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समालोचन

Home » पद्मिनी कथा, देशज ऐतिहासिक कथा-काव्य और जायसी: माधव हाड़ा » Page 6

पद्मिनी कथा, देशज ऐतिहासिक कथा-काव्य और जायसी: माधव हाड़ा

रानी पद्मिनी की कथा में कितना इतिहास है और कितनी कल्पना यह विवाद का विषय और शोध का क्षेत्र है, महाकवि जायसी के ‘पदमावत’ के स्रोतों को लेकर भी संभ्रम की स्थिति है. क्या यह महाकाव्य उनकी सर्वांग कल्पना है या यह कथा उनसे पहले अलग-अलग रूपों में विद्यमान थी ? यह कथा किस तरह विकसित हुई, यह देखना रोचक है और इसे अन्वेषित करना श्रम और बड़े शोध का कार्य है. मध्यकालीन साहित्य के अध्येता और आलोचक माधव हाड़ा का यह आलेख ‘पद्मिनी’ अध्ययन में बहुत कुछ नया जोड़ता है.

by arun dev
October 17, 2021
in शोध
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6.

पद्मिनी-रत्नसेन कथा बीजक के आधार पर जायसी ने 1540 ई में और हेमरतन 1588 ई. में अपनी रचनाएँ कीं, लेकिन इससे पूर्व भी इस बीजक को कथा-काव्य का स्वरूप देने के उपक्रम होते रहे हैं. प्राचीन साहित्य के विशेषज्ञ और पाठ संपादनकर्ता अगरचंद नाहटा के संग्रह में गोरा-बादल कवित्त नामक एक 82 छंदों की रचना उपलब्ध है, जो इन दोनों से प्राचीन है.35 इस कृति का रचनाकार और रचना समय ज्ञात नहीं है, लेकिन एक तो इसके कवित्तों को परवर्ती सभी रचनाकारों ने उद्धृत किया है और दूसरे, इसकी भाषा और रचना शैली जायसी से पहले की है. गोरा-बादल कवित्त के कुछ कवित्त छंदों को पद्मिनी-गोरा-बादल प्रकरण पर कथा काव्य रचना करने वालों- हेमरतन (1588 ई.), लब्धोदय (1649 ई.) और दलपति विजय (1673-1712 ई.) ने अपनी रचनाओं में उद्धृत किया है.36

हेमरतन, लब्धोदय और दलपति विजय ने जिस तरह से इस रचना के कवित्तों को अपनी रचनाओं में उद्धृत किया है, उससे यह सिद्ध है कि यह जायसी-हेमरतन से पहले की, और पर्याप्त लोकप्रिय रचना थी. हेमरतन ने अपनी रचना में कुछ कवित्त गोरा-बादल कवित्त से अलग भी उद्धृत किए हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि इसके अलावा भी इस प्रकरण पर जायसी-हेमरतन से पहले रचनाएँ हुई थीं. गोरा-बादल कवित्त की रचना शैली और भाषा, दोनों जायसी-हेमरतन से प्राचीन है. इसकी भाषा प्राकृत-अपभ्रंश के निकट की भाषा है और इसमें वियोगात्मकता की प्रवृत्ति उस तरह से नहीं है, जिस तरह से यह परवर्ती देश भाषाओं में बढ़ गई है. हेमरतन केवल दूहा-चौपई इस्तेमाल कर रहा है, जबकि कवित्त में छंद वैविध्य पर्याप्त है. इसमें संस्कृत श्लोक का भी प्रयोग भी हुआ है. इसमें प्रयुक्त क्रिया पद- ग्रहंति, झालंति फुट्टई, तुट्टई आदि भी प्राकृत की तरह हैं.37 इसकी पुष्टि प्राचीन साहित्य के विशेषज्ञ मुनि जिनविजय और इतिहासकार दशरथ शर्मा ने भी की है. मुनि जिनविजय ने लिखा है कि

“इन कवित्तों के समय का कोई ज्ञापक निर्देश नहीं मिला, तथापि इनकी भाषा व रचना शैली से इतना तो ज्ञात होता है कि ये जायसी के समय से पूर्ववर्ती हैं.”38 इतिहासकार दशरथ शर्मा की राय भी यही है. उनके अनुसार ‘‘भाषा और शैली की दृष्टि से यह रचना पद्मावत से कुछ विशेष अर्वाचीन प्रतीत नहीं होती.”39

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Tags: पद्मावतीपद्मिनीमाधव हाड़ा
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Comments 12

  1. Hardeep Singh says:
    4 years ago

    Badhiya vishleshan

    Reply
  2. हीरालाल नागर says:
    4 years ago

    जायसीकृत महाकाव्य पद्मावत की वास्तविक कथा और इस कथा का इतिहास से क्या तालमेल है-जानना-समझना जरूरी है। क्योंकि समाज में भ्रम फैलाकर कुछ लोगों ने इसका गलत फायदा उठाया है। वीरता गौरव का विषय है, मगर इसका इस्तेमाल निहित स्वार्थ के लिए न हो, यह सरकार की जिम्मेदारी है।
    इसलिए इतिहास की वास्तविकता को सामने रखना जरूरी है। कवि तो हमेशा कल्पना का सहारा लेता ही है।

    Reply
  3. विशाल श्रीवास्तव says:
    4 years ago

    एक बैठक में पढ़ गया। बहुत समृद्ध और शोधदृष्टि से परिपूर्ण आलेख है।

    Reply
  4. दया शंकर शरण says:
    4 years ago

    किसी मिथकीय आख्यान के ऐतिहासिक श्रोतों की खोज एक श्रमसाध्य कार्य है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नहीं दिखाई देती।मध्य-काल में मुस्लिम आक्रमणकारियों के लश्कर में इतिहास लेखक भी होते थे। अल बेरूनी महमूद गजनी के कई अभियानों में सुल्तान के साथ था। माधव जी के इस शोधपरक लेख के लिए उन्हें बधाई।

    Reply
    • Madhav Hada says:
      4 years ago

      भारत में इतिहास लेखन की कोई परंपरा नही है।अनुरोध है कि इस औपनिवेशिक धारणा पर इस पर पुर्विचार करें। इतिहास लेखन हमारा अपनी एक पद्धति है जो यूरोप और इस्लामी इतिहास लेखन की पद्धति से अलग है। टैगोर के विचार इस संबंध शायद आपको प्रासंगिक लगेंगे, जो इस तरह हैं-
      “दरअसल इस अंध विश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। रॉथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहे: ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तांत न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इनकार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।”

      Reply
  5. शरद कोकास says:
    4 years ago

    फिर भी ख़त्म नहीं होती ज़िम्मेदारियाँ
    कि उलझा हुआ है स्थिर और चलित का समीकरण
    अभी कटघरे में खड़ा है इतिहास
    जिस पर अजीब से आरोप हैं
    कि उसने चुराए हैं शास्त्रों से कुछ शब्द
    कुछ मिथक छीन लिए हैं गाथाओं से
    तथ्य उठा लाया वह मुँह अंधेरे
    जब यह दुनिया अज्ञान का कंबल ओढ़े सो रही थी

    शायद उसे फिर लिखे जाने की सज़ा मिले
    सौंप दी जाए कलम फिर इतिहासकारों के हाथ में
    भाषा लिपि और शिल्प जुगाड़ दे कम्प्यूटर
    पुरातत्त्ववेत्ताओं को तथ्य जुटाने का आदेश मिले

    प्रश्न यह नहीं कि यह उनका कार्यक्षेत्र है या नहीं
    और इस तरह इतिहास में सीधे सीधे हस्तक्षेप में
    और सभ्यता और संस्कृति और परम्परा सब पर
    अपने ढंग से कहने में
    जोखिम है या नहीं

    यह बात अलग है कि ख़तरे वहाँ भी हैं
    जहाँ वे होते हुए भी नहीं दिखाई देते
    और आँख मूँद लेने का अर्थ विश्वास नहीं

    शरद कोकास की लंबी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता ‘से यह

    Reply
  6. शरद कोकास says:
    4 years ago

    सर्वप्रथम मैं माधव हाड़ा जी को इस विस्तृत शोध परक आलेख के लिए बधाई देना चाहता हूं ।इतिहास में ऐसे बहुत सारे विवाद हैं । जहां तक फार्मूले की बात है लोक में ऐसे कई फार्मूले चलते थे जिनके आधार पर कथाएं कही जाती थी जैसे कि किसी राजा की स्त्री का हरण, जो हमारे यहां की रामायण से लेकर तो इलियड की कथा में भी मिलती है जहां पर हेलन का अपहरण किया जाता है ।

    वैसे ही अन्य कथाएं भी हैं जो हमारे यहां का दुर्योधन है वह ग्रीक मायथोलॉजी मेंएकिलीज़ है । मध्यकालीन इतिहास के अभिलेख बहुत कम मिलते हैं इसलिए लोक कथाओं , किंवदंतियों इत्यादि का सहारा लेना ही पड़ता है ।साहित्यिक स्त्रोत इतिहास लेखन हेतु काफी नहीं होते। उन पर विवाद भी स्वाभाविक है क्योंकि कल्पना का पुट अधिक होता है ।
    अतः आज की स्थिति में बात उसी समय होती है जब उस पर कोई विवाद होता है अन्यथा ऐसी चीजें छुपी ही रहती है ।फिर वह सलीम अनारकली का किस्सा हो या शीरी फरहाद, लैला मजनू आदि । प्रश्न तो सभी पर खड़े किए जाते हैं । स्थानीय स्तर पर आप जाएं या प्राचीन किलो में तो आपको वहां के स्थानीय लोग और गाइड नए किस्से सुनाएंगे जो आपको बिल्कुल इतिहास की तरह दिखेंगे । इसलिए ऐसी चीजों को लेकर बहुत हार्ड एंड फास्ट नहीं होना चाहिए ।ऐसा मेरा विचार है ।
    हां शोध अवश्य होते रहने चाहिए जैसे कि हाड़ा जी ने किया है । सामान्य रूप से जिन्हें दिलचस्पी होती है या जो साहित्य इतिहास किंवदंती, लोक कथाओं इत्यादि में फर्क करना जानते हैं वे इस में रुचि लेते ही हैं।

    शरद कोकास

    Reply
    • Madhav Hada says:
      4 years ago

      आभार !

      Reply
  7. बलराम शुक्ल says:
    4 years ago

    आदरणीय हाडा सर के इस कार्य का मैं साक्षी रहा हूँ। उन्होंने संस्कृत आदि स्रोतों की प्रामाणिकता को लेकर बहुत गम्भीरता बरती है। इस प्रकार का वास्तविक शोधकार्य होता जा रहा है।

    Reply
    • Madhav Hada says:
      4 years ago

      आभार ! आपके सहयोग के बिना यह संभव नहीं था।

      Reply
  8. Anonymous says:
    4 years ago

    इतिहास और पुराणों के माध्यम से वेद का उपबृंहण या विस्तार होता है। वेद के कथा बीज इतिहास, पुराण और परवर्ती साहित्य में फैले हुए हैं। रामायण, महाभारत और सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर, वंशानुचरित के रूप में प्राचीन पौराणिक कथा सूत्र कविसमय, उन्मेष और परम्परा के साथ भारत के जातीय इतिहास को पीढी दर पीढी आगे बढाते गये। श्रुति से निकलने वाली परम्परा को अभिलेखों में ढूँढ कर उनकी अनुपलब्धि पर उसके इतिहास को नकार देने के अपने आग्रह हैं। कथा बीजों की रससिद्धि कवि कल्पना के साथ होती है । हजारों साल से कथाव्यास कथाबीज के समास का व्यास करते आ रहे हैं इसलिए इनके संवादों में कालान्तर में बहुत कुछ समाता चला गया । 8000 श्लोकों की जयसंहिता एकलाख श्लोकों में फैल कर महाभारत बन गई । भागवतों के प्रभाव से गीता आदि मूल बीज से एकाकार हो गये । सूत मागध चारण भाट इस परंपरा के निरन्तर उत्तराधिकारी रहे । देश के हर नागर ग्राम्य आदिवासी कोने में कथा सहस्राब्दियों से सहस्रमुखों से गाई और सुनाई जा रही है। ये कथायें इतिहास शोधकों या साहित्य आलोचकों के लिए नहीं अपितु जन रंजन सहित दुःखार्त शोकार्त श्रमार्त्त मनुष्यों की विश्रान्ति के लिए सुनाई जा रही हैं। यदि आपको चाहिए तो आप अपना चश्मा साफ करके इनके एडीसन तैयार कीजिए । भारतविद्या का मर्म अध्यवसाय से ही जाना जाएगा । भारतीय कसौटी पर इतिहास ढूंढने के लिए शास्त्र के साथ लोक (देसज) और प्रवाही परम्परा की समझ भी होनी जरूरी है। गोमुख से निकलकर गंगासागर जाने वाली पूरी गंगा ही है परन्तु गंगोत्री गए बिना कानपुर के गंगाजल की कसौटी पर गंगा को परखना अनुचित होगा । प्रो. माधव हाडा ने जो अत्यन्त श्रमसाध्य काम किया है वह निस्संदेह प्रशंसनीय और वर्धापनार्ह है। लोक में जगह बनाना आसान नहीं है, न तो इससे अधिक कोई उदार है और न ही निष्ठुर और निर्मम । लोक का प्रवाह सबको समेट कर बहता और बहाता है, चाहे तो किनारे भी लगा देता है । इस प्रवाह में इतिहास भी सदा से बहता चला आ रहा है, घाट सबके अपने अपने है। संग्रहणीय और शोधपूर्ण लेख के लिए हाडा जी को बधाई ।
    नीरज

    Reply
    • Madhav Hada says:
      4 years ago

      आभार!

      Reply

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