• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » ओपन मैरिज: किंशुक गुप्ता

ओपन मैरिज: किंशुक गुप्ता

किंशुक गुप्ता अंग्रेजी और हिंदी में लिखते हैं, उनकी कहानी ‘ओपन मैरिज’ शहरी मध्य वर्ग के बीच विवाह की बदलती रीतियों और उनसे उपजी विडम्बनाओं पर केन्द्रित है. ‘फेमिनिज्म’ भी जैसे इसमें पात्र हो. सधी हुई है और इस विषय पर टिकने वाली कहानी है.

by arun dev
February 10, 2022
in कथा
A A
ओपन मैरिज: किंशुक गुप्ता
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

ओपन मैरिज

किंशुक गुप्ता

“टिंडर पर तो केया का फोटो लाजवाब था, रेस्टोरेंट में देखा तो मैं दंग रह गया.”  संजीदगी से अनिमेष बोला.

“क्यों ऐसा क्या हुआ?”

“फोटो में तो बड़ी यंग दिखती थी, पर असल में तो शायद मुझसे भी बड़ी होगी, कुछ चालीस-बयालीस साल की.”

“वो तो कई बार फोटो लेने के एंगल से भी हो सकता है…क्या पता कोई पुरानी फोटो हो. कहाँ गए थे तुम लोग?”

“ताज में”

“हैं… दी ताज में…क्यों…कैसे?”

“उसी ने ज़िद की थी. कहने लगी खाना मेरी तरफ से है. पता है वहाँ के पार्किंग लोट में हमारी ऑल्टो कितनी ऑड लग रही थी, सभी वॉचमैन हैरानी से घूरे जा रहे थे.”

“मुझसे तो वहाँ की डिशेज़ के नाम तक नहीं बोले जा रहे थे, वो मुझे ऑप्शन देती तुम रिसोत्तो खाओगे या लसानिया, और मैं जो भी बोलने में आसान होता, वही चुन लेता. लेकिन खाना इतना बेस्वाद और क्वांटिटी इतनी कम थी, हर डिश में बटर, क्रीम या चीज़ का ही स्वाद आता था.”

“उसे हर चीज़ की इतनी जल्दी थी…मैं दूसरी रोटी लेने ही लगा था कि इतने में उसने फिंगर बोल मँगवा लिया. दस हज़ार का बिल…मैंने पर्स निकालने का नाटक किया…पर उसने तुरंत वेटर को अपना क्रेडिट कार्ड दे दिया. वेटर को पता है कितना टिप दिया?”

“कितना? सौ…दौ सौ.” मैंने जवाब दिया.

“एक हज़ार रुपए.” अनिमेष की आँखें एक छोटे बच्चे के उत्साह से भर गईं.

“हूँ… अमीरों के चोंचले.” मैंने तुनककर कहा.

“वहाँ सब कुछ बहुत रॉयल था- बड़े-बड़े गोल चैण्डेलयर; बिना पल्ले की साड़ियाँ पहने औरतें जो बाग जैसी महकती थीं; टाई-कॉट पहने खिचड़ी बालों वाले आदमी जो वाईन के लंबे गिलास हाथों में पकड़े अमरीकी एक्सेंट में बात कर रहे थे- उनकी दिखावटी हँसी, उनका बात-बात पर आँखों को बड़ा कर लेना, कम आवाज़ में बजती वॉइलिन की दुखद धुन- सब कुछ ऐसा लगता था मानो शहर की दौड़ती-भागती विषम ज़िंदगी से कोसों दूर वहाँ एक अलग, अभिजात्य धुन पर जीवन ठसके-से चलता है, एक हाथी जैसा जो चींटी-मकौड़े की फ़िक्र किए बिना आँखें मूँदे गर्दन हिलाता हुआ हर डग मस्ती में भरता रहता है. बार-बार मुझे याद आ रहा था बाहर बहती नाक वाला बच्चा, उसका बुझा -बुझा चेहरा, जो पेट पर हाथ फिराता खाने को कुछ माँग रहा था.”

“तुम्हारी केया ने उसे भी पाँच सौ रुपए तो जरूर पकड़ा दिए होंगे?”

“लगा तो मुझे भी यही था, पर केया ने त्योरियाँ चढ़ा कर उसे देखा, तभी काली ड्रेस में वॉचमैन हड़बड़ाया हुआ आया और  अपना पारदर्शी डंडा ज़ोर से उसकी पीठ पर दे मारा.”

“बैरे को पैसे दे दिए, बेचारे बच्चे को नहीं?”

“आगे तो सुनो…मुझे जल्दी से कमरे में ले गई, और पहुँचते ही अपनी पीली ड्रेस का खोल बिना झिझके मेरे सामने उतार दिया और बिस्तर पर अपनी दोनों टाँगें फैलाकर इस तरह लेट गई जैसे डिसेक्शन के लिए किसी मेंढ़क को पिन करते हैं. मैं जड़ हुआ देर तक वहीं खड़ा रहा, आग्रह में हिलते उसके हाथ धीरे से शिथिल हो गए. अचानक उसके शरीर में एक तेज़ कँपकँपाहट हुई और आँसुओं की बौराई नदी पाट तोड़ती हुई उसके सारे चेहरे को जलमग्न कर गई.”

“अचानक… ऐसा क्या हुआ?” मैंने उसकी छाती पर हाथ रखते हुए पूछा.

“मैंने हाथ पकड़ा तो उसने मेरा हाथ अपने शरीर के धुरों पर कामुकता से फिराया. उसका शरीर गठा हुआ था, त्वचा इतनी कसी हुई जैसे किताब पर चढ़ाया गया नया कवर. काले रंग के कारण कोई उसके नज़दीक नहीं आता था. आधे युवकों को उसका इतना बड़ा ओहदा देख कॉम्प्लेक्स हो जाता. कोई कहता बिस्तर पर उसका शरीर बीच में सुस्ताती सील जैसा है. कोई कहता उसके शरीर से एक मरे हुए चूहे की गंध आती है. वो चाहती है कोई माँसल, गठीले शरीर का युवक बिना किसी स्वार्थ के उसके साथ रहे.”

“बेचारी…तुम उसकी इच्छा पूरी कर देते.” मैंने उबासी लेते हुए केया के लिए सांत्वना में मुँह बिचकाया और अनिमेष के हाथों पर सिर रखकर सोने लगी.

“तुम्हें तो सब मज़ाक ही लगता है ना…संवेदनाएँ सब कूड़े में डालने की चीजें हैं ना…तुम्हारे कहने पर ओपन मैरिज का टंटा पाँच साल तक कर लिया… अब और मेरे बस की बात नहीं…हमारे लिए सिर्फ थ्रिल है, पर कितनी लड़कियाँ जिनसे हाल-फिलहाल में मिला हूँ, अकेलापन उनकी शिराओं में जम गया है, गरीबी से लड़ते-लड़ते उनका यौवन झड़ गया है, ताउम्र किसी की पत्नी का खिताब उनके फेमिनिज्म को स्वीकार नहीं…संभोग के अलावा किसी के करीब महसूस करने का कोई और तरीका उनके पास बचा ही नहीं. पर असल में वो चाहती हैं कि कोई उन्हें बाहों में कसकर पकड़े, खास महसूस करवाए, उनकी बेतहाशा मुश्किल रही जिदंगी के फलसफे सुने…मुझे तो हमेशा लगता है मैं उनके शरीर का फायदा उठा रहा हूँ.”

“हम किसी से जबरदस्ती करते हैं क्या? बिल्कुल नहीं. मुझे तो नए शरीरों की गर्माहट, खुरदुरापन, तिलिस्म अच्छा लगता है. दो शरीरों का संगम हमेशा एक नया आकार बनाता है, जो अपने शरीर के घनछत, बियाबान जंगल की एक और लिपटी डाली से हमें परिचित करवाता है. और हम तो पहले ही बताते हैं कि हम शादीशुदा हैं और इश्क-मोहब्बत के लिए उपस्थित नहीं.”

“कोई अपना दिल घर निकाल कर नहीं आ सकता. इच्छाओं का कभी कोई अंत नहीं; कामनाओं के प्रति अपना जीवन केंद्रित कर लेना एक फैले रेगिस्तान में पानी ढूँढते हुए भटकते रहना है.  बात वो भी नहीं है, अब पैंतीस के होने लगे हैं, अब हमें आगे का सोचना चाहिए.”

“तुम फिर वही पुरानी बात पर अटक जाते हो…बच्चा बच्चा बच्चा…”

“क्योंकि अब मुझे ये सब हफ्ते-दर-हफ्ते नए लोगों से छुपते-छिपाते मिलना, एक रात के लिए हमबिस्तर होना, बिल्कुल ही नागवार गुजरने लगा है. मेरे फ्रेंड सर्किल में सभी के बच्चे हैं, कईयों के तो अब दो-दो भी है, भरा-पूरा, खुश-खुशहाल परिवार कितना अच्छा लगता है.”

“तुम्हें लगता है, मुझे नहीं. मैं जानती हूँ उस मुस्कान के पीछे का त्रास… तुम क्या ये बेफिज़ूल की बात लेकर बैठ गए हो?” मैंने करवट बदलकर आँखें मींच लीं, एक बार फिर भरा-पूरा परिवार कहकर उसने मेरे घाव हरे कर दिए थे.

 

 2.

कौन जाने अनिमेष का काम बढ़ गया है, या वो जान-बूझकर विदेश यात्राओं में मशगूल हो गया है…एक से लौटता है तो दो-चार दिन बाद ही—जब तक जेट लैग भी ठीक से नहीं उतर पाता— सामान बाँध कहीं और चल देता है. घर अटता जा रहा है महँगी ज्वेलरी, कटलरी, सूवेनिर से, पर मैं महसूस करने लगी हूँ दिल के किवाड़ पर लगा डर का दीमक…कैसा डर? पति के दूर हो जाने का…वही डर जिसे सुनकर मैं किसी भी महिला को हीन नज़रों से देखने लगती थी, बड़े गर्व से उसकी पीठ थपथपाती समझाती थी फेमिनिज्म की पहली, दूसरी लहर की पृष्ठभूमि. पर ये मैरिज ओपन करने का सुझाव मेरा ही था. वो तो इच्छुक नहीं था, हमारे रिश्ते से बिल्कुल संतुष्ट था, पर यौनिकता की विकराल लहरें तट पर ऊँघते मेरे सीपी जैसे मन पर भयानक चोटें किए जा रही थीं.

उसने कहा था, “सेक्स में क्या रखा है, क्यों तुम उन्हीं सुगम रास्तों पर खड़ी रह गई हो, क्यों तुम मेरे साथ उन शिखरों तक नहीं पहँच पाई जहाँ से कामुकता में लिथड़े शरीर घास चरती भेड़ों से लगने लगते हैं?”

मैंने तुर्श होकर कहा था, “मुझे नहीं समझ में आता ये सब घाटी-पहाड़…इंसान सेक्सुअल बीइंग है, शरीर के माध्यम से वह दुनिया में एक्सिस्ट करता है. सबसे बड़ी बात यही है कि हमने यदि एक-दूसरे को किसी और के साथ देख लिया, तो बिना बात के अविश्वास पनप जाएगा. मैं अपनी दस साल की शादी को संदेह के नमक से गलाना नहीं चाहती.

उसने कहा था, “क्या तुम्हारे मन को मेरी प्यार की शांत, नीली झील अभी तक भिगो नहीं पाई? तुम्हें कहाँ से चर्रा गए ऐसे शौक? कितनी पजेसिव हुआ करती थीं तुम… याद नहीं मिसेज ग्रेवाल ने जब मुझे अपने घर काम समझाने के लिए डिनर पर बुलाया था, किस तरह तुम बिफर गई थीं और जब तक मैंने पेट दर्द का बहाना कर उन्हें मना नहीं कर दिया था, तब तक तुमने चैन की साँस नहीं लेने दी थी. सच-सच बताओ किस ने तुम्हारे दिमाग में यह खुराफात डाली?”

उसकी व्यंग्यात्मक मुस्कान देख जैसे मैं अन्दर से दरक गई थी पर फिर चेहरा सपाट कर बताने लगी थी, “रश्मि जब से अपने पति से अलग हुई है, कितने मज़े कर रही है. इच्छाओं के विस्तृत आकाश में अपने कुम्हलाए पंख फिर फड़फड़ाने का प्रयास कर रही है. हैविंग बिगेस्ट स्लाइस ऑफ़ हर लाइफ. हर हफ़्ते नए पुरुष के साथ रहती है, और हफ़्ता खत्म होते ही पुराने को ब्लॉक कर दूसरा पकड़ लाती है. वह कहती है बिस्तर पर लेटा आदमी पकवान होता है, औरत की जीभ के गुदगुदे स्पर्श के लिए कुलबुलाता हुआ.”

“यह कैसा ऑब्जेक्टिफिकेशन है? अगर मैं अभी औरतों के लिए ऐसा कुछ बोलता, तो तुम नसीहतों के पुलिंदे बाँध देतीं. बेचारे उसके पति ने ऐसा किया ही क्या था कि उसे कोर्ट में घसीटकर यूँ ज़लील किया, जबरदस्ती उससे वीडियो में बुलवाया कि वो बाईसेक्सुअल है और उसे वायरल कर दिया. इतने में भी पेट नहीं भरा तो उसका एकमात्र घर भी अलिमनी में माँग लिया.”

“इससे बड़ा विश्वासघात क्या होगा किसी औरत के साथ? किस बीवी के गले उतरेगा कि उसका पति बाईसेक्सुअल है…कभी भी किसी दूसरे आदमी के लिए उसे छोड़ सकता है. रही बात अलीमनी की, तो मेरे हिसाब वो एक पत्नी का हक है.”

“शादी के एक महीने में अलग हो जाने पर भी हक है? अधिकारों  के लिए चीखती भीड़ में शामिल इतनी अँधी भी ना हो जाओ कि दूसरों का शोषण भी अपना हक लगने लगे. सारे अधिकार, प्रतिबंध, दबाव सिर्फ औरत पर ही होते हैं क्या? आदमी भी कोई खुले साँड की तरह बड़े नहीं होते. उनको भी एक साँचे में ढलना होता है. सोमेश की गलती बस इतनी ही थी कि पहले ही दिन उसने अपना सारा सच बता दिया. तुम्हारी दोस्त ने क्यों विश्वास नहीं किया उस पर…उसने कहा था ना कि वो निष्ठा से रिश्ता निभाएगा…गलती की ना उसने सच बोलकर?”

उसकी विचारकों वाली पनीली आँखें मानो मुझे बार-बार ललकारती थीं. मैंने शांत होते हुए कहा,”छोड़ो उनकी बात…मुझे मैरिज ओपन करनी है. तुम्हारा भी तो जी ललचाता होगा ना. मुझे कोई आपत्ति नहीं है किसी और के साथ तुम्हारे वन-नाइट स्टैंड को लेकर.”

“मुझे ऐसी कोई क्रेविंग नहीं होती. तुम्हें होती है तो तुम्हें पूरी भी कर लेनी चाहिए, नहीं तो हमेशा किलसोगी.”

“मैं सिर्फ तुमसे ही प्यार करती हूँ. सिर्फ़ तुमसे. यह तो सिर्फ थोड़ी एक्साइटमेंट के लिए है. बस.”

वह बिना कुछ और पूछे करवट बदलकर सो गया. मुझे तो खुश होना चाहिए कि वह मुझ पर इतना विश्वास करता है, पर उसका बिना किसी प्रतिक्रिया दिए सब कुछ मान जाना, मेरे लिए बिल्कुल पजेसिव ना होना, कोई बाउंड्री सेट ना करना एक अजीब-सी दहशत से भर गया. और अगर वह डेट पर नहीं जाएगा तो मेरा अपराध-बोध क्या मुझे नहीं कचोटेगा? देर रात तक सोचती रही कि उसे विशेष के बारे में सब कुछ बता दूँ, कह दूँ कि उसकी ज़िल्द का काँसई रंग, मटन चॉप्स दाढ़ी, नैवी ब्लू कमीजों से उभरती छाती, बाज़ू की मछलियाँ मुझे बेहद आकर्षक लगने लगी हैं.

कमला दास की पूरी आत्मकथा में इसी अल्हड़ आकर्षण को पढ़कर कितना आंदोलित हुआ था मेरा नवयुवक मन. किस बेबाकी से प्रस्तावना में उन्होंने लिखा था—बवाल होगा ही यह जानती थी, क्योंकि मैंने स्वीकारा है कि मुझे छैला किस्म के लड़के लुभाते थे. मैं तो हमेशा यही मानती रही थी कि सिर्फ वो शादीशुदा औरतें छरहरे लड़कों के प्रेम-पाश में मछलियों की भांति तड़फड़ाती हैं जो पति के प्रेम में आकंठ नहीं डूब पातीं या जिनके पति हिंसक होते हैं—पत्नी को बॉक्सिंग बैग समझते हैं या रबर का टायर जिसे फाड़कर बच्चे निकल आते हैं. फिर मैं क्यों विशेष की ओर खिंचे जा रही हूँ?

बुद्ध का संदेश—दुख की जड़ में इच्छाएँ हैं—जब कॉलेज में पढ़ा था तब सोचती थी कि इच्छाएँ एक गुल्लक में खनकते सिक्कों जैसी होती होंगी कि धीरे-धीरे गुल्लक के भर जाने पर उनकी आवाज़ सुनाई देना बंद हो जाती होगी. इच्छाएँ तो छिपकली की पूँछ जैसे होती हैं, काटने पर फिर-फिर बढ़ने वाली. अब सोचती हूँ तो लगता है बुद्ध ने हमें बेवकूफ बनाया है—कंदराओं के नीचे, नितांत निर्जन में जहाँ दूर तक केवल सरसराते पत्ते, फुफकारते साँप और चिंघाड़ते सियार की आवाज़ें ही सुनाई पड़ती हैं, वहाँ भले कौन-सी इच्छाएँ पनप ही सकती हैं?

 

3.

अनिमेष विदेश यात्राओं के बीच जितने भी दिन घर ठहरता है, मैं उसका मनपसंद खाना बनाती हूँ, उसके पसंदीदा कपड़े लादे मुस्तैदी से उसकी हर ज़रूरत के लिए हाज़िर रहती हूँ. जब कभी-कभी वह खुश होता है, पहले की तरह मुस्कुराता है, फिर वही बात दोहराने लगता है—बच्चे की किलक से सारा घर जीवंत हो जाएगा, अभी तो सुनसान बियाबान-सा काटने को दौड़ता है. फिर अनमना होकर, दाँत किटकिटाकर कहने लगता है, “तुम्हारे साथ तो यह बात ख्वाब जैसी लगती है.” उसकी लाल आँखों से मन दहशत से भर उठता है, मैं बात का रुख इधर-उधर मोड़ देती हूँ.

जिस दिन वह कैथे पैसिफिक से इटली के लिए सुबह चार बजे रवाना हुआ, मैंने एक बार फिर चैन की साँस ली. तुरंत विशेष को फोन लगाया कि वो अगले पूरे हफ़्ते घर में रह सकता है. ओपन मैरिज का यही फायदा है—दूसरे से कोई चोरी नहीं, कोई गिल्ट नहीं कि आप किसी तीसरे के शरीर का अन्वेषण करते हुए अगले कुछ हसीन दिन गुजारने वाले हो, शक की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती.

मैं विशेष के मनपसंद कार्नेशन, आर्किड और टाइगर लिली ले आई और फूलदान में सजा दिए. साथ ही पास के सुपरमार्केट से उसके द्वारा बताई गई सुषी की सारी सामग्री लाकर उसको इंतज़ार करने लगी.

छह के सात बज गए पर उसकी कोई खैर-खबर नहीं. साढ़े सात बजे जब वो आया, तो वह बहुत ही असहज था; जैसे ही मुझसे मुखातिब हुआ, तुरंत माफी माँगने लगा. उसकी यही अदा मेरा मन मोह लेती है, चाहे हर बार पत्नी की गलती होती है, खुद ही माफी माँगकर यह जता देता है कि कितना समझदार और सहनशील बीवी का पुँछलग्गू पति है.

“यार सॉरी…सॉरी, आज ट्रैफिक बहुत ज्यादा था…डॉक्टर के यहाँ बहुत समय लग गया.” हाँफता हुआ वह बोला.

“डॉक्टर के पास…कुछ हुआ है क्या तुम्हें?”

“सब बताता हूँ…पहले सुषी बना लें, बहुत भूख लगी है.”

वो अप्रन पहनकर मेरा लाया हुआ सारा सामान डिब्बों से निकालकर स्लैब पर रखने लगा. उसने चावल उबालने के लिए रखे, बड़े सलीके से हर एक नोरी शीट को निकाला और चाकू से बीच में से आधा करके एक तरफ रखता गया. फिर गाजर और खीरे के लंबे टुकड़े काटकर सिरके में डूबो दिए, चावल के खदकते पानी में कलछी चलाकर जाँचा कि चावल कितने कच्चे हैं और पास रखे मूढ़े पर बैठ गया.

“क्या देख रही हो इतने ध्यान से?”

“कुछ नहीं…देख रही हूँ मीरा की कितनी ऐश है…पति कितने नए-नए व्यंजन बनाकर खिलाता है.”

“हाँ जी हाँ, वो बड़ी पोजेसिव है किचन को लेकर…किसी चीज़ को हाथ तक नहीं लगाने देती. किसी दिन एक भी डिब्बा इधर से उधर हो जाए, तो ज्वालामुखी की तरह भड़क उठती है.”

“मेरी तो समझ के बाहर है ये कहावत ‘पति के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है’…पता नहीं कैसे औरतें अपना वजूद इन सब घरेलू चीजों से जोड़कर, पूरा दिन मर-खपकर, पति की वाहवाही बटोरने के लिए उतारू रह सकती हैं?”

“कोई इतना सिद्धहस्त तो होता नहीं कि हर भौतिक चीज़ से अलग अपना एक वजूद खोज पाए. और पूरी तरह से चाहे न भी जोड़े, एक हिस्सा तो जरूर जुड़ा रहता है हमारी उपलब्धियों से. तुम घर की बजाए वही वजूद अपने काम में ढूँढती होंगी या उपन्यास में.” उसने चावल का माँढ छानकर एक अलग कटोरे में रख दिया और वह मेरी ओर बढ़ा दिया.

“पी लो, थोड़ा बकबका-सा तो जरूर लगेगा, पर यह बहुत ही गरिष्ठ होता है…कार्बोहाइड्रेट रिच. मीरा को भी पिलाता हूँ हर रोज़ कुछ समय से.”

“यहाँ तो सारी ज़िन्दगी का ज़ायका ही बकबका हो रखा है.”

“कितनी शिकायती हो गई हो तुम…अनिमेष से फिर कुछ नोक-झोंक हुई क्या?” काले नोरी शीट पर चावल की एक पतली परत रखते हुए उसने पूछा.

“कुंठित हो गई हूँ. लगता है जैसे सारे वजूद में गाँठें पड़ गई हैं. उसकी वही पुरानी बच्चे की रो-रट…कितनी बार समझा लिया मैं बच्चे पैदा करके अपने सिर आफत नहीं मोल लेना चाहती. मेरा उपन्यास अधूरा है, काम में तरक्की होने को है, और दिन-रात बच्चा बच्चा अलापता रहता है.”

“अरे यार, तुम्हें एक खुशखबरी देनी है… मीरा प्रेगनेंट है…2 मंथ्स.” उसने चावल की परत पर खीरे और गाजर की लंबी फाँकें

रखीं और बैंबू मैट को रोल करने लगा.”

मेरा मुँह फक पड़ गया. काटो तो खून नहीं. समझ आया क्यों आज वो बार-बार बीवी बीवी दोहराए जा रहा है. “एकदम अचानक…क्यों…मेरा मतलब कैसे?” मेरे मुँह से कुछ अस्फुट अक्षर निकले.

“अब ही तो समय है की लोंग टर्म प्लांनिंग की जाए. ओपन मैरिज में हम तुम दोनों से पहले से ही हैं, अब तो लगभग सभी दोस्त भी जानते हैं. अब नए शरीरों में कोई रोचकता नहीं बची, मुझे सबमें एक अजीब-सी जरूरत, अतृप्ति की गंध आने लगी है, हम दोनों में वैसी उत्तेजना भी नहीं बची. कितनी बार दोनों किसी से मिलने जाते हैं, और डिनर कर लौट आते हैं.”

मैं अनायास ही कसकर उसके गले लग जाती हूँ और मिमियाती आवाज़ में पूछने लगती हूँ, “क्या यह हम दोनों की आखिरी मुलाकात है?”

वो चुप ही रहा, बस अपना गाल मेरे से छुआए खड़ा रहा. उसकी इतने मन से बनाई सुषी का एक भी टुकड़ा मुझसे निगला नहीं गया. उसने मुझे खिलाने के लिए एक पीस सोया सॉस में डुबाना चाहा, तो वजन से पूरी कटोरी ही लुढ़क गई और काली सॉस के छींटे जैसे मेरे चेहरे पर कालिख पोत गए.

हालांकि हमेशा सोचती थी कि विशेष से मुझे रोमांटिक नहीं, सेक्सुअल अट्ट्रेक्शन है, पर हम दोनों पिछले एक साल से मिलते रहे हैं और हाल-फिलहाल में सोचने लगी थी कि उसके लिए प्रेम की एक नई कोंपल मेरे अंदर फूट पड़ी है.

निर्वस्त्र हम दोनों एक-दूसरे से सटे लेटे रहे, हमारे बीच की निरापद शांति को भंग करता झींगुरों का स्वर है, तेज़ चलती हवा की सायं-सायं है, और विशेष का स्वप्निल स्वर है जिसमें वो बता रहा है कि आजकल उसकी नज़र ट्रॉली, प्रैम में झुनझुने पकड़े, दो दाँतों से खिलखिलाते बच्चों पर अनायास ही टिक जाती है और वो अपने बच्चे के लिए उतावला हो जाता है.

मेरे अंदर एक अजीब सा गुस्सा उबल पड़ता है, विशेष में भी जैसे अनिमेष का भूत आ गया है, बिल्कुल वैसी सी रटी-रटाई घिसी-पिटी बातें वह भी किए जा रहा है.

मैं तुनक कर कहती हूँ, “आदमियों के लिए आसान है बच्चे और खुशी को एक ही साँस में कहकर अपनी आँखें पनीली कर टुकुर-टुकुर देखने लगना, एक औरत के लिए नहीं. पुरुष ने लाकर रख दिए पालने और खिलौने; अच्छे-से-अच्छे डॉक्टर की महँगी फीस अदा कर चुस्ती से परामर्श लेता रहा; हर रोज़ पूछ लिया तबीयत कैसी है या ज्यादा करके एक प्याली चाय पिला दी, पर क्या आदमी समझ सकता है नौ महीने तक एक जीवन को अपने शरीर की माँस-मज्जा से बड़ा करना क्या होता है?

साहित्य में कितनी जगहों पर अमरबेल, जोंक और कोयल की उपमाएँ मिलती हैं—तीनों ही मौकापरस्त हैं, जानते हैं कि गलाकाट प्रतियोगिता के इस दौर में कैसे दूसरों की जड़ों को खोंखला करके अपना पोषण खींचना है, स्पेंसर की ‘सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट’ की थ्योरी को गुनने वाले, पर साहित्यिक नज़र से तीनों कितने बदजात हैं. वही साहित्य कैसे बच्चा पैदा करने को अनूठा, अभूतपूर्व एहसास बताने से नहीं चूकता? कितना-कितना बखान है मातृत्व का, पढ़ने में अच्छा लगता है, ऐसा सब कहना औरतों को बेवकूफ बनाने के लिए जरूरी भी था नहीं तो सृष्टि आगे कैसे बढ़ती.”

“तुम इतना काँपने क्यों लगीं? तुम ये मत सोचो कि अगर हम बेबी प्लान कर रहे हैं, तो हर ओपन मैरिज का अंत इसी तरह होता है. शादी की पूर्णता, प्यार की पराकाष्ठा नहीं होती बच्चे पैदा करना. इसका मतलब सिर्फ इतना है कि नर्चर करने की इच्छा मनुष्य की आदिम इच्छाओं में से एक है. जो बच्चे नहीं पैदा करते, वो कुत्ते-बिल्ली पालते हैं, क्यारियों में सब्जियाँ बोते हैं, गरीब बच्चों के खर्चे का जिम्मा उठा लेते हैं …पता है क्यों? क्योंकि इन सब चीज़ों में एक गहन संतुष्टि की अनुभूति छिपी है. एक तरह से देखो तो यह सिर्फ अपने अहम को पोषित करने से हटकर सृष्टि के सृजन में अपना अनुदान देना है.” वह मेरी अँगुलियों में अपनी अँगुलियाँ फँसाए बोलता जा रहा था.

“मैंने देखा है माओं को…कैसे बेचारी ऑफिस में इसी चिंता में घुली जाती हैं कि बच्चा जाग तो नहीं गया होगा, दूध के लिए बिलबिला तो नहीं रहा होगा, बेचारी अपना खाना खाए बिना लंच ब्रेक में गाड़ियों में भागती हैं बच्चे को दूध पिलाने. कितनों ने तो अपनी सारी प्रतिभा बच्चे पालने में ही झोंक दी, काम छोड़कर घर पर ही बैठ गईं, यही सोचकर कि सूसू-पॉटी साफ करने से अकांप्लिशमेंट मिलती है. बाद में यही औरतें, यही सो-कॉल्ड अकांप्लिश्ड औरतें, पतियों पर तिल-तिल के लिए मोहताज हो जाएँगी, अपने जवान बेटे-बेटियों पर अहसान लादेंगीं कि उनकी बदौलत हो वी कुछ बन गए हैं. टोटल वेस्ट.”

“वो औरतें तुम्हारे बारे में भी तो यह सोचती होंगी कि कैसी शुष्क औरत है कि अपने उपन्यास और नौकरी के चक्कर में बच्चा नहीं चाहती. संसार में तो सब चीजें अपने पूर्ण रूप में ही उपस्थित हैं, सही-गलत की किसी भी परिभाषा से कोसों दूर, यह हमारा निजी तर्क ही है जो किसी चीज़ को अच्छा और किसी को बुरा मानने पर हमें बाध्य कर देती है.”

मैं विशेष की छाती के बीच सिर रखकर रोने लगी, हर एक आँसू की बूँद टपकती और उसके गदराए बदन से फिसल जाती. फिर जैसे एक अजीब से डर की गिरफ्त मैंने अपने ऊपर महसूस की, और उसके शरीर पर इस तरह अपनी जीभ फिराने लगी जैसे एक भूखा बच्चा होटल की झूठी तश्तरियों से विदेशी नक्शों की शक्ल में फैली तरकारी चाट लेता है.

वह सोता रहा पर नींद का एक भी कतरा मैंने अपनी आँखों में महसूस नहीं किया. मन टटोलती हूँ तो पाती हूँ कि सारी दुनिया को जो तर्क देती फिरती हूँ, नारी सशक्तिकरण के चोगे में लिपटे,  जो मुझे कंठस्थ हो गए हैं, वो सब कितने बेमानी हैं. अपनी एक पुरानी फोटो बार-बार याद आती है जो माँ बताती हैं पिता के घर छोड़ देने से कुछ दिनों पहले की है. उस फोटो में माँ-पापा दोनों घुटनों के बल ज़मीन पर बैठे कौतुक-भरी नज़रों से मुझे बिना किसी सहारे, बिना लड़खड़ाए चलता देख रहे हैं. माँ कहती हैं कि मैंने चलना शुरू किया और पिता ने घर छोड़ दिया, शायद मैं पैदा ना हुई होती तो पिता घर ही नहीं छोड़ते. मुझे अच्छे-से याद है कैसे प्रार्थना के बीच जब सबकी आँखें बंद होती, कोई भी मास्टर मुझे कहीं भी छू देता, क्लास के लड़के लंच ब्रेक में चोटियाँ खींचते, लड़कियाँ टॉयलेट का गेट बाहर बंद कर जातीं और देर तक खीं-खीं करतीं मखौल करतीं…कितना तिरस्कार   सहा… सिर्फ इसलिए कि मेरा बाप किसी दूसरी औरत के साथ भाग गया.

बाहर से निडर दिखने वाली मैं अंदर से कितनी डरपोक हूँ. बच्चे को इसलिए जन्म नहीं देना चाहती क्योंकि अतीत से डरती हूँ.

कभी सोचती हूँ यह सारे डर बिल्कुल निराधार हैं, अनिमेष को खुद ही बता दूँ पर वो मुझे सहानुभूति का एक कटोरा पकड़ा देगा यह सोच कर रुक जाती हूँ. दस साल बीत जाने के बावजूद भी मैं अनिमेष पर वैसा ठोस विश्वास क्यों नहीं कर पाई हूँ?

और शायद यह विश्वास की भी बात नहीं,  विगत की इन सर्पीली सड़कों के रास्ते शायद मैं किसी से साझा कर ही नहीं सकती.

अनिमेष को लगता है जो औरतें शादी से महरूम रह गईं, वही अकेली हैं. कभी उसे महसूस नहीं हुआ कि उसके बिल्कुल साथ रहने वाली औरत भी कितनी अकेली है, पर शायद हम सबके मन के ऐसे कोने छूट ही जाते हैं, जो अभी भी निर्जन और निस्संग हैं, जिनमें सुराख हैं कि संग की रेत इनसे फिसल जाती है, ये परिचित पदचाप सुनने के लिए आतुर तो बहुत हैं, पर हम जानते हैं कि इन तक कोई कभी नहीं पहुँच पाएगा…

 

4.

अनिमेष जब इटली से लौटा तो कसकर गले लगा लिया. मुझे अटपटा लगा क्योंकि उसे प्यार जताने का यह ढंग बहुत ही वेस्टर्न लगता रहा था. बैग खोला तो तमाम उपहार—चार चमचमाते पर्स जिन्हें बार-बार वह मेरे हाथ में पकड़ाता, आड़ी-तिरछी कटी ड्रेस मेरे शरीर पर लगा शीशे में दिखाता, नए-नए सैंडल्स पहनने का आग्रह करता. पहले कहीं भी जाता था तो एक-आध चीज़ फॉर्मेलिटी के लिए उठा लाता था, पर अचानक इतना उमड़ता प्यार…

क्या हुआ तुम्हें…इतने सारे तोहफे?” मैंने घबराकर पूछा.

“कुछ नहीं…अपनी बीवी से प्यार करने के लिए भी भला किसी कारण की ज़रूरत होती है?”

उसे बीच पर जाना बिल्कुल ही नागवार गुजरता था पर उस दिन शाम को मरीना ड्राइव जाने की ज़िद करने लगा. उफनती हुई लहरें आती दिखतीं तो वह उनके आगे-आगे दौड़ता, कभी चपल लहरों को परास्त करता हुआ उनसे पहले मुझ तक पहुँच जाता तो छपाके मारता हुआ नाचने लगता. मैं खुश होना चाहकर भी खुश नहीं हो पा रही थी. सोच रही थी वह क्यों इतना उछल रहा है क्योंकि फन फैलाए आगे बढ़ती लहरें सैलानियों को तो हर बार शिकस्त ही करती हैं—रेत से उनके होने के निशान मिटाकर.

उस दिन पहली बार मैंने इतने इत्मीनान से लाल डूबता सूरज देखा, उसे समुद्र. रात को हवा में हल्की ठंड होने पर उसने दोनों के कंधे पर एक ही शॉल लपेट ली. चाय ले आया और मेरे कंधे पर सिर रखकर उसने मुझसे प्रेम कविताएँ सुनाने का आग्रह किया. उसने आज तक मेरी कोई कविता नहीं सुनी थी, शायद पढ़ी भी नहीं थी, जब कविताएँ अखबारों और पत्रिकाओं में छपती थीं तो वह हल्का-सा मुस्कुरा भर देता था.

प्रेम कविताओं में पसरी उदासी थी या मन में घिर आए संशय का घटाटोप अँधेरा कि मैंने उसे कसकर भींच लिया और धारों-धार रोने लगी.

चार बजे उठी तो अनिमेष जा चुका था. शायद मॉर्निंग वॉक के लिए गया होगा, मैंने सोच कर आँखे बंद कर लीं, पर पता नहीं क्यों दिल बेलगाम घोड़े की टापों-सा धड़कता था, साँसे बमुश्किल ही आ रही थीं. मैं ऊँघती हुई पार्क चली गई, और चहचहाते पक्षियों के कलरव के बीच उसे देर तक पुकारती रही और मेरी आवाज़ बार-बार मुझसे आ-आकर टकराती रही. एक-एक कर उसकी अलमारियाँ खोलती गई—ना शर्ट-पैंट; ना डिओड्रेंट, अफ्टर शेव; ना मेरे दिए हुए तोहफे. हवा में व्याप्त  उसके डिओड्रेंट की हल्की गंध को मैंने अपने फेफड़ों में भर लिया, और उसके गीले टूथब्रश के ब्रिसलस को अपने चेहरे पर देर तक मलती रही.

तकिए के नीचे उसकी चिट्ठी मिली—

“शायद किसी मोड़ पर पहुँचकर हर रिश्ता चुक जाता है, उसकी साँसों के लच्छे एक-एक कर छूटने लगते हैं, तब भीगे हुए दरवाजों की तरह रिश्ते एक जगह अटक कर रह जाते हैं. ओपन मैरिज का कॉन्सेप्ट मुझे कभी समझ नहीं आया, पर तुम्हें किसी बंधन में बाँधना मुझे गँवारा नहीं था. रिवर्स साइकोलॉजी पर गहरा विश्वास करता रहा हूँ- लगता था कि जितनी तुम्हें आज़ादी मिलेगी, उतना तुम मुझसे बँध जाओगी. पर शायद कोई अदृश्य शक्ति हमारे रिश्ते के मुलायम पंखों को नोचने-खसोटने पर उतारू थी और हम उससे लड़ते-लड़ते हार गए.

किसी भी चीज़ का अंत हमेशा एक गिल्ट के साथ जुड़ा रहता है, हम किसी ना किसी को दोषी ठहरा देना चाहते हैं पर तुम अपने आप को बिल्कुल दोषी मत ठहराना. अगर मैं उस दिन तुम्हारी जबरदस्ती फिक्स की हुए डेट पर नहीं जाता, तो शायद हमारा रिश्ता बच जाता.

इटली में मुझे एमिलिया मिली. मैं हमेशा से मानता आया था कि विदेशी औरतें बहुत प्रेक्टिकल होती हैं, वो जल्दी से किसी पर फिदा नहीं होतीं, ना ही एक साथी के साथ जीवन जीने में विश्वास रखती हैं. पर एमिलिया ने मुझे सही अर्थों में समझाया है कमिटमेंट का मतलब. मेरे अंदर अपनी सारी इच्छा शक्ति फूँक मुझे फिर जिला दिया है पर फिर भी वो अपने लिए कुछ नहीं माँगती. कोई कैसे हो सकता है इतना निस्वार्थ?

हाँ, वो माँ नहीं बन सकती, शायद हम आई. वी. एफ. के लिए ट्राई करें या शायद बिना अपने बच्चे की कसक के साथ ही हमें जीवन भर जीना पड़े. अब सोचता हूँ शायद मैं अपने बच्चे को रिश्ते का बाँध मानने लगा था, पर एमिलिया ने मुझे एक ऐसी परिपूर्णता से अवगत कराया है कि सब भरा – भरा लगने लगा है.

मैंने आधी से ज्यादा प्रॉपर्टी तुम्हारे नाम कर दी है. तुम्हारा हक है. तुम्हें और कुछ और भी चाहिए हो, तो सिर्फ एक मेसेज छोड़ देना. पेपर तुम तक पहुँच जाएँगे. साइन कर देना और हो सके तो मुझे माफ़ कर देना.”

खिड़की से झाँकती सूरज की एक फाँक मेरे माथे पर ना जाने  कैसे टिक गई है. मैं सारे खिड़की दरवाजे पर पर्दे डाल देती हूँ. चाहती हूँ कि एक काला बादल सूरज को निगल ले. पर रोशनी खिड़की के चौकोर डिब्बों का आकार ले, सारे फर्श पर बिखर जाती है. घने, गहरे अँधेरे में इतनी शक्ति क्यों नहीं कि वो हमारी रिक्तता भर पाए? क्यों रोशनी की कसक हमेशा बची रह जाती है?

 

5.

मन-ही-मन जानती हूँ कि यह विशेष का बच्चा है, पर अनिमेष तो  बच्चे का नाम सुनकर खुशी से कूद पड़ेगा, सारे काम छोड़ भागा चला आएगा…यह बात तो उसके दिमाग में आने का कोई सवाल ही नहीं उठता. क्या मुझे उसे बता देना चाहिए कि मैं प्रेगनेंट हूँ और एमिलिया की अपूर्णता की ओर उसका ध्यान केंद्रित कर अपने पास लौट आने की दरकार करनी चाहिए?

पर फेमिनिस्ट औरतें तो ऐसा नहीं करतीं- बिल्कुल भी नहीं. जब से वो गया है कितनी बार सोच चुकी हूँ कि फेमिनिज्म की अपने चारों ओर बनी मोटी दीवारों को ध्वस्त कर दूँ- हक की बात हमेशा खुशियों के आड़े आ ही जाती है. रहूँ अपनी उस कजिन बहन की तरह बाड़े में बँधी गाय की तरह जो अपने पती को नाश्ते में स्प्राउटस् देकर, शाम को उसके पैर दबाकर खुश हो जाती हैं; या अपनी कामवाली की तरह जिसने झाड़ू लगाते हुए  कामुक हँसी हँसते हुए मुझसे पूछा था कि नसबंदी कहाँ की जाती है क्योंकि उसका पति तो उससे प्यार करने से बाज़ नहीं आएगा.

उसके साथ जितना भी रिश्ता बचा था, शायद उन्हीं की किरचों के कारण डॉक्टर के पास जाने से कतराती रही थी. नहीं तो जी कच्चा होने पर फर्स्ट एड वाले डिब्बे से अवॉमिन निकालकर खा लेती और चुपचाप आँखें बंद कर बिस्तर पर पड़ी रहती. कल ही लगा कि एक बार टेस्ट करके देख लेना चाहिए, अगर गर्भधारण गलती से हो भी गया है, तो जल्दी-से-जल्दी अबोर्शन करवाने में ही भलाई है. एक बार को दो लाल लंबी लाइनें देखकर सिर भन्ना गया, पर स्ट्रिप शत-प्रतिशत सही रिजल्ट नहीं बताती, अपनी सहेली की बात याद करके अपने को शांत कर आगे की योजना बनाई.

डॉक्टर नेत्रा सबसे पास थीं, पर मुंबई में बहुत पास भी पंद्रह-बीस किलोमीटर होता ही है, ऊपर से चिलचिलाती गर्मी और ऑफिस अवर्स के चलते रेंगती रंग-बिरंगी गाडियाँ, टेम्पो, और बाइक. पूरा समय ध्यान भटकाने के लिए चारों ओर सड़क पर देखती रही, पर मेरी नजरें माँ-बाप की गोद में किलकारते बच्चों पर टिक जातीं, उनकी हँसी मानो मुझ पर व्यंग्य करती हुई, ज़ाहिर करती हुई कि मैं कितनी डरपोक हूँ. और मैं आँखें बंद कर लेती पर फिर वही भयानक चित्र लौटने लगते और मेरा माथा पसीने से तर हो जाता.

डॉक्टर नेत्रा कुछ टेस्ट और अल्ट्रासाउंड को गौर से देख रही हैं, उनके कमरे में ठंडक है जिससे मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं. मैं वहाँ बैठी यही बुदबुदा रही हूँ कि हे ईश्वर किसी भी चमत्कार से बच्चा मेरी कोख में ना हो, पर तभी डॉक्टर एक आत्मविश्वासी मुस्कान अपने होठों पर लाकर बताती हैं, “डरने की कोई बात नहीं, मिसेज अग्रवाल. सवा महीने का बच्चा है.”

मेरी आँखें फटी की फटी रह जाती हैं, मुँह से अचानक ही निकलता है, “ये कैसे मुमकिन है?”

 डॉक्टर नेत्रा मेरे डर को भाँपती हुई कहती हैं, “इट्स नॉर्मल टू बी अफ्रेड इन द बिगनिंग.”

“प्लीज़ अबोर्ट द चाइल्ड… आई डोंट वांट इट! आई डोंट वांट इट!” मैं एकदम चीख पड़ती हूँ, माँ का वाक्य ‘तुम नहीं होती तो…” एक बवंडर की तरह दिमाग में गोल-गोल चक्कर काटने लगता है.

नेत्रा एक कुशल डॉक्टर की तरह एक तिशू और पानी का गिलास आगे बढ़ाती हुई कहती हैं, “यू शुड टॉक टू योउर हसबैंड.”

“नहीं, नहीं मुझे किसी से नहीं बात करनी, शरीर मेरा है, इस पर मेरा अधिकार है, मैं किसी से कोई सलाह नहीं लूँगी.”

डॉक्टर नेत्रा कुछ गोलियाँ लिखकर देती हैं, बताती हैं कि कौन-सी गोली तीसरे दिन, कौनसी पाँचवे दिन खानी है और चौदह दिन बाद फिर परामर्श के लिए आना है. मैं उन्हें सुन नहीं रही, उनकी अंत की फॉर्मल स्माइल का भी शिष्ट मुस्कान से उत्तर नहीं देती और लड़खड़ाती हुई बाहर पड़े बेंच पर बैठ जाती हूँ. मेरे सामने घास में लोटते, गेंद से खेलते बच्चों के अनेक चित्र हैं, हँसते माँ-बाप हैं जैसे एक हसीन सपनों की रील मेरी आँखों के सामने चल रही हो.

सामने मुझे एक आदमी खड़ा दिखाई देता है जिसने एक हरे तौलिए में लिपटा अपना बच्चा कलेजे से कसकर लगाया हुआ है. थोड़ी देर में वो तौलिया हटाकर बच्चे की रोएँदार, रक्तरंजित त्वचा से अपनी पूरी शर्ट रंग लेता है. पर बच्चा रोता क्यों नहीं, हाथ-पैर क्यों नहीं झटकता? नर्स जब जबरदस्ती कर उससे बच्चा खींचने लगती है, आदमी की पकड़ मजबूत रहती है, बड़ी ही मुश्किल से वह बच्चे को छुड़ा पाती है. और आदमी की आँख से एक मोटा आँसू टपकता है जिसके बाद आँसुओं की झड़ी लग जाती है. वो वहीं निढाल गिर पड़ता है और अपने खून से सने हाथ पूरे चेहरे पर मसल लेता है. नर्स बाद में पूछने पर बताती है कि बच्चा मरा हुआ था, उस कपल की आई. वी. एफ. की पाँचवी कोशिश भी नाकाम रही.

“अबोर्शन से निकले बच्चों के शरीरों या उनके अंगों के अवशेषों का क्या किया जाता हैं?” मैं नर्स से पूछती हूँ.

“मैडम इंसिनरेट कर देते हैं.” वो कहती हुई आगे बढ़ जाती है.

जला कर कोयला कर दी जाती है उनकी मुलायम त्वचा? हज़ार डिग्री में कितनी जल्दी धधक कर राख हो जाते होंगे ये माँस के लोथड़े? कैसी गंध से भरा रहता होगा वह कमरा जहाँ? कितना निर्दयी होता होगा वह इन्सान?

मुझे याद आता है अनिमेष का बच्चों जैसा चेहरा, उसकी आँखों की चमक जब वो बच्चा बच्चा कहा करता था. और अनायास ही मैं अपना हाथ अपने पेट पर रख लेती हूँ और देर तक सहलाती रहती हूँ जैसे माएँ अक्सर गर्व से दूसरी औरतों को नीचा दिखाने के लिए करती हैं. डॉक्टर नेत्रा की भारी आवाज़ कानों में गूँजती है—खून के साथ  सारे सेल बह जाएँगे.

क्या मेरी माँ भी हर रात यही नहीं सोचती होगी कि ऐसे ही गोलियाँ वो भी खा लेती. क्या सचमुच मुझे कोई हक है अपने अंदर विकसित होते जीवन के इतने दारुण अंत का? दोनों पत्तों पर से मेरे हाथ की पकड़ ढीली होती जा रही है, और मैं अपना घर तलाशती सड़क पर कहीं चलती जा रही हूँ.

_____________

किंशुक गुप्ता

मेडिकल की पढ़ाई के साथ-साथ लेखन से कई वर्षों से जुड़े हुए हैं. अंग्रेज़ी की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं— The Hindu, The Hindu Business Line, The Hindustan Times, The Quint, The Deccan Chronicle, The Times of India, The Hindustan Times — में कविताएँ, लेख और कहानियाँ प्रकाशित.
हिंदी कहानी वागर्थ और हंस में प्रकाशित. कविताओं के लिए अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत. दिल्ली में निवास.
दूरभाष: 9560871782

Tags: 20222022 कथाओपन मैरिजकिंशुक गुप्तालिविंगविवाह
ShareTweetSend
Previous Post

विष्णु खरे: सिनेमा का खरा व्याख्याता: सुदीप सोहनी

Next Post

लता मंगेशकर के दस उत्कृष्ट गीत: यतीन्द्र मिश्र

Related Posts

ऑर्बिटल : किंशुक गुप्ता
समीक्षा

ऑर्बिटल : किंशुक गुप्ता

21वीं सदी की समलैंगिक कहानियाँ: पहचान और परख: अंजली देशपांडे
आलेख

21वीं सदी की समलैंगिक कहानियाँ: पहचान और परख: अंजली देशपांडे

कहानी और विचार: अंजली देशपांडे
आलेख

कहानी और विचार: अंजली देशपांडे

Comments 3

  1. श्रीविलास सिंह says:
    3 years ago

    नई भावभूमि पर लिखी गयी अच्छी कहानी।

    Reply
  2. Anonymous says:
    3 years ago

    वर्तमान समय की युवा-पीढ़ी का आख्यान है यह कहानी। समाज में इतनी तेजी से बदलाव हो रहा है कि विवाह जैसे संस्कार से आधुनिक पीढ़ी का विश्वास उठ सा गया है। पहले समाज फिर परिवार और अब विवाह भी टूटने लगें । आने वाले समय में सब कुछ टूटेगा। यह आधुनिकता,फेमनिज़्म॰पितृ सत्ता और कितने विभाजन।

    Reply
  3. उपमा ऋचा says:
    3 years ago

    मुझे हमेशा लगता है कि कहानियां सच या झूठ ही नहीं होतीं। सच-झूठ से ज़्यादा वे कसौटी होती हैं – समय की, समाज की, सामूहिक मन की, जो केवल स्याह या सफेद नहीं होता। उसका बहुत बड़ा हिस्सा ग्रे होता है। कभी-कभी बहुत धूसर और बेरंग भी! लेकिन इन सबसे से ज्यादा कहानियां कसौटी होती हैं उस रचनाकार और उसके रचनाकर्म की, जिसने उन्हें आकार दिया है. आज आपकी कहानी को पढ़ते हुए भी मैं लगातार सोच रही थी इस कहानी की धुरी कहां हैं? कौन-सा सिरा है, जहां से कहानी अपनी कसौटी तक की यात्रा तय करती है- सुविधा दुविधा के द्वंद्व में फंसा समय? ख़ास तरह की कंडीशनिंग से बंधा समाज? या मन जो लकीरों से पार जाने की छटपटाहट में दलदल में उतरता जाता है? लेकिन बाद में लगा इतना सोचने की ज़रूरत नहीं शायद। क्योंकि यात्रा शुरू भले किसी भी सिरे से भी हो, दृष्टि को पूरे रास्ते को वहन करना पड़ता है। आख़िर चलते हुए हमें उस अंतर्यात्रा की तैयारी भी करनी होती है न, जो यात्रा ख़त्म होने के बाद आरंभ होती है… और कहना न होगा कि आपकी पहली कहानी भी ऐसी कई यात्राएं-अंतर्यात्राएं अपने भीतर समेटे है, जो अपनी कसौटी अपने आप हैं।

    यात्रा जारी रहे। अशेष शुभकामनाएँ

    उपमा ऋचा

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक