पहले ही कई लोग मुझे छू चुके थे. वे हरदम मुझे नोंचने की फिराक में लगे रहते थे.
मेरी आवाज में भी थोड़ी नमी बैठ गई – क्या तुम मुझसे प्यार करती थी.
वो बोली – उस समय जो मेरी उम्र थी, उसमें तुम कह सकते हो कि हाँ. मैं तुम्हें पाना चाहती थी. पर पता नहीं प्यार क्या होता है. वो अभी तक तो कहीं मिला नहीं. इसलिए ठीक से कह नहीं सकती. अगर कभी मिला तो जरूर बताऊँगी.
मैं चुप हो गया. हमारे बीच कुछ वक्त यूँ ही बीत गया. वो चुपचाप मेरे सूखे हुए मुँह को देख रही थी. मेरे होठों पर पपड़ियाँ पड़ी हुई थी. जिन्हें मैं अपनी जुबान फिरा-फिराकर मुलायम करने की कोशिश करता. जब वे मुलायम हो जातीं तो मैं उन्हें अपने दाँतों के बीच फँसाकर अन्दाज लेता कि वे अभी त्वचा से पूरी तरह अलग हुई हैं या जुड़ी हुई हैं. अगर वे अलग हो चुकी होतीं तो मैं उन्हें अपने दाँतों से खींचकर अलग कर देता. लेकिन, कई बार मेरे अन्दाजे गलत हो जाते. वो पपड़ी त्वचा से जुड़ी होती. जब मैं उसे खींचता तो अन्दर से खून निकल आता. होंठ फट जाते. उनमें दरारें पड़ जातीं.
उसने मेरे चेहरे पर हाथ फेरा. फिर मेरा माथा सहलाया. बोली – डरो नहीं, तुम मरोगे नहीं. तुम जिन्दा रहोगे. अभी तुम्हें बहुत कुछ कहना है. तुम्हारे शब्दों से लोग अभी बहुत कुछ जानेंगे. तुम यहाँ से सही-सलामत जाओगे.
मैंने अपनी बुझी हुई आँखों और क्षीण मुस्कान से उसे देखा. वह सीधे मेरी आँखों में देखने लगी. क्या तुम भी मुझे प्यार करते थे.
मैं चुप रहा. इतने साल हो गए. मैंने इस सवाल पर कभी सोचा नहीं. अब यह अचानक ही मेरे सामने इस तरह से आ खड़ा हुआ. बोला – तुम अच्छी थी पर मैं बहुत छोटा था. उम्र में तो शायद तुमसे कुछ बड़ा होऊँ. लेकिन, तुमने जीवन को बहुत करीब से देखा-भाला था. मैं हमेशा ही तुमको अपने से ऊँचा समझता रहा. तुम रानी थी. मैं वहाँ तक पहुँच नहीं सकता था. शायद तुम मुझे फुसलाना चाहती थी. लेकिन, तुम हमेशा मेरे साथ रही.
मैंने अपने गालों पर ठीक उस जगह हाथ रखा. जहाँ पर वह अधूरा चुम्बन जड़ा हुआ रखा था. तुम हमेशा मेरे साथ रही. ठीक यहीं पर. ये कभी गायब नहीं हुआ. मेरे साथ बना रहा. तुम अब कहाँ रहती हो.
वो बोली – फिक्र मत करो. मैं तुमसे मिलूँगी. शायद, कभी ऐसा होगा. तुम मेरे सामने होगे. और हाँ, इस बार मुझसे ज्यादा तवज्जोह अपनी पतंग को मत देना. नहीं तो मेरे पास एक जादू है. जादू डालकर मैं उसे फिर से नीम के पेड़ में फँसा दूँगी. जब मिलूँगी, तुम मुझे पहचान जरूर लेना.
फिर वो चली गई.
दो-तीन दिन बाद मैं सही-सलामत घर वापस आ गया. कमजोर था. मुझसे चला नहीं जाता था. दो कदम में ही हाँफने लगता था. अपने हाथ ही लकड़ियों जैसे लगते थे. एक-एक सीढ़ी पर हाँफता और रुकता था. पर मैं जिन्दा था. मेरे आसपास के बहुत सारे लोग मर चुके थे. कई बार उनकी अर्थियों को कांधा देने वाला भी कोई नहीं था. वे अन्तिम संस्कार के लिए अपने परिजनों का इन्तजार करते रहे थे.
लेकिन, मैं बच आया था. मेरी उँगलियाँ काँपती थीं पर पेन पकड़ने भर की ताकत अब इनमें आ चुकी थीं. उससे पहले मैंने बहुत कुछ लिखा. उसके बाद भी मैंने बहुत कुछ लिखा. किताबों पर कुछ भी लिखने के मैं बहुत खिलाफ रहा.
पर इस बार मैंने ये कसम तोड़ी. मेरे पास कॉलिन्स की मोटी-सी डिक्शनरी है. एन एल्फाबेट के अन्तिम पेज पर मुझे निम्फोमैनियाक शब्द मिल गया- एन एब्नार्मली इंटेंस एंड परसिस्टेंट डिजायर इन ए वोमेन फॉर सेक्सुअल इंटरकोर्स.
ये अक्षर बहुत छोटे थे. मेरे हाथ काँपते थे. मैंने उन्हीं काँपते हुए अक्षरों से उसी अन्तिम पेज की बची हुई जगह पर लिखा- निम्फोमैनियाक: ए सोसाइटी व्हेयर मेल हैविंग अनकंट्रोलेवल एंड एक्सेसिव सेक्सुअल डिजायर.
समाप्त
कबीर संजय पेशे से पत्रकार कबीर संजय का आधार प्रकाशन से एक कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ तथा वाणी प्रकाशन से ‘चीता: भारतीय जंगलों का गुम शहजादा’ प्रकाशित है तथा एक कहानी संग्रह तथा औरांगउटान पर केंद्रित एक किताब प्रकाशनाधीन है. वे जंगलकथा नाम से फेसबुक पर एक पेज चलाते हैं जो काफी लोकप्रिय है. रवीन्द्र कालिया स्मृति सम्मान से पुरस्कृत हैं. ई-मेल : sanjaykabeer@gmail.com |
वर्षों पूर्व मेरे पास निम्फोमेनिया सिंड्रोम पर एक मोटी पुस्तक थी जो इतिहास की उन स्त्रियों के जीवन को खोलता था जो असीम यौन-इच्छा से भरी थीं। पुस्तक क्लियोपैट्रा से लेकर नेपोलियन की छोटी बहन पॉलीन बोनापार्ट, रूसी साम्राज्ञी कैथरीन महान और मैरी एंटोनेट तक, अनेक प्रसिद्ध स्त्रियों को अपने विषय-वस्तु में समेटती थी। कबीर संजय की कहानी अपने विषय में एक नया आयाम उद्घाटित करती होगी। इसे पढ़नी है। ‘समालोचन’ निरंतर महत्त्वपूर्ण रचनाओं से साहित्य और सुधि वर्ग को समृद्ध कर रहा है।
इस कहानी ने साल 2023 के लिए एक बड़ी चुनौती और मानदंड स्थापित कर दिया है| कहानी को धैर्य, समय, समझ और शिल्प के उत्कृष्ट अवयवों के साथ गढ़ा गया है| पाठक के सभी पूर्वग्रह को तोड़ते कहानी नए आयाम और विमर्श को सामने रखती है| कहानीकार और संपादक दोनों को बहुत बधाई|
मर्मस्पर्शी कहानी। आरम्भ में तो लगा कि मसाला कहानी होगी लेकिन जैसे जैसे पढ़ी उस संवेदना ,उस दर्द को समझ सका।
By the way पुरूषों में इस स्थिति को satyriasis कहते हैं अगर मुझे ठीक से याद है तो।
लेखक और आपको बधाई
अच्छी कहानी है । कोविड के स्वप्न दृश्यों का अंतर- गुम्फन रोमांचक बन पड़ा है । पहले प्यार की रंगत पूरे गुलाबीपन के साथ मौजूद है । लेखक ने वाइल्ड लाइफ के दृश्यों का सजीव प्रयोग किया है । हार्दिक बधाई संजय जी को .. समालोचन का आभार
निम्फोमैनियाक :एक बयान, कबीर संजय की यह कहानी अच्छी लगी। लम्बी कहानी की संरचना कसी हुई है। भाषा का अपना कमाल तो है ही।
कथानक को लेकर न सिर्फ़ वर्जित विषय वाला अनुमान गलत निकला बल्कि शीर्षक वाली निस्पृह सच्चाई की सर्वस्वीकार्यता का रास्ता प्रशस्त लगने लगा.
कहानी का कहन पाठक को अंदर तक भिगो देता है. इसलिए कि पात्रों की भावनाएं ( रानी ठाकुर ) और मनःस्थिति ( कबीर ) बातचीत/ संवादों के ज़रिए जब-तब छलक छलक पड़ रही है.
बड़े कलेवर के बावजूद गाथा बांधती है, क्योंकि कहानी में आसक्ति से पहले की विरल अनुरक्ति का निष्कलुष वर्णन है और जीवन में हासिल के बाद भी किसी प्यास का ईमानदार विवरण.
‘ निंफोमेनियाक ‘ लफ्ज़ की अभिधा को आखिर में कायदे से पुनर्परिभाषित किया गया है. अच्छी कहानी बुनने के लिए को कबीर संजय को बधाई और “समालोचन” को साधुवाद.
वाह ! एक ही बैठक में पढ़ गया ! कमाल ! चलताऊ कहानी नहीं है ! यह प्यार को आमरण महसूस करने वाली कहानी है।
जी पढ़ी। निष्कर्ष से तो सहमत हूं। पहले दुनिया की आंखों से कहानी का ढांचा खड़ा करती है फिर अपनी निगाहों से उस बनाए ढांचे को क्रमिक ढंग से तोड़ कर। झूठी कहानी के नीचे से सच्ची कहानी निकल आती है।
कृष्णा सोबती के उपन्यास ’सूरजमुखी अंधेरे के’ को पढ़ कर मेरा भी कुछ इसी तरह का निष्कर्ष निकला था।
यह असल में एक coming-of-age tale है। इसके शीर्षक से मैं सहमत नहीं। कैशोर दिनों की उत्कट कामवासना और मृत्युप्रियता इसका विषय है। इस कहानी में जो melancholy है वह इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। चौदह पंद्रह की उमर में गर्मियों की दोपहरों को किए गए हस्तमैथुन के बाद आई ग्लानि और अकेलेपन जैसा इसका प्रभाव है।
मगर कई दूसरे स्तरों पर यह कहानी हिन्दी कहानियों के एक ख़ास स्ट्रक्चर में फँसकर रह जाती है, इसका शिल्प नब्बे के दशक की कई कहानियों की तरह लैटिन अमरीका से आतंकित या कहे स्तंभित है जिसमें कथा से मूल भावना को जीवन के अन्य सभी तत्त्वों से अलगाकर (isolate) प्रस्तुत किया जाता है।
इसके साथ ही यह कहानी किसी औरत के निम्फ़ोमैनियक होने का अकारण कारण (justification) प्रस्तुत करती है। यह रानी ठाकुर की agency में बिलकुल विश्वास नहीं करती कि वह अपनी इच्छा से भी निम्फ़ोमैनिक बन सकती है। यह कहानी रानी को केवल परिस्थितियों की मारी/गढ़ी के तौर पर जानती है और यह विशेष रूप से भारत में पायी जानेवाली पितृसत्ता से आता है।
कुलमिलाकर तब भी यह कहानी बहुत अच्छी है।
समृति में रह जाने वाली कहानी है । पढ़ने के बाद देर तक हम सोचते रह जाएंगे इस कहानी को क्योंकि तब याद है कि जाने कितने ऐसे चरित्रों को हमने अपने आस-पास देखा था लेकिन संवेदना की ये दृष्टि तब हमारी कहाँ थी । बाल यौन अपराध और सामाजिक ताने-बाने में बुनी ये एक बहुत बड़ी कहानी है । प्रकृति और मनुष्य प्रकृति को देखने की दृष्टि आपकी अद्भुत है जैसे सारे दृश्य आँखों में आ जाते हैं । बहुत बधाई और शुभकामनाएं आपको इस महत्वपूर्ण कहानी को लिखने के लिए।
यह कहानी बहुत कुछ मंटो की परंपरा में समाज की चोली उतारती है, ताकि हम अपने आपको अपने असली रूप में देख सके। लेखक का इससे बड़ा योगदान और क्या हो सकता है। विशेषकर भारत जैसे पाखंड में आकंठ डूबे समाज मे।
कहानी का शीर्षक कुछ अजीब सा लगा। पहले इसका अर्थ देखा।कामोन्मत्त स्त्री।
शीर्षक पर फिर से विचार किया।
शीर्षक में एक बयान भी शामिल है।
एक बयान के साथ निम्फोमैनियाक शीर्षक
कुछ अलग बात कहने का संकेत करता है।
कबीर संजय की 47 पन्नों की इस लंबी कहानी पढ़ते हुए आप एक बार भी रूकना नहीं चाहेंगे।
कहानी के पूर्वार्द्ध को रचनाकार ने जिस तरह से बुना है,वह अद्भुत है। रचनात्मकता देखते बनती है।
कहानी रानी ठाकुर की है जिसे कथावाचक के नजरिए से प्रथम व्यक्ति के रूप में कथावाचक के नजरिए से कही गई है।
कहानी कन्या उत्पीड़न की है। लेकिन यह भेद बाद में जाकर खुलता है।
यद्यपि कथा के उत्तरार्द्ध में कुछ ढिलाई आ गई है।
हेमिंग्वे की कहानी किलीमंजारो का बर्फ की कुछ बातों को लेकर कहानीकार ने अपनी बात बड़ी खूबसूरत ढंग से कहने की कोशिश की है। माने हेमिंग्वे की कहानी का रचनात्मक उपयोग चकित करता है।
अंत में यह कहानी हमें सोचने पर मजबूर करती है कि निम्फोमैनियाक का यहां अर्थ होना चाहिए कि जहां पुरूषवादी समाज में लोग छुपे हुए कामोन्मादी होते हैं।
कहानी पढ़ते हुए लगता है कि दो छोर के बीच तनी हुई रस्सी पर बिना डगमगाए चलना कहानी लिखना है।
समालोचन आनलाइन पत्रिका में यह कहानी प्रकाशित है। इस हेतु संपादक को भी विशेष साधुवाद एक अच्छी कहानी पाठकों तक लाने के लिए।
कहानी में वर्णित तथ्य इस समाज के बदबूदार यथार्थ हैं। जिन अपराधों की प्राथिमिकी दर्ज नहीं होती,उन्हें कवि-कथाकार अमिट स्याही से लिखता है। देखना यह नहीं है कि पढ़ता कौन है,बल्कि यह है कि दागदार चेहरे तो बेनकाब हो ही जाते हैं। कथाकार ने कहानी को संभालने की बहुत कोशिश की है। जाहिर है काफी मेहनत भी की है परंतु अनावश्यक विस्तार के कारण दूसरे भाग तक आते-आते कहानी लड़खड़ा गई है फिर भी लेखक ने अंत में खूबसूरती से इसे संभाल लिया है। मैं कोई आलोचक नहीं लेकिन एक सवाल जरूर करना चाहूँगा कि कथाकार /लेखक को अंतिम निष्कर्ष देने से क्या बचना नहीं चाहिए।समालोचन इस पर चर्चा के लिए उपयुक्त मंच है।
कथाकार को बधाई और मंगलकामनाएं भी ।
kabeer Sanjay ki Nymphomanic..ek bayaan:bahut intense kahani buni gai hai.bhasha ki saadgi lubhati hai.vishay challenging hai jise achha treatment mila hai. kahani me nirmit vatavaran dilkash hai.Creative self-indulgence. Last me jahan title ko reinterpret kiya gaya hai vahan kuchh bhashik truti lagti hai….’where’ki jagah “with’ aur male ki jagah males zyada appropriate hota.
lekhak ko mubarken
समाज की और वह भी पुरुषवर्ग की इस गंभीर और विकराल बीमारी की शल्य चिकित्सा लेखक ने जिस सादगी के साथ की है, वह इस कहानी की ताकत है। कहानी को बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था, मगर पुरुष की प्रवृत्ति के बारे में कौन बताता। लेखक ने बताने में बहुत देर कर दी। उसे शिकार करने की आदिम प्रवृत्तियों के बताने के लिए वाइल्ड एनीमल का सहारा लेना पड़ा। उसे बिल्डर बीस्ट, बफेलो, जेब्रा, इम्पाला जैसे मांसल जीवों का शिकार करने को घात लगाए चीता, बाघ, लायन की मनोवृत्ति को उजागर करना पड़ा। निम्फोमैनियाक जैसी घातक बीमारी से स्त्री कम पुरुष ज्यादा ग्रस्त है। स्त्री की इस बीमारी का जनक कौन है ? शायद पुरुष ही तो।
फ्रायड का सिंद्धांत यहां अपने आप लागू हो जाता है। सेक्स ही जीवन को संचालित करता है। न भी संचालित करे, लेकिन संचालन की उत्प्रेरणा में उसकी भूमिका नगन्य नहीं ठहराई जा सकती।
बहरहाल, कहानी को अनावश्यक खींचा गया है। यदि मेरा कहना गलत है तो कहानी को एक बार मुझे फिर पढ़ना पड़ेगा।
बहुत ही रोचक, एक दम से पढ़ जाने के बाद भी रुक रुक कर पढ़े जाना वाला बयान. इस पूरी कहानी में visualisation कमाल है. और दूसरा हाफ़ तो गजब ही. कोविड के बहाने किन स्मृतियों और इच्छाओं (इसे desire कहना ज़्यादा सही)का सफ़र तय करती है यह. बहुत समय बाद मैंने इतनी अच्छी कहानी पढ़ी जो मुझे बिम्बो और असर के रूप में याद रह जाएगी. मैं तो इसमें एक फ़िल्म की संभावना देख पा रहा. निम्फ़ोमैनियाक नाम से लार्स वान ट्रायर की एक फ़िल्म है जिसमें कमोबेश इसी रास्ते पड़ताल है. हालाँकि कैशोर्य और वयस्कता के दो धरातलों पर ही इस प्लॉट की कहानी की गुंजाइश हो सकती है. मगर फिर भी हमारे समय के आसपास बुनी गई यह कहानी हर तरह से समृद्ध है. हो सकता है बार बार पढ़ने पर कुछ और अर्थ खुलें.
bichara truck driver! Hum lekhak log bhi chhoti machhli ko hi pakadte hain!
कबीर संजय की कहानी सघन आवेगो की अर्थवान और असरदार कहानी है। कहानी जिस तरह से किशोर अवस्था के सघन आवेशपूर्ण प्रेम के स्पर्शो और उनसे झंकृत इंतजारपूर्ण कल्पना के महीन ब्योरो का वितान बुनती है, वह बेहद प्रामाणिक चित्रण लगता है।हिंदी में इतने प्रबल आवेश, आवेग और मन के काल्पनिक प्रतीक्षारत महीन सपर्शो की कहानी मुझे पढ़ने में नहीं आई। पतंग उड़ाने के ब्यौरे कहानी में किशोर वय में उफनती मुक्ति के असरदार आलंबक लगते है।करोना पीड़ित होने का प्रथम पुरुष आख्यान तो काफी प्रामाणिक लगता है ,उसमे वनों और जंगलों से जुड़े दुस्वप्नो का वर्णन भी कहानी की कहन को गाढ़ा करते है। अस्वस्थ होने पर चेतना में इसी तरह के विक्षेप आते है।इन्ही दुस्वपनो के दरम्यान स्पर्शों को साकार करती स्वपनमयी प्रतीक्षा सामाजिक बंधनों को तोड़ती हुई मुक्तिकारी लगती है और पुनर्जीवन का संचरण करती है। अध्यायो में बटी कहानी आगे के अध्याय में बयां करती है की किशोर अवस्था में चेतना में गुथें स्पर्श संस्कार आगे जाकर किस कदर स्मृति का गतिशील आख्यान रचते है और जीवन दान देते है। अच्छी कहानी अपनी कथात्मकता से हमेशा ही रूढ़ियों को तोड़ती है और ताजे सोच विचार की जमीन तैयार करती है और भाषा में सर्वथा नए अर्थ लेकर आती है।यह कहानी भी निम्फोमेनिया के रूढ़ स्त्री द्वेषी, सर्वथा मर्दवादी , अर्थ के सामाजिक और सांस्कृतिक आग्रहों को भंग कर डिकंस्ट्रक्ट करती है और ऐसे अर्थ को स्थापित करती है , जिसमे दुर्भावना, अनर्थकारी अर्थऔर दुराग्रहो का खलनायक समाज ही नजर आता है। समाज की मौन और ताकत से सिंचित सामाजिक सहमति ही , बद्धमूल निर्मम क्रूरता के कारक खल तत्व के रूप में उजागर होती है। कबीर संजय की आवेशपूर्ण तेवर से ओतप्रोत कहानी अपने पुरजोर असर के कारण मुझे हमेशा याद रहेगी।
ये कहानी हमेशा याद रहेगी
कहानी बहुत धैर्य के साथ डूब कर लिखी गई है। इसे रच कर लेखक को अवश्य ही मुक्ति की अनुभूति हुई होगी। बधाई।
‘निम्फोमैनियाक: एक बयान’ पर कहानीकार संजय कबीर से एक संवाद…
संजय तुम्हारी कहानी समालोचन पर से पढ़ी. फिर से मुझे यही लगा कि कहानी का शीर्षक, रानी..नहीं!नहीं! रानी ठाकुर जो दिलों पर राज करती है, की मासूमियत और प्रेम करने की पहल लेने का साहस रखने वाली लड़कियों के प्रति कुछ ज्यादती है. सिर्फ़ शीर्षक ही. कहानी नहीं…
कहानी बेशक बहुत बेहतरीन और झीनी झीनी धैर्य से बुनी चदरिया की तरह है. जो बहुत मुलायम और बहुत सावधानी से बुनी गयी है. जिसका एक-एक रेशा बेहद सफ़ाई से और संवेदनशीलता से गूंथा गया है. लेकिन फिर भी मुझे लगता है शीर्षक थोड़ा ज़्यादा है. और ऐसी साहसी लड़कियों के प्रति बने स्टीरिओटाइप को तोड़ता नहीं. याद है संजय मैंने तब भी यही कहा था कि इस शीर्षक से एक साहसी लड़की की मासूम पहल वाली चाहत कहीं क्रश न हो जाये.
माफ़ करना संजय मैं उस समय भी शायद अपनी बात समझा नहीं पाई थी. बेशक तुमने न केवल डिक्शनरी में इस शब्द के मायने बदल कर लिख दिया जो तुमने इस कहानी के अंत तक आते-आते स्थापित भी किया है. और सफ़लतापूर्वक किया है. और बहुत सही किया है.
संजय तुम्हारी कहानी का अंतिम हिस्सा पढ़ते हुए मैं भी नीम बेहोश होने लगती हूं. और तुम्हारी बात से सहमत भी कि इस शब्द के अर्थ बदले जाने की ज़रूरत है. फिर भी मेरा दिल उस कहानी के उस दिलकश हिस्से में पतंग की तरह अटका रह जाता है जिसमें वह ‘तुम्हें’ कुछ देती है. यानि प्रेम का पहला साहसी इज़हार..
मेरा समूचा ज़हन उसी में उलझ जाता है. और मेरे ज़ेहन का कैमरा उस दृश्य की फ़ोटोग्राफ़ी करने लगता है. तभी तुम्हारा लम्पट उस्ताद तुम्हें सिखाता है ‘वह निम्फोमानियक’ है..लड़कियों, औरतों के लिए एक और बेहूदा शब्द…
मैं छटपटा उठती हूं..इसका क्या हश्र होगा…
दूसरे हिस्से में जाकर कहानी अपने अर्थ को बदल देती है. तुम्हारे जैसे संवेदनशील कहानीकार से यही उम्मीद थी/है. कहानी शानदार हो जाती है. पर फिर भी ‘रानी ठाकुर’ वह पहला ‘बोसा’ और शीर्षक ‘निम्फोमैनियक’ दिल दिमाग में अटक जाता है.
बेशक जिनको इस शब्द का अर्थ पता है, वे इस शीर्षक के चुम्बक से नहीं बच पाएंगे. जो डिक्शनरी में अर्थ देखेंगे वह इस अर्थ के लिए ही पढेंगे. निश्चित रूप से बेहद सावधानी से बुनी बाद की कहानी उन्हें भी डिक्शनरी में अर्थ को काट देने को मजबूर करेगी. पर औरतों की अंतहीन कुचली गयी कामनाओं का क्या ?
99 प्रतिशत लड़कियां ऐसे ‘निम्फोमानियक’ पुरुषों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ‘शिकार’ होती हैं. फिर भी टूट कर प्यार करती हैं. साहस के साथ प्यार करती हैं. उनके ख़िलाफ़ रचे जा रही सारी रूढ़ियों, वर्जनाओं, कुत्सा-प्रहारों के बावजूद…
संजय शायद मैं अपनी बात समझा पा रही हूं..बाकि कहानी की अपनी ऊँचाइयाँ तो हैं हीं जिन्हें साहित्य आलोचकों की कलम नापेगी ही..
अगर इस कहानी का शीर्षक कुछ और होता तो कहानी किसी और ऊंचे धरातल पर जाती।संयोग से सुरेंद्र मोहन पाठक का इसी शीर्षक का उपन्यास किशोर वय में पढ़ा है। वही बात सबसे पहले दिमाग में आई।असल में इस शीर्षक की वजह से लेखक को कहानी का उत्तर भाग एक खास दायरे के इर्द गिर्द रखना पड़ा।खैर, यह लेखक का अधिकार है। मुझे लगता है कि इस कहानी में और अधिक उठान की संभावनाएं थीं।
सार्थक रचनाएँ वे हैं जो हमारे जमे हुए पूर्वाग्रहों को तोड़ती हैं। शब्द-कोशों में दिये गये अर्थ के रूढ़ हो जाने के पीछे की सामजिकी का उद्घाटन करते हुए नये अर्थ का स्थापन करती हैं। जो रचना कुछ जोड़-घटाव न कर सके वह व्यर्थ का पिष्टपेषण मात्र हैं। कबीर संजय (Kabir Sanjay) की कहानी ‘निम्फोमैनियाक: एक बयान’ ऐसी ही कहानी है। दो भागों में विभाजित इस कहानी का पहला भाग एक नेस्टेल्जिया-सा रचता है। इसमें बचपन से किशोर होती वय का जादू है। रानी ठाकुर के रूप में एक ऐसी लडकी की उपस्थिति है जिसको लेकर तमाम तरह के परसेप्शन बनते हैं जिन्हें दूसरे भाग में टूटना है। इसमें प्रकृति और कथित संस्कृति के कंट्रास्ट में उस सामाजिक बनावट को उधेड़ दिया गया है जो बड़ी आसानी से अपनी विकृति दूसरे पर आरोपित कर देती है। चूंकि कबीर संजय स्वयं वाइल्ड लाइफ के विशेषज्ञ हैं इसलिए किंचित विस्तार से उन्होंने वन्य जीवों के क्रिया-व्यवहार का वर्णन किया है। वह प्रकृति है। वहाँ शिकार और शिकारी की नियति के पीछे की दुरभिसंधियां नहीं हैं लेकिन संस्कृति के वर्चस्वी तबके कितने छल रचते हैं,यह सोचे और समझे जाने की जरूरत है। पितृसत्ता उत्पीडित स्त्री को ही कटघरे में खड़ी करती है। उसका चरित्र-हनन करती है और अपनी चारित्रिक विकृतियों को ढँकने में सफल रहती है। संवेदनशील व्यक्ति ही संवेदना के स्तर पर जुड़कर स्त्री मन के मार्मिक भावों तक पहुँच सकता है। बल्कि स्त्रियां स्वयं पहल करके यह मार्ग सुगम बनाती है। कथा नायक ऐसा ही एक पात्र है जो कोरोना की विभीषिका के दौरान मृत्यु से आंखमिचौनी करते हुए आत्मालाप करता है। और रानी ठाकुर के व्यक्तित्व की निर्मितियों को समझने की चेष्ठा करता हुआ उस सच से साक्षात्कार करता है जो समाज का सबसे स्याह पक्ष है। इसलिए कहानी का अंत होते-होते नैरेटर द्वारा शब्दकोश में निम्फोमैनियाक का अर्थ ‘एन एब्नार्मली इंटेंस एंड परसिस्टेंट डिजायर इन ए वोमेन फॉर सेक्सुअल इंटरकोर्स’ के स्थान पर ‘ए सोसाइटी व्हेयर मेल हैविंग अनकंट्रोलेवल एंड एक्सेसिव सेक्सुअल डिजायर’ का दर्ज करना उसकी नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है।
कल्पना, स्वप्न और यथार्थ के साथ आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई बेहतरीन कहानी है। सुचिंतित धीरज के साथ बुनी गई इस कहानी का सहज प्रवाह आकर्षक है। भोलीभाली बच्ची को शोषित कर बदनाम कर देने की प्रचलित साज़िश के विरुद्ध मजबूती से खड़ी होती है यह कहानी। शोषित होकर भी कुछ ढीठ, कुछ साहसी हुई नायिका; दिलों पर राज करने वाली रानी यानी रानी ठाकुर; भुलाई नहीं जा सकती। शब्दकोश में ‘निम्फोमैनियाक’ शब्द को नया अर्थ प्रदान कर देना इस कहानी की सार्थकता है। कहानीकार संजय कबीर जी को बहुत बधाई। अरुण जी को बहुत धन्यवाद।
बहुत अच्छी कहानी है। यदि कोई धारणा आंख के आगे चकाचौंध की तरह पेश हो, तो सच्चाई जानने के लिए आंख बंद कर लेना चाहिए। संजय इसी तरह एक सच्चाई को सामने लेकर आए हैं। मुबारकबाद उन्हें।
बस जंगलकथा वाला हिस्सा कई जगह जबरन डाला हुआ लगा।
कहानी में जो बात बिना प्रत्यक्ष कहन के कह दी गई है वो अहम है । नाम में कहानी को खोजना वृथा लगा । शीर्षक कुछ और भी होता तो ज़्यादा अच्छा लगता ।