पद्मिनी कथा, देशज ऐतिहासिक कथा-काव्य और जायसी
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पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण पर एकाग्र ऐतिहासिक कथा-काव्यों का कथा स्रोत एक ही कथा बीजक पर निर्भर है और इनकी कथा योजना समान कथा बीजक के बावजूद एक-दूसरे से भिन्न और ख़ास तरह की है. पद्मिनी-रत्नसेन का कथा बीजक सदियों से गुजरात सहित उत्तरी-पश्चिमी भारत के कुछ इलाकों में प्रचलित था और इसके आधार पर कथा-काव्य रचना की यहाँ सुदीर्घ परंपरा रही है. बीसवीं सदी के छठे-सातवें दशक में जायसी के पद्मावत सहित पारंपरिक कथा-काव्यों पर विचार की शुरुआत हुई और अधिकांश विद्वानों ने पद्मिनी-रत्नसेन कथा को कल्पित मानकर इसकी सर्वप्रथम कल्पना का श्रेय मलिक मुहम्मद जायसी को दे दिया. जायसी पारंपरिक कथा-काव्यों के लेखकों की तुलना में अधिक ऊँची कोटि के कवि और विद्वान् थे और जार्ज ग्रियर्सन, रामचंद्र शुक्ल, वासुदेवशरण अग्रवाल और विजयदेवनारायण साही जैसे बड़े विद्वानों की निगाह में चढ़ चुके थे, इसलिए यह धारणा मान्य भी हो गई. वस्तुस्थिति यह है कि जायसी से बहुत पहले ही यह कथा बीजक लोक स्मृति में था और अधिक संभावना यही है कि जायसी ने भी अपनी कथा इस पारंपरिक कथा बीजक को आधार बनाकर गढ़ी होगी.
1.
रत्नसेन-पद्मिनी का कथा बीजक सदियों से लोक और साहित्य में ‘मान्य सच’ की तरह था, लेकिन इस वृत्तांत पर 1928 ई. में राजस्थान के आधुनिक इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपने उदयपुर राज्य का इतिहास में विचार किया और सबसे पहले यह निष्कर्ष निकाला कि भाटों ने यह कथा जायसी से ली है.1 इससे पहले, तीन प्रमुख आधुनिक इतिहासकार- लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड, श्यामलदास और वी.ए. स्मिथ इस प्रकरण पर विचार कर चुके थे, लेकिन उन्होंने इस संबंध में कहीं भी जायसी का उल्लेख इस कथा की सर्वप्रथम कल्पना करने वाले के रूप में नहीं किया.
जेम्स टॉड (1829 ई.) ने अपने राजस्थान के पहले आधुनिक इतिहास एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान में इस प्रकरण पर विचार किया, लेकिन प्रकरण के लिए वे राजस्थान के खुम्माणरासो सहित कई पारंपरिक ऐतिहासिक कथा-काव्यों के ऋणी थे. उन्होंने इसकी भूमिका में यह उल्लेख भी किया.2 प्रकरण की उनकी कथा कमोबेश वही है, जो जायसी के पद्मावत में है, लेकिन यह तय है कि टॉड को जायसी के पद्मावत के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी और जिन पारंपरिक स्रोतों से उन्होंने यह कथा ली, उनका भी जायसी से कोई संबंध नहीं था.
टॉड के अनुसार
“चित्तौड़ का अल्पवयस्क राजा लखमसी 1275 ई. में सत्तारूढ़ हुआ. उसका चाचा भीमसी उसकी अल्प अवस्था में शासन करता था, जिसने श्रीलंका के शासक हमीरसिंह चौहान की पुत्री पद्मिनी से विवाह किया.”3
यदि टॉड को पारंपरिक कथा-काव्यों की जायसी की पद्मावत पर निर्भरता के संबंध में जानकारी होती, तो वे रत्नसिंह की जगह भीमसिह उल्लेख नहीं करते. ख़ास बात यह है कि अधिकांश पारंपरिक स्रोतों में पद्मिनी से विवाह कर अलाउद्दीन के साथ युद्ध करने वाले शासक के रूप में रत्नसिंह का ही उल्लेख है. दरअसल टॉड के समय तक मेवाड़ की कोई मान्य वंशावली उपलब्ध नहीं थी और वे इस संबंध में वह काफ़ी उलझन में थे, इसलिए उन्होंने रत्नसिंह की जगह भीमसिंह लिख दिया. उनके इतिहास में ऐसी और कई त्रुटियाँ रह गई हैं.
टॉड के बाद श्यामलदास (1886 ई.) ने वीरविनोद नामक मेवाड़ का इतिहास लिखा और वे भी रत्नसिंह के बाद शुरू हुई रावल और राणा शाखा के शासकों को लेकर उलझन में थे, लेकिन समरसिंह के बाद सतारूढ़ रत्नसिंह की अलाउद्दीन ख़लजी से पद्मिनी को लेकर होने वाली लड़ाई को लेकर आश्वस्त थे. उन्होंने भी जायसी का उल्लेख इसकी सर्वप्रथम कल्पना करने वाले के रूप में नहीं किया. उन्होंने भी जायसी के पद्मावत की गणना ‘बड़वा-भाटों और ख्याति की पोथियों’ के साथ की. प्रकरण का उनका विवरण हेमरतन और अन्य पारंपरिक कथा-काव्यों के साथ अबुल फ़ज़ल आदि फ़ारसी तवारीख़ों पर निर्भर है. ख़ास बात यह है कि वे पद्मावती के सिंघल द्वीप की होने पर भी अविश्वास नहीं करते. उनके अनुसार
“पद्मावती की बाबत कई किस्से मशहूर हैं. बाजे लोगों का कौल है कि रावल रत्नसिंह की महारानी सिंघल द्वीप के राजा की बेटी थी. सौ खैर इसका तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि बहुत समय से सिंघल-उक्त टापू के राजा सूर्यवंशी थे, और उनके साथ चित्तौड़ के राजा का संबंध होना संभव था; लेकिन मलिक मुहम्म्द जायसी वगैरह ने कई बड़े-बड़े खयाली किस्से गड़ लिए हैं, जिनसे हमको कुछ प्रयोजन नहीं.”4
उनका प्रकरण का ‘अस्ल’ विवरण इस तरह है कि रावल रत्नसिंह की
“महाराणी के पीहर का रघुनाथ नामी एक मुलाजिम जो बड़ा जादूगर था, और रावल रत्नसिंह के पास रहकर अनेक चेटक दिखलाने से उसको खुश करता था, एक बार रावल रत्नसिंह की नाराजगी के सबब मुल्क से निकाल दिया गया. उसने दिल्ली पहुँचकर अपनी जादूगरी के जरिए से बादशाह अलाउद्दीन खल्जी के दरबार में रहने का दरजह हासिल किया, और वह खिल्वत के रूप में बादशाह के सामने राणी पद्मावती के रूप की तारीफ करने लगा. बादशाह भी चित्तौड़ पर चढ़ाई करने का बहाना ढूँढ ही रहा था, रावल रत्नसिंह को लिख भेजा, कि राणी पद्मिनी को यहाँ भेज दो, यह पढ़कर रत्नसिंह मारे क्रोध के आग का पुतला बन गया, और बादशाह के उस पत्र का बहुत ही सख्त जवाब लिख भेजा, कि जिसको सुनकर अलाउद्दीन बड़ा गुस्से में आया. एक तो मज्हबी तअस्सुब, दूसरे रणथम्भोर व शिवाणा वगैरह किलों की फतह का गुरूर, तीसरे घर के भेदू रघुनाथ जादूगर का जा मिलना, और चौथे किला चित्तौड़ दक्षिण हिन्दुस्तान पर बादशाही कब्जे के लिये रोक होना, वगैरह कारणों से विक्रमी 1359 (हि. 702 = ई. 1302) में बादशाह ने बड़ी भारी फ़ौज के साथ दिल्ली से रवाना होकर किले चित्तौड़ को आ घेरा. रावल रत्नसिंह ने लड़ाई की खूब तय्यारियाँ कर ली थीं, और मजहबी जोश के सबब से इलाकेदारों के सिवा दूसरे राजपूत भी हजारों एकट्ठे हो गये थे. रावल के आदमी किले से बाहिर निकलकर बादशाही सेना पर हमले करने लगे, जिसमें दोनों ओर के हजारों बहादुर मारे गये, आखिरकार बादशाह ने रावल के पास यह पैगाम भेजा, कि हमको थोड़े से आदमियों के साथ किले में आने दो, कि जिससे हमारी बात रह जावे, फिर हम चले जायेंगे. रावल रत्नसिंह ने इस बात को कबूल करके सौ-दो-सौ आदमियों सहित बादशाह को किले में आने दिया, लेकिन बादशाह दगाबाजी का दाव खेलने के लिए अपनी नाराजगी को छिपाकर रत्नसिंह की तारीफ करने लगा, और विदा होते समय जब रत्नसिंह उसे पहुँचाने को निकला, तो उसका हाथ पकड़कर मुहब्बत की बातें करता हुआ आगे को ले चला. रावल उसके धोखे में आकर दुश्मनी को भूल गया, और किले के दरवाजे से कुछ कदम आगे निकल गया, जहाँ कि बादशाह की फ़ौज खड़ी थी. बादशाह तुरन्त ही रावल को गिरफ्तार करके डेरों में ले आया. किलेवालों ने बहुतेरी कोशिश की, कि रावल को छुड़ा लेवें, लेकिन बादशाह ने उनको यही जवाब दिया, कि बगैर पद्मावती देने के रत्नसिंह का छुटकारा न होगा, तब तमाम राजपूतों ने एकत्र होकर अपनी अपनी बुद्धि के मुवाफिक सलाह ज़ाहिर की, लेकिन पद्मावती के भाई गोरा व बादल ने कहा, कि बादशाह ने हमारे साथ दगाबाजी की है, इसलिये हमको भी चाहिये, कि उसी तरह अपने मालिक को निकाल लावें; और इस बात को सबों ने कुबूल किया. तब इन दोनों बहादुरों ने बादशाह से कहलाया, कि पद्मिनी इस शर्त पर आप के पास आती है कि पहिले वह रत्नसिंह से आखरी मुलाकात कर लेवे. बादशाह ने कस्म खाकर इस बात को कुबूल किया इस पर गोरा व बादल ने एक महाजान और 800 डोलियों में शस्त्र रखकर हर एक डोली के उठाने के लिये सोलह-सोलह बहादुर राजपूतों को कहारों के भेस में मुकर्रर कर दिया, और थोड़ी सी जमइयत लेकर आप भी उन डोलियों के साथ हो लिये. बादशाह की इजाजत से ये सब लोग पहिले रावल रत्नसिंह के पास पहुँचे; जनानह बन्दोबस्त देखकर शाही मुलाजिम हट गये. किसी को दगाबाजी का ख्याल न हुआ, और इस हलचल में राजपूत लोगों ने रत्नसिंह को घोड़े पर सवार करके बादशाही लश्कर से बाहिर निकाला. जब वह बहादुर लश्कर से निकल गया, तो वे बनावटी कहार याने बहादुर राजपूत डोलियों से अपने-अपने शस्त्र निकालकर लड़ाई के लिये तय्यार हो गये. बादशाह ने भी अपनी दगाबाजी से राजपूतों की दगाबाजी को बढ़ी हुई देखकर अफसोस के साथ फौज को लड़ाई का हुक्म दिया. गोरा व बादल, दोनों भाई अपने साथी बहादुर राजपूतों समेत मरते-मारते किले में पहुँच गये. कई एक लोग कहते हैं, कि गोरा रास्ते में मारा गया, और बादल किले में पहुँचा; और बाजों का कौल है, कि दोनों इस लड़ाई में मारे गये, परन्तु तात्पर्य यह कि इन खैरख्वाह राजपूतों ने अपने मालिक को बादशाह की क़ैद से छुड़ाकर किले में पहुँचा दिया, और फिर लड़ाई शुरू हो गई. आखरकार हिज्री 703 मुहर्रम (विक्रमी 1660 भाद्रपद = ई. 1303 अगिस्ट) में अलाउद्दीन ने चारों तरफ से किले पर सख्त हमला किया. इस वक्त रावल रत्नसिंह ने सामान की कमी के सबब लकड़ियों का एक बड़ा ढेर चुनकर राणी पद्मिनी और अपने जनानखानह की कुल स्त्रियों तथा राजपूतों की औरतों को लकड़ियों पर बिठाकर आग लगा दी. हजारों औरत व बच्चों के आग में जल मरने से राजपूतों ने जोश में आकर किले के दर्वाजे खोल दिये, और रावल रत्नसिंह मय हज़ार राजपूतों के बड़ी बहादुरी के साथ लड़कर मारा गया. बादशाह ने भी नाराज होकर कत्ले आम का हुक्म दे दिया; और 6 महीना 7 दिन तक लड़ाई रहकर हिज्री 703 ता. 3 मुहर्रम (विक्रमी 1660 भाद्रपद शुक्ल 4 = ई.1303 ता.18 अगिस्ट) को बादशाह ने किला फतह कर लिया. इसके बाद बादशाह अपने बेटे खिजरखां को किला सौंपकर वापस लौट गया.”5
स्पष्ट है कि श्यामलदास ने जायसी को पूर्व में प्रचलित इस प्रकरण को कल्पना से विस्तार देने वालों के साथ स्मरण तो किया, लेकिन उन्होंने उसे इस प्रकरण की पहली बार कल्पना का श्रेय नहीं दिया. उन्होंने यह भी कहीं नहीं लिखा कि चारण-भाटों और अन्य आख्यानकारों ने इसको जायसी से लिया. श्यामलदास प्रकरण की ऐतिहासिकता पर संदेह नहीं करते, अलबत्ता वे जायसी आदि द्वारा किए गए इसके अतिरंजित विस्तार को इतिहास नहीं मानते. श्यामलदास ने राघवचेतन के लिए ‘रघुनाथ’ संज्ञा प्रयुक्त की है, जबकि जायसी सहित सभी पारंपरिक स्रोतों में उसका नाम राघवचेतन है. इससे यह लगता है कि श्यामलदास के ध्यान में इन ज्ञात स्रोतों के साथ कोई और स्रोत भी रहा होगा.
टॉड के बाद ऑक्सफ़ोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में वी.ए. स्मिथ (1921 ई.) ने लगभग टॉड को दोहराते हुए इस प्रकरण का संक्षिप्त विवरण दिया. ख़ास बात यह है कि उन्होंने भी कहीं भी इस कथा की कल्पना के लिए जायसी को श्रेय नहीं दिया. उन्होंने लिखा कि
“1303 के चित्तौड़ के साके के विषय में राजपूत भाटों द्वारा अंकित की गई रोमांटिक जनश्रुतियों को टॉड के पन्नों में पढ़ा जा सकता है. उन्हें गंभीर इतिहास (sober history) नहीं माना जा सकता है और यहाँ उद्धृत किए जाने के लिहाज़ से वे बहुत लंबी भी हैं. लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि रक्षकों ने पारंपरिक शैली से अपनी आख़िरी लड़ाई लड़ते हुए अपने प्राणों का बलिदान दिया और उनकी मृत्यु से पहले “वह भयानक संस्कार (हुआ), जिसमें महिलाओं को अपवित्रता या क़ैद से बचने के लिए आहुति देनी पड़ती है. जहाँ दिन का उजास भी नहीं पहुँचता है, ऐसी अभेद्य सुरंग में चिता प्रज्वलित की गई और चित्तौड़ के रक्षकों ने एक जुलूस के रूप में हज़ारों की संख्या में अपनी पत्नियों और बेटियों को वहाँ भेजा…उन्हें सुरंग तक ले जाया गया और फिर उसे मूँद दिया गया तथा उन (स्त्रियों) को असम्मान से अपनी रक्षा के लिए मौत के हवाले कर दिया गया.”
टॉड ने प्रवेश द्वार का अवलोकन तो किया, लेकिन उसने उस पवित्र सुरंग में जाने का कोई प्रयास नहीं किया.”6
Badhiya vishleshan
जायसीकृत महाकाव्य पद्मावत की वास्तविक कथा और इस कथा का इतिहास से क्या तालमेल है-जानना-समझना जरूरी है। क्योंकि समाज में भ्रम फैलाकर कुछ लोगों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वीरता गौरव का विषय है, मगर इसका इस्तेमाल निहित स्वार्थ के लिए न हो, यह सरकार की जिम्मेदारी है।
इसलिए इतिहास की वास्तविकता को सामने रखना जरूरी है। कवि तो हमेशा कल्पना का सहारा लेता ही है।
एक बैठक में पढ़ गया। बहुत समृद्ध और शोधदृष्टि से परिपूर्ण आलेख है।
किसी मिथकीय आख्यान के ऐतिहासिक श्रोतों की खोज एक श्रमसाध्य कार्य है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं दिखाई देती।मध्य-काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के लश्कर में इतिहास लेखक भी होते थे। अल बेरूनी महमूद गजनी के कई अभियानों में सुल्तान के साथ था। माधव जी के इस शोधपरक लेख के लिए उन्हें बधाई।
भारत में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नही है।अनुरोध है कि इस औपनिवेशिक धारणा पर इस पर पुर्विचार करें। इतिहास लेखन हमारा अपनी एक पद्धति है जो यूरोप और इस्लामी इतिहास लेखन की पद्धति से अलग है। टैगोर के विचार इस संबंध शायद आपको प्रासंगिक लगेंगे, जो इस तरह हैं-
“दरअसल इस अंध विश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।”
फिर भी ख़त्म नहीं होती ज़िम्मेदारियाँ
कि उलझा हुआ है स्थिर और चलित का समीकरण
अभी कटघरे में खड़ा है इतिहास
जिस पर अजीब से आरोप हैं
कि उसने चुराए हैं शास्त्रों से कुछ शब्द
कुछ मिथक छीन लिए हैं गाथाओं से
तथ्य उठा लाया वह मुँह अंधेरे
जब यह दुनिया अज्ञान का कंबल ओढ़े सो रही थी
शायद उसे फिर लिखे जाने की सज़ा मिले
सौंप दी जाए कलम फिर इतिहासकारों के हाथ में
भाषा लिपि और शिल्प जुगाड़ दे कम्प्यूटर
पुरातत्त्ववेत्ताओं को तथ्य जुटाने का आदेश मिले
प्रश्न यह नहीं कि यह उनका कार्यक्षेत्र है या नहीं
और इस तरह इतिहास में सीधे सीधे हस्तक्षेप में
और सभ्यता और संस्कृति और परम्परा सब पर
अपने ढंग से कहने में
जोखिम है या नहीं
यह बात अलग है कि ख़तरे वहाँ भी हैं
जहाँ वे होते हुए भी नहीं दिखाई देते
और आँख मूँद लेने का अर्थ विश्वास नहीं
शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता ‘से यह
सर्वप्रथम मैं माधव हाड़ा जी को इस विस्तृत शोध परक आलेख के लिए बधाई देना चाहता हूं ।इतिहास में ऐसे बहुत सारे विवाद हैं । जहां तक फार्मूले की बात है लोक में ऐसे कई फार्मूले चलते थे जिनके आधार पर कथाएं कही जाती थी जैसे कि किसी राजा की स्त्री का हरण, जो हमारे यहां की रामायण से लेकर तो इलियड की कथा में भी मिलती है जहां पर हेलन का अपहरण किया जाता है ।
वैसे ही अन्य कथाएं भी हैं जो हमारे यहां का दुर्योधन है वह ग्रीक मायथोलॉजी मेंएकिलीज़ है । मध्यकालीन इतिहास के अभिलेख बहुत कम मिलते हैं इसलिए लोक कथाओं , किंवदंतियों इत्यादि का सहारा लेना ही पड़ता है ।साहित्यिक स्त्रोत इतिहास लेखन हेतु काफी नहीं होते। उन पर विवाद भी स्वाभाविक है क्योंकि कल्पना का पुट अधिक होता है ।
अतः आज की स्थिति में बात उसी समय होती है जब उस पर कोई विवाद होता है अन्यथा ऐसी चीजें छुपी ही रहती है ।फिर वह सलीम अनारकली का किस्सा हो या शीरी फरहाद, लैला मजनू आदि । प्रश्न तो सभी पर खड़े किए जाते हैं । स्थानीय स्तर पर आप जाएं या प्राचीन किलो में तो आपको वहां के स्थानीय लोग और गाइड नए किस्से सुनाएंगे जो आपको बिल्कुल इतिहास की तरह दिखेंगे । इसलिए ऐसी चीजों को लेकर बहुत हार्ड एंड फास्ट नहीं होना चाहिए ।ऐसा मेरा विचार है ।
हां शोध अवश्य होते रहने चाहिए जैसे कि हाड़ा जी ने किया है । सामान्य रूप से जिन्हें दिलचस्पी होती है या जो साहित्य इतिहास किंवदंती, लोक कथाओं इत्यादि में फर्क करना जानते हैं वे इस में रुचि लेते ही हैं।
शरद कोकास
आभार !
आदरणीय हाडा सर के इस कार्य का मैं साक्षी रहा हूँ। उन्होंने संस्कृत आदि स्रोतों की प्रामाणिकता को लेकर बहुत गम्भीरता बरती है। इस प्रकार का वास्तविक शोधकार्य होता जा रहा है।
आभार ! आपके सहयोग के बिना यह संभव नहीं था।
इतिहास और पुराणों के माध्यम से वेद का उपबृंहण या विस्तार होता है। वेद के कथा बीज इतिहास, पुराण और परवर्ती साहित्य में फैले हुए हैं। रामायण, महाभारत और सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित के रूप में प्राचीन पौराणिक कथा सूत्र कविसमय, उन्मेष और परम्परा के साथ भारत के जातीय इतिहास को पीढी दर पीढी आगे बढाते गये। श्रुति से निकलने वाली परम्परा को अभिलेखों में ढूँढ कर उनकी अनुपलब्धि पर उसके इतिहास को नकार देने के अपने आग्रह हैं। कथा बीजों की रससिद्धि कवि कल्पना के साथ होती है । हजारों साल से कथाव्यास कथाबीज के समास का व्यास करते आ रहे हैं इसलिए इनके संवादों में कालान्तर में बहुत कुछ समाता चला गया । 8000 श्लोकों की जयसंहिता एकलाख श्लोकों में फैल कर महाभारत बन गई । भागवतों के प्रभाव से गीता आदि मूल बीज से एकाकार हो गये । सूत मागध चारण भाट इस परंपरा के निरन्तर उत्तराधिकारी रहे । देश के हर नागर ग्राम्य आदिवासी कोने में कथा सहस्राब्दियों से सहस्रमुखों से गाई और सुनाई जा रही है। ये कथायें इतिहास शोधकों या साहित्य आलोचकों के लिए नहीं अपितु जन रंजन सहित दुःखार्त शोकार्त श्रमार्त्त मनुष्यों की विश्रान्ति के लिए सुनाई जा रही हैं। यदि आपको चाहिए तो आप अपना चश्मा साफ करके इनके एडीसन तैयार कीजिए । भारतविद्या का मर्म अध्यवसाय से ही जाना जाएगा । भारतीय कसौटी पर इतिहास ढूंढने के लिए शास्त्र के साथ लोक (देसज) और प्रवाही परम्परा की समझ भी होनी जरूरी है। गोमुख से निकलकर गंगासागर जाने वाली पूरी गंगा ही है परन्तु गंगोत्री गए बिना कानपुर के गंगाजल की कसौटी पर गंगा को परखना अनुचित होगा । प्रो. माधव हाडा ने जो अत्यन्त श्रमसाध्य काम किया है वह निस्संदेह प्रशंसनीय और वर्धापनार्ह है। लोक में जगह बनाना आसान नहीं है, न तो इससे अधिक कोई उदार है और न ही निष्ठुर और निर्मम । लोक का प्रवाह सबको समेट कर बहता और बहाता है, चाहे तो किनारे भी लगा देता है । इस प्रवाह में इतिहास भी सदा से बहता चला आ रहा है, घाट सबके अपने अपने है। संग्रहणीय और शोधपूर्ण लेख के लिए हाडा जी को बधाई ।
नीरज
आभार!