5.
जायसी की पद्मावत राजस्थान के पारंपरिक पद्मिनी कथा-काव्यकारों की पहुँच में नहीं थी, यह इससे भी प्रमाणित है कि गुजरात सहित उत्तरी-पश्चिमी भारत के किसी ग्रंथागार में पद्मावत की कोई पांडुलिपि उपलब्ध नहीं है.26 यह भी कि यहाँ के किसी कवि-कथाकार ने जायसी की पद्मावत को उद्धृत नहीं किया है, जबकि यहाँ के पारंपरिक कथा-काव्यों में ऐसी परंपरा थी. राजस्थान के चारण-भाट और जैन यति-मुनि दूरस्थ क्षेत्रों की यात्राएँ करते थे और पांडुलिपियों की प्रतियाँ बनाकर अपने पारंपरिक ग्रंथागारों में सुरक्षित रखते थे. राजस्थान-गुजरात आदि के ग्रंथागार प्राचीन पांडुलिपियों के मामले में बहुत समृद्ध हैं. इन ग्रंथागारों में बनारस और ढाका तक में लिपिबद्ध पांडुलिपियाँ हैं. दामोदर पंडित की उक्तिव्यक्तिप्रकरण की पांडुलिपि पाटन, गुजरात में संग्रहीत है. भोज की शृगारमंजरीकथा की पांडुलिपि जैसलमेर के ग्रंथागार में है. छिताई वार्ता की इलाहाबाद और होशियारपुर में संग्रहीत पांडुलिपियों की प्रति बीकानेर में भी है. आश्चर्यजनक यह है कि पद्मावत, जिसको आधुनिक इतिहासकार और विद्वान् राजस्थान में प्रभावकारी मानते हैं, उसकी कोई पांडुलिपि राजस्थान के किसी ग्रंथागार में नहीं है. प्राचीन साहित्य के अध्येता और विख्यात पुरातत्त्ववेत्ता मुनि जिनविजय ने भी इस संबंध में लिखा है कि
“जैन विद्वान् यति जो उस समय दिल्ली, पंजाब, बिहार और बंगाल आदि के पूर्व और उत्तर प्रदेशों में भी यथेष्ट विचरण करते रहते थे और साहित्य का संकलन, आकलन आदि निरंतर करते रहते थे, यदि उनकी जानकारी में जायसी की यह रचना आती, तो वे अवश्य इसकी प्रतिलिपि आदि कर लेते.”27
जायसी ने पद्मावत 1540 ई. में पूर्ण किया और इसके ठीक 48 वर्ष बाद हेमरतन ने 1588 ई. में गोरा-बादल पदमिणी चउपई लिखी. ऐसे समय में जब आवागमन और संचार के साधन नहीं थे, महज़ 50 वर्ष की अवधि में जायस (अवध) में लिखी हुई रचना की कथा का 600-700 मील दूर राजस्थान के पाली जिले के सादड़ी क़स्बे में चातुर्मास कर रहे जैन यति तक पहुँच जाना संभव नहीं लगता. यह तब और भी मुश्किल है, जब उसकी लिपि फ़ारसी है. यह कथा जायसी कल्पित है और राजस्थान के पारंपरिक कथा-काव्यों में यहीं से आई है, यह धारणा निराधार है और केवल आधुनिक इतिहासकारों का पूर्वाग्रह है. यह राय रखने वालों में से अधिकांश इतिहास और साहित्य के विद्वानों को पारंपरिक पद्मिनी-रत्नसेन विषयक कथा-काव्यों और राजस्थान के लोक जीवन में इसके कथा बीजक की सदियों से मौजूदगी के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी. उन्होंने इन कथा-काव्यों को जाने-समझे बिना ही इनकी पद्मावत पर निर्भरता का निष्कर्ष निकाल लिया. इनमें से गौरीशंकर ओझा को इन पारंपरिक कथा-काव्यों की जानकारी थी, लेकिन फिर भी वे इस निष्कर्ष पर इसलिए पहुँचे कि एक तो उनके समय तक अधिकांश पारंपरिक स्रोत उजागर नहीं हुए थे और दूसरे, कुछ हद तक आधुनिक इतिहास के ‘प्रत्यक्ष’ और ‘आनुभविक’ का आग्रह उनमें भी था. रम्या श्रीनिवासन ने कालिकारंजन कानूनगो और रजत दत्ता की तरह आत्मविश्वासपूर्वक कुछ भी नहीं कहा. रम्या श्रीनिवासन ने अधिकांश पारंपरिक स्रोतों को देखा-समझा था, वे जायसी की पद्मावत से इनकी भिन्नता से अवगत थीं, इसलिए उन्होंने कथा अवध से राजस्थान आई या राजस्थान से अवध गई, इस संबंध में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला.28 कदाचित् जानती वे भी थीं कि इन पारंपरिक कथा-काव्यों की जैसी कथावस्तु, शैली और ढाँचा है, उससे तो यही लगता है कि जायसी ने अपनी कथा यहीं से ली होगी, लेकिन उनकी यह स्वीकृति उनको ‘आधुनिकों’ के बीच में ‘अलग’ कर देती, इसलिए उन्होंने ऐसा कहने से परहेज़ किया.
पद्मिनी-रत्नसेन विषयक पारंपरिक देशज कथा-काव्यों में जायसी को कहीं भी उद्धृत नहीं किया गया, जबकि इनमें पूर्व में ख्यात रचना के प्रसिद्ध कथनों को उद्धृत करने की परंपरा थी. यदि पद्मावत राजस्थान में भी लोकप्रिय होती या पारंपरिक काव्य-कथाकार उससे अवगत होते तो ज़रूर उसके प्रसिद्ध कथनों-उक्तियों का अपनी रचनाओं में उद्धृत करते. यह परंपरा थी- कवि-कथाकार जिस रचना में प्रवृत्त होता, वह पहले उसकी परंपरा को देखता-समझता. लब्धोदय और हेमतरन ने पूर्वकथा के आधार पर अपनी कथा कहने की बात कही है. हेमरतन ने लिखा है कि- सुणिउ तिसौ भाष्यौ संबंधि अर्थात् मैंने जैसा सुना है, वैसा ही संबंध कहा है.29 लब्धोदय ने कहा कि- कहस्यू कवित्त कल्लोल सूँ पूर्व कथा संपेख अर्थात् प्रसन्नतापूर्वक पूर्व कथा को देखकर कहूँगा.30 यदि वे दोनों पद्मावत की कथा से अवगत होते तो, वे यथावश्यकता इस पूर्वकथा की प्रसिद्ध उक्तियों और नीति कथनों को अपनी रचनाओं में यथावत उद्धृत करते. हेमरतन और लब्धोदय ने अपनी रचनाओं में गोरा-बादल कवित्त के कुछ अंश उद्धृत किए हैं. इसी तरह हेमरतन के कुछ प्रसिद्ध कथनों-उक्तियों को लब्धोदय और दलपति विजय ने उद्धृत किया है. ध्यान देने योग्य बात यह है कि इनमें से किसी ने भी, कहीं भी जायसी को उद्धृत नहीं किया.
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण राजस्थान लोक जीवन में बहुत पहले से कथा बीजक या कथा ज्ञापक के रूप में विद्यमान था. इस प्रकरण पर लिखे गए ऐतिहासिक कथा-काव्य इसी बीजक-ज्ञापक पर आधारित हैं. जायसी ने अपना पद्मावत भी इसी बीजक को आधार बनाकर लिखा. राजस्थान ही नहीं, हमारे देश के अधिकांश भागों में कथा बीजक की परंपरा रही है. ऐतिहासिक व्यक्तित्व और ख्यात घटनाएँ लोक स्मृति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी यात्रा करती थीं और धीरे-धीरे समयानुसार ये संक्षिप्त और सरल होती जाती थीं. स्मृति में रहने वाली इन घटनाओं-प्रकरणों और व्यक्तियों को कथा बीजक कहा जाता था. लोग अपनी प्रतिभा और ज्ञान के आधार पर इन बीजकों का पल्लवन और विस्तार करते थे. यह पल्लवन और विस्तार कभी मौखिक होता था, तो कभी कोई कवि-कथाकार अपनी प्रतिभा और विवेक से इनको लिखित रूप भी देता था. एक ही बीजक एकाधिक व्यक्तियों के यहाँ अलग-अलग तरह से पल्लवित और विकसित होता था. यह भारतीय परंपरा के अनुसार था- ऋग्वेद के कई कथा बीजक बाद के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद ग्रंथों और परवर्ती साहित्य में विस्तारपूर्वक पल्लवित हुए हैं.31
भारतीय ऐतिहासिक कथा-काव्य परंपरा में विक्रमादित्य, भोज, सातवाहन, शूद्रक आदि कई ऐतिहासिक व्यक्तित्व कथा बीजक की तरह रहे हैं.32 जैन कथाकारों ने कथा बीजकों को आधार बनाकर कई रचनाएँ लिखीं. सतियों-साध्वियों के कथा बीजकों के आधार पर जैन यतियों-मुनियों की कई कथा रचनाएँ मिलती हैं. सती नर्मदा सुंदरी का कथा बीजक जैन यतियों-मुनियों में बहुत लोकप्रिय हुआ और इस पर कई रचनाएँ हुईं.33
पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण का कथा बीजक भी राजस्थान की लोक स्मृति में सदियों से था और इस पर कई कवित्त, छप्पय, सोरठा आदि प्रचलित थे और इनको आधार बनाकर काव्य-कथा रचना की यहाँ परंपरा भी थी. मुनि जिनविजय ने राजस्थान के लोक जीवन में पद्मिनी-रत्नसेन प्रकरण की स्मृति के साहित्य-इतिहास में व्यवहार पर अच्छी रोशनी डाली है. उन्होंने हेमरतन की गोरा-बादल पद्मिणी चउपई की भूमिका में लिखा कि
‘‘पद्मिनी विषयक कथा ज्ञापक, कवित्त आदि राजस्थान में प्राचीनकाल से प्रचलित थे. कवित्त, छप्पय, दोहा, सोरठा आदि मुक्तक पद्य राजस्थान के इतिहास और लोक जीवन में बीजक रहे हैं. इन बीजकों के आधार पर राजस्थान का प्राचीन इतिहास जनमानस में अपना स्थायी स्थान बनाए रखता था. इन्हीं बीजकों के आधार पर कथाकार-वार्ताकार आदि विज्ञ जन लोगों को अपनी जानी-सुनी कथा-कहानियाँ, बात-ख्यात आदि कहा करते थे और यह परा-पूर्व से सर्वत्र चला आता था. इनमें जो कोई कवि विशेष प्रतिभावाले व्यक्ति होते थे वे इन कथा बीजकों के आधार वाली कथा-वार्ताओं को कविताबद्ध भी कर लेते थे. पद्मिनी कथा को भी इसी तरह कथाकार रास, भास, प्रबंध, चउपई आदि रूप में स्थानिक लोगों के सम्मुख एक वीर, शौर्य और सतीधर्म की महत्ता बताये जाने वाली कथा के रूप में सुनाया करते थे. कवि लोग कविता के रूप में निबद्ध कर उसे एक स्थायी और अधिक व्यापक स्वरूप दे देते थे. जायसी, हेमरतन आदि कवि इसी प्रकार पद्मिनी की कथा को स्थायी स्वरूप देनेवाले कवि हैं. जिस प्रकार जायसी ने किन्हीं बीजकों के आधार पर अपनी पद्मावत कथा की रचना की, उसी प्रकार हेमरतन ने भी ऐसे ही किन्हीं बीजकों के आधार पर अपनी रचना की है.”34
Badhiya vishleshan
जायसीकृत महाकाव्य पद्मावत की वास्तविक कथा और इस कथा का इतिहास से क्या तालमेल है-जानना-समझना जरूरी है। क्योंकि समाज में भ्रम फैलाकर कुछ लोगों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वीरता गौरव का विषय है, मगर इसका इस्तेमाल निहित स्वार्थ के लिए न हो, यह सरकार की जिम्मेदारी है।
इसलिए इतिहास की वास्तविकता को सामने रखना जरूरी है। कवि तो हमेशा कल्पना का सहारा लेता ही है।
एक बैठक में पढ़ गया। बहुत समृद्ध और शोधदृष्टि से परिपूर्ण आलेख है।
किसी मिथकीय आख्यान के ऐतिहासिक श्रोतों की खोज एक श्रमसाध्य कार्य है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं दिखाई देती।मध्य-काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के लश्कर में इतिहास लेखक भी होते थे। अल बेरूनी महमूद गजनी के कई अभियानों में सुल्तान के साथ था। माधव जी के इस शोधपरक लेख के लिए उन्हें बधाई।
भारत में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नही है।अनुरोध है कि इस औपनिवेशिक धारणा पर इस पर पुर्विचार करें। इतिहास लेखन हमारा अपनी एक पद्धति है जो यूरोप और इस्लामी इतिहास लेखन की पद्धति से अलग है। टैगोर के विचार इस संबंध शायद आपको प्रासंगिक लगेंगे, जो इस तरह हैं-
“दरअसल इस अंध विश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।”
फिर भी ख़त्म नहीं होती ज़िम्मेदारियाँ
कि उलझा हुआ है स्थिर और चलित का समीकरण
अभी कटघरे में खड़ा है इतिहास
जिस पर अजीब से आरोप हैं
कि उसने चुराए हैं शास्त्रों से कुछ शब्द
कुछ मिथक छीन लिए हैं गाथाओं से
तथ्य उठा लाया वह मुँह अंधेरे
जब यह दुनिया अज्ञान का कंबल ओढ़े सो रही थी
शायद उसे फिर लिखे जाने की सज़ा मिले
सौंप दी जाए कलम फिर इतिहासकारों के हाथ में
भाषा लिपि और शिल्प जुगाड़ दे कम्प्यूटर
पुरातत्त्ववेत्ताओं को तथ्य जुटाने का आदेश मिले
प्रश्न यह नहीं कि यह उनका कार्यक्षेत्र है या नहीं
और इस तरह इतिहास में सीधे सीधे हस्तक्षेप में
और सभ्यता और संस्कृति और परम्परा सब पर
अपने ढंग से कहने में
जोखिम है या नहीं
यह बात अलग है कि ख़तरे वहाँ भी हैं
जहाँ वे होते हुए भी नहीं दिखाई देते
और आँख मूँद लेने का अर्थ विश्वास नहीं
शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता ‘से यह
सर्वप्रथम मैं माधव हाड़ा जी को इस विस्तृत शोध परक आलेख के लिए बधाई देना चाहता हूं ।इतिहास में ऐसे बहुत सारे विवाद हैं । जहां तक फार्मूले की बात है लोक में ऐसे कई फार्मूले चलते थे जिनके आधार पर कथाएं कही जाती थी जैसे कि किसी राजा की स्त्री का हरण, जो हमारे यहां की रामायण से लेकर तो इलियड की कथा में भी मिलती है जहां पर हेलन का अपहरण किया जाता है ।
वैसे ही अन्य कथाएं भी हैं जो हमारे यहां का दुर्योधन है वह ग्रीक मायथोलॉजी मेंएकिलीज़ है । मध्यकालीन इतिहास के अभिलेख बहुत कम मिलते हैं इसलिए लोक कथाओं , किंवदंतियों इत्यादि का सहारा लेना ही पड़ता है ।साहित्यिक स्त्रोत इतिहास लेखन हेतु काफी नहीं होते। उन पर विवाद भी स्वाभाविक है क्योंकि कल्पना का पुट अधिक होता है ।
अतः आज की स्थिति में बात उसी समय होती है जब उस पर कोई विवाद होता है अन्यथा ऐसी चीजें छुपी ही रहती है ।फिर वह सलीम अनारकली का किस्सा हो या शीरी फरहाद, लैला मजनू आदि । प्रश्न तो सभी पर खड़े किए जाते हैं । स्थानीय स्तर पर आप जाएं या प्राचीन किलो में तो आपको वहां के स्थानीय लोग और गाइड नए किस्से सुनाएंगे जो आपको बिल्कुल इतिहास की तरह दिखेंगे । इसलिए ऐसी चीजों को लेकर बहुत हार्ड एंड फास्ट नहीं होना चाहिए ।ऐसा मेरा विचार है ।
हां शोध अवश्य होते रहने चाहिए जैसे कि हाड़ा जी ने किया है । सामान्य रूप से जिन्हें दिलचस्पी होती है या जो साहित्य इतिहास किंवदंती, लोक कथाओं इत्यादि में फर्क करना जानते हैं वे इस में रुचि लेते ही हैं।
शरद कोकास
आभार !
आदरणीय हाडा सर के इस कार्य का मैं साक्षी रहा हूँ। उन्होंने संस्कृत आदि स्रोतों की प्रामाणिकता को लेकर बहुत गम्भीरता बरती है। इस प्रकार का वास्तविक शोधकार्य होता जा रहा है।
आभार ! आपके सहयोग के बिना यह संभव नहीं था।
इतिहास और पुराणों के माध्यम से वेद का उपबृंहण या विस्तार होता है। वेद के कथा बीज इतिहास, पुराण और परवर्ती साहित्य में फैले हुए हैं। रामायण, महाभारत और सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित के रूप में प्राचीन पौराणिक कथा सूत्र कविसमय, उन्मेष और परम्परा के साथ भारत के जातीय इतिहास को पीढी दर पीढी आगे बढाते गये। श्रुति से निकलने वाली परम्परा को अभिलेखों में ढूँढ कर उनकी अनुपलब्धि पर उसके इतिहास को नकार देने के अपने आग्रह हैं। कथा बीजों की रससिद्धि कवि कल्पना के साथ होती है । हजारों साल से कथाव्यास कथाबीज के समास का व्यास करते आ रहे हैं इसलिए इनके संवादों में कालान्तर में बहुत कुछ समाता चला गया । 8000 श्लोकों की जयसंहिता एकलाख श्लोकों में फैल कर महाभारत बन गई । भागवतों के प्रभाव से गीता आदि मूल बीज से एकाकार हो गये । सूत मागध चारण भाट इस परंपरा के निरन्तर उत्तराधिकारी रहे । देश के हर नागर ग्राम्य आदिवासी कोने में कथा सहस्राब्दियों से सहस्रमुखों से गाई और सुनाई जा रही है। ये कथायें इतिहास शोधकों या साहित्य आलोचकों के लिए नहीं अपितु जन रंजन सहित दुःखार्त शोकार्त श्रमार्त्त मनुष्यों की विश्रान्ति के लिए सुनाई जा रही हैं। यदि आपको चाहिए तो आप अपना चश्मा साफ करके इनके एडीसन तैयार कीजिए । भारतविद्या का मर्म अध्यवसाय से ही जाना जाएगा । भारतीय कसौटी पर इतिहास ढूंढने के लिए शास्त्र के साथ लोक (देसज) और प्रवाही परम्परा की समझ भी होनी जरूरी है। गोमुख से निकलकर गंगासागर जाने वाली पूरी गंगा ही है परन्तु गंगोत्री गए बिना कानपुर के गंगाजल की कसौटी पर गंगा को परखना अनुचित होगा । प्रो. माधव हाडा ने जो अत्यन्त श्रमसाध्य काम किया है वह निस्संदेह प्रशंसनीय और वर्धापनार्ह है। लोक में जगह बनाना आसान नहीं है, न तो इससे अधिक कोई उदार है और न ही निष्ठुर और निर्मम । लोक का प्रवाह सबको समेट कर बहता और बहाता है, चाहे तो किनारे भी लगा देता है । इस प्रवाह में इतिहास भी सदा से बहता चला आ रहा है, घाट सबके अपने अपने है। संग्रहणीय और शोधपूर्ण लेख के लिए हाडा जी को बधाई ।
नीरज
आभार!